-प्रो. संजय द्विवेदी
इतिहास के चक्र में किसी सांस्कृतिक संगठन के सौ साल की यात्रा साधारण नहीं
होती। यह यात्रा बीज से बिरवा और अंततः उसके वटवृक्ष में बदल जाने जैसी है। ऐसे
में उस संगठन के भविष्य की यात्रा पर विमर्श होना बहुत स्वाभाविक है। स्वतंत्रता
के अमृतकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संकल्प भविष्य के भारत की रचना में
सहयोगी बन सकते हैं।
अपने शताब्दी वर्ष में संघ ने ‘पंच
परिवर्तन’ का संकल्प लिया है। यह पंच परिवर्तन क्या है? इससे क्या होने वाला है? इसे भी जानना जरूरी है।
संघ की मान्यता है कि व्यवस्था परिवर्तन का लक्ष्य तभी पूरा होगा, जब भारत की व्यवस्थाएं ‘स्व’
पर आधारित हों। ‘स्व’ आधारित तंत्र
बनाना साधारण नहीं है। महात्मा गांधी से लेकर देश के तमाम विचारक और राजनेता ‘स्व’ की बात करते रहे,किंतु व्यवस्था ने उनके
विचारों को अप्रासंगिक बना दिया। समाज परिर्वतन के बिना व्यवस्था परिर्वतन संभव
नहीं, इसे भी सब मानते हैं। वैचारिक संभ्रम इसका बहुत बड़ा कारण है। हम
आत्मविस्मृति के शिकार और आत्मदैन्य से घिरे हुए समाज हैं। गुलामी के लंबे कालखंड
ने इस दैन्य को बहुत गहरा कर दिया है। इससे हम अपना मार्ग भटक गए। स्वामी
विवेकानंद, महर्षि अरविंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी,
बाबा साहब आंबेडकर हमें वह रास्ता बताते हैं जिनपर चलकर हम अपनी कुरीतियों से
मुक्त एक सक्षम, आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी समाज बन सकते थे। किंतु अंग्रेजों के
बाद सत्ता में आए नायकों ने सारा कुछ बिसरा दिया। उस आरंभिक समय में भी दीनदयाल
उपाध्याय और डा. राममनोहर लोहिया जैसे नायक भारत की आत्मा में झांकने का प्रयास
करते रहे किंतु सत्ता की राजनीति को वे विचार अनुकुल नहीं थे।
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ ने अपने शताब्दी वर्ष में पंच परिर्वतन का जो संकल्प लिया है,वह
भारत की चिति और उसकी स्मृति को जागृत करने का काम करेगा। राष्ट्रीय चेतना का स्तर
बढ़ाने के लिए 1.नागरिक कर्तव्य, 2. स्वदेशी, 3. पर्यावरण संरक्षण, 4.समरसता, 5.कुटुंब
प्रबोधन जैसे पांच संकल्प ही पंच परिवर्तन के सूत्र हैं। इन विषयों में भारत की
आत्मा को झकझोरकर जगाने और ‘नया भारत’ बनाने का संकल्प झलकता है।
नागरिक कर्तव्यबोध से नवचेतन का संचार-
किसी भी राष्ट्र और लोकतंत्र की सफलता उसके
नागरिकों की सहभागिता और कर्तव्यबोध से ही सार्थक होती है। एक जीवंत लोकतंत्र की
गारंटी उसकी नागरिक चेतना ही है। कानूनों की अधिकता और उसे न मानने का मानस दोनों
साथ-साथ चलते हैं। अपनी माटी के प्रति प्रेम, उत्कट राष्ट्रभक्ति ही सफल राष्ट्र
का आधार है। जापान जैसे देशों का उदाहरण देते समय हमें देखना होगा कि क्या हमारी
राष्ट्रीय चेतना और संवेदना वही है जो एक जापानी में है। आखिर क्या कारण है कि
अपनी महान परंपराओं, ज्ञान परंपरा के बाद भी हम एक लापरवाह और कुछ मामलों में अराजक
समाज में बदलते जा हैं। कानूनों को तोड़ना यहां फैशन है। यहां तक की हम सार्वजनिक
स्थानों पर गंदगी फैलाने और सड़कों पर रेड लाइट का उल्लंधन करने से भी बाज नहीं
आते। ये बहुत छोटी बातें लगती हैं, किंतु हैं बहुत बड़ी। चुनावों में शत प्रतिशत
मताधिकार तो दूर का सपना है। बहुत शिक्षित शहरों में वोटिंग 50 प्रतिशत से आगे
नहीं बढ़ पाती। ये सूचनाएं बताती हैं कि हमें अभी जागरूक नागरिक या सजग भारतीय
होना शेष है।कानूनों का पालन, कर का समय पर भुगतान, सामाजिक और सामुदायिक सेवा,
पर्यावरण संरक्षण, राष्ट्रीय संपत्ति की सुरक्षा जरूरी है। एक शानदार समाज की
पहचान है कि वह अपने परिवेश को न सिर्फ स्वच्छ और सुंदर बनाने का प्रयास करता है
बल्कि अपने प्रयासों से अन्यों को भी प्रेरित करता है। देखा जाता है कि हममें
अधिकार बोध बहुत है किंतु कर्तव्यबोध कई बार कम होता है। जबकि संविधान हमें मौलिक
अधिकारों के साथ कर्तव्यों की भी सीख देता है। हमारे धार्मिक ग्रंथ हमें नागरिकता
और सामाजिक आचरण का पाठ पढ़ाते हैं। सवाल यह है कि हम उन्हें अपने जीवन में कितना
उतार पाते हैं।
‘स्वदेशी’ से बनेगा स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर भारत-
पंचपरिवर्तन का दूसरा सूत्र है ‘स्वदेशी’। स्वदेशी सिर्फ आत्मनिर्भरता का मामला नहीं
है यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का भी विषय है। अपनी जमीन पर खड़े रहकर विकास की यात्रा
ही स्वदेशी का मूलमंत्र है। विनोबा जी कहते थे- “स्वदेशी का
अर्थ है आत्मनिर्भरता और अहिंसा।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
इसे सादगी से भी जोड़ता है। जिसके मायने हैं मितव्ययिता से जियो, कंजूसी से नहीं।
स्वदेशी का सोच बहुत व्यापक है। परिवारों में भाषा, वेशभूषा, भवन, भ्रमण, भजन और
भोजन ये छः चीजें हमारी ही होनी चाहिए। हम विदेशी भाषा, बोलें, दुनिया के साथ
संवाद करें। किंतु अपने परिवारों अपनी मातृभाषा का उपयोग करें। विदेशी वस्त्रों से
परहेज नहीं किंतु पारिवारिक मंगल आयोजनों और उत्सवों में अपनी वेशभूषा धारण करें।
स्वभूषा, उपासना पद्धति, भोजन हमारा होना चाहिए। इसी तरह हम पूरी दुनिया घूमकर आएं
किंतु भारत के तपोस्थलों, तीर्थस्थलों, वीरभूमियों तक भी हमारा प्रवास हो। हमारे
परिजन जानें की राणा प्रताप कौन हैं और चित्तौड़गढ़ कहां है। शिवाजी कौन थे और
रायगढ़ कैसा है। जालियांवालाबाग कहां है। इसी तरह हमारे घर भारतीयता का
प्रतिनिधित्व करते हुए दिखने चाहिए। वहां एक भारतीय परिवार रहता है ,यह प्रकट होना
चाहिए। महापुरूषों की तस्वीरें। अपनी भाषा में नाम पट्ट और स्वागतम् जैसे उच्चार
लिखे हों। परिवारों में हमारी संस्कृति की छाप साफ दिखनी चाहिए। तुलसी का पौधा और
पूजाघर के साथ, किताबों का एक कोना भी हो जिसमें हमारे धार्मिक ग्रंथ गीता,
रामायण, महाभारत आदि अवश्य हों। उनका समय-समय पर पाठ भी परिवार के साथ हो। हमारी
जीवनशैली आधुनिक हो किंतु पश्चिमी शैली का अंधानुकरण न हो। परिवार में काम करने
वाले सेवकों के प्रति सम्मान की दृष्टि भी जरूरी है। ऐसे अनेक विषय हैं जिन पर
विचार होना चाहिए।
‘पर्यावरण संरक्षण’ से होगी जीवन रक्षा-
प्रकृति के साथ संवाद और सहजीवन भारत का मूल
विचार है। अपनी नदियों, पहाड़ों और पेड़-पौधों में ईश्वर का वास देखने की हमारी
संस्कृति और परंपरा रही है। प्रकृति के
बिना मानव जीवन की कल्पना असंभव है। प्रदूषण आज बहुत बड़ी चिंता बन गया है। कुछ भी
स्वच्छ नहीं रहा। हवा भी जहरीली है। इसलिए हमें अपने भारतीय विचारों पर वापसी करनी
ही होगी। प्रकृति और पर्यावरण के साथ सार्थक संवाद ही हमें बचा पाएगा। ग्लोबल
वार्मिंग जैसी चिंताएं हमारे सामने चुनौती की तरह हैं। पानी, बिजली को बचाना,
प्लास्टिक मुक्त समाज बनाने के साथ वाहनों का संयमित उपयोग जरूरी है। एयरकंडीशनर
का न्यूनतम उपयोग, वनों और जंगलों की रक्षा जैसे अनेक प्रयासों से हम सुंदर दुनिया
बना सकते हैं। घरों में पेड़-पौधे लगाएं और हरित घर का संकल्प लें। सच तो यह है कि
अगर हम पर्यावरण की रक्षा करेंगें तो वह हमारी रक्षा करेगा।
‘सामाजिक समरसता’ से बनेगी सुंदर दुनिया-
सामाजिक समरसता के बिना कोई भी राष्ट्र अग्रणी
नहीं बन सकता। गुरु घासीदास कहते हैं- “मनखे-मनखे
एक हैं।” किंतु जातिवाद ने इस भेद को गहरा किया है। तमाम
प्रयासों के बाद भी आज भी हम इस रोग से मुक्त नहीं हो सके हैं। भेदभाव ने हमारे
समाज को विभाजित कर रखा है, जिसके चलते दुनिया में हमारी छवि ऐसी बनाई जाती है कि
हम अपने ही लोगों से मानवीय व्यवहार नहीं करते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
कहते थे- “अस्पृश्यता ईश्वर और मानवता के प्रति अपराध है।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे पू. बालासाहब देवरस ने इस संकट
को रेखांकित करते हुए बसंत व्याख्यानमाला में कहा था कि- “अगर छूआछूत गलत नहीं है दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है, इसे मूल से नष्ट
कर देना चाहिए।” ऐसे में हमें यह समझना होगा कि जो कुछ
भी सैकड़ों सालों से परंपरा के नाम पर चल रहा है वह हमारा धर्म नहीं है। इतिहास
में हुए इन पृष्ठों का कोई भी सभ्य समाज समर्थन नहीं कर सकता। जबकि हमारे धर्म
ग्रंथ और शास्त्र इससे अलग हैं। हमारे ऋषि और ग्रंथों के रचयिता सभी वर्गों से
हैं। भगवान बाल्मीकि और वेद व्यास इसी परंपरा से आते हैं। यानि यह भेद शास्त्र
आधारित नहीं है। यह विकृति है। इससे मुक्ति जरूरी है।हमें इसके सचेतन प्रयास करते
हुए अपने आचरण, व्यवहार और वाणी से समरसता का अग्रदूत बनना होगा। सभी समाजों और
वर्गों से संवाद और सहकार बनाकर हम एक आदर्श समाज की रचना में सहयोगी हो सकते हैं।
इससे समाज का सशक्तिकरण भी होगा। समानता का व्यवहार, वाणी संयम, परस्पर सहयोग,
संवेदनशीलता से हम दूरियों को घटा सकते हैं और भ्रम के जाले साफ कर सकते हैं। साथ
ही अपने गांव, नगर के मंदिर, जलश्रोत, श्मशान सबके लिए समान रूप से खुल होने ही चाहिए।
इसमें कोई भी भेद नहीं होना चाहिए।
हमारी शक्ति है ‘कुटुंब’-
आज का सबसे बड़ा संकट कुटुंब का बिखराव है। एकल
परिवारों में बंटते जाना और अकेले होते जाना इस समय की त्रासदी है। जबकि
कल्याणकारी कुटुंब वह है जहां सब संरक्षण, स्नेह और संवेदना के सूत्र में बंधे
होते हैं। जहां बालकों को प्यार और शिक्षा, वयस्कों को सम्मान और बुजुर्गों को
सम्मान और सेवा मिलती है। परिवार हमारी शक्ति बनें इसके लिए पंच परिवर्तन का बड़ा
मंत्र है- कुटुंब प्रबोधन। कुटुंब की एक परंपरा होती है। हम उसे आगे बढ़ाते हैं और
संरक्षित करते हैं। मूल्यआधारित जीवन इससे ही संभव होता है। परिवार के मूल्यों से
ही बच्चों को संस्कार आते हैं और वे सीखते हैं। जैसे देखते हैं वैसा ही आचरण करते
हैं।कुटुंब दरअसर रिश्तों का विस्तार है। जिसमें पति-पत्नी और बच्चों के अलावा
हमारे सगे-संबंधी भी शामिल हैं। उनके सुख में सुख पाना, दुख में दुखी होना और
उन्हें संबल देना हमें मनुष्य बनाता है। इसके लिए बच्चों के साथ-साथ रिश्तों को
समय देना जरूरी है। औपचारिक और अनौपचारिक रुप से कार्यक्रमों, खान-पान, उत्सवों के
माध्यमों से ये रिश्ते दृढ़ होते जाएं यह बहुत जरूरी है।
पंच
परिवर्तन के साधारण दिखने वाले सूत्रों में ही भारत की आत्मा के दर्शन होते हैं।
इन सूत्रों को अपनाकर हम एक सुंदर बनाने की दिशा में बड़ा काम कर सकते हैं। संघ की
शताब्दी वर्ष में लिए गए ये संकल्प हमें एक समाज और राष्ट्र के रूप में संबल देने
का काम करेगें इसमें दो राय नहीं है। 22 जनवरी,2024 को अयोध्या में राममंदिर में
भगवान की प्राणप्रतिष्ठा के बाद राम राज्य की ओर हम बढ़ चले हैं। राम राज्य के
मूल्य हमारे जीवन में आएं। परिवारों में आएं। इससे एक सबल, आत्मनिर्भर और
आत्मविश्वासी भारत बनेगा। आचरण की शुचिता से आए परिर्वतन ही स्थाई होते हैं। इससे
ही हमारे मन में राम रमेंगें और देश में रामराज्य आएगा।
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