-संजय द्विवेदी
भारतीय समाज में हो रहे तमाम सकारात्मक बदलावों के बावजूद हमारी राजनीति और
राजनीतिक दल इससे मुक्त दिखते हैं। उनको किसी भी तरह से नैतिक नियमों में बांधना
हमें और आपको निराश ही करेगा। वे गिरते हुए ही स्वाभाविक दिखते हैं।यह गिरावट
चौतरफा है। एक नयी पार्टी जिसने आम आदमी को उम्मीदों को पंख लगा दिए थे, उसने भी
गिरावट में होड़ सी ले ली है, शायद यह कहते हुए कि ‘हम किसी से कम नहीं।‘ टिकट वितरण से लेकर
मतदान तक जिस तरह के खेल होंगें, उन्हें कई बार देखा और परखा गया है। यहां ‘विचारधाराएं’ और ‘वाद’ ठिठके हुए खड़े
हैं। हर दिन एक नायक एक नई धारा का हिस्सा बन जाता है। पिछले दिन कही गयी बातों और
आचरण से ठीक विपरीत बात कहता और आचरण करता हुआ। क्या ये भारतीय राजनीति के सबसे
बेचारगी भरे दिन नहीं हैं? क्या ये दिन हमें यह नहीं बताते कि अब हमें
राजनीति से नैतिक अपेक्षाएं पालना बंद कर देना चाहिए? किसी एक घटना या एक
बात से एक आदमी पूरा का पूरा खारिज और एक बेहतर खबर से वह आसमान पर। इस टीवी समय
ने मूल्यांकन के ऐसे ही तुरंतवादी रवैये हमें दिए हैं। हम लोटपोट हो जाते हैं या
खारिज कर देते हैं। सुनने, सहने, पढ़ने और समझने का अवकाश इतना कम क्यों होता जा
रहा है?
पिछले कुछ महीनों में हर हफ्ते हमारे नायक बदलते रहे हैं। कभी मोदी, कभी
केजरीवाल तो कभी राहुल गांधी। टीवी को नाटक चाहिए। उसे ड्रामा चाहिए पर क्या समाज
को भी ड्रामा चाहिए? या समाज को उस ड्रामे
का हिस्सा होना चाहिए? ऐसे सवाल हम सबको मथ रहे हैं। राजनीति कभी इतनी सच्ची और अच्छी नहीं
थी किंतु कुछ मूल्य थे, विचार थे, आंदोलन थे और उन सबके साथ कुछ लोग थे, जिन पर समाज भरोसा
कर सकता था। इस भरोसे की डोर से बहुत कुछ टूटने से बचा रहता था। लेकिन देखिए सीटों
को लेकर भाजपा के प्रथम पंक्ति के नायकों के बीच कैसा हाहाकार, दैन्य और विलाप नजर
आया। वानप्रस्थ में भी सीट न छोड़ने के तैयार लोग भी
यह कहते हैं कि “पाप किया जो संसद में आया।” भाजपा के लौहपुरूष ने तो अपने हाथों ही
जो रचा उस पर आप सहानुभूति के अलावा क्या जता सकते हैं। कांग्रेस ही अच्छी थी
जिसके प्रधानमंत्री बिना कोई लोकसभा टिकट मांगें और किसी की सीट छीने दस साल राज
कर गए। यहां नरेंद्र मोदी जी की सीट ही कई चैनलों के लिए दिन-रात का चना-चबैना बन
गयी। राजनीति और लोकतंत्र की चुनौतियों के बजाए आला एंकर भी ‘मोदी की सीट’ पर ज्वलंत विमर्श
कर रहे हैं। इधर केजरीवाल के साथ भोजन करने वाले जनतंत्र के प्रेमियों को नागपुर
में सिर्फ दस हजार रूपए प्लेट पर भोजन उपलब्ध था।
अवसरवाद एक
विचारधाराः अवसरवाद राजनीतिक क्षेत्र में सबसे बड़ी विचारधारा के नाते उभरा है।
मौका देखकर चौका लगाने वालों की बन आई है। सत्ता मिलने की आस हो तो कोई अछूत नहीं
रह जाता। भाजपा के साथ खड़े तमाम चेहरों को देखकर आपको सत्ता फेवीकोल की तरह नजर
आएगी। रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज, रामकृपाल यादव,जगदंबिका पाल,
भागीरथ प्रसाद, उदयप्रताप राव, बृजभूषण शरण सिंह, वायको और रामदास जैसे तमाम नाम
हैं, जिन्हें अचानक भाजपा और उसके नेता मोदी में तमाम सकारात्मक बदलाव नजर आने
लगे। इस जूलूस में तमाम पुराने कांग्रेसी, समाजवादी सब शामिल हैं। राजनीति की
निर्ममता ही देखिए कि जीवन भर का तप, एक टिकट की बलिबेदी पर चढ़ जाता है। भाजपा की
महिला मोर्चा की अध्यक्ष रहीं, अटलजी की भतीजी करूणा शुक्ला की बेबसी देखिए वे
बिलासपुर से कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं। मूल्य इस तरह भी शीर्षासन कर रहे
हैं। सफलता का मूल्य है, राजनीति में प्रतिशोध के गहरे भाव हैं। ऐसे ही
हिंदुस्तानी राजनीति फल-फूल रही है। लोकतंत्र का पर्व सही मायने में किसी बदलाव की
सूरते हाल को बताने वाला होने के बजाए अवसरवादियों की प्रतिष्ठा का मंच बन गया है।
यहां अवसरवाद एक विचार बनकर पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर छाया हुआ है। बदलाव और
परिवर्तन का दम भरने वाली ताकतें भी यहीं आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं। इसलिए
चुनाव के बाद कोई क्रांतिकारी परिर्वतन समाज जीवन या राजनीति में देखने को
मिलेंगें, सोचना बेमतलब लगता है।
परिवारवाद बना
शक्तिः नई
पीढ़ी परिवारों से आ रही है। सुविधाओं की कोख से आ रही है और जनसंर्घषों को घता
बताकर आ रही है। राजपुत्रों की पूरी एक पीढ़ी पिछले सदन में लोकसभा पहुंची और इस
बार भी उसकी बड़ी संख्या में आमद संभावित है। राजनीति का इस तरह घरानों में कैद हो
जाना बताता है कि सारा कुछ बहुत सहज नहीं है। देश के लाखों-करोड़ों राजनीतिक
कार्यकर्ताओं के संघर्ष को घता बताकर जब कोई राजपुत्र सत्ता की देहरी पर चढ़ जाता
है तो दिल टूटते हैं। किंतु एक समय में कार्यकर्ताओं को परखकर उनका निर्माण करने
वाली राजनीतिक परंपराएं भी अपने घरों में से ही उत्तराधिकारी खोज रही हैं। परिवार
से बाहर न निकलने वाली राजनीति, आखिर कैसे जनधर्मी हो सकती है ? कैसे वह सरोकारों
से जुड़ सकती है? ऐसे में हमारी नयी राजनीतिक जमात के पास जमीन के अनुभव और संघर्ष की
कथाएं अनुपस्थित हैं। वे अपने पिता की लंबी छाया में स्थापित जरूर हो जाते हैं
किंतु जनता से रिश्ता नहीं बना पाते। परिवारवाद की इस बीमारी से अब सारे दल ग्रस्त
हैं। किसी भी दल को यह कहने का अधिकार नहीं बचा है कि वह जनता के बीच से नेतृत्व
को विकसित कर रहा है। इसके साथ ही दलों की विचारधारात्मक दूरी समाप्त हो चुकी है।
विचारधारा के अंत की भविष्यवाणियों के बीच राजनीतिक दल इसके जीवंत प्रतीक दिखते
हैं। दलों की पहचान करने वाले विचार अब नहीं बचे हैं, सिर्फ झंडे बचे हैं जिनसे
दलों को अलग किया जा सकता है। ऐसे कठिन समय में आत्मविश्वास से भरे एक राजनेता की
तलाश पूरा हिंदुस्तान कर रहा है। जिसका जीवन निष्कलंक हो और उसके मन में एक आग हो। बदलाव
और परिर्वतन की वह आग ही इस देश के राजनीतिक और सामाजिक चरित्र को बदल सकती है।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस बदलाव का प्रतीक बनकर उभरे
हैं। उनकी सोच और काम करने के तरीके की प्रस्तुति अहंकारजन्य भले दिखती हो किंतु
वे युवा भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक बन सकते हैं। अरविंद केजरीवाल भी एक ऐसे ही
प्रतीक बन सकते थे किंतु चीजों का गलत आकलन और सत्ता पाने की हड़बड़ी ने उन पर
अविश्वास गहरा किया है। राहुल गांधी एक ऐसी पार्टी के नायक हैं, जिसने पिछले 10
सालों में देश को खासा निराश किया है। ऐसे में उन अकेले के भरोसे हिंदुस्तानी
मतदाता छले जाने के लिए तैयार नहीं हैं। इस कठिन समय में मतदाताओं को इस चुनाव में
अपने विवेक का सही इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी सरकार चुननी है जो भारत की
आकांक्षाओं, उसके सपनों को उसके नजरिए से देख और पूरा कर सके। जनता का विवेक एक
बार फिर कसौटी पर है। लोकतंत्र की परिपक्वता के लिए यह जरूरी भी है कि जनता इस
इम्तहान में दिल से ज्यादा दिमाग से काम ले।
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