सोमवार, 7 अप्रैल 2014

नरेंद्र मोदी से कौन डरता है?


-संजय द्विवेदी
   लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी खुद एक मुद्दा बने हुए हैं। अपनी पार्टी के भीतर जंग तो उन्होंने जीत ली किंतु विरोधी अभी हार मानने के लिए तैयार नहीं हैं। 2002 के गुजरात दंगों की लंबी छाया उनके पीछे ऐसी पड़ी है, जैसे उसके पहले या बाद देश में दंगे हुए ही न हों। जिन राज्यों में दंगे हर माह हो रहे हैं वे भी मोदी के दंगों से दुखी हैं। ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी दिल्ली तक आ गए तो क्या गजब हो जाएगा। जिन नीतीश कुमार ने अपने नेता जार्ज फर्नांडिस की दुर्गति और अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, वे भाजपा के बुर्जुग नेताओं के अपमान से बहुत दुखी हैं। किंतु याद कीजिए नीतीश ने जार्ज का टिकट काट दिया था, जबकि मोदी न सिर्फ आडवानी को गुजरात से लड़ने के लिए राजी कर लेते हैं, वरन उनके परचा भरने पर उनके साथ भी दिखते हैं। जबकि मप्र में भोपाल की सीट पर आडवानी जी का इंतजार हो रहा था। जाहिर तौर पर भाजपा के दुख से दुखी अन्य दलों के नेता जब मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं तो पता चलता है कि इनके द्वंद किस तरह जनता के सामने प्रकट हो रहे हैं। इस चुनाव में मोदी का दंगा मुद्दा है किंतु उप्र और महाराष्ट्र में हुए दंगें मुद्दा नहीं हैं। मोदी करें तो पाप और मुलायम करें तो लीला। उप्र के दंगों की पृष्ठभूमि शुद्ध प्रशासनिक नाकामी और राजनीतिक नेतृत्व की कायरता कही जाएगी, जबकि गुजरात के दंगे गोधरा के भीषण नरमेघ की प्रतिक्रिया में हुए थे। दोनों की परिस्थितियों और दंगों को नियंत्रित करने की शैली में अंतर साफ नजर आता है। कोई भी सरकार गोधरा जैसी हिंसा के बाद हालात संभालने में कुछ वक्त लेती ही । एक लड़की से हुयी छेड़खानी के मामले को संभाल न पाने वाली उप्र की सरकार गोधरा के काण्ड के बाद की हकीकतों को जाने बिना अपनी सेकुलर छवि पर मुग्ध है। उसके मंत्री दंगाईयों को छोड़ने के लिए फोन कर रहे हैं, यह भी एक चैनल के स्टिंग आपरेशन में उजागर हो चुका है।

    ऐसे कठिन समय में जब सेकुलर जमातें मोदी को निशाने पर लेते हुए नहीं थक रही हैं, मान लिया मोदी देश के प्रधानमंत्री बन भी गए तो कौन सा वज्रपात आ जाएगा। यह तो तय मानिए कि वे मनमोहन सिंह की सरकार से बुरी सरकार नहीं चलाएंगे। जिनको तमाम सेकुलर ताकतों के साथ सपा और बसपा ने देश का बेड़ा गर्क करने के लिए समर्थन दे रखा है। 2002 के बाद अगर गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ तो भरोसा कीजिए कि देश में दंगों की फसल नहीं लहलहाएगी। यह आश्वासन उस मुलायम सिंह यादव की उत्तर प्रदेश सरकार से ज्यादा भरोसेमंद है, जिनके सरकार में आते ही दंगों की लाइन लग गयी है और उत्तर प्रदेश के दंगापीड़ितों ने सबसे बड़ा विस्थापन और दर्द अखिलेश के राज में ही महसूस किया। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अगर मुद्दा हैं तो यह भारतीय राजनीति की दयनीयता का ही बखान करती है। देश के राजनीतिक दलों के 10 साल से सत्ता में बैठी कांग्रेस सरकार का कुशासन मुद्दा नहीं है, मुद्दा एक राज्य का मुख्यमंत्री है, जिस पर हाल-फिलहाल कोई ऐसा आरोप नहीं है, जिसके आधार पर उसे घेरा जा सके। 2002 को घसीटकर और उस जख्म की पपड़ियां हटाकर आखिर किसे क्या मिल रहा है, कहा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को खलनायक बनाकर किसके हित सध रहे हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है। किंतु इतना तो साफ है कि सोनिया गांधी ने मौलाना बुखारी से समर्थन मांग कर यह साबित कर दिया है सबकी निगाहें सिर्फ मुस्लिम वोटों पर हैं। यह धुव्रीकरण की राजनीति आखिर देश को कहां ले जाएगी? राजनीति धारणाओं पर ही चलती है। मोदी को मुस्लिम विरोधी के रूप में स्थापित करने वाले दल क्या इस देश की आवाज सुन पा रहे हैं। आज देश के जन-मन की आवाज को ही महसूस करते हुए रामविलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू, उपेंद्र कुशवाहा, उदित राज, रामदास आठवले सरीखे नेता राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में मोदी पर व्यक्तिगत हमले करके हम ही इस चुनाव को व्यक्ति केंद्रित बना रहे हैं। मुसलमानों में भयग्रंथि पैदा करके हम देश के भविष्य के साथ खेल रहे हैं। दरअसल मोदी की राजनीति इन्हीं छद्मों को संबोधित कर रही हैं। ये देखना कितना आश्चर्यजनक है मोदी धर्म के आधार के पर बंटवारे के खिलाफ बोल रहे हैं और सोनिया गांधी बुखारी की मिजाजपुर्सी में लगी हैं। जाहिर तौर पर मोदी विरोधियों ने पूरे चुनाव को मोदी विरोध और समर्थन में बदल दिया है। यूं लग रहा है जैसे कि ये गुजरात के मुख्यमंत्री का चुनाव है। जबकि चुनाव तो दिल्ली की सरकार के लिए हो रहे हैं। दिल्ली की सरकार और उसके कामकाज, जनता के मौलिक सवालों पर मोदी संवाद कर रहे हैं। मोदी विरोधी सिर्फ मोदी को कोस रहे हैं। क्या मोदी को रोकना किसी भी तरह की जनतांत्रिक राजनीति का एजेंडा हो सकता है। मोदी को रोकने के लिए शायद ये दल मनमोहन सिंह या कांग्रेस की सरकार को पांच साल और ढोने के लिए तैयार हो जाएं। ऐसा ही दावानल भाजपा की दिल्ली की सरकार बनने पर मचाया गया था। आखिर अटलबिहारी वाजपेयी की दिल्ली की सरकार किस मायने में कम सेकुलर थी। इस सरकार में फारूख अब्दुला के बेटे उमर भी मंत्री थे। आज की सेकुलर राजनीति के मसीहा नीतीश कुमार, ममता बनर्जी सब वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा ने एक ईसाई आदिवासी संगमा को एनडीए ने अपना समर्थन दिया था। ये हालात बताते हैं राजनीति में कोई सिद्धांत या विचारधारा के आधार पर चलना नहीं चाहता, सब अपनी सत्ता, स्वार्थ या सुविधा के आधार पर फैसले करते हैं। नरेंद्र मोदी इसी तरह की विचारहीनता के खिलाफ एक आवाज हैं। उनका देशीपना, उनके वक्तव्यों से आती माटी की महक, उनका साधारण परिवार और परिवेश से आना, एक कुशल प्रशासक और संगठनकर्ता होने की उनकी पहचान कहीं न कहीं लोगों को आतंकित कर रही है। जिस तरह अपने राजनीतिक विरोधियों को उन्होंने समाप्त किया है, वह भी विरोधियों में दहशत भर रही हैं। लेकिन इतना तो मानना होगा कि नरेंद्र मोदी का भारतीय राजनीति में आविर्भाव कोई साधारण घटना नहीं है। अपने जीवन और कर्म से उन्होंने जो हासिल किया है और जो हासिल करने की ओर बढ़ रहे हैं उसने उनको उनको एक परिघटना में बदल दिया है। वे ही ऐसे हैं जो पहले जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के दिल में उतरे और बाद में दल ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार धोषित किया। एक मुख्यमंत्री होने के नाते उनकी लोकप्रियता और प्रशासनिक क्षमता ही नहीं हिंदी में कुशल व साधारण संवाद की शैली उन्हें बड़ा बनाती है। भारत जैसे महादेश में उनकी यह लोकछवि आज सब पर भारी है। गुजरात जैसे छोटे राज्य के मुख्यमंत्री होते हुए दिल्ली की ओर यह प्रयाण भी साधारण नहीं है। आप आज उनसे नफरत तो कर सकते हैं पर उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते। मोदी की यही ताकत है और यही उनकी सीमा भी है।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

अवसरवाद और परिवारवाद के बीच जनतंत्र

-संजय द्विवेदी
  भारतीय समाज में हो रहे तमाम सकारात्मक बदलावों के बावजूद हमारी राजनीति और राजनीतिक दल इससे मुक्त दिखते हैं। उनको किसी भी तरह से नैतिक नियमों में बांधना हमें और आपको निराश ही करेगा। वे गिरते हुए ही स्वाभाविक दिखते हैं।यह गिरावट चौतरफा है। एक नयी पार्टी जिसने आम आदमी को उम्मीदों को पंख लगा दिए थे, उसने भी गिरावट में होड़ सी ले ली है, शायद यह कहते हुए कि हम किसी से कम नहीं। टिकट वितरण से लेकर मतदान तक जिस तरह के खेल होंगें, उन्हें कई बार देखा और परखा गया है। यहां विचारधाराएं और वाद ठिठके हुए खड़े हैं। हर दिन एक नायक एक नई धारा का हिस्सा बन जाता है। पिछले दिन कही गयी बातों और आचरण से ठीक विपरीत बात कहता और आचरण करता हुआ। क्या ये भारतीय राजनीति के सबसे बेचारगी भरे दिन नहीं हैं? क्या ये दिन हमें यह नहीं बताते कि अब हमें राजनीति से नैतिक अपेक्षाएं पालना बंद कर देना चाहिए? किसी एक घटना या एक बात से एक आदमी पूरा का पूरा खारिज और एक बेहतर खबर से वह आसमान पर। इस टीवी समय ने मूल्यांकन के ऐसे ही तुरंतवादी रवैये हमें दिए हैं। हम लोटपोट हो जाते हैं या खारिज कर देते हैं। सुनने, सहने, पढ़ने और समझने का अवकाश इतना कम क्यों होता जा रहा है?
  पिछले कुछ महीनों में हर हफ्ते हमारे नायक बदलते रहे हैं। कभी मोदी, कभी केजरीवाल तो कभी राहुल गांधी। टीवी को नाटक चाहिए। उसे ड्रामा चाहिए पर क्या समाज को भी ड्रामा चाहिए? या समाज को उस ड्रामे का हिस्सा होना चाहिए? ऐसे सवाल हम सबको मथ रहे हैं। राजनीति कभी इतनी सच्ची और अच्छी नहीं थी किंतु कुछ मूल्य थे, विचार थे, आंदोलन थे और उन सबके साथ कुछ लोग थे, जिन पर समाज भरोसा कर सकता था। इस भरोसे की डोर से बहुत कुछ टूटने से बचा रहता था। लेकिन देखिए सीटों को लेकर भाजपा के प्रथम पंक्ति के नायकों के बीच कैसा हाहाकार, दैन्य और विलाप नजर आया। वानप्रस्थ में भी सीट न छोड़ने के तैयार लोग भी यह कहते हैं कि पाप किया जो संसद में आया। भाजपा के लौहपुरूष ने तो अपने हाथों ही जो रचा उस पर आप सहानुभूति के अलावा क्या जता सकते हैं। कांग्रेस ही अच्छी थी जिसके प्रधानमंत्री बिना कोई लोकसभा टिकट मांगें और किसी की सीट छीने दस साल राज कर गए। यहां नरेंद्र मोदी जी की सीट ही कई चैनलों के लिए दिन-रात का चना-चबैना बन गयी। राजनीति और लोकतंत्र की चुनौतियों के बजाए आला एंकर भी मोदी की सीट पर ज्वलंत विमर्श कर रहे हैं। इधर केजरीवाल के साथ भोजन करने वाले जनतंत्र के प्रेमियों को नागपुर में सिर्फ दस हजार रूपए प्लेट पर भोजन उपलब्ध था। 
अवसरवाद एक विचारधाराः अवसरवाद राजनीतिक क्षेत्र में सबसे बड़ी विचारधारा के नाते उभरा है। मौका देखकर चौका लगाने वालों की बन आई है। सत्ता मिलने की आस हो तो कोई अछूत नहीं रह जाता। भाजपा के साथ खड़े तमाम चेहरों को देखकर आपको सत्ता फेवीकोल की तरह नजर आएगी। रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज, रामकृपाल यादव,जगदंबिका पाल, भागीरथ प्रसाद, उदयप्रताप राव, बृजभूषण शरण सिंह, वायको और रामदास जैसे तमाम नाम हैं, जिन्हें अचानक भाजपा और उसके नेता मोदी में तमाम सकारात्मक बदलाव नजर आने लगे। इस जूलूस में तमाम पुराने कांग्रेसी, समाजवादी सब शामिल हैं। राजनीति की निर्ममता ही देखिए कि जीवन भर का तप, एक टिकट की बलिबेदी पर चढ़ जाता है। भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष रहीं, अटलजी की भतीजी करूणा शुक्ला की बेबसी देखिए वे बिलासपुर से कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं। मूल्य इस तरह भी शीर्षासन कर रहे हैं। सफलता का मूल्य है, राजनीति में प्रतिशोध के गहरे भाव हैं। ऐसे ही हिंदुस्तानी राजनीति फल-फूल रही है। लोकतंत्र का पर्व सही मायने में किसी बदलाव की सूरते हाल को बताने वाला होने के बजाए अवसरवादियों की प्रतिष्ठा का मंच बन गया है। यहां अवसरवाद एक विचार बनकर पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर छाया हुआ है। बदलाव और परिवर्तन का दम भरने वाली ताकतें भी यहीं आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं। इसलिए चुनाव के बाद कोई क्रांतिकारी परिर्वतन समाज जीवन या राजनीति में देखने को मिलेंगें, सोचना बेमतलब लगता है।

परिवारवाद बना शक्तिः नई पीढ़ी परिवारों से आ रही है। सुविधाओं की कोख से आ रही है और जनसंर्घषों को घता बताकर आ रही है। राजपुत्रों की पूरी एक पीढ़ी पिछले सदन में लोकसभा पहुंची और इस बार भी उसकी बड़ी संख्या में आमद संभावित है। राजनीति का इस तरह घरानों में कैद हो जाना बताता है कि सारा कुछ बहुत सहज नहीं है। देश के लाखों-करोड़ों राजनीतिक कार्यकर्ताओं के संघर्ष को घता बताकर जब कोई राजपुत्र सत्ता की देहरी पर चढ़ जाता है तो दिल टूटते हैं। किंतु एक समय में कार्यकर्ताओं को परखकर उनका निर्माण करने वाली राजनीतिक परंपराएं भी अपने घरों में से ही उत्तराधिकारी खोज रही हैं। परिवार से बाहर न निकलने वाली राजनीति, आखिर कैसे जनधर्मी हो सकती है ? कैसे वह सरोकारों से जुड़ सकती है? ऐसे में हमारी नयी राजनीतिक जमात के पास जमीन के अनुभव और संघर्ष की कथाएं अनुपस्थित हैं। वे अपने पिता की लंबी छाया में स्थापित जरूर हो जाते हैं किंतु जनता से रिश्ता नहीं बना पाते। परिवारवाद की इस बीमारी से अब सारे दल ग्रस्त हैं। किसी भी दल को यह कहने का अधिकार नहीं बचा है कि वह जनता के बीच से नेतृत्व को विकसित कर रहा है। इसके साथ ही दलों की विचारधारात्मक दूरी समाप्त हो चुकी है। विचारधारा के अंत की भविष्यवाणियों के बीच राजनीतिक दल इसके जीवंत प्रतीक दिखते हैं। दलों की पहचान करने वाले विचार अब नहीं बचे हैं, सिर्फ झंडे बचे हैं जिनसे दलों को अलग किया जा सकता है। ऐसे कठिन समय में आत्मविश्वास से भरे एक राजनेता की तलाश पूरा हिंदुस्तान कर रहा है। जिसका जीवन निष्कलंक हो और उसके मन में एक आग हो। बदलाव और परिर्वतन की वह आग ही इस देश के राजनीतिक और सामाजिक चरित्र को बदल सकती है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस बदलाव का प्रतीक बनकर उभरे हैं। उनकी सोच और काम करने के तरीके की प्रस्तुति अहंकारजन्य भले दिखती हो किंतु वे युवा भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक बन सकते हैं। अरविंद केजरीवाल भी एक ऐसे ही प्रतीक बन सकते थे किंतु चीजों का गलत आकलन और सत्ता पाने की हड़बड़ी ने उन पर अविश्वास गहरा किया है। राहुल गांधी एक ऐसी पार्टी के नायक हैं, जिसने पिछले 10 सालों में देश को खासा निराश किया है। ऐसे में उन अकेले के भरोसे हिंदुस्तानी मतदाता छले जाने के लिए तैयार नहीं हैं। इस कठिन समय में मतदाताओं को इस चुनाव में अपने विवेक का सही इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी सरकार चुननी है जो भारत की आकांक्षाओं, उसके सपनों को उसके नजरिए से देख और पूरा कर सके। जनता का विवेक एक बार फिर कसौटी पर है। लोकतंत्र की परिपक्वता के लिए यह जरूरी भी है कि जनता इस इम्तहान में दिल से ज्यादा दिमाग से काम ले।

बुधवार, 12 मार्च 2014

इस लहूलुहान लोकतंत्र में!

माओवादी आतंक के सामने सरकारों के घुटनाटेक रवैये से बढ़ा खतरा
-संजय द्विवेदी


वो काली तारीख भूली नही हैं अभी, 25 मई,2013 की शाम जब जीरम घाटी खून से नहा उठी थी। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सहित 30 लोगों की निर्मम हत्या के जख्म अभी भरे नहीं थे कि जीरम घाटी एक बार फिर खून से लथपथ है। 11 मार्च,2014 की तारीख फिर एक काली तारीख के रूप में दर्ज हो गयी, जहां 16 जवानों की निर्मम हत्या कर नक्सली नरभक्षी अपनी जनक्रांति का उत्सव मनाने जंगलों में लौट गए। आखिर ये सिलसिला कब रूकेगा।
    माओवादी आतंकवाद के सामने हमारी बेबसी की हकीकत क्या है? साथ ही एक सवाल यह भी क्या भारतीय राज्य माओवादियों से लड़ना चाहता है? वह इस समस्या का समाधान चाहता है? खून बहाती जमातों से शांति प्रवचन की भाषा, संवाद की कोशिशें तो ठीक हैं किंतु खून का बहना कैसे रूकेगा? किसके भरोसे आपने एक बड़े इलाके की जनता और वहां तैनात सुरक्षा बलों को छोड़ रखा है। माओवाद से लड़ने की जब हमारी कोई नीति ही नहीं है तो कम वेतन पर काम करने वाले सुरक्षाकर्मियों और पुलिसकर्मियों को हमने इन इलाकों में मरने के लिए क्यों छोड़ रखा है? उनकी गिरती लाशों से सरकारों को फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे किन्हीं और कामों में लगी हैं। राजनीति और नेताओं  के पास पांच साल की ठेकेदारी के सपनों के अलावा सोचने के लिए वक्त कहां हैं? वे चुनाव से आगे की नहीं सोचते। चुनाव नक्सली जिता दें या बंग्लादेशी घुसपैठिए उन्हें फर्क नहीं पड़ता। ऐसे खतरनाक समय में भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ घोषित युद्ध लड़ रहे माओवादी विचारकों के प्रति सद्भावना रखने वाले विचारकों की भी कमी नहीं है। उन्हें बहता हुआ खून नहीं दिखता क्योंकि वे विचारधारा के बंधुआ हैं। उन्हें लाल होती जमीन के पक्ष में कुतर्क की आदत है। इसलिए वे नरसंहारों के जस्टीफाई करने से भी नहीं चूकते। जबकि यह बात गले से उतरने वाली नहीं है कि माओवादी जनता के साथ हैं। ताजा मामले में भी हुयी घटना विकास के कामों को रोकने के लिए अंजाम दी गयी है।
   माओवादी नहीं चाहते कि भारतीय राज्य, राजनीति, राजनीतिक दलों की उपस्थिति उनके इलाकों में हो। वे किसी भी तरह की सामाजिक-राजनीतिक और विकास की गतिविधि से डरते हैं। वे अंधेरा बनाने और अंधेरा बांटने में ही यकीन रखते हैं और सही मायने में भय के व्यापारी हैं। इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने जंगलों में अपनी सक्रियता से एक बड़े समाज को भारतीय राज्य के विरूद्ध कर दिया है। जो बंदूकें लेकर हमारे सामने खड़े हैं। किंतु उनकी इस साजिश के खिलाफ हमारी विफलताओं का पाप कहीं बड़ा है। यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता ही है कि माओवादी हमारे बीच इतने शक्तिवान होते जा रहे हैं। हम न तो उनके सामाजिक आधार को कम कर पा रहे हैं न ही भौगोलिक आधार को। यह बात चिंता में डालने वाली है कि जो माओवादी निरंतर भारतीय राज्य को चुनौती देते हुए हमले कर रहे हैं उसके प्रतिकार के लिए हम क्या कर रहे हैं? अकेले छत्तीसगढ़ को लें तो वे 6 अप्रैल,2010 को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 75 जवानों सहित 76 लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। 25 मई,2013 को उनका दुस्साहस देखिए वे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, उदय मुद्लियार सहित 30 लोगों की घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं और उसके बाद भी हम चेतते नहीं हैं। देश के 9 राज्य और 88 जिले आज माओवादी हिंसा से प्रभावित हैं। वर्ष 2013 में 1136 माओवादी आतंक की घटनाएं हो चुकी हैं। जाहिर तौर पर हमारी सरकारों का रवैया घुटनाटेक ही रहा है। इससे माओवादियों के मनोबल में वृद्धि हुयी है और वे ज्यादा आक्रामक तरीके से सामने आ रहे हैं। यह भी गजब है राजनीति ऐसे तत्वों और अभियानों से लड़ने के बजाए उनको पाल रही है। माओवादियों को सूचना, हथियार और मदद देने वालों में राजनीतिक दलों के लोग शामिल रहे हैं। कई ने तो चुनावों में उनका इस्तेमाल भी किया है। किंतु सवाल यह उठता है जो काम हम पंजाब में कर चुके हैं। आंध्र में कर चुके हैं, पश्चिम बंगाल में ममता कर चुकी हैं, उसे करने में छत्तीसगढ़ में परेशानी क्या है। क्या कारण है सशस्त्र बलों की क्षमता बढ़ाने पर हमारा जोर नहीं है। अब तक सैनिक मरते थे तो सरकारें लापरवाह दिखती थीं। अब जब हमारे बड़े राजनेताओं तक भी माओवादी आतंक पहुंच रहा है, तब राजनीति की निष्क्रियता आशंकित करती है। भारतीय राज्य की दिशाहीनता और कायरता ने ये दृश्य रचे हैं। इसे कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि जब कोई राज्य अपने लोगों की रक्षा न कर सके तो उसके होने के मायने क्या हैं।

   आवश्यकता इस बात की है कि हम कैसे भी हिंसक गतिविधियों को रोकें और अपने लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाएं। जनजातीय समाज इस पूरे युद्ध का सबसे बड़ा शिकार है। वे दोनों ओर से शोषण के शिकार हो रहे हैं। सही मायने में यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता है कि हमने प्रकृति से आच्छादित सुंदर क्षेत्रों को रणक्षेत्र बना रखा है। ये इलाके जहां नीरव शांति, प्रेम, सहजता और सरल संस्कृति के प्रतीक थे आज अविश्वास,छल और मरने-मारने के खेल का हिस्सा बन गए हैं। सच तो यह है कि हमारी सरकारें माओवादी आतंकवाद के प्रति गंभीर नहीं है वे घटना होने के बयानबाजी के बाद फिर अपने नित्यकर्मों में लग जाती हैं। सही मायने में वे आतंकवाद से लड़ना नहीं चाहती हैं। उनमें इतना आत्मविश्वास नहीं बचा है कि वे देश के सामने उपस्थित ज्वलंत सवालों पर बात कर सकें। सरकारों का खुफिया तंत्र ध्वस्त है और पुलिस बल हताश। ऐसे में बस्तर जैसे इलाके एक खामोश मौत मर रहे हैं। यहां दिन-प्रतिदिन कठिन होती जिंदगी बताती है, ये युद्ध रूकने के आसार नहीं हैं। हिंसा और आतंक के खिलाफ खड़े हुए सलवा जूडुम जैसे आंदोलन भी अब खामोश हैं। माओवादी आतंक के खिलाफ एक प्रखर आवाज महेंद्र कर्मा अब जीवित नहीं हैं। माओवाद के खिलाफ इस इलाके में बोलना गुनाह है। कहीं कोई भी दादा लोगों (माओवादियों) का आदमी हो सकता है। पुलिस के काम करने के अपने अजीब तरीके हैं जिसमें निर्दोष ही गिरफ्त में आता है। न जाने कितने निर्दोष माओवादियों के नाम पर जेलों में हैं लेकिन माओवादी आंदोलन बढ़ रहा है क्योंकि सरकारें मान चुकी हैं यह युद्ध जीता नहीं जा सकता है। किंतु इस न जीते जाने युद्ध के चलने तक सरकार कितनी लाशों, कितनी मौतों, कितने जन-धन और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के बाद मैदान में उतरेगी, कहना कठिन है।

सोमवार, 10 मार्च 2014

चुनावी समर में भाजपा की सोशल इंजीनिरिंग

-संजय द्विवेदी
 देश की हर पार्टी को यह हक है कि वह अपने सामाजिक और भौगोलिक विस्तार के न सिर्फ सपने देखे, बल्कि उसे हकीकत में बदलने के जतन भी करे। राष्ट्रीय रंगमंच पर जैसे-जैसे चुनावी गतिविधियां तेज हो रही हैं, भाजपा में अपने सामाजिक आधार के विस्तार की तड़प साफ दिख रही है। लगभग आधे भारत में अनुपस्थित भाजपा की समस्या यह है कि वृहत्तर हिंदू समाज की रहनुमाई का दम भरने वाली इस पार्टी के छाते के नीचे अभी भी एक बड़ा समाज नहीं है। खासकर दलितों ,आदिवासियों और पिछड़ों के बीच इसे अपनी स्थाई जगह अभी बनानी है। शायद इसी को भांपते हुए पार्टी ने ताबड़तोड़ ऐसे फैसले लिए हैं जिससे एक वातावरण बने कि भाजपा के छाते के नीचे वृहत्तर हिंदू समाज एकत्र तो हो ही रहा है और बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक भी उसके छाते के नीचे आ रहे हैं। पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह के मुसलमानों से माफी मांगने के बयान को इस रोशनी में देखा जा सकता है।
दलितों की जगहः भाजपा और संघ परिवार की लाख कोशिशों के बावजूद दलित नेतृत्व का अभाव पार्टी को हमेशा महसूस होता रहा है। सूरजभान, बंगारू लक्ष्मण सरीखे एकाध नेताओं को छोड़ दें तो भाजपा के दलित नेता राष्ट्रीय रंगमंच पर अपनी जगह नहीं बना पाए। वहीं दूसरे दलों से आए संघप्रिय गौतम जैसे नेता भी भाजपा में उस तरह रच-बस नहीं पाए कि वे दल को कोई शक्ति दे पाते। अब भाजपा ने इसकी तोड़ के लिए एक बार फिर जतन शुरू किए हैं। इंडियन जस्टिस पार्टी के नेता उदित राज को भाजपा में शामिल कर इस ओर एक बड़ा कदम उठाया है। संजय पासवान जैसे बिहार भाजपा के दलित नेता इस दिशा में निरंतर प्रयास कर रहे हैं। वे बाबा साहेब अंबेडकर से लेकर कांशीराम और जगजीवन राम के चित्र अपने कार्यालय में लगाकर यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा दलितों के सवालों पर गंभीर है। यहां बौद्ध और हिंदु एकता के प्रयास भी देखे जा रहे हैं। जैसे भाजपा शासित मध्यप्रदेश में बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना कर वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक बड़ा कदम उठाया है। जिससे दुनिया भर के बौद्ध धर्मावलंबी देश आकर्षित हुए हैं। बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना सांची(मप्र) में करने का एक प्रतीकात्मक महत्व भी है। उदित राज भी एक ऐसे नेता हैं जो हिंदु समाज की तमाम रीति-नीति पर सवाल खड़े करते हुए बौद्ध बन गए थे। उनका भाजपा में आना एक संकेत जरूर है कि राजनीति में बदलाव आ रहा है। भाजपा का दिल भी बड़ा हो रहा है और उसमें अन्य विचारों के लिए भी जगह बन रही है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के नेता रामदास आठवले आज राजग गठबंधन के एक बड़े नायक बन चुके हैं। भाजपा ने अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर के स्थान पर उन्हें समर्थन देकर राज्यसभा में भेजा है। जाहिर तौर पर भाजपा की यह उदारता अकारण नहीं है। वह अपने सामाजिक विस्तार की पीड़ा में बहुत से कदम उठाते हुए, ज्यादा सरोकारी और ज्यादा व्यापक बनने की कोशिशों में लगी है। इसी तरह रामविलास पासवान की पार्टी को सप्रयास राजग में लाना साधारण नहीं है। इस फैसले से बिहार के राजनीतिक समीकरणों में अकेली पड़ी भाजपा को जहां राहत मिलेगी, वहीं दलितों के बीच एक राष्ट्रीय अपील भी बनेगी। इसमें दो राय नहीं कि देश में मायावती, रामविलास पासवान, रामदास आठवले और उदितराज ऐसे नाम हैं, जिन्हें दलित नेता के नाते जाना-पहचाना जाता है। इनमें मायावती को छोड़कर तीनों आज राजग और भाजपा के मंच पर हैं।हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप विश्नोई के साथ गठबंधन बना हुआ है। इसी तरह तमिलनाडु में वायको का साथ आना भी भाजपा की राजनीति को सफल बनाता है। जयललिता के तीसरे मोर्चे के मंच पर जाने से भाजपा का अकेलापन तमिलनाडु में वायको निश्चित ही भरने में सफल होंगें। वैसे भी वे वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री का नाराः भाजपा लंबे समय तक पिछड़ों में लोकप्रिय रही है। किंतु 1990 के बाद हुए सामाजिक बदलावों ने भाजपा को काफी पीछे छोड़ दिया। पूरा उत्तर भारत सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बन गया, जिसमें समाजवादी विचारधारा से आने वाले पिछड़े वर्गों के अनेक नेता प्रभावी हो गए।  वहीं रही सही कसर भाजपा के कल्याण सिंह, उमा भारती जैसे नेताओं की नाराजगी ने पूरी कर दी। इससे सबक लेकर भाजपा ने पहले अपने नाराज नेताओं को मनाया और आज कल्याण सिंह व उमा भारती दोनों पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में पुनः दल में शामिल हो चुके हैं। वहीं उप्र में स्व.सोनेलाल पटेल जो अपना दल बनाकर कुर्मियों में खास आधार रखते थे, की बेटी अनुप्रिया पटेल का समर्थन भाजपा ने हासिल कर लिया है। बिहार में कुशवाहा समाज के प्रमुख नेता  उपेंद्र कुशवाहा का तालमेल भी भाजपा से हो चुका है।इसके साथ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछड़ा वर्ग से आने के कारण मिलने वाले लाभ पर भी भाजपा की नजर है। मोदी अपने भाषणों में अपनी जाति और काम (चाय बेचना) दोनों की याद दिलाना नहीं भूलते हैं। निश्चित ही इसके अपने अर्थ हैं और यह नाहक कही जा रही बात तो कतई नहीं है। पिछले चुनाव में भी भाजपा ने उप्र में अजीत सिंह के साथ तालमेल किया था, किंतु सत्ता आते ही वे कांग्रेस के गठबंधन में शामिल हो गए। इस बार भाजपा अपने साथियों के चुनाव में सर्तकता तो बरत रही है किंतु वह इस चुनाव को लेकर खासी गंभीर भी है। दो चुनावों की हार ने उसके आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है, यही कारण है उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, मप्र की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती,कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीएस येदुरप्पा, गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल जैसे तमाम नेताओं को साथ लेकर वह परिवार की एकता और पिछड़ा वर्गों के नेतृत्व की एकजुटता का संदेश देना चाहती है। आज देश में उसके पास कर्ई पिछड़ा वर्ग के नेता हैं जो उसका आधार बढ़ाने में सहायक हैं। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, बिहार के नेता प्रतिपक्ष सुशील कुमार मोदी जैसे चेहरे भाजपा को राहत देते नजर आते हैं। भाजपा की इस सोशल इंजिनियरिंग में अकेले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी शेष हैं। बाकी अपने सारे बागियों को भाजपा अपने मंच पर वापस ला चुकी है। यह साधारण नहीं है कि भाजपा से बगावत करने वाले ज्यादातर बड़े नेताओं में आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग के नेता ही शामिल थे। इस पर भाजपा को विश्लेषण करने की जरूरत है कि आखिर वह क्या कारण है कि पार्टी इन वर्गों के नेताओं की शक्ति और जनाधार का सही उपयोग नहीं कर पाती और वे बगावत की सीमा तक चले जाते हैं। कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, प्रहलाद पटेल, वीएस येदुरप्पा, शंकर सिंह बाधेला, केशूभाई पटेल जैसे तमाम नाम इसी परंपरा में आते हैं। भाजपा में मोदी युग का आरंभ होने के बाद एक बार फिर बिखरा भाजपा परिवार एक हो रहा है। देखना है कि यह एकता और नए समीकरण चुनाव को किस तरह प्रभावित करते हैं।

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

अंगड़ाई लेता तीसरा मोर्चा

-संजय द्विवेदी


    तीसरा मोर्चा भारतीय राजनीति का एक अजूबा है किंतु वह है और हर चुनाव के पहले अपनी अहमियत जताने के लिए प्रकट हो ही जाता है। तीसरे मोर्चे के अलग-अलग शिल्पकार हर बार उसे खड़ा कर ही देते हैं और मंच पर उसके दिग्गजों की एकता बताती है कि सारा कुछ बदलने ही वाला है। इस बार इस एकता के सूत्रधार हैं माकपा नेता प्रकाश कारात। अब तक इस मोर्चे में लगभग 11 पार्टियां शामिल हो चुकी हैं जिनमें वाममोर्चा( सीपीआई, सीपीएम, आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक), जेडी(एस), जेडी(यू), सपा, बीजेडी, झारखंड विकास मोर्चा और अन्नाद्रमुक शामिल हैं।
   जाहिर तौर पर ऐन चुनाव के वक्त इस कवायद के मायने बहुत स्पष्ट हैं। कांग्रेस की पलती हालत और भाजपा को सत्ता से रोकने की चाह में एकत्र ये दल एक सपने के तहत एकजुट हैं। किंतु संकट यह है कि इस मोर्चॆ में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी कई हैं। वहीं एक व्यापक मोर्चा बनने में भी इसमें खासी बाधाएं हैं। जैसे की मुलायम सिंह यादव के नाते मायावती इस मोर्चे के साथ नहीं आ सकतीं तो वहीं वाममोर्चा के नाते ममता बनर्जी भी इससे दूर हैं। ऐसे में तीसरे मोर्चे के दलों में व्यापक आम सहमति के आसार नजर नहीं आते हैं। हां उनकी उम्मीदें इस बात पर जरूर हैं कि अगर कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर होती है और 100 से 150 सीटों पर  सिमटती है ,तो तीसरे मोर्चे को समर्थन देकर वह भाजपा और मोदी का रथ रोक सकती है। यह एक ऐसी कल्पना है जिसके आधार पर ही यह एकजुटता व्यापक होती हुयी दिखती है। यह एकता दलअसल मुद्दों के आधार पर नहीं एक संभावित अवसर के नाम पर हैं।
  तीसरे मोर्चे में शामिल पार्टियों में सबसे बड़ी उम्मीद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता हैं। उन्हें नरेंद्र मोदी के खेमे में माना जा रहा था। यह लगभग तय था कि वे राजग की सरकार बनने पर मोदी का समर्थन करेंगीं। किंतु प्रकाश करात की यह बड़ी सफलता है कि वे जयललिता को राजग की ओर जाने से खींच लाए। अब हालात यह हैं कि जयललिता की आंखों में प्रधानमंत्री का सपना तैरने लगा है। अपने खासे जनाधार और द्रमुक नेता करूणानिधि के परिवार में पड़ी फूट ने उनको एक अवसर दिया है कि वे इस तरह के सपने देख सकें। तमिलनाडु की 65 वर्षीय इस मुख्यमंत्री की पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में 9 सीटें जीती थीं। अब माहौल के मद्देनजर वे राज्य की चालीस लोकसभा सीटों में ज्यादातर पर जीत के सपने देख रही हैं। तीसरे मोर्चे में शामिल सभी दलों में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने पर जयललिता अपने सपनों को हकीकत में बदलता देख सकती हैं। आज हालात यह हैं कि पूरे तमिलनाडु में जयललिता की पार्टी उनको प्रधानमंत्री बनाने का अभियान चला रही है। पार्टी का एक ही नारा है तमिलनाडु और पांडिचेरी का सारी सीटें जीतकर लोकसभा में अपनी नेता को स्थापित करना।
  इसी तरह मोर्चे में शामिल मुलायम सिंह यादव के समर्थक भी उत्तर प्रदेश में भारी जीत दर्ज कराकर दिल्ली के सपने देख रहे हैं। 74 साल के हो चुके मुलायम सिंह यादव के लिए यह एक तरह से आखिरी पारी भी है। उप्र के मुख्यमंत्री और देश के रक्षामंत्री रह चुके मुलायम सिंह के लिए अब सिर्फ प्रधानमंत्री का पद ही बचा है। पिछले लोकसभा चुनावों में उनके दल को उप्र में 23 लोकसभा सीटें मिली थी। अब नेता जी चाहते हैं कि उप्र से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतें ताकि तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री के लिए वे सबसे आगे हों। बावजूद इसके उप्र में उनके बेटे अखिलेश यादव की सरकार की असफलताएं और दंगों के दाग शायद बड़ी जीत दिला पाएं। किंतु उनकी हर सभा में नेता जी को प्रधानमंत्री बनाने के गीत गाए जा रहे हैं। 80 लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश में मायावती के बाद अब भाजपा भी जोर बांध रही है। मोदी की लहर वहां एक भाजपा के लिए एक बड़ा अवसर बन सकती है।
 क्षेत्रीय दलों की बढ़ती हसरतें इसलिए भी उफान पर हैं क्योंकि लोगों को लग रहा है कि कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन बड़ी सफलताएं पाते हुए नहीं दिख रहे हैं। कांग्रेस जहां डूबता हुआ जहाज दिख रहा है वहीं भाजपा की बढ़त भी सीमित दिख रही है। फिर भाजपा देश के तमाम इलाकों से अभी भी अनुपस्थित है। ऐसे में तीसरे मोर्चे का उत्साह चरम पर है। वामपंथी नेताओं की सबसे बड़ी चिंता सिर्फ मोदी के रथ को रोकने की है किंतु संकट यह है कि वाममोर्चा तो अपने गढ़ पश्चिम बंगाल में ही बेहाल है। ममता बनर्जी के तेवरों के चलते वाममोर्चा को लोकसभा चुनावों में भी बहुत बड़ी सफलता मिलने की उम्मीद नहीं दिखती। दूसरी ओर क्षेत्रीय दलों इस संभावना से भरे- पूरे हैं कि वे अवसर आने पर राजग की राह पकड़ सकते हैं। शायद इसके चलते प्रकाश कारात अभी से उनको गठबंधनों के साथ बांधना चाहते हैं। इस बंधन से शायद नरेंद्र मोदी को समर्थन देने को लेकर दलों में हिचक पैदा हो। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अटलबिहारी वाजपेयी प्रयोग की सफलता से भी राजग को लेकर क्षेत्रीय दलों में एक स्वाभाविक आकर्षण है किंतु तीसरे मोर्चे के आगाज से तमाम दल अब अलग राह पकड़ रहे हैं। तीसरे मोर्चे की शक्ति ही उसकी सीमा है। एक तो यह मोर्चा किसी राजनैतिक प्रतिबद्धता के कारण नहीं कांग्रेस-भाजपा विरोध के बीच एक तीसरी तान छेड़ने का वाहक है। दूसरा इसके नेताओं का आपसी समन्वय भी गायब है।
 प्रधानमंत्री पद को लेकर भी राजनेताओं की महत्वाकांक्षाएं आपस में टकरा सकती हैं। एक समय में स्व. हरिकिशन सिंह सुरजीत तीसरे मोर्चे के नायक बने थे और तमाम क्षेत्रीय आकांक्षाओं का साधने का काम उन्होंने किया था। आने वाले समय में प्रकाश करात इस भूमिका में कितने प्रभावशाली साबित होते हैं कह पाना कठिन है। नेताओं के आपसी द्वंद, उनकी क्षेत्रीय अपील, राज्यों के मुद्दे और केंद्रीय राजनीति में एक प्रभावशाली हस्तक्षेप जैसे सवाल इससे जुड़े हैं। तीसरे मोर्चे की सरकारों को देखें तो वे प्रायः किसी राष्ट्रीय नेता के आभामंडल के इर्द-गिर्द बनती नजर आयी हैं। वीपी सिंह, चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल ऐसे ही राजनेता थे। इनमें अकेले देवगौड़ा ऐसे थे जिन्हें क्षेत्रीय नेता कहा जा सकता है। दूसरी ओर इन दलों का संकट यह है कि वे भाजपा के खिलाफ सब एकजुट नहीं होगें। क्योंकि उनमें आपसी मतभेद बहुत गहरे हैं। उप्र में मुलायम और मायावती, प.बंगाल में वाममोर्चा और ममता बनर्जी, बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार के मतभेद बेहद गहरे हैं। ऐसे में वाममोर्चा नेताओं की कोशिशों के बावजूद तीसरा मोर्चा बहुत व्यापक आकार नहीं ले सकता।

   सत्ता कैसे विचारों को बदलती है उसे देखना हो तो वाजपेयी सरकार की याद कीजिए। सेकुलरिज्म और भाजपा विरोध के नारों की असलियत भी उस समय खुल गई जब भाजपा की गठबंधन की सरकार को उमर अब्दुल्ला से लेकर रामविलास पासवान, नीतिश कुमार, जार्ज फर्नांडीस, जलललिता, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू की पार्टियां समर्थन देती नजर आईं। ऐसे में तीसरा मोर्चा एक सपना है जिसके सच चुनाव परिणामों के बाद ही सामने आएंगें। तीसरे मोर्चे की सारी कोशिश मोदी की रफ्तार और गति को थामने की है। राजग की ओर दलों को जाने से रोकने के लिए प्रकाश करात ने यह सारा कुछ रचा है, जिसके परिणाम अभी बहुत जाहिर नहीं हैं। अब जबकि चुनावी महाभारत का शंखनाद हो चुका है। सारे सेनानी मैदान में उतर चुके हैं तो यह देखना रोचक होगा कि कांग्रेस, भाजपा, आप के बीच एक चौथा कोण कौन सी लहरें पैदा करता है। अपने दिग्गज नायकों की मैदानी सफलताओं से भी तीसरे मोर्चे का भविष्य लिखा जाएगा, लेकिन क्या भरोसा कब कौन नेता अपनी फौज के साथ तीसरे मोर्चे को छोड़कर किसी दूसरे मोर्चे में खड़ा दिखा। यही एक बात तीसरे मोर्चे की विश्वसनीयता पर सबसे बड़ा सवाल है। डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती। शायद इसीलिए दिल्ली में बनी तीसरे मोर्चे की कोई सरकार पांच साल नहीं चली। प्रकाश करात की कोशिशों को सलाम कीजिए कि उन्होंने फिर से तीसरे मोर्चे को जिंदा कर दिया है और भारतीय राजनीति फिर एक रोचक मोड़ पर खड़ी हो गयी है।

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

केजरीवालः पलायन या नई मंजिल की तलाश ?


-संजय द्विवेदी
    दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह का वातावरण बनाकर अपनी सरकार को शहीद किया, ऐसे दृश्य भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में नहीं देखे गए। सच कहें तो वे एक ऐसे नायक की तरह सामने आए जो अपनी ही सरकार से मुक्ति चाहता था। ऐसा करके अरविंद को क्या हासिल होगा, अभी इसका आकलन होना शेष है किंतु यह तो तय है कि यदि वे चाहते तो सरकार बनी रह सकती थी। कांग्रेस के जिन नेताओं ने इस सरकार को समर्थन दिया था उनको भी कल्पना नहीं रही होगी यह सरकार इतनी जल्दी गिर जाएगी।
   दो महीने से भी कम समय में अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से काम किया उसने कोई उम्मीद नहीं जगाई पर इतना तो साबित कर ही दिया कि उन पर अराजकतावादी होने का आरोप बहुत नाजायज नहीं है। सत्ता में होकर जिस अपेक्षित धैर्य, गंभीरता और सबको साथ लेकर चलने के औदार्य की जरूरत है, वह अरविंद और उनके साथियों में पहले दिन से नदारद है। देश सेवा के अहंकार से भरी देहभाषा और न जाने किस भ्रष्टाचार से जूझने की कसमें खाते अरविंद की विदाई ने सही मायने में देश को निराश किया है। जिस दौर में गठबंधन एक राजनीतिक मजबूरी हो चुके हों उसमें यह जिद कि पूरा बहुमत मिलने पर ही सरकार चलाएंगें एक तरह का बाल हठ ही है और राजनीतिक नासमझी भी है। 1990 के बाद देश की राजनीति और उसका विमर्श पूरी तरह बदल गया है। खासकर विचारधारा के स्तर पर विविध विरोधी विचारधाराओं के दल भी साथ आकर सरकार चला रहे हैं। आप देखें तो पहले  गठबंधन को लेकर कांग्रेस रवैया खासा अलग रहा है। एक अखिलभारतीय पार्टी होने के नाते वह गठबंधन की सरकारों को समर्थन तो देती रही पर खुद गठबंधनों का नेतृत्व करने से केंद्रीय स्तर पर परहेज करती रही। किंतु राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के प्रयोग के बाद कांग्रेस की हिचक दूर हुयी और वह सत्ता में पिछले दस सालों से बनी हुयी है। यानि कि विरोधी विचारों के दलों के साथ मिलकर सरकार चलाने की मजबूरी को दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस भी समझते हैं। किंतु दिल्ली की सरकार के नायक केजरीवाल इस बात को नहीं समझ सके। अगर पूर्ण बहुमत मिलने पर ही सरकार बनाना था तो उसी समय आप को सत्ता से दूर हो जाना था जब वह जनता के पास जाकर सत्ता में जाने की अनुमति मांग रहे थे। पर यह कितना विरोधाभास है कि जो पार्टी सत्ता को लेकर संकोच से इतनी भरी हो कि वह दिल्ली की जनता के बीच जाकर रायशुमारी करती रही। वही सत्ता छोड़ने के वक्त अपने नेता की सनक पर सत्ता से बाहर हो जाती है और दिल्ली के लोगों की राय उसके लिए बेमानी हो जाती है। यानि यह अरविंद और उनके साथियों की मरजी है कि वे कब किस सवाल पर जनता से राय पूछें और कब न पूछें।
       तमाम अप्रिय प्रसंगों के बीच अरविंद और उनके साथी अब सत्ता मुक्त हैं। यानि अब वे अपनी करने के लिए स्वतंत्र और स्वच्छंद भी हैं। लेकिन दिल्ली के बहुत कम दिनों के सत्ता प्रसंग ने उनके द्वंद्वों को उजागर ही किया है। सत्ता ने उनके विचारों और व्यवहारों को दूरी को तो उजागर किया ही है, अहंकार और अहमन्यता से भरी देहभाषा ने उनकी सनकों का भी लोकव्यापीकरण किया है। खुद को उजली परंपरा का उत्तराधिकारी मानना और दूसरों को कीचड़ में लिपटा हुआ कहने की उनको आजादी है किंतु आंदोलनों की उजास और संषर्घ की आंच को उन सबने धीमा किया है ,इसमें दो राय नहीं है। उनका सत्ता छोड़कर भागना बताता है कि वे सत्ता तो चाहते हैं पर अपनी शर्तों पर चाहते हैं। वे यह मानने को तैयार नही हैं कि दिल्ली विधानसभा की 70 में वे सिर्फ 28 सीटें वे जीते हैं और शेष दिल्ली ने जनादेश दूसरे दलों को दिया है। ऐसे में शेष जनादेश प्राप्त दलों को हाशिए पर रखकर, उनकी आवाज न सुनकर वे एक अधिनायकत्व से भरी पारी खेलना चाहते हैं। जाहिर है लोकतंत्र में इस तरह के हठों के लिए जगह कहां है। समन्वय,संवाद और लोकतांत्रिक विमर्श में उनका यकीन ही नहीं दिखता। वे संवाद को सिर्फ सौदा समझते हैं। जबकि संवाद, लोकतंत्र की बुनियाद बनाता है। अगर संवाद न होगा तो लोकतंत्र के मायने क्या रह जाएंगें? आरोप- आरोप और आरोप की राजनीति इस देश को कहीं नहीं ले जाएगी, हमें यह समझने की जरूरत है।
    एक मुख्यमंत्री के नाते वे जनता का बहुत भला कर सकते थे। लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी के दर्द को कम कर सकते थे। किंतु वे भाग गए, इस पलायन में भी वे अवसर ढूंढ सकते हैं। किंतु इसे कहा तो पलायन ही जाएगा। एक ऐसी चीज के लिए जिद जो हो नहीं सकती ,वह बताती है कि अरविंद किस कदर सरकार गिराने पर आमादा थे और सरकार की शहादत के नाम पर आगामी लोकसभा चुनाव में अपने दल का विस्तार चाहते थे। उनकी घबराहट और पलायन दोनों के संदेश साफ हैं कि वे सत्ता के साथ सहज नहीं थे। उन पर पड़ने वाले दबावों को वे झेल सकने की स्थिति में नहीं थे। उनका राजनीतिक डीएनए एक विद्गोही का है, सो सत्ता में रहते हुए वे उस तरह के आचरण करने पर आलोचना की जद में आ रहे थे (याद कीजिए उनका दिल्ली के सीएम के रूप में दिया गया घरना)। आप देखें तो पूरी राजनीतिक प्रक्रिया और तंत्र को लांछित करते अरविंद और उनके साथी मीडिया के द्वारा जरा सी आलोचना पर किस कदर बौखला पड़ते हैं। भाषा और उसके संयम का तो खैर जाने ही दीजिए। अरविंद और उनके साथियों ने सही मायने में देश की जनता और दिल्ली के लोगों से छल किया है। उन्होंने उन लोगों की उम्मीदों के साथ छल किया है, जो उनकी तरफ बहुत आशा से देख रहे थे। दिल्ली की सरकार को पूरी तनदेही और जवाबदेही से चलाते हुए वे एक जनपक्षधर राजनेता की तरह उभर सकते थे।

   अब सवाल यह है कि जिनसे एक छोटा सा राज्य दिल्ली और दो दलों का गठबंधन नहीं संभलता वे केंद्रीय राजनीति में आकर क्या करना चाहते हैं? यहां उन्हें कैसे और कब पूर्ण बहुमत मिलेगा और कब वे सत्ता के लिए तैयार होंगें, कहा नहीं जा सकता। अरविंद अपनी अपनी तमाम खूबियों के बावजूद अंततः एक आंदोलनकारी हैं। यही उनकी शक्ति और सीमा दोनों है। जबकि देश को एक मजबूत, कद्दावर प्रशासक का इंतजार है। जो देश को उसकी तमाम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, व क्षेत्रीय आकांक्षाओं के साथ साध सके। दिल्ली में गठबंधन की ही सही, पर एक मजबूत सरकार दे सके। जो देश के सवालों से टकरा सके न कि उनका सामना होते ही पलायन कर जाए। आम आदमी पार्टी ने देश के लोगों की तमाम सदिच्छाओं के बावजूद जिस तरह निराश किया है, उसमें यही लगता है यह दल भी कुछ विद्रोही युवाओं का संगठन बनकर रह जाएगा। भारत जैसे महादेश के प्रश्नों और उसके मर्म तक पहुंचकर उसके प्रश्नों से जूझने की शक्ति तो फिलहाल आप में नहीं दिखती। उसके साथ जुड़े तमाम बुद्धिजीवी, रचनाकारों और पत्रकारों को चाहिए वे एक लंबी और सुदीर्ध तैयारी के साथ लोगों के बीच प्रकट हों, तभी यह देश आप जैसे प्रयोगों पर भरोसा कर पाएगा। लोगों की भावनाओं से खेलने ,उन्हें उद्वेलित करने और उनका इस्तेमाल करने से इस तरह के तमाम भावी प्रयोग और आंदोलन भी शक के घेरे में आएंगें कृपया ऐसा मत कीजिए। उम्मीद है कि कि आम आदमी पार्टी अपने भावी कदमों में अपेक्षित परिपक्वता का परिचय देगी और देश की जनाकांक्षाओं को सही संदर्भ में समझकर आचरण करेगी।

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

नरेंद्र मोदी से कौन डरता है?

-संजय द्विवेदी
    आखिर नरेंद्र मोदी में ऐसा क्या है कि वे सबके निशाने पर हैं। अपनी पार्टी के भीतर एक लंबा युद्ध लड़कर आखिरकार जब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो ही चुके हैं तो अन्य दलों को उनके नाम से घबराहट क्यों हैं। आखिर क्या कारण है कि दंगों की लंबी सूची दर्ज करा चुके उप्र के सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव उन्हें नहीं डराते किंतु मोदी के नाम से सेकुलर खेमों में हाहाकार व्याप्त है। मुजफ्फरनगर के बाद के हालात में भी मुलायम सेकुलर खेमे के चैंपियन हैं और उनके नाम से किसी को कोई आपत्ति नहीं है। क्या यह हमारी राजनीति का चयनित दृष्टिकोण नहीं है? राजनीति के इसी रवैये की परतें अब खुल रही हैं। केजरीवाल हमें अपनी सादगी से डराते हैं, तामझाम और सत्ता के प्रतीकों को छोड़कर डराते हैं तो मोदी की काम करने की शैली, विकास और सुशासन के लिए किए गए उनके प्रयास डराते हैं।
   लगता है कि हमारी राजनीति अब सुविधा और सामान्यीकरणों की शिकार हो रही है। परिवर्तन लाने की संभावना से भरे नायक हमें डराते हैं। यह यथास्थितिवादी चरित्र क्या इस देश की राजनीति और समाज जीवन को विकलांग नहीं बना रहा है? कोई भी ऐसा नायक जो संभावनाओं से भरा है हमें क्यों डराता है? आखिर क्या कारण है कि विकास की जिन संभावनाओं और सुशासन के जिन मानकों को गुजरात में मोदी और उनकी सरकार ने संभव किया है, उसे देश में दुहराने से हम डरते हैं ? जबकि मायावती, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव, उमर अब्दुला जैसा प्रशासन हमें नहीं डराता। हमें नए-नवेले केजरीवाल की राजनीति से ठंड में पसीने आ जाते हैं क्योंकि वे कुछ ऐसे असुविधाजनक सवाल उठाते हैं जिनकी मुख्यधारा की राजनीतिक में स्वीकार्यता नहीं है। आखिर हमारी राजनीति इतनी बेचारगी से क्यों भर गयी है? क्यों नए प्रतीक, नए प्रयोग, क्रांतिकारी विचार हमें आह्लादित नहीं करते? उनके साथ खड़े होने में हमें संकोच क्यों होता है ?कांग्रेस- भाजपा और तीसरे मोर्चे के बंटे हुए मैदान में कोई नया खिलाड़ी हमें आतंकित क्यों करने लगता है?
    क्यों हमें सांप सूंघ जाता है जब दिल्ली के लुटियन जोन में बसने वाले लोगों के अलावा कोई नरेंद्र मोदी दिल्ली की तरफ बढ़ता है? क्या नरेंद्र मोदी इस देश के एक बेहद समृद्ध राज्य के अरसे से मुख्यमंत्री नहीं हैं? उनके शासन करने के तरीके को लेकर तमाम विवादों के बावजूद क्या उनका राज्य समृद्घि के शिखर नहीं छू रहा है। महाराष्ट्र जैसे विकसित इलाके जब नकारात्मक सूचनाओं से भरे हों तो क्या मोदी का सुशासन साथी हमें आकर्षित नहीं करता। उदारीकरण के पैदा हुए तमाम अवसरों ने हमें व्यापक संभावनाओं से भर दिया है। किंतु क्या कोई दिशाहीन सरकार इन अवसरों का लाभ ले सकती है। नरेंद्र मोदी जैसे अनुभवी और केजरीवाल जैसे अनुभवहीन कैसी भी सरकार चलाएंगें वह मनमोहन सिंह और शीला दीक्षित की सरकार से बेहतर ही होगी। सच तो यह है कि मनमोहन सिंह की दिशाहारा-थकाहारा सरकार ने राहुल गांधी जैसे भोले युवा के लिए प्रधानमंत्री बनने के मार्ग में जैसी मुसीबतें खड़ी कर दी हैं कि उनका इस चुनाव में प्रधानमंत्री बन पाना असंभव ही दिखता है। जबकि सत्य यह है कि राहुल गांधी चाहते तो पांच साल पहले ही प्रधानमंत्री बन सकते थे। किंतु उनकी मां और कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने न जाने किन स्वदेशी-विदेशी दबावों में मनमोहन सिंह को झेलने का निर्णय लिया था। मनमोहन सिंह- पी.चिदंबरम- मोंटेंक सिंह अहलूवालिया और कपिल सिब्बल जैसों ने कांग्रेस को जिस मुहाने पर ला खड़ा किया है कि अब अंधेरा घना होता जा रहा है। प्रधानमंत्री पद के लिए उपलब्ध उम्मीदवारों में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी निश्चित ही आमने-सामने हैं किंतु मोदी के पास चमकदार, विकासोन्मुखी राजनीति के साल हैं तो राहुल गांधी के पास दस की कांग्रेसी सरकार के कारनामे हैं। राहुल गांधी और सोनिया गांधी को इनके कामों का हिसाब देना होगा। राहुल गांधी के सामने तमाम चुभते हुए सवाल हैं। जिनमें प्रमुख यह कि अगर राहुल गरीब समर्थक और आम आदमी समर्थक नीतियों  के पैरोकार हैं, अगर वे कलावतियों की जिंदगी में उजाला चाहते हैं तो आखिर मनमोहन सिंह इस सरकार के दस तक प्रधानमंत्री कैसे और क्यों बने रहे जिनकी समूची राजनीति बाजार समर्थक और विदेशी इशारों पर चलती रही। उन्हें देश में इस सवाल से जूझना होगा कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के राज में महंगाई चरम पर क्यों है? रूपया इस दुर्गति को क्यों प्राप्त है? उन्हें यह भी बताना होगा कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में रोज घोटाले क्यों हो रहे हैं? जाहिर तौर पर राहुल के सामने बहुत असुविधाजनक सवाल आएंगें।
    इसके विपरीत नरेंद्र मोदी को यह सुविधा हासिल है उनके पास गुजरात जैसे विकसित राज्य के मुख्यमंत्री और बेहतर प्रशासक होने का तमगा है। साथ ही पिछले दस साल की केंद्र सरकार की नाकामियों का इतिहास भी नरेंद्र मोदी को मदद देता नजर आता है। इतिहास ने इस कठिन समय में नरेंद्र मोदी को स्वयं ऐसे अवसर दिए हैं जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है। सही मायने में देश में कुशासन, भ्रष्टाचार और अकमर्ण्यता को लेकर एक आलोड़न है। जनता के मन में रोष भरा हुआ है। टेलीविजन समय ने इस पूरे बेशर्म समय को खूबसूरती से दर्ज किया है। इसके चलते सत्ता विरोधी और कांग्रेस विरोधी रूझान सर्वत्र प्रकट हो रहा है। इसके चलते ही कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से कल तक अपने विरोधी रहे केजरीवाल और उनके मित्रों की ओर बड़ी आस से देखना शुरू कर दिया है। उन्हें लगता है सत्ता विरोधी वोटों को बांटकर वे अपनी सत्ता बचा लेगें। कांग्रेस की पूरी रणनीति दिल्ली प्रदेश के चुनाव के बाद बदल गयी लगती है। वे पूरी तरह से अब केजरीवाल की पार्टी द्वारा किए जाने वाले सत्ता और केंद्र विरोधी वोटों के बंटवारे पर केंद्रित हो चुके हैं। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी की यह दशा सोचनीय लगती है। जिस कांग्रेस ने देश की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व किया है उसके नेतृत्व का इस तरह बेचारा होना एक बड़ा प्रश्न है। इक्कीसवीं सदी में देश एक मजबूत भारत चाहता है। उसके सपने अलग हैं। हिंदुस्तान के नौजवानों की आंखों में एक बेहतर भविष्य उमड़-घुमड़ रहा है। वे लोकतंत्र की इस बेचारगी को ठगे-ठगे से देख रहे हैं। सामने मोदी आएं या केजरीवाल सभी उम्मीदें जगाते हैं। लोग उनकी तरफ दौड़ जाते हैं। दिल्ली की केंद्र सरकार ने जिस तरह लोगों का दिल तोड़ा है कि लोग उम्मीदों से खाली हो चुके हैं। ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी एक आस जगाते हुए नेता हैं। उनके पास भाजपा जैसी बड़ी पार्टी और संघ परिवार का व्यापक आधार है। उनकी पार्टी के पास दिल्ली से लेकर राज्यों में सरकार चलाने के अनुभव हैं। राजग के रूप में उनके नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने एक बेहतर गठबंधन सरकार चलायी है। ऐसे में भाजपा अगर अकेले दम पर 200 सीटों के आसपास पहुंच सकी तो कोई कारण नहीं कि दिल्ली को फिर एक भाजपाई प्रधानमंत्री मिल सकता है। देखना है कि भाजपा इस बेहद खूबसूरत अवसर का किस तरह लाभ उठा पाती है। 

 (लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

शनिवार, 25 जनवरी 2014

नरेंद्र मोदीः सपनों का सौदागर!



अपनी भाषणकला, सुशासन व विकास की राजनीति से जगाईं उम्मीदें
                                                - संजय द्विवेदी
    कभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा था, उनका यह एक वाक्य नरेंद्र मोदी के लिए वरदान बन गया। उन्होंने सोनिया जी की इस टिप्पणी को गुजरात और गुजरातियों का अपमान बताते हुए 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव में ऐसा कैंपेन किया कि कांग्रेस को इन चुनावों में भारी पराजय का सामना करना पड़ा। ऐसे में गुजरात तो मोदी का हो ही चुका था। किंतु 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की पराजय से मोदी के सपनों को पंख लग गए। उसके बाद से ही नरेंद्र मोदी ने अपने राज्य गुजरात की सरहदों को छोड़कर देश के सपने देखने शुरू कर दिए। उनके नेतृत्व में लगातार तीन विधानसभा चुनावों की जीत ने उन्हें यह आत्मविश्वास और हौसला दिया। इन दिनों वे विकास, सुशासन और दृढ़ता के ऐसे प्रतीक बनकर उभरे हैं, जिसमें देश अब अपनी उम्मीदों और सपनों का अक्स देख रहा है।
  गुजरात की सफलताएं, मोदी की भाषणकला, भाजपा का विशाल संगठन तंत्र, कांग्रेस सरकार की विफलताएं और भ्रष्टाचार की कथाएं एक ऐसा वातावरण बना चुकी हैं जहां नरेंद्र मोदी एक महानायक सरीखे नजर आते हैं। मोदी की इस यात्रा को समझने के लिए भाजपा के भीतर के उनकी स्वीकार्यता को लेकर संकटों को याद कीजिए। याद कीजिए गोवा बैठक में रूठे लौहपुरूष का न पहुंचना। याद कीजिए कि कैसे मोदी को गोवा में भाजपा ने स्वीकारा। स्वीकारने वाले नेताओं की देहभाषा और चेहरों को याद कीजिए। बाद में वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी घोषित कर दिए गए। इसे साधारण परिघटना मत मानिए क्योंकि मोदी का चयन भाजपा चलाने वालों ने नहीं किया था। याद करिए गोवा में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के वाक्य। वे कहते हैं- लोकतंत्र में जो लोकप्रिय होता है वही नेता होता है। और तमाम विरोधों और फुसफुसाहटों के बावजूद नरेंद्र मोदी को भाजपा अपना नेता मान लेती है। सही मायने में यह जनभावना को समझकर उठाया गया कदम था।
    मोदी ने जिस तरह साधारण परिवेश से आकर अपनी जड़ें पहले संगठन और फिर अपने गृहराज्य में जमाईं वह करिश्मा ही कहा जाएगा। वे संगठन के साधारण कार्यकर्ता के नाते काम करते हुए शिखर तक पहुंचे। अपनी प्रशासनिक क्षमता और दक्षता को उन्होंने जमीन पर उतार कर दिखाया। अपनी निरंतर आलोचनाओं से न डरे, न सहमे, बस काम करते गए। इसी कर्मठता ने उनके नायकत्व पर मोहर लगा दी। गुजरात दंगों के बाद से आज तक वे मीडिया, मानवाधिकारवादियों, राजनीतिक विरोधियों के निरंतर निशाने पर हैं। देश भर में होते आए दंगों को नजरंदाज करने वाली राजनीतिक जमातें उनके पीछे पड़ी रहीं। अपने अल्पकालीन शासन में ही उप्र में हुए दो दर्जन दंगों के श्मशान पर बैठे मुलायम सिंह और अखिलेश यादव जैसे लोग भी जब मोदी की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े करते हैं तो अफसोस होता है। कांग्रेस जिसके हिस्से दंगों का एक लंबा सिलसिला है वह भी मोदी को कोसने से बाज नहीं आती। जबकि मोदी के राज में उस आखिर दंगें के बाद क्या दंगें दुहराए गए ? क्या वहां के अल्पसंख्यक दूसरे किसी भी राज्य के अल्पसंख्यकों से बेहतर अवस्था में नहीं हैं? साथ ही एक बड़ा सवाल यह भी कि क्या गोधरा में अगर ट्रेन की बोगियों को जलाकर यात्रियों की निर्मम हत्या नहीं होती तो गुजरात में दंगे होते। वस्तुनिष्ट होकर सोचा जाए तो यह दंगे, गोधरा कांड की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए थे। कोई भी सरकार ऐसे मामलों में नियंत्रण के सिवा क्या कर सकती है। क्या कारण है उप्र में सेकुलर चैंपियन यादव परिवार की सरकार दंगे रोक नहीं पाई? ऐसे में दंगों के जख्म को कुरेदने के बजाए उसके बाद गुजरात में हुए विकास और उसकी चौतरफा प्रगति को रेखांकित करने की जरूरत है।
  खुशी की बात है कि गुजरात इन जख्मों को भूलकर आगे बढ़ चुका है। अपने खिलाफ व्यापक और लगातार चले नकारात्मक अभियानों के बावजूद नरेंद्र मोदी आज देश को एक सकारात्मक राजनीति की ओर ले जा रहे हैं। हैदराबाद, पटना से लेकर हाल के रामलीला मैदान में हुए उनके भाषणों में भारत का मन धड़कता है, उसके सपने साफ दिखते हैं। सही मायने में मोदी भारत के मन और उसकी आकांक्षाओं को समझने वाले नेता हैं। उनको पता है कब कैसे और क्या कहना है। शायद इसीलिए रामलीला मैदान में उनका भाषण देश की जनता के सामने उन सपनों की मार्केटिंग जैसा भी था, जिसमें उन्होंने बताया कि आखिर वे कैसा भारत बनाना चाहते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में अपने विजन को स्थापित करते हुए उन्होंने जो कुछ कहा उससे पता चलता है कि वे एक बेहतर और मजबूत सरकार देने की आकांक्षा से लबरेज हैं। शायद इसीलिए देश उन्हें बहुत उम्मीदों से देख रहा है।
   रामलीला मैदान में उन्होंने जो अवसर चुना वह अभूतपूर्व था। रामलीला मैदान वैसै भी इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाओं का केंद्र बना हुआ है। उससे निकली आवाजें पिछले दो सालों से सारे देश को आंदोलित कर रही हैं। मोदी ने भी अपने भाजपा काडर की मौजूदगी का लाभ लेते हुए उन्हें तो संदेश दिया ही, देश को भी उत्साह से भर दिया। भाजपा के कार्यकर्ता वैसे भी अटल जी सरकार के पराभव के बाद निराशा से भरे थे। दो बार की पराजय ने उन्हें दिशाहारा और थकाहारा बना दिया था। मोदी के नेतृत्व ने पूरे कार्यकर्ता आधार को रिचार्ज कर दिया है। पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस पूरी राजनीतिक परिघटना पर सर्तक निगाहें लगाए हुए है। दिग्विजय सिंह यूं ही यह बात नहीं कहते कि इस बार चुनाव संघ और कांग्रेस के बीच है। कांग्रेस की बौखलाहट का स्तर इसी से पता चलता है कि उनके पढ़े-लिखे मणिशंकर अय्यर जैसे नेता भी सड़कछाप बयानबाजी पर उतर आए हैं जिसमें वे कांग्रेस अधिवेशन में मोदी को चाय बेचने का आफर देते नजर आते हैं। जाहिर तौर पर कांग्रेस में गहरी निराशा और अवसाद का वातावरण है। राहुल गांधी के सौम्य चेहरे के बावजूद मनमोहन सरकार के दस साल कांग्रेस पर भारी पड़े हैं। देश ने ऐसी जनविरोधी, भ्रष्ट और अकर्मण्य सरकार कभी नहीं देखी। देश आज यह सवाल पूछ रहा है कि आखिर वह कौन सी मजबूरियां थीं जिसके चलते श्रीमती सोनिया गांधी ने एक अराजनैतिक व्यक्ति को देश की बागडोर दस सालों तक सौंप रखी। मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और कपिल सिब्बल जैसे लोगों ने कांग्रेस की जो गत की है उससे उबरने के लिए कांग्रेस को काफी वक्त लगेगा।
   ऐसी निराशा में देश को एक नायक का इंतजार था। उसे जहां मौका मिल रहा है, वह अपनी प्रतिक्रिया जता भी रहा है। दिल्ली में उसने कांग्रेस को रसातल में पहुंचा कर भाजपा और आप को सर्वाधिक सीटें प्रदान कीं। तो वहीं मिजोरम छोड़कर राजस्थान, मप्र और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें स्थापित हो गयीं। यह देश के मन का एक संकेत भी है। इन चार राज्यों में कांग्रेस की पिटाई बताती है कि देश क्या सोच रहा है। ताजा चुनाव सर्वेक्षण भी भाजपा के आगे बढ़ने का बातें ही कर रहे हैं। निश्चय ही इसके पीछे नरेंद्र मोदी की छवि एक बड़ा कारण है। देश कांग्रेस के राज से मुक्ति चाहता है। शायद इसीलिए मोदी यहां भी खेलते हैं, वे पांच मंत्र देते हैं-एक-एक ही मजहबः भारत सबसे पहले। दो- एक ही धर्मग्रंथः भारत का संविधान। तीन- एक ही शक्तिः देश की जनशक्ति। चार-एक ही भक्तिः देश की राष्ट्रभक्ति। पांच- एक ही लक्ष्यःकांग्रेस मुक्त भारत।
  सही मायने में भारतीय समाज में इस मोदी इफेक्ट को गठबंधनों से अलग होकर पढ़ना होगा। इस बार के चुनाव साधारण नहीं हैं। विशेष हैं। ये चुनाव एक खास स्थितियों में लड़े जा रहे हैं जब देश में सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार से मुक्ति के सवाल सबसे अहम हो चुके हैं। नरेंद्र मोदी इस समय के नायक हैं। ऐसे में दलों की बाड़बंदी, जातियों की बाड़बंदी टूट सकती है। गठबंधनों की तंग सीमाएं टूट सकती हैं। चुनाव के बाद देश में एक ऐसी सरकार बन सकती है जिसमें गठबंधन की लाचारी, बेचारगी और दयनीयता न हो। भाजपा की सीमाएं स्पष्ट हैं, वह हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से से अनुपस्थित है। किंतु अगर बदलाव की लहर चल रही है तो वह कितना और कैसे प्रभाव छोड़ रही है, कहा नहीं जा सकता। हैदराबाद के लालबहादुर शास्त्री स्टेडियम, पटना के गांधी मैदान से लेकर वाराणसी और गोरखपुर की रैलियों में उमड़ रही भीड़ क्या सिर्फ मोदी को सुनने आई है? वह वोट में नहीं बदलेगी, फिलहाल तो यह नहीं कहा जा सकता। एक नए भारत और उसके भविष्य के लिए सोचने वाले युवाओं के मन की हमारी राजनीति को थाह कहां है? वरना दिल्ली की कद्दावर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जिस नाजीच को चीज बनाने के लिए मीडिया को कोस रही थीं, उसी नाचीज ने उन्हें तो हराया ही नहीं सत्ता से भी बेदखल कर दिया। संभव हो नरेंद्र मोदी को लेकर बन रहा वातावरण तमाम लोगों की नजर में हवा-हवाई हो पर उन्हें यह देखना होगा कि मीडिया और राजनीतिक जमातों की रूसवाईयों के बावजूद मोदी ने जनता का प्यार पाया है। इस बार भी पा जाएं तो हैरत मत कीजिएगा।

सोमवार, 20 जनवरी 2014

आप को कौन दे रहा है श्राप ?


-संजय द्विवेदी
   अरसे के बाद देश की राजनीति में आदर्शवाद, नैतिकता और सादगी राजनीतिक विमर्श के केंद्र में है। ये अचानक नहीं हुआ है। ये हुआ है आम आदमी पार्टी के उदय के चलते। आम आदमी पार्टी के राजनीतिक विमर्श में जो चीजें प्रकट हुयीं वह मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए स्वीकार्य नहीं हैं। आप देखें तो आम आदमी पार्टी के चाल-चरित्र में जरा सा विचलन देखकर ही मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का उत्साह चरम पर पहुंच जाता है। आप के नेताओं की अनुभवहीनता, उनके बयानों और बिन्नी जैसे विधायकों की असहमति किस तरह राजनीतिक दलों में उत्साह भर रही है। यह बात बताती है आप के चलते ये दल किस तरह घबराए हुए हैं। साथ ही यह बात भी प्रकट होती है कि एक नई तरह की राजनीतिक संस्कृति किस तरह हमारे मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में अस्वीकार्य है।
   यह साधारण नहीं है कि हमारे मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दल किसी भी अपनी जैसे चरित्र वाली पार्टी से नहीं घबराते हैं, वे घबराते हैं राजनीति के नए चरित्र से, नई शैली से। जिनको सपा,बसपा, अन्नादुमुक और इस जैसी तमाम पार्टियों ने नहीं डराया वे आखिरकार आप से क्यों डर रहे हैं ? जिस देश में 1300 से अधिक पार्टियां हैं वहां एक और दल का आना क्या बुरी बात है? किंतु आप को लेकर स्वागत भाव क्यों नहीं है? आप नष्ट हो जाए, बिखर जाए या उन जैसी ही बन जाए यह कामना लगातार क्या दिखा रही है? यह बात बताती है कि आप के द्वारा उठाए गए मुद्दों से घबराहट है। संसद में लोकपाल पास करने में जो तेजी राजनीतिक दलों ने दिखाई वह इस बात को साबित करती है। सत्ता की राजनीति को ठीक से समझने वाली कांग्रेस ने जिस तेजी से दौड़कर दिल्ली में आप की सरकार बनवाई वह बताती है कि घबराहट का स्तर क्या है। भाजपा जरूर इसके चलते एक अनोखे अवसर से चूक गयी। क्या शानदार राजनीतिक फैसला होता अगर भाजपा ने स्वयं आगे बढ़कर आप की सरकार को समर्थन दिया होता। इस फैसले से कांग्रेसमुक्त भारत बनाने में लगे नरेंद्र मोदी को फायदा मिलता और कांग्रेस राजनीतिक विमर्श से ही गायब हो जाती। दिल्ली में केजरीवाल और देश में मोदी जैसी लहर भाजपा को फायदा पहुंचा सकती थी। राजनीतिक तौर पर कांग्रेस विरोधी लहर एक आंधी में बदल सकती थी। किंतु आप को कांग्रेस ने समर्थन देकर इस अभियान और इसकी तेजी में कुछ सिथिलता जरूर डाल दी है।
   यहां सवाल यह है कि हमारे मुख्यधारा के राजनीतिक दल किसी से कुछ अच्छा सीखने को तैयार क्यों नहीं है? ठीक है, राजनीति में समझौते होते हैं, जीतने वाले उम्मीदवारों पर आत्मविश्वास से हीन पार्टियां दांव लगाती हैं, किंतु अगर परिवेश में कुछ बदल रहा है तो उस अवसर का लाभ लेना चाहिए। इस बदलाव के चलते दलों को कुछ बेहतर कर पाना, अच्छा उम्मीदवार उतार कर उसे चुनाव जीता पाना संभव होता दिख रहा है तो उसका लाभ लेना चाहिए। किंतु जो दल सपा, बसपा,राजद, द्रमुक, शिवसेना, अकाली दल जैसे दलों से भी कभी समस्या महसूस नहीं करते, उन्हें आप से ही समस्या क्यों है। अगर आप उनकी तरह की पार्टी बन जाए या बनने की कोशिश करे तो भी शायद उन्हें उससे कोई समस्या नहीं हो। समस्या तभी है जब आप अपने तरह की राजनीति को हमारे समाज जीवन के विमर्श का हिस्सा बना रही है। अब आप देखिए कि आप के उठाए सवालों महंगाई, भ्रष्टाचार,सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी, सादगी, तामझाम से मुक्त जीवन को अपनाने और इस अवसर का लाभ उठाकर अपने राजनीतिक तंत्र में शुचिता लाने में तेजी लाने के बजाए सारा जोर इस बात पर है कि आप की दिल्ली की सरकार जल्दी से जल्दी एक्सपोज हो जाए और उन्हीं राजनीतिक बुराईयों की शिकार हो जाए जिसमें हमारे दल डूबे हुए हैं। यानि कि इतिहास की इस घड़ी में हमारी दलीय प्रार्थनाएं आम आदमी पार्टी द्वारा उठाए गए सवालों की सफलता के लिए नहीं हैं। सार्वजनिक जीवन में सुधार के प्रति नहीं है, सारी कामना यही है कि आम आदमी पार्टी का यह प्रयोग फ्लाप हो जाए और मुख्यधारा के राजनीतिक दल यह कह सकें कि राजनीति सबके बस की बात नहीं। अपने राजनीतिक अहंकारों से भरी ये जमातें कुछ अच्छा सीखने और स्वयं में परिवर्तन के बजाए आप के ही बदल जाने की दुआएं या उनकी सरकार की विफलता की कामना कर रही हैं। यह देखते हुए भी जनता आप के प्रयोग को किस तरह सराह रही है। अगर राजनीतिक दल अपने में इस तरह के कास्मेटिक सुधार भी करें तो भी जनता उनके पास आ सकती है, एक नई तरह की राजनीतिक धारा की सुधार के लिए देश अवसर दे रहा है। जनता इस प्रतीक्षा में खड़ी है कि हमारी राजनीति भी ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा सरोकारी,ज्यादा संवेदनशील और ज्यादा मानवीय बने।

     इतिहास की इस घड़ी में आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। आम आदमी पार्टी को इस समय में प्रशांत भूषण जैसी बेसुरी आवाजों से बचकर देश के विश्वास की रक्षा करनी होगी। क्योंकि आम आदमी पार्टी एक ऐसे आंदोलन से उपजी पार्टी है, जिसके पिंड में एक जागृत राष्ट्रवाद है, एक नैतिक चेतना है, एक भरोसा और विश्वास है। जो उसके सफेद टोपी, उसके वंदेमातरम, भारत माता की जय और इन्कलाब जिंदाबाद जैसे नारों से प्रकट होता है। उसके साथ बड़ी संख्या में जुटे युवा इसी राष्ट्रवादी चेतना के प्रतिनिधि हैं। उनके सामने एक नरेंद्र मोदी जैसा महानायक भी खड़ा है। उम्मीदों को पाने और एक नया भारत बनाने की आकांक्षा से भरा नौजवान आज किसी राहुल गांधी, मुलायम सिंह या तीसरे मोर्चे के प्रतिनिधियों के इंतजार में नहीं खड़ा है। नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल जैसे नई राजनीति के वाहक उसकी आकांक्षाओं के सही प्रतिनिधि हैं। इसीलिए इस विमर्श में माणिक सरकार, मनोहर पारीकर, रंगास्वामी जैसे नायकों के नाम भी लिए जाने लगे हैं। दिल्ली में विजय गोयल की जगह हर्षवर्धन का चेहरा इसी बदलती राजनीति का प्रतीक ही था। यह बदलता हुआ भारत और उसकी आकांक्षाएं बहुत अलग हैं। आप को कांग्रेस की कुटिल राजनीति से बचते हुए दिल्ली की सरकार चलानी तो है ही साथ ही अपने वाचाल नेताओं को थोड़ा खामोश भी करते हुए जनहित के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखानी है। जिस तरह मोदी देश की आकांक्षाओं का चेहरा बनकर उभरे हैं केजरीवाल उसी सूची का दूसरा नाम हैं। किंतु मोदी ने लंबा काम करके यह गौरव हासिल किया है। केजरीवाल ने आंदोलनों और मीडिया के इस्तेमाल से यह अवसर पाया है। किंतु केजरीवाल को यह ध्यान रखना होगा कि यह देश बार-बार छला गया है। उसने लंबे समय के बाद एक नौजवान पर उसके किसी बहुत उजले अतीत के अभाव में भी भरोसा किया है। अन्ना से जुड़े होने के नाते अरविंद की राजनीति न सिर्फ परवान चढ़ी है वरन उसे व्यापक जनाधार व विश्वास भी प्राप्त हुआ है।आपातकाल विरोधी आंदोलन, वीपी सिंह के आंदोलन और असम आंदोलन की परिणतियां हमारे सामने हैं। देश बार-बार छला गया है। एक और छल के लिए देश तैयार नहीं है। अरविंद आम जनता की उम्मीदों और आकांक्षाओं का चेहरा है। देश की सभी राजनीतिक पार्टियां उनकी विफलता की राह देख रही हैं किंतु आम जनता उनकी सफलता की दुआएं कर रही है। किंतु इस सफलता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी आम आदमी पार्टी के नायकों पर है। देश के पास कई मोदी, कई केजरीवाल, कई मनोहर पारीकर, कई माणिक सरकार,कई हर्षवर्धन, कई ममता बनर्जी होंगें तो जन आकांक्षाएं न सिर्फ पूरी होंगी, वरन व्यक्ति के अधिनायकवाद का खतरा भी कम होगा। सार्वजनिक जीवन में सादगी और शुचिता की लहर बनेगी और एक नया परिर्वतन आएगा। ऐसे संक्रमण काल में हमारी दुआ है कि आम आदमी पार्टी खुद भी बचे और अपने तीखे तेवरों से हमारे राजनीतिक परिवेश में सकारात्मक परिर्वतनों की वाहक बने, एक कठिन समय में देश की जनता उसे शुभकामनाओं के सिवा क्या दे सकती है।