मंगलवार, 12 अगस्त 2014

ये उन दिनों की बात है...

-संजय द्विवेदी

   
   
         मुंबई में होना सच में एक सपने की तरह था। मुंबई में बिताए तीन साल सचमुच सपनों की तरह रहे और आज भी आंखों में तैरते हैं। उप्र के बस्ती शहर से निकला एक युवक मुंबई जैसे विशालकाय महानगर में अपने होने को लेकर ही अचंभित था। हमें याद हैं वे दिन जब 1997 में मुंबई से एक नए हिंदी अखबार का प्रकाशन प्रारंभ होना था। उन दिनों मैं रायपुर के एक अखबार में काम करता था, जहां समय पर वेतन के भी लाले थे। छत्तीसगढ़ के एक बड़े पत्रकार श्री बबन प्रसाद मिश्र की कृपा और आशीर्वाद से मुझे उस नए अखबार के मुंबई संस्करण में काम करने का अवसर मिला।
इन मुंबईः
जब मैं मुंबई पहुंचा तो यहां भी मेरे कई दोस्त और सहयोगी पहले से ही मौजूद थे। इन दिनों एबीपी न्यूज, दिल्ली में कार्यरत रघुवीर रिछारिया उस समय मुंबई में ही थे। वे स्टेशन पर मुझे लेने आए और संयोग ऐसा बना कि मुंबई के तीन साल हमने साथ-साथ ही गुजारे। यहां जिंदगी में गति तो बढ़ी पर उसने बहुत सारी उन चीजों को देखने और समझने का अवसर दिया, जिसे हम एक छोटे से शहर में रहते हुए महसूस नहीं कर पाते। मुंबई देश का सबसे बड़ा शहर ही नहीं है, वह देश की आर्थिक धड़कनों का भी गवाह है। यहां लहराता हुआ समुद्र, अपने अनंत होने की और आपके अनंत हो सकने की संभावना का प्रतीक है। यह चुनौती देता हुआ दिखता है। समुद्र के किनारे घूमते हुए बिंदास युवा एक नई तरह की दुनिया से रूबरू कराते हैं। तेज भागती जिंदगी, लोकल ट्रेनों के समय के साथ तालमेल बिठाती हुई जिंदगी, फुटपाथ किनारे ग्राहक का इंतजार करती हुई महिलाएं, गेटवे पर अपने वैभव के साथ खड़ा होटल ताज और धारावी की लंबी झुग्गियां मुंबई के ऐसे न जाने कितने चित्र हैं, जो आंखों में आज भी कौंध जाते हैं। सपनों का शहर कहीं जाने वाली इस मुंबई में कितनों के सपने पूरे होते हैं यह तो नहीं पता, पर न जाने कितनों के सपने रोज दफन हो जाते हैं। यह किस्से हमें सुनने को मिलते रहते हैं। लोकल ट्रेन पर सवार भीड़ भरे डिब्बों से गिरकर रोजाना कितने लोग अपनी जिंदगी की सांस खो बैठते हैं इसका रिकार्ड शायद हमारे पास न हो, किंतु शेयर का उठना-गिरना जरूर दलाल स्ट्रीट पर खड़ी एक इमारत में दर्ज होता रहता है। यहां देश के वरिष्ठतम पत्रकार और उन दिनों नवभारत टाइम्स के संपादक विश्वनाथ सचदेव से मुलाकात अब एक ऐसे रिश्ते में बदल गई है, जो उन्हें बार-बार छत्तीसगढ़ और मप्र आने के लिए विवश करती रहती है। विश्वनाथ जी ने पत्रकारिता के अपने लंबे अनुभव और अपने जीवन की सहजता से मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनके पास बैठकर मुझे यह हमेशा लगता रहा कि एक बड़ा व्यक्ति किस तरह अपने अनुभवों को अपनी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करता है।
प्यार..दोस्ती और मस्तीः
इस शहर में हमने दोस्तियां की, आवारागर्दी की और मस्ती की। लहराते समुद्र के किनारे हाथ में हाथ डाले कितनी शामें गुजारीं तो वीकली आफ पर कई फिल्में एक साथ देखीं। फिल्में चुनकर नहीं देखीं, जो लगीं थीं, वही देख लीं। ये अजीब सा पागलपन था। पानी में भीगते हुए न जाने कितनी सुबहें और शामें गुजारीं। पहले कोपरखैरणे से, बाद में नालासोपारा से ट्रेन पकड़ कर सीएसटी आना और चर्चगेट होते हुए मरीन ड्राईव की सैर करना। कई बार समय बिताने के लिए जहांगीर आर्ट गैलरी के अबूझ चित्रों को देखना भी इसमें शामिल था। ये दिन आराम के दिन न थे। थकान के दिन न थे। एक खास आयु में किए जाने वाले हर शौक को हम फरमा रहे थे। कल का पता न था, बस मस्ती से जिए जा रहे थे... बिंदास और बेधड़क। हमें हमेशा लगता रहा कि चीजें हमारे अनूकूल हो रही हैं और इस जमाने में हमारा भी नाम होगा। लड़कियां आफिस हो सड़क, हमेशा अच्छी लगती रहीं और हमेशा ये लगता रहा कि ये न होतीं तो दुनिया कितनी बदरंग और बेमतलब  होती। मुंबई में गुजरे तीन साल ऐसी ही धूप-छांव के साल थे। जहां प्यार..दोस्ती और मस्ती का मेल था। शायद इसीलिए मुंबई की सोचता हूं तो एक पंक्ति याद आती है- ये उन दिनों की बात है..जब पागल-पागल फिरते थे।
अखबारी नौकरी और दोस्तों की फौजः
   यहां मेरे संपादक के नाते कार्यरत स्व. श्री भूपेंद्र चतुर्वेदी का स्नेह भी मुझे निरंतर मिला। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी कर्मठता, काम के प्रति उनका निरंतर उत्साह मुझे प्रेरित करता है। उसी दौरान पत्रकारिता से जुड़े सर्वश्री राघवेंद्र नाथ द्विवेदी, मनोज दुबे, कमल भुवनेश, अरविंद सिंह, केसर सिंह बिष्ट, अजय भट्टाचार्य, विमल मिश्र, सुधीर जोशी, विनीत चतुर्वेदी जैसे न जाने कितने दोस्त बने, जो आज भी जुड़े हुए हैं। मुंबई में काम करने के अनेक अवसर मिले। उससे काम में विविधता और आत्मविश्वास की ही वृध्दि हुई। यह अनुभव आपस में इतने घुले-मिले हैं कि जिसने एक पूर्ण पत्रकार बनाने में मदद ही की। मुंबई में रहने के दौरान ही वेब पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ, जिसमें अनेक हिंदी वेबसाइट का भी काम प्रारंभ हुआ। वेबदुनिया, रेडिफ डाटकाम, इन्फोइंडिया डाटकाम जैसे अनेक वेबसाइट हिंदी में भी कार्य करती दिखने लगीं। हिंदी जगत के लिए यह एक नया अनुभव था। हमारे अनेक साथी इस नई बयार के साथ होते दिखे, किंतु मैं साहस न जुटा पाया। कमल भुवनेश के बहुत जोर देने पर मैंने इन्फोइंडिया डाटकाम में चार घंटे की पार्टटाइम नौकरी के लिए हामी भरी। जिसके लिए मुझे कंटेन्ट असिस्टेंट का पद दिया गया। वेब पत्रकारिता का अनुभव मेरे लिए एक अच्छा अवसर रहा, जहां मैंने वेब पत्रकारिता को विकास करते हुए देखा। आज वेब पत्रकारिता किस तरह मुख्यधारा की पत्रकारिता से होड़ कर रही है उसके पदचाप हमने सन 2000 में सुन लिए थे।
   मुंबई के वे दिन आज भी याद आते हैं और यह बताते हैं कि एक शहर कैसे अपने साथ इतने सपनों को लिए जी सकता है। मुंबई में होने का अहसास आज भी यादों को हरा-भरा कर देता है। दोस्तों के साथ गुजरा समय बार-बार याद आता है। ये स्मृतियां अनुभवों में बहुत सघन हैं और गुजरे वक्त के साथ बातचीत करती रहती हैं। बहुत से शहरों में रहने, जीने और होने के बाद भी मुंबई में होना एक सुखद अहसास की तरह जिंदा है। दोस्त आज भी उसी जिंदादिली से मिलते हैं, मुंबई में रहने वाले तो युवा बने ही रहते हैं। जिंदगी की जद्दोजहद उन्हें शहर के लायक बना ही लेती है। मुंबई यूं चलती रहे.. बिना ठहरे..बिना रूके। जिंदगी और उसकी धड़कनों की तरह।

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