अनंतमूर्ति को धमकाना या उन्हें करांची का टिकट भेजना निंदनीय
-संजय द्विवेदी
देश के ख्यातिनाम लेखक एवं
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्री यू.आर. अनंतमूर्ति के चुनाव पूर्व दिए गए बयान
(‘मोदी प्रधानमंत्री बने तो मैं देश
छोड़ दूंगा’) नाते उन्हें डराना-धमकाना या
करांची का बुक कराने की हरकतें शर्मनाक हैं। जबकि श्री अनंतमूर्ति पहले ही कह चुके
हैं कि यह बात उन्होंने भावना में बहकर कही थी। अपने ताजा बयान में उन्होंने साफ
कहा है कि-“ इस बार मेरा मानना है कि मोदी युवाओं के बीच काफी आकर्षक थे क्योंकि वे
बढ़ते चीन, अमेरिका या किसी देश की तरह मजबूत राष्ट्र चाहते थे। मेरा मानना है कि
यह राष्ट्रीय भावना है जिससे वे सत्ता में आए हैं।” (जनसत्ता,22 मई,2014)
श्री अनंतमूर्ति यह
बयान न भी देते तो भी उन्हें सम्मान और सुरक्षा मिलनी चाहिए। वे हमारे समय के एक
बड़े लेखक हैं। असहमति किसी भी लोकतंत्र का सौंदर्य है। हमारे परिवार के बुर्जुगों
और विद्वानों का सम्मान तो हमें हमारी संस्कृति ही सिखाती है। कई बार बड़ों का
गुस्सा ही आशीष बन जाता है। जो उन्हें कराची का टिकट भेज रहे हैं- वे भारत को नहीं
समझते, ना ही इसकी लोकतांत्रिकता का मान करते हैं। वे राजनीतिक नहीं, असामाजिक
तत्व हैं और खबरों में आने के लिए ऐसी हरकतें कर रहे हैं। लेखक बिरादरी को अपने
हीरो अनंतमूर्ति के साथ खड़ा होना चाहिए। स्वयं प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भी
कह चुके हैं कि चुनाव बीत चुके हैं, अब कड़वी बातों और दलगत विवादों का वक्त खत्म
हो चुका है। हमें मिलकर इस देश के सपनों और युवाओं की आकांक्षाओं के लिए काम करना
है। जनता जनार्दन ने जब श्री नरेंद्र मोदी को अभूतपूर्व बहुमत दे दिया है, तो उनके
चाहने वालों को भी अपेक्षित संयम और गरिमा का परिचय देना चाहिए,जैसा कि श्री
नरेंद्र मोदी अपने भाषणों और कार्यों में दे रहे हैं। क्योंकि संवाद, आलोचना और
चर्चा से ही कोई लोकतंत्र जीवंत होता है।
मैंने श्री अनंतमूर्ति
के पूर्व विवादित बयान पर स्वयं एक लेख लिखकर इसकी आलोचना की थी। देखें लिंक-http://sanjayubach.blogspot.in/2014/04/blog-post_9.html किंतु समय के इस मोड़ पर मैं अपनी वैचारिक असहमति के बावजूद
आदरणीय अनंतमूर्ति जी के साथ खड़ा हूं। उनके स्वस्थ और दीर्ध जीवन की कामना करता
हूं। ऐसे सम्मानित बुर्जुगों की मौजूदगी ही हमारे लेखक समुदाय का संबल है। आम
चुनावों ने साबित कर दिया कि देश की जनता में किस तरह की बैचेनियां मौजूद हैं।
हमारे लेखक और पत्रकार समुदाय के लोग भी जनता के बीच पल रही इन बैचेनियों,
आलोड़नों और चिंताओं से अपरिचित नजर आए या किसी खास विचारधारा के खूंटे से बंधे
होने के कारण वातावरण को जानकर भी अनजान बनने का अभिनय करते नजर आए। जबकि इससे
लेखक समुदाय और मीडिया की भूमिका भी संदेह के दायरे में आ गयी है। चुनाव में फैसले
का हक जनता-जर्नादन को है। वही किसी व्यक्ति को सत्तासीन करती है या सड़क पर ला
देती है। ऐसे में जनता के फैसले का मान रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। हमें समझना होगा कि यह लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनता ने ही पूर्व
सत्ताधीशों को बेदखल कर विपक्ष को सत्ता सौंपी है। इस सबके लिए हमारी महान जनता की
न्यायबुद्धि जिम्मेदार है। इसलिए जनता के इस विवेक या न्यायबुद्धि पर सवाल उठाना
कहां की बुद्धिजीविता है?
किसी व्यक्ति
की नीयत पर सवाल उठाने के पहले यह सोचना होगा कि ऐसी अन्य घटनाओं के जिम्मेदार
अन्य लोगों पर भी क्या इसी तरह हम इतने ही प्रश्चनाकुल दिखते हैं। दंगें गुजरात
में हों या उप्र में ये मानवता के प्रति सबसे जघन्य अपराध हैं। किंतु चयनित
दृष्टिकोण से टिप्पणी करने वाले हमारे लेखकों को गुजरात का 2012 का दंगा याद आता
है, लेकिन उसके बाद और उसके पहले हुए दंगें वे भूल जाते हैं। राष्ट्रवाद के
अधिष्ठान पर खड़ी भारतीय जनता पार्टी को यह समझना होगा कि भारतीय विचार किसी को
समाप्त करने का अधिनायकवादी विचार नहीं है। यह विचार तो असहमतियों के बीच ही सबको
साथ लेकर चलता और फलता-फूलता है। देश की आकांक्षाओं के प्रतिनिधि बन चुके श्री
नरेंद्र मोदी ने अपने प्रधानमंत्री मनोनीत होने के बाद इसी तरह की अपेक्षित गरिमा
का परिचय दिया है। उन्हें चाहने वाले और उनके समर्थकों को यह ध्यान रखना होगा कि
वे कोई भी आचरण न करें जिसमें हिंसक भाव व विचार शामिल हों। जिन्हें नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री के रूप में कबूल नहीं थे, उन्हें देश की जनता ने जवाब दे दिया है। राजनीति
आज सिद्धातों व विचारों के आधार पर नहीं सुविधा और समीकरणों के आधार पर की जा रही
है। नरेंद्र मोदी को जवाब देने के लिए बिहार में नितीश कुमार और लालू प्रसाद यादव
का साथ आना इसका उदाहरण है। विजय को बेहद गरिमा से स्वीकारना और उसके अनुरूप
सार्वजनिक आचरण करना बेहद जरूरी है। जीत की खुशी में आप कतई न भूलें कि जिन चीजों
के लिए आप दूसरे दलों की आलोचना करते आए वही आप भी करने लगें। क्योंकि हिंसक
राजनीति का विस्तार अंततः आपके खिलाफ भी जाता है। भरोसा न हो तो पश्चिम बंगाल से
सीखिए। वहां वाममोर्चा की हिंसा, अधिनायकवाद और अपने विरोधियों को कुचल डालने की
राजनीति का क्या हुआ? हुआ यह कि आज उसी हिंसा,
अधिनायकवाद का शिकार खुद वाममोर्चा के कार्यकर्ता हो रहे हैं। तृणमूल उन्हीं के
प्रवर्तित मार्ग पर चलकर ज्यादा हिंसक, ज्यादा अधिनायक और ज्यादा अलोकतांत्रिक व्यवहार
करती हुयी दिखती है।
ऐसे में एक समर्थ भारत बनाने की आकांक्षा से लैस
भारतीय युवाओं पर भरोसा कीजिए। मानिए कि वे इस तरह की राजनीति, राजनीति प्रेरित
लेखन से उब चुके हैं। वे नकारात्मकता से मुक्ति चाहते हैं। सिर्फ आलोचना और सिर्फ
निंदा से अलग हटकर एक सकारात्मक राजनीतिक-सामाजिक परिवेश को बनाने की जरूरत है।
सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध तो हो किंतु वह चयनित दृष्टिकोण के आधार पर न हो। सरकारें
ज्यादा जवाबदेह बनें, व्यवस्था पारदर्शी बने और हम वास्तविक लोकतंत्र का औदार्य
हासिल कर सकें, उस ओर यात्रा करने की आवश्यकता है। यह काम आतंक हिंसा और लेखक
समुदाय या मीडिया को नियंत्रित करने से नहीं होगा। वे अपना काम करें और राजनीति
अपना काम करे। लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों और कवियों ने हमेशा समाज की आवाज
को मुखरित करने का काम किया है। उनके आकलन में गलती भी हो सकती है। ऐसे में
असहमतियों को आदर करने का भाव तो हमें रखना ही होगा। कई बार वैचारिक तौर पर आग्रह
प्रखर होने के नाते यह दुराग्रह की सीमा तक चला जाता है। सत्य को स्वीकारने में भी
संकट दिखता है। लेखक की पार्टी निष्ठा उसके लेखन पर भारी पड़ जाती है। यहीं संकट
खड़ा होता है। किंतु हम एक लोकतंत्र में हैं, यह समझना होगा।
हमारे समय के एक बड़े
लेखक- पत्रकार श्री प्रभाष जोशी स्वयं कहते थे-“पत्रकार की पार्टी लाइन तो नहीं,
पोलिटिकल लाइन जरूर होनी चाहिए।” यह बात हमें हमारी जिम्मेदारियां बताती है, सीमाएं भी बताती है।
यह पोलिटिकल लाइन हमें बताती है कि हम दल के गलत कामों की आलोचना भी कर सकते हैं।
नीर-क्षीर-विवेक एक लेखक की पहली शर्त है। हमारे उच्चतम न्यायालय ने भी हमें
रास्ता बताया कि लोकतांत्रिक होने के मायने क्या हैं। एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट
ने कहा कि “हमारे देश में सवा करोड़ लोग हैं, तो
सवा करोड़ विचार भी हो सकते हैं।” लेकिन संकट यह है कि हम अपने, विचारधाराओं, दलों और निजी आग्रहों
में इतने बंधे हुए हैं कि हमारा सच ही हमें सच लगता है। हम विरोधी विचार को सुनने
के लिए भी तैयार नहीं है। सुझाव हमें आलोचना लगते हैं, आलोचना हमें षडयंत्र प्रतीत
होने लगी है। भारत के ध्वज में तीन रंगों के प्रति प्रतिबद्धता ही हमें रास्ता
दिखा सकती है। अपने लोगों और इस माटी के प्रति हमारे दायित्वबोध का भान करा सकती
है। क्योंकि कोई भी लोकतंत्र इसी तरह की सहभागिता, संवाद और संवदनशीलता से सार्थक
बनता है। हिंदुस्तान के नए प्रधानमंत्री जब सवा करोड़ हिंदुस्तानियों की बात कर
रहे हैं तो जाहिर है समूचा भारतीय महापरिवार उनकी चिंता के केंद्र में है। ऐसे में
एक लेखक, एक पत्रकार या उनका एक विरोधी भी असुरक्षा महसूस करे तो हम सबको उसके साथ
खड़ा ही होना चाहिए।
(लेखक ‘मीडिया विमर्श’ पत्रिका के
कार्यकारी संपादक हैं)
asahmatio ko savikarna hoga kya bat kahi sir
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