-संजय द्विवेदी
भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय ने सही
मायने में राजनीतिक विश्वलेषकों के होश उड़ा दिए हैं। यह इसलिए भी है कि क्योंकि
भारतीय जनता पार्टी जैसे दल को लंबी राजनीतिक छूआछूत का सामना करता पड़ता है और
कथित सेकुलरिज्म के नारों के बीच नरेंद्र मोदी का चेहरा लेकर वह बहुत आश्वस्त कहां
थी? समूचे
हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से से भाजपा की अनुपस्थिति और एक बड़ी दुनिया का उसके
खिलाफ होना ऐसी स्थितियां थीं जिनसे लगता नहीं था कि भाजपा अपने बूते पर 272 का
जादुई आंकड़ा पार कर पाएगी। चुनावी दौर में मेरे दोस्त और कलीग आशीष जोशी ने कहा आप
लिखकर दीजिए कि भाजपा को अपने दम पर कितनी सीटें मिलेंगीं। एक अभूतपूर्व वातावरण
की पदचाप को महसूस करते हुए भी, बंटें हुए हिंदुस्तान की अभिव्यक्तियों के
मद्देनजर मैंने 240 प्लस लिखा और दस्तखत किए। परिणाम आए तो भाजपा 282 सीटें पा
चुकी थी। आकलन हम जैसे कथित विश्वलेषकों का ही फेल नहीं हो रहा था। खुद पार्टी के
अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इंडिया टुडे को एक इंटरव्यू में कहा था कि हम यूपी में 50
सीटें जीतेंगें, इस अभियान के नायक अमित शाह थोड़ा आगे बढ़े तो सीटों की संख्या 57
तक ले गए। किंतु परिणाम बता रहे हैं कि उप्र से भाजपा को 73 सीटें मिल चुकी हैं।
सच मानिए, कौन यह कहने की स्थिति में था कि बसपा जैसी पार्टी का उप्र में खाता
नहीं खुलेगा। दिल्ली में आप को एक भी सीट नहीं मिलेगी। कांग्रेस देश में 44 सीटों
पर सिमट जाएगी।
सही मायने में यह अभूतपूर्व चुनाव थे जहां एक ऐतिहासिक संदर्भ जुड़ता नजर
आया कि कांग्रेस के अलावा भाजपा पहली ऐसी पार्टी बनी जिसने अपने दम पर पूर्ण बहुमत
प्राप्त किया। 1977 के चुनाव में जनता पार्टी भी कई दलों का गठजोड़ थी, जिसे
जयप्रकाश नारायण की जादुई उपस्थिति और आपातकाल के विरूद्ध पैदा हुए जनरोष ने खड़ा
किया था। लेकिन 2004 के लोकसभा चुनावों के
बाद देश की राजनीति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिले हैं। देश की जनता अब
जहां भी वोट कर रही है, आगे बढ़कर वोट कर रही है। उप्र के नागरिक इस मामले में
अभूतपूर्व समझदारी का परिचय देते हुए दिख रहे हैं। आप याद करें कि वे बसपा की
मायावती को अकेले दम पर सत्ता में लाते हैं। उनकी मूर्तिकला और पत्थर प्रेम से ऊब
कर मुलायम सिंह के नौजवान बेटे पर भरोसा करते हैं और उन्हें भी अभूतपूर्व बहुमत
देते हैं। उनकी सांप्रदायिक राजनीति और सपा काडर की गुंडागर्दी से त्रस्त होकर
भाजपा को उप्र में लोकसभा की 73 सीटें देकर भरोसा जताते हैं। इतना ही नहीं
ईमानदारी से काम कर रही सरकारें भी इसके पुरस्कार पा रही हैं बिहार में
नितीश-भाजपा गठजोड़, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस,तमिलनाडु में जयललिता और उड़ीसा
में भाजपा से अलग होकर लड़े नवीन पटनायक को भी वहां की जनता ने बहुमत दिया। यह
संदेश बहुत साफ है कि अब जनता को काम करने वाली सरकारों का इंतजार है। मप्र,
छत्तीसगढ़, गुजरात, गोवा, राजस्थान, पंजाब की भी यही कहानी है।
यहां सवाल यह उठता है कि आखिर जनता के निर्णायक फैसलों के बावजूद हमारी
राजनीति इन संदेशों को समझने में विफल क्यों हो रही है। आखिर क्यों वह राजनीति के
बने-बनाए मानकों से निकलने के लिए तैयार नहीं है? क्यों अखिलेख यादव
जैसे युवा राजनेता भी अपने पिता की राजनीतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर कुछ सार्थक नहीं
कर पाते? ऐसे
में जनता का भरोसा तो टूटता है ही, युवा राजनीति के प्रति पैदा हुआ आशावाद भी टूटता
है। आप देखें तो परिवारों से आई युवा बिग्रेड का क्या हुआ? कश्मीर के युवा
मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला ने ऐसा क्या किया कि उनके अब्बा हुजूर भी हार गए और
पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। इसके अलावा राहुल गांधी के युवा बिग्रेड के सितारों
में शामिल सचिन पायलट,भंवर जितेंद्र सिंह, आरपीएन सिंह, जतिन प्रसाद, अरूण यादव,
मीनाक्षी नटराजन, संदीप दीक्षित का क्या हुआ? इससे पता चलता है
कि देश की बदलती राजनीति, उसकी आकांक्षाओं, सपनों का भी इस बिग्रेड को पता नहीं
था। अपनी जड़ों से उखड़ी और अहंकार जनित प्रस्तुति से दूर लोगों से संवाद न बना
पाने की सीमाएं यहां साफ दिखती हैं। यह अहंकार और संवाद न करने की शैली पराजय के
बाद भी नजर आती है। पराजय के बाद की गयी प्रेस कांफ्रेस में कांग्रेस उपाध्यक्ष और
कांग्रेस अध्यक्षा की ओर गौर करें वे पराजय की जिम्मेदारी तो लेते हैं और नई सरकार
को बधाई देते हैं पर भाजपा का नाम लेना भी उन्हें गवारा नहीं है। साथ ही कोई सवाल
लिए बिना वहां से चले जाते हैं। इस तरह राजतंत्र में तो चल सकता है, किंतु
लोकतंत्र का तो आधार ही संवाद व विनयभाव है।
कांग्रेस की इस बुरी पराजय के पीछे सही मायने में यही संवादहीनता घातक
साबित हुयी है। अपने चुने हुए प्रधानमंत्री के कामों का अपयश आखिर आपके खाते में
ही जाएगा। मनमोहन सिंह पर ठीकरा फोड़ने की कवायदें धरी रह गयीं और अंततः आखिरी
दिनों का चुनाव अभियान ‘मां-बेटे की सरकार’ के खिलाफ जनादेश में बदल गया। यह साधारण नहीं है कि
कांग्रेस संगठन व सरकार के समन्यव पर ध्यान नहीं दे पायी। पार्टी में तो पीढ़ीगत
परिवर्तन हो रहे थे किंतु सरकार रामभरोसे चल रही थी। क्या ही अच्छा होता कि पार्टी
की तरह सरकार भी एक पीढ़ीगत परिर्वतन से गुजरती। दूसरा चुनाव( 2009) जीतने के कुछ
समय बाद कांग्रेस अपने प्रधानमंत्री को बदलकर एक संदेश दे सकती थी। सबसे बड़ा संकट
यह है कि राहुल जिम्मेदारियां संभालने को तैयार नहीं थे और सरकार किसी को सौंपने
का साहस भी उनका परिवार नहीं जुटा पाया। मनमोहन सिंह उनके लिए सबसे सुविधाजनक नाम
थे, जिसका परिणाम आज सामने है। यह गजब था कांग्रेस संगठन तो आम आदमी की पैरवी में
खड़ा था तो सरकार बाजार की ताकतों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में खेल रही थी। आंदोलनों
से निपटने की नादान शैली, अहंकार उगलती भाषा में बोलते वाचाल मंत्री और कुछ न
बोलते प्रधानमंत्री- कांग्रेस पर भारी पड़ गए। बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे और
न जाने कितने जनांदोलनों ने कांग्रेस के खिलाफ वातावरण को गहराने का काम किया।
अहंकार में डूबी कांग्रेस ने अपने शत्रुओं को बढ़ाने में भी खास योगदान दिया। राहुल
गांधी के सामने यह समय एक कठिन चुनौती लेकर आया है। उनके लिए संदेश साफ है कि
सुविधा की राजनीति से और चयनित दृष्टिकोण से बाहर निकलकर वे कांग्रेस को एक
आक्रामक विपक्ष के रूप में तैयार करें। कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारें और खुद
भी उतरें। दिल से बात करें और लिखा हुआ संवाद बंद करें। संगठन के मोर्चे पर खुद
खड़ें हों और मैदान बहन प्रियंका गांधी के लिए खाली करें। कांग्रेस में नई पीढ़ी
की आमद उन्होंने बढ़ाई है तो उन्हें अधिकार भी दें। जैसा कि देखा गया कि इस चुनाव
में श्रीमती सोनिया गांधी की सीनियर टीम और राहुल गांधी की जूनियर टीम में एक गहरी
संवादहीनता व्याप्त थी। अनुभव और जोश का तालमेल गायब था। एक टीम आराम कर रही थी तो
दूसरी टीम मैदान में अपनी स्वाभाविक अनुभवहीनता से पिट रही थी। यह भी सही है कि एक
चुनावों से कोई भी दल खत्म नहीं होता, इसे समझना है तो 1984 की भाजपा को याद करें
जब उसकी दो सीटें लोकसभा में आयी थीं और 2014 में वह 282 सीटें लेकर सत्ता में
वापस आयी है। एक सक्रिय और सार्थक प्रतिपक्ष की भूमिका कांग्रेस के लिए आज भी खाली
पड़ी है।
वहीं भारतीय जनता पार्टी के लिए यह चुनाव परिणाम एक ऐतिहासिक अवसर हैं। उसे
इतिहास की इस घड़ी ने अभूतपूर्व बहुमत देकर देश के सपनों को सच करने की जिम्मेदारी
दी है। इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी एक ऐसे नेता माने जा रहे हैं जो सूझबूझ,
राजनीतिक इच्छाशक्ति और दृढ़ता की भावनाओं से लबरेज हैं। एक सफल नायक के सभी
पैमानों पर वे गुजरात में सफल रहे हैं, चुनावी अभियान में भी वे अकेले ही सब पर
भारी पड़े। अब सवा करोड़ हिंदुस्तानियों की आकांक्षाओं के वे प्रतिनिधि हैं। जनता
का भरोसा बचाए और बनाए रखने की जिम्मेदारी मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
तीनों की है। क्योंकि इन तीनों के मिले- जुले वायदों और प्रामाणिकता के आधार पर ही जनता
ने उन्हें अपना नेतृत्व करने का अवसर दिया है।
(लेखक राजनीतिक
विश्लेषक हैं, विचार निजी तौर लिखे गए हैं।)
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