तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का जेल जाना एक ऐसी सूचना है जो कानून के
प्रति आदर बढ़ाती है। यह बात बताती है कि आप कितने भी शक्तिमान हों, कानून की नजर
में आ जाने पर आपका बचना मुश्किल है। एक सक्षम प्रशासक, जनप्रिय राजनेता और
प्रभावी हस्ती होने के बावजूद जयललिता को जेल जाना पड़ा। उन पर सौ करोड़ रूपए का
जुर्माना भी लगाया गया है। कानून की यह ताकत ही किसी भी लोकतंत्र का प्राणतत्व है।
झारखंड के मुख्यमंत्री रहे मधु कौडा, शिबू सोरेन, बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू
प्रसाद यादव,कांग्रेस नेता रशीद मसूद, सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत राय, संत
आशाराम बापू जैसे तमाम उदाहरण हमारे आसपास दिखते हैं, जिसमें कानून ने अपनी शक्ति
और निष्पक्षता का अहसास कराया है। ताकतवर लोग आज भले जेल के सीकचों के पीछे दिखते
हैं किंतु इससे यह कहा नहीं जा सकता कि ये सिलसिला रूक जाएगा। हमारे राजनीतिक और
सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां और वातावरण भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भ्रष्ट आचरण
के लिए विवश कर रहा है। ऐसे में हमें उन विचारों की तरफ बढ़ना चाहिए जिससे राजनीति
में धन का महत्व कम हो और सेवा के मूल्य स्थापित हों। वर्तमान व्यवस्था में तो
राजनेताओं से शुचिता, सादगी की अपेक्षा करना संभव नहीं है।
मदांध आचरण का
फलितार्थः
यह घटना
सार्वजनिक जीवन में काम करने वाली हस्तियों के लिए एक संदेश भी है कि सत्ता और
प्रभाव के नशे में चूर होकर मदांध आचरण कभी भी आपको आपकी सही जगह पहुंचा सकता है।
देर के बावजूद कानून के राज में अंधेर नहीं है। चीजें पुख्ता होकर आपके खिलाफ खड़ी
हो ही जाती हैं। कहा भी जाता है कि “सत्ता पाए केहि मद नहीं।” सत्ता और प्रशासन
में बड़े पदों पर बैठे लोग जिस तरह मदांध होकर आचरण करते हैं,कानूनों को अपने
हिसाब से बनाते और इस्तेमाल करते हैं उससे बड़ा खतरा खड़ा होता है। जयललिता
मुख्यमंत्री के रूप में सरकारी खजाने से मात्र एक रूपए वेतन लेती थीं, किंतु उनका
निजी खजाना बढ़ता ही रहा । ऐसी सूचनाएं विस्मित भी करती हैं और ऐसी ईमानदारी को
प्रश्नांकित भी करती हैं। एक प्रशासक और लोकप्रिय नेता के रूप में आज भी अपने समर्थकों
के लिए वे पूज्य हैं। किंतु निजी ईमानदारी का सवाल आज सबसे बड़ा है। जनता के बीच
उनकी छवि उन्हें एक लोकनेता से ईश्वर का अवतार तक बनाती हुयी दिखती है। यह उनके
समर्थकों का अधिकार भी है। किंतु यहां यह देखना होगा कि सत्ता का दुरूपयोग करते
हुए हमारे राजनेता किस तरह सार्वजनिक धन को निजी संपत्ति में बदलने की प्रतियोगिता
में लगे हैं। इस मामले में शशिकला और मुख्यमंत्री के परित्यक्त दत्तक पुत्र को चार
साल की कैद और दस-दस करोड़ का जुर्माना लगाया गया है।यह बात बताती है किस तरह
मुख्यमंत्री के आसपास रहे लोगों ने भी जमकर पैसे की बंदरबांट की है या जयललिता के
पद पर होने का लाभ उठाया है। राजनीतिक क्षेत्र की यह आम कथा है कि लोग पहले नेता
पर पैसे लगाते हैं फिर उसके सफल होने पर उसके
प्रभाव का जमकर लाभ उठाते हुए जायज-नाजायज तरीकों से धन का अर्जन करते हैं।
देश भर से सार्वजनिक धन, जमीनों, खदानों, दूकानों, मकानों और उद्योगों के लूट की
कहानियां आ रही हैं। किंतु सिलसिला रूकने के बजाए तेज हो रहा है।
पैसे की प्रकट
पिपासाः
कभी सार्वजनिक जीवन में आने वाले लोग
मस्तमौला, बिंदास और साधारण जीवन जीने वाले लोग होते थे। उनके जीवन की सादगी से
कार्यकर्ता प्रेरित होते थे और उनसा बनने-दिखने का प्रयास करते थे। महात्मा गांधी
ने सादगी को भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित किया तो कांग्रेस के विरोधी
विचारों के नेता राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय जैसे तमाम लोग भी इसे
स्वीकारते दिखे। कांग्रेसी, समाजवादी, साम्यवादी, जनसंध की हर धारा के नायक सादगी
और सज्जनता की प्रतिमूर्ति थे। उनके सार्वजनिक और निजी जीवन में सादगी का
प्रगटीकरण दिखता है। बहुत बड़े और धनी परिवारों से आए राजनेता भी सादगी में लिपटे
होते थे। खद्दर के साधारण कपड़े उनकी पहचान बन जाते थे, सेवा ही उनका काम। राजनीति
से यह सादगी आज लुप्त होती दिखती है। नेताओं का वैभव बढ़ने लगा और उनकी संपत्ति
भी। सार्वजनिक धन को निजी धन में तब्दील करने की यह स्पर्धा आज चरम पर है। खासकर
उदारीकरण के बाद के दौर में राजनीतिक क्षेत्र में विकृति के किस्से आम होने लगे।
मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और विचारक राजनेता पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र कहा
करते थे कि “जिस व्यक्ति को राजनीति करनी हो उसे व्यापार नहीं करना चाहिए और जिसे
व्यापार करना हो उसे राजनीति नहीं करनी चाहिए।”किंतु में एक
ऐसी पीढ़ी आयी जिसके लिए राजनीति ही एक व्यापार बन गयी। आज सौ-हजार करोड़ जमा करने
की प्रतियोगिता में ज्यादातर राजनेता शामिल हैं। उनकी नामी-बेनामी सपत्तियां बढ़ती
जा रही हैं, शर्म घटती जा रही है। पैसे बांटकर चुनाव जीतने की स्पर्धा चरम पर है।
वोटबैंक इसमें उनका मददगार बनता है।
महंगी होती राजनीतिः
सार्वजनिक जीवन से यह सादगी और शुचिता के
निर्वासन का समय है। महंगी होती राजनीति, महंगे होते चुनाव आज की एक बड़ी चुनौती
हैं। किसी पद पर न रहने वाले राजनेता के लिए रोजाना की राजनीति का खर्च भी निकालना
कठिन है। बड़ी गाड़ियां, रोजाना के खर्च, खुद को बाजार में बनाए रखने के लिए चमकते
फ्लैक्स और अखबारी विज्ञापन की राजनीति कष्टसाध्य है। आज की राजनीति में पैसे का
बढ़ता महत्व चिंता में डालता है। राजनीति के शिखरपुरूषों का आज बेदाग रहना कठिन
है।पार्टियों के संचालन में लगने वाला खर्च बताता है कि चीजें साधारण नहीं रह गयी
हैं।लोकतंत्र की मंडी में राजनीति अब साधारण नहीं है। आप देखें तो राज्यों का
नेतृत्व तमाम आरोपों से घिरा है। स्थानीय और छोटी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर
ऐसे आरोप ज्यादा दिखते हैं। क्या कारण है टिकट से लेकर वोट भी खरीदे और बेचे जाते
हैं। राजनीति की यह अवस्था चिंता में डालती है। जब हमारे नायक ही ऐसे होंगें तो वे
समाज को क्या प्रेरणा देंगें। वे देश में शुचिता की राजनीति को कैसे स्थापित
करेंगें? मधु
कौड़ा से लेकर लालू यादव और जयललिता तक एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। सवाल यह
भी है कि क्या बिना पैसे के राजनीति की जा सकती है। सवाल यह भी है कि काले पैसे से
बनता और सृजित होता लोकतंत्र कैसे वास्तविक जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर सकता है?
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