-संजय द्विवेदी
आप चाहें तो नरेंद्र मोदी के शिक्षक दिवस पर हुए
संवाद को एक राजनीतिक एजेंडा मान सकते हैं। बावजूद इसके इस घटना ने भारतीय समाज
जीवन को एक आत्मीय सुख से भर दिया है। राजनीति के शिखर पर बैठे नरेंद्र मोदी अगर
नई पीढ़ी से संवाद बना रहे हैं, शिक्षक दिवस पर अपने व्यस्ततम समय में से कुछ घंटे
निकालकर एक सार्थक संवाद कर रहे हैं तो इसकी सिर्फ सराहना ही हो सकती है। इसे आप
दिशावाहक,सकारात्मक राजनीतिक प्रयास कह दें, तो भी
आपत्ति नहीं होनी चाहिए। दरअसल देश के नेताओं का आचरण और व्यवहार ऐसा ही होना
चाहिए। पं. नेहरू के बाद अपनी भावी पौध से संवाद का साहस अगर मोदी ही कर पा रहे
हैं तो आप तय मानिए की सालों की दूरियां उन्होंने पलों में पाट दी हैं। वे एक ऐसे
भारत के निर्माण के लिए प्रयासरत हैं, जिसका
सपना हमारे नेताओं ने देखा था।
आज जिस तरह राजनीतिक सिर्फ वोटबैंक को संबोधित
करती है। जातीय सम्मेलनों में जाती है, विचारधाराओं और दलों की बंधक है। मोदी इसे
शिशुओं-किशोरों के बीच ले जा रहे हैं। वे बता रहे हैं कि देश इनसे भी बनता है और
देश में ये भी शामिल हैं। जातीय समारोहों और जाति के सम्मेलनों की शोभा बढ़ाती
हमारी राजनीति क्यों नई पीढ़ी से अपनी चिंताएं साझा नहीं करना चाहती? क्यों उनसे बातचीत नहीं होनी चाहिए? किंतु मोदी करते हैं और इसके मायने भी समझते
हैं। इसीलिए 15 अगस्त पर वे भाषण पढ़ते नहीं, दिल से बोलते हैं। मंच से बुलेट प्रूफ ग्लास हटाकर सीधा संवाद बनाते हैं, मंच से
उतरकर बच्चों के बीच जाते हैं। उनसे मिलते हैं। शिक्षक दिवस के औपचारिक शैली के
समारोहों से अलग वे एक ऐसा विमर्श खड़ा कर देते हैं, जिससे
एक नया भारत बनाने की तैयारी दिखती है। शिक्षा के सामने, परिसरों के सामने खड़े
प्रश्न सामने आते हैं। उनके इस एक अभियान से
हमारे शिक्षा मंदिरों की लाचारियां, परेशानियां सामने आयी हैं। डिजीटल भारत के
प्रधानमंत्री के सपनों को मुंह चिढ़ाते परिसर इसी देश में मीडिया ने दिखाए जहां न
टीवी है, न कंप्यूटर है, न ही बिजली। कई जगह उनका भाषण रेडियो से सुना गया। यह
साधारण नहीं है कि एक पूरे दिन शिक्षक दिवस पर मोदी के बहाने, हमारी शिक्षा और
शिक्षकों की बुरी हालत पर भी बात हुयी। यह विमर्श कुछ नया रच रहा है। गणतंत्र ऐसे
ही संवादों बनता है और समाधान भी निकलते हैं। दिवसों की रस्मअदायगी से, यह आगे की
राजनीति है। प्रधानमंत्री इसीलिए शिक्षक दिवस पर भाषण नहीं देते, संवाद करते हैं।
बच्चों के सवालों के जवाब देते हैं। इससे लोकतंत्र मजबूत होता है। टेक्नालाजी ने
इसे संभव किया है, नरेंद्र मोदी उसे प्रयोग में लाते हैं। वे टेक्नालाजी चपल हैं,
मीडिया का इस्तेमाल जानते हैं। संवाद की भाषा जानते हैं। संवाद से सार्थक विमर्श
रचना भी जानते हैं। कई मामलों में वे एजेंडा सेट करने वाले राजनेता भी हैं। वे
लोगों को अपने एजेंडे पर ले आते हैं।
वे अच्छे दिनों की बात करते
हैं, विरोधी कहते हैं अच्छे दिन कब आएगें। वे कहते हैं कि संवाद होगा,विरोधी कहते
हैं नहीं होना चाहिए। कुछ कहते हैं, शाम को नहीं, सुबह होना चाहिए। बाकी कहते हैं
कि शिक्षक दिवस नहीं, बाल दिवस पर होना चाहिए। बाकी स्कूलों की बदहाली और बेचारगी का
बखान कर रहे हैं। किंतु आप देखें तो इस विमर्श में अपने आप शिक्षा की बदहाली और
मोदी केंद्र में आ जाते हैं। मोदी का अपना अंदाज है । वे ड्रम बजाएं, या बांसुरी,
गीत गुनगुनाएं या गीता भेंट करें। हर जगह उनका संदेश साफ है। जीवन में उन्हें ऐसे
ही गढ़ा है। वे हर मूड में खास हैं। हर अदा में खास हैं। वे जापान में हों, नेपाल
में, या भूटान में उनका अंदाज सबसे निराला है। मोदी इसीलिए शिक्षक दिवस पर ‘मोदी सर’ जैसे
ही नजर आए।
टीवी चैनलों पर हो रही बहसों को देखिए। वे कितनी
गलीज हैं। विरोध के लिए विरोध, एक नई शैली है। राजनीति का यह बेसुरा पाठ भी हमें
चकित करता है। कुछ लोग इस भाषण के चलते एक दिन में आए खर्च को गिन रहे हैं। जबकि डिजीटल
भारत में सुना गया यह भाषण सबसे सस्ता है। क्योंकि प्रधानमंत्री ने एक साथ कितनों
को संबोधित किया। जनसभाओं, रैलियों और मजमों में होने वाले खर्च की कीमत में यह
काफी कम है। किंतु आलोचना का भी अपना एक बाजार है। आलोचकों के अपने सुख हैं।
मीडिया संतुलन से चलता है। संतुलन बनाने के लिए आलोचना अनिवार्य है। सवाल यह उठता
है कि क्या हर सवाल पर आलोचना जरूरी है। क्या हम राष्ट्रीय सवालों और गैरराजनीतिक
विषयों की आलोचना के बिना नहीं रह सकते है? यहां यह
सोचना भी जरूरी है कि क्या स्कूलों की बदहाली के लिए 100 दिन पहले प्रधानमंत्री
बने मोदी ही जिम्मेदार हैं?
अमेठी में बिजली क्या मोदी के अपनी जापान
यात्रा के दौरान ड्रम न बजाने से आ जाएगी? क्या सत्ता में होने और विपक्ष में होने के
मूल्य और सिद्धांत अलग-अलग हैं?
दस साल लगातार
केंद्र की सत्ता में रहे नेता जब महंगाई के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते हैं, तो यह दृश्य बहुत रोचक हो जाता है। लेकिन
लोकतंत्र इससे ही सुंदर और प्रभावी बनता है। इसीलिए यह देश आलोचना का भी आनंद लेता
है। मजे लेता है। झूमता है। किंतु सच को भी समझता और स्वीकार करता है। इस देश का
नागरिक टीवी बहसों के सच और सत्य को भी जानता है। वह अब पैनलिस्ट के चेहरे भी
पहचानता है और मुंह खोलेंगे तो वे क्या बोलेंगें, यह भी
जानता है। जिस देश में मीडिया, पैनलिस्ट, पत्रकार और विश्लेषक
इतने चिन्हित हो जाएं तो लोकतंत्र की धड़कनों का पता कैसे चलेगा। इसलिए परिणाम उलट
आते हैं। चर्चाओं की दिशा कुछ और जनता की दिशा कुछ और होती है। इसी शिक्षक दिवस पर
मोदी के संवाद को लेकर ‘मीडिया के विमर्श’ और ‘जन विमर्श’ का
अध्ययन कीजिए, परिणाम अलग-अलग आएंगें। मीडिया पर पैनलिस्ट कुछ और कह रहे थे, मोदी
के संवाद में शामिल बच्चे कुछ और कह रहे थे। अरसे बाद जनता की धड़कनों को समझने
वाला नायक सामने आया है, तो ऐसे अजूबे तो घटते ही रहेंगें। शायद इसीलिए मोदी कहते
हैं “मैं हेडमास्टर नहीं टास्क मास्टर हूं।“ अपने हर टास्क में 100 में 100 हासिल करते मोदी
तो यही साबित करते हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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