अपनी भाषणकला,
सुशासन व विकास की राजनीति से जगाईं उम्मीदें
- संजय द्विवेदी
कभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गुजरात
के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था, उनका यह एक वाक्य नरेंद्र मोदी के लिए
वरदान बन गया। उन्होंने सोनिया जी की इस टिप्पणी को गुजरात और गुजरातियों का अपमान
बताते हुए 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव में ऐसा कैंपेन किया कि कांग्रेस को इन
चुनावों में भारी पराजय का सामना करना पड़ा। ऐसे में गुजरात तो मोदी का हो ही चुका
था। किंतु 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की पराजय से मोदी के सपनों को पंख लग
गए। उसके बाद से ही नरेंद्र मोदी ने अपने राज्य गुजरात की सरहदों को छोड़कर देश के
सपने देखने शुरू कर दिए। उनके नेतृत्व में लगातार तीन विधानसभा चुनावों की जीत ने
उन्हें यह आत्मविश्वास और हौसला दिया। इन दिनों वे विकास, सुशासन और दृढ़ता के ऐसे
प्रतीक बनकर उभरे हैं, जिसमें देश अब अपनी उम्मीदों और सपनों का अक्स देख रहा है।
गुजरात की सफलताएं, मोदी की भाषणकला, भाजपा का
विशाल संगठन तंत्र, कांग्रेस सरकार की विफलताएं और भ्रष्टाचार की कथाएं एक ऐसा
वातावरण बना चुकी हैं जहां नरेंद्र मोदी एक महानायक सरीखे नजर आते हैं। मोदी की इस
यात्रा को समझने के लिए भाजपा के भीतर के उनकी स्वीकार्यता को लेकर संकटों को याद
कीजिए। याद कीजिए गोवा बैठक में रूठे लौहपुरूष का न पहुंचना। याद कीजिए कि कैसे
मोदी को गोवा में भाजपा ने स्वीकारा। स्वीकारने वाले नेताओं की देहभाषा और चेहरों
को याद कीजिए। बाद में वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी घोषित कर दिए गए। इसे
साधारण परिघटना मत मानिए क्योंकि मोदी का चयन भाजपा चलाने वालों ने नहीं किया था।
याद करिए गोवा में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के वाक्य। वे कहते हैं- “लोकतंत्र में
जो लोकप्रिय होता है वही नेता होता है।” और तमाम विरोधों और फुसफुसाहटों के बावजूद नरेंद्र
मोदी को भाजपा अपना नेता मान लेती है। सही मायने में यह जनभावना को समझकर उठाया
गया कदम था।
मोदी
ने जिस तरह साधारण परिवेश से आकर अपनी जड़ें पहले संगठन और फिर अपने गृहराज्य में
जमाईं वह करिश्मा ही कहा जाएगा। वे संगठन के साधारण कार्यकर्ता के नाते काम करते
हुए शिखर तक पहुंचे। अपनी प्रशासनिक क्षमता और दक्षता को उन्होंने जमीन पर उतार कर
दिखाया। अपनी निरंतर आलोचनाओं से न डरे, न सहमे, बस काम करते गए। इसी कर्मठता ने
उनके नायकत्व पर मोहर लगा दी। गुजरात दंगों के बाद से आज तक वे मीडिया,
मानवाधिकारवादियों, राजनीतिक विरोधियों के निरंतर निशाने पर हैं। देश भर में होते
आए दंगों को नजरंदाज करने वाली राजनीतिक जमातें उनके पीछे पड़ी रहीं। अपने
अल्पकालीन शासन में ही उप्र में हुए दो दर्जन दंगों के श्मशान पर बैठे मुलायम सिंह
और अखिलेश यादव जैसे लोग भी जब मोदी की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े करते हैं तो
अफसोस होता है। कांग्रेस जिसके हिस्से दंगों का एक लंबा सिलसिला है वह भी मोदी को
कोसने से बाज नहीं आती। जबकि मोदी के राज में उस आखिर दंगें के बाद क्या दंगें
दुहराए गए ? क्या
वहां के अल्पसंख्यक दूसरे किसी भी राज्य के अल्पसंख्यकों से बेहतर अवस्था में नहीं
हैं? साथ
ही एक बड़ा सवाल यह भी कि क्या गोधरा में अगर ट्रेन की बोगियों को जलाकर यात्रियों
की निर्मम हत्या नहीं होती तो गुजरात में दंगे होते। वस्तुनिष्ट होकर सोचा जाए तो
यह दंगे, गोधरा कांड की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए थे। कोई भी सरकार ऐसे
मामलों में नियंत्रण के सिवा क्या कर सकती है। क्या कारण है उप्र में ‘सेकुलर चैंपियन’ यादव परिवार
की सरकार दंगे रोक नहीं पाई? ऐसे में दंगों के जख्म को कुरेदने के बजाए उसके बाद गुजरात
में हुए विकास और उसकी चौतरफा प्रगति को रेखांकित करने की जरूरत है।
खुशी की बात है कि गुजरात इन जख्मों को भूलकर
आगे बढ़ चुका है। अपने खिलाफ व्यापक और लगातार चले नकारात्मक अभियानों के बावजूद
नरेंद्र मोदी आज देश को एक सकारात्मक राजनीति की ओर ले जा रहे हैं। हैदराबाद, पटना
से लेकर हाल के रामलीला मैदान में हुए उनके भाषणों में भारत का मन धड़कता है, उसके
सपने साफ दिखते हैं। सही मायने में मोदी भारत के मन और उसकी आकांक्षाओं को समझने
वाले नेता हैं। उनको पता है कब कैसे और क्या कहना है। शायद इसीलिए रामलीला मैदान
में उनका भाषण देश की जनता के सामने उन सपनों की मार्केटिंग जैसा भी था, जिसमें
उन्होंने बताया कि आखिर वे कैसा भारत बनाना चाहते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में
अपने विजन को स्थापित करते हुए उन्होंने जो कुछ कहा उससे पता चलता है कि वे एक
बेहतर और मजबूत सरकार देने की आकांक्षा से लबरेज हैं। शायद इसीलिए देश उन्हें बहुत
उम्मीदों से देख रहा है।
रामलीला मैदान में उन्होंने जो अवसर चुना वह
अभूतपूर्व था। रामलीला मैदान वैसै भी इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाओं
का केंद्र बना हुआ है। उससे निकली आवाजें पिछले दो सालों से सारे देश को आंदोलित
कर रही हैं। मोदी ने भी अपने भाजपा काडर की मौजूदगी का लाभ लेते हुए उन्हें तो
संदेश दिया ही, देश को भी उत्साह से भर दिया। भाजपा के कार्यकर्ता वैसे भी अटल जी
सरकार के पराभव के बाद निराशा से भरे थे। दो बार की पराजय ने उन्हें दिशाहारा और
थकाहारा बना दिया था। मोदी के नेतृत्व ने पूरे कार्यकर्ता आधार को रिचार्ज कर दिया
है। पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस पूरी राजनीतिक परिघटना पर सर्तक
निगाहें लगाए हुए है। दिग्विजय सिंह यूं ही यह बात नहीं कहते कि ‘इस बार चुनाव
संघ और कांग्रेस के बीच है।’ कांग्रेस की बौखलाहट का स्तर इसी से पता चलता है कि उनके
पढ़े-लिखे मणिशंकर अय्यर जैसे नेता भी सड़कछाप बयानबाजी पर उतर आए हैं जिसमें वे
कांग्रेस अधिवेशन में मोदी को चाय बेचने का आफर देते नजर आते हैं। जाहिर तौर पर
कांग्रेस में गहरी निराशा और अवसाद का वातावरण है। राहुल गांधी के सौम्य चेहरे के
बावजूद मनमोहन सरकार के दस साल कांग्रेस पर भारी पड़े हैं। देश ने ऐसी जनविरोधी,
भ्रष्ट और अकर्मण्य सरकार कभी नहीं देखी। देश आज यह सवाल पूछ रहा है कि आखिर वह
कौन सी मजबूरियां थीं जिसके चलते श्रीमती सोनिया गांधी ने एक अराजनैतिक व्यक्ति को
देश की बागडोर दस सालों तक सौंप रखी। मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम, मोंटेक सिंह
अहलूवालिया और कपिल सिब्बल जैसे लोगों ने कांग्रेस की जो गत की है उससे उबरने के
लिए कांग्रेस को काफी वक्त लगेगा।
ऐसी निराशा में देश को एक नायक का इंतजार था।
उसे जहां मौका मिल रहा है, वह अपनी प्रतिक्रिया जता भी रहा है। दिल्ली में उसने कांग्रेस
को रसातल में पहुंचा कर भाजपा और आप को सर्वाधिक सीटें प्रदान कीं। तो वहीं मिजोरम
छोड़कर राजस्थान, मप्र और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें स्थापित हो गयीं। यह देश
के मन का एक संकेत भी है। इन चार राज्यों में कांग्रेस की पिटाई बताती है कि देश
क्या सोच रहा है। ताजा चुनाव सर्वेक्षण भी भाजपा के आगे बढ़ने का बातें ही कर रहे
हैं। निश्चय ही इसके पीछे नरेंद्र मोदी की छवि एक बड़ा कारण है। देश कांग्रेस के
राज से मुक्ति चाहता है। शायद इसीलिए मोदी यहां भी खेलते हैं, वे पांच मंत्र देते
हैं-एक-एक ही मजहबः भारत सबसे पहले। दो- एक ही धर्मग्रंथः भारत का संविधान। तीन-
एक ही शक्तिः देश की जनशक्ति। चार-एक ही भक्तिः देश की राष्ट्रभक्ति। पांच- एक ही
लक्ष्यःकांग्रेस मुक्त भारत।
सही मायने में भारतीय समाज में इस ‘मोदी इफेक्ट’ को गठबंधनों
से अलग होकर पढ़ना होगा। इस बार के चुनाव साधारण नहीं हैं। विशेष हैं। ये चुनाव एक
खास स्थितियों में लड़े जा रहे हैं जब देश में सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार से
मुक्ति के सवाल सबसे अहम हो चुके हैं। नरेंद्र मोदी इस समय के नायक हैं। ऐसे में
दलों की बाड़बंदी, जातियों की बाड़बंदी टूट सकती है। गठबंधनों की तंग सीमाएं टूट
सकती हैं। चुनाव के बाद देश में एक ऐसी सरकार बन सकती है जिसमें गठबंधन की लाचारी,
बेचारगी और दयनीयता न हो। भाजपा की सीमाएं स्पष्ट हैं, वह हिंदुस्तान
के एक बड़े हिस्से से अनुपस्थित है। किंतु अगर बदलाव की लहर चल रही है तो वह कितना
और कैसे प्रभाव छोड़ रही है, कहा नहीं जा सकता। हैदराबाद के लालबहादुर शास्त्री
स्टेडियम, पटना के गांधी मैदान से लेकर वाराणसी और गोरखपुर की रैलियों में उमड़
रही भीड़ क्या सिर्फ मोदी को सुनने आई है? वह वोट में नहीं बदलेगी, फिलहाल तो यह नहीं कहा जा
सकता। एक नए भारत और उसके भविष्य के लिए सोचने वाले युवाओं के मन की हमारी राजनीति
को थाह कहां है? वरना
दिल्ली की कद्दावर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जिस नाजीच को चीज बनाने के लिए मीडिया
को कोस रही थीं, उसी
नाचीज ने उन्हें तो हराया ही नहीं सत्ता से भी बेदखल कर दिया। संभव हो नरेंद्र मोदी
को लेकर बन रहा वातावरण तमाम लोगों की नजर में हवा-हवाई हो पर उन्हें यह देखना
होगा कि मीडिया और राजनीतिक जमातों की रूसवाईयों के बावजूद मोदी ने जनता का प्यार
पाया है। इस बार भी पा जाएं तो हैरत मत कीजिएगा।
चलो आपने नरेन्द्र मोदी की ताकत को माना तो। नहीं तो नौसिखिये को ही आप भाव दिए जा रहे थे। यह मत भूलिए कि यह व्यवस्था परिवर्तन का आन्दोलन चर्च के इशारे पर है। आप जैसे खोजी पत्रकारों को ढूंढना चाहिए कि कैसे चर्च ने अपने एक मोहरे को आगे किया है?
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