बुधवार, 12 मार्च 2014

इस लहूलुहान लोकतंत्र में!

माओवादी आतंक के सामने सरकारों के घुटनाटेक रवैये से बढ़ा खतरा
-संजय द्विवेदी


वो काली तारीख भूली नही हैं अभी, 25 मई,2013 की शाम जब जीरम घाटी खून से नहा उठी थी। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सहित 30 लोगों की निर्मम हत्या के जख्म अभी भरे नहीं थे कि जीरम घाटी एक बार फिर खून से लथपथ है। 11 मार्च,2014 की तारीख फिर एक काली तारीख के रूप में दर्ज हो गयी, जहां 16 जवानों की निर्मम हत्या कर नक्सली नरभक्षी अपनी जनक्रांति का उत्सव मनाने जंगलों में लौट गए। आखिर ये सिलसिला कब रूकेगा।
    माओवादी आतंकवाद के सामने हमारी बेबसी की हकीकत क्या है? साथ ही एक सवाल यह भी क्या भारतीय राज्य माओवादियों से लड़ना चाहता है? वह इस समस्या का समाधान चाहता है? खून बहाती जमातों से शांति प्रवचन की भाषा, संवाद की कोशिशें तो ठीक हैं किंतु खून का बहना कैसे रूकेगा? किसके भरोसे आपने एक बड़े इलाके की जनता और वहां तैनात सुरक्षा बलों को छोड़ रखा है। माओवाद से लड़ने की जब हमारी कोई नीति ही नहीं है तो कम वेतन पर काम करने वाले सुरक्षाकर्मियों और पुलिसकर्मियों को हमने इन इलाकों में मरने के लिए क्यों छोड़ रखा है? उनकी गिरती लाशों से सरकारों को फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे किन्हीं और कामों में लगी हैं। राजनीति और नेताओं  के पास पांच साल की ठेकेदारी के सपनों के अलावा सोचने के लिए वक्त कहां हैं? वे चुनाव से आगे की नहीं सोचते। चुनाव नक्सली जिता दें या बंग्लादेशी घुसपैठिए उन्हें फर्क नहीं पड़ता। ऐसे खतरनाक समय में भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ घोषित युद्ध लड़ रहे माओवादी विचारकों के प्रति सद्भावना रखने वाले विचारकों की भी कमी नहीं है। उन्हें बहता हुआ खून नहीं दिखता क्योंकि वे विचारधारा के बंधुआ हैं। उन्हें लाल होती जमीन के पक्ष में कुतर्क की आदत है। इसलिए वे नरसंहारों के जस्टीफाई करने से भी नहीं चूकते। जबकि यह बात गले से उतरने वाली नहीं है कि माओवादी जनता के साथ हैं। ताजा मामले में भी हुयी घटना विकास के कामों को रोकने के लिए अंजाम दी गयी है।
   माओवादी नहीं चाहते कि भारतीय राज्य, राजनीति, राजनीतिक दलों की उपस्थिति उनके इलाकों में हो। वे किसी भी तरह की सामाजिक-राजनीतिक और विकास की गतिविधि से डरते हैं। वे अंधेरा बनाने और अंधेरा बांटने में ही यकीन रखते हैं और सही मायने में भय के व्यापारी हैं। इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने जंगलों में अपनी सक्रियता से एक बड़े समाज को भारतीय राज्य के विरूद्ध कर दिया है। जो बंदूकें लेकर हमारे सामने खड़े हैं। किंतु उनकी इस साजिश के खिलाफ हमारी विफलताओं का पाप कहीं बड़ा है। यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता ही है कि माओवादी हमारे बीच इतने शक्तिवान होते जा रहे हैं। हम न तो उनके सामाजिक आधार को कम कर पा रहे हैं न ही भौगोलिक आधार को। यह बात चिंता में डालने वाली है कि जो माओवादी निरंतर भारतीय राज्य को चुनौती देते हुए हमले कर रहे हैं उसके प्रतिकार के लिए हम क्या कर रहे हैं? अकेले छत्तीसगढ़ को लें तो वे 6 अप्रैल,2010 को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 75 जवानों सहित 76 लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। 25 मई,2013 को उनका दुस्साहस देखिए वे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, उदय मुद्लियार सहित 30 लोगों की घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं और उसके बाद भी हम चेतते नहीं हैं। देश के 9 राज्य और 88 जिले आज माओवादी हिंसा से प्रभावित हैं। वर्ष 2013 में 1136 माओवादी आतंक की घटनाएं हो चुकी हैं। जाहिर तौर पर हमारी सरकारों का रवैया घुटनाटेक ही रहा है। इससे माओवादियों के मनोबल में वृद्धि हुयी है और वे ज्यादा आक्रामक तरीके से सामने आ रहे हैं। यह भी गजब है राजनीति ऐसे तत्वों और अभियानों से लड़ने के बजाए उनको पाल रही है। माओवादियों को सूचना, हथियार और मदद देने वालों में राजनीतिक दलों के लोग शामिल रहे हैं। कई ने तो चुनावों में उनका इस्तेमाल भी किया है। किंतु सवाल यह उठता है जो काम हम पंजाब में कर चुके हैं। आंध्र में कर चुके हैं, पश्चिम बंगाल में ममता कर चुकी हैं, उसे करने में छत्तीसगढ़ में परेशानी क्या है। क्या कारण है सशस्त्र बलों की क्षमता बढ़ाने पर हमारा जोर नहीं है। अब तक सैनिक मरते थे तो सरकारें लापरवाह दिखती थीं। अब जब हमारे बड़े राजनेताओं तक भी माओवादी आतंक पहुंच रहा है, तब राजनीति की निष्क्रियता आशंकित करती है। भारतीय राज्य की दिशाहीनता और कायरता ने ये दृश्य रचे हैं। इसे कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि जब कोई राज्य अपने लोगों की रक्षा न कर सके तो उसके होने के मायने क्या हैं।

   आवश्यकता इस बात की है कि हम कैसे भी हिंसक गतिविधियों को रोकें और अपने लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाएं। जनजातीय समाज इस पूरे युद्ध का सबसे बड़ा शिकार है। वे दोनों ओर से शोषण के शिकार हो रहे हैं। सही मायने में यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता है कि हमने प्रकृति से आच्छादित सुंदर क्षेत्रों को रणक्षेत्र बना रखा है। ये इलाके जहां नीरव शांति, प्रेम, सहजता और सरल संस्कृति के प्रतीक थे आज अविश्वास,छल और मरने-मारने के खेल का हिस्सा बन गए हैं। सच तो यह है कि हमारी सरकारें माओवादी आतंकवाद के प्रति गंभीर नहीं है वे घटना होने के बयानबाजी के बाद फिर अपने नित्यकर्मों में लग जाती हैं। सही मायने में वे आतंकवाद से लड़ना नहीं चाहती हैं। उनमें इतना आत्मविश्वास नहीं बचा है कि वे देश के सामने उपस्थित ज्वलंत सवालों पर बात कर सकें। सरकारों का खुफिया तंत्र ध्वस्त है और पुलिस बल हताश। ऐसे में बस्तर जैसे इलाके एक खामोश मौत मर रहे हैं। यहां दिन-प्रतिदिन कठिन होती जिंदगी बताती है, ये युद्ध रूकने के आसार नहीं हैं। हिंसा और आतंक के खिलाफ खड़े हुए सलवा जूडुम जैसे आंदोलन भी अब खामोश हैं। माओवादी आतंक के खिलाफ एक प्रखर आवाज महेंद्र कर्मा अब जीवित नहीं हैं। माओवाद के खिलाफ इस इलाके में बोलना गुनाह है। कहीं कोई भी दादा लोगों (माओवादियों) का आदमी हो सकता है। पुलिस के काम करने के अपने अजीब तरीके हैं जिसमें निर्दोष ही गिरफ्त में आता है। न जाने कितने निर्दोष माओवादियों के नाम पर जेलों में हैं लेकिन माओवादी आंदोलन बढ़ रहा है क्योंकि सरकारें मान चुकी हैं यह युद्ध जीता नहीं जा सकता है। किंतु इस न जीते जाने युद्ध के चलने तक सरकार कितनी लाशों, कितनी मौतों, कितने जन-धन और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के बाद मैदान में उतरेगी, कहना कठिन है।

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