-संजय द्विवेदी
भारतीय समाज में शिक्षा समाज द्वारा पोषित और
गुरूजनों द्वारा संचालित रही है। सरकार या राज्य का हस्तक्षेप शिक्षा में कभी नहीं
रहा। बदले समय के अनुसार सरकार और राज्य इसे चलाने और पोषित करने लगे। किंतु भावना
यही रही कि इसकी स्वायत्ता बनी रहे। शिक्षा का यह बदलता दौर एक नई तरह की समस्याएं
लेकर आया है, आज की शिक्षा सरकार से आगे बाजार तक जा पहुंची है। यह शिक्षा समाज के
सामाजिक नियंत्रण से मुक्त है और सरकारें भी यहां अपने आपको बेबस पा रही हैं।
निजी स्कूलों से शुरू ये
क्रम अब निजी विश्वविद्यालयों तक फैल गया है। निजी क्षेत्र में शिक्षा का होना
बुरा नहीं है किंतु अगर वह समाज में दूरियां बढ़ाने लगे, पैसे का महत्व स्थापित
करने लगे और कदाचार को बढ़ाए तो वह बुरी ही है। आजादी के पूर्व और बहुत बाद तक
निजी क्षेत्र के तमाम सम्मानित नागरिक, राजनेता और व्यापारी शिक्षा के क्षेत्र के
लिए अपना योगदान देते थे। बड़ी-बड़ी संस्थाएं खड़ी करते थे, किंतु सोच में व्यापार
नहीं सेवा का भाव होता था। आज जो भी लोग शिक्षा के क्षेत्र में आ रहे हैं वे
व्यापार की नियति से आ रहे हैं। उन्हें लगता है कि शिक्षा का क्षेत्र एक बडा लाभ
देने वाला क्षेत्र है। व्यापारिक मानसिकता के लोगों की घुसपैठ ने इस पूरे क्षेत्र
को गंदा कर दिया है। आज भारत में एक दो नहीं कितने स्तर की शिक्षा है कहा नहीं जा
सकता। सरकारी क्षेत्र को व्यापार की और बाजार की ताकतें ध्वस्त करने पर आमादा हैं।
राजनीति और प्रशासन इस काम में उनका सहयोगी बना है। नीतियों निजी क्षेत्रों के
अनूकूल बनायी जा रही हैं और सरकारी शिक्षा केंद्रों को स्लम में बदल देने की
रणनीति अपनायी जा रही है। यह दुखद है कि हमारी सरकारी प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह
नष्ट हो चुकी है। माध्यमिक शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में भी बाजार के बाजीगर हावी
हो चुके हैं और अब नजर उच्च शिक्षा पर है। उच्चशिक्षा में हमारे सरकारी
विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम आज भी एक स्तर रखते हैं। उनके बौद्धिक क्षेत्र में
योगदान को नकारा नहीं जा सकता। कई विश्वविद्यालय आज भी वैश्विक मानकों पर खरे हैं
और बेहतर काम कर रहे हैं। देश की बौद्धिक चेतना और शोधकार्यों को बढ़ाने में उनका
एक खास योगदान है। किंतु जाने क्या हुआ है कि सरकारों का अचानक उच्चशिक्षा के
क्षेत्र में कार्यरत अपने इस विश्वविद्यालयों से मन भर गया। आज वे निजी क्षेत्र को
बहुत आशा से निहार रहे हैं। निजी क्षेत्र किस मानसिकता से उच्चशिक्षा के क्षेत्र
में आ रहा है, उसके इरादे बहुत साफ हैं। सरकारी विश्वविद्यालयों में अरसे से शिक्षकों की
नियुक्ति नहीं हो रही है। सरकारी कालेज संसाधनों के अभाव में पस्तहाल हैं। दूसरी
तरफ नीतियां अपने सरकारी विश्वविद्यालों और कालेजों को ताकतवर बनाने के बजाए निजी
क्षेत्र को ताकतवर बनाने की हैं। क्या हम सरकारी उच्चशिक्षा के क्षेत्र को भी
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की तरह जल्दी ही स्लम में नहीं बदल देगें,यह एक बड़ा
सवाल है। राजनीतिक घुसपैठ, सब तरह आर्थिक कदाचार, नैतिक पतन के संकट से हमारे
विश्वविद्यालय जूझ रहे हैं। उन्हें ताकतवर बनाने के बजाए और बीमार करने वाला इलाज
चल रहा है।
शिक्षक लें जिम्मेदारीः
ऐसे कठिन समय में शिक्षकों को आगे आना होगा। अपने कतर्व्य की श्रेष्ठ
भूमिका से उन्हें अपने विश्वविद्यालयों और कालेजों को बचाना होगा। अपने प्रयासों
से शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ानी होगी ताकि अप्रासंगिक हो रही क्लास रूम टीचिंग के
मायने बचे रहें। उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों की यह बड़ी
जिम्मेदारी है कि वे अपने परिसरों को जीवंत बनाएं और छात्र-अध्यापकों की
पुर्नव्याख्या करें। सिर्फ वेतन गिनने और काम के घंटों का हिसाब करने के बजाए वे
अपने आपको नई पीढ़ी के निर्माण में झोंक दें। यही एक रास्ता है जो हमें निजी
क्षेत्र के चमकीले आकर्षण से बचा सकता है। आज भी व्यक्तिगत योग्यताओं के सवाल पर
हमारे विश्वविद्यालय श्रेष्ठतम मानवसंसाधन के केंद्र हैं। किंतु अपने कर्तव्यबोध
को जागृत करने और अपना श्रेष्ठ देने की मानसिकता में कमी जरूर आ रही है। ऐसे में
हमें देखना होगा कि हम किस अपने लोगों को न्याय दे सकते हैं। संकट यह है कि आज का
शिक्षक कक्षा में बैठे छात्र तक भी नहीं पहुंच पा रहा है। उसके उसकी बढ़ती दूरी कई
तरह के संकट पैदा कर रही है।
विद्यार्थियों की जीवंत पीढ़ी खड़ी करें शिक्षकः
विश्वविद्यालय परिसरों में राजनीतिक ताकतों का बढ़ता हस्तक्षेप नए तरह
के संकट लाता है। शिक्षा की गुणवत्ता इससे प्रभावित हो रही है। इसे बचाना शिक्षकों
की ही जिम्मेदारी है। वही अपने छात्रों को न्याय दे सकता है, जीवन के मार्ग दिखा
सकता है। आज के समय में युवा और छात्र समुदाय एक गहरे संघर्ष में है। उसके जीवन की
चुनौतियों काफी कठिन है। बढ़ती स्पर्धा, निजी क्षेत्रों की कार्यस्थितियां,
सामाजिक तनाव और कठिन होती पढ़ाई युवाओं के लिए एक नहीं कई चुनौतियां है। कई तरह
की प्राथमिक शिक्षा से गुजर कर आया युवा उच्चशिक्षा में भी भेदभाव का शिकार होता
है। भाषा के चलते दूरियां और उपेक्षा है तो स्थानों का भेद भी है। अंग्रेजी के
चलते हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों की हीनभावना तो चुनौती है ही। आज के
युवा के पास तमाम चमकती हुयी चीजें भी हैं, जो जाहिर है सबकी सब सोना नहीं हैं।
उसके संकट हमारे-आपसे बड़े और गहरे हैं। उसके पास ठहरकर सोचने का अवकाश और एकांत
भी अनुपस्थित है। मोबाइल और मीडिया के हाहाकारी समय ने उसके स्वतंत्र चिंतन की
दुनिया भी छीन ली है। वह सूचनाओं से आक्रांत तो है पर काम की सूचनाएं उससे कोसों
दूर हैं। ऐसे कठिन समय में वह एक बेरहम समय से मुकाबला कर रहा है। बताइए उसे इन
सवालों के हल कौन बताएगा?
जाहिर तौर पर शिक्षा के क्षेत्र को बचाने
की जिम्मेदारी आज शिक्षक समुदाय पर है। शिक्षक ही राष्ट्रनिर्माता हैं और इसलिए आज
की चुनौतियों से लड़ने तथा अपने विद्यार्थियों को तैयार करने की जिम्मेदारी हमारी
ही है। शिक्षक दिवस पर यह संकल्प अध्यापकों व विद्यार्थियों को ही लेना होगा तभी
शिक्षा का क्षेत्र नाहक तनावों से बच सकेगा। उम्मीद की जानी कि शिक्षा के
व्यापारीकरण के खिलाफ समाज और सरकार भी सर्तक दृष्टि रखेंगी।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता
विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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