मंगलवार, 16 सितंबर 2014

सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है?

यह सवाल आज फिर मौजूं हो उठा है कि आखिर सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है? देश के तमाम इलाकों में घट रही घटनाएं बताती हैं कि समाज में नैतिकता और समझदारी के बीज अभी और बोने हैं। हिंसा कर रहे समूह, या हिंसक विचारों को फैला रहे गुट आखिर यह हिंसा किसके खिलाफ कर रहे हैं? वे किसके खिलाफ लड़ रहे हैं? मानवता के मूल्यों और धार्मिकता को भूलने से ही ऐसे मामले खड़े होते हैं। कभी देश की राजनीति को दिशा देने वाले उत्तर प्रदेश ने अपना चेहरा इस मामले में सबसे अधिक बदरंग किया है। 
उत्तर प्रदेश में आए दिन हो रही हिंसक वारदातें बता रही हैं कि लोगों में कानून का, प्रशासन का खौफ नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह कि राजसत्ता ही इन वृत्तियों को बढ़ाने में सहायक बन रही है। राजसत्ता का यह चरित्र बताता है कि कैसे समय बदला है और कैसे राजनीति बदल रही है। एक चुनाव से दूसरा चुनाव और एक उपचुनाव से दूसरा उपचुनाव यही आज की राजनीति के लक्ष्य और संधान हैं। इसमें जनता की गोलबंदी जनता के एजेंडे पर नहीं, उसके विरूद्ध की जा रही है। जनता को यह नहीं बताया जा रहा है कि आखिर उसके सपनों की दुनिया कैसे बनेगी, कैसे भारत को एक समर्थ देश के रूप में तब्दील किया जा सकता है? उसे पंथ के नारों पर भड़काकर, उसके धर्म से विलग किया जा रहा है। यह वोट बैंक बनाने की राजनीति इस राष्ट्र की सबसे बड़ी शत्रु है।
बांटो और राज करोः
  अंग्रेजी राज ने हमें कुछ सिखाया हो या न सिखाया हो, बांटना जरूर सिखा दिया है। ‘एक राष्ट्र और एक जन’ के भाव से विलग हम एक राष्ट्र में कितने राष्ट्र बनाना चाहते हैं? देश की आम जनता के मनोभावों को विकृत कर हम उनमें विभेद क्यों भरना चाहते हैं? क्या हमारी कुर्सियों की कीमत इस देश की एकता से बड़ी है? क्या हमारी राजनीति लोगों के लिए नहीं, कुर्सियों के लिए होगी? ऐसे तमाम सवाल हैं जो हमारे समाज को मथ रहे हैं। हम एक परिवार और एक माता के पुत्र हैं, यही भावना हमें बचा सकती है। 
हम भारत के लोग अपनी एकता और अखंडता के लिए जब तक कृतसंकल्पित हैं, तभी तक यह देश सुरक्षित है। यह कैसा समय है कि हमारे नौजवान खून बहाते ईराकी लड़ाकों की मदद के लिए निकल जाते हैं? क्या हमारी मातृभूमि अब खून बहाने वाले हत्यारों को जन्म देगी? हमें सोचना होगा कि आखिर यह जूनुन हमारे समाज को कहां ले जाएगा? गौतम बुद्ध,गांधी और महावीर के देश में यह कैसा जहर पल रहा है। हमने दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाया है। अपने भारतीय दर्शन में सबके लिए जगह दी है। विरोधी विचारों को भी स्वीकारा और अंगीकार किया है। आखिर क्या कारण है कि यह आतंक, हिंसा और तमाम तरह की दुश्चितांएं हमारे देश को ग्रहण लगा रही हैं?
एक राष्ट्र-एक जन का भाव जगाएः
 हमारी आज की राजनीति भले फूट डालने वाली हो, किंतु हमारे नायक हमें जोड़ना सिखाते हैं। महात्मा गांधी, डा. राममनोहर लोहिया से लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सिखाए पाठ हमें बताते हैं कि किस तरह हम एक मां के पुत्र हैं। किस रास्ते से हम दुनिया के सामने एक वैकल्पिक और शांतिपूर्ण समाज का दर्शन दे सकते हैं। हमें ये नायक बताते हैं कि हमारी जड़ों और उसकी पहचान से ही हमें यह अवसर मिलेगा कि हम कैसे खुद को एक नई यात्रा पर डाल सकें। दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन, इसी की बात करता है। वे भारत राष्ट्र की संकल्पना करते हुए ‘एक राष्ट्र -एक जन’ की बात करते हैं। यह बहुत गहरी बात है। जब हम सब एक मां के बेटे हैं, एक मां के पुत्र हैं। तो हम सब भाई-बहन हैं। हमारे पुरखे, हमारे नायक, हमारी आकांक्षाएं, हमारे सपने समान हैं। अगर हम यह मान लें तो सांप्रदायिकता की समस्या का अंत तुरंत हो जाएगा। किंतु सांप्रदायिक सवालों पर हम चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं। हमें यह मानने में आज भी हिचक है कि सांप्रदायिकता-सांप्रदायिकता है, उसका रंग अलग-अलग नहीं होता। सांप्रदायिकता मुस्लिम हो या हिंदू, वह सांप्रदायिकता है। दंगाईयों को अलग-अलग रंगों से देखने और व्यवहार करने के कारण सत्ता और राजनीति दोनों प्रश्नांकित होते हैं। 
कानून को अगर अपना काम करने दिया जाए और सांप्रदायिकता फैला रहे तत्वों के साथ कड़ाई से निपटा जाए तो ऐसे घटनाएं रोकी जा सकती हैं। इसके साथ ही हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में यह बात भी जोड़ने की जरूरत है जिससे राष्ट्रवाद और भारतीयता के विचारों को बल मिले। सांप्रदायिकता की भावना को प्रचारित करने और युवाओं का गलत इस्तेमाल करने वाली ताकतों को कड़ाई से कुचल दिया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय संकट पर ही नहीं सामान्य दिनों में भी बनें राष्ट्रवादीः
 भारत का संकट यह है कि हम संकट के दिनों में ही राष्ट्रवादी बनते हुए दिखते हैं। जैसे इस समय कश्मीर गहरे संकट में है, तो पूरा देश उस पीड़ा को महसूस करते हुए उसके दर्द में साथ खड़ा है। यही राष्ट्रीय भावना है, कि देश के किसी भी हिस्से में भारत मां के पुत्र दुखी हैं तो वह दुख हमें भी अनुभव होना चाहिए। उदाहरण के लिए केरल के किसी गांव में यह खबर आती है कि चीनी सैनिकों ने हमारे कुछ भारतीय सैनिकों की हत्या की है तो उस गांव में दुख फैल जाता है। लोग अपनी चर्चाओं में दुख व्यक्त करते हैं। सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि देते हैं। जबकि उन सैनिकों में कोई भी न तो उस गांव का, केरल का या वहां रह रही जातियों का है। किंतु समान दुख, वह सब भी अनुभव करते हैं जो एक उत्तर भारतीय करता है। यही राष्ट्रीय भावना है। दरअसल इसे ही पोषित करने की जरूरत है।
  
यह दुखद है कि हमारे नौजवान ईराक की धर्मांध आतंकी हिंसा को पोषित करने के लिए जा रहे हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर हमने अपने इन नौजवानों का पालन-पोषण कैसे किया है। कैसे एक भारतीय किसी दूसरे देश की जमीन पर जाकर निर्दोष बच्चों और महिलाओं को कत्ल को अंजाम देने वाले समूहों के साथ खड़ा हो रहा है? बढ़ती सांप्रदायिकता, सांप्रदायिक विचार हमारी युवा शक्ति को रचना के मार्ग से विरत कर रहे हैं। 

इसलिए वे विध्वंश रच रहे हैं। आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न युवा की पूरी जिंदगी तबाह हो जाती है। उसे कुछ भी हासिल नहीं होता। ऐसी अंधसांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने और खड़ा होने का साहस हमारे समाज को विकसित करना होगा। भारत इस समय बेहद कठिन समय से गुजर रहा है, जब उसके सामने एक उजला भविष्य तो है किंतु उसके उजले भविष्य को ग्रहण लगाने वाली ताकतें भी बहुत सक्रिय हैं। हमें यह कोशिशें तेज करनी होगीं कि राष्ट्रविरोधी विचारों, सांप्रदायिक राजनीति करने वालों और भाई-भाई में मतभेद कर अपनी राजनीति करने वालों की पहचान करें। एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए भारत का अपना विचार हमारे साथ है। हम ही हैं जो दुनिया को उसकी विविधताओं-विभिन्नताओं-विशेषताओं के साथ स्वीकार कर सकते हैं। यह जिम्मेदारी हमने आज नहीं ली तो कल बहुत देर हो जाएगी।

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