बुधवार, 8 जून 2016

विकास को नए नजरिए से देखे मीडिया

-संजय द्विवेदी
  मीडिया की ताकत आज सर्वव्यापी है और कई मायनों में सर्वग्रासी भी। ऐसे में विकास के सवालों और उसके लोकव्यापीकरण में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो उठी है। यह एक ऐसा समय है, जबकि विकास और सुशासन के सवालों पर हमारी राजनीति में बात होने लगी है, तब मीडिया में यह चर्चाएं न हों यह संभव नहीं है। समाज विकास की प्रक्रिया और उसकी आकांक्षाएं मीडिया में दर्ज हों, ऐसी उम्मीद की जाती है। इन विषयों की रिपोर्टिंग के लिए तमाम पत्रकार आगे आ रहे हैं। वैश्विक स्तर पर भी विकास की पत्रकारिता को एक नई नजर से देखा जा रहा है। भारत में विकास की पत्रकारिता और उसके सवालों से जूझने के लिए पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार है, किंतु मुख्यधारा के मीडिया के द्वारा इन विषयों को तरजीह न दिए जाने के कारण निराशा ही हाथ लगती है। संकट पत्रकारों की ओर से नहीं, मीडिया संस्थानों और प्रबंधकों की ओर से है। विकास का मुद्दा क्या सिर्फ सरकारी विज्ञापनों का विषय है, सरकारी मीडिया का विषय है, या यह समाज में हो रहे नवाचारों का भी विषय है।  
   भारत जैसे विविधता और बहुलता भरे समाज में सभी उम्मीदों, सपनों और बदलावों को रेखांकित कर पाना कठिन है। क्योंकि विकास के अनेक तल हैं और देश में समाज की रचना भी बहुस्तरीय है, देश में कहावत प्रचलित है चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर वाणी, इसलिए किसी राज्य को भी एक ही पैमाने से नहीं नापा जा सकता। जैसे मध्य प्रदेश में एक तरफ समृद्ध मालवा है, तो दूसरी और झाबुआ जैसे इलाके भी हैं। एक तरफ इंदौर की चमक है, तो दूसरी ओर अलीराजपुर जैसे क्षेत्र भी हैं। छत्तीसगढ़ में अबूझमाड़ है, तो भिलाई भी है। ऐसे में पत्रकारों या विकास के सवालों पर लिखने वालों की चुनौतियां बढ़ जाती हैं। इसी तरह विकास की भूमिका भी यहां विस्तृत और परिवर्तित हो जाती है। हम देखें तो 1950 के पहले आर्थिक विकास हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण था। किंतु 1950 के बाद की चिंताएं अलग हो गयी। इन दिनों सामाजिक विकास को एक बड़ा कारक माना जाने लगा है। सामाजिक न्याय से लेकर स्थाई विकास के सवाल अब बड़े हो गए हैं। यहां तक कि पर्यावरण और ग्लोबल वार्मिंग जैसी चीजें भी हमारे सामने हैं।
  एक समय में विकसित और विकासशील देशों की बहसें भी हमने सुनीं जिनमें मैकब्राइड कमीशन की रिपोर्ट एक अलग तरह से बात करती हुयी नजर आती है, जिनमें कुछ सवाल आज भी मौजू हैं। नियंत्रित मीडिया से मीडिया के चौतरफा विकास का समय भी आया जिसमें कुछ भी छिपाना और दबाना असंभव सा हो गया। कई बार यह भी लगता रहा कि विकास का सवाल सिर्फ सरकारी माध्यमों (मीडिया) के लिए ही महत्व का है, बाकि माध्यमों का अपना एजेंडा और राय अलग है। यहां यह भी देखना जरूरी है कि कम्युनिकेशन(संचार) सिर्फ सूचनाओं का हस्तांतरण नहीं है। बल्कि पक्षधरता के साथ, न्याय के लिए खड़ा होना भी है। जन को ताकतवर बनाना भी है। अवसर की समानता की अवधारणा को प्रचारित और स्थापित करना भी है।
   विकेन्द्रीकरण ने विकास के सामने कई नए प्रश्न खड़े किए हैं। जिनके भी ठोस और वाजिब हल हमें ढूंढने चाहिए। जैसे पंचायती राज में भारत ने एक लंबी छलांग लगाई है। सत्ता इसके चलते पंचायतों तक पहुंची, पर सवाल यह है कि क्या इससे लोकतंत्र मजबूत हुआ है? क्या संसदीय राजनीति और चुनावों की तमाम बुराईयां हमारी पंचायतों तक नहीं पहुंच गयी? वहीं हम मीडिया को देखें तो उसका भी विस्तार हुआ है। व्यापकता बढ़ी है, पहुंच भी बढ़ी है। पर सवाल यह है कि क्या मीडिया में संवेदनशीलता, ग्रहणशीलता और विविधता को आदर देने की उसकी भावना भी बढ़ी है, तो शायद उत्तर नकारात्मक ही हो। तीनों तंत्रों ( कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका) से निराश लोग मीडिया की ओर बहुत उम्मीदों से देखते हैं। कई अर्थों में सत्ता का तो विकेन्द्रीकरण दिखता है, किंतु मीडिया धीरे-धीरे केन्द्रीकरण का शिकार हो रहा है। इसलिए जरूरी है क्रास मीडिया ओनरशिप के बारे में भी भारत जैसे देश सोचें। ताकि मीडिया के एकाधिकार के खतरों से बचा जा सके। इसके साथ ही प्रेस कौंसिल जैसी नख-दंत हीन संस्था के अधिकारों और क्षेत्राधिकार में बदलाव करते हुए उसे मीडिया कौंसिल में बदला जाना जरूरी है ताकि वह आज के प्रभावी मीडिया को भी अपनी चर्चा में ले सके।
   हम जिस संकट से दो चार हैं, वह यह है कि सूचनाएं बढ़ गई हैं और खबरें घट गई हैं। अखबारों के पन्ने बढ़ गए हैं, किंतु इनसे आम-आदमी गायब है। चैनल अब चौबीस घंटे कुछ बोलते हैं, पर उनमें विकास और जनता के सवालों की जगह बहुत कम है। जबकि विकास की पत्रकारिता की मुक्ति इसमें है कि जो लोग मीडिया तक नहीं पहुंच सकते, मीडिया उन तक पहुंचे। उनका दर्द सुने। अच्छी और उम्मीद जगाने वाली खबरों की ओर जाएं। जैसे बिहार का एक गांव धौरहरा है, जहां बच्ची होने पर गांव में आम का पेड़ लगाते हैं।

   हमारी राजनीति बदल रही है, हमारा समाज बदल रहा है किंतु हमारे मीडिया के सोचने और अभिव्यक्त करने की शैली उस तुलना में नहीं बदली जैसी बदलनी चाहिए। आज यह मान्यता बन चुकी है कि विकास भारतीय मीडिया की प्राथमिकता नहीं है, शायद समाज भी उसकी प्राथमिकता नहीं है। हमारे नागरबोध ने मीडिया को समाज से बड़ा बना दिया है। किंतु यह तय मानिए कि कोई भी मीडिया, कोई भी राजनीति और कोई भी व्यक्ति समाज से बड़ा नहीं हो सकता। 18 से 25 साल और 18 से 35 साल के युवाओं के बीच बाजार खोज रहे मीडिया की चितांएं अलग हो सकती हैं किंतु समाज की चितांएं कुछ भिन्न हैं। वे ही वास्तविक चिंताएं हैं। मीडिया अगर इन चिंताओं से अलग व्यवहार कर रहा है तो वह अपने अस्तित्व पर संकट स्वयं रच है। विश्वसनीयता और प्रामणिकता के संकट तो उसके साथ संयुक्त हैं ही। मीडिया के नेतृत्वकर्ताओं के लिए यह सोचने का सही समय है कि जब सारा देश विकास और सुशासन के सवालों पर गंभीर हो रहा है, उसमें अपने शासकों से जवाब मांगने की हिम्मत आ रही है, तो हमारा मुख्यधारा का मीडिया क्या कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल मीडिया के नेतृत्वकर्ताओं के सामने आज उपस्थिति हैं, अगर इन सवालों के हल हमने आज नहीं तलाशे तो कल बहुत देर हो जाएगी।

गुरुवार, 26 मई 2016

बौद्धिक वर्ग से रिश्ते सुधारे मोदी सरकार

अच्छी नीयत से किए गए कामों को भी चाहिए लोकस्वीकृति
-संजय द्विवेदी


  अपने कार्यकाल के दो साल पूरे करने के बाद नरेंद्र मोदी आज भी देश के सबसे लोकप्रिय राजनीतिक ब्रांड बने हुए हैं। उनसे नफरत करने वाली टोली को छोड़ दें तो देश के आम लोगों की उम्मीदें अभी टूटी नहीं हैं और वे आज भी मोदी को परिणाम देने वाला नायक मानते हैं। देश की जनता से साठ माह में राजनीतिक संस्कृति में परिर्वतन और बदलाव के नारे के साथ इस सरकार ने 24 माह में अपनी नीयत के जो पदचिन्ह छोड़े हैं, उससे साफ है कि सरकार ने उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने और कोयले, स्पेक्ट्रम जैसे संसाधनों की पारदर्शी नीलामी से एक भरोसा कायम किया है। देश की समस्याओं को पहचानने और अपनी दृष्टि को लोगों के सामने रखने का काम भी बखूबी इस सरकार ने किया है। राज्यसभा के विपरीत अंकगणित के चलते कुछ जरूरी कानून जैसे जीएसटी अटके जरूर हैं, किंतु सरकार की नीयत पर अभी सवाल नहीं उठ रहे हैं।
   इस सरकार का सबसे बड़ा संकट शायद कामकाज, पारदर्शिता और नीयत के बजाए छवि का है। सरकार के मुखिया की छवि इस तरह से पेंट की गयी है कि उससे उन्हें निकालना काफी मुश्किल हो रहा है। मोदी आज भी अपनी उसी गढ़ी गयी छवि और लंबी छाया से लड़ रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने के पहले मोदी के खिलाफ एक लंबा अभियान चला। जिसके तहत उनकी छवि कट्टर प्रशासक, तानाशाह, मीडिया से दूरी रखने वाले, अफसरशाही को तरजीह देने वाले, राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को समाप्त कर डालने वाले और मुस्लिम विरोधी राजनेता की बनी या बनाई गयी। इमेजेज और रियलिटी के इस संकट से उनकी सरकार आज भी दो-चार है। देश के बौद्धिक तबकों से उनकी दूरी, संवाद का संकट इस समस्या को और गहरा कर रहा है। देश के बौद्धिक तबकों, गुणी जनों से उनकी और केंद्र सरकार की दूरियां साफ नजर आती हैं। इस तबके के एक बड़े हिस्से ने क्योंकि उनके खिलाफ एक लंबा अभियान चलाया और उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, इसलिए यह दूरियां और बढ़ गयी हैं। दोनों तरफ से संवाद को बनाने और संकट का हल निकालने के बजाए तमाम तरह के विरोध प्रायोजित किए गए, जिससे समस्या और गहरी हो गयी। जैसे पुरस्कार वापसी के सिलसिले को मोदी सरकार के खिलाफ एक सुनियोजित अभियान ही माना गया। इसी तरह दादरी के मामले को जिस तरह पेश किया गया और फिर जेएनयू से लेकर हैदराबाद तक ये लपटें फैलीं।
    यहां यह देखना बहुत महत्व का है कि ये वास्तविक संकट थे या प्रायोजित किए गए। कई मामलों में सरकार को इन प्रायोजित विवादों से खुद को बचाने के सुनियोजित यत्न करने चाहिए। हमें पता है कि मोदी के राजनीतिक विरोधियों के अलावा बुद्धिजीवियों में भी एक बड़ा तबका उनके खिलाफ है। उसके पीछे विचारधारा की प्रेरणा हो या कुछ और किंतु यह है और पूरी ताकत से है। नरेंद्र मोदी सरकार के प्रबंधकों की इस मामले में विफलता ही कही जाएगी कि वे बौद्धिक तबकों के एक हिस्से द्वारा रचे जा रहे इन षडयंत्रों का बौद्धिक तरीके से जवाब नहीं दे पाए। इसका सबसे बड़ा कारण बौद्धिक वर्गों के बीच आज भी भाजपा और संघ परिवार की स्वीकृति उस रूप में नहीं है, जैसी होनी चाहिए। इस दौर का लाभ लेकर जिस प्रकार के बौद्धिक योद्धा और नायक खोजे जा सकते थे, उस दृष्टि का इस सरकार में खासा अभाव दिखता है। समूचे बौद्धिक वर्ग और मीडिया को अपना शत्रु पक्ष मानना भी इस सरकार के शुभचिंतकों की एक बड़ी भूल है। संवाद की शुरूआत और संवाद की निरंतरता से इस खाई को पाटा जा सकता है, क्योंकि मैदानी क्षेत्र में सफलताओं के झंडे गाड़ता संघ परिवार अगर बौद्धिक क्षेत्र में पटखनी खा रहा है, तो उन्हें इस ओर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। यह भी स्वीकारना होगा कि कोई भी सरकार छात्रों और बुद्धिजीवियों से कटकर, खुद के लिए संकट ही पैदा करेगी। इन्हें शत्रु मानना तो बिल्कुल ठीक नहीं है। इन वर्गों को साथ लेना ही किसी भी समझदार नेतृत्व का काम होना चाहिए।
   विचारधारा के संकट अलग हैं, किंतु बौद्धिक तबकों का नेतृत्व बौद्धिक क्षेत्र से ही आएगा। वहां दोयम दर्जे के चयन संकट ही खड़ा करेंगें। सत्ता का लाभ लोगों को अपना बनाने के लिए हो सकता है, किंतु बहुत अड़ियल रवैये और खूंटे गाड़ने से बौद्धिक वर्गों की स्वीकार्यता और समर्थन नहीं पाया जा सकता। इसलिए सड़क, बिजली, पानी, अधोसंरचना से जुड़े कामों के अलावा बौद्धिक चेतना का सही दिशा में निर्माण भी एक जरूरी काम है। योग्य व्यक्तियों को योग्य काम देकर ही परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। यह भी मानिए कि बौद्धिक तबकों,कलावंतों के बीच बहुत संगठनात्मक हठधर्मिता भी स्वीकार्य नहीं है, उन्हें उनके लक्ष्य बताकर खुला छोड़ना पड़ता है। यह सोच भी गलत है कि सारे बौद्धिक वामपंथी हैं और एक मरी हुयी विचारधारा से चिपके हुए हैं। संगठनात्मक आधार पर इन क्षेत्रों में वामपंथी संगठन सक्रिय थे, इसलिए उनकी इस तरह की सामूहिक शक्ति ज्यादा दिखती है। इस क्षेत्र में संघ परिवार का प्रवेश नया है किंतु ज्यादातर बुद्धिजीवी स्वतंत्र सोच के हैं और उन्हें अपने साथ जोड़ा जा सकता है। शायद वे संगठनात्मक रूप से उतने सक्रिय न हों किंतु समाज में उनकी बड़ी जगह होती है। उनकी संवेदना, सोच के लिए स्वायत्तता एक अनिवार्य तत्व है, जिसे प्रशासनिक तलवारों और नौकरशाही की जड़ताओं से मुक्त रखना जरूरी है। कांग्रेस से पूरा न सीखें तो भी बौद्धिक तबकों से डील करने की उनकी शैली के कुछ तत्व अपनाए जा सकते हैं। यह भी ध्यान रखना होगा कि इस मामले में मीडियाकर का चयन लाभकारी नहीं हो सकता, आपको अंततः एक्सीलेंस पर ही जाना होगा।
  जनसंपर्क, आत्म-प्रचार, हावी नौकरशाही और पार्टी में व्यक्तिपूजा से कोई भी लोकनायक जितनी जल्दी मुक्त हो जाए, उसे उतनी ही स्वीकार्यता मिलती है। पिछली सरकारों की विफलता के उदाहरणों को देते हुए, आप अपनी सरकार को सफल करार नहीं दे सकते। यह बात कई बार देखी और सुनी गयी है कि अच्छे कामों के बाद भी सरकारें हार जाती हैं। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार इसका उदाहरण है। इसका सबसे बड़ा कारण यही होता है कि आपके काम लोगों तक नहीं पहुंचे और यदि पहुंचे तो आपकी नीयत पर सवालिया निशान लगे।
   मोदी सरकार का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसमें अपेक्षित विनम्रता का अभाव है। हर आरोप पर हमलावर हो जाना सरकारों का गुण नहीं है, मंत्रियों का गुण नहीं है। हर असहमति के स्वर को अपने ऊपर आरोप समझना भी ठीक नहीं है। मोदी और उनकी सरकार को हमेशा यह समझना होगा कि उनके विरोधी बहुत चतुर, चालाक, मीडिया चपल और नान इश्यू को इश्यू बनाने वाले लोग हैं। उनके जाल में हमेशा फंस जाना ठीक नहीं है। लोकसभा चुनावों के पहले तक भाजपा एजेंडा सेट कर रही थी और देश उस पर बहस करता था। आज क्या कारण है कि विरोधी एजेंडा सेट कर रहे हैं और सरकार उसमें फंस रही है। प्रत्यक्ष सरकार में शामिल लोग भी क्यों विवादों में उलझ रहे हैं और अपनी मर्यादा का हनन कर रहे हैं। भाजपा के रण बांकुरों को सत्ता में होने के मायने और सत्ता की मर्यादाएं भी सीखनी चाहिए।

   बावजूद इसके इस सरकार को निश्चय ही इस बात का श्रेय है कि उसने अवसाद और निराशा से भरे देश में उम्मीदें जगाने का काम किया है, मोदी ने राष्ट्र को उर्जावान नेतृत्व दिया है। नीति पंगुता के स्थान पर निर्णय क्षमता ने लिया है। संसद की उत्पादकता में वृद्धि हुयी है।नवाचारों और अपनी गति से नव मध्यवर्ग का प्यार भी पाया है, किंतु क्या किसी सरकार के लिए इतना काफी है? क्या उसे समाज के बौद्धिक तबकों, कलावंतों को छोड़ देना चाहिए? जबकि यह वर्ग समाज का प्रभावी वर्ग है, उसकी राय और सोच का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। उसे सुधारने का यह सही समय है। यह देश सबका है, सभी विचारों के लोग मिलकर इस देश को बनाने में अपना योगदान दें, यह सुनिश्चित करना भी नेतृत्व का ही काम है। देश के एक  बड़े बौद्धिक वर्ग ने निश्चित ही मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए अभियान चलाए, कुछ ने देश छोड़ने की धमकी दी। किंतु जनता-जर्नादन के फैसले के बाद अब बारी सरकार और उसके प्रबंधकों की है कि वे दिल बड़ा करें और सबका साथ-सबका विकास का अपना नारा जमीन पर भी उतारें। किसी भी समाज के गुणीजनों से सत्ता की दूरी न तो देश के ठीक है न ही समाज के लिए। दोनों पक्षों में संवाद ही निरंतरता ही लोकतंत्र को जीवंत बनाती है।

गुरुवार, 19 मई 2016

अपनी भूमिका पर पुर्नविचार करें राष्ट्रीय दल

क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव से अखिलभारतीयता की भावना प्रभावित होगी
-संजय द्विवेदी

  अब जबकि आधा से ज्यादा भारत क्षेत्रीय दलों के हाथ में आ चुका है तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे नए सिरे से अपनी भूमिका का विचार करें। भारत की सबसे पुरानी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, दोनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियां और भारतीय जनता पार्टी आम तौर पर पूरे भारत में कम या ज्यादा प्रभाव रखती हैं। उनकी विचारधारा उन्हें अखिलभारतीय बनाती है भले ही भौगोलिक दृष्टि से वे कहीं उपस्थित हों, या न हों। आज जबकि भारतीय जनता पार्टी ने असम के बहाने पूर्वोत्तर में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा ली है और अरूणाचल की सत्ता में भागीदार बन चुकी है, तब भी तमिलनाडु, पांडिचेरी जैसे राज्य में उसका खाता भी न खुलना चिंता की बात है।
    केंद्र की सत्ता में पूर्ण बहुमत के साथ आई भारतीय जनता पार्टी असम में अपनी सफलता के साथ खुश हो सकती है, किंतु उसे यह विचार करना ही चाहिए कि आखिर क्षेत्रीय दलों का ऐसा क्या जादू है कि वे जहां हैं, वहां किसी राष्ट्रीय दल को महत्व नहीं मिल रहा है। भाजपा ने जिन प्रदेशों में सत्ता पाई है, कमोबेश वहां पर कांग्रेस की सरकारें रही हैं। क्षेत्रीय दलों की अपील, उनके स्थानीय सरोकारों, नेतृत्व का तोड़ अभी राष्ट्रीय दलों को खोजना है। भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, झारखंड में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई है। इनमें महाराष्ट्र और झारखंड को छोड़कर कहीं क्षेत्रीय दलों की प्रभावी मौजूदगी नहीं है। क्षेत्रीय क्षत्रपों की स्वीकृति और उनके जनाधार में सेंध लगा पाने में राष्ट्रीय राजनीतिक दल विफल रहे हैं। जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, नीतिश कुमार, अखिलेश और मुलायम सिंह यादव, महबूबा मुफ्ती के जनाधार को सेंध लगा पाने और चुनौती देने में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को पसीना आ रहा है। राष्ट्रीय दल या तो किसी क्षेत्रीय दल की बी टीम बनकर रहें या उस राज्य में खुद को समाप्त कर लें।  जैसे बिहार और पश्चिम बंगाल में राजनीतिक गठबंधनों में शामिल होने का लाभ कांग्रेस को मिला, वरना वह दोनों राज्यों से साफ हो सकती थी। इसी तरह भाजपा को भी पंजाब, कश्मीर और अरूणाचल में क्षेत्रीय दलों के साथ सरकार में शामिल होकर अपनी मौजूदगी जताने का अवसर मिला है। भाजपा ने तेजी से कांग्रेस की छोड़ी जमीन पर कब्जा जमाया है, किंतु क्षेत्रीय दलों के लिए वह कोई बड़ी चुनौती नहीं बन पा रही है। वामपंथी दल तो अब केरल, पं. बंगाल और त्रिपुरा तीन राज्यों तक सिमट कर रह गए हैं।
   क्षेत्रीय दलों का बढ़ता असर इस बात से दिखता है कि कश्मीर से लेकर नीचे तमिलनाडु में क्षेत्रीय दलों के ताकतवर मुख्यमंत्री नजर आते हैं। इन मुख्यमंत्रियों के प्रति उनके राज्य की जनता का सीधा जुड़ाव, स्थानीय सवालों पर इनकी संबद्धता, त्वरित फैसले और सुशासन की भावना ने उन्हें ताकतवर बनाया है। चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता इसी श्रेणी में आते हैं। ममता बनर्जी का अकेले दम पर दो बार सत्ता में वापस होना, यही कहानी बयान करता है। उड़िया में संवाद करने में आज भी संकोची नवीन पटनायक जैसे नेता राष्ट्रीय दलों के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं।
   ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्षेत्रीय दलों का बढ़ता असर क्या भारतीय राजनीति को प्रभावित करेगा और राष्ट्रीय दलों की हैसियत को कम करेगा। अथवा ताकतवर मुख्यमंत्रियों का यह कुनबा आगामी लोकसभा चुनाव में कोई चुनौती बन सकता है। शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे ने तो कहा ही है कि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीति में अपनी बड़ी भूमिका के लिए तैयार हों। कल्पना करें कि नीतिश कुमार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता अगर किसी तीसरे मोर्चे या वैकल्पिक मोर्चे की ओर बढ़ते हैं, तो उसके क्या परिणाम आ सकते हैं। इसमें भाजपा का लाभ सिर्फ यह है कि वह केंद्र की सत्ता में है और राज्यों को केंद्र से मदद की हमेशा दरकार रहती है। ऐसे में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर भाजपा इन दलों को एकजुट होने देने में बाधक बन सकती है या फिर उन्हें एडीए के कुनबे में जोड़ते हुए केंद्र सरकार के साथ जोड़े रख सकती है। बहुत संभावना है कि आने वाले आम चुनावों तक हम ऐसा कुछ होता देख पाएं। इसके साथ ही यह भी संभावित है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सलाहकारों से यह कहें कि वे एनडीए का कुनबा बढ़ाने पर जोर दें। किंतु यह सारा कुछ संभव होगा पंजाब और उत्तर प्रदेश के परिणामों से।
   पंजाब और उत्तर प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों का बहुत कुछ दांव पर नहीं है, किंतु इन दो राज्यों के चुनाव परिणाम ही भावी राजनीति की दिशा तय करेगें और 2019 के लोकसभा चुनाव की पूर्व पीठिका भी तैयार करेगें। नीतिश कुमार के संघमुक्त भारत के नारे की अंतिम परिणति भी उप्र और पंजाब के चुनाव के परिणामों के बाद पता चलेगी। देखना यह भी होगा कि इन दो राज्यों में भाजपा अपना वजूद किस तरह बनाती और बचाती है। उप्र के लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता के बाद वहां हुए सभी चुनावों और उपचुनावों में भाजपा को कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं मिली है। उप्र का मैदान आज भी सपा और बसपा के बीच बंटा हुआ दिखता है। ऐसे में असम की जीत से उर्जा लेकर भाजपा संगठन एक बार फिर उप्र फतह के ख्वाब में है। इसके साथ पंजाब में अकाली दल-भाजपा गठबंधन के सामने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की चुनौती भी है। इस त्रिकोणीय संघर्ष में किसे सफलता होगी कहा नहीं जा सकता। कुल मिलाकर आने वाला समय राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ी चुनौती है। खासकर कांग्रेस के लिए यह समय गहरे संकट का है, जिसे स्थानीय नेतृत्व के बजाए आज भी गांधी परिवार पर ज्यादा भरोसा है।

   कांग्रेस जैसे बड़े राष्ट्रीय दल की सिकुड़न और कमजोरी हमारे लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है। क्योंकि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का क्षरण दरअसल राजनीति में अखिलभारतीयता के प्रवाह को भी बाधित करता है। इसके चलते क्षेत्रीय राजनीति के स्थानीय सवाल राष्ट्रीय मुद्दों से ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं। केंद्रीय सत्ता पर क्षेत्रीय दलों का अन्यान्न कारणों से दबाव बढ़ जाता है और फैसले लेने में मुश्किलें आती हैं। सब कुछ के बाद भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपने स्थानीय नजरिए से उपर नहीं उठ पाते और ऐसे में राष्ट्रीय मुद्दों से समझौता भी करना पड़ता है। ध्यान दें, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 23 दलों की सम्मिलित उपस्थिति के नाते उसे कितने तरह के दबावों से जूझना पड़ा था और अच्छी नीयत के बाद भी उस सरकार का समग्र प्रभाव नकारात्मक ही रहा। यह अच्छी बात है कि वर्तमान सरकार को केंद्र में अपने दम पर बहुमत हासिल है किंतु आने वाले समय में यह स्थितियां बनी रहें, यह आवश्यक नहीं है। ऐसे में सभी राष्ट्रीय दलों को क्षेत्रीय दलों की राजनीति से सीखना होगा। स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा करते हुए, स्थानीय सवालों-मुद्दों और जनभावना के साथ स्वयं को रूपांतरित करना होगा। बिहार और दिल्ली की हार के बाद भाजपा ने असम में यह बात समझी और कर दिखाई है। यह समझ और स्थानीय सरोकार ही राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को खोयी हुयी जमीन दिला सकते हैं। इससे लोकतंत्र और राजनीति में अखिलभारतीयता की सोच दोनों को शक्ति मिलेगी।

बुधवार, 18 मई 2016

एक चादर उजली सीः पं. श्यामलाल चतुर्वेदी

-संजय द्विवेदी

   आप छत्तीसगढ़ की पावन घरती पर आएं और पं.श्यामलाल चतुर्वेदी से परिचित न हो सकें, यह संभव नहीं है। वे सही मायनों में छत्तीसगढ़ की अस्मिता, उसके स्वाभिमान, भाषा और लोकजीवन के सच्चे प्रतिनिधि हैं। उन्हें सुनकर जिस अपनेपन, भोलेपन और सच्चाई का भान होता है, वह आज के समय में बहुत दुर्लभ है।
   श्यामलाल जी से मेरी पहली मुलाकात सन् 2001 में उस समय हुयी जब मैं दैनिक भास्कर, बिलासपुर में कार्यरत था। मैं मुंबई से बिलासपुर नया-नया आया था और शहर के मिजाज को समझने की कोशिश कर रहा था। हालांकि इसके पहले मैं एक साल रायपुर में स्वदेश का संपादक रह चुका था और बिलासपुर में मेरी उपस्थिति नई ही थी। बिलासपुर के समाज जीवन, यहां के लोगों, राजनेताओं, व्यापारियों, समाज के प्रबुद्ध वर्गों के बीच आना-जाना प्रारंभ कर चुका था। दैनिक भास्कर को री-लांच करने की तैयारी मे बहुत से लोगों से मिलना हो रहा था। इसी बीच एक दिन हमारे कार्यालय में पं. श्यामलाल जी पधारे। उनसे यह मुलाकात जल्दी ही ऐसे रिश्ते में बदल गयी, जिसके बिना मैं स्वयं को पूर्ण नहीं कह सकता। अब शायद ही कोई ऐसा बिलासपुर प्रवास हो, जिसमें उनसे सप्रयास मिलने की कोशिश न की हो। अब जबकि वे काफी अस्वस्थ रहते हैं, उनसे मिलना हमेशा एक शक्ति देता है। उनसे मिला प्रेम, हमारी पूंजी है। छत्तीसगढ़ में मीडिया विमर्श के हर आयोजन में वे एक अनिवार्य उपस्थिति तो हैं ही। उनके स्नेह-आशीष की पूंजी लिए मैं भोपाल आ गया किंतु रिश्तों में वही तरलता मौजूद है। मेरे समूचे परिवार पर उनकी कृपा और आशीष हमेशा बरसते रहे हैं। मेरे पूज्य दादा जी की स्मृति में होने वाले पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता समारोह में भी वे आए और अपना आर्शीवाद हमें दिया।
अप्रतिम वक्ताः
पं. श्यामलाल जी की सबसे बड़ी पहचान उनकी भाषण-कला है। वे बिना तैयारी के डायरेक्ट दिल से बोलते हैं। हिंदी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं का सौंदर्य, उनकी वाणी से मुखरित होता है। उन्हें सुनना एक विलक्षण अनुभव है। हमारे पूज्य गुरूदेव स्वामी शारदानंद जी उन्हें बहुत सम्मान देते हैं और अपने आयोजनों में आग्रह पूर्वक श्यामलाल जी को सुनते हैं। श्यामलाल जी अपनी इस विलक्षण प्रतिभा के चलते पूरे छत्तीसगढ़ में लोकप्रिय हैं। वे किसी बड़े अखबार के संपादक नहीं रहे, बड़े शासकीय पदों पर नहीं रहे किंतु उन्हें पूरा छत्तीसगढ़ पहचानता है। सम्मान देता है। चाहता है। उनके प्रेम में बंधे लोग उनकी वाणी को सुनने के लिए आतुर रहते हैं। उनका बोलना शायद इसलिए प्रभावकारी है क्योंकि वे वही बोलते हैं जिसे वे जीते हैं। उनकी वाणी और कृति मिलकर संवाद को प्रभावी बना देते हैं।
महा परिवार के मुखियाः
 श्यामलाल जी को एक परिवार तो विरासत में मिला है। एक महापरिवार उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता से बनाया है। देश भर में उन्हें चाहने और मानने वाले लोग हैं। देश की हर क्षेत्र की विभूतियों से उनके निजी संपर्क हैं। पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में छत्तीसगढ़ की वे एक बड़ी पहचान हैं। अपने निरंतर लेखन, व्याख्यानों, प्रवासों से उन्होंने हमें रोज समृद्ध किया है। इस अर्थ में वे एक यायावर भी हैं, जिन्हें कहीं जाने से परहेज नहीं रहा। वे एक राष्ट्रवादी चिंतक हैं। किंतु विचारधारा का आग्रह उनके लिए बाड़ नहीं है। वे हर विचार और राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के बीच समान रूप से सम्मानित हैं। मध्यप्रदेश के अनेक मुख्यमंत्रियों से उनके निकट संपर्क रहे हैं। मंत्रियों की मित्रता सूची में उनकी अनिर्वाय उपस्थिति है। किंतु खरी-खरी कहने की शैली ने सत्ता के निकट रहते हुए भी उनकी चादर मैली नहीं होने दी। सही मायनों में वे रिश्तों को जीने वाले व्यक्ति हैं, जो किसी भी हालात में अपनों के साथ होते हैं।    
छत्तीसगढ़ी संस्कृति के चितेरेः
  छत्तीसगढ़ उनकी सांसों में बसता है। उनकी वाणी से मुखरित होता है। उनके सपनों में आता है। उनके शब्दों में व्यक्त होता है। वे सच में छत्तीसगढ़ के लोकजीवन के चितेरे और सजग व्याख्याकार हैं। उनकी पुस्तकें, उनकी कविताएं, उनका जीवन, उनके शब्द सब छत्तीसगढ़ में रचे-बसे हैं। आप यूं कह लें उनकी दुनिया ही यह छत्तीसगढ़ है। जशपुर से राजनांदगांव, जगदलपुर से अंबिकापुर की हर छवि उनके लोक को रचती है और उन्हें महामानव बनाती है। अपनी माटी और अपने लोगों से इतना प्रेम उन्हें इस राज्य की अस्मिता और उसकी भावभूमि से जोड़ता है। श्यामलाल जी उन लोगों में हैं जिन्होंने अपनी किशोरावस्था में एक समृद्ध छत्तीसगढ़ का स्वप्न देखा और अपनी आंखों के सामने उसे राज्य बनते हुए और प्रगति के कई सोपान तय करते हुए देखा। आज भी इस माटी की पीड़ा, माटीपुत्रों के दर्द पर वे विहवल हो उठते हैं। जब वे अपनी माटी के दर्द का बखान करते हैं तो उनकी आंखें पनीली हो जाती हैं, गला रूंध जाता है और इस भावलोक में सभी श्रोता शामिल हो जाते हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से इसी लोकजीवन की छवियां बार-बार पाठकों को प्रक्षेपित करते हैं। उनका समूचा लेखन इसी लोक मन और लोकजीवन को व्यक्त करता है। उनकी पत्रकारिता भी इसी लोक जीवन से शक्ति पाती है। युगधर्म और नई दुनिया के संवाददाता के रूप में उनकी लंबी सेवाएं आज भी छत्तीसगढ़ की एक बहुत उजली विरासत है।
सच कहने का साहस और सलीकाः   
पं. श्यामलाल जी में सच कहने का साहस और सलीका दोनों मौजूद है। वे कहते हैं तो बात समझ में आती है। कड़ी से कड़ी बात वे व्यंग्य में कह जाते हैं। सत्ता का खौफ उनमें कभी नहीं रहा। इस जमीन पर आने वाले हर नायक ने उनकी बात को ध्यान से सुना और उन्हें सम्मान भी दिया। सत्ता के साथ रहकर भी नीर-क्षीर-विवेक से स्थितियों की व्याख्या उनका गुण है। वे किसी भी हालात में संवाद बंद नहीं करते। व्यंग्य की उनकी शक्ति अप्रतिम है। वे किसी को भी सुना सकते हैं और चुप कर सकते हैं। उनके इस अप्रतिम साहस के मैने कई बार दर्शन किए हैं। उनके साथ होना सच के साथ होना है, साहस के साथ होना है। रिश्तों को बचाकर भी सच कह जाने की कला उन्होंने न जाने कहां से पाई है। इस आयु में भी उनकी वाणी में जो खनक और ताजगी है वह हमें विस्मित करती है। उनकी याददाश्त बिलकुल तरोताजा है। स्मृति के संसार में वे हमें बहुत मोहक अंदाज में ले जाते हैं। उनकी वर्णनकला गजब है। वे कहते हैं तो दृश्य सामने होता है। सत्य को सुंदरता से व्यक्त करना उनसे सीखा जा सकता है। वे अप्रिय सत्य न बोलने की कला जानते हैं।

   आज जबकि वे आयु के शीर्ष पर हैं, उनका समूचा जीवन, लेखन, पत्रकारीय धर्म को निर्वहन करने की कला हमें प्रेरित करते हैं। नई पीढ़ी से उनका संवाद निरंतर है। आयु के इस मोड़ पर भी वे न थके हैं, न रूके हैं। उनकी इस अप्रतिम ऊर्जा, सतत सक्रियता हमारी पीढ़ी के लिए प्रेरणा का विषय है। वे शतायु हों। मंगलकामनाएं।

सोमवार, 16 मई 2016

विचार महाकुंभ से क्या हासिल?

संघ परिवार के सामने विचारों को जमीन पर उतारने की चुनौती
-संजय द्विवेदी


 उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ कुंभ का लाभ लेते हुए अगर मध्यप्रदेश सरकार ने जीवन से जुड़े तमाम मुद्दों पर संवाद करते हुए कुछ नया करना चाहा तो इसमें गलत क्या है? सिंहस्थ के पूर्व मध्य प्रदेश की सरकार ने अनेक गोष्ठियां आयोजित कीं और इसमें दुनिया भर के विद्वानों ने सहभागिता की। इन गोष्ठियों से निकले निष्कर्षों के आधार पर सिंहस्थ-2016 का सार्वभौम संदेश सरकार ने जारी किया है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने नवाचारों और सरोकारों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी मंशा थी कि कुंभ के अवसर पर होने वाली विचार विमर्शों की परंपरा को इस युग में भी पुनर्जीवित किया जाए। उनकी इस विचार शक्ति के तहत ही मध्यप्रदेश में लगभग दो साल चले विमर्शों की श्रृंखला का समापन उज्जैन के समीप निनोरा गांव में तीन दिवसीय अंतराष्ट्रीय विचार महाकुंभ के रूप में हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना सहित आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने भी शिरकत की।
  मूल्य आधारित जीवन, मानव कल्याण के लिए धर्म, ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन, विज्ञान और अध्यात्म, महिला सशक्तिकरण, कृषि की ऋषि परम्परा, स्वच्छता और पवित्रता, कुटीर और ग्रामोद्योग जैसे विषयों पर विमर्शों ने इन संगोष्ठियों की उपादेयता न केवल बढ़ाई है, बल्कि यह आयोजन एक सरकारी कर्मकांड से आगे लोक-विमर्श के स्वरूप में बदल गया। किसी भी सरकार द्वारा किए जा रहे आयोजन पर यह आरोप लगाना बहुत आसान है कि यह एक सरकारी आयोजन है। आरोप यह भी लगे कि संघीकरण है। किंतु आप विषयों की विविधता और विद्वानों की उपस्थिति देखें तो लगेगा कि यह एक सरकार प्रेरित आयोजन जरूर था, किंतु इसमें जिस तरह से भारतीय भूमि को केन्द्र में रखकर लोकहितार्थ विमर्श हुआ, वह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। राजसत्ता को जनसरोकारों से जोड़ता है और विमर्श की भारतीय परम्परा को मजबूत करता है।
      विमर्श के 51 सूत्रों की पुस्तिका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जारी की। इन 51 मुद्दों सूत्रों पर नजर डालें तो यह सूत्र भारत से भारत का परिचय कराते हुए नजर आते हैं। पहली नजर में शायद आपको कुछ नया नजर न भी आए, क्योंकि जिस धारा को हम छोड़कर आए यह बिंदु आपकी उसी राह पर वापसी कराते हैं। सही मायने में भारतीय राज्य और राष्ट्र को अपनी नजर से देखना है, अपने घर लौटना है। यह घर वापसी विचारों की भी है, राजनीतिक संस्कृति की भी है। भारतीय परम्पराओं और सांस्कृतिक प्रवाह की भी है। इस भावधारा को लोगों तक ले जाना, उनके मन और जीवन में बसे भारत से उनका परिचय कराना,  राजनीति का काम भले न रहा हो किंतु राजसत्ता को इसे करना चाहिए। यहां जो निकष निकले वह चौंकाने वाले नहीं हैं। वे वही बातें हैं जिन्हें हमारे ऋषि, विद्वान, पीर-फकीर, बुद्धिजीवी कहते आ रहे हैं और आधुनिक समय में जिन बातों को महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया,दीनदयाल उपाध्याय, आचार्य नरेन्द्र देव, जेबी कृपलानी, डा.बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर, डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा। यह सिंहस्थ घोषणापत्र जब कहता है कि विकास का लक्ष्य सभी के सुख, स्वास्थ्य और कल्याण को सुनिश्चित करना है। जीवन में मूल्य के साथ जीवन के मूल्य का उतना ही सम्मान करना जरूरी है। इसी घोषणापत्र में कहा गया है कि धर्म यह सीख देता है कि जो स्वयं को अच्छा न लगे, वह दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए। जियों और जीने दो का विचार हमारे सामाजिक व्यवहार का मार्गदर्शी सिद्धांत होना चाहिए। धर्म एक जोड़ने वाली शक्ति है अतः धर्म के नाम पर की जा रही सभी प्रकार की हिंसा का विरोध विश्व भर के समस्त धर्मों , पंथों, संप्रदायों और विश्वास पद्धतियों के प्रमुखों द्वारा किया जाना चाहिए।
   सिंहस्थ का घोषणा पत्र सिर्फ इस अर्थ में ही महत्वपूर्ण नहीं है कि वह केवल भारत और भारत के लोगों का विचार करता है बल्कि इसमें विश्व मानवता की चिंता है और समूची पृथ्वी पर सुख कैसे विस्तार पाए इसके सूत्र इसमें पिरोए गए हैं। यह पारिस्थितिकी की रक्षा की बात करता है, तो पौधों की चिंता भी करता है। नदियों की चिंता करता है, तो प्रकृति के साथ सहजीवन की बात भी कही गयी है। अनियोजित शहरीकरण, अंधाधुंध विकास, रासायनिक खेती, विज्ञापनों में स्त्री देह के वस्तु की तरह इस्तेमाल से लेकर नारी की प्रतिष्ठा और गरिमा की बात इसमें है। सिंहस्थ घोषणा पत्र गिरते भूजल स्तर, मिट्टी के क्षरण की चिंता करते हुए ऋषि खेती या जैविक खेती के पक्ष में खड़ा दिखता है। देशी गायों को बचाने और उनके संवर्धन की चिंता भी यहां की गई है। यह घोषणा पत्र एक वृहत्तर समाजवाद की पैरवी करते हुए कहता है-पूंजी का अधिकतम लोगों में अधिकतम प्रसार ही आर्थिक प्रजातंत्र है। कुटीर उद्योगों को आर्थिक और सामाजिक प्रजातंत्र के महत्वपूर्ण अंश की तरह देखा जाना चाहिए। खेती के बारे में सिंहस्थ घोषणापत्र कहता है कि शून्य बजट खेती की अवधारणा को लोकप्रिय करने की जरूरत है ताकि न्यूनतम लागत से अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सके।

     12 से 14 मई,2016 को निनौरा में आयोजित इस महाकुंभ की विशेषता यह है कि यह एक साथ अनेक विषयों पर बात करते हुए, हमारे समय के अनेक सवालों से टकराता है और उनके ठोस और वाजिब हल ढूंढने की कोशिश करता है। यह धर्म की छाया में मानवता के उदात्त विचारों के आधार पर विकास की अवधारणा पर बात करता है। यह आयोजन राजनीति और विकास के पश्चिमी प्रेरित अधिष्ठानों के खिलाफ खड़ा है। यह लंबे समय से चल रही विकास की परिपाटी को प्रश्नांकित करता है और भारतीय स्वावलंबन, ग्राम स्वराज की पैरवी करता है। यह आयोजन सही मायने में गांधी का पुर्नपाठ सरीखा है। जहां गांव, समाज, गाय, कृषि, स्त्री, विकास की दौड़ में पीछे छूटे लोगों,किसानों, बुनकरों, चर्मकारों इत्यादि सब पर विचार हुआ। यह साधारण नहीं था कि मंच से ही बाबा रामदेव ने कहा कि आज से वे मिलों के बने कपड़े नहीं पहनेंगे और हाथ से बुने कपड़े पहनेंगे। उन्होंने लोगों से भी कहा कि वे भी सूती कपड़े पहनें, मोची के हाथों से बने जूते पहनें। उन्होंने लोगों से ब्रांड के मोह से बचने की सलाह दी। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि लोग चाहें तो पतंजलि के बने दंतकांति के पेस्ट के बजाए दातून करें। जाहिर तौर यह आयोजन भारतीय मेधा के वैश्विक संकल्पों को तो व्यक्त करता ही था, वैश्विक चेतना से जुड़ा हुआ भी था। कई देशों से आए प्रतिनिधियों से लेकर निनौरा गांव वासियों के बीच आपसी विमर्श के तमाम अवसर नजर आए। निनोरा ग्राम वासियों के प्रति मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कार्यक्रम के एक दिन बाद जाकर आभार भी जताया और कहा कि एक माह के बाद उनके खेतों में फिर खेती हो सकेगी। इस पूरे आयोजन ने म.प्र. को एक नई तरीके से देखने और सोचने के अवसर दिया है। पिछले चार सालों से कृषि कर्मण अवार्ड जीत रहे म.प्र. ने खेती के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर अपना लोहा मनवाया है। अब उसके सामने एक नई तरह की चुनौती है। वह विकास की पश्चिमी भौतिकवादी अवधारणा से विलग कुछ करके दिखाए और भारतीय पारंपरिक मूल्यों के आधार पर कृषि और अन्य संरचनाएं खड़ी करे। विचारों को घरती पर उतारना एक कठिन काम है, शिवराज सिंह चौहान ने इस बहाने अपने लिए बहुत से नए लक्ष्य तय कर लिए हैं, देखना है  कि उनके ये प्रयोग पूरे देश को किस तरह आंदोलित और प्रभावित कर पाते हैं। इसके साथ ही संघ परिवार और उसके संगठनों के सामने सिंहस्थ के विचार महाकुंभ से उपजे विचारों को जमीन पर उतारने की चुनौती मौजूद है, वरना यह आयोजन भी इतिहास के निर्मम पृष्ठ पर एक मेले से ज्यादा अहमियत शायद ही रख पाए।

सोमवार, 9 मई 2016

वे क्यों चाहते हैं संघ मुक्त भारत?

-संजय द्विवेदी

     बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने संघमुक्त भारतका एक नया शिगूफा छोड़कर खुद को चर्चा के केन्द्र में ला दिया है। यह नारा देखने में तो भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारतजैसा ही लगता है। किन्तु द्वंद्व यह है कि संघ कोई राजनीतिक दल नहीं है, जिससे आप वोटों के आधार पर उसकी बढ़ती या घटती साख का आकलन कर सकें।
     संघ एक ऐसा सांस्कृतिक संगठन है, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी शक्ति का लगातार विस्तार किया है। उसने न सिर्फ अपने जैसे अनेक संगठन खड़े किये बल्कि समाज जीवन के हर क्षेत्र में एक सकारात्मक और सार्थक हस्तक्षेप किया है। नित्य होने वाले सामाजिक, राजनीतिक, मीडिया विमर्शों से दूर रहकर संघ ने चुपचाप अपनी शक्ति का विस्तार किया है और लोगों के मनों में जगह बनाई है। शायद इसीलिये उसे और उसकी शक्ति को राजनीतिक आधार पर आंकना गलत होगा। बावजूद इसके सवाल यह उठता है कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दल भारतीय जनता पार्टी से मुक्त भारत बनाने के बजाय नीतीश कुमार क्यों संघ मुक्त भारत बनाना चाहते हैं। उनकी मैदानी जंग तो भाजपा से है पर वे संघ मुक्त भारत चाहते हैं। जाहिर तौर पर उनका निशाना उस विचारधारा पर है, जिसने 1925 में एक संकल्प के साथ अपनी यात्रा प्रारंभ की और आज समाज जीवन के हर क्षेत्र में उसकी प्रभावी उपस्थिति है। भारत के भूगोल के साथ-साथ दुनिया भर में संघ विचार को चाहने और मानने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं। संघ के प्रचारकों के त्याग, आत्मीय कार्य शैली और परिवारों को जोड़कर एक नया समाज बनाने की ललक ने उन्हें तमाम तपस्वियों से ज्यादा आदर समाज में दिलाया है।
     अपने राष्ट्रप्रेम, कर्तव्य निष्ठा और परम्परागत राजनीतिक विचारों से अलग एक नई राजनीतिक संस्कृति को गढ़ने और स्थापित करने में भी संघ के स्वयंसेवकों ने सफलता पाई है। भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक सफलतायें और विचार कहीं न कहीं संघ की प्रेरणा से ही बल पाते हैं। राजनीति का पारम्परिक दृष्टिकोण धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र और तमाम गढ़े गये विवादों से बल पाता है। किन्तु संघ की कार्यशैली में इन वादों और विवादों का कोई स्थान नहीं है। संघ ने पहले दिन से ही खुद को हिंदु समाज के संगठन का व्रतधारी सांस्कृतिक संगठन घोषित किया। किंतु उसने किसी पंथ से दुराव या संवाद बंद नहीं किया। संघ ने खुद का नाम भी इसीलिये शायद हिंदू स्वयं सेवक संघ के बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रखा, क्योंकि उसके हिंदुत्व की परिभाषा में वह हर भारतवासी आता है, जिसे अपनी मातृभूमि से प्रेम है और वह उसके लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की भावना से भरा है। इस संघ को आज की राजनीति नहीं समझ सकती। जबकि आजादी के आंदोलन के दौर ने महात्मा गांधी, बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर इसे समझ गये थे। चीन युद्ध के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू भी इस बात को समझ गये थे कि संघ की राष्ट्रभक्ति संदेह से परे है। जबकि पंडित नेहरू के वामपंथी साथी उन दिनों चीन के चेयरमैन माओ की भक्ति में राष्ट्रदोह की सभी सीमायें लांघ चुके थे। इन संदर्भों से पता चलता है कि संघ को देश पर पड़ने वाले संकटों के वक्त ठीक से पहचाना जा सकता है। आज संघ का जो भौगोलिक और वैचारिक विस्तार हुआ है उसके पीछे बहुत बड़ी बौद्धिक ताकतें या थिंक टैंक नहीं हैं, सिर्फ संघ के द्वारा भारत और उसके मन को समझकर किये गये कार्यों के नाते यह विस्तार मिला है। आज भी संघ एक बेहद प्रगतिशील संगठन है, जिसने नये जमाने के साथ खुद को ढाला और निरंतर बदला है। विचारधारा की यह निरंतरता कहीं से भी उसे एक जड़ संगठन में तब्दील नहीं होने देती। राष्ट्रहित में संघ ने जो कार्य किये हैं उनकी एक लम्बी सूची है। देश पर आये हर संकट पर राष्ट्रीय पक्ष में खड़े होना उसका एक स्वाभाविक विचार है। संघ ने इसी विचारधारा पर आधारित राजनीतिक संस्कृति को स्थापित करने के लिये अपने स्वयंसेवकों को प्रेरित किया। पडित दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदर सिंह भंडारी, अटलबिहारी वाजपेयी, विजयराजे सिंधिया, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, बलराज मधोक से लेकर नरेन्द्र मोदी तक अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनके स्मरण मात्र से राजनीति की एक नई धारा के उत्थान और विकास का पता चलता है। 1925 में प्रारंभ हुई संघ की विचार यात्रा और 1952 में भाजपा की स्थापना, भारतीय समाज जीवन में भारत के मन के अनुसार संस्कृति और राजनीति को स्थापित करने की दिशा में एक बड़ा कदम था। आज जबकि यह भाव यात्रा एक बड़े राजनीतिक बदलाव का कारण बन चुकी है, तो परंपरागत राजनीति के खिलाड़ी घबराये हुये हैं। गैर कांग्रेसवाद की राजनीति करते आये समाजवादी हों या भारत की भूमि में कुछ भी अच्छा न देख पाने वाले तंग नजर वामपंथी सबकी नजर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर टेढ़ी है। इसीलिये वे भाजपा को कम संघ को ज्यादा कोसते हैं। उन्हें लगता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ न हो तो भाजपा को अपने रंग में ढाला जा सकता है। भाजपा भी अन्य राजनीतिक दलों जैसा एक दल हो जाए, अगर उसके पीछे संघ की वैचारिक निष्ठा, चेतना और नैतिक दबाव न हो। जाहिर तौर पर इस वैचारिक युद्ध में संघ ही भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर है क्योंकि संघ जिस वैचारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि की राजनीति देश में स्थापित करना चाहता है, परम्परागत राजनीति करने वाले सभी राजनीतिक दल इसे समझ भी नहीं सकते। आज की राजनीति में जाति एक बड़ा हथियार है, संघ इसे स्वीकार नहीं करता। अल्पसंख्यकवाद और पांथिक राजनीति इस देश के राजनीतिक दलों का एक बड़ा एजेंडा है, संघ इसे देशतोड़क और समाज को कमजोर करने वाला मानता है। ऐसे अनेक विचार हैं जहां संघ विचार की टकराहट परंपरागत राजनीति के खिलाडि़यों से होती रही है। किंतु आप देखें तो भारत के मन और उसके समाज की गहरी समझ होने के कारण संघ ने अपने विचारों के प्रति हर आयु वर्ग के लोगों को आकर्षित किया है। उसके संगठन राष्ट्र सेविका समिति के माध्यम से बड़ी संख्या में महिलायें आगे बढ़कर काम कर रही हैं। किंतु उसके विरोधी दल, विरोधी विचारक आपको यही बतायेंगे कि संघ में महिलाओं की कोई जगह नहीं है। दलित और आदिवासी समाज के बीच अपने वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठनों के माध्यम से संघ ने जो मैदानी और जमीनी काम किया है उसका मुकाबला सिर्फ जबानी जमा खर्च से सामाजिक परिवर्तन कर दावा करने वाले दल क्या कर पायेंगे। संघ में सेवा एक संस्कार है, मुख्य कर्तव्य है। यहां सेवा कार्य का प्रचार नहीं, एक आत्मीय परिवार का सृजन महत्व का है। अनेक अवसरों पर कुछ फल और कम्बल बांटकर अखबारों में चित्र छपवाने वाली राजनीति इसको नहीं समझ सकती। ऐसे में संघ मुक्त भारत एक हवाई कल्पना है क्योंकि मुक्त उसे किया जा सकता है जो कुछ प्राप्ति के लिये निकला हो। जिन्हें सत्ता, पद और पैसे का मोह हो, उनसे मुक्ति पाई जा सकती है। किंतु जो सिर्फ समाज को प्यार, सेवा, शिक्षा और संस्कार देने के लिये निकले हैं उनसे आप मुक्ति कैसे पा सकते हैं। क्या सेवा, शिक्षा, संस्कार देने वाले लोग किसी भी समाज के लिये अप्रिय हो सकते हैं। भाजपा की राजनीतिक सफलताओं से संघ के विस्तार की समझ मांपने वाले भी अंधेरे मंे हैं। वरना केरल जैसे राज्य में जहां आज भी भाजपा बड़ी राजनीतिक सफलतायें नहीं पा सकी हैं वहां वामपंथी आक्रान्ता किन कारणों से स्वयंसेवकों की हत्यायें कर रहे हैं। निश्चय ही यदि केरल में संघ एक बड़ी शक्ति न होता तो वामपंथियों को खून बहाने की जरूरत नहीं होती।

     कुल मिलाकर नीतीश कुमार का संघ मुक्त भारत का सपना एक हवाई नारे के सिवा कुछ नहीं है। अपने राजनीतिक विरोधियों से राजनीतिक हथियारों से लड़ने के बजाय इस प्रकार की नारेबाजी से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। जिस संगठन को जय प्रकाश नारायण ने आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में हमेशा अपने साथ पाया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में वी.पी.सिंह से लेकर अन्ना हजारे तक ने उसकी शक्ति को महसूस किया। ऐसे राष्ट्रवादी संगठन के प्रति सिर्फ राजनीतिक दुर्भावना से बढ़कर ऐसे बयान थोड़े समय के लिये नीतीश कुमार को चर्चाओं में ला सकते हैं। किंतु इसके कोई बड़े अर्थ नहीं हैं, इसे खुद नीतीश कुमार भी जानते ही होंगे। 

मोदी सरकारः कितना इंतजार

                            -संजय द्विवेदी   
              
      सत्ता के शिखर पर दो साल पूरे करने के बाद अब शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके साथियों को भी अहसास हो गया होगा कि दिल्ली का सिंहासन किसी भी शासक के लिए अवसर से ज्यादा चुनौती ही होता है।
     देश में यथास्थितिवादी ताकतें इतनी सबल हैं, कि वे किसी भी परिवर्तन को न तो समर्थन दे सकती हैं न ही शांत होकर बैठ सकती हैं। इनकी पूरी ताकत किसी भी बदलाव को टालने और विफल बना देने में लगती है। इसमें सबसे अग्रणी है, हमारी नौकरशाही। भारतीय सेवा के अफसरों को राज करने का अभ्यास इतना लंबा है कि वे अस्थायी सरकारों ( राजनीतिक तंत्र) को विफल बनाने की अनेक जुगतें जानते हैं। बावजूद इसके इन दो सालों में नरेंद्र मोदी की सरकार अगर बदलाव और परिवर्तन के कुछ संकेत दे पा रही है, तो यह मानिए कि ये बहुत बड़ी बात है। खासकर मोदी सरकार के कुछ मंत्रियों नितिन गडकरी, श्रीमती सुषमा स्वराज, मनोहर पारिकर, सुरेश प्रभु, राजनाथ सिंह, पीयूष गोयल की गति तो सराही जा रही है। दिल्ली की सत्ता पर परिर्वतन के नारे के साथ आई मोदी सरकार की जिम्मेदारियां जाहिर तौर पर बहुत बड़ी हैं।
   समूचे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र में परिर्वतन करने का वादा करके यह सरकार आयी है और देश की जनता ने पूर्ण बहुमत देकर इसे शक्ति भी दी है। लेकिन देखा जा रहा है कि परिर्वतनों की गति उतनी तेज नहीं है और लोगों में सरकार से निराशा आ रही है। खासकर आर्थिक क्षेत्र में सरकार उन्हीं समाजवादी और जनता पर कृपा करने वाली नीतियों की शिकार है जिसके चलते देश का कबाड़ा हुआ है। गरीबी को संरक्षित करने और गरीबों को गरीब बनाए रखनी वाली नीतियों के चलते देश का पिछले साठ सालों में यह हाल हुआ है। जिस तेजी से आर्थिक बदलाव के संकल्प प्रकट होने थे, वह होने से रहे। ईपीएफ और पीएफ पर नजरें गड़ाए वित्त मंत्रालय ने जरूर नौकरीपेशा लोगों को नाराज कर दिया है। फैसले लेना और रोलबैक करना सरकार के अस्थिर चित्त को ही दिखाता है। लोग बदलावों के इंतजार में हैं लेकिन बदलावों की गति से संतुष्ठ नहीं हैं। कोई भी सरकार अपने नायक के सपनों को ही साकार करती हुयी दिखनी चाहिए। लगता है कि मोदी सरकार दिल्ली आकर कई तरह के दबावों के चलते रास्ते से भटकती हुयी दिख रही है। संसद के अंदर- बाहर विकास विरोधी दबाव समूहों के नारों और प्रायोजित विमर्शों ने भी उनकी राह रोक रखी है। नरेंद्र मोदी जिस तेजी और त्वरा के साथ अपने सपनों को गुजरात में अंजाम दे पाए, दिल्ली में उन्हें उन्हीं चीजों के लिए सहमति बना पाना कठिन हो रहा है।
     दूसरा संकट यह है कि दिल्ली के बौद्धिक, राजनीति, सामाजिक और मीडिया तबकों के एक वर्ग ने आज भी मोदी को स्वीकार नहीं किया है। मोदी का दिल्ली प्रवेश आज भी इन तबकों के लिए एक अवैध उपस्थिति है। देश की जनता ने भले ही नरेंद्र मोदी को अपार बहुमत से संयुक्त करके दिल्ली भेजा है, किंतु अभारतीय सोच के बुद्धिजीवी वर्गों के लिए आज भी एक मोदी एक अस्वीकार्य नाम हैं। इस कारण से मीडिया के एक वर्ग में उनके हर काम का विरोध तो होता ही है, साथ ही एक खास छवि के साथ जोड़ने के प्रयास होते हैं। मोदी के खिलाफ षडयंत्र आज भी रूके नहीं हैं और प्रायोजित विचारों और खबरों का संसार उनके आसपास मंडराता रहता है। षडयंत्रों में उलझने और उनका जबाव देने में केंद्र सरकार और भाजपा संगठन की बहुत सारी शक्ति नष्ट हो रही है। पहले दिन से मोदी सरकार को प्रायोजित मुद्दों पर घेरने और बदनाम करने की कोशिशें जारी हैं। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी और उनके साथियों को यह सोचना होगा कि नाहक मुद्दों में समय जाया कराने में सरकार के संकट कम नहीं होगें बल्कि बढ़ते जाएंगें। पांच साल का समय बहुत कम होता है, इसमें भी दो साल बीत चुके हैं।
   अनेक योजनाओं के माध्यम से सरकार ने एक सही शुरूआत की है, किंतु अब सारा जोर डिलेवरी पर देना होगा। जनता का भरोसा बचाए और बनाए रखना ही, मोदी सरकार और भाजपा संगठन के भविष्य के लिए उचित होगा। दिल्ली और बिहार के चुनावों में मिली पराजय से शायद मोदी और उनके सलाहकारों का आत्मविश्वास हिल गया है और लोकप्रियतावादी कदमों की ओर बढ़े हैं, किंतु हमें देखना होगा कि सरकारों को लाभ सिर्फ सुशासन और छवि के कारण के मिलता है। अन्यथा लोकप्रियतावादी कदमों की मनमोहन सरकार में क्या कमी थी। जनता को कई तरह के अधिकार दिलाने के बाद भी मनमोहन सरकार सत्ता से चली गयी। ऐसे में केंद्र सरकार के लिए यह सोचने का समय है कि वह बचे हुए समय का कैसा इस्तेमाल करती है। कैसे वह जनता के मनों वह भरोसा बनाए रखती है जिसके नाते वह सत्ता के शिखर पर पहुंची है। यह एक अलग बात है कि कांग्रेस एक कमजोर प्रतिपक्ष है, जिसके नाते भाजपा राहत में दिखती है। किंतु यह मानना होगा कि सिर्फ 45 सांसदों के साथ कांग्रेस ने जिस तरह का वातावरण बना रखा है और सरकार की गति लगभग संसदीय मामलों में रोक दी है, उस पर विचार करने की जरूरत है। दोनों सदनों में कांग्रेस ने जैसा रवैया अपना रखा है, उस व्यवहार में परिवर्तन की उम्मीद कम ही है। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार को यह सोचना होगा कि कैसे वह संसद से लेकर सड़क तक कांग्रेस की घेरेबंदियों से निकलकर जनता के लिए राहत और बदलाव के अवसर उपलब्ध करा सके।

    कारण कुछ भी हों मोदी सरकार के प्रति एक साल पहले तक जो उत्साह था, वह आज कम होता दिखता है। यह बहुत स्वाभाविक भी है, किंतु नरेंद्र मोदी जैसे नेता जो निरंतर लोगों से संवाद करते हुए दिखते हैं के संदर्भ में इसे सामान्य नहीं माना जा सकता। देश के आर्थिक क्षेत्र में पसरी मंदी, पाकिस्तान के साथ संबंधों में कड़वाहट, रोजगार का इंतजार करते युवा, कश्मीर में उभर रही नई चुनौतियों के साथ अनेक विषय दिखते हैं जिससे मोदी सरकार को टकराना होगा। अपने समय की चुनौतियों से टकराकर उनके ठोस और वाजिब हल निकालना किसी भी सरकार की जिम्मेदारी है। इतिहास ने नरेंद्र मोदी को यह अवसर दिया है कि वे इस वृहत्तर भूगोल(भारत) के सामने खड़े संकटों और उसके समाधानों के लिए काम करें। मोदी और उनकी सरकार के दो साल पूरे होने पर उनकी नीति-नीयत और संकल्पों पर संदेह न करते हुए भी यह कहना होगा कि कामों की गति तेज करनी होगी, विपक्षी षडयंत्रों  से बचते हुए सही अपने मार्ग की पहचान करते हुए, मध्यवर्ग को चिढाने वाले फैसलों से बचना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि जनता के बीच नरेंद्र मोदी आज भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं और उनसे लोगों की आज भी भारी उम्मीदें हैं, देखना है कि वे आशाओं को पूरा करने के लिए क्या जतन करते हैं।

बुधवार, 27 अप्रैल 2016

शराबबंदीः सवाल, नीयत और नैतिकता का

जिसके पक्ष में एक भी तर्क नहीं, उसे भी बंद करते हुए क्यों कांप रहे हैं हाथ
-संजय द्विवेदी


  शराबबंदी इस तरह राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बन जाएगी किसने सोचा था। भ्रष्टाचार के बाद शायद अगला राजनीतिक विमर्श, शराब पर ही होना है। बिहार के मुख्यमंत्री के इस साहसिक निर्णय ने कई नेताओं को सोचने के लिए बाध्य कर दिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि शराब के सहारे ही चुनाव जीतने वाली राजनीति अब किस मुंह से शराबबंदी की बात करेगी। शराब से मिलने वाला राजस्व जहां राज्य का एक बड़ा सहारा है, वहीं शराब माफिया से मिलने वाला चंदा राजनीति के लिए प्राणवायु। इसके साथ ही चुनावों में बहने और बंटने वाली शराब तो है ही जीवनी शक्ति। ऐसे में राजनीति अचानक शराबबंदी के सवाल पर गंभीर हो जाए, तो सोचने की बात है। सुना है तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता भी अपनी सरकार की वापसी पर शराबबंदी का वायदा कर रही हैं। जाहिर तौर पर शराब आने वाले चुनावों का एक बड़ा मुद्दा बन रही है।
   भारतीय समाज में शराब की वजह से कई तरह के संकट खड़े हो रहे हैं। खासकर गरीब परिवारों में तो शराब ने हालात बहुत खराब कर दिए हैं। अपने खून-पसीने की कमाई शराब में बहाकर तमाम परिवारों के पुरूष, महिलाओं पर अत्याचार करने से भी बाज नहीं आते हैं। यह कितना गजब है कि एक तरफ हमारी सरकारें शराब बेचने पर आमादा हैं तो वहीं दूसरी तरफ यही सरकारें शराब के विरूद्ध जन-जागरण भी करती हैं। यह सरकारों का द्वंद समझ से परे है कि एक तरफ तो आबकारी विभाग भी चलाती हैं तो दूसरी ओर मद्यनिषेध विभाग भी चलाती हैं। ऐसे ढोंग हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बिखरे पड़े हैं। इससे पता चलता है कि हम कितने ढोंगी और नकली समाज के हैं। सच तो यह है कि शराब के पक्ष में एक भी तर्क नहीं है। किंतु वह बिक रही है और सरकारें हर दरवाजे पर शराब की पहुंच के लिए जतन कर रही हैं। शराब का बिकना और मिलना इतना आसान हो गया है कि वह पानी से ज्यादा सस्ती हो गयी है। पानी लाने के लिए यह समाज आज भी कई स्थानों पर मीलों का सफर कर रहा है किंतु शराब तो घर पहुंच सेवा के रूप में ही स्थापित हो चुकी है।
  सवाल यह उठता है कि क्या शराब के बिना हमारा जीवन नहीं चलेगा? या शराब के बिना हमारी सरकार नहीं चलेगी। आप देखें तो शराब के राजस्व के बिना भी गुजरात चल रहा है और शान से चल रहा है। बिहार जैसे पिछड़े राज्य ने भी यह हिम्मत जुटा ली है, तो क्या कारण है कि अन्य राज्य इस बात से हिचक रहे हैं? जाहिर तौर पर शराब माफिया की जकड़ और पकड़ हमारे तंत्र पर ऐसी है कि हम शराब मुक्त राजनीति की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। सरकारें शराब बेचने और उसका बाजार बढ़ाने के लिए आतुर हैं। देखते ही देखते शराब की दुकानें हर कस्बे, हर गांव तक पहुंच गयीं तो इसके पीछे सरकारी नीतियों की ओर ही देखना होगा। क्यों हमारी सरकारें शराब को इतना सुलभ बना देना चाहती हैं? पूर्ण शराबबंदी न सही किंतु उसकी उपलब्धता तो नीतियों को कठोर बनाकर कम की जा सकती है। बढ़ते अपराधों, बिखरते परिवारों, स्त्रियों के बढ़ते उत्पीड़न, परिवारों की बिगड़ती आर्थिक दशा की सामूहिक और चौतरफा शिकायतों के बाद भी शराब का मोह हमारे राजनीतिक परिसर को जकड़े हुए है। निश्चय ही ऐसे फैसले बड़े कलेजे और राजनीतिक संकल्पों से ही लिए जा सकते हैं। नीतिश कुमार ने जो किया वह साधारण नहीं है। लेकिन साथ में उनकी जिम्मेदारी यह भी है कि यह एक मजाक बनकर न रह जाए। नकली शराब का कुटीर उद्योग न पनपे और शराब की तस्करी का खेल न शुरू हो। ऐसे में बिहार के पुलिस तंत्र और प्रशासनिक तंत्र की नैतिकता और समझदारी कसौटी पर है।
   शराब के चलते कितने परिवार उजड़े हैं और मुसीबतजदा हैं, इसे देखने के लिए सरकार के पास तमाम सरकारी और गैरसरकारी आंकड़े उपलब्ध हैं। राज्य की सरकारों को इस ओर देखना चाहिए और खासकर गरीब महिलाओं और उनके परिवारों पर रहम खाना चाहिए। शराब के दुष्प्रभावों के व्यापक आकलन के बाद भी हम अगर इस बीमारी को पाल रहे हैं तो निश्चित ही समाज की ओर से इसके विरूद्ध एक जनांदोलन की जरूरत है। बिहार की महिलाएं इस अर्थ में बहुत ताकतवर है कि उन्होंने अपने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को ऐसा करने के लिए शक्ति दी। यह शक्ति अगर विस्तार पाती है और एक आंदोलन का रूप लेती है तो शराबबंदी का सवाल एक अभियान में बदल सकता है। जो काम गुजरात और बिहार में हो सकता है जिसके लिए तमिलनाडु की राजनीति में वादा किया जा रहा है, वह काम देश के अन्य राज्यों में भी हो सकता है। बस जरूरत है कि हम राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर दबाव  बनाएं और उन्हें इस बात के लिए मजबूर करें कि वे शराब और उसके काले पैसे का मोह छोड़ पाएं। शराब की कमाई से चलते हुए राज्य वैसे भी लोककल्याणकारी राज्य नहीं हो सकते क्योंकि शराबजनित जो सामाजिक संकट और समस्याएं वह राज्य के सकल राजस्व पर भारी हैं। राजनीतिक दलों को भी शराब के सवाल पर अपनी नीति स्पष्ट करनी चाहिए। क्या वे यह चाहते हैं कि शराब की दुकानों का, ठेकों का इस कदर विस्तार हो कि वह हर व्यक्ति की पहुंच में हो? एक तरफ शराब की अंधाधुंध दूकानें खोलना और दूसरी तरफ शराब पर नियंत्रण करने और मद्य-निषेध जैसे अभियानों को चलाकर सरकार अपने धन का अपव्यय नहीं कर रही है? शराब से मिलने वाले राजस्व के क्या अन्य विकल्प नहीं खोजे जा सकते? क्या शराब माफिया के बिना चुनाव लड़ना बहुत कठिन हो जाएगा? क्या हमारी राजनीति यह संकल्प लेने का साहस पालेगी वह बिना शराब बांटे भी चुनावी मैदान में सफलता प्राप्त कर सकती है? क्या शराब के राजस्व की लालच में शराब जनित संकटों के कारण पैदा हो रहे रोगों, बीमारियों, पारिवारिक संकटों को हम नजरंदाज करते रहेगें? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिसका जवाब हमारे राजनेताओं, राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों से पूछे जाने चाहिए। हमारी राजनीति से यह भी पूछा जाना चाहिए कि शराब के पैसे से लड़े जा रहे चुनाव कितने लोकतांत्रिक हैं?  जबकि यह गारंटी भी नहीं रही कि शराब पीकर मतदाता आपके ही पक्ष में मतदान करेगा?

    ऐसे कठिन समय में समाज को नजरंदाज कर की जा रही राजनीति उचित नहीं कही जा सकती। देर-सबेर हमें अपने समाज के संकटों से मुठभेड़ करनी ही होगी। भारत जैसे युवा देश की नई पीढ़ी को नशे, ड्रग्स और शराब से मुक्त कराना हम सबकी जिम्मेदारी है। शराब के खिलाफ नहीं, हर नशे के खिलाफ जनचेतना ही इसका विकल्प है। एक सुंदर समाज जिसकी सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियां धीरे-धीरे बेहतर हो रही हैं, उसे नशे के अभिशाप से बचाना ही होगा। नीतिश कुमार ने हिम्मत दिखाई है, अन्य भी हिम्मत दिखाएं- ज्यादातर समाज इन सुखद संकल्पों के साथ खड़ा होगा, खड़ा रहेगा।