-संजय द्विवेदी
आप
छत्तीसगढ़ की पावन घरती पर आएं और पं.श्यामलाल चतुर्वेदी से परिचित न हो सकें, यह
संभव नहीं है। वे सही मायनों में छत्तीसगढ़ की अस्मिता, उसके स्वाभिमान, भाषा और
लोकजीवन के सच्चे प्रतिनिधि हैं। उन्हें सुनकर जिस अपनेपन, भोलेपन और सच्चाई का
भान होता है, वह आज के समय में बहुत दुर्लभ है।
श्यामलाल जी से मेरी पहली
मुलाकात सन् 2001 में उस समय हुयी जब मैं दैनिक भास्कर, बिलासपुर में कार्यरत था।
मैं मुंबई से बिलासपुर नया-नया आया था और शहर के मिजाज को समझने की कोशिश कर रहा
था। हालांकि इसके पहले मैं एक साल रायपुर में स्वदेश का संपादक रह चुका था और
बिलासपुर में मेरी उपस्थिति नई ही थी। बिलासपुर के समाज जीवन, यहां के लोगों,
राजनेताओं, व्यापारियों, समाज के प्रबुद्ध वर्गों के बीच आना-जाना प्रारंभ कर चुका
था। दैनिक भास्कर को री-लांच करने की तैयारी मे बहुत से लोगों से मिलना हो रहा था।
इसी बीच एक दिन हमारे कार्यालय में पं. श्यामलाल जी पधारे। उनसे यह मुलाकात जल्दी
ही ऐसे रिश्ते में बदल गयी, जिसके बिना मैं स्वयं को पूर्ण नहीं कह सकता। अब शायद
ही कोई ऐसा बिलासपुर प्रवास हो, जिसमें उनसे सप्रयास मिलने की कोशिश न की हो। अब
जबकि वे काफी अस्वस्थ रहते हैं, उनसे मिलना हमेशा एक शक्ति देता है। उनसे मिला
प्रेम, हमारी पूंजी है। छत्तीसगढ़ में मीडिया विमर्श के हर आयोजन में वे एक
अनिवार्य उपस्थिति तो हैं ही। उनके स्नेह-आशीष की पूंजी लिए मैं भोपाल आ गया किंतु
रिश्तों में वही तरलता मौजूद है। मेरे समूचे परिवार पर उनकी कृपा और आशीष हमेशा
बरसते रहे हैं। मेरे पूज्य दादा जी की स्मृति में होने वाले पं. बृजलाल द्विवेदी
स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता समारोह में भी वे आए और अपना आर्शीवाद हमें दिया।
अप्रतिम वक्ताः
पं. श्यामलाल जी की सबसे बड़ी पहचान उनकी भाषण-कला है। वे बिना तैयारी
के डायरेक्ट दिल से बोलते हैं। हिंदी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं का सौंदर्य, उनकी वाणी
से मुखरित होता है। उन्हें सुनना एक विलक्षण अनुभव है। हमारे पूज्य गुरूदेव स्वामी
शारदानंद जी उन्हें बहुत सम्मान देते हैं और अपने आयोजनों में आग्रह पूर्वक
श्यामलाल जी को सुनते हैं। श्यामलाल जी अपनी इस विलक्षण प्रतिभा के चलते पूरे
छत्तीसगढ़ में लोकप्रिय हैं। वे किसी बड़े अखबार के संपादक नहीं रहे, बड़े शासकीय
पदों पर नहीं रहे किंतु उन्हें पूरा छत्तीसगढ़ पहचानता है। सम्मान देता है। चाहता
है। उनके प्रेम में बंधे लोग उनकी वाणी को सुनने के लिए आतुर रहते हैं। उनका बोलना
शायद इसलिए प्रभावकारी है क्योंकि वे वही बोलते हैं जिसे वे जीते हैं। उनकी वाणी
और कृति मिलकर संवाद को प्रभावी बना देते हैं।
महा परिवार के मुखियाः
श्यामलाल जी को एक परिवार तो
विरासत में मिला है। एक महापरिवार उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता से बनाया है।
देश भर में उन्हें चाहने और मानने वाले लोग हैं। देश की हर क्षेत्र की विभूतियों
से उनके निजी संपर्क हैं। पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में छत्तीसगढ़ की वे एक
बड़ी पहचान हैं। अपने निरंतर लेखन, व्याख्यानों, प्रवासों से उन्होंने हमें रोज
समृद्ध किया है। इस अर्थ में वे एक यायावर भी हैं, जिन्हें कहीं जाने से परहेज
नहीं रहा। वे एक राष्ट्रवादी चिंतक हैं। किंतु विचारधारा का आग्रह उनके लिए बाड़ नहीं
है। वे हर विचार और राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के बीच समान रूप से सम्मानित हैं।
मध्यप्रदेश के अनेक मुख्यमंत्रियों से उनके निकट संपर्क रहे हैं। मंत्रियों की
मित्रता सूची में उनकी अनिर्वाय उपस्थिति है। किंतु खरी-खरी कहने की शैली ने सत्ता
के निकट रहते हुए भी उनकी चादर मैली नहीं होने दी। सही मायनों में वे रिश्तों को
जीने वाले व्यक्ति हैं, जो किसी भी हालात में अपनों के साथ होते हैं।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति के चितेरेः
छत्तीसगढ़ उनकी सांसों में
बसता है। उनकी वाणी से मुखरित होता है। उनके सपनों में आता है। उनके शब्दों में
व्यक्त होता है। वे सच में छत्तीसगढ़ के लोकजीवन के चितेरे और सजग व्याख्याकार
हैं। उनकी पुस्तकें, उनकी कविताएं, उनका जीवन, उनके शब्द सब छत्तीसगढ़ में रचे-बसे
हैं। आप यूं कह लें उनकी दुनिया ही यह छत्तीसगढ़ है। जशपुर से राजनांदगांव,
जगदलपुर से अंबिकापुर की हर छवि उनके लोक को रचती है और उन्हें महामानव बनाती है।
अपनी माटी और अपने लोगों से इतना प्रेम उन्हें इस राज्य की अस्मिता और उसकी
भावभूमि से जोड़ता है। श्यामलाल जी उन लोगों में हैं जिन्होंने अपनी किशोरावस्था
में एक समृद्ध छत्तीसगढ़ का स्वप्न देखा और अपनी आंखों के सामने उसे राज्य बनते
हुए और प्रगति के कई सोपान तय करते हुए देखा। आज भी इस माटी की पीड़ा, माटीपुत्रों
के दर्द पर वे विहवल हो उठते हैं। जब वे अपनी माटी के दर्द का बखान करते हैं तो
उनकी आंखें पनीली हो जाती हैं, गला रूंध जाता है और इस भावलोक में सभी श्रोता
शामिल हो जाते हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से इसी लोकजीवन की छवियां बार-बार
पाठकों को प्रक्षेपित करते हैं। उनका समूचा लेखन इसी लोक मन और लोकजीवन को व्यक्त
करता है। उनकी पत्रकारिता भी इसी लोक जीवन से शक्ति पाती है। युगधर्म और नई दुनिया
के संवाददाता के रूप में उनकी लंबी सेवाएं आज भी छत्तीसगढ़ की एक बहुत उजली विरासत
है।
सच कहने का साहस और सलीकाः
पं. श्यामलाल जी में सच कहने का साहस और सलीका दोनों मौजूद है। वे
कहते हैं तो बात समझ में आती है। कड़ी से कड़ी बात वे व्यंग्य में कह जाते हैं।
सत्ता का खौफ उनमें कभी नहीं रहा। इस जमीन पर आने वाले हर नायक ने उनकी बात को
ध्यान से सुना और उन्हें सम्मान भी दिया। सत्ता के साथ रहकर भी नीर-क्षीर-विवेक से
स्थितियों की व्याख्या उनका गुण है। वे किसी भी हालात में संवाद बंद नहीं करते।
व्यंग्य की उनकी शक्ति अप्रतिम है। वे किसी को भी सुना सकते हैं और चुप कर सकते
हैं। उनके इस अप्रतिम साहस के मैने कई बार दर्शन किए हैं। उनके साथ होना सच के साथ
होना है, साहस के साथ होना है। रिश्तों को बचाकर भी सच कह जाने की कला उन्होंने न
जाने कहां से पाई है। इस आयु में भी उनकी वाणी में जो खनक और ताजगी है वह हमें
विस्मित करती है। उनकी याददाश्त बिलकुल तरोताजा है। स्मृति के संसार में वे हमें
बहुत मोहक अंदाज में ले जाते हैं। उनकी वर्णनकला गजब है। वे कहते हैं तो दृश्य
सामने होता है। सत्य को सुंदरता से व्यक्त करना उनसे सीखा जा सकता है। वे अप्रिय
सत्य न बोलने की कला जानते हैं।
आज जबकि वे आयु के शीर्ष पर
हैं, उनका समूचा जीवन, लेखन, पत्रकारीय धर्म को निर्वहन करने की कला हमें प्रेरित
करते हैं। नई पीढ़ी से उनका संवाद निरंतर है। आयु के इस मोड़ पर भी वे न थके हैं,
न रूके हैं। उनकी इस अप्रतिम ऊर्जा, सतत सक्रियता हमारी पीढ़ी के लिए प्रेरणा का
विषय है। वे शतायु हों। मंगलकामनाएं।
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