-संजय द्विवेदी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के
सरसंघचालक मोहन भागवत पर इस समय देश की राजनीतिक पार्टियां खासी नाराज हैं। विवाद
एक शब्द को लेकर है कि उन्होंने हिंदुस्तान में रहने वालों को ‘हिंदू’ क्यों
कहा। जाहिर तौर पर प्रथम दृष्ट्या यह विवाद सिर्फ शब्दों का मामला नहीं है, यह मामला राजनीति का है और इसकी राजनीतिक
व्याख्या का भी है। किंतु हमें यह देखना होगा कि आखिर
सरसंघचालक ने क्या कोई नई बात कही है। यह तो वही बात है जो संघ के नेता अपनी
स्थापना के साल 1925 से ही कहते आ रहे हैं।
संघ के लिए हिंदू एक
धर्मवाचक प्रयोग नहीं है, वह इसके वृहत्तर सांस्कृतिक अर्थ का ही उपयोग लंबे समय
से करता आ रहा है। द्वंद इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि आज संघ का एक पूर्व प्रचारक
प्रधानमंत्री के पद पर आसीन है। इसलिए संघ की सामान्य व्यवहार की शब्दावली को भी
विवादों में घसीटा जा रहा है। हर देश की एक सांस्कृतिक पहचान और उसके जीवन मूल्य
होते हैं। पूजा पद्धति के बदलने से सांस्कृतिक पहचान, जीवन मूल्य और पूर्वज नहीं
बदलते। जड़ता नहीं, निरंतर प्रवाह यह भारतीय संस्कृति का उत्स और मूल है। इस भूमि
पर रहने वाला,यहां की हवा-पानी में सांस लेने वाला प्रत्येक नागरिक यहां का
भूमिपुत्र है। इसे बहुत भावुक होकर ही भारतमाता कहा गया। संभव है कुछ लोगों को
भारतमाता का विचार भी पसंद न आए। किंतु घरती और उसके पुत्र, यह एक सांस्कृतिक
विचार है। जन्म देने वाली माता के साथ घरती माता और गौ माता यह विचार किसी को
अस्वीकार्य हो सकता है,पर यह भारतीय विचार है। इसी तरह संघ की अपनी वैचारिक
मान्यताएं हैं। सब इससे सहमत हों या जरूरी नहीं, हिंदू शब्द का इस्तेमाल एक
सांस्कृतिक परंपरा, इतिहास के उत्तराधिकारियों के रूप में संघ करता है। इस अर्थ
में यह धार्मिक नहीं, एक सांस्कृतिक पद है। तमाम लोगों को इससे आपत्ति भी नहीं रही
है। किंतु कुछ को शब्दों के पीछे पड़ने और राजनीति सूंघने का आदत है, वे इसके
शिकार भी हैं। मोहन भागवत जो बात कह रहे हैं वह उनके जैसे संघ के करोड़ों समर्थक
वर्षों से कह रहे हैं। इस वक्त क्योंकि भाजपा सत्ता में है और नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री हैं तो यह विचार एक धार्मिक आक्रमण सरीखा दिख रहा है। समस्या यह है
कि एक राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी और एक सांस्कृतिक संगठन की सीमाओं को एक
कर देखा जा रहा है। दोनों दो कामों के लिए बने और कार्यरत हैं। यहां यह भी समझना
होगा भारत का हिंदू राष्ट्र कोई धर्मराज्य नहीं है। यहां सब पंथों को समान रूप से
काम करने, अपनी पूजा-उपासना करने की आजादी है। इसलिए मिथ्या भय से वैचारिक आतंक
पैदा करने की कोशिशें उचित नहीं कही जा सकती हैं।
हमें देखना होगा कि क्या
भारत जैसा उदार लोकतंत्र पूरी इस्लामिक पट्टी में कहीं मौजूद है। जो दूसरे पंथों
से सद्भभाव के साथ रहता हुआ दिखता हो। ईराक के उदाहरण हमारे सामने हैं जहां एक पंथ
के पोषित आतंकवाद से पूरा देश तबाह हो चुका है। हिंसा, आतंक के आधार पर विस्तार करने वाले पंथ या विचार अलग ही
होते हैं। उनका काम करने का तरीका दिखता है और आज वे पूरी मानवता के लिए चुनौती
हैं। हिंदुत्व का विचार “मैं ही” के
दर्शन को नहीं मानता उसकी सोच है “मैं ही
नहीं, तू भी” । यह एक समन्वयवादी विचार है। जो सबको साथ लेकर
चलने और समूची मानवता के कल्याण की बात करता है। ‘सर्वे
भवंतु सुखिनः’ जिसका घोषमंत्र है और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जिसकी
प्रेरणा है। जिसके धार्मिक कवि भी कहते हैं- ‘परहित
सरिस घरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।‘ ऐसे
विचार को अतिवादी कहना और बताना अपराध है। मोहन भागवत इसी भारतीय औदार्य के
प्रतिनिधि हैं। वे यह कहना चाह रहे हैं कि उनके लिए भारत की भूमि पर रहने वाला हर
नागरिक भारत मां का पुत्र है, उसके अधिकार और कर्तव्य इस घरती के लिए समान हैं।
उनकी इस भावना को ‘हिंदू’ शब्द
के आधार पर गलत तरीके से व्याख्यायित करना ठीक नहीं है। आलोचना का,विचार का,विमर्श
का स्तर भी क्या है। आप उन्हें हिटलर कह रहे हैं। अपने प्रधानमंत्री को हिटलर कह
रहे हैं। इस देश की जनता के अपमान का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। मुस्लिम
तुष्टीकरण का मंत्र फेल होने के बावजूद चीजें लौटकर वहीं आ जाती हैं। भागवत के
आलोचकों से पूछना चाहिए कि वे उनकी आलोचना क्यों कर रहे हैं। अगर उनका वक्तव्य किसी
प्रकार की ताकत नहीं रखता तो उसे नजरंदाज क्यों नहीं करते। किंतु उन्हें पता है
भागवत और आरएसएस का भूत दिखाकर शायद वे दो-चार मुस्लिम वोट पा जाएं। आश्चर्य है कि
अभी भी आंखों से परदा नहीं हटा है। देश एक नई यात्रा पर निकल पड़ा है और हमारी
राजनीति अभी भी उन्हीं मानकों पर खडी राजनीति की रोटियां सेंकना चाहती है।
क्या हम तटस्थ होकर विषयों
का विश्लेषण नहीं कर सकते हैं? क्या हमें देश को
जोड़ने के लिए प्रयत्न तेज नहीं करने चाहिए? आखिर
हमारी राजनीति और मीडिया का जोर समाज को तोड़ने पर क्यों है? क्यों हम चीजों को संदर्भों से काटकर वातावरण
बिगाड़ना चाहते हैं? हमें पता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक
हिंदू संगठन है। हमें यह भी पता है कि उसने मुस्लिम समाज से संवाद बनाने के लिए
राष्ट्रीय मुस्लिम मंच नामक एक संगठन की स्थापना की है। रिश्तों में जमी बर्फ अब
पिधल रही है। मुस्लिम समाज भी अब अलग ढंग से सोच रहा है और बदलते भारत की
आकांक्षाओं से साथ खुद को स्थापित कर रहा है। उसकी इन कोशिशों को बढ़ाने और उसका
मनोबल बढ़ाने के बजाए राजनीति विभाजनों को गहरा करने के कोई अवसर नहीं छोड़ना
चाहती है। हिंदुस्तान की घरती पर रहने वाले लोगों ने एक साथ अंग्रेजों के खिलाफ
लड़ाई लडी, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
आरएसएस और जमाते इस्लामी के लोगों ने साथ में मिलकर देश को आपातकाल के काले दिनों
से मुक्ति दिलाई। आज उसी आम हिंदुस्तानी ने दस साल के भ्रष्ट शासन से भी मुक्ति
दिलाई है। इस बदलाव को गहरे महसूस करने और आम हिंदुस्तानी के सपनों को समझने की
जरूरत है। वह एक समर्थ भारत देखना चाहता है। एक वैभवशाली राष्ट्र को देखना चाहता
है। काश्मीर से कन्याकुमारी तक सारा हिंदुस्तान इस भूमि के प्रति एक सरीखा भाव
रखता है। यह भूमि सबकी साझा है। सबकी मां है। इस विचार से नफरत करने वालों को भी
यह भारत मां अपने आंचल में जगह देती है। क्योंकि बेटा बिगड़ जाए तो भी मां की
भावनाएं तो बेटे के लिए संवेदना भरी ही होंगीं। मोहन भागवत के बोले एक शब्द पर मत
जाईए, उनके भाषण के पूरे संदर्भ को सांस्कृतिक संदर्भ में पढिए तो समस्या दूर हो
जाएगी। राजनीतिक और धार्मिक संदर्भ में पढ़िएगा तो समस्या बढ़ जाएगी। किंतु कुछ
लोगों को संवाद, सार्थक संवाद और सुसंवाद में नहीं, समस्याओं को बढ़ाने और विवाद
को वितंडावाद बनाने में मजा आता है। उन्हें भी इस लोकतंत्र में यह करने की आजादी
है। कीजिए ,खूब कीजिए... पर यह मत समझिए कि लोग बहुत नादान हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
यह देश मेरा है इस भाव का नाम है 'देशप्रेम'! मैं इस देश का हूँ इस भाव का नाम है 'देशभक्ति' ! यह समाज मेरा है ।इस भाव का नाम है "राष्ट्रप्रेम, मेरा जीवन इस समाज का है इस भाव का नाम है ' राष्ट्रभक्ति' । इस देश को केवल भारत ही नहीं तो "भारतमाता" माननेवाला "हिन्दू", हिन्दू का राष्ट्र हिन्दुराष्ट्र
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