जिसके पक्ष में एक
भी तर्क नहीं, उसे भी बंद करते हुए क्यों कांप रहे हैं हाथ
-संजय द्विवेदी
शराबबंदी इस तरह राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बन
जाएगी किसने सोचा था। भ्रष्टाचार के बाद शायद अगला राजनीतिक विमर्श, शराब पर ही
होना है। बिहार के मुख्यमंत्री के इस साहसिक निर्णय ने कई नेताओं को सोचने के लिए
बाध्य कर दिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि शराब के सहारे ही चुनाव जीतने वाली
राजनीति अब किस मुंह से शराबबंदी की बात करेगी। शराब से मिलने वाला राजस्व जहां
राज्य का एक बड़ा सहारा है, वहीं शराब माफिया से मिलने वाला चंदा राजनीति के लिए
प्राणवायु। इसके साथ ही चुनावों में बहने और बंटने वाली शराब तो है ही जीवनी
शक्ति। ऐसे में राजनीति अचानक शराबबंदी के सवाल पर गंभीर हो जाए, तो सोचने की बात
है। सुना है तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता भी अपनी सरकार की वापसी पर शराबबंदी
का वायदा कर रही हैं। जाहिर तौर पर शराब आने वाले चुनावों का एक बड़ा मुद्दा बन
रही है।
भारतीय समाज में शराब की
वजह से कई तरह के संकट खड़े हो रहे हैं। खासकर गरीब परिवारों में तो शराब ने हालात
बहुत खराब कर दिए हैं। अपने खून-पसीने की कमाई शराब में बहाकर तमाम परिवारों के
पुरूष, महिलाओं पर अत्याचार करने से भी बाज नहीं आते हैं। यह कितना गजब है कि एक
तरफ हमारी सरकारें शराब बेचने पर आमादा हैं तो वहीं दूसरी तरफ यही सरकारें शराब के
विरूद्ध जन-जागरण भी करती हैं। यह सरकारों का द्वंद समझ से परे है कि एक तरफ तो
आबकारी विभाग भी चलाती हैं तो दूसरी ओर मद्यनिषेध विभाग भी चलाती हैं। ऐसे ढोंग
हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बिखरे पड़े हैं। इससे पता चलता है कि हम कितने
ढोंगी और नकली समाज के हैं। सच तो यह है कि शराब के पक्ष में एक भी तर्क नहीं है।
किंतु वह बिक रही है और सरकारें हर दरवाजे पर शराब की पहुंच के लिए जतन कर रही
हैं। शराब का बिकना और मिलना इतना आसान हो गया है कि वह पानी से ज्यादा सस्ती हो
गयी है। पानी लाने के लिए यह समाज आज भी कई स्थानों पर मीलों का सफर कर रहा है
किंतु शराब तो ‘घर पहुंच सेवा’ के रूप
में ही स्थापित हो चुकी है।
सवाल यह उठता है कि क्या
शराब के बिना हमारा जीवन नहीं चलेगा? या
शराब के बिना हमारी सरकार नहीं चलेगी। आप देखें तो शराब के राजस्व के बिना भी
गुजरात चल रहा है और शान से चल रहा है। बिहार जैसे पिछड़े राज्य ने भी यह हिम्मत
जुटा ली है, तो क्या कारण है कि अन्य राज्य इस बात से हिचक रहे हैं? जाहिर तौर पर शराब माफिया की जकड़ और पकड़ हमारे
तंत्र पर ऐसी है कि हम ‘शराब मुक्त राजनीति’ की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। सरकारें शराब
बेचने और उसका बाजार बढ़ाने के लिए आतुर हैं। देखते ही देखते शराब की दुकानें हर
कस्बे, हर गांव तक पहुंच गयीं तो इसके पीछे सरकारी नीतियों की ओर ही देखना होगा।
क्यों हमारी सरकारें शराब को इतना सुलभ बना देना चाहती हैं? पूर्ण शराबबंदी न सही किंतु उसकी उपलब्धता तो
नीतियों को कठोर बनाकर कम की जा सकती है। बढ़ते अपराधों, बिखरते परिवारों,
स्त्रियों के बढ़ते उत्पीड़न, परिवारों की बिगड़ती आर्थिक दशा की सामूहिक और
चौतरफा शिकायतों के बाद भी शराब का मोह हमारे राजनीतिक परिसर को जकड़े हुए है।
निश्चय ही ऐसे फैसले बड़े कलेजे और राजनीतिक संकल्पों से ही लिए जा सकते हैं।
नीतिश कुमार ने जो किया वह साधारण नहीं है। लेकिन साथ में उनकी जिम्मेदारी यह भी
है कि यह एक मजाक बनकर न रह जाए। नकली शराब का कुटीर उद्योग न पनपे और शराब की
तस्करी का खेल न शुरू हो। ऐसे में बिहार के पुलिस तंत्र और प्रशासनिक तंत्र की
नैतिकता और समझदारी कसौटी पर है।
शराब के चलते कितने परिवार
उजड़े हैं और मुसीबतजदा हैं, इसे देखने के लिए सरकार के पास तमाम सरकारी और
गैरसरकारी आंकड़े उपलब्ध हैं। राज्य की सरकारों को इस ओर देखना चाहिए और खासकर
गरीब महिलाओं और उनके परिवारों पर रहम खाना चाहिए। शराब के दुष्प्रभावों के व्यापक
आकलन के बाद भी हम अगर इस बीमारी को पाल रहे हैं तो निश्चित ही समाज की ओर से इसके
विरूद्ध एक जनांदोलन की जरूरत है। बिहार की महिलाएं इस अर्थ में बहुत ताकतवर है कि
उन्होंने अपने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को ऐसा करने के लिए शक्ति दी। यह शक्ति अगर
विस्तार पाती है और एक आंदोलन का रूप लेती है तो शराबबंदी का सवाल एक अभियान में
बदल सकता है। जो काम गुजरात और बिहार में हो सकता है जिसके लिए तमिलनाडु की
राजनीति में वादा किया जा रहा है, वह काम देश के अन्य राज्यों में भी हो सकता है।
बस जरूरत है कि हम राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर दबाव बनाएं और उन्हें इस बात के लिए मजबूर करें कि
वे शराब और उसके काले पैसे का मोह छोड़ पाएं। शराब की कमाई से चलते हुए राज्य वैसे
भी लोककल्याणकारी राज्य नहीं हो सकते क्योंकि शराबजनित जो सामाजिक संकट और
समस्याएं वह राज्य के सकल राजस्व पर भारी हैं। राजनीतिक दलों को भी शराब के सवाल
पर अपनी नीति स्पष्ट करनी चाहिए। क्या वे यह चाहते हैं कि शराब की दुकानों का,
ठेकों का इस कदर विस्तार हो कि वह हर व्यक्ति की पहुंच में हो? एक तरफ शराब की अंधाधुंध दूकानें खोलना और दूसरी
तरफ शराब पर नियंत्रण करने और मद्य-निषेध जैसे अभियानों को चलाकर सरकार अपने धन का
अपव्यय नहीं कर रही है? शराब से मिलने वाले राजस्व के क्या अन्य विकल्प
नहीं खोजे जा सकते? क्या शराब माफिया के बिना चुनाव लड़ना बहुत कठिन
हो जाएगा? क्या हमारी राजनीति यह संकल्प लेने का साहस
पालेगी वह बिना शराब बांटे भी चुनावी मैदान में सफलता प्राप्त कर सकती है? क्या शराब के राजस्व की लालच में शराब जनित
संकटों के कारण पैदा हो रहे रोगों, बीमारियों, पारिवारिक संकटों को हम नजरंदाज
करते रहेगें? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिसका जवाब हमारे
राजनेताओं, राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों से पूछे जाने चाहिए। हमारी राजनीति से
यह भी पूछा जाना चाहिए कि शराब के पैसे से लड़े जा रहे चुनाव कितने लोकतांत्रिक
हैं? जबकि यह
गारंटी भी नहीं रही कि शराब पीकर मतदाता आपके ही पक्ष में मतदान करेगा?
ऐसे कठिन समय में समाज को नजरंदाज कर की जा रही
राजनीति उचित नहीं कही जा सकती। देर-सबेर हमें अपने समाज के संकटों से मुठभेड़
करनी ही होगी। भारत जैसे युवा देश की नई पीढ़ी को नशे, ड्रग्स और शराब से मुक्त
कराना हम सबकी जिम्मेदारी है। शराब के खिलाफ नहीं, हर नशे के खिलाफ जनचेतना ही
इसका विकल्प है। एक सुंदर समाज जिसकी सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियां धीरे-धीरे
बेहतर हो रही हैं, उसे नशे के अभिशाप से बचाना ही होगा। नीतिश कुमार ने हिम्मत
दिखाई है, अन्य भी हिम्मत दिखाएं- ज्यादातर समाज इन सुखद संकल्पों के साथ खड़ा
होगा, खड़ा रहेगा।
जब मुद्दों पर राजनीति शुरू हो जाये तो मुद्दे बेमानी हो जाते हैं... यही शराब बंदी के साथ हो रहा है.
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