शनिवार, 7 जून 2008

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-2
संस्कृत की शक्ति को पहचानना होगा
आचार्य डॉ. महेश चंद्र शर्मा
छत्तीसगढ प्रदेश का यह महान सौभाग्य है कि यहां अनादिकाल से संस्कृत साधना होती रही है। श्रीराम, रामायण, माता कौशल्या और वाल्मीकि जी का इस पुण्य भूमि से संबंध रहा है। महर्षि वेदव्यास की पण्डवानी आज भी यहां गूंजती है। यहां के असंख्य संस्कृत कवियों और विद्वानों ने पूरे विश्व को अनेक संस्कृत महाकाव्यों के साथ विपुल संस्कृत साहित्य सौंपा। राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ राजभाषा छत्तीसगढ़ी का संस्कृत से बेहद अन्तरंग संबंध है। इसकी भाषा वैज्ञानिक एवं व्याकरणिक रचना संस्कृत के बहुत करीब है। स्वर्गीय हरि ठाकुर जी के साथ इस लेखक ने एक लेख लिखा था- 'संस्कृत और छत्तीसगढ़ी का अंतर्संबंध। काफी चर्चित और लोकप्रिय रहा था यह सांस्कृतिक आलेख। गोद के लिए संस्कृत में 'क्रोड है तो छत्तीसगढ़ी में 'कोरा है। संस्कृत का 'लांगल ही छत्तीसगढ़ में 'नागर (हल) है। वर्ष के लिए संस्कृत में 'वत्सर या 'संवत्सर है तो छत्तीसगढ़ी में 'बच्छर है। ऐसे असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं। आशय यह है कि यदि छत्तीसगढ़ में प्राथमिक स्तर पर संस्कृत शिक्षा अनिवार्य की जाती है, तो यह स्वागतयोग्य कदम है। इससे छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान, संस्कार और सुसंस्कृत शिक्षा में भी वृध्दि होगी। इससे छत्तीसगढ़ी को कोई क्षति नहीं होगी। अपितु छत्तीसगढ़ी हर तरह से समृध्द होगी। इस पृष्ठभूमि से छत्तीसगढ़ी नई ऊंचाइयां प्राप्त करेगी। संवेदनशील शासन के उक्त निर्णय का हरेक छत्तीसगढ़िया स्वागत करेगा। छत्तीसगढ़ में 30 से अधिक संस्कृत काव्य एवं सहस्त्राधिक अन्य ग्रन्थ लिखे गए हैं।

किन्तु 'छत्तीसगढ़ अस्मिता संस्थान के विद्वान संयोजक नन्द किशोर जी शुक्ल का लेख एक समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। 'संस्कृत की बजाय शिक्षा छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं? इस शीर्षक से आए विचार अज्ञानतापूर्ण, भ्रामक, अप्रमाणिक, तथ्यों से परे एवं सौहार्द्र विरोधी हैं। जहां तक हमारी अल्प जानकारी है 'संस्कृत में नहीं अपितु 'संस्कृत की शिक्षा देने की योजना है। भ्रांतिमूलक आधार से शांतिमूलक विचार की आशा ही मृगतष्णा कहलाती है। सीखने का माध्यम संस्कृत को नहीं बनाया गया है। संस्कृत साहित्य को एक भाषा, साहित्य या विषय के रूप में पढ़ने-पढ़ाने की बात है। इसका हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए। बच्चों में भाषायी सद्भाव की नींव पड़ने के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी और राजभाषा छत्तीसगढ़ी की शब्दावली इससे समृध्दि होगी। उच्चारण की शुध्दता के साथ-साथ नैतिक संस्कार एवं जीवन मूल्यों से भी छत्तीसगढ़ का बालपन सुपरिचित होगा और सबसे सुखद बात यह है कि उनमें 'छत्तीसगढ़ी अस्मिता और स्वाभिमान भी संस्कृत शिक्षा से जागृत होगा।

संस्कृत के विश्वव्यापी, अंतरराष्ट्रीय और प्रांतीय महत्व की जानकारी में यदि लेखक को कुछ मार्गदर्शन लेना होता तो राष्ट्रीय संस्कृत और वेद सम्मेलनों के प्रखर वक्ता वेदों के प्रताप से तेजस्वी डॉ. वेद प्रताप वैदिक जी से ही ले लेते। लेखक ने जिस प्रगतिशील जापान का उल्लेख प्रमुखता से किया है वहीं यथाशीघ्र 'विश्व संस्कृत सम्मेलन होने जा रहा है। चीन बौध्द देश संस्कृत की महत्ता को स्वीकार कर चुका है। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने इस लेख के लेखक की कृति 'सिध्दार्थचरित (संस्कृत-हिन्दी) का अवलोकन कर लिखित शुभकामनाएं दीं। जर्मनी में संस्कृत अध्ययन जगप्रसिध्द है। सत्यव्रत जी शास्त्री ने इसे 'शर्मण्य देश कह कर संस्कृत ग्रन्थ लिखे हैं। आशय यह कि छत्तीसगढ़ में ही नहीं पूरे विश्व में बड़ी संख्या के लोग संस्कृत के ज्ञाता हैं। वे 'मुट्ठी भर पण्डित-पुरोहित नहीं अपितु 'आमजन हैं। इंटरनेट-कम्प्यूटर पर अमरीका भी संस्कृत को प्रणाम कर रहा है। छत्तीसगढ़ में सुदूर वनांचल कैलाश नाथेश्वर और सांभरबार के श्री रामेश्वर गाहिरा गुरु संस्कृत आवासीय महाविद्यालय एवं अन्य संलग्न आश्रमों, पाठशालाओं में संस्कृत के छात्रों की संख्या कई हजार से अधिक है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के दूसरे वनांचल बस्तर में स्वाध्यायी और नियमित संस्कृत छात्रों की संख्या 2000 से अधिक प्रत्यक्ष इस वर्ष भी इस लेखक (अर्थात मैंने) देखी है।

शालेय स्तर पर कक्षा 10 तक और कहीं-कहीं 11वीं-12वीं में भी हजारों बच्चो पढ़ रहे हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्र मेरिट के साथ संस्कृत में सर्वोच्च अंक ला रहे हैं। कई प्राध्यापक भी इन वर्गों को संस्कृत पढ़ा रहे हैं। विश्व संस्कृत प्रतिष्ठानम, संस्कृत भारती, लोक भाषा प्रचार समिति और राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान द्वारा संचालित संस्कृत शिक्षण प्रशिक्षण शिविरों में भी हजारों की संख्या में विविध आयु, धर्म जाति एवं वर्गों के लोगों को लगातार शिक्षित किया जाना किसी से छिपा नहीं है। साहित्य, संगीत, कला, राजनीति, शासन-प्रशासन एवं समाज सेवा के असंख्य जन संस्कृतज्ञ या संस्कृत प्रेमी हैं। फिर इसे चन्द लोगों की भाषा कहना दुर्भाग्यपूर्ण है। उधर पाठशालाओं में प्राच्य पध्दति से हजारों छात्र संस्कृत पढ़ कर धन्य हो रहे हैं। फिर भी संस्कृत 'मुट्ठी भर लोगों की भाषा कहना निराधार नहीं तो और क्या है? छात्र तो संस्कृत लेकर प्रशासन में उच्च पदों पर पहुंच चुके हैं। पर कोई जानना नहीं चाहे तो क्या किया जाए? वास्तव में संस्कृत की शक्ति को लेकर संजय द्विवेदी के लेख (देखें 'हरिभूमि 2 जून 2008 का संपादकीय पृष्ठ) से इस संदर्भ में राहत और प्रेरणा दोनों मिली। छत्तीसगढ़ के भाषायी सौहार्द्र-सद्भाव में संस्कृत सशक्त भूमिका निभाती आई है।

जहां तक मातृभाषा में शिक्षा की उपयोगिता का सवाल है, कोई अभागा ही इससे असहमत होगा। किन्तु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी हमारी मातृभाषा है, तो संस्कृत इनकी भी मातृभाषा है। अर्थात् संस्कृत मातृभाषा की भी मातृभाषा है। एक दादी-नानी, पोती का अहित कैसे कर सकती है। लेकिन आज के बुरे समय में पोती-पोतों को दादा-दादी, नाना-नानी से अलग रखने का फैशन चल रहा पड़ा है। राष्ट्रभाषा और दिव्य गुणों से मानव को देव बनाने वाली देवभाषा संस्कृत को निंदा या उपेक्षा के गृह युध्द में अंग्रेजी जैसी बाहरी भाषाओं के आक्रमण से बचाना है तो हमें घरेलू भाषायी सौहार्द्र बढ़ाना होगा। छत्तीसगढ़ के गांधी, बल्कि गांधी जी ने जिन्हें गुरु माना ऐसे पं. सुन्दरलाल शर्मा तो राजिम में संस्कृत पाठशाला संचालित करते थे। पद्मश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय ने 'मेघदूत का प्रथम छत्तीसगढ़ी में पद्यानुवाद किया। नन्दकिशोर जी, सैकड़ों उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ी की उन्नति न चाहने वाले कोई और होंगे। संस्कृत हितैषी कभी 'षडयंत्र नहीं करते। सब मिलकर बढ़ें। मैं प्रतीक्षा में हूं कि हम सब कहें कि संस्कृत अनिवार्यत: रोजगार से जुड़े। संघ में शक्ति है। असौहार्द्र में नहीं।
(लेखक संस्कृत भाषा के प्रख्यात विद्वान एवं शिक्षाविद् हैं।)
मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया -1


बहुभाषिकता हमारी अस्मिता है


जयप्रकाश मानस

छत्तीसगढ़ में भाषा को लेकर छिड़े बौद्धिक उन्माद को देखकर मुझे एक कहानी याद आ रही है - एक साधु किसी के साथ कहीं जा रहे थे । रास्ते में एक मरा हुआ क्ता मिला । वह पूरी तरह सड़ चुका था । उसे देखकर आदमी चीख पड़ा - महाराज, बचकर चलिए; देखिए इस ग़लीज़ कुत्ते से कैसी बदबू आ रही है । साधु बोले – आह, इस कुत्ते के दाँत तो देखो, कितने साफ़ और चमकीले हैं । हम कैसे बुद्धिजीवी हैं जो अपनी ही भाषाओं को साधु विरोधी दृष्टि से देख रहे हैं ।

बहुभाषिकता भारतीय भाषा-परिदृश्य का विशिष्ट लक्षण है । अपनी चारित्रक सात्विकता के साथ वह भारतीयता की पहचान भी है । भाषा स्वयं में अराजक या असामाजिक नहीं होती । फिर किसी एक बृहत भूगोल की भाषाओं में साम्यता, परस्पर विश्वास के बीज भी होते हैं । यही भाषा विज्ञान का अद्यतन सत्य है । भाषाओं या बहुभाषिकता को लेकर की जाने वाली दुर्भावनाओं और दुर्घटनाओं के मूल में राजनीतिक चश्मे से देखने की धूर्तता मात्र है । भाषायी आधार पर शत्रुता के पीछे न कोई वैज्ञानिकता होती है, न ही भाषायी आधार पर वांछित विकास हेतु कोई वैचारिक मापदंड । शायद यही दूरदृष्टिता उस मूल में है जिससे प्रेरित होकर हमने भारतोदय के समय भाषायी प्रजातंत्र को अंगीकार किया ।

भारत की भाषिक विविधता एक जटिल चुनौती पेश करती है तो दूसरी ओर वह हमारे लिए विविध अवसर भी बटोरकर देती है । भारत केवल इसलिए अनूठा नहीं है कि यहाँ अनेक प्रकार की भाषायें बोली जाती है, बल्कि उन भाषाओं में अनेक भाषा-परिवारों का प्रतिनिधित्व भी है । बहुभाषिकता भारत की थाती है, और इन मायनों में हम सर्वाधिक धनी ठहरते हैं । दुनिया के और किसी मुल्क में पाँच भाषा परिवारों की भाषायें नहीं पायी जाती । यह भाषायी विविधता में समृद्धि मात्र नहीं, ज्ञान सहित प्राचीन विज्ञान, दर्शन, चिंतन में भी भारतीय समृद्धि का परिचायक भी है । बहुभाषिकता बच्चे की अस्मिता का निर्माण करती है । निज भाषा का निष्कलुष उत्थान वरेण्य है किन्तु परभाषा की पतन-चेष्ठा सर्वथा बौद्धिक अतिवाद है । इसलिए उपेक्षणीय है । शिक्षा में बहुभाषिकता का समर्थन केवल देश में उपलब्ध संसाधन का बेहत्तर उपयोग नहीं अपितु वह हर बच्चे (हर भाषिक समुदाय)की स्वीकार्यता और संरक्षणत्व की भी गारंटी है । यह अर्थांतर से भाषिक पृष्ठभूमि के आधार पर किसी को पिछड़ने न देने का विश्वास भी है । जब हम पिछड़ों, दलितो, वनबंधुओं की उत्थान की बात करते हैं तो हमें कदापि यह नहीं भूलना चाहिए कि इस उन्नति में भाषा का उत्थान भी सम्मिलित है । हमें संविधान की धारा 350 –क का भी ऐसे समय स्मरण कर लेना चाहिए जिसमें कहा गया है कि राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा । यदि छत्तीसगढ़ में भी गोंड़ी, हलबी, भथरी, सरगुजिहा में पढ़ाई की व्यवस्थागत स्वीकृति मिलती है तो उसे इसलिए ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता कि वे छत्तीसगढ़ी परिवार की भाषायें है और ऐसे में केवल छत्तीसगढ़ी में ही पढ़ाई होनी चाहिए । ऐसे तर्कों को भाषागत प्रेम नहीं अपितु कांइयापन और भाषायी उन्माद की श्रेणी मे रखा जाना चाहिए । क्योंकि ऐसी सभी अल्पसंख्यक भाषाओं या बोलियों का न तो कोई जनक है न ही उनका नियंता कि उसे नेस्तनाबूत करने का अधिकार सौंप दिया जाय । हमें अपने वरिष्ठ नंदकिशोर तिवारी जी जैसे पुरानी पीढ़ी को अपनी उदारता दिखाने की अपील करनी ही होगी कि वे अपनी भाषा के कल्याण के लिए संघर्ष ज़रूर करें किन्तु उन्हें परस्परविश्वासी किन्तु अल्पसंख्यक भाषाओं के सफाया करने का जहर वातावरण में न घोलें । यह एक तरह से छत्तीसगढ़ और खासकर वनांचलों में सक्रिय अतिवादियों को उकसाना भी हो सकता है, साथ भी आदिजनों के विश्वास पर कुठाराघात भी । आज समय की मांग है कि और संजय द्विवेदी जैसे युवा किन्तु समरस विचारों का अनुसमर्थन देना ही होगा । और ऐसा न करना भाषायी सांप्रदायिकता को भी प्रोत्साहित करना होगा ।

जब हम मातृभाषा और घर की भाषा की बात करते हैं तो उसमें घर, कुनबे, पास पड़ौस आदि की भाषा आ जाती है । जिसे हम घर और समाज से ग्रहण करते हैं । अधिकांशतः बच्चे जब स्कूल में प्रवेश के समय दो-तीन ऐसी भाषाओं को बोलने-समझने की क्षमता से लैश होते हैं । भिन्न प्रतिभा वाले बच्चे जो बोल नहीं पाते वे भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उतने ही जटिल वैकल्पिक संकेतों और प्रतीकों का विकास कर लेते हैं । ऐसे समय भाषायें स्मृतिकोश की तरह काम करती हैं जिसमें अपने सहवक्ताओं से विरासत में मिले संकेतों के साथ-साथ जीवन-काल में बनाये गये संकेत भी शामिल होते हैं । ये वे माध्यम भी हैं जिनसे अधिकतर ज्ञान का निर्माण होता है । इसलिए इनका मनुष्य के विचार और उसकी अस्मिता से गहरा संबंध होता है कि बच्चे की मातृभाषा या मातृभाषाओं को नकारना या उनके ध्वस्तीकरण का प्रयास उसे अपने व्यक्तित्व मे हस्तक्षेप की तरह लगते हैं । सच यह भी है कि प्रभावी समझ और भाषाओं के प्रयोगों के माध्यम से बच्चे विचारों, व्यक्तियों, वस्तुओं और आसपास के संसार से अपने को जोड़ पाते हैं ।

जहाँ तक प्राथमिक शिक्षा और भाषा का प्रश्न है वहाँ द्विभाषी क्षमता मनुष्य की संज्ञानात्मक वृद्धि, सामाजिक सहिष्णुता, विस्तृत चिंतन और बौद्धिक उपलब्धियों का खास औज़ार है । यह केवल सदभावी विचार जनित कल्पना नहीं, उच्च अध्ययनों और शोधों का निष्कर्ष भी है । उसमें द्वंद्व, अविश्वास, सामुदायिक विभाजन की संभावना तलाशना केवल मूढ़ता है । जहाँ तक अँगरेज़ी को तवज्जो देने का सवाल है वह मुद्दा जनता की आकांक्षाओं का राजनीतिक प्रत्युत्तर है, न कि इसके पीछे अकादमिक या साध्यता का मुद्दा है । वह अन्य पश्चिमी भाषा में विद्यमान सौदर्य के अलावा वर्तमान विश्व समाज जो तकनीकी ज्ञान की गारंटी माँगता है व्यावसायिक दक्षता और कौशल के लिए भी आवश्यकता है । प्रकारांतर से वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भविष्य की पीढ़ी के लिए रोजी-रोटी की भाषा है । यह अलग बात है कि वह शासक की भाषा है और उसे हमने ही अन्य भारतीय भाषाओं और लोकभाषाओं को सरंक्षण न देकर विकसित करते रहे हैं पर आज के संदर्भ में उसे एकबारगी नहीं नकारा जा सकता है ।
(लेखक, शिक्षाविद् एवं साहित्यकार हैं)

रविवार, 1 जून 2008

संस्कृत के बिना हम कितने बेचारे ?

भरोसा नहीं होता कि छत्तीसगढ़ जैसी महान धरती से देवभाषा संस्कृत के विरोध में भी कोई बेसुरी आवाज़ सामने आएगी। प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर शुक्ल ने 26 मई, 2008 को दैनिक भास्कर, रायपुर में लिखे अपने लेख 'संस्कृत की बजाय शिक्षा छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं’ लिखकर संस्कृत को पहली से लेकर पाँचवीं कक्षा तक पढ़ाए जाने का विरोध किया है। यह एक ऐसा हिंसक विचार है, जिसकी जितनी निंदा की जाए कम है।

भाषा और मूल्यों को लेकर जिस तरह के विमर्श और चर्चाएं इन दिनों हवा में हैं, वह कई बार बहुत आतंकित करती हैं। अँगरेज़ी के बढ़ते साम्राज्यवाद के बीच हमारी बोलियाँ और भाषाएं जिस तरह सहमी व सकुचाई हुई सी दिखती हैं, उसमें ऐसे विचार अँगरेज़ी के प्रभुत्व को ही स्थापित करने का काम करेंगे। कुल मिलाकर संदेश यह है कि आइए हम भारतीय भाषा परिवार के लोग आपस में सिर फुटौव्वल करें, एक-दूसरे के कपड़े फाड़ें और अँगरेज़ी को राजरानी की तरह प्रतिष्ठित कर दें।

भारतीय भाषा परिवार की भाषाएं और बोलियाँ जिस तरह से एक-दूसरे से टकरा रही हैं। राजनीतिक आधार पर विभाजन करके अपनी राजनीति चलाने वाली ताकतें भाषा का भी ऐसा ही इस्तेमाल कर रही हैं। देश का विचार और हमारी सामूहिक संस्कृति का विचार लुप्त होता जा रहा है। भाषा, क्षेत्र, जाति, धर्म ऐसे अखाड़े बन गए हैं, जिसने हमारी सामूहिकता को नष्ट कर दिया है। राजनीति इन्हीं विभाजनों का सुख ले रही है। कितना अच्छा होता कि नंदकिशोर शुक्ल अँगरेज़ी को हटाने की बात करते, लेकिन उन्हें संस्कृत ही नज़र आई। वे संस्कृत को विद्वानों, पंडितों और पुरोहितों की भाषा घोषित करते हैं। शायद उन्हें नहीं पता कि भारत को देखने और समझने की दृष्टि अगर किसी भाषा के माध्यम से पाई जा सकती है तो वह संस्कृत ही है। सिर्फ़ हमारे धार्मिक ग्रंथ ही नहीं, हमारी पूरी सांस्कृतिक परंपरा और उसका उत्कृष्ट साहित्य संस्कृत के ग्रंथों में भरा पड़ा है। यह कैसा हिंसक विचार है कि संस्कृत जैसी भाषा जिसे पूरे देश में समान श्रध्दा और आदर प्राप्त है, उसके ख़िलाफ़ सोचने वाले हमारे आपके बीच में ही बैठे हुए हैं।

संस्कृत भारतीय भाषा परिवार की सबसे पुरानी भाषा है। यह हमारे लोक जीवन में पैठी हुई है। सिर्फ़ धर्म के ही नाते नहीं, अपनी वैज्ञानिकता के नाते भी संस्कृत को कंप्यूटर विज्ञानी भी सबसे तार्किक भाषा मानते हैं। संस्कृत के ख़िलाफ़ किसी भी भाषा को खड़ा करना एक ऐसा अपराध है, जिसके लिए हमें पीढ़ियाँ माफ़ नहीं करेंगी। यह अपने पुरखों को बिसरा देने जैसा है, अपने अतीत को अपमानित और लांछित करने जैसा है। स्वयं को राष्ट्रवादी विचारक बताने वाले क्षेत्रीयता के आवेश में इस कदर आँखों पर पट्टियाँ बाँध लेंगे, इसकी कल्पना भी डरावनी है। उन्होंने अपने लेख में हल्बी, गोंडी, गुडूख, भद्री, जशपुरिया आदि को पढ़ाए जाने का भी विरोध किया है। क्या छत्तीसगढ़ी का मार्ग प्रशस्त करने का यही सही तरीका है? जिस तरह अँगरेज़ी ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को पददलित किया क्या उसी तरह राज्य की राजभाषा बन जाने के बाद छत्तीसगढ़ी भी छत्तीसगढ़ में बोली जाने वाली तमाम बोलियों को राज्य से निष्कासन दे देगी? क्या इसे छत्तीसगढ़ी का अधिनायकवाद नहीं कहा जाएगा?आज जबकि बाज़ारवाद की तेज़ हवा में हमारी तमाम बोलियाँ, तमाम शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, लोकगीत नष्ट होने के कगार पर हैं, क्या इन्हें बचाना और साथ लेकर चलना हमारी जिम्मेदारी नहीं है?

छत्तीसगढ़ी राज्य के सबसे बड़े क्षेत्र में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। इसका आदर करते हुए ही छत्तीसगढ़ी को राज्य की राजभाषा का दर्जा दिया गया है। यह हर्ष और प्रसन्नता का विषय है कि सुदूर बस्तर से लेकर जशपुर व सरगुजा के वनांचलों तक से इस सूचना का स्वागत किया गया, भले ही वहां का लोकजीवन अन्य बोलियों के साथ अपनी दिनचर्या जी रहा है। क्या हम छत्तीसगढ़ी बोलने वालों को इस भावना का आदर करते हुए उन छोटे-छोटे समूहों में बोली जाने वाली बोलियों का आदर नहीं करना चाहिए। हमें यह ध्यान रखना होगा कि छत्तीसगढ़ी की भूमिका इस राज्य में बोली जा रही सभी बोलियों की बड़ी बहन की है। उनका संरक्षण एक संस्कृति का भी संरक्षण है और परंपरा का भी। किसी एक बोली के लुप्त होने से कितने हजार शब्द खो जाते हैं इसका आंकलन करना भाषाविज्ञानियों का काम है।

मैं नंदकिशोर शुक्ल सरीखा ज्ञानी नहीं हूँ किंतु इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि छत्तीसगढ़ी ने यदि लंबे संघर्ष के बाद राजकीय तौर पर सम्मान पाया है, तो उसे अपनी सहोदरा बोलियों को साथ लेकर चलना चाहिए न कि अपने अधिनायकत्व से उसे कुचलने के प्रयास में सहभागी होना चाहिए। छत्तीसगढ़ी भारतीय भाषा परिवार की एक ऐसी बोली है, जिसमें विपुल साहित्य रचा गया है। शायद भद्री, गोंडी, हल्बी, गुडूख, जशपुरिया के पास इतना समृध्द साहित्य न हो किंतु लोकजीवन में उसकी प्रतिष्ठा और उसका इतिहास ज़रूर है। ये बोलियाँ आदिवासी समाज के लोकजीवन में रची-बसी हैं। आदिवासियों के संघर्ष, जिजीविषा, उनकी लोककलाओं का इतिहास दर्ज़ होना अभी शेष है। बावजूद इसके उनके महत्व को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।

छत्तीसगढ़ी राज्य की स्थापना के पीछे भी इन्हीं वंचित तबकों को न्याय दिलाने की भावना प्रमुख थी। यदि इस नवसृजित राज्य में छत्तीसगढ़ के आदिवासी वर्ग की भावनाओं को स्थान नहीं मिला तो यह राज्य अपनी स्थापना का औचित्य खो बैठेगा? अपने लेख में उन्होंने डा. वेदप्रताप वैदिक के जिस वाक्य का संदर्भ दिया है, उसका भी मतलब यही है कि स्थानीय भाषाओं और बोलियों की उपेक्षा न की जाए। श्री शुक्ल स्वयं तर्क देते हैं कि कई देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करते हैं किसी अन्य भाषा में नहीं। क्या श्री शुक्ल संस्कृत जैसी महान भाषा और भद्री, गोंडी, हल्बी, गुडूख, जशपुरिया जैसी जनभाषाओं के खिलाफ़ माहौल बनाने की बजाय अँगरेज़ी के खिलाफ़ यही अभियान चलाएंगे? वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक कहते हैं। क्या उन्होंने संस्कृत के ख़िलाफ़ लेख लिखने के पूर्व अपने मातृ संगठन के विचारकों से बातचीत की है। मेरा यह मानना है कि कोई भी भारतवासी संस्कृत भाषा की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसके ख़िलाफ़ सोचना और बोलना तो बहुत दूर की बात है।

छत्तीसगढ़ी में शिक्षा दिए जाने की माँग कतई नाजायज नहीं है और ऐसा होना ही चाहिए किंतु छत्तीसगढ़ी को किसी नारे की तरह इस्तेमाल करते हुए उसके राजनीतिक इस्तेमाल से बचना सबसे बड़ी ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ी को अध्ययन, अध्यापन की भाषा बनाने के लिए आंदोलन होना चाहिए पर वह संस्कृत के तिरस्कार और तमाम जनबोलियों की मौत का त्यौहार मनाकर नहीं होगा। छत्तीसगढ़ी को यदि राजभाषा का दर्ज़ा मिला है, तो सरकार का यह नैतिक दायित्व है कि उसे राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए सारे जतन करे। जिस राजनीति ने इतने उत्सव के साथ छत्तीसगढ़ी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया उसी राजनीति के सबसे बड़े मंदिर विधानसभा में हाल में हुए सत्र में एक भी विधायक एक वाक्य भी छत्तीसगढ़ी में नहीं बोला। राजनीति का यह द्वंद समझा जा सकता है कि वह अपने सारे क्रिया व्यापार एक विदेशी भाषा में करती है और आम जनता के भावनात्मक शोषण के लिए जनभाषाओं के विकास की नारेबाजी करती है। क्या कारण है कि छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के लिए पास किया गया विधेयक आज भी महामहिम राज्यपाल की कृपा का अभिलाषी है। जहाँ तक मुझे जानकारी है नंदकिशोर शुक्ल किसी राजनीति का हिस्सा नहीं हैं पर क्या कारण है कि वे स्वयं को एक तरफ़ राष्ट्रवादी विचारक कहते हैं, तो दूसरी तरफ़ वे इस तरह का बेसुरा राग भी अलापते हैं। छत्तीसगढ़ मां कौशल्या की भूमि है, तो संस्कृत भी सभी भाषाओं की जननी है। ऐसे में छत्तीसगढ़ के पुत्रों का कर्तव्य क्या यह नहीं बनता कि वे अपनी माँ का आदर करें। संस्कृत का सम्मान दरअसल अपनी संस्कृति, अपने पुरखों, अपनी परंपराओं का भी सम्मान है। ऐसा करके हम अपने प्रति ही ऋणमुक्त होते हैं। छत्तीसगढ़ की फ़िजाओं में इस तरह की बातें फैलाना वास्तव में इस क्षेत्र की तासीर के ख़िलाफ़ है। मुझे याद नहीं पड़ता कि दक्षिण के जिन राज्यों में हिंदी के ख़िलाफ़ कभी बहुत उग्र आंदोलन हुए वहाँ से भी कभी संस्कृत के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ सुनने में आई हो।

श्री शुक्ल ने अगर यह शुरुआत की है तो छत्तीसगढ़ से प्रेम करने वाला कोई भी व्यक्ति इसकी प्रशंसा तो नहीं कर सकता, क्योंकि संस्कृत के बिना हम कितने बेचारे हो जाएँगे इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। जब हजारों-हजार भाषाएं, हजारों-हजार बोलियाँ, हज़ारों शब्द लुप्त होने के कगार पर हैं और अँगरेज़ी का साम्राज्यवाद उन्हें निगलने के लिए खड़ा है, तो ऐसे समय में क्या हम ऐसी फ़िजूल की बहसों के लिए अपना वक्त खराब करते रहेंगे।

सोमवार, 26 मई 2008

0 डा. तिवारी पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से विभूषित



रायपुर। पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से विभूषित होने के बाद 'दस्तावेज के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि संवेदना का विकास ही साहित्यिक पत्रकारिता का बुनियादी आदर्श है। भारतीय परंपरा का मूल स्वर सहिष्णुता है, जिसकी कमी के कारण समाज में अशांति का वातावरण बन रहा है।

महंत घासीदास स्मृति संग्रहालय सभागार में आयोजित एक गरिमामय समारोह में गोरखपुर से पिछले तीन दशकों से अनवरत निकल रही त्रैमासिक पत्रिका 'दस्तावेज के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को प्रख्यात कवि-कहानीकार विनोद कुमार शुक्ल ने शाल, श्रीफल, स्मृति चिन्ह, प्रशस्ति पत्र और ग्यारह हजार रुपए नगद देकर पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से विभूषित किया।

पूर्वज साहित्यकार पुरस्कार के लिए नहीं, दंड के लिए पत्रिकाएं निकालते थे - तिवारी
‘साहित्यिक पत्रकारिता की जगह’’ विषय पर अपने व्याख्यान में कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता में सहिष्णुता को प्रोजेक्ट करने की जरूरत है। पूंजी की माया महाराक्षस की तरह मुंह फाड़े खड़ी है, जो आंत्यांतिक रूप से मनुष्य का अहित करने वाली है। उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वज साहित्यकार पुरस्कार के लिए नहीं, दंड के लिए पत्रिकाएं निकालते थे। पत्रकारों का एक पैर पत्रिका के दफ्तर में रहता था, तो दूसरा पैर जेल में। पहले लोग खतरा उठाकर कहना, लिखना चाहते थे। उस युग में साहित्य और अनुशासन एक थे। पत्रकारिता में यदि आदर्श स्थापित करना है, तो हमें पूर्वजों का स्मरण करना चाहिए। डा. तिवारी ने कहा कि परंपरा और आधुनिकता का संघर्ष हमारे संपादकों, पत्रकारों को अपनी जमीन, मनुष्यता से दूर कर रहा है। ज्ञान का भंडार किसी को मुक्त नहीं कर सकता।

डा. तिवारी ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता में आजकल दो विमर्श चर्चित हैं, दलित विमर्श और स्त्री विमर्श। उन्होंने कहा कि ऐसा करके स्त्री और पुरूष को एक-दूसरे के खिलाफ आमने-सामने खड़ा कर दिया गया है। दूसरा क्या वैविध्यपूर्ण जटिल संरचना वाले समाज में दलित बिना सहयोग के अपना उध्दार कर लेंगे। उन्होंने कहा कि साहित्य और पत्रकारिता दोनों के लक्ष्य समान हैं और संवेदना, सहिष्णुता से ही पत्रकारिता, साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता में नए आयाम स्थापित किए जा सकते हैं।

साहित्य और पत्रकारिता के बीच समन्वय की पहल- हिमांशु द्विवेदी
कार्यक्रम के अध्यक्ष हरिभूमि के प्रबंध संपादक हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि मौजूदा समय में जबकि पिता का सम्मान घर के भीतर नहीं बचा है, संजय द्विवेदी द्वारा अपने दादा के नाम पुरस्कार की परंपरा स्थापित करना सराहनीय पहल है। उन्होंने कहा कि संस्कारों से कटने के समय में इस सम्मान से साहित्य और पत्रकारिता के बीच समन्वय स्थापित होगा और नए रिश्तों के संतुलन बनेंगे।

साहित्यिक पत्रकारिता में डॉ. तिवारी का अमूल्य योगदान – विनोद कुमार शुक्ल
मुख्य अतिथि विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता में अपने अवदान, तेवर के लिए 'दस्तावेज को पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान मिलने और इसके संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की उपस्थिति से यह सम्मान ही सम्मानित हुआ है। उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता में डा. तिवारी के योगदान को अमूल्य बताया।

दस्तावेज विचार है – अष्टभुजा शुक्ल
विशिष्ट अतिथि प्रख्यात कवि अष्टभुजा शुक्ल ने कहा कि 'दस्तावेज पत्रिका हाड़-मांस का मनुष्य नहीं है, वह विचार है। हम सब जानते हैं कि विचार का वध संभव नहीं है। यही वजह है कि यह पत्रिका 'जीवेत् शरद: शतम् के साथ 'पश्येव शरद: शतम् के भाव को भी लेकर तीन दशकों में 117 अंक निकल चुकी है।

साहित्यिक पत्रकारिता की डगर कठिन - जोशी
विशिष्ट अतिथि कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता की डगर काफी कठिन है। इस मुश्किल सफर पर तीस सालों से अनवरत चल रही 'दस्तावेज और इसके संपादक डा. तिवारी के योगदान की चर्चा बिना साहित्यिक पत्रकारिता की बात अधूरी है।

कार्यक्रम की शुरुआत में अपने स्वागत भाषण में हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक संजय द्विवेदी ने कहा कि भले ही मेरे दादा और रचनाधर्मी स्वर्गीय पं. बृजलाल द्विवेदी की कर्मभूमि उत्तर प्रदेश है पर छत्तीसगढ़ उनकी याद के बहाने किसी बड़े कृतिकार के कृतित्व को रेखांकित करने की स्थायी भूमि होगी और आयोजक होने के नाते यह मेरे लिए गर्व का विषय भी होगा। उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ का यही सखाभाव आज की वैश्विक खतरों से जूझने की भी वैचारिकी हो सकता है। कार्यक्रम को विशिष्ट अतिथि प्रख्यात कथाकार जया जादवानी और जादूगर ओपी शर्मा ने भी संबोधित किया।

इस अवसर पर पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान के निर्णायक मंडल के सदस्य रमेश नैयर, सच्चिदानंद जोशी, गिरीश पंकज को समिति की संयोजक भूमिका द्विवेदी और संजय द्विवेदी ने स्मृति चिन्ह प्रदान किया। कार्यक्रम का संचालन राजकुमार सोनी ने तथा आभार प्रदर्शन कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के रीडर शाहिद अली ने किया।

इस मौके पर पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष बबन प्रसाद मिश्र, छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैयर, छत्तीसगढ़ निर्वाचन आयोग के आयुक्त डा. सुशील त्रिवेदी, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष वीरेंद्र पांडेय, छत्तीसगढ़ वेवरेज कार्पोरेशन के चैयरमेन सच्चिदानंद उपासने, साहित्य अकादमी के सदस्य गिरीश पंकज, वरिष्ठ पत्रकार बसंत कुमार तिवारी, दैनिक भास्कर के संपादक,दिवाकर मुक्तिबोध, नई दुनिया के संपादक रवि भोई, मनोज त्रिवेदी, पद्मश्री महादेव प्रसाद पांडेय, हसन खान, डा. रामेंद्रनाथ मिश्र, डा. राजेंद्र मिश्र, जयप्रकाश मानस, डॉ. राजेन्द्र सोनी, डा. मन्नूलाल यदु, डा. रामकुमार बेहार, डा. विनोद शंकर शुक्ल, राहुल कुमार सिंह, राम पटवा, नंदकिशोर शुक्ल, राजेश जैन, रमेश अनुपम, डा. राजेंद्र दुबे, संजय शेखर, रामशंकर अग्निहोत्रि, पारितोष चक्रवर्ती राजेंद्र ओझा, डा. सुभद्रा राठौर, सनत चतुर्वेदी, आशुतोष मंडावी, भारती बंधु, डा. सुरेश, राजू यादव, डा. सुधीर शर्मा, जागेश्वर प्रसाद, केपी सक्सेना दूसरे, चेतन भारती, एसके त्रिवेदी, रामेश्वर वैष्णव, बसंतवीर उपाध्याय, गौतम पटेल सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार एवं आम नागरिक उपस्थित उपस्थित थे।

रविवार, 25 मई 2008

छत्तीसगढ़ की पहचान


छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र 7-8 वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने सांस्कृतिक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह साहित्य के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारा की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि से हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है । जनपदीय भाषा- छत्तीसगढ़ी के प्रति तमाम श्रद्धाओं और संभ्रमों के बाद यदि हिंदी के व्यापक वृत में छत्तीसगढ़ धनवान बना रहा है तो इसमें उस छत्तीसगढ़िया संस्कार की भी भूमिका भी रेखांकित होती है जिसकी मनोवैज्ञानिक उत्प्रेरणा के बल पर आज छत्तीसगढ़ सांवैधानिक राज्य के रूप में है । कहने का आशय यही कि ब्रज, अवधी आदि लोकभाषाओं की तरह उसने भी हिंदी को संपुष्ट किया है । कहने का आशय यह भी कि लोकभाषाओं के विरोध में न तो राष्ट्रीय हिंदी रही है न ही छत्तीसगढ़ की हिंदी । इस वक्त यह कहना भी मेरे लिए ज़रूरी होगा कि छत्तीसगढ़ की असली पहचान उसकी सांस्कृतिक अस्मिता है, जिसमें भाषायी तौर पर हिंदी और सहयोगी छत्तीसगढ़ी दोनों की सांस्कृतिक उद्यमों, सक्रियताओं, प्रभावों और संघर्षों को याद किया ही जाना चाहिए।


आज जब समूची दुनिया में (और विडम्बना यह भी कि भारतीय बौद्धिकी में भी) अपने इतिहास, अपने विरासत और अपने दिशाबोधों को बिसार देने का वैचारिक चिलम थमाया जा रहा है । पृथक किन्तु उज्ज्वल अस्मिताओं को लीलने के लिए वैश्वीकरण को खड़ा किया जा रहा है । अपनी सुदीर्घ उपस्थितियों को रेखांकित करते रहना ज़रूरी हो गया है । सो मैं आज की इस महत्वपूर्ण आयोजन का फायदा उठाते हुए छत्तीसगढ़ की साहित्यिकता पर स्वयं को केंद्रित करना चाहूँगा । बात मैं समकालीन साहित्यक विभूतियों, प्रतिभाओं, नायकों और उनके कृतित्व पर नहीं बल्कि उस अतीत की ज़मीन का विंहगावलोकन चाहूँगा जिसके बिना समकालीनता के पैर लड़खड़ा सकते हैं । और इसलिए भी कि समकालीन रचनात्मकता और स्थायी दिव्यता के बीच अभी समय की आलोचकीय आँधी बाक़ी है । जबकि हमारे श्रेष्ठ पुरातन की समकालीनता आज भी हम सबको अपने पास बुलाती है ।

तो सीधे-सीधे मै अपने मूल कथन की ओऱ लौटता हूँ - पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य ने पूर्व मीमांसा, भाषा उत्तर मीमांसा या ब्रज सूत्र भाषा, सुबोधिनी, सूक्ष्मटीका, तत्वदीप निबंध तथा सोलह प्रकरण की रचना की, जो रायपुर जिले के चम्पारण (राजिम के समीप) में पैदा हुए थे। अष्टछाप के संस्थापक विट्ठलाचार्य उनके पुत्र थे। मुक्तक काव्य परम्परा की बात करें तो राजा चक्रधर सिंह सबसे पहले नज़र आते हैं । वे छत्तीसगढ़ के गौरव पुरुष हैं। उनके जैसा संस्कृति संरक्षक राजा विरले ही हुए हैं । वे हिन्दी साहित्य के युग प्रणेता पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का जीवनपर्यन्त नियमित आर्थिक सहयोग करते रहे। रम्यरास, जोश-ए-फरहत, बैरागढ़िया राजकुमार, अलकापुरी, रत्नहार, काव्यकानन, माया चक्र, निकारे-फरहत, प्रेम के तीर आदि उनकी ऐतिहासिक महत्व की कृतियां हैं। उनकी कई कृतियाँ 50 किलो से अधिक वजन की हैं ।

भारतेंदु युग का जिक्र करते ही ठाकुर जगमोहन सिंह का नाम हमें चकित करता है, जिनकी कर्मभूमि छत्तीसगढ़ ही रहा और जिन्होंने श्यामा स्वपन जैसी नई भावभूमि की औपन्यासिक कृति हिन्दी संसार के लिए रचा। वे भारतेन्दु मंडल के अग्रगण्य सदस्य थे। जगन्नाथ भानु, मेदिनी प्रसाद पांडेय, अनंतराम पांडेय को इसी श्रृंखला मे याद किया जाना चाहिए । यहाँ सुखलाल प्रसाद पांडेय का विशेष उल्लेख करना समीचीन होगा कि उन्होंने शेक्सपियर के नाटक कॉमेडी ऑफ एरर्स का गद्यानुवाद किया, जिसे भूलभुलैया के नाम से जाना जाता है।

द्विवेदी युग में भी छत्तीसगढ़ की धरती ने अनेक साहित्य मनीषियों की लेखनी के चमत्कार से अपनी ओजस्विता को सिद्ध किया। इस ओजस्विता को चरितार्थ करने वालों में लोचन प्रसाद पांडेय का नाम अग्रिम पंक्ति में है। आपकी प्रमुख रचनाएं हैं – माधव मंजरी, मेवाड़गाथा, नीति कविता, कविता कुसुम माला, साहित्य सेवा, चरित माला, बाल विनोद, रघुवंश सार, कृषक बाल सखा, जंगली रानी, प्रवासी तथा जीवन ज्योति। दो मित्र आपका उपन्यास है। पंडित मुकुटधर पांडेय, लोचन प्रसाद के लघु भ्राता थे जिन्होंने छायावाद काव्यधारा का सूत्रपात किया। वे पद्मश्री से सम्मानित होने वाले छत्तीसगढ़ के प्रथम मनीषी हैं। पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की झलमला को हिन्दी की पहली लघुकथा मानी जाती है। इन्होंने ग्राम गौरव, हिन्दी साहित्य विमर्श, प्रदीप आदि कृति रचकर हिन्दी साहित्य में अतुलनीय योगदान दिया। छत्तीसगढ़ के शलाका पुरुष बख्शी जी विषय में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उन्होंने सरस्वती जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का सम्पादन किया। रामकाव्य के अमर रचनाकार डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ने कौशल किशोर, साकेत संत, रामराज्य जैसे ग्रंथ लिखकर चमत्कृत किया। निबंधकार मावली प्रसाद श्रीवास्तव का कवित्व छत्तीसगढ़ की संचेतना को प्रमाणित करती है। इंग्लैंड का इतिहास और भारत का इतिहास उनकी चर्चित कृतियाँ हैं। उनकी रचनाएँ सरस्वती, विद्यार्थी, विश्वमित्र, मनोरमा, कल्याण, प्रभा, श्री शारदा जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में समादृत होती रही हैं । छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास निबंध सरस्वती के मार्च १९१९ में प्रकाशित हुआ था, जो छत्तीसगढ़ को राष्ट्रीय पहचान प्रदान करता है । प्यारेलाल गुप्त छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ रचनाकारों में एक हैं जिन्होंने सुधी कुटुम्ब (उपन्यास) आदि उल्लेखनीय कृतियाँ हमें सौंपी। द्वरिका प्रसाद तिवारी विप्र की किताब गांधी गीत, क्रांति प्रवेश, शिव स्मृति, सुराज गीत (छत्तीसगढ़ी) हमारा मार्ग आज भी प्रशस्त करती हैं। काशीनाथ पांडेय, धनसहाय विदेह, शेषनाथ शर्मा शील, यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव, पंडित देवनारायण, महादेव प्रसाद अजीत, शुक्लाम्बर प्रसाद पांडेय, पंडित गंगाधर सामंत, गंभीरनाथ पाणिग्रही, रामकृष्ण अग्रवाल भी हमारे साहित्यिक पितृ-पुरुष हैं।

टोकरी भर मिट्टी का नाम लेते ही एक विशेषण याद आता है और वह है – हिन्दी की पहली कहानी। इस ऐतिहासिक रचना के सर्जक हैं – माधव राव सप्रे।पंडित रविशंकर शुक्ल मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री मात्र नहीं थे, उन्होंने आयरलैण्ड का इतिहास भी लिखा था। पंडित राम दयाल तिवारी एक योग्य समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। शिवप्रसाद काशीनाथ पांडेय का कहानीकार आज भी छत्तीसगढ़ को याद आता है।

मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले कवि हैं। वे कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उनकी विश्व प्रसिद्ध कृतियाँ हैं – चांद का मुँह टेढा़ है, अंधेरे में, एक साहित्यिक की डायरी। इस कालक्रम के प्रमुख रचनाकार रहे - घनश्याम सिंह गुप्त, बैरिस्टर छेदीलाल ।

आधुनिक काल में श्रीकांत वर्मा राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रतिष्ठित कवि की छवि रखते हैं, जिनकी प्रमुख कृतियाँ माया दर्पण, दिनारम्भ, छायालोक, संवाद, झाठी, जिरह, प्रसंग, अपोलो का रथ आदि हैं। हरि ठाकुर सच्चे मायनों में छत्तीसगढ़ के जन-जन के मन में बसने वाले कवियों में अपनी पृथक पहचान के साथ उभरते हैं। जिनका सम्मान वस्तुतः छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के संघर्ष का सम्मान है। उन्होंने कविता, जीवनी, शोध निबंध, गीत तथा इतिहास विषयक लगभग दो दर्जन कृतियों के माध्यम से इस प्रदेश की तंद्रालस गरिमा को जगाया है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – गीतों के शिलालेख, लोहे का नगर, अंधेरे के खिलाफ, हँसी एक नाव सी। गुरुदेव काश्यप, बच्चू जांजगीरी, नारायणलाल परमार, हरि ठाकुर के समकालीन कवि हैं।

प्रमोद वर्मा की तीक्ष्ण और मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का जिक्र न करना बेमानी होगा । हिंदी रंग चेतना में हबीब तनवीर की रंग चेतना की गंभीर हिस्सेदारी स्थायी जिक्र का विषय हो चुका है ।

छत्तीसगढ़ के रचनाकारों ने सिर्फ़ कविता, कहानी ही नहीं उन तमाम विधाओं में अपनी सार्थक उपस्थिति को रेखांकित किया है जिससे हिंदी भाषा और उसकी संस्कृति समृद्ध होती रही है । आज की लोकप्रिय विधा लघुकथा का जन्म यहीं हुआ । हिंदी की पहली लघुकथा इसी ज़मीन की उपज है । यहाँ मैं उन सभी को स्मरण करते हुए खास तौर पर उर्दू की समानान्तर धारा की बात करना चाहता हूँ जिन्होंने देवनागरी को आजमाकर अपनी हिंदी-भक्ति को चरितार्थ किया । इसमें ग़ज़लकार मौलाना अब्दुल रउफ महवी रायपुरी, लाला जगदलपुरी, स्व. बंदे अली फातमी, स्व. मुकीम भारती, स्व. मुस्तफा हुसैन मुश्फिक, शौक जालंधरी, रजा हैदरी, अमीर अली अमीर की शायरी को क्या आम आदमी भूला सकता है ।

हिंदी की साहित्यिक दुनिया में राज्य के अधिवासी रचनाकारों के भावों, शैलियों की क्रांतिकारिता के तमाम जादुई प्रभावों और अनुसरणों को नमन करते हुए फिलहाल मैं हमारे अपने समय के एक बड़े आलोचक आदरणीय विश्वनाथ तिवारी के (किसी साक्षात्कार में उल्लेखित विचार) का जिक्र करते हुए यह भी कहना प्रांसगिक समझता हूँ – कि आज के समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में अतिवाद जब शीर्षस्थ है और यह भी कि ऐसे अतिवादों से छत्तीसगढ़ जैसा भूभाग कहीं अधिक ग्रस्त रहा है तब ऐसे समय में मेरे मन में और कदाचित् हिंदी की दुनिया के व्याकरणाचार्यों का मन भी क्या आकुल-व्याकुल नहीं होगा कि भूगोल से साहित्यिकी का आखिर कैसा संबंध है ? ऐसे प्रश्नों के जवाब देने की पहल भी इसी भूगोल से होनी चाहिए ।

खैर.... हिन्दी के साथ हम छत्तीसगढ़ी भाषा के रचनाकारों का स्मरण न करें तो यह अस्पृश्य भावना का परिचायक होगा। कबीर दास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत 1520) धनी धर्मदास को छत्तीसगढ़ी के आदि कवि का दर्जा प्राप्त है, छत्तीसगढ़ी के उत्कर्ष को नया आयाम दिया – पं. सुन्दरलाल शर्मा, लोचन प्रसाद पांडेय, मुकुटधर पांडेय, नरसिंह दास वैष्णव, बंशीधर पांडेय, शुकलाल पांडेय ने। कुंजबिहारी चौबे, गिरिवरदास वैष्णव ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में अपनी कवितीओं की अग्नि को साबित कर दिखाया। इस क्रम में पुरुषोत्तम दास एवं कपिलनाथ मिश्र का उल्लेख भी आवश्यक होगा। वर्तमान में छत्तीसगढ़ी रचनात्मकता भी लगातार जारी है । पर उसे समय के शिला पर कसौटी में कसा जाना अभी प्रतीक्षित है ।

यहाँ मैं अपनी संपूर्ण सदाशयता और विनम्रता के साथ यह भी कहना चाहूँगा कि यह योगदान कर्ताओं का सूचीकरण नहीं है । फिर मैं साहित्य का इतिहास लेखक भी नहीं हूँ बल्कि सच तो यह भी है कि मैं साहित्य का विद्यार्थी होने का दावा भी नहीं कर सकता । आखिर मैं ठहरा समाचार-जीवी । समाचारों के बीच स्वयं की तलाश करने वाला पत्रकार । मैं और आप स्वयं जानते हैं कि इस हॉल(सभाकक्ष) में और इस समय भी अपनी निजता के साथ देशभर में पढ़े लिखे जाने वाले सु-नामी बिराजे हुए हैं और जिनपर हमें ही नहीं समूचे हिंदी संसार को इस समय गर्व हो सकता है । सिर्फ इतना ही नहीं यहाँ ऐसे रचनाकार भी बैठे हुए हैं जिन्हें भले ही आज की कथित भारतीय रचनाकार बिरादरी नहीं जानती पर वे भी कई देश की सीमाओं को लाँघकर दर्जनों देशों के हजारों पाठकों के बीच जाने जाते हैं । ये सब के सब हमारे वर्तमान के ही संस्कृतिकर्मी नहीं बल्कि हमारे अतीत में पैठे हुए उन सभी नक्षत्रों की तरह हैं जो भावी समय के खरे होने की गारंटी देते हैं ।

अपनी बात के अंतिम चरण में यह बताते हुए बड़ा ही हर्ष हो रहा है कि भले ही मेरे दादा और रचनाधर्मी स्वर्गीय पं. बृजलाल द्विवेदी जी की कर्मभूमि उत्तरप्रदेश है पर छत्तीसगढ़ उनकी याद के बहाने किसी बड़े कृतिकार के कृतित्व को रेखांकित करने की स्थायी भूमि होगी । और यह आयोजक होने के नाते मेरे लिए गर्व का भी विषय होगा । आखिर उत्तरप्रदेश हिंदी के उज्ज्वल भूगोल के जनपद हैं । और यह सखाभाव दोनों में अनवरत बना रहेगा । यही सखाभाव आज की वैश्विक खतरों से जूझने की भी वैचारिकी हो सकता है कि समानधर्मा जनपद एक लय मे स्वयं को विन्यस्त करते रहें ।

अब तक मैं आपका बहुत समय ले चुका हूँ । परन्तु मैं समझता हूँ कि मुझे इतनी बात रखने का हक़ आपकी ओर से था क्योंकि आपने सदैव हमारी संस्था को अपना धैर्य और संबल दिया है । मै सभी पुनः का स्वागत करते हुए नमन करता हूँ। (पं.बृजलाल द्विवेदी अंलकरण समारोह-2008 में दिया गया स्वागत भाषण, मई 25, 2008, संस्कृति विभाग, रायपुर का सभागार)

मंगलवार, 13 मई 2008

पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति सम्मान समारोह 25 को



0 साहित्यिक पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिए अलंकृत होंगे डा. तिवारी

रायपुर। साहित्यिक पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिए 'दस्तावेज’ (गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किए जाएंगे। 25 मई, 2008 को शाम 6.00 बजे रायपुर स्थित महंत घासीदास स्मृति संग्रहालय सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रख्यात लेखक विनोद कुमार शुक्ल होंगे तथा अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार हिमांशु द्विवेदी करेंगे। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, कवि अष्टभुजा शुक्ल, कथाकार जया जादवानी समारोह के विशिष्ट अतिथि होंगे। इस अवसर पर सम्मानित संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी “साहित्यिक पत्रकारिता की जगह” विषय पर मुख्य व्याख्यान देंगे।


पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समिति की संयोजक भूमिका द्विवेदी ने बताया है कि वर्ष 2007 के सम्मान हेतु डा. तिवारी के नाम का चयन पाँच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने किया, जिसमें सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव, विजयदत्त श्रीधर, रमेश नैयर, सच्चिदानंद जोशी और गिरीश पंकज शामिल हैं। डा. तिवारी को यह सम्मान साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाओं और श्रेष्ठ संपादन के लिए दिया जा रहा है। उन्होंने बताया कि हिंदी की स्वस्थ साहित्यिक पत्रकारिता को समादृत करने के उद्देश्य से इस पुरस्कार की शुरुआत की गई है। इस राष्ट्रीय सम्मान के अंतर्गत किसी साहित्यिक पत्रिका का श्रेष्ठ संपादन करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रुपए नगद, शाल, श्रीफल, सम्मान पत्र एवं प्रतीक चिन्ह देकर समारोहपूर्वक सम्मानित किया जाता है। गत वर्ष यह सम्मान 'वीणा (इंदौर) के संपादक रहे डा. श्याम सुंदर व्यास को दिया गया था। इस वर्ष सम्मान के लिए चयनित डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी गोरखपुर से प्रकाशित हो रही साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका 'दस्तावेज के संपादक हैं। यह पत्रिका रचना और आलोचना की विशिष्ट पत्रिका है, जो 1978 से नियमित प्रकाशित हो रही है। इसके लगभग दो दर्जन विशेषांक प्रकाशित हुए हैं, जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। 1940 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद में जन्मे डा. तिवारी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। डा. तिवारी की प्रकाशित पुस्तकों की श्रृंखला में आलोचना की नौ पुस्तकें, 6 कविता संकलन, दो यात्रा संस्मरण, एक लेखक संस्मरण, एक साक्षात्कार संकलन तथा 147 विभिन्न पुस्तकों का संपादन शामिल है। साथ ही उनकी कई रचनाओं का विदेशी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, भारत मित्र संगठन मास्को द्वारा पुस्किन सम्मान मिल चुका है। उनके द्वारा संपादित पत्रिका 'दस्तावेज को सरस्वती सम्मान भी मिल चुका है।

शुक्रवार, 9 मई 2008

भरोसे का नाम है वाजपेयी



भारतीय लोकतंत्र के छ: दशक के इतिहास में उन सा नायक खोजने पर भी नहीं मिलता। वे सिर्फ़ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे भारत के तीन बार प्रधानमंत्री रहे हैं, दरअसल वे खास इसलिए हैं कि उन्होंने देश में दक्षिणपंथ की राजनीति को न सिर्फ़ लोक स्वीकृति दिलाई, वरन वे उसके नायक और उन्नायक दोनों बने। अपने लोक व्यवहार और प्रांजल भाषणशैली से पूरे देश को लंबे समय तक मोहते रहने वाले श्री अटल बिहारी वाजपेयी आज भी जनता के दिलों में राज करते हैं, तो इसका विश्लेषण बहुत सहज नहीं है।



बहुत साधारण परिवार से आकर अपने संस्कारों, कार्यक्षमता और विचारधारा के प्रति समर्पण तथा सातत्य से उन्होंने जो जगह बनाई है, वह अप्रतिम और अभूतपूर्व है। भारत का संसदीय इतिहास उनके उल्लेख के बिना अधूरा रह जाएगा। कवि हृदय, संवेदनशील राजनेता के रूप में उनकी ऊंचाई आज भी नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन का कारण है। राजनीति में आने वाले तमाम लोग आज भी उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लेते हैं। अपनी लंबी आयु और प्राय: खराब रहने वाले स्वास्थ्य के बावजूद वे आज भी भारत के प्रधानमंत्री पद के लिए आम जनता के बीच सबसे लोकप्रिय नाम हैं। इसका कारण सिर्फ़ यह है कि वे भारत की विविध भाषा-भाषी और विविध संस्कृतियों में रची-बसी अस्मिता को पहचानते हैं और आम हिंदुस्तानी उन पर भरोसा करता है। भारतीय संसद के दोनों सदनों में सांसद के रूप में उनकी उपस्थिति बहुत गंभीरता से ली जाती रही। वे जब सदन में खड़े होते हैं, तो पक्ष और विपक्ष दोनों उन्हें सुनना चाहते हैं, क्योंकि श्री वाजपेयी बेहद सहज और सरल भाषा में कठिन से कठिन मुद्दों का भी जैसा विश्लेषण करते हैं, उससे विषय बहुत आसान नज़र आने लगते हैं। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है और राष्ट्रनिष्ठा को वे हर प्रकार की राजनीति से ऊपर मानते हैं। उनकी यही दृढ़ता उन्हें भारतीय राजनीति में एक विशिष्ट जगह दिलाती है। ग्वालियर में एक अध्यापक के परिवार में जन्म लेकर राजनीति के शिखर पर पहुँचना इतना आसान नहीं था और वह भी एक ऐसी विचारधारा के साथ जो उन दिनों बेहद संघर्ष में थी तथा जनसंघ के रूप में पार्टी की शुरुआत हो रही थी। वे कानपुर में पढ़ाई के दौरान ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संपर्क में आए। इसके बाद तो विचारधारा के प्रति इस तरह समर्पित हुए कि वे उसी के होकर रह गए। लखनऊ से पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश पत्रों का प्रकाशन हुआ, तो वे उसके संपादक बने। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का आशीर्वाद उन्हें मिलता रहा और वे एक ऐसे पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे, जो प्रखर राष्ट्रवाद का प्रवक्ता बन गया। बाद में श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर आंदोलन के दौरान शहादत के बाद श्री वाजपेयी जनसंघ में शामिल हो गए। इसके बाद जनसंघ ही उनका जीवन बन गया। पार्टी की अहर्निश सेवा और लगातार दौरों ने उन्हें देश का एक लोकप्रिय व्यक्तित्व बना दिया। जब वे पहली बार संसद पहुँचे, तो उनकी वक्रता से संसद भी प्रभावित हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी श्री वाजपेयी की तारीफ की। इसके बाद श्री वाजपेयी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने लक्ष्य के लिए समर्पण और लगातार कार्य ही उनका उद्देश्य बन गया। ध्येय पथ पर चलने की ऐसी मिसाल शायद ही दूसरी हो। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने अपना भौगोलिक विस्तार तो किया ही, वैचारिक दृष्टि से भी उसके विचार आम जनता तक पहुँचे। वाजपेयी की भाषण कला इसमें सहयोगी साबित हुई। लोग उनके भाषणों के दीवाने हो गए। उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई और प्रधानमंत्री के रूप में वे पार्टी के ही नहीं, तमाम लोगों की आकांक्षाओं के केंद्र बन गए। उन दिनों पार्टी की स्थिति संसदीय लोकतंत्र को बहुत प्रभावित करने की नहीं थी। बावजूद इसके देश के जनमन में श्री वाजपेयी के प्रति भरोसा बढ़ता गया और लोग चाहने लगे कि वे एक बार देश के प्रधानमंत्री ज़रूर बनें। इस बीच देश में आपातकाल लग गया और श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ एक बड़े आंदोलन का प्रारंभ हुआ। श्री वाजपेयी समेत देश के सभी बड़े विपक्षी नेता जेल में डाल दिए गए। आपातकाल विरोधी शक्तियों के समन्वय से जनता पार्टी का गठन हुआ, जिसे बाद में सरकार बनाने का मौका भी मिला। इस सरकार में श्री वाजपेयी विदेश मंत्री बनाए गए। उनके विदेश मंत्री के रूप में किए गए कार्यों की आज भी सराहना होती है। उन्होंने विश्व मंच पर भारत की एक खास पहचान बनाई। बावजूद इसके जनता पार्टी का प्रयोग विफल रहा और सरकार कार्यकाल पूरा न कर सकी। इसके बाद 1980 में जनता पार्टी से अलग होकर जनसंघ घटक के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। भाजपा के प्रथम अध्यक्ष श्री अटल बिहारी वाजपेयी बनाए गए। इसके बाद श्री वाजपेयी और श्री लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने भाजपा को फिर से खड़ा करना प्रारंभ किया। वाजपेयी वैसे भी सम्मोहित कर देने वाले वक्ता हैं, जो लोगों के दिलो-दिमाग में हलचल मचा देता है। वे एक स्वप्नद्रष्टा तो हैं ही और उनके हाव-भाव सम्मोहित कर देने वाले हैं। भारतीय जनता पार्टी को प्रारंभ में साधारण सफलताएं ही मिलीं, किंतु पार्टी को मिले असाधारण नेतृत्व ने इन सामान्य सफलताओं को आगे चलकर बड़ी सफलताओं में बदल दिया। सबको साथ लेकर चलने की क्षमताओं के नाते वाजपेयी वैसे ही लोगों के चहेते हैं। शायद इसी के चलते वे देश में पहली स्थिर गैर कांग्रेसी सरकार चलाने में सफल रहे। उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में मिले कार्यकाल में देश में अनेक महत्वपूर्ण योजनाएं प्रारंभ हुईं। उनकी सरकार ने लगभग 24 दलों को साथ लेकर चलने का जादू कर दिखाया। यह वाजपेयी के नेतृत्व का ही कमाल था कि पहली बार ऐसा प्रयोग दिल्ली में सफल रहा। अब जबकि वाजपेयी सक्रिय राजनीति से अलग होकर पार्टी की सर्वोच्च नेता और कुलपिता की भूमिका में हैं, उनका आदर और सम्मान आज भी कम नहीं हुआ है। शायद इसलिए कि वे आम जनता में पार्टी के सबसे बड़े प्रतीक हैं।


भाजपा के पास डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी जैसा समर्थ और आदरणीय व्यक्तित्वों की पूरी परंपरा मौजूद है। सही अर्थों में वाजपेयी डा. मुखर्जी और पंडित उपाध्याय की परंपरा के सच्चो उत्तराधिकारी हैं। दायित्वबोध के साथ राष्ट्रवाद का ऐसा समुच्चय साधारणतया देखने में नहीं आता। राजनीति में रहकर भी राजनीति के राग-द्वेष से मुक्त रहना साधारण नहीं है। श्री वाजपेयी ने पार्टी और राष्ट्र को ही अपना सब कुछ माना और इसके भवितव्य के लिए ही उनका पूरा जीवन समर्पित रहा। आज जबकि राजनीति में अनैतिकता, भ्रष्टाचार और तमाम तरह के कदाचरण प्रभावी होते जा रहे हैं श्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्तित्व का होना राहत देता है। वे विश्वास की एक ऐसी पूंजी हैं, जो कार्यकर्ताओं के हिलते हुए आत्मविश्वास का सहारा है। ऐसे ही संकल्पवान और नैतिक व्यक्तित्व, विचारधारा से जुड़े राजनैतिक कार्यकर्ताओं को यह संबल देते हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। विश्वास और नैतिकता की यह डोर एक वैचारिक दल का सबसे बड़ा सहारा है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग इस विश्वास को और मजबूत करते हैं और भरोसा जगाते हैं कि आने वाला समय वैचारिक तथा नैतिक राजनीति का समय वापस लाएगा। आज की भारतीय जनता पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं के लिए वाजपेयी सिर्फ़ एक जीवंत इतिहास नहीं हैं, वे चुनौती भी हैं, क्योंकि वाजपेयी दिखते भले साधारण हों, वे एक असाधारण राजनेता हैं। उन सा होना, उन सा जीना, उन सा करना, उन सा दिखना सरल नहीं है। वे वाणी और जीवन में साम्य का एक ऐसा उदाहरण हैं, जो अपने विश्वासों के लिए जीता है और उन्हीं के आधार पर जीतता भी आया है। आज जबकि राजनीतिक दलों के सामने विश्वास का संकट खड़ा है, आम जनता के मन में राजनेताओं के प्रति एक गहरा अवसाद और निराशा भाव घर कर गया है वाजपेयी जैसे नाम हमें राहत देते हैं। वे राजनीतिक क्षेत्र की एक ऐसी प्रेरणा हैं, जिसकी चमक कभी भी खत्म नहीं होगी।

मंगलवार, 6 मई 2008

दौरे से मिली नई दिशा


0 छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी का दो दिवसीय प्रवास 0


कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी का दो दिवसीय छत्तीसगढ़ दौरा जहां प्रदेश कांग्रेस को स्फूर्ति दे गया, वहीं कई अलग तरह के संदेश भी छोड़ गया। देश को जानने और फिर संगठन में जोश फूंकने के लिए निकले युवा नायक के लिए यह दौरा एक ऐसा प्रसंग था जिसने उन्हें तमाम जमीनी हकीकतों के सामने खड़ा किया। राहुल गांधी के लिए छत्तीसगढ़ का दौरा बेहद भावनात्मक क्षण इसलिए भी था कि उनके पिता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के प्रति एक खास स्नेह रखते थे। राजीव ने भी अपने शुरूआती दिनों में इन क्षेत्रों का दौरा कर आदिवासी समाज की स्थिति को परखने का प्रयास किया था। जाहिर है राहुल गांधी के लिए यहां के हालात चौंकाने वाले ही थे। आजादी के 60 सालों के बाद आदिवासी जीवन की विषम परिस्थितियां और बस्तर के तमाम क्षेत्रों में हिंसा का अखंड साम्राज्य उन्हें नजर आया।

राहुल गांधी ने इस दौरे में आदिवासी समाज की जद्दोजहद और जिजीविषा के दर्शन तो किए ही अपने संगठन को भी परखा। उन्हें यह बात नागवार गुजरी कि आदिवासी इलाकों में उनके संगठन में आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व उस तरह से नहीं है, जितना होना चाहिए। उन्होंने यह साफ संकेत दिए कि कांग्रेस संगठन के सभी संगठनों में आदिवासी और दलित वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। कांग्रेस के नए नायक को जमीनी हकीकतों का पहले से पता था। शायद इसीलिए वे अपने संगठन की सामाजिक अभियांत्रिकी को दुरूस्त करना चाहते हैं। कांकेर में पत्रकारों से बातचीत करते हुए राहुल ने स्वयं को युवराज कहे जाने पर भी आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि यह शब्द सामंती समाज का प्रतीक है और एक प्रजातांत्रिक देश में यह शब्द अच्छा नहीं लगता। बस्तर, कांकेर और सरगुजा जिलों के दौरे के बाद राहुल क्या अनुभव लेकर लौटे हैं, इसे जानना अभी शेष है। आने वाले दिनों में जब छत्तीसगढ़ में विधानसभा, फिर लोकसभा के चुनाव होने हैं, तब कांग्रेस संगठन की परीक्षा होनी है। पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य की 11 सीटों में सिर्फ एक ही कांग्रेस के हाथ लगी थी। बाद में राजनांदगांव लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के देवव्रत सिंह ने सीट जीतकर जरूर यह संख्या दो कर दी। बावजूद इसके कभी कांग्रेस के गढ़ रहे छत्तीसगढ़ में इस समय भाजपा की सरकार है। इस गढ़ को तोड़ना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी और उसके मुख्यमंत्री अपनी सरकार की वापसी के लिए आश्वस्त दिखते हैं। यह साधारण नहीं है कि दो वर्षों पूर्व अध्यक्ष बने डा. चरणदास महंत आज तक अपनी राज्य कार्यकारिणी की घोषणा तक नहीं कर सके हैं। कांग्रेस राज्य में टुकड़ों में बंटी है और आपसी खींचतान आसमान पर है। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी भले ही अलग-थलग पड़ गए हों पर उनकी ताकत कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में तो सक्षम है ही। दूसरी ओर चरणदास महंत बिना सेना के सेनापति बने हुए हैं। ऐसे में राहुल गांधी के सामने छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों में जोश फूंकने के अलावा उन्हें एकजुट करने की चुनौती भी है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी की सरकार में आदिवासी, दलित और गरीब तबके को ध्यान में रखकर कई योजनाएं शुरू की हैं, जिसमें तीन रूपए किलो चावल की योजना प्रमुख है। इससे भाजपा इन क्षेत्रों में पुन: अपनी जीत सुनिश्चित मान रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में बस्तर और सरगुजा क्षेत्रों में भाजपा को व्यापक सफलता मिली थी। इसी को देखते हुए राहुल गांधी ने आदिवासी क्षेत्रों को ही केंद्र में लिया है। वे शहरी इलाकों के बजाय आदिवासी क्षेत्रों पर ही फोकस कर रहे हैं। इससे पार्टी को उम्मीद है कि आदिवासी क्षेत्रों में पुन: कांग्रेस की वापसी संभव हो सकती है और उससे दूर जा चुका आदिवासी वोट बैंक फिर से उनकी झोली में गिर सकता है। राहुल के दौरे को खास तौर से इसी नजरिए से देखा और व्याख्यायित किया जा रहा है।

25 अप्रैल, 2008 को जब वे अपनी भारत खोज यात्रा के तहत अंबिकापुर के दरिमा हवाई अड्डे पर उतरे तो वे लगातार अपनी पूरी यात्रा में इस बात का अहसास कराते रहे कि उनकी निगाह में आदिवासी समाज की कीमत क्या है। अंबिकापुर से विश्रामपुर और सूरजपुर के रास्ते के बीच सड़क किनारे आदिवासियों के हुजूम के बीच उन्होंने जा-जाकर उनकी समस्याएं पूछी। अंबिकापुर और विश्रामपुर के बीच पड़ने वाले लेंगा गांव में एक आदिवासी परिवार के साथ खाना भी खाया। इसी दिन शाम को 6 बजकर दस मिनट पर वे जगदलपुर में थे। अगले दिन जगदलपुर में भी उन्होंने आदिवासी बहुल ग्राम जमावाड़ा में आदिवासियों से घुल-मिलकर चर्चा की। आदिवासी समाज के लोग गांधी परिवार के इस नायक को अपने बीच पाकर भावुक हो उठे। कुल मिलाकर राहुल गांधी का छत्तीसगढ़ दौरा कांग्रेस संगठन में एक नया जोश फूंकने और आदिवासी समाज को एक नया संदेश देने में सफल रहा।


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उम्मीद है उनसे
0 राहुल छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद पहली बार वे यहां आए। इससे एक ओर वे जहां राज्य के दलितों, आदिवासियों, तथा पिछड़ेवर्ग के लोगों की समस्याओं को देखा और समङाा। वहीं दूसरी ओर उनकी यात्रा से राज्य के एनएसयूआई एव युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धन भी हुआ। जिसका फायदा कांग्रेस पार्टी को आगामी चुनाव में मिलेगा। गांधी परिवार हमेशा से ही आदिवासियों, दलितों एवं पिछडेवर्ग का हिमायती रहा है। राहुल गांधी जिस सादगी के साथ लोगों के बीच में जाकर उनकी समस्याएं सुनते हैं, उसका व्यापक प्रभाव यहां के जनमानस पर पड़ेगा।
-डॉ. चरणदास महंत, अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ कांग्रेस

0 वे जिस लगन के साथ आम जनता के बीच पहुंचे, यह एक बहुत अच्छी बात है। एक युवा नेता होने के नाते इससे उन्हें छत्तीसगढ़ को जानने एवं समङाने का मौका मिला। यह छत्तीसगढ़ की जनता के लिए गौरव का विषय है। यद्यपि इसका सीधे तौर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन इससे युवाओं में एक नए उत्साह का संचार हुआ, जिसका लाभ आनेवाले आम चुनाव में पार्टी को मिलेगा।
-विद्याचरण शुक्ल, पूर्व केद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ नेता

0 राहुल गांधी उड़ीसा एवं कर्नाटक की यात्रा के बाद छत्तीसगढ़ आए। जिसका लाभ यहां की जनता को अवश्य मिलेगा। उनको यहां चल रही योजनाओं की जमीनी हकीकत के साथ यह भी पता चलेगा कि केन्द्र सरकार की योजनाओं का नाम बदल कर किस प्रकार राज्य सरकार इस योजना का पैसा उस योजना में लगा रही है। उनकी इस यात्रा से यहां हो रहे भ्रष्टाचार का मामला खुलकर सामने आया, जिसका लाभ बाद में ही सही लेकिन आम जनता को मिलेगा।
-मोतीलाल वोरा, कोषाध्यक्ष, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी

0 राहुल गांधी की यात्रा से हमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की यात्रा याद आई। इससे उनको देश को समङाने एवं करीब से देखने का मौका मिला। यह देश की जनता एवं स्वयं राहुल गांधी दोनों के लिए लाभदायक है, क्योंकि यही जानकारियां बाद में काम आएंगी। उनकी सरगुजा से बस्तर तक की यात्रा काफी महत्वपूर्ण है। आदिवासियों की बस्तियों में जाकर उनकी जानकारी लेना, वह भी राहुल गांधी द्वारा, स्वयं एक बहुत बड़ी बात है। जिसका राजनैतिक दृष्टिकोण से पार्टी को काफी लाभ मिलेगा।
-अरविन्द नेताम, पूर्व केन्द्रीय मंत्री

0 राहुल आदिवासियों के बीच पहुंचे। यह एक बड़ा अवसर है, जब राजीव गांधी के बाद कोई युवा नेता आदिवासियों के इतने करीब पहुंचा। उनकी इस यात्रा से चुनाव के पूर्व एक आपसी सदभावना का जो माहौल बनेगा, नि:संदेह उसका लाभ पार्टी को मिलेगा।
-अजीत जोगी, पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद

0 उनके छत्तीसगढ़ प्रवास से राज्य में चतुर्दिक उत्साह का माहौल व्याप्त है। हमेशा से ही आदिवासियों एवं दलितों व पिछड़ेवर्ग के लोगों को गांधी परिवार का विशेष स्नेह प्राप्त रहा है। उनके प्रवास से यहां के कार्यकर्ताओं में एक नए उत्साह का संचार हुआ है। जिसका फायदा आगामी आम चुनाव में पार्टी को निश्चित रूप से प्राप्त होगा।
-सत्यनारायण शर्मा, पूर्व शिक्षा मंत्री

बुधवार, 30 अप्रैल 2008

कलम हुए हाथ


गिरीश पंकज ने जब 1997 में एक बड़े दैनिक अख़बार की नौकरी से अलविदा कह कर अकेले चलने का फैसला किया तो उनके चाहने वालों ने भी इसे एक बेवकूफ़ी ही माना। 2007 में पहुंच कर हमें अगर आज उनका फैसला जायज लग रहा है तो इसके पीछे उनका संघर्ष ही है। गिरीश पंकज ने साबित किया कि दैनिक पत्रकारिता से हट कर भी कोई पत्रकार अपनी अर्थवत्ता बचाए और बनाए रख सकता है। कोई नौकरी न करते हुए सिर्फ मसिजीवी हो कर जीना हिन्दी में कितना कठिन है, इसे सब जानते हैं। पंकज ने इसे संभव कर दिखाया। वे हमारे बीच छत्तीसगढ़ के इकलौते पूर्णकालिक लेखक हैं।

दैनिक पत्रकारिता से अलग हो कर जैसे गिरीश पंकज के लिए सारा जहां एक घर हो गया। देश-देशांतर को नापते हुए पंकज, तेजी से किताबें लिखते हुए पंकज, छत्तीसगढ़ राज्य और देश की तमाम प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हुए पंकज, मंचों पर अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान बिखेरते हुए पंकज, ऐसी न जाने कितनी छवियां आज उनके नाम से चिपकी हुई हैं। पंकज के हाथ कलम हो गए हैं, जिसे उन्होंने लिखने की मशीन में बदल दिया है। समय का जितना सार्थक और रचनात्मक उपयोग वे कर रहे हैं उसके चलते उनसे सिर्फ ईर्ष्या की जा सकती है। पर पंकज गजब हैं। वे टाटा के ट्रक में बदल गए हैं, जिनके पीछे लिखा हुआ है - 'जलो मत मुकाबला करो।

पंकज ने जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया है वह 'सद्भावना दर्पण का प्रकाशन। इससे उनकी न सिर्फ देशव्यापी पहचान बनी वरन दस सालों से लगातार प्रकाशित हो रही इस पत्रिका ने देश-विदेश के तमाम महत्वपूर्ण साहित्य को अनूदित कर हिन्दी में उपलब्ध कराने का काम किया। सद्भावना की इस यात्रा ने गिरीश पंकज को एक ऐसे संपादक में बदल दिया जिसने एक नए परिवेश के साथ हिन्दी जगत को वह सामग्री उपलब्ध कराई जो दुर्लभ थी। सद्भावना के कई विशेषांक पंकज की इस खूबी को रेखांकित करते हैं।

पंकज मानते हैं कि वे गांधी से बहुत प्रभावित हैं। पर उनका पूरा लेखन उन्हें कबीर के आसपास खड़ा करता है। जिससे पंकज लोगों पर उंगली उठाते नजर आते हैं। मूलत: व्यंग्यकार होने के नाते यह उनकी मजबूरी भी है। यही पंकज की सीमा भी है, यही उनका सामर्थ्य भी। अपने दो व्यंग्य उपन्यासों 'मिठलबरा और 'माफिया के चलते वे चर्चा और विवादों के केन्द्र में भी आए। उनके पात्र पत्रकारिता और साहित्य के संदर्भों से ही उठाए गए हैं। जाहिर है पंकज को तारीफ के साथ ताने भी मिले। इसकी परवाह पंकज को नहीं है। अब वे 'बालीवुड की अप्सरा नामक एक महत्वपूर्ण उपन्यास लिख रहे हैं। इसमें छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्रीय अंचलों में सिनेमा के नाम पर क्या कुछ चल रहा है इसकी झलक मिलेगी। वहीं जब वे पत्रकारीय टिप्पणियां लिख रहे होते हैं तो उनका व्यंग्यकार उनके अखबारी लेखन को समृध्द करता है।

दो नावों की यह सवारी पंकज को कभी भारी नहीं पड़ी। इसका उन्हें फायदा ही मिला। एक पत्रकार होने के नाते जहां वे तत्कालीन संदर्भों में रचना की तलाश कर लेते हैं वहीं अपनी रचना में पत्रकारी गुणधर्म के नाते आम आदमी से संवाद बना लेते हैं। इन अर्थों में पंकज का कवरेज एरिया बहुत ज्यादा है। अपने व्यक्तिगत जीवन में पंकज जितने सहज, अत्मीय, सहृदय और भोले दिखते हैं, लेखन में वे इसके उलट आचरण करते हैं। वहीं वे अन्याय, अत्याचार, शोषण, पाखंड, विषमता, विसंगतियों के खिलाफ जूझते नजर आते हैं। वे नंगे सच को कहने में यकीन रखते हैं। प्रिय सत्य बोलना उन्हें नहीं आता। शायद इसीलिए उन्हें कबीर की परंपरा से जोड़ना ज्यादा उचित है। कबीर का सच कड़वा ही होता है। उसे सुनने के लिए कलेजा चाहिए पंकज को दया का पात्र दिखना पसंद नहीं है। शायद इसीलिए वे ज्यादातर मित्रों की ईर्ष्या के पात्र हैं। पंकज के लिए रिश्ते ही सब कुछ नहीं है। दोस्ती के नाम पर खुशी-खुशी बेवकूफ बनना उन्हें गवारा है। वे रिश्तों में ऐसे रच-बस जाते हैं कि कुछ सूझता ही नहीं। दोस्ती और संबंधों में वे जितने सकारात्मक हो सकते हैं, उससे कहीं ज्यादा हैं। वे कभी-कभी बुरा लिख बोल तो सकते हैं, लेकिन बुरा कर नहीं सकते। उन्हें जानने वाले यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि पंकज का इस्तेमाल कितना आसान है। पंकज इसके लिए तत्पर भी रहते हैं। दोस्ती में फना हो जाना पंकज की आदत जो है।

पंकज ने लिखा और खूब लिखा है। खासकर बच्चों के लिए उन्होंने जो साहित्य रचा है, वह अद्भुत है। बंगला में हर बड़ा लेखक बच्चों के लिए जरूर लिखता है पर हिन्दी में यह परंपरा नहीं है। यहां बाल साहित्य लिखना दोयम दर्जे का काम है। पंकज ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है और एक अभाव की पूर्ति की है। उनका बालसुलभ स्वभाव उनकी अभिव्यक्ति को अधिक प्रवहमान बनाता है। उनकी बाल कविताएं एक ऐसे भविष्य का निर्माण करने की प्रेरणाभूमि बनती हैं, जिसे हम सब देखना चाहते हैं।

इसी तरह एक समर्थ व्यंग्यकार होने के नाते वे सामयिक संदर्भों पर चुटीली टिप्पणियां करने से भी नहीं चूकते। उनके तमाम व्यंग्य संग्रह एक समर्थ रचनाकार होने की गवाही देते हैं। पंकज ने मंचों पर भी कविताएं पढ़ी है। उनकी कविताओं में ओज भी है और लालित्य भी। लगातार विदेश यात्राओं ने उनके अनुभव संसार को अधिक समृध्द किया है और उनकी दृष्टि भी व्यापक हुई है। राजनैतिक संदर्भों पर उनकी टिप्पणियां समय-समय पर अखबारों में आती रहती है। जिसमें एक सजग नागरिक की चिंताएं दिखती हैं। अपनी अखबारी टिप्पणियों में पंकज एक गांभीर्य लिए हुए एक निश्चित संदेश देते हैं।

सलवा-जुडूम जैसे आंदोलनों पर उन्होंने शायद सबसे पहले सकारात्मक टिप्पणी की। समय के साथ संवाद की यह क्षमता उन्हें अपने समय का एक महत्वपूर्ण पत्रकार बनाती है। साहित्य के क्षेत्र में जा कर आम जनता के सवालों पर जिस संवेदनशीलता के साथ वे बातचीत करते हैं, वह उन्हें अलग दर्जा दिलाता है। मंचों पर उनकी टिप्पणियां आम लोगों का भी दिल जीत लेती है। क्योंकि वे सिर्फ और सिर्फ सच बोलना जाते हैं। बड़े से बड़ा आदमी अनुचित टिप्पणी कर बच नहीं सकता। बशर्ते पंकज को उसके बाद बोलना हो।

वे बड़े हो कर भी इतने सामान्य हैं कि उनकी साधारणता भी असाधारण बन गई है। भरोसा नहीं होता कि इतनी सहजता, सरलता और मृदुता से रसपगा यह व्यक्तित्व कभी-कभी अनुचित होता देख कर इतना उग्र क्यों हो जाता है। सच तो यह है कि पंकज सच की साधना करते हैं। सच और लोकाचार में उन्हें किसी एक का पक्ष लेना हो तो वे सत्य के पक्ष में खड़े होंगे। यह बात दावे से इसलिए कही जा सकती है क्योंकि पंकज किसी का लिखा झूठ भी बर्दाश्त नहीं कर सकते।

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

पहचान बनाने की जद्दोजहद




वह एक ऐसा इंसान है जो जो पिछले 32 सालों से रायपुर शहर की गरीब बस्तियों में धर्मार्थ चिकित्सा सेवा कर रहा है। वह है जो राज्य की अस्मिता के लिए सतत निगरानी करते हुए एक लेखक और संवेदनशील इंसान के तौर पर खुद को साबित कर रहा है। संघर्ष पर भरोसा उठने लगे तो इस आदमी की तरफ देखिएगा। वह बहुत दूर का नहीं, बहुत बड़ा भी नहीं, एक साधारण सा आदमी है जिसके खाते में असाधारण उपलब्धियां दर्ज हैं। जी हां, बात डा. राजेन्द्र सोनी की हो रही है। वे जिद और जिजीविषा का दूसरा नाम हैं। आयुर्वेद के चिकित्सिक हैं लेकिन उन्हें साहित्य की हर पैथी में हाथ आजमाने का शौक है। वे साहित्यकार हैं, चित्रकार हैं,व्यंग्यकार हैं,समाजसेवी हैं और न जाने क्या-क्या हैं।


राजेन्द्र जी को देख उनके खास होने का अंदाज नहीं होता,कारण वे ठेठ छत्तीसगढी मानस हैं जिसे न तो आत्मप्रचार आता है न ही मार्केटिंग की कलाएं। फिर भी उपलब्धिों के नाम पर उनके पास एक बड़ा आकाश है। वे छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकार ही नहीं हैं बल्कि लघुकथा को देश में स्थापित करने वाले कलमकारों में एक हैं। दावे की पुष्टि हो जाए तो शायद वे राज्य के प्रथम लघुकथाकार एवं हाइकू लेखक भी साबित हो जाएं। वे ऐसे लेखक नहीं हैं जो लिखकर मुक्त हो जाता है, वे मैदान के सिपाही हैं। जो राज्य की अस्मिता के नायक हरि ठाकुर के साथ छत्तीसगढ राज्य के निर्माण के आंदोलन में भी कूद पड़ता है तो अंधश्रध्दा के निर्मूलन के लिए गांव-गांव घूमकर ट्रिक्स प्रदर्शन और कानूनी कार्रवाई तथा चेतना जगाने का काम भी कर सकता है।


राजनांदगांव के घुमका गांव में 9 अगस्त,1953 को जन्में डा. सोनी के पिता रामलाल सोनी जन्मजात कलाकार थे। वे कई मूक फिल्मों जैसे राजा हरिश्चंद्र तारामती,वीर अभिमन्यु आदि में अभिनय कर चुके थे। वे अभिनय के साथ-साथ उच्चकोटि के जेवर निर्माता भी थे। ऐसे कलाधर्मी रूङाानों वाले पिता का प्रभाव डा. सोनी के जीवन पर साफ दिखता है। रामलीला में रोल करने के साथ-साथ मूर्तिकला, फाइनआर्ट, पेंटिंग पर भी राजेन्द्र सोनी ने अपने को आजमाया। छठवीं कक्षा से ही कविताएं लिखने का शौक लगा, जो आज तक साथ है। छत्तीसगढ राज्य की लोक संस्कृति पर उनका काम विलक्षण है। उनके द्वारा लिखे गए लगभग 150 आलेख इस विधा में एक प्रामाणिक उपलब्धि हैं। उनकी पहली कविता छत्तीसगढी सेवक में छपी , जिसे राजभाषा के अनन्य सेवक श्री जागेश्वर प्रसाद निकालते थे। दुखद यह कि छत्तीसगढी भाषा का यह अखबार अब बंद हो गया है। देश की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेखन से अपनी खास पहचान बनाने वाले डा. सोनी ने पहचान यात्रा नामक त्रैमासिक पत्रिका के प्रकाशन से राज्य में साहित्य की अलख जगाए रखी है। 1980 में उन्होंने साप्ताहिक के रूप में पहचान का प्रकाशन शुरू किया था। पहचान यात्रा का ऐतिहासिक प्रदेय यह है कि उसने राज्य के नामवर साहित्यकारों जैसे मुकुटधर पाण्डेय, नारायणलाल परमार,हरि ठाकुर जैसे लेखकों पर केंद्रित महत्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित किए।


लघुकथा पर लंबा और सतत काम करने वालों में राजेंद्र सोनी का प्रदेय रेखांकित करने योग्य है। वे लघुकथा के क्षेत्र में 1968 से कार्य कर रहे हैं। अपने पिता की स्मृति में देश में पहली बार लघुकथा लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने एक पुरस्कार की शुरूआत की । राष्ट्रीय स्तर पर लघुकथा आंदोलन को बल देने के लिए नवें दशक की लघुकथा नामक पुस्तक का संपादन प्रकाशन भी किया। इसके अलावा लगभग 50 लघुकथा संकलनों में संपादक रहे। सृजन सम्मान द्वारा आयोजित प्रथम अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन जो पिछले दिनों रायपुर में सम्पन्न हुआ का संयोजन आपने किया। डा. सोनी लंबे समय से पत्रकारिता से भी जुड़े रहे। अखबारों में एक कंपोजिटर से लेकर अपने स्वंत्रत बुलेटिन और पत्रिका के संपादन-प्रकाशन तक का काम उन्होंने किया। उनकी एक पुस्तक खोरबाहरा तोला गांधी बनाबो पर आपातकाल में प्रतिबंध भी लगाया गया। इसके अलावा उनकी तीन अन्य किताबें भी राज्य की भाषा छत्तीसगढ़ी में होने के नाते काफी सराही गयीं।


प्रकाशन के क्षेत्र में राज्य के रचनाकारों को पहचान दिलाने के उद्देश्य से डा. सोनी ने पहचान प्रकाशन की शुरूआत की। जिससे 1982 से लेकर अब तक 60 साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन किया जा चुका है। अपने लंबे और विविध आयामी कार्यों के लिए उन्हें 10,मई 1994 को राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा द्वारा चिकित्सा समन्वय शोध ग्रंथ हेतु सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी द्वारा प्रेमचंद सम्मान, लघु आघात सम्मान, अस्मिता सम्मान, ग्राम्य भारती सम्मान, साहित्य श्री सम्मान आदि से अलंकृत किया जा चुका है। अब जबकि राजेन्द्र सोनी अपनी एक सार्थक पारी खेल चुके हैं तो दूसरी पारी में भी उनसे कुछ गंभीर और महत्वपूर्ण कार्य की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। उनकी त्वरा और जिजीविषा देखकर यह भरोसा भी होता है कि वे निराश नहीं करेंगें।

इतिहास रचते मिश्र



डा. रमेंद्रनाथ मिश्र छत्तीसगढ़ के इतिहास के एक ऐसे अध्येता हैं, जिसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहरों और महापुरूषों की परंपरा की तलाश में लगा दिया। वे एक ऐेसे यात्री हैं, जिसने एक ऐसा रास्ता पकड़ा है, जिसकी मंजिल वे जितना चलते हैं, उतनी ही दूर होती जाती है। इतिहास और पुरातत्व की वीथिकाओं में भटकता यह यात्री न जाने कितनी मंजिलें पा चुका है और कितनों की तलाश में है।
भरोसा नहीं होता कि डा. रमेंद्रनाथ मिश्र अब रिटायर हो गए हैं। उनका जोश, जज्बा और योजनाएं देखकर तो ऐसा लगता है कि वे अभी एक लंबी पारी खेलना चाहते हैं। 29 जून 1945 को एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार में जन्मे डा. मिश्र का पूरा जीवन रचना और संघर्ष की अविराम यात्रा है। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास के एक ऐसे अध्येता हैं, जिसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहरों और महापुरूषों की परंपरा की तलाश में लगा दिया। उनके मार्गदर्शन में लगभग 60 से अधिक विद्यार्थी पीएचडी की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं, तो लगभग 73 एमफिल के लघुशोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। वे एक ऐेसे यात्री हैं, जिसने एक ऐसा रास्ता पकड़ा है, जिसकी मंजिल वे जितना चलते हैं, उतनी ही दूर होती जाती है। इतिहास और पुरातत्व की वीथिकाओं में भटकता यह यात्री न जाने कितनी मंजिलें पा चुका है और कितनी की तलाश में है। वे रायपुर के समाज जीवन में एक ऐसा सक्रिय हस्तक्षेप हैं कि उनके बिना कोई भी महफिल पूरी नहीं होती। जुझारू इतने कि किसी से भी भिड़ जाएं और अपनी पूरी करवाकर ही वापस हों। एक प्राध्यापक के नाते जहां उनकी लंबी शिष्य परंपरा है, वहीं एक संवेदनशील इंसान होने के नाते उनका कवरेज एरिया बहुत व्यापक है। साहित्य, कला, संस्कृति और समाज जीवन के हर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति बहुत गंभीरता से महसूस की जाती है। उनके पिता पं. रघुनाथ मिश्र और मां स्वर्गीय श्रीमती बेनबती देवी दोनों स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी रहे। क्रांतिकारी तेवर श्री मिश्र को शायद इसीलिए विरासत में मिले। पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर में इतिहास विभागाध्यक्ष के रूप में उनकी सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण रहीं। इस दौरान वे युवाओं से हुई लगभग सभी गतिविधियों के प्रेरक रहे। एनसीसी, प्रौढ़ शिक्षा, युवक रेडक्रास और तमाम आयोजन उनके नेतृत्व में होते रहे। उन्होंने अपनी अकादमिक गतिविधियों के माध्यम से विश्वविद्यालय को सदैव सकारात्मक नेतृत्व दिया।
डा. मिश्र के मार्गदर्शन में हुए शोधकार्यों में प्राय: ऐसे कार्य हुए, जिससे छत्तीसगढ़ का गौरवशाली अतीत झांकता है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के महापुरूषों संत गुरु घासीदास, वीर नारायण सिंह, ठा. प्यारेलाल सिंह, वामनराव लाखे, मुंशी अब्दुलरउफ खान, माधवराव सप्रे, सुंदरलाल शर्मा से लेकर बस्तर के आदिवासी विद्रोह तक पर बहुत महत्वपूर्ण शोध कार्य करवाए। इससे छत्तीसगढ़ के प्रति उनके अनुराग का पता चलता है। इसके अलावा उन्होंने स्वयं छत्तीसगढ़ के इतिहास का लेखन किया है, जो एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। उनकी पुस्तक ब्रिटिशकालीन छत्तीसगढ़ का प्रशासनिक इतिहास राज्य के लिए एक महत्पूर्ण दस्तावेज है। छत्तीसगढ़ का राजनैतिक इतिहास और राष्ट्रीय आंदोलन, छत्तीसगढ़ का राजनैतिक सांस्कृतिक इतिहास जैसी किताबें उनके योगदान को रेखांकित करने के लिए काफी हैं। काव्योपाध्याय हीरालाल द्वारा 1921 में रचित छत्तीसगढ़ी व्याकरण का अनुवाद और प्रस्तुति करके उन्होंने छत्तीसगढ़ी को स्थापित करने में अपना योगदान दिया। सन 1820 में मेजर पी. बांस.एग्न्यू द्वारा लिखित प्रतिवेदन 'छत्तीसगढ़ प्रांत या सूबा का अनुवाद कर उन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य तो किया ही साथ ही इस क्षेत्र के राज्य बनने की संभावनाओं पर भी अपनी मुहर लगा दी। इससे न सिर्फ छत्तीसगढ़ क्षेत्र की ऐतिहासिकता प्रमाणित हुई, वरन एक ईकाई के रूप में उसकी एक अलग उपस्थिति का भी अहसास होता है।
वे अध्यापक होने के साथ-साथ समाज जीवन में बहुत सक्रिय रहे हैं। शिक्षा जगत की समस्याओं को लेकर, शिक्षकों की समस्याओं के समाधान को लेकर वे निरंतर जूङाते रहे हैं। समाज के दलित और पिछड़े वर्गों के प्रति उनके मन में गहरा अनुराग है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासी और सतनामी समाज के योगदान को ऐतिहासिक रूप से रेखांकित करने की हर प्रयास को स्वर दिया। 'राष्ट्रीय आंदोलन में सतनामी पंथ का योगदान विषय पर पीएचडी की उपाधि उनकी एक छात्रा शंपा चौबे को प्राप्त हुई। इसी तरह छत्तीसगढ़ के सामाजिक जीवन पर गुरु घासीदास का प्रभाव विषय पर पीएचडी की उपाधि सुश्री पद्मा डड़सेना को मिली। इस तरह एक मार्गदर्शक के रूप में उनका योगदान बहुत बड़ा है। वे पं. सुंदरलाल शर्मा शोध पीठ के प्रमुख भी रहे। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास और पुरातत्व के एक ऐसे जीवंत प्रवक्ता हैं, जिन्हें आने वाली पीढ़ी को अपना उत्तराधिकार सौंपने में आनंद आता है। पुस्तकों और पत्रिकाओं के संपादन, लेखन और विविध पुस्तकों के सृजन में सहयोगी के रूप में उनकी भूमिका रेखांकित की जाएगी। उनके संपादन में शहीद वीर नारायण सिंह, गुरु घासीदास, पं. सुंदरलाल शर्मा पर केंद्रित महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन जनसंपर्क संचालनालय ने किया है। वे छत्तीसगढ़ में शिक्षा की एक ऐसी परंपरा के उन्नायक और मार्गदर्शक हैं, जिसने अपना पूरा जीवन शिक्षा क्षेत्र को समर्पित कर दिया। आज भी उनके पास ढेरों योजनाएं और करने को बहुत सारा काम है। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास विकास में रमे हुए एक ऐसे साधक हैं, जिसने लगातार दिया ही दिया है। शायद उनकी योजनाओं को साकार होता देखने में अभी वक्त लगे लेकिन वे जितनी उर्जा से भरे हैं, वे अपने सपनों को सच करने का माद्दा जरूर रखते हैं। विश्वविद्यालय की लंबी सेवा से अवकाश प्राप्त करने के बाद उनके पास गंभीर चिंतन, मनन के लिए काफी समय है। संभव है कि वे समय का रचनात्मक इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ के लिए कुछ ऐसा महत्वपूर्ण रच जाएं कि आने वाली पीढ़ियां उनके दिखाए रास्ते पर चलकर राज्य के बेहतर भविष्य के सपनों में रंग भर पाएं। फिलहाल तो उन्हें चाहने वाले उनको शुभकामनाएं ही दे सकते हैं।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

सपनों में भरें रंग


पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब देश को 2020 में महाशक्ति बन जाने का सपना दिखाया था, तो वे एक ऐसी हकीकत बयान कर रहे थे, जो जल्दी ही साकार होने वाली है। आजादी के 6 दशक पूरे करने के बाद भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे मुकाम पर है, जहां से उसे सिर्र्फ आगे ही जाना है। अपनी एकता, अखंडता और सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों के साथ पूरी हुई इन 6 दशकों की यात्रा ने पूरी दुनिया के मन में भारत के लिए एक आदर पैदा किया है। यही कारण है कि हमारे युवा भारतवंशी दुनिया के हर देश में एक नई निगाह से देखे जा रहे हैं। उनकी प्रतिभा का आदर और मूल्य भी उन्हें मिल रहा है। आजादी के लड़ाई के मूल्य आज भले थोड़ा धुंधले दिखते हों या राष्ट्रीय पर्व औपचारिकताओं में लिपटे हुए, लेकिन यह सच है कि देश की युवा शक्ति आज भी अपने राष्ट्र को उसी जज्बे से प्यार करती है, जो सपना हमारे सेनानियों ने देखा था।

आजादी की जंग में जिन नौजवानों ने अपना सर्वस्व निछावर किया, वही ललक और प्रेरणा आज भी भारत के उत्थान के लिए नई पीढ़ी में दिखती है। हमारे प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र में भले ही संवेदना घट चली हो, लेकिन भारतीय युवा आज भी बेहद ईमानदार और नैतिक हैं। वह सीधे रास्ते चलकर प्रगति की सीढ़ियां चढ़ना चाहते हैं। यदि ऐसा न होता तो विदेशों में जाकर भारत के युवा सफलताओं के इतिहास न लिख रहे होते। जो विदेशों में गए हैं, उनके सामने यदि अपने देश में ही विकास के समान अवसर उपलब्ध होते तो वे शायद अपनी मातृभूमि को छोड़ने के लिए प्रेरित न होते। बावजूद इसके विदेशों में जाकर भी उन्होंने अपनी प्रतिभा, मेहनत और ईमानदारी से भारत के लिए एक ब्रांड एंबेसेडर का काम किया है। यही कारण है कि सांप, सपेरों और साधुओं के रूप में पहचाने जाने वाले भारत की छवि आज एक ऐसे तेजी से प्रगति करते राष्ट्र के रूप में बनी है, जो तेजी से अपने को एक महाशक्ति में बदल रहा है। आर्थिक सुधारों की तीव्र गति ने भारत को दुनिया के सामने एक ऐसे चमकीले क्षेत्र के रूप में स्थापित कर दिया है, जहां विकास की भारी संभावनाएं देखी जा रही हैं। यह अकारण नहीं है कि तेजी के साथ भारत की तरफ विदेशी राष्ट्र आकर्षित हुए हैं। बाजारवाद के हो-हल्ले के बावजूद आम भारतीय की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं। ये परिवर्तन आज भले ही मध्यवर्ग तक सीमित दिखते हों, इनका लाभ आने वाले समय में नीचे तक पहुंचेगा। भारी संख्या में युवा शक्तियों से सुसाित देश अपनी आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए अब किसी भी सीमा को तोड़ने को आतुर है। युवा शक्ति तेजी के साथ नए-नए विषयों पर काम कर रही है, जिसने हर क्षेत्र में एक ऐसी प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील पीढ़ी खड़ी की है, जिस पर दुनिया विस्मित है।

सूचना प्रौद्योगिकी, फिल्में, कृषि और अनुसंधान से जुड़े क्षेत्रों या विविध प्रदर्शन कलाएं हर जगह भारतीय युवा प्रतिभाएं वैश्विक संदर्भ में अपनी जगह बना रही हैं। शायद यही कारण है कि भारत की तरफ देखने का दुनिया का नजरिया पिछले एक दशक में बहुत बदला है। ये चीजें अनायास और अचानक घट गईं हैं, ऐसा भी नहीं है। देश के नेतृत्व के साथ-साथ आम आदमी के अंदर पैदा हुए आत्मविश्वास ने विकास की गति बहुत बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता की तमाम कहानियों के बीच भी विश्वास के बीज धीरे-धीरे एक वृक्ष का रूप ले रहे हैं। अपनी स्वभाविक प्रतिभा से नैसर्गिक विकास कर रहा यह देश आज भी एक भगीरथ की प्रतीक्षा में है, जो उसके सपनों में रंग भर सके। भारत को महाशक्ति बनाना है, तो वह हर भारतीय की भागीदारी से ही सच होने वाला सपना है। देश के तमाम वंचित लोगों को छोड़कर हम अपने सपनों को सच नहीं कर सकते। क्या हम इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हैं?

बॉडी औऱ प्लेजर का संसार


सिर्फ चमकीले चेहरे, मेगा माल्स, बीयर बार, नाइट क्लब, पब और डिस्को थेक। क्या भारत की नौजवानी यहीं पाई जाती है? क्या इन क्लबों में जवान हो रही पीढ़ी ही भारत के असली युवा का चेहरा है? बाजार विज्ञापन और पूंजी के गठजोड़ ने हमारे युवाओं की छवि कुछ ऐसी बना रखी है कि जैसे वह बाडी और प्लेजर (देह और भोग) के संसार का एक पुरजा हो।

हमारे आसपास की दुनिया अचानक कुछ ज्यादा जवान या आधुनिक हो गई लगती है। जिसमें परंपराएं तो हैं, पर कुछ सकुचाई हुई सी। संस्कृति भी है पर सहमी हुई सी। हमारे लोकाचार और त्यौहारों पर बाजार की मार और प्रहार इतने गहरे हैं कि उसने भारतीय विचार को बहुत किनारे लगा दिया है। अपनी चीजें अचानक पिछड़ेपन का प्रतीक दिखने लगी हैं और यह सब कुछ हो रहा है उन युवाओं के नाम पर जो आज भी ज्यादा पारंपरिक, ज्यादा ईमानदार और ज्यादा देशभक्त हैं, लेकिन बाजार विज्ञापन और पूंजी के गठजोड़ ने हमारे युवाओं की छवि कुछ ऐसी बना रखी है कि जैसे वह बाडी और प्लेजर (देह और भोग)के संसार का एक पुरजा हो।

तकनीक, उपभोक्तावाद, मीडिया, वैश्विक संस्कृति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्ववाद से ताकत पाता पूंजीवाद दरअसल आज के समय का एक ऐसा सच है, जिससे बचा नहीं जा सकता। ये चीजें मिलकर जिंदगी में उश्रृंखल और बेलगाम लालसाओं को बढ़ावा देती हैं। विज्ञापनों और मीडिया की आक्रामकता ने देह संस्कृति को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर हमारे जीवन पर आरोपित कर दिया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया और रेडियो के नए अवतार एफएम पर जिस तरह के विचार और भावनाएं युवाओं के लिए परोसी जा रही हैं, उसने एक अलग किस्म के युवा का निर्माण किया है। क्या यह चेहरा भारत के असली नौजवान का चेहरा है? रातोंरात किसी सौंदर्य प्रतियोगिता या गायन प्रतियोगिता से निकलकर भारतीय परिदृश्य पर छा जाने वाले युवा देश के वास्तविक युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? दरअसल बाजार अपने नायक गढ़ रहा है और भारत की युवा पीढ़ी अपने जीवन संघर्ष में खुद को बहुत अकेला पा रही है। शिक्षा से लेकर नौकरी पाने की जद्दोजहद युवाओं को कितना और कहां तक तोड़ती है, यह देखने वाला कोई नहीं है। बाजार में दिखते हैं सिर्फ चमकीले चेहरे, मेगा माल्स, बीयर बार, नाइट क्लब, पब और डिस्को थेक। क्या भारत की नौजवानी यहीं पाई जाती है? क्या इन क्लबों में जवान हो रही पीढ़ी ही भारत के असली युवा का चेहरा है? दरअसल यह ऐसा प्रायोजित चेहरा है, जो संचार माध्यमों पर दिखाया जा रहा है। कुछ सालों पहले 'काफी कल्चर' की शुरूआत हुई थी। जब काफी हाउस में बैठे नौजवान आपसी संवाद, विचार-विमर्श और खुद से जुड़ी बातें किया करते थे। इनकी सफलता के बाद अब पब कल्चर की युवाओं की नजर है। ये पब कल्चर दरअसल न्यूयार्क के पैटर्न पर हैं, एक नई तरह की संस्कृति को युवाओं पर आरोपित करने का यह सिलसिला इस नए बाजार की देन है। एक बार पी लेने के बाद सारे मध्यवर्गीय पूर्वाग्रह टूट जाने का जो भ्रम है, वह हमें इन पबों की तरफ लाता है। नशे का भी संसार इससे जुड़ता है। यहीं से कदम बहकते हैं, बार या पब कल्चर धीरे-धीरे हमें अनेक तरह के नशों के प्रयोग का हमराही तो बनाता ही है, कंडोम से भी हमारा परिचय कराता है। कंडोम के रास्ते गुजरकर आता हुआ प्यार एक नई कहानी की शुरूआत करता है। हमारे युवक-युवतियां अधिक प्रोग्रेसिव दिखने की होड़ में इसका शिकार बनते चले जाते हैं पर आज भी ऐसा कितने लोग कर रहे हैं? वही करते हैं, जिनके माता-पिता ने बहुत सा नाजायज पैसा कमाया है और उनके पास अपने बच्चों को देने के लिए वक्त नहीं है। फेंकने के लिए पैसा हो और अक्ल न हो, तो यह डिस्पोजल पैसा किसी भी पीढ़ी को बर्बाद कर सकता है। इसके साथ ही काल सेंटरों में काम कर रही पीढ़ी के पास अचानक ढेर सा पैसा आया है। ये ऐसे ग्रेजुएट हैं, जिन्हें दस हजार से लेकर 40 हजार रूपए तक महीने की तनख्वाह आसानी से मिल जाती है। जाहिर है मान्यताएं टूट रही हैं। भावनात्मक रिश्ते दरक रहे हैं। माता-पिता से संवाद घटा है। इस विकराल समय में भी जोड़ने वाली चीजें खत्म नहीं हुई हैं। भारतीय युवा का यह चेहरा उसकी मैली आधुनिकता को दिखाता है। दूसरा चेहरा बेहद पारंपरिक, ज्यादा धार्मिक और ज्यादा स्नेही दिखता है। ऐसे भी नौजवान हैं, जो अच्छी शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर गिरिवासियों, वनवासियों और ग्रामीणजनों के बीच जाकर बेहतर काम कर रहे हैं। एक पीढ़ी ऐसी है, जो बाडी और प्लेजर के संसार में थिरक रही है, तो दूसरी पीढ़ी इक्कीसवीं सदी के भारत को गढ़ने में लगी है। सवाल यह है कि हम किस पीढ़ी के साथ खड़े होना चाहेंगे?

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

हम सब खड़े बाज़ार में


भारतीय बाज़ार एक नई करवट ले रहा है। उसका विस्तार चौंकाने वाला है और समृध्दि चौंधियानेवाली। पिछले दस सालों में भारतीय बाज़ार का विस्तारवाद कई तरह से निंदा और आलोचना के केंद्र में भी है। बावजूद इसके यह बढ़ता जा रहा है और रोज नई संभावनाओं के साथ और विस्तार ले रहा है। बाज़ार की भाषा, उसके मुहावरे, उसकी शैली और शिल्प सब कुछ बदल गए हैं। यह भाषा आज की पीढ़ी समझती है और काफी कुछ उस पर चलने की कोशिश भी करती है।

भारतीय बाज़ार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाज़ार अब सिर्फ़ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। भारत गाँव में बसता है, इस सच्चाई को हमने भले ही न स्वीकारा हो, लेकिन भारतीय बाज़ार को कब्जे में लेने के लिए मैदान में उतरे प्रबंधक इसी मंत्र पर काम कर रहे हैं। शहरी बाज़ार अपनी हदें पा चुका है। वह संभावनाओं का एक विस्तृत आकाश प्राप्त कर चुका है, जबकि ग्रामीण बाज़ार एक नई और जीवंत उपभोक्ता शक्ति के साथ खड़े दिखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा, अपनी बढ़त को कायम रखने के लिए मैनेजमेंट गुरुओं और कंपनियों के पास इस गाँव में झाँकने के अलावा और विकल्प नहीं है। एक अरब आबादी का यह देश जिसके 73 फ़ीसदी लोग आज भी हिंदुस्तान के पांच लाख, 72 हजार गाँवों में रहते हैं, अभी भी हमारे बाज़ार प्रबंधकों की जकड़ से बचा हुआ है। जाहिर है निशाना यहीं पर है। तेज़ी से बदलती दुनिया, विज्ञापनों की शब्दावली, जीवन में कई ऐसी चीज़ों की बनती हुई जगह, जो कभी बहुत गैरज़रूरी थी शायद इसीलिए प्रायोजित की जा रही है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं।

भारत का ग्रामीण बाज़ार अपने आप में दुनिया को विस्मित कर देने वाला मिथक है। परंपरा से संग्रही रही महिलाएं, मोटा खाने और मोटा पहनने की सादगी भरी आदतों से जकड़े पुरूष आज भी इन्हीं क्षेत्रों में दिखते हैं। शायद इसी के चलते जोर उस नई पीढ़ी पर है, जिसने अभी-अभी शहरी बनने के सपने देखे हैं। भले ही गाँव में उसकी कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न हों। गाँव को शहर जैसा बना देना, गाँव के घरों में भी उन्हीं सुविधाओं का पहुँच जाना, जिससे जीवन सहज भले न हो, वैभवशाली ज़रूर दिखता हो। यह मंत्र नई पीढ़ी के गले उतारे जा रहे हैं। आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है।
भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विदू्रप के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि ग्रामीण भारत में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय जनमानस समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें। चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्याेंकि पांच लाख, 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह ग्रामीण भारत, एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं।

भारत के गाँवों में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?

सदके इन मासूम तर्कों के

वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुध्दिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं। लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में, अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा दी जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते।

छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने पहली बार मुस्कराने का मौका दिया है। उन्होंने रायपुर में छत्तीसगढ़ सरकार की आलोचना कर लंबे समय से चली आ रही कांग्रेसियों की मुराद पूरी कर दी है। होता यह रहा है कि केंद्र सरकार के मंत्री राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहे हैं। राज्य में आने वाले लगभग हर मंत्री ने जब भी मौका मिला राज्य सरकार के कामकाज की तारीफ ही की। श्री प्रकाश जायसवाल ने नक्सल मामले पर रमन सरकार को नाकाम बताते हुए कहा कि छ: महीने बाद जब राज्य में कांग्रेस की सरकार होगी, तो वह ही नक्सलियों से निपटेगी। जाहिर है केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का यह बयान राज्य सरकार की तार्किक आलोचना कम, चुनावी बयान ज्यादा है। चुनाव निकट आते देख एक सच्चो कांग्रेसी होने के नाते उनका जो फर्ज है, उसे उन्होंने निभाया है। यह सिर्फ़ संदर्भ के लिए कि पिछले महीने जब श्रीप्रकाश जायसवाल के 'बास केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल रायपुर प्रवास पर आए थे तो उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।

गृह राज्यमंत्री ने नक्सलवाद के मुद्दे पर राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया, तो इसके कोई बहुत मायने नहीं हैं। क्योंकि नक्सलवाद के खिलाफ यह पहली सरकार है, जो इतनी प्रखरता के साथ हर मोर्चे पर जूझ रही है। सिर्फ़ बढ़ती नक्सली घटनाओं का जिक्र न करें, तो राज्य सरकार की सोच नक्सलियों के खिलाफ ही रही है। डा. रमन सिंह की सरकार की इस अर्थ में सराहना ही की जानी चाहिए कि उसने राजकाज संभालने के पहले दिन से ही नक्सलवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबध्दता का ऐलान कर दिया था। राजनैतिक लाभ के लिए तमाम पार्टियां नक्सलियों की मदद और हिमायत करती आई हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। इन आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग डा. रमन सिंह की सरकार ने पहली बार नक्सलियों को उनके गढ़ में चुनौती देने का हौसला दिखाया है। राज्य सरकार की यह प्रतिबध्दता उस समय और मुखर रूप में सामने आई, जब श्री ओपी राठौर राज्य के पुलिस महानिदेशक बनाए गए। डा. रमन सिंह और श्री राठौर की संयुक्त कोशिशों से पहली बार नक्सलवाद के खिलाफ गंभीर पहल देखने में आई। वर्तमान डीजीपी विश्वरंजन की कोशिशों को भी उसी दिशा में देखा जाना चाहिए।

होता यह रहा है कि नक्सल उन्मूलन के नाम पर सरकारी पैसे को हजम करने की कोशिशों से ज्यादा प्रयास कभी नहीं दिखे। पहली बार नक्सलियों को वैचारिक और मैदानी दोनों मोर्चों पर शिकस्त देने के प्रयास शुरू हुए हैं। यह अकारण नहीं है कि सलवा जुड़ूम का आंदोलन तो पूरी दुनिया में कुछ बुध्दिजीवियों के चलते निंदा और आलोचना का केंद्र बन गया किंतु नक्सली हिंसा को नाजायज बताने का साहस ये बुध्दिवादी नहीं पाल पाए। जब युध्द होते हैं, तो कुछ लोग अकारण ही उसके शिकार होते ही हैं। संभव है इस तरह की लड़ाई में कुछ निर्दोष लोग भी इसका शिकार हो रहे हों। लेकिन जब चुनाव अपने पुलिस तंत्र और नक्सल के तंत्र में करना हो, तो आपको पुलिस तंत्र को ही चुनना होगा। क्योंकि यही चुनाव विधि सम्मत है और लोकहित में भी। पुलिस के काम करने के अपने तरीके हैं और एक लोकतंत्र में होने के नाते उसके गलत कामों की आलोचना तथा उसके खिलाफ कार्रवाई करने के भी हजार हथियार भी हैं। क्योंकि पुलिस तंत्र अपनी तमाम लापरवाहियों के बावजूद एक व्यवस्था के अंतर्गत काम करता है, जिस पर समाज, सरकार और अदालतों की नजर होती है। प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की इसलिए तारीफ करनी पड़ेगी कि पहली बार उन्होंने इस 'छद्म जनवादी युध्द को राष्ट्रीय आतंकवाद की संज्ञा दी। वे देश के पहले ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने इस समस्या को उसके राष्ट्रीय संदर्भ में पहचाना है।

आज भले ही केंद्रीय गृह राज्यमंत्री राज्य शासन को कटघरे में खड़ा कर रहे हों, लेकिन उन्हें यह तो मानना ही होगा कि नक्सलियों के खिलाफ छत्तीसगढ़ सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए। इसका कारण यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी जिस 'विचार परिवार से जुड़ी है वह चाहकर भी माओवादी अतिवादियों के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकती। एक वैचारिक गहरे अंर्तविरोध के नाते भारतीय जनता पार्टी की सरकार राजनैतिक हानि सहते हुए भी माओवाद के खिलाफ ही रहेगी। यह उसकी वैचारिक और राजनैतिक दोनों तरह की मजबूरी और मजबूती दोनों है।

नक्सलवाद के खिलाफ आगे आए आदिवासी समुदाय के सलवा-जुड़ूम आंदोलन को कितना भी लांछित किया जाए, वह किसी भी कथित जनक्रांति से महान आंदोलन है। महानगरों में रहने वाले, वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुध्दिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं, लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की यातना और पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा की जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते। इस तरह का ढोंग रचकर वैचारिकता का स्वांग रचने वाले लोग यहां के दर्द को नहीं समझ सकते, क्योंकि वे पीड़ा और दर्द के ही व्यापारी हैं। उन्हें बदहाल, बदहवास हिंदुस्तान ही रास आता है। हिंदुस्तान के विकृत चेहरे को दिखाकर उसकी मार्केटिंग उन्हें दुनिया के बाज़ार में करनी है, डालर के बल पर देश तोड़क अभियानों को मदद देनी है। उन्हें वैचारिक आधार देना है, क्योंकि उनकी मुक्ति इसी में है। दुनिया में आज तक कायम हुई सभी व्यवस्थाओं में लोकतंत्र को सर्वश्रोष्ठ व्यवस्था माना गया है। जिनकी इस लोकतंत्र में भी सांसें घुट रही हैं, उन्हें आखिर कौन सी व्यवस्था न्याय दिला सकती है। वे कौन सा राज लाना चाहते हैं, इसके उत्तर उन्हें भी नहीं मालूम हैं। निरीह लोगों के खिलाफ वे एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका अंत नजर नहीं आता। अब जबकि सरकारों को चाहे वे केंद्र की हों या राज्य की कम से कम नक्सलवाद के मुद्दे पर हानि-लाभ से परे उठकर कुछ कड़े फैसले लेने ही होंगे। नक्सल प्रभावित सभी राज्यों और केंद्र सरकार के समन्वित प्रयासों से ही यह समस्या समूल नष्ट हो सकती है। यह बात अनेक स्तरों पर छत्तीसगढ़ सरकार की तरफ से कही जा चुकी है। समाधान का रास्ता भी यही है। सही संकल्प के साथ, न्यूनतम राजनीति करते हुए ही इस समस्या का निदान ढूंढा जा सकता है। छत्तीसगढ़ राज्य में चल रही यह जंग छत्तीसगढ़ की अकेली समस्या नहीं है। देश के अनेक राज्य इस समस्या से जूझ रहे हैं और दिन-प्रतिदिन नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करते जा रहे हैं।

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री भले ही यह कहें कि राज्य सरकार में नक्सलवाद से लड़ने की इच्छाशक्ति नहीं है, किंतु सच्चाई यह है कि पहली बार छत्तीसगढ़ सरकार ने ही यह इच्छाशक्ति दिखाई है। इसे हौसला, हिम्मत और साधन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है वरना आरोपों-प्रत्यारोपों के अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा।

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

समय, समाज और सरोकार

आज का समय बीती हुई तमाम सदियों के सबसे कठिन समय में से है। जहाँ मनुष्य की सनातन परंपराएँ, उसके मूल्य और उसका अपना जीवन ऐसे संघर्षों के बीच घिरा है, जहाँ से निकल पाने की कोई राह आसान नहीं दिखती। भारत जैसे बेहद परंपरावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरे-पूरे और जीवंत समाज के सामने भी आज का यह समय बहत कठिन चुनौतियों के साथ खड़ा है। आज के समय में शत्रु और मित्र पकड़ में नहीं आते। बहुत चमकती हुई चीज़े सिर्फ धोखा साबित होती हैं। बाजार और उसके उपादानों ने मनुष्य के शाश्वत विवेक का अपहरण कर लिया है। जीवन कभी जो बहुत सहज हुआ करता था, आज के समय में अगर बहुत जटिल नज़र आ रहा है, तो इसके पीछे आज के युग का बदला हुआ दर्शन है।

भारतीय परंपराएं आज के समय में बेहद सकुचाई हुई सी नज़र आती हैं। हमारी उज्ज्वल परंपरा, जीवन मूल्य, विविध विषयों पर लिखा गया बेहद श्रेष्ठ साहित्य, आदर्श, सब कुछ होने के बावजूद हम अपने आपको कहीं न कहीं कमजोर पाते हैं। यह समय हमारी आत्मविश्वासहीनता का भी समय है। इस समय ने हमे प्रगति के अनेक अवसर दिए हैं, अनेक ग्रहों को नापतीं मनुष्य की आकांक्षाएं चाँद पर घर बक्सा, विशाल होते भवन, कारों के नए माडल, ये सारी चीज़े भी हमे कोई ताकत नहीं दे पातीं। विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी जैसे जड़ों से उखड़ती जा रही है। इक्कीसवीं सदी में घुस आई यह जमात जल्दी और ज़्यादा पाना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी मूल्य को शीर्षासन कराना पड़े, तो कोई हिचक नहीं । यह समय इसीलिए मूल्यहीनता के सबसे बेहतर समय के लिए जाना जाएगा । यह समय सपनों के टूटने और बिखरने का भी समय है। यह समय उन सपनों के गढऩे का समय है, जो सपने पूरे तो होते हैं, लेकिन उसके पीछ तमाम लोगों के सपने दफ़्न हो जाते हैं। ये समय सेज का समय है, निवेश का समय है, लोगों को उनके गाँवों, जंगलों, घरों और पहाड़ों से भगाने का समय है। ये भागे हुए लोग शहर आकर नौकर बन जाते हैं। इनकी अपनी दुनिया जहाँ ये ‘मालिक’ की तरह रहते थे, आज के समय को रास नहीं आती। ये समय उजड़ते लोगों का समय है। गाँव के गाँव लुप्त हो जाने का समय है। ये समय ऐसा समय है, जिसने बांधों के बनते समय हजारों गाँवों को डूब में जाते हुए देखा है। यह समय ‘हरसूद’ को रचने का समय है । खाली होते गाँव,ठूँठ होते पेड़, उदास होती चिड़िया, पालीथिन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, बिकती हुई नदी, धुँआ उगलती चिमनियाँ, काला होता धान ये कुछ ऐसे प्रतीक हैं, जो हमे इसी समय ने दिए हैं। यह समय इसीलिए बहुत बर्बर हैं। बहुत निर्मम और कई अर्थों में बहुत असभ्य भी।

यह समय आँसुओं के सूख जाने का समय है । यह समय पड़ोसी से रूठ जाने का समय है। यह समय परमाणु बम बनाने का समय है। यह समय हिरोशिमा और नागासाकी रचने का समय है। यह समय गांधी को भूल जाने का समय है। यह समय राम को भूल जाने का समय है। यह समय रामसेतु को तोड़ने का समय है। उन प्रतीकों से मुँह मोड़ लेने का समय है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं। यह जड़ों से उखड़े लोग का समय है और हमारे परोकारों को भोथरा बना देने का समय है। यह समय प्रेमपत्र लिखने का नहीं, चैटिंग करने का समय है। इस समय ने हमें प्रेम के पाठ नहीं, वेलेंटाइन के मंत्र दिए हैं। यह समय मेगा मॉल्स में अपनी गाढ़ी कमाई को फूँक देने का समय है। यह समय पीकर परमहंस होने का समय है।

इस समय ने हमें ऐसे युवा के दर्शन कराए हैं, जो बदहवास है। वह एक ऐसी दौड़ में है, जिसकी कोई मंज़िल नहीं है। उसकी प्रेरणा और आदर्श बदल गए हैं। नए ज़माने के धनपतियों और धनकुबेरों ने यह जगह ले ली है। शिकागों के विवेकानंद, दक्षिम अफ्रीका के महात्मा गांधी अब उनकी प्रेरणा नहीं रहे। उनकी जगह बिल गेट्स, लक्ष्मीनिवास मित्तल और अनिक अंबानी ने ले ली है। समय ने अपने नायकों को कभी इतना बेबस नहीं देखा। नायक प्रेरणा भरते थे और ज़माना उनके पीछे चलता था। आज का समय नायकविहीनता का समय है। डिस्कों थेक, पब, साइबर कैफ़े में मौजूद नौजवानी के लक्ष्य पकड़ में नहीं आते । उनकी दिशा भी पहचानी नहीं जाती । यह रास्ता आज के समय से और बदतर समय की तरफ जाता है। बेहतर करने की आकांक्षाएं इस चमकीली दुनिया में दम तोड़ देती हैं। ‘हर चमकती चीज़ सोना नहीं’ होती लेकिन दौड़ इस चमकीली चीज़ तक पहुँचने की है। आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को सरोकार, संस्कार और समय किसी की समझ नहीं दी है। यह शिक्षा मूल्यहीनता को बढ़ाने वाली साबित हुई है। अपनी चीज़ों को कमतर कर देखना और बाहर सुखों की तलाश करना इस समय को और विकृत करता है। परिवार और उसके दायित्व से टूटता सरोकार भी आज के ही समय का मूल्य है। सामूहिक परिवारों की ध्वस्त होती अवधारणा, फ्लैट्स में सिकुड़ते परिवार, प्यार को तरसते बच्चे, अनाथ माता-पिता, नौकरों, बाइयों और ड्राइवरों के सहारे जवान होती नई पीढ़ी । यह समय बिखरते परिवारों का भी समय है। इस समय ने अपनी नई पीढ़ी को अकेला होते और बुजुर्गों को अकेला करते भी देखा। यह ऐसा जादूगर समय है, जो सबको अकेला करता है। यह समय पड़ोसियों से मुँह मोड़ने, परिवार से रिश्ते तोड़ने और ‘साइबर फ्रेंड’ बनाने का समय है। यह समय व्यक्ति को समाज से तोड़ने, सरोकारों से अलग करने और ‘विश्व मानव’ बनाने का समय है।

यह समय भाषाओं और बोलियों की मृत्यु का समय है। दुनिया को एक रंग में रंग देने का समय है। यह समय अपनी भाषा को अँग्रेज़ी में बोलने का समय है। यह समय पिताओं से मुक्ति का समय है। यह समय माताओं से मुक्ति का समय है। इस समय ने हजारों हजार शब्द, हजारों हजार बोलियाँ निगल जाने की ठानी है। यह समय भाषाओं को एक भाषा में मिला देने का समय है। यह समय चमकीले विज्ञापनों का समय है। इस समय ने हमारे साहित्य को, हमारी कविताओं को, हमारे धार्मिक ग्रंथों को पुस्तकालयों में अकेला छोड़ दिया है, जहाँ ये किताबें अपने पाठकों के इंतजार में समय को कोस रही हैं। इस समय ने साहित्य की चर्चा को, रंगमंच के नाद को, संगीत की सरसता को, धर्म की सहिष्णुता को निगल लेने की ठानी है। यह समय शायद इसलिए भी अब तक देखे गए सभी समयों में सबसे कठिन है, क्योंकि शब्द किसी भी दौर में इतने बेचारे नहीं हुए नहीं थे। शब्द की हत्या इस समय का एक सबसे बड़ा सच है। यह समय शब्द को सत्ता की हिंसा से बचाने का भी समय है। यहि शब्द नहीं बचेंगे, तो मनुष्य की मुक्ति कैसे होगी ? उसका आर्तनाद, उसकी संवेदनाएं, उसका विलाप, उसका संघर्ष उसका दैन्य, उसके जीवन की विद्रूपदाएं, उसकी खुशियाँ, उसकी हँसी उसका गान, उसका सौंदर्यबोध कौन व्यक्त करेगा। शायद इसीलिए हमें इस समय की चुनौती को स्वीकारना होगा। यह समय हमारी मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है। हर दौर में हर समय से मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है। हर दौर में हर समय से मनुष्यता जीतती आई है। हर समय ने अपने नायक तलाशे हैं और उन नायकों ने हमारी मानवता को मुक्ति दिलाई है। यह समय भी अपने नायक से पराजित होगा। यह समय भी मनुष्य की मुक्ति में अवरोधक नहीं बन सकता। हमारे आसपास खड़े बौने, आदमकद की तलाश को रोक नहीं सकते। वह आदमकद कौन होगा वह विचार भी हो सकता है और विचारों का अनुगामी कोई व्यक्ति भी। कोई भी समाज अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करता हुआ ही आगे बढ़ता है। सवालों से मुँह चुराने वाला समाज कभी भी मुक्तिकामी नहीं हो सकता। यह समय हमें चुनौती दे रहा है कि हम अपनी जड़ों पर खडे़ होकर एक बार फिर भारत को विश्वगुरू बनाने का स्वप्न देखें। हमारे युवा एक बार फिर विवेकानंद के संकल्पों को साध लेने की हिम्मत जुटाएं। भारतीयता के पास आज भी आज के समय के सभी सवालों का जवाब है। हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं। हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं, बशर्तें आत्मविश्वास से भरकर हमें उन बीते हुए समयों की तरफ देखना होगा जब भारतीयता ने पूरे विश्व को अपने दर्शन से एक नई चेतना दी थी। वह चेतना भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर एक नया समाज गढ़ने की चेतना है । वह भारतीय मनीषा के महान चिंतकों, संतों और साधकों के जीवन का निकष है। वह चेतना हर समय में मनुष्य को जीवंत रखने, हौसला न हारने, नए-नए अवसरों को प्राप्त करने, आधुनिकता के साथ परंपरा के तालमेल की एक ऐसी विधा है, जिसके आधार पर हम अपने देश का भविष्य गढ़ सकते हैं।

आज का विश्वग्राम, भारतीय परंपरा के वसुधैव कुटुंबकम् का विकल्प नहीं है। आज का विश्वग्राम पूरे विश्व को एक बाजार में बदलने की पूँजीवादी कवायद है, तो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का मंत्र पूरे विश्व को एक परिवार मानने की भारतीय मनीषा की उपज है। दोनों के लक्ष्य और संधान अलग-अलग हैं। भारतीय मनीषा हमारे समय को सहज बनाकर हमारी जीवनशैली को सहज बनाते हुए मुक्ति के लिए प्रेरित करती है, जबकि पाश्चात्य की चेतना मनुष्य को देने की बजाय उलझाती ज़्यादा है। ‘देह और भोग’ के सिद्धांतों पर चलकर मुक्ति की तलाश भी बेमानी है। भारतीय चेतना में मनुष्य अपने समय से संवाद करता हुआ आने वाले समय को बेहतर बनाने की चेष्टा करता है। वह पीढ़ियों का चिंतन करता है, आने वाले समय को बेहतर बनाने के लिए सचेतन प्रयास करता है। जबकि बाजार का चिंतन सिर्फ आज का विचार करता है। इसके चलते आने वाला समय बेहद कठिन और दुरूह नज़र आने लगता है। कोई भी समाज अपने समय के सरोकारों के साथ ही जीवंत होता है। भारतीय मनीषा इसी चेतना का नाम है, जो हमें अपने समाज से सरोकारी बनाते हुए हमारे समय को सहज बनाती है। क्या आप और हम इसके लिए तैयार हैं ?