शनिवार, 26 अप्रैल 2008

इतिहास रचते मिश्र



डा. रमेंद्रनाथ मिश्र छत्तीसगढ़ के इतिहास के एक ऐसे अध्येता हैं, जिसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहरों और महापुरूषों की परंपरा की तलाश में लगा दिया। वे एक ऐेसे यात्री हैं, जिसने एक ऐसा रास्ता पकड़ा है, जिसकी मंजिल वे जितना चलते हैं, उतनी ही दूर होती जाती है। इतिहास और पुरातत्व की वीथिकाओं में भटकता यह यात्री न जाने कितनी मंजिलें पा चुका है और कितनों की तलाश में है।
भरोसा नहीं होता कि डा. रमेंद्रनाथ मिश्र अब रिटायर हो गए हैं। उनका जोश, जज्बा और योजनाएं देखकर तो ऐसा लगता है कि वे अभी एक लंबी पारी खेलना चाहते हैं। 29 जून 1945 को एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार में जन्मे डा. मिश्र का पूरा जीवन रचना और संघर्ष की अविराम यात्रा है। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास के एक ऐसे अध्येता हैं, जिसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहरों और महापुरूषों की परंपरा की तलाश में लगा दिया। उनके मार्गदर्शन में लगभग 60 से अधिक विद्यार्थी पीएचडी की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं, तो लगभग 73 एमफिल के लघुशोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। वे एक ऐेसे यात्री हैं, जिसने एक ऐसा रास्ता पकड़ा है, जिसकी मंजिल वे जितना चलते हैं, उतनी ही दूर होती जाती है। इतिहास और पुरातत्व की वीथिकाओं में भटकता यह यात्री न जाने कितनी मंजिलें पा चुका है और कितनी की तलाश में है। वे रायपुर के समाज जीवन में एक ऐसा सक्रिय हस्तक्षेप हैं कि उनके बिना कोई भी महफिल पूरी नहीं होती। जुझारू इतने कि किसी से भी भिड़ जाएं और अपनी पूरी करवाकर ही वापस हों। एक प्राध्यापक के नाते जहां उनकी लंबी शिष्य परंपरा है, वहीं एक संवेदनशील इंसान होने के नाते उनका कवरेज एरिया बहुत व्यापक है। साहित्य, कला, संस्कृति और समाज जीवन के हर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति बहुत गंभीरता से महसूस की जाती है। उनके पिता पं. रघुनाथ मिश्र और मां स्वर्गीय श्रीमती बेनबती देवी दोनों स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी रहे। क्रांतिकारी तेवर श्री मिश्र को शायद इसीलिए विरासत में मिले। पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर में इतिहास विभागाध्यक्ष के रूप में उनकी सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण रहीं। इस दौरान वे युवाओं से हुई लगभग सभी गतिविधियों के प्रेरक रहे। एनसीसी, प्रौढ़ शिक्षा, युवक रेडक्रास और तमाम आयोजन उनके नेतृत्व में होते रहे। उन्होंने अपनी अकादमिक गतिविधियों के माध्यम से विश्वविद्यालय को सदैव सकारात्मक नेतृत्व दिया।
डा. मिश्र के मार्गदर्शन में हुए शोधकार्यों में प्राय: ऐसे कार्य हुए, जिससे छत्तीसगढ़ का गौरवशाली अतीत झांकता है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के महापुरूषों संत गुरु घासीदास, वीर नारायण सिंह, ठा. प्यारेलाल सिंह, वामनराव लाखे, मुंशी अब्दुलरउफ खान, माधवराव सप्रे, सुंदरलाल शर्मा से लेकर बस्तर के आदिवासी विद्रोह तक पर बहुत महत्वपूर्ण शोध कार्य करवाए। इससे छत्तीसगढ़ के प्रति उनके अनुराग का पता चलता है। इसके अलावा उन्होंने स्वयं छत्तीसगढ़ के इतिहास का लेखन किया है, जो एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। उनकी पुस्तक ब्रिटिशकालीन छत्तीसगढ़ का प्रशासनिक इतिहास राज्य के लिए एक महत्पूर्ण दस्तावेज है। छत्तीसगढ़ का राजनैतिक इतिहास और राष्ट्रीय आंदोलन, छत्तीसगढ़ का राजनैतिक सांस्कृतिक इतिहास जैसी किताबें उनके योगदान को रेखांकित करने के लिए काफी हैं। काव्योपाध्याय हीरालाल द्वारा 1921 में रचित छत्तीसगढ़ी व्याकरण का अनुवाद और प्रस्तुति करके उन्होंने छत्तीसगढ़ी को स्थापित करने में अपना योगदान दिया। सन 1820 में मेजर पी. बांस.एग्न्यू द्वारा लिखित प्रतिवेदन 'छत्तीसगढ़ प्रांत या सूबा का अनुवाद कर उन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य तो किया ही साथ ही इस क्षेत्र के राज्य बनने की संभावनाओं पर भी अपनी मुहर लगा दी। इससे न सिर्फ छत्तीसगढ़ क्षेत्र की ऐतिहासिकता प्रमाणित हुई, वरन एक ईकाई के रूप में उसकी एक अलग उपस्थिति का भी अहसास होता है।
वे अध्यापक होने के साथ-साथ समाज जीवन में बहुत सक्रिय रहे हैं। शिक्षा जगत की समस्याओं को लेकर, शिक्षकों की समस्याओं के समाधान को लेकर वे निरंतर जूङाते रहे हैं। समाज के दलित और पिछड़े वर्गों के प्रति उनके मन में गहरा अनुराग है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासी और सतनामी समाज के योगदान को ऐतिहासिक रूप से रेखांकित करने की हर प्रयास को स्वर दिया। 'राष्ट्रीय आंदोलन में सतनामी पंथ का योगदान विषय पर पीएचडी की उपाधि उनकी एक छात्रा शंपा चौबे को प्राप्त हुई। इसी तरह छत्तीसगढ़ के सामाजिक जीवन पर गुरु घासीदास का प्रभाव विषय पर पीएचडी की उपाधि सुश्री पद्मा डड़सेना को मिली। इस तरह एक मार्गदर्शक के रूप में उनका योगदान बहुत बड़ा है। वे पं. सुंदरलाल शर्मा शोध पीठ के प्रमुख भी रहे। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास और पुरातत्व के एक ऐसे जीवंत प्रवक्ता हैं, जिन्हें आने वाली पीढ़ी को अपना उत्तराधिकार सौंपने में आनंद आता है। पुस्तकों और पत्रिकाओं के संपादन, लेखन और विविध पुस्तकों के सृजन में सहयोगी के रूप में उनकी भूमिका रेखांकित की जाएगी। उनके संपादन में शहीद वीर नारायण सिंह, गुरु घासीदास, पं. सुंदरलाल शर्मा पर केंद्रित महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन जनसंपर्क संचालनालय ने किया है। वे छत्तीसगढ़ में शिक्षा की एक ऐसी परंपरा के उन्नायक और मार्गदर्शक हैं, जिसने अपना पूरा जीवन शिक्षा क्षेत्र को समर्पित कर दिया। आज भी उनके पास ढेरों योजनाएं और करने को बहुत सारा काम है। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास विकास में रमे हुए एक ऐसे साधक हैं, जिसने लगातार दिया ही दिया है। शायद उनकी योजनाओं को साकार होता देखने में अभी वक्त लगे लेकिन वे जितनी उर्जा से भरे हैं, वे अपने सपनों को सच करने का माद्दा जरूर रखते हैं। विश्वविद्यालय की लंबी सेवा से अवकाश प्राप्त करने के बाद उनके पास गंभीर चिंतन, मनन के लिए काफी समय है। संभव है कि वे समय का रचनात्मक इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ के लिए कुछ ऐसा महत्वपूर्ण रच जाएं कि आने वाली पीढ़ियां उनके दिखाए रास्ते पर चलकर राज्य के बेहतर भविष्य के सपनों में रंग भर पाएं। फिलहाल तो उन्हें चाहने वाले उनको शुभकामनाएं ही दे सकते हैं।

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