क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव से अखिलभारतीयता
की भावना प्रभावित होगी
-संजय द्विवेदी
अब जबकि आधा से ज्यादा भारत
क्षेत्रीय दलों के हाथ में आ चुका है तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे
नए सिरे से अपनी भूमिका का विचार करें। भारत की सबसे पुरानी पार्टी भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस, दोनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियां और भारतीय जनता पार्टी आम
तौर पर पूरे भारत में कम या ज्यादा प्रभाव रखती हैं। उनकी विचारधारा उन्हें
अखिलभारतीय बनाती है भले ही भौगोलिक दृष्टि से वे कहीं उपस्थित हों, या न हों। आज
जबकि भारतीय जनता पार्टी ने असम के बहाने पूर्वोत्तर में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज
करा ली है और अरूणाचल की सत्ता में भागीदार बन चुकी है, तब भी तमिलनाडु, पांडिचेरी
जैसे राज्य में उसका खाता भी न खुलना चिंता की बात है।
केंद्र की सत्ता में पूर्ण
बहुमत के साथ आई भारतीय जनता पार्टी असम में अपनी सफलता के साथ खुश हो सकती है,
किंतु उसे यह विचार करना ही चाहिए कि आखिर क्षेत्रीय दलों का ऐसा क्या जादू है कि
वे जहां हैं, वहां किसी राष्ट्रीय दल को महत्व नहीं मिल रहा है। भाजपा ने जिन
प्रदेशों में सत्ता पाई है, कमोबेश वहां पर कांग्रेस की सरकारें रही हैं।
क्षेत्रीय दलों की अपील, उनके स्थानीय सरोकारों, नेतृत्व का तोड़ अभी राष्ट्रीय
दलों को खोजना है। भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र,
छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, झारखंड में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई है।
इनमें महाराष्ट्र और झारखंड को छोड़कर कहीं क्षेत्रीय दलों की प्रभावी मौजूदगी
नहीं है। क्षेत्रीय क्षत्रपों की स्वीकृति और उनके जनाधार में सेंध लगा पाने में
राष्ट्रीय राजनीतिक दल विफल रहे हैं। जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक,
चंद्रबाबू नायडू, नीतिश कुमार, अखिलेश और मुलायम सिंह यादव, महबूबा मुफ्ती के
जनाधार को सेंध लगा पाने और चुनौती देने में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को पसीना आ
रहा है। राष्ट्रीय दल या तो किसी क्षेत्रीय दल की ‘बी टीम’ बनकर रहें या उस राज्य में खुद को समाप्त कर
लें। जैसे बिहार और पश्चिम बंगाल में
राजनीतिक गठबंधनों में शामिल होने का लाभ कांग्रेस को मिला, वरना वह दोनों राज्यों
से साफ हो सकती थी। इसी तरह भाजपा को भी पंजाब, कश्मीर और अरूणाचल में क्षेत्रीय
दलों के साथ सरकार में शामिल होकर अपनी मौजूदगी जताने का अवसर मिला है। भाजपा ने
तेजी से कांग्रेस की छोड़ी जमीन पर कब्जा जमाया है, किंतु क्षेत्रीय दलों के लिए
वह कोई बड़ी चुनौती नहीं बन पा रही है। वामपंथी दल तो अब केरल, पं. बंगाल और
त्रिपुरा तीन राज्यों तक सिमट कर रह गए हैं।
क्षेत्रीय दलों का बढ़ता
असर इस बात से दिखता है कि कश्मीर से लेकर नीचे तमिलनाडु में क्षेत्रीय दलों के
ताकतवर मुख्यमंत्री नजर आते हैं। इन मुख्यमंत्रियों के प्रति उनके राज्य की जनता
का सीधा जुड़ाव, स्थानीय सवालों पर इनकी संबद्धता, त्वरित फैसले और सुशासन की
भावना ने उन्हें ताकतवर बनाया है। चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता इसी श्रेणी में आते
हैं। ममता बनर्जी का अकेले दम पर दो बार सत्ता में वापस होना, यही कहानी बयान करता
है। उड़िया में संवाद करने में आज भी संकोची नवीन पटनायक जैसे नेता राष्ट्रीय दलों
के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि
क्षेत्रीय दलों का बढ़ता असर क्या भारतीय राजनीति को प्रभावित करेगा और राष्ट्रीय
दलों की हैसियत को कम करेगा। अथवा ताकतवर मुख्यमंत्रियों का यह कुनबा आगामी लोकसभा
चुनाव में कोई चुनौती बन सकता है। शिवसेना नेता
उद्धव ठाकरे ने तो कहा ही है कि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीति में अपनी बड़ी
भूमिका के लिए तैयार हों। कल्पना करें कि नीतिश कुमार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव,
जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता अगर किसी तीसरे
मोर्चे या वैकल्पिक मोर्चे की ओर बढ़ते हैं, तो उसके क्या परिणाम आ सकते हैं।
इसमें भाजपा का लाभ सिर्फ यह है कि वह केंद्र की सत्ता में है और राज्यों को
केंद्र से मदद की हमेशा दरकार रहती है। ऐसे में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर भाजपा
इन दलों को एकजुट होने देने में बाधक बन सकती है या फिर उन्हें एडीए के कुनबे में
जोड़ते हुए केंद्र सरकार के साथ जोड़े रख सकती है। बहुत संभावना है कि आने वाले आम
चुनावों तक हम ऐसा कुछ होता देख पाएं। इसके साथ ही यह भी संभावित है कि
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सलाहकारों से यह कहें कि वे एनडीए का कुनबा बढ़ाने
पर जोर दें। किंतु यह सारा कुछ संभव होगा पंजाब और उत्तर प्रदेश के परिणामों से।
पंजाब और उत्तर प्रदेश में
भाजपा और कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों का बहुत कुछ दांव पर नहीं है, किंतु इन दो
राज्यों के चुनाव परिणाम ही भावी राजनीति की दिशा तय करेगें और 2019 के लोकसभा
चुनाव की पूर्व पीठिका भी तैयार करेगें। नीतिश कुमार के ‘संघमुक्त भारत’ के
नारे की अंतिम परिणति भी उप्र और पंजाब के चुनाव के परिणामों के बाद पता चलेगी।
देखना यह भी होगा कि इन दो राज्यों में भाजपा अपना वजूद किस तरह बनाती और बचाती
है। उप्र के लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता के बाद वहां हुए सभी चुनावों और
उपचुनावों में भाजपा को कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं मिली है। उप्र का मैदान आज भी
सपा और बसपा के बीच बंटा हुआ दिखता है। ऐसे में असम की जीत से उर्जा लेकर भाजपा
संगठन एक बार फिर उप्र फतह के ख्वाब में है। इसके साथ पंजाब में अकाली दल-भाजपा
गठबंधन के सामने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की चुनौती भी है। इस त्रिकोणीय संघर्ष
में किसे सफलता होगी कहा नहीं जा सकता। कुल मिलाकर आने वाला समय राष्ट्रीय
राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ी चुनौती है। खासकर कांग्रेस के लिए यह समय गहरे संकट
का है, जिसे स्थानीय नेतृत्व के बजाए आज भी गांधी परिवार पर ज्यादा भरोसा है।
कांग्रेस जैसे बड़े
राष्ट्रीय दल की सिकुड़न और कमजोरी हमारे लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है। क्योंकि
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का क्षरण दरअसल राजनीति में अखिलभारतीयता के प्रवाह को भी
बाधित करता है। इसके चलते क्षेत्रीय राजनीति के स्थानीय सवाल राष्ट्रीय मुद्दों से
ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं। केंद्रीय सत्ता पर क्षेत्रीय दलों का अन्यान्न कारणों
से दबाव बढ़ जाता है और फैसले लेने में मुश्किलें आती हैं। सब कुछ के बाद भी
क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपने स्थानीय नजरिए से उपर नहीं उठ पाते और ऐसे में
राष्ट्रीय मुद्दों से समझौता भी करना पड़ता है। ध्यान दें, अटल बिहारी वाजपेयी की
सरकार में 23 दलों की सम्मिलित उपस्थिति के नाते उसे कितने तरह के दबावों से जूझना
पड़ा था और अच्छी नीयत के बाद भी उस सरकार का समग्र प्रभाव नकारात्मक ही रहा। यह
अच्छी बात है कि वर्तमान सरकार को केंद्र में अपने दम पर बहुमत हासिल है किंतु आने
वाले समय में यह स्थितियां बनी रहें, यह आवश्यक नहीं है। ऐसे में सभी राष्ट्रीय
दलों को क्षेत्रीय दलों की राजनीति से सीखना होगा। स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा करते
हुए, स्थानीय सवालों-मुद्दों और जनभावना के साथ स्वयं को रूपांतरित करना होगा।
बिहार और दिल्ली की हार के बाद भाजपा ने असम में यह बात समझी और कर दिखाई है। यह
समझ और स्थानीय सरोकार ही राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को खोयी हुयी जमीन दिला सकते
हैं। इससे लोकतंत्र और राजनीति में अखिलभारतीयता की सोच दोनों को शक्ति मिलेगी।
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