गुरुवार, 30 जनवरी 2014

नरेंद्र मोदी से कौन डरता है?

-संजय द्विवेदी
    आखिर नरेंद्र मोदी में ऐसा क्या है कि वे सबके निशाने पर हैं। अपनी पार्टी के भीतर एक लंबा युद्ध लड़कर आखिरकार जब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो ही चुके हैं तो अन्य दलों को उनके नाम से घबराहट क्यों हैं। आखिर क्या कारण है कि दंगों की लंबी सूची दर्ज करा चुके उप्र के सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव उन्हें नहीं डराते किंतु मोदी के नाम से सेकुलर खेमों में हाहाकार व्याप्त है। मुजफ्फरनगर के बाद के हालात में भी मुलायम सेकुलर खेमे के चैंपियन हैं और उनके नाम से किसी को कोई आपत्ति नहीं है। क्या यह हमारी राजनीति का चयनित दृष्टिकोण नहीं है? राजनीति के इसी रवैये की परतें अब खुल रही हैं। केजरीवाल हमें अपनी सादगी से डराते हैं, तामझाम और सत्ता के प्रतीकों को छोड़कर डराते हैं तो मोदी की काम करने की शैली, विकास और सुशासन के लिए किए गए उनके प्रयास डराते हैं।
   लगता है कि हमारी राजनीति अब सुविधा और सामान्यीकरणों की शिकार हो रही है। परिवर्तन लाने की संभावना से भरे नायक हमें डराते हैं। यह यथास्थितिवादी चरित्र क्या इस देश की राजनीति और समाज जीवन को विकलांग नहीं बना रहा है? कोई भी ऐसा नायक जो संभावनाओं से भरा है हमें क्यों डराता है? आखिर क्या कारण है कि विकास की जिन संभावनाओं और सुशासन के जिन मानकों को गुजरात में मोदी और उनकी सरकार ने संभव किया है, उसे देश में दुहराने से हम डरते हैं ? जबकि मायावती, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव, उमर अब्दुला जैसा प्रशासन हमें नहीं डराता। हमें नए-नवेले केजरीवाल की राजनीति से ठंड में पसीने आ जाते हैं क्योंकि वे कुछ ऐसे असुविधाजनक सवाल उठाते हैं जिनकी मुख्यधारा की राजनीतिक में स्वीकार्यता नहीं है। आखिर हमारी राजनीति इतनी बेचारगी से क्यों भर गयी है? क्यों नए प्रतीक, नए प्रयोग, क्रांतिकारी विचार हमें आह्लादित नहीं करते? उनके साथ खड़े होने में हमें संकोच क्यों होता है ?कांग्रेस- भाजपा और तीसरे मोर्चे के बंटे हुए मैदान में कोई नया खिलाड़ी हमें आतंकित क्यों करने लगता है?
    क्यों हमें सांप सूंघ जाता है जब दिल्ली के लुटियन जोन में बसने वाले लोगों के अलावा कोई नरेंद्र मोदी दिल्ली की तरफ बढ़ता है? क्या नरेंद्र मोदी इस देश के एक बेहद समृद्ध राज्य के अरसे से मुख्यमंत्री नहीं हैं? उनके शासन करने के तरीके को लेकर तमाम विवादों के बावजूद क्या उनका राज्य समृद्घि के शिखर नहीं छू रहा है। महाराष्ट्र जैसे विकसित इलाके जब नकारात्मक सूचनाओं से भरे हों तो क्या मोदी का सुशासन साथी हमें आकर्षित नहीं करता। उदारीकरण के पैदा हुए तमाम अवसरों ने हमें व्यापक संभावनाओं से भर दिया है। किंतु क्या कोई दिशाहीन सरकार इन अवसरों का लाभ ले सकती है। नरेंद्र मोदी जैसे अनुभवी और केजरीवाल जैसे अनुभवहीन कैसी भी सरकार चलाएंगें वह मनमोहन सिंह और शीला दीक्षित की सरकार से बेहतर ही होगी। सच तो यह है कि मनमोहन सिंह की दिशाहारा-थकाहारा सरकार ने राहुल गांधी जैसे भोले युवा के लिए प्रधानमंत्री बनने के मार्ग में जैसी मुसीबतें खड़ी कर दी हैं कि उनका इस चुनाव में प्रधानमंत्री बन पाना असंभव ही दिखता है। जबकि सत्य यह है कि राहुल गांधी चाहते तो पांच साल पहले ही प्रधानमंत्री बन सकते थे। किंतु उनकी मां और कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने न जाने किन स्वदेशी-विदेशी दबावों में मनमोहन सिंह को झेलने का निर्णय लिया था। मनमोहन सिंह- पी.चिदंबरम- मोंटेंक सिंह अहलूवालिया और कपिल सिब्बल जैसों ने कांग्रेस को जिस मुहाने पर ला खड़ा किया है कि अब अंधेरा घना होता जा रहा है। प्रधानमंत्री पद के लिए उपलब्ध उम्मीदवारों में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी निश्चित ही आमने-सामने हैं किंतु मोदी के पास चमकदार, विकासोन्मुखी राजनीति के साल हैं तो राहुल गांधी के पास दस की कांग्रेसी सरकार के कारनामे हैं। राहुल गांधी और सोनिया गांधी को इनके कामों का हिसाब देना होगा। राहुल गांधी के सामने तमाम चुभते हुए सवाल हैं। जिनमें प्रमुख यह कि अगर राहुल गरीब समर्थक और आम आदमी समर्थक नीतियों  के पैरोकार हैं, अगर वे कलावतियों की जिंदगी में उजाला चाहते हैं तो आखिर मनमोहन सिंह इस सरकार के दस तक प्रधानमंत्री कैसे और क्यों बने रहे जिनकी समूची राजनीति बाजार समर्थक और विदेशी इशारों पर चलती रही। उन्हें देश में इस सवाल से जूझना होगा कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के राज में महंगाई चरम पर क्यों है? रूपया इस दुर्गति को क्यों प्राप्त है? उन्हें यह भी बताना होगा कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में रोज घोटाले क्यों हो रहे हैं? जाहिर तौर पर राहुल के सामने बहुत असुविधाजनक सवाल आएंगें।
    इसके विपरीत नरेंद्र मोदी को यह सुविधा हासिल है उनके पास गुजरात जैसे विकसित राज्य के मुख्यमंत्री और बेहतर प्रशासक होने का तमगा है। साथ ही पिछले दस साल की केंद्र सरकार की नाकामियों का इतिहास भी नरेंद्र मोदी को मदद देता नजर आता है। इतिहास ने इस कठिन समय में नरेंद्र मोदी को स्वयं ऐसे अवसर दिए हैं जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है। सही मायने में देश में कुशासन, भ्रष्टाचार और अकमर्ण्यता को लेकर एक आलोड़न है। जनता के मन में रोष भरा हुआ है। टेलीविजन समय ने इस पूरे बेशर्म समय को खूबसूरती से दर्ज किया है। इसके चलते सत्ता विरोधी और कांग्रेस विरोधी रूझान सर्वत्र प्रकट हो रहा है। इसके चलते ही कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से कल तक अपने विरोधी रहे केजरीवाल और उनके मित्रों की ओर बड़ी आस से देखना शुरू कर दिया है। उन्हें लगता है सत्ता विरोधी वोटों को बांटकर वे अपनी सत्ता बचा लेगें। कांग्रेस की पूरी रणनीति दिल्ली प्रदेश के चुनाव के बाद बदल गयी लगती है। वे पूरी तरह से अब केजरीवाल की पार्टी द्वारा किए जाने वाले सत्ता और केंद्र विरोधी वोटों के बंटवारे पर केंद्रित हो चुके हैं। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी की यह दशा सोचनीय लगती है। जिस कांग्रेस ने देश की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व किया है उसके नेतृत्व का इस तरह बेचारा होना एक बड़ा प्रश्न है। इक्कीसवीं सदी में देश एक मजबूत भारत चाहता है। उसके सपने अलग हैं। हिंदुस्तान के नौजवानों की आंखों में एक बेहतर भविष्य उमड़-घुमड़ रहा है। वे लोकतंत्र की इस बेचारगी को ठगे-ठगे से देख रहे हैं। सामने मोदी आएं या केजरीवाल सभी उम्मीदें जगाते हैं। लोग उनकी तरफ दौड़ जाते हैं। दिल्ली की केंद्र सरकार ने जिस तरह लोगों का दिल तोड़ा है कि लोग उम्मीदों से खाली हो चुके हैं। ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी एक आस जगाते हुए नेता हैं। उनके पास भाजपा जैसी बड़ी पार्टी और संघ परिवार का व्यापक आधार है। उनकी पार्टी के पास दिल्ली से लेकर राज्यों में सरकार चलाने के अनुभव हैं। राजग के रूप में उनके नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने एक बेहतर गठबंधन सरकार चलायी है। ऐसे में भाजपा अगर अकेले दम पर 200 सीटों के आसपास पहुंच सकी तो कोई कारण नहीं कि दिल्ली को फिर एक भाजपाई प्रधानमंत्री मिल सकता है। देखना है कि भाजपा इस बेहद खूबसूरत अवसर का किस तरह लाभ उठा पाती है। 

 (लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

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