रविवार, 26 मई 2013

तर्क और बहानों से आगे बढ़ने का समय



इन शहादतों पर आंसू मत बहाइए,संकल्प लीजिए
-संजय द्विवेदी

  माओवादी आतंकवाद के विकृत स्वरूप पर बौद्धिक विमर्शों का समय अब निकल गया है। आईएसआई, कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठनों, नेपाल के माओवादियों और बंग्लादेश के रास्ते जाली करेंसी, अवैध हथियार लेने वाले इन नरभक्षियों के दिखावटी जनयुद्ध की बकवास पर चोंचें लड़ाने के बजाए इस आतंकी अभियान से निर्णायक जंग लड़ने का समय अब आ गया है। बस्तर के सुकमा जिले की दरभा घाटी में शनिवार की शाम माओवादियों ने जो कुछ किया अब उसके बाद हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र को समझ लेना चाहिए कि भ्रष्ट राजनीति और निकम्मी नौकरशाही की सीमाएं क्या हैं। लोकतंत्र को बचाने के लिए हमें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है उसकी यह एक मिसाल है।
   नीचता और मनोविकारी विचारधारा के पोषक माओवादियों ने जिस अंदाज में समर्पण करने के बाद पूर्व सांसद महेंद्र कर्मा और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल व उनके बेटे की हत्या की, वह उनके वहशीपन को उजागर करने के लिए काफी है। ऐसे लोगों के लिए टीवी चैनलों पर कुछ भगवाधारी और कथित बुद्धिजीवी कैसे तर्क दे रहे हैं कि उन्हें सुनना भी पाप है। नक्सली तो यही चाहते हैं कि सरकारी और सियासी तंत्र उनके इलाकों से दूर रहे और वे मनचाहा जंगल राज चलाते रहें।
नासूर बना माओवादः
  आज जबकि माओवाद एक नासूर के रूप में देश की रगों में फैल रहा है, देश के 17 राज्य और 200 जिले इसकी चपेट में हैं, हमें यह सोचना चाहिए कि आखिर इस जंग में कौन जीतेगा? क्या भारतीय राज्य ने इन नरभक्षियों के आगे समर्पण कर दिया है? अगर कर दिया है तो किस मुंह से हम सुपरपावर होने के नारे दे रहे हैं? यही समय है कि हम इस संकट को इसके सही अर्थ में पहचानें और उसके त्रिस्तरीय समाधान के लिए एक राष्ट्रीय कार्ययोजना बनाएं। इस समस्या से सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और कानून-व्यवस्था तीनों मोर्चों पर लड़ना होगा। हमें उन लोगों की भी पहचान करनी होगी जो माओवादियों को विचारधारात्मक आधार पर मदद कर रहे हैं। शहरों में उनके टुकड़ों पर पल रहे कुछ बुद्धिजीवी,पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं का बाना ओढ़कर इस देश के लोकतंत्र को कमजोर करने में लगी ताकतों को भी हमें बेनकाब करना होगा।
कैसे जीत रहे हैं भरोसाः
 यह घोर चिंता का विषय है कि माओवादी किस तरह आम आदिवासियों के बीच अपनी घुसपैठ बना चुके हैं। वे चाहते हैं कि विकास की रोशनी उन तक न पहुंचे। सरकारी तंत्र और राजनीतिक कार्यकर्ता उनके इलाकों तक न जाएं। सुकमा में हुआ हमला इसकी एक नजीर है कि माओवादी चाहते हैं कि कोई राजनीतिक पहल उनके इलाकों में न हो। नंदकुमार पटेल शायद इसलिए उनके एक नए शत्रु बनकर उभरे क्योंकि वे बस्तर इलाके में निरंतर प्रवास करते हुए एक राजनीतिक पहलकदमी को जन्म दे रहे थे। महेंद्र कर्मा से उनकी अदावत तो समझी ही जा सकती है। माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों को सरकारी और सियासी हस्तक्षेप तथा विकास की गतिविधियों से काटकर आदिवासियों के रहनुमा बनना चाहते हैं। यह साधारण नहीं है कि जब कोई ऐसी पहल होती है जिसमें लोग आदिवासियों से संवाद की कोशिशें करते हैं तो माओवादियों में घबराहट फैल जाती है। सलवा जूडूम से लेकर कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के खिलाफ माओवादियों का गुस्सा इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। सलवा जूडूम के कथित अत्याचारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लेकर दुनिया भर में हाय-तौबा मचाने वाले मानवाधिकारवादी, उनके वकील और बुद्धिजीवी इस समय कहां हैं। वे माओवादी हिंसा, हिंसा न भवति के सूत्र पर काम करते हैं। वे राज्य की हिंसा पर आसमान उठा लेने वाले माओवादियों की रक्त क्रांति की रूमानियत पर मुग्ध हैं। किंतु अफसोस लड़ने और मारने वालों में उनका कोई परिजन नहीं होता, वरना शायद उनका रोमांटिज्म कुछ टूटता। भय का व्यापार कर रहे माओवादी एक संगठित,सुविचारित, रणनीतिक शैली में काम कर रहे हैं। उन्होंने अपने लक्ष्य कभी छिपाए नहीं। वे साफ कहते हैं कि वे 2050 में भारतीय राजसत्ता पर बंदूकों के बल पर कब्जा कर लेगें। उनके तौर-तरीके गुरिल्ला वार के हैं और अमानवीय हैं। किंतु कुछ लोग किस आधार पर इन नरभक्षियों के मानवाधिकारों की बात करते हैं इसे समझना कठिन ही नहीं, असंभव है। यह मानना होगा कि सामान्य परिस्थियों में जो मानवाधिकार संरक्षित किए जाते हैं, वही युद्ध की परिस्थितियों में नहीं रह जाते। माओवादी इलाके एक असामान्य परिस्थितियों से घिरे हैं। हम जिनके मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं क्या वे मानव रह गए हैं? या हम राक्षसों और नरभक्षियों के लिए मानवाधिकार मांग रहे हैं?
   सच तो यह है कि हम माओवाद को एक राष्ट्रीय समस्या मानकर इसके समाधान के लिए निर्णायक प्रयास प्रारंभ करने के बजाए तू-तू-मैं-मैं में लगे हैं। राजनैतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करने के बजाए ऐसी घटनाओं के भी छुद्र राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिशें करते हैं।
क्या करें राजनीतिक दलः
  राजनीतिक दलों के बारे में देशवासियों की राय अच्छी नहीं है तो इसके लिए वे स्वयं भी जिम्मेदार हैं। इस बात की चर्चाएं आम हैं चुनाव जीतने के अनेक राजनेता माओवादियों की मदद लेते हैं। उनको धन उपलब्ध कराते हैं। अगर यह सच है तो डूब मरने की बात है। किंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आजतक किसी राजनीतिक दल ने उनकी आतंकी गतिविधियों का समर्थन नहीं किया। यानि हिंसा के खिलाफ सभी प्रमुख राजनीतिक दल एक हैं। यह एक आधार है जहां हमें साथ आना चाहिए। एक लोकतंत्र में रहते हुए हम किसी तरह के अतिवादी, आतंकवादी स्वरूप को समाज में स्थापित नहीं होने देंगें। इसे एक वैचारिक संघर्ष मानकर हमें आगे बढ़ना होगा। राजनीतिक दलों को इस आरोप को झुठलाना होगा कि वे माओवादियों का राजनैतिक इस्तेमाल करते आए हैं। आंतरिक सुरक्षा के जानकारों के साथ बैठकर राजनीतिक दलों को एक राष्ट्रीय प्लान बनाना होगा। इस योजना पर लंबी और दीर्धकालिक रणनीति बनाकर अमल करना होगा। किंतु अफसोस यह है कि दिल्ली की यूपीए सरकार अपने ही अंतर्विरोधों से घिरी है, उसमें एक दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव भी दिखता है। ऐसे में चुनाव बाद आने वाली किसी भी सरकार के सामने यह संकल्प स्पष्ट होना चाहिए कि माओवाद को समाप्त करने के लिए वह एक निर्णायक जंग छेंड़ें। क्योंकि उस सरकार के पास समय भी होगा और आत्मविश्वास भी। हमें यह मान लेना चाहिए कि यह समस्या राज्यों के बस की नहीं है। केंद्र और राज्यों का समन्वय बनाकर एक साझा रणनीति ही इसका समाधान है।
राजनीति नहीं समझदारी की जरूरतः
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा इस मुद्दे पर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से बातें बनने के बजाए बिगड़ेंगीं। छत्तीसगढ़ में घटी इस घटना के बाद भी इस तरह की राजनीति शुरू की गयी और माहौल का राजनीतिक लाभ उठाने,वातावरण को बिगाड़ने के जत्न शुरू किए गए। किंतु कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व और राहुल गांधी को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि उन्होंने पूरे मामले को बिगड़ने से बचा लिया। यह भी एक बड़ी बात थी श्री राहुल गांधी शनिवार की रात को ही रायपुर पहुंचे उससे कार्यकर्ताओं को उत्तेजित करने के प्रयासों में लगे कुछ लोगों को निराशा ही हाथ लगी। रविवार सुबह रायपुर पहुंचकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गांधी ने जिस तरह विषय को संभाला उसके लिए कांग्रेस नेतृत्व को बधाई दी जानी चाहिए। दरअसल राष्ट्रीय संकट के समय हमारा यही चरित्र ही हमारी ताकत है। अब राजनीतिक दलों को यह तय करना पड़ेगा कि माओवाद के खात्मे के बिना आप इन इलाकों में विकास नहीं कर सकते। यह घटना एक अवसर भी है हम उस दिशा में बढ़ सकें, क्योंकि हर संकट एक अवसर लेकर भी आता है। राजनीतिक दल अगर इसे पहचान कर इस संकट से उठे प्रश्नों का समाधान ढूंढ सकें तो बड़ी बात होगी।

कैसे होगा विकासः
  यह विडंबना ही है कि 11 पंचवर्षीय योजनाएं चलाकर भी हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से की जिंदगी में हम उजाला नहीं ला सके। गरीबी आज भी बनी हुयी है। नई आर्थिक नीतियों ने आदिवासियों और निर्बल लोगों के हिस्से और अँधेरा परोसा है। हमें सोचना होगा कि जनजातियों में इतना आक्रोश क्यों है? क्योंकि यह आक्रोश अकारण भी नहीं है। आज जनजातियों को यह लगता है कि पटवारी से लेकर कलेक्टर तक सब उसके जल, जंगल और जमीन को हड़पने के लिए आमादा हैं। इस भावना को कैसे तिरोहित किया जा सकता है, इस पर विमर्श की जरूरत है। यह तंत्र जिसको भ्रष्टाचार का दीमक लगातार चाट रहा है कैसे यह भरोसा दिला पाएगा कि वह जनजातियों और कमजोर लोगों के साथ है? विकास के प्रकल्पों और उद्योग-धंधों के नाम पर देश में 6 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं। इन जमीन से उखड़े हुए लोगों के लिए हमारे पास क्या समाधान है? जाहिर तौर पर व्यवस्था के प्रति नाराजगी काफी गहरी है और ये स्थितियां आतंकी माओवादियों के जड़ें जमाने में मददगार हैं। आज हालात यह हैं कि सरकारी तंत्र चाहे भी तो माओवादी आतंक के चलते इन इलाकों में विकास के काम नहीं कर सकता। इसलिए जरूरी है कि हम इलाकों को पहले माओवादियों से खाली कराएं, उन पर भारतीय राज्य का कब्जा हो और तब विकास व सृजन की बात हो पाएगी। सही मायने में यह समस्या एक विचार से जुड़े लोगों की सोची- समझी साजिश तो है ही, साथ ही कुशासन और भ्रष्टाचार इसे बढाने का काम कर रहे हैं। यह हमारी आंतरिक समस्या है जो हमारे कुशासन, निकम्मेपन, लालचों, रक्त में घुस चुके भ्रष्टाचार के चलते ही गहरी हुयी है। नक्सली भी इसी भ्रष्टाचार के सहारे फल-फूल रहे हैं। वरन क्या कारण है कि उन तक विदेशी हथियार, अत्याधुनिक तकनीक और खान-पान का सामान आसानी से पहुंच रहा है। हमारे ही नेताओं, अधिकारियों, पूंजीपतियों की मदद से वे अपना कथित जनयुद्ध चला रहे हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में वे 600 करोड़ की लेवी सालाना वसूल रहे हैं और इस पैसे से भारतीय नागरिकों की ही बलि ले रहे हैं। यह कहने में संकोच नहीं है कि माओवादी लेवी वसूली, अपहरण, महिलाओं का शोषण, आदिवासियों के विकास के विरोधी, भारतीय राज्य के शत्रु, अवैध हथियारों के तस्कर और अत्याचार का दूसरा नाम हैं। ऐसे लोगों के प्रति सहानुभूति के बोल रहे लोग क्या देश के शत्रु नहीं हैं? जिनकी इस लोकतंत्र में सांसें घुट रही हैं वे क्या कथित माओवादी राज में चैन ले सकेंगें? सच तो यह है कि माओवादी राज किसी भी बुरे से बुरे लोकतंत्र से बुरा होगा। लाखों चीनियों की हत्याओं पर खड़ा माओवाद, स्टालिनवाद का चेहरा तो अमानवीय नहीं, वीभत्स भी है। चीन ही नहीं पूरी दुनिया इस विचार से पल्ला झाड़ चुकी है। ऐसे हिंसक और अमानवीय विचारों के लिए भारतीय जमीन पर कोई जगह नहीं है, यह माओवादी समर्थकों को मान लेना चाहिए। नई दुनिया में लोकतंत्र सबसे लोकप्रिय विचार है और इसके दोषों को दूर करते हुए हमें एक नया भारत बनाने की ओर बढ़ना होगा।
आतंकवाद और माओवाद को अलग करेः
  यह कहा जा रहा है कि आतंकवाद और माओवाद दोनों एक हैं। इसे अलग करके देखने की जरूरत है। वैश्विक आतंकवाद के मुहाने पर तो हम हैं किंतु माओवाद एक आंतरिक समस्या है, जिससे जरा सी सावधानी से निपटा जा सकता है। माओवाद से आप सुशासन और भ्रष्टाचार पर थोड़ी लगाम लगाकर निपट सकते हैं किंतु वैश्विक आतंकवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं और उनके इरादे अलग हैं। हमें यह मानना ही होगा अब समय आ गया है कि हम माओवादी के खूनी पंजे से अलग नहीं हुए तो यह हमारे लोकतंत्र को खा जाएगा। रेड कारीडोर बनाकर खून की होली खेल रहे माओवादियों के खिलाफ हमने यह निर्णायक जंग आज प्रारंभ न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

ये है माओवादियों का नरभक्षी न्याय


                                                                               -संजय द्विवेदी

 इस फोटो को गौर से देखिए. एक नौजवान जिसकी आंखों में भविष्य के सपने और मासूमियत है। ये हैं श्री दिनेश पटेल, नक्सली हमले में शहीद हुए प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल के बेटे। अपने पिता के साथ दिनेश भी नक्सली हमले में शहीद रहे। आखिर दिनेश का दोष क्या था। वे किसी तरह की राजनीति का हिस्सा भी नहीं थे। राज्य की हिंसा पर हाय-हाय करने वाले स्वामी अग्निवेश, बहन अरूंधती राय और मानवाधिकार वादी बताएंगें कि आखिर दिनेश पटेल जैसे युवाओं या श्री नंदकुमार पटेल जैसे कृषक परिवार से आने वाले नायकों की हत्या कहां का जनयुद्ध् है। व्यापारियों से लेवी वसूलकर भ्रष्टाचार के धन पर ऐश करने वाले नक्सली नेता सही मायने में नरभक्षी हैं। इस हिंसक अभियान का अंत बहुत बुरा होगा। पर न जाने कितने युवाओं की जान लेने के बाद।
दिनेश पटेल से मेरा संपर्क उनके पिता के नाते ही आया। एक लायक पुत्र की तरह वे अपने पिता को संभालते थे, हमारे जैसे उनके न जाने कितने संपर्कियों को भी। अभी हाल में ही परिवार में छोटे भाई की शादी थी, दिनेश जी का फोन आया बोले भोपाल से आपको सपरिवार आना है। बहुत आग्रह किया। शादी का कार्ड भेजने पता लिया। बीच में रायपुर पहुंचा तो बंगले पर आने को कहा और अपने चचेरे भाई संजय पटेल से फोन पर कहा कि संजय द्विवेदी आ रहे हैं, उन्हें उनका कार्ड हाथ में देना। संजय पटेल मिले बात हुयी। शादी में आने का आग्रह भी। भोपाल आया तो एक कार्ड पहले से विश्वविद्यालय के पते पर आ चुका था। अपने पिता के चाहनेवालों की इतनी चिंता करने वाले दिनेश बहुत कम समय में मेरे बहुत करीब आ गए थे। एक बड़े पिता के पुत्र होने का गुमान नहीं, बल्कि विनम्रता और जिम्मेदारी उनमें दिखती थी। उनकी हत्या से नक्सलियों को क्या मिला नहीं कह सकता, पर मैने एक मित्र और छोटा भाई खोया है। दिनेश जैसी पवित्र आत्मा के हत्यारों को समय जरूर सजा देगा, ये कायर, वोट और नोट की भिखारी राजनीति भले उन्हें माफ कर दे। दिनेश तुम्हें भूलना कठिन है। तुम्हारी फोन पर बेहद विनम्र और गहरी आवाज गूंज रही है- "भैया पापा भोपाल पहुंच रहे हैं-सर्किट हाउस में रूकेंगे, आप चाहें तो उनसे मिल लेना।"

नंदकुमार पटेलः तुमको न भूल पाएंगे



                                                       -संजय द्विवेदी  
 अभी कुछ ही दिन तो हुए रायपुर गए हुए। श्री नंदकुमार पटेल के शंकर नगर स्थित बंगले पर उनसे मुलाकात हुयी। बहुत खुश थे वे। बेटे की शादी की खुशी। उन्होंने कहा आना है आपको। मैंने उन्हें अपनी पत्रिका मीडिया विमर्श का सिनेमा अंक दिया। उन्होंने पूछा कैसे इतना काम कर लेते हो यार। मैंने कहा आप जैसे नेताओं से तो कम ही करता हूं। नाश्ता कराया। साथ में मेरे साथी पत्रकार बबलू तिवारी भी थे।
  श्री नंदकुमार पटेल से मेरा रिश्ता तब बना जब वे छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री थे। एक किसान परिवार से आने के नाते सहजता और सरलता ऐसी कि कोई भी मुरीद हो जाए। खरसिया विधानसभा क्षेत्र से लगातार पांच बार भारी अंतर से वे यूं ही नहीं जीतते थे।भरोसा नहीं होता कि इतनी जल्दी सब कुछ बदल जाएगा। एक हंसता-खेलता आदमी, जिस पर भरोसा कर कांग्रेस ने अपने बिखरे परिवार को एक करने की जिम्मेदारी दी, उसने अपनी कोशिशें भी शुरू कीं। छत्तीसगढ़ में पस्त पड़ी कांग्रेस के संगठन में हलचल होनी शुरू हुयी और शनिवार को खबर आयी कि नंदकुमार पटेल जी का अपहरण हो गया।
   रविवार सुबह मेरे दोस्तों का फोन आया कि उनका शव मिला है। बर्बर नक्सली हिंसा के वे भी शिकार हुए। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष और मप्र तथा छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री रहे नंदकुमार पटेल और उनके बेटे श्री दिनेश पटेल की शहादत मेरे लिए बेहद निजी क्षति है। उन दिनों मैं बिलासपुर के दैनिक भास्कर अखबार में नौकरी करता था। तीन साल मुंबई रहकर लौटा था। छत्तीसगढ़ में अपने पुराने रिश्तों को रिचार्ज कर रहा था। उसी दौर में पटेलजी से मुलाकात हुयी। गृहमंत्री थे राज्य के। पहले मप्र में भी गृहमंत्री रह चुके थे। अपने व्यवहार से उन्होंने कभी यह नहीं जताया कि वे एक बड़ी कुर्सी पर हैं। वे जब रायगढ़ या खरसिया जा रहे होते तो हम उनसे मिलते। रायपुर जाते तो उनके बंगले पर भी जाते। उनकी गर्मजोशी कभी कम नहीं होती। इस बीच हमने बिलासपुर में अपनी किताब इस सूचना समर में के विमोचन का कार्यक्रम बनाया। पुस्तक का लोकार्पण महामंडलेश्वर स्वामी शारदानंद सरस्वती को करना था। कुछ अन्य अतिथियों को भी बुलाने की सोची। राजनीतिक क्षेत्र से एक ही नाम ध्यान में आया नंदकुमार पटेल का। शायद इसलिए कि हमें भरोसा था कि वे कहेंगें तो आएंगें। स्वदेश के संपादक राजेंद्र शर्मा, पं.श्यामलाल चतुर्वेदी, पत्रकार-संपादक दिवाकर मुक्तिबोध आदि की मौजूदगी में यह आयोजन हुआ। उसके बाद उनसे रिश्ता और प्रगाढ़ होता गया। वे खुद भी फोन लगाकर कुछ पूछ लेते खबरों के बारे में। खासकर जब उनकी पार्टी विपक्ष में आयी तब विधानसभा में सवाल उठाने के लिए कई बार मुद्दों पर चर्चा करते। उन्हें अपने से छोटों से विमर्श करने में गुरेज नहीं था। माटी की महक उनके साथ थी।
  इस बीच मुझे रायपुर शिफ्ट होना पड़ा। कई नौकरियां छोड़ी- पकड़ीं। जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ में रहे तो दिल से नाम का एक टीवी शो हम हर हफ्ते करते थे। मौके पर जाकर ही शूट करते थे। थोड़ा अनौपचारिक सा शो था। नेताओं की रीयल लाइफ दिखाते थे। थोड़ी हार्डकोर बात भी करते थे। उसके लिए अनेक दिग्गजों पर कार्यक्रम बनाए। खरसिया गए तो स्व.लखीराम जी अग्रवाल पर कार्यक्रम बनाया, वहीं पास में नंदकुमार पटेल जी का गांव है नंदेली। उनसे पूछा तो कहा आ जाओ तुम्हारा घर है। उन पर भी उसी दिन प्रोग्राम शूट किया। हां, साथ में श्री रविकांत मित्तल भी थे, जो इन दिनों आजतक के कार्यकारी संपादक हैं।
    नंदेली में उनके परिजनों से भेंट हुयी। उनकी बेहद सरल धर्मपत्नी से भी बात हुयी। सोचता हूं तो आंखें भर आती हैं। एक साथ पति और बेटे की शहादत से उनके दिल पर क्या गुजर रही होगी। एक हंसता-खेलता परिवार कैसे बिखर जाता है। नक्सली आतंकवाद के पैरोकार बुद्धिजीवी इसे समझकर भी नहीं समझना चाहते। भोपाल आए चार साल हो गए। अब उनका भोपाल आना कम होता था। राजधानी रायपुर है और बड़ी राजधानी दिल्ली। इस बीच मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी पत्नी का निधन हुआ। उन्हें राधोगढ़ जाना था। रायपुर से भोपाल के लिए निकले तो अपने बेटे दिनेश पटेल से मुझे कहलाया कि मैं अगर फ्री हूं तो मिल सकता हूं। मैं अपने सहयोगी-मित्र प्रदीप डहेरिया के साथ उनसे मिला। वही सहजता, भरोसा और अपनापन। फिर कहा कहां यार, छत्तीसगढ़ छोड़ दिया आपने। आप जैसे लोगों की जरूरत है राज्य में। मैंने कहा कि मप्र भी आपका पुराना राज्य और भोपाल आपकी पुरानी राजधानी है। यहां भी आपके चाहने वाले होने चाहिए। वे मुस्कराकर रह गए। कोई जवाब नहीं दिया। मेरी पत्रिका मीडिया विमर्श को उलटते रहे जिसमें उनका एक चित्र पत्रिका पढ़ते हुए एक मैगजीन के ब्रांडिग एड के साथ लगा था।
   इसी महीने मेरी उनसे फोन पर लंबी बात हुयी। मैं बिलासपुर के दिग्गज कांग्रेसी नेता बीआर यादव पर एक पुस्तक का संपादन कर रहा हूं। बीआर यादव छत्तीसगढ़ के बड़े नेताओं में हैं, लंबे अरसे तक मप्र सरकार में मंत्री रहे। नंदकुमार पटेल से उनके व्यक्तिगत रिश्ते थे। पटेल जी परिवर्तन यात्रा में व्यस्त थे। मैंने कहा किताब तैयार है- आपका लेख चाहिए। बोले मैं आपको लिखवा देता हूं, कल सुबह आठ बजे फोन करिएगा। सुबह साढ़े आठ बजे उन्हें फोन लगाया वे नंदेली में थे। पूरी बात की, मुझे पूरा समय देकर नोट्स दिए। उनका शायद यह आखिरी लेख होगा। जो जल्दी ही बीआर यादव पर केंद्रित पुस्तक कर्मपथ में प्रकाशित होगा। वे इस योजना को लेकर उत्साहित थे कहा कि आप अच्छा काम रहे हैं, हम लोग डाक्युमेंटेशन में पीछे रह जाते हैं। चलिए इस बहाने यादव जी और उस दौर की राजनीति पर एक अच्छी किताब पढ़ने को मिलेगी। साथ ही यह भी कहा कि जब भी बिलासपुर में कार्यक्रम रखें मुझे जरूर बताएं। यादव जी हमारे नेता रहे हैं, उनके कार्यक्रम में मुझे आना है। मैंने कहा आप तो पार्टी के अध्यक्ष हैं, मेरे जवाब पर वे मुस्करा दिए। लेकिन सोचा हुआ सब कहां संभव होता है।
   अभी पिछले सप्ताह 19 मई,2013 को उन्होंने अपने छोटे बेटे की शादी का उत्सव किया और फिर निकल पड़े अपने राजनीतिक मिशन पर। क्या पता था कि मौत उनके इतने करीब खड़ी है। उनका न होना एक शून्य रच रहा है जिसे भर पाना संभव नहीं है। उनका अपना परिवार और वह परिवार जिसको उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता से खड़ा किया था दोनों के लिए यह दुख की घड़ी है। उनकी स्मृतियां हमारा संबल हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि नंदकुमार पटेल की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी और माओवादी आतंक का नरभक्षी खेल खत्म होगा।

इस हमले से भी न संभले तो बहुत देर हो जाएगी



    माओवाद के खिलाफ निर्णायक जंग की जरूरत    
   - संजय द्विवेदी
    छत्तीसगढ़ में शनिवार को कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुआ माओवादी हमला और उसमें कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की हत्या एक ऐसा दुख है जिसे देश के लोग लंबे समय तक नहीं भूल पाएंगें। माओवादी आतंकवाद को पालते-पोसते हुए हमारी सरकारें और राजनीति यह भूल गयी कि इसकी आंच देर-सबेर उनके दामन को भी झुलसा सकती है। हमें पता है कि हम एक खतरनाक वैचारिक दानवी आतंकवाद के सामने हैं, जिसका घोषित लक्ष्य हमारे लोकतंत्र को समाप्त कर 2050 तक भारत की राजसत्ता पर कब्जा करना है। किंतु सावन के अंधे हमारे कुछ बुद्धिजीवी और कुछ अर्धशिक्षित राजनेता इस संकट की व्याख्या सामाजिक और आर्थिक समस्या के रूप में करते हुए स्वयं के ज्ञान पर मुग्ध होते रहते हैं। बस्तर के शेर कहे जाने वाले पूर्व मंत्री एवं सांसद रहे महेंद्र कर्मा, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और मप्र व छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री रहे नंदकुमार पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार की हत्या के सबक हमने आज न लिए तो कल बहुत देर हो जाएगी।
    नक्सलियों का खूनी खेल इस देश की जमीन पर जारी है और हमारी सरकारें अपनी कमजोर इच्छाशक्ति और चुनाव जीत लेने की मानसिक बीमारियों से धिरी हुयी हैं। पांच साल तक की सोचने वाली राजनीति और भ्रष्ट तंत्र क्या खाकर माओवादियों से लड़ेगा, यह एक बड़ा सवाल है। अब तक छत्तीसगढ़ में सुरक्षा से जुड़े जवानों की हत्याएं लगातार हो रही थीं। जब छत्तीसगढ़ में 6 अप्रैल,2010 को एक साथ 73 सीआरपीएफ जवानों की हत्या नक्सलियों ने की थी, जिस पर लेखिका अरूंधती राय ने दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम भेजा था। क्या वह समय नहीं था कि हम चेत जाते और कुछ ऐसा करते कि घटनाओं की पुनरावृत्ति न होती। किंतु पांच साल की सोचने वाली सरकारें, लूट और भ्रष्टाचार में लगा सरकारी तंत्र कैसे माओवादियों की संगठित, समर्पित रणनीति का मुकाबला करेगा? हमारे आदिवासियों को इस तंत्र ने मौत के मुंह में झोंक दिया है। अकेले छत्तीसगढ़ से नक्सली 600 करोड़ रूपए की लेवी व्यापारियों, अधिकारियों और उद्योगों से वसूल रहे हैं। हमने इन इलाकों को छोड़ दिया है कि यहां जो भी हो। आखिर इस तरह हम अपने लोकतंत्र को कैसे बचा पाएंगें। बस्तर के सारे जनप्रतिनिधि गगनविहारी हो चुके हैं। वे हेलीकाप्टर से अपने इलाकों में जाते हैं या तो नहीं जाते हैं। कांग्रेस के दिग्गजों ने सड़क मार्ग से निकलने की हिम्मत की तो उनका हश्र देख लीजिए। आखिर माओवादी चाहते यही हैं कि लोकतंत्र, सरकार, राजनीतिक दल नाम की चीज इन इलाकों से अनुपस्थित हो जाएं। माओवादियों के पनपने का कारण यही है कि हमारा लोकतंत्र विफल हो रहा है। यह विफल और नकली लोकतंत्र ही माओवाद को खाद-पानी दे रहा है। राजनीति और प्रशासनिक तंत्र के नैतिक पतन, जनता से टूटे सरोकारों, धन की प्रकट पिपासा ने यह हालात पैदा किए हैं। ऐसे में हमारी राजनीति ने अपनी जमीन छोड़ दी है, प्रशासन तंत्र सिर्फ पैसे की लूट में लगा है और पुलिस थानों में छिपी अपनी जान बचा रही है। जहां सरकार न हो वहां जंगलराज ही बच जाता है।
    यहां भारतीय राज्य की अनुपस्थिति ने माओवादियों को मनमानियों के अपार अवसर दिए हैं। ये इलाके लूट के इलाकों में बदल गए हैं। सरकारी अधिकारी भी इनके ही रहमोकरम पर हैं। रायपुर के पुलिस हेडक्वार्टर में बैठे अफसर आपसी गंदी राजनीति में लगे हैं और उन्हें अपने वातानूकूलित कमरों से निकलने की फुरसत नहीं है। ऐसे में माओवादी अपने इरादों में सफल होते नजर आते हैं। शहरों में कार्यरत माओवादियों के समर्थक बुद्धिजीवी, पत्रकार और स्वयंसेवी संगठन चलाने वाले सफेदपोश लोकतंत्र के प्रति लोगों में अविश्वास पैदा करने के यत्न में अलग लगे हैं। नक्सलियों को धन देकर चुनाव जीतने वाली राजनीति आखिर कैसे इन इलाकों में अपना नैतिक आधार बना सकती है, यह सोचने की जरूरत है। सबसे दुखद यह है कि सरकार ने बड़ी संख्या में केंद्रीय सुरक्षा बलों को इन इलाकों में बिना किसी नीति के झोंक रखा है। उन्हें पता नहीं कि करना क्या है, वे जंगल में कठिन स्थितियों में पड़े हैं और अपनी जान गंवा रहे हैं। एक लोकतंत्र को बचाने के लिए यह कीमत बहुत ज्यादा है। उद्देश्यहीन और लक्ष्यहीन राजनीति हमें कहीं नहीं पहुंचाती और अंततः हमें उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
   बस्तर जैसे इलाकों को हमने आखिर किसके भरोसे छोड़ रखा है? इन इलाकों का सबसे बड़ा संकट माओवादी आतंकवाद है, इस आतंक के खिलाफ हमारी नीति क्या है? अगर यह सामाजिक-आर्थिक समस्या भी है तो भी क्या हमने इसके निदान के लिए ईमानदार प्रयास प्रारंभ किए हैं? अगर यह कानून- व्यवस्था की समस्या है तो हम इससे निपटने के लिए संकल्पबद्ध हैं? इस जंग को जीतने के लिए हमारे पास क्या ब्लूप्रिंट है। साल-दर-साल नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि करते जा रहे हैं और हमारा नक्सली हिंसा से लड़ने का बजट बढ़ता जा रहा है, किंतु घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। हमें सोचना होगा कि इसी देश ने पंजाब के बर्बर आतंकवाद का मुकाबला कर जीत हासिल की थी। किंतु अफसोस है कि हमारे पास उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री और पंजाब में बेअंत सिंह जैसे संकल्प के धनी मुख्यमंत्री थे। दोनों को अपनी शहादत देनी पड़ी किंतु पंजाब आज राहत की सांस ले रहा है।
   आज के हालात में हमारी सरकारों को दृढ़ संकल्प लेना होगा। दिल्ली की केंद्रीय सरकार और राज्यों के मुख्यमंत्री एक संकल्प लेकर, समन्वय के साथ, कुछ ईमानदार और दृढ़ प्रतिज्ञ अधिकारियों को इन इलाकों में उतारकर काम प्रारंभ करें तो यह जंग जीतना कठिन नहीं है। लंका जैसा देश अगर लिट्टे के जहर की काट ढूंढ सकता है तो हम कोई साधारण देश नहीं हैं। किंतु समस्या यह है कि आतंकवाद और माओवादी आतंकवाद के सामने हमारा रवैया बेहद बेईमानी भरा है। कई बार यह भी लगता है कि क्या हम माओवादी आतंकवाद से लड़ना भी चाहते हैं या नहीं?
   नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा, उदय् मुदलियार और उन तमाम निरीह आदिवासियों व सुरक्षाबलों के लोगों की शहादत हमसे यह सवाल कर रही है कि आखिर यह कब तक चलेगा? क्या हम अपने छोटे स्वार्थों, राजनीतिक बेईमानियों और आर्थिक लालचों में पड़कर झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों को भगवान भरोसे छोड़ देंगें? हमें समझना होगा कि यह एक ऐसा संघर्ष है जिसकी जड़ें एक विदेशी विचार में है, जो भारत का सबसे बड़ा प्रतिद्धंदी बनकर उभरा है। भारत को कमजोर करने और तोड़ने के प्रयासों में बन रहा रेड कारीडोर और देशतोड़क ताकतों का आपसी समन्वय कई बार प्रकट हो चुका है किंतु क्या कारण है कि हम सबकुछ जानकर भी अनजान बने बैठे हैं? यह जंग अब भर्त्सना, निंदा,बैठकों, योजनाओं और विमर्शो से नहीं लड़ी जा सकती है। हमें माओवादियों को समझते हुए उसका प्रतिकार करना होगा।
      हमारी राजनीति के  लिए बस्तर के सुकमा में घटी यह घटना एक सबक भी है और चेतावनी भी। जितनी सक्रियता राजनीतिक दल इस समय दिखा रहे हैं और प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी तक इस घटना पर संवेदनशील दिख रहे हैं और रायपुर पहुंचे हैं। कृपया इस घटना को राजनीतिक हथियार बनाने के बजाए माओवाद के अंत के संकल्प का क्षण बनाइए। अब तय कीजिए कि बस्तर या देश के अन्य इलाकों में अब माओवाद के नाम पर कोई खून नहीं बहेगा। भारत की सरकार और हमारी राज्य की सरकारें अगर तय कर लें तो क्या नहीं हो सकता। पूरा देश इस संकल्प के साथ खड़ा दिखेगा।
  अपनी लालचों चाहे वो वोट की हों या पैसे की उसे थोड़ा विराम दीजिए। कुछ ही समय में करोड़पति बनाने के सपनों वाली राजनीति से थोड़ा मुंह मोडिए और सोचिए कि इस हिंसा में देश के सबसे खूबसूरत लोग मारे जा रहे हैं। आम आदिवासी इस हिंसा का सबसे बड़ा शिकार बन रहा है। आदिवासी जो जंगलों का राजा था, जो प्रकृतिपूजक है उसके हाथों में माओवादियों ने बंदूकों पकड़ा दी हैं। हरे जंगलों में बारूदों और मांस के लोथड़ों की गंध फैली हुयी है। हमें इस चित्र को बदलने के लिए निर्णायक संकल्प लेना होगा। यही संकल्प भारतीय लोकतंत्र के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा। जंगलों में फिर से अमन- चैन और महुआ की खुशबू फैलेगी, पर शर्त यही है कि लालची, लुटेरी और लोभी राजनीतिक के बस का यह काम नहीं है। यह होगा संकल्प से दमकते सामाजिक कार्यकर्ताओं, ईमानदार प्रशासनिक-पुलिस अधिकारियों और दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति से। क्योंकि ध्यान दीजिए यह लड़ाई अपनों के साथ है, इसलिए शत्रु की पहचान भी सावधानी से करनी होगी। ताकि निर्दोष लोग इस जंग के शिकार न हों। केंद्रीय सुरक्षा बलों को सही नेतृत्व व दिशा देकर बिना सेना को उतारे, हम यह जंग जीत सकते हैं किंतु क्या भारतीय राज्य अपने अंतर्विरोधों को छोड़कर यह लड़ाई लड़ने को तैयार है?

सोमवार, 18 मार्च 2013

भोपाल में 23 और 24 मार्च को स्वामी विवेकानंद पर संगोष्ठी



मंगलवार, 12 मार्च 2013

सन्यासी का संचार शास्त्र



                         -संजय द्विवेदी
 स्वामी विवेकानंद ज्यादा बड़े सन्यासी थे या उससे बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? ये सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं,तीनों ही क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैं, प्रबंधक हैं और सन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा एक सन्यासी अगर युवाओं का रोल माडल बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं है, किंतु विवेकानंद के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। आज के डेढ़ सौ साल पहले कोलकाता में जन्मे विवेकानंद और उनके विचार अगर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस घरती पर तो चमत्कार सरीखा ही था। उनकी डेढ़ सौंवी जयंती वर्ष पर देश भर में हो रहे आयोजन और उनमें युवाओं का उत्साहपूर्वक सहभाग बताता है कि देश के नौजवान आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हैं और स्वामी विवेकानंद उनके वास्तविक हीरो हैं।
   स्वामी विवेकानंद की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परंपरागत धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे समाज से भागे हुए सन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारत, उसके अध्यात्म, पुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा,वाणी और कृति स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से प्रेम में बदल देते हैं।शायद इसीलिए वे कह पाए- व्यावहारिक देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।
   अपने जीवन,लेखन, व्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैं, पूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमता, कुशल प्रबंधन के गुर,परंपरा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परंपरा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामी जी का लेखन और संवादकला उन्हें अपने समय में ही नहीं, समय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है। आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामी जी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना उस दौर में यह संभव था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाता, बल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें। उनका एक ही वाक्य –“उठो!जागो ! और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। उनकी संचार और संवादकला के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोए, निराश, हताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और उर्जा का संचार होने लगता है। स्वामी जी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी व्यवस्थित प्रस्तुति, साफा बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं बताती है कि उनमें एक सौंदर्यबोध भी है। वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वतः स्थापित हो जाती है। अपने कर्म, जीवन, लेखन, भाषण और संपूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है। अमरीका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है- आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भव, पितृ देवो भव, मातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं दरिद्र देवो भव, अज्ञानी देवो भव, मूर्ख देवो भव। यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीब, असहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं। समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानंद जी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तो, मनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्य, दरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा है।वह नर वेश में नारायण है। संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामी जी बताते हैं। सही मायने में विवेकानंद जी एक ऐसे युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां का मायने था छोटी झोपड़ियां। वे भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामी जी को जीवन में उतारना एक कठिन संकल्प है। आज जबकि कुपोषण,पर्यावरण के सवालों पर बात हो रही है। स्वामी जी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से अच्छा है, फुटबाल खेलो। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी। मात्र 39 साल की आयु में वे हमसे विदा हो गए किंतु वे कितने मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानंद के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी विवेकानंद ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दिया, शक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है। एक बेहतर कम्युनिकेटर, एक प्रबंधन गुरू, एक आध्यात्मिक गुरू, वेदांतों का भाष्य करने वाला सन्यासी, धार्मिकता और आधुनिकता को साधने वाला साधक, अंतिम व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवक, देशप्रेमी, कुशल संगठनकर्ता, लेखक एवं संपादक, एक आदर्श शिष्य जैसी न कितनी छवियां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं। उनकी डेढ़ सौवीं जयंती का साल मनाते हुए देश में विवेकानंद के विचारों के साथ-साथ जीवन में भी उनकी उपस्थिति बने तो यही भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 10 मार्च 2013

साहित्य मानव मन की सबसे पवित्र भाषाः विजयबहादुर सिंह





         
              पं.बृजलाल द्विवेदी सम्मान से नवाजे गए गिरीश पंकज
भोपाल। प्रख्यात कवि, आलोचक और लेखक विजयबहादुर सिंह का कहना है कि भारत में धर्म और राजनीति कोई दो बातें नहीं हैं। अन्यायी की पहचान और उससे लोक की मुक्ति या त्राण दिलाने की सारी कोशिशें ही धार्मिक कोशिशें रही हैं। वे यहां पं.बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे। कार्यक्रम का आयोजन भोपाल के रवींद्र भवन में मीडिया विमर्श पत्रिका द्वारा किया गया था।
राजनीति हो चुकी है लोकविमुखः
अपने वक्तव्य में उन्होंने लोकतंत्र के रोज-रोज वीआईपी और वीवीआईपी तंत्र में बदलने और गांधी द्वारा निर्देशित दरिद्रनारायणों के हितों को हाशिए लगाए जाने की स्थितियों पर गहरी चिंता व्यक्त की। साथ ही भारत के सांस्कृतिक इतिहास,तिरंगे के प्रतीक रंगों और बीच में प्रतिष्ठित चक्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने याद दिलाया कि साहित्य का काम सभ्यता के अंधेरों में मशाल की तरह जलना है। रामायण, महाभारत- भारत के लोगों के पास ऐसी ही कभी न बुझने वाली और प्रत्येक कठिन अंधेरों में अपनी रोशनी फेंकने वाली मशालें हैं। श्री सिंह का कहना था कि भारत की सत्ता राजनीति लोकविमुख हो चुकी है। विश्व पूंजीवाद और उत्तर साम्राज्यवाद अपने पांव पसार चुके हैं। वे मनुष्य को ग्राहक  के रूप में बदलने पर आमादा हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के सामने इन ताकतों से लड़ने की गहरी चुनौतियां हैं।
   उन्होंने कहा कि साहित्य मानव मन की सबसे पवित्र भाषा है।साहित्य ही सबसे अधिक दैवी और ताकतवर भाषा है। उन्होंने उम्मीद जतायी कि भारत की साहित्यिक पत्रकारिता इसके तेज और ताप की रक्षा प्रत्येक स्थिति में कर सकेगी।
सामाजिक संवाद में मर्यादाएं जरूरीः
  कार्यक्रम के मुख्यअतिथि माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि पत्रकारिता सामाजिक संवाद का ही एक रूप है। सामाजिक संवाद में अगर मर्यादाएं न होंगी तो उसका चेहरा कितना विकृत हो सकता है, इसे समझा जा सकता है। इसके लिए समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को समझे बिना पत्रकारिता बेमानी हो जाएगी। पत्रकारिता के धर्म को तय करते समय यह जरूरी है कि हम यह सोचें की पत्रकारिता का कलेवर नकारात्मक रहे या समाज को जोड़ने और विकास की ओर ले जाने वाला हो। पत्रकार और पत्रकारिता की नकारात्मक दृष्टि के पीछे इसकी धर्मविहीनता ही है। उनका कहना था कि यदि भारतीय समाज में संवाद का निर्धारण विदेशी पूंजीपतियों को करना है तो भविष्य का भारतीय समाज अपने हितों की रक्षा करेगा या विदेशी शक्तियों के योजनाओं के पालन में लगेगा, यह एक बड़ा सवाल मीडिया के सामने खड़ा है। प्रो. कुठियाला ने कहा कि जब मीडिया या मानव का संवाद व्यापार बन जाए और कुछ गिने-चुने लोग ही तय करें कि वृहत्तर समाज को क्या सुनना, देखना, पढ़ना, करना और सोचना है तो यह अप्राकृतिक और अमानवीय है। हमें इस खतरे को पहचान कर इसका भी तोड़ खोजना होगा, जिसमें सोशल मीडिया कुछ हद तक कारगर साबित हो सकता है।
बदली नहीं हैं मनुष्यता की चिंताएं-
  समारोह के अध्यक्ष प्रख्यात समाजवादी लोककर्मी रघु ठाकुर ने भारतीय पत्रकारिता के सामने उपस्थित चुनौतियों का जिक्र करते हुए कहा कि भले ही अब हालात पहले जैसे न रहे हों किंतु मानव समाज और मनुष्यता की चिंताएं कमोबेश वही हैं। इसके लिए भविष्य की पत्रकारिता को अपने हथियारों को अधिक पैना और जरूरत से ज्यादा समझदार बनाना होगा। घुटने टेकना और समझौते करना पत्रकारिता का फर्ज नहीं है। उन्होंने याद दिलाया कि हम अंततः एक लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय समाज हैं। इसमें बहुत सारी राष्ट्रीयताएं अपनी आजादी के लिए हाथ-पांव पसार रही हैं। पत्रकारों को इन सब जगहों की ओर अपनी सजगता और कर्मठता का इम्तहान देना होगा।
  कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि हरिभूमि के प्रबंध संपादक डा. हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि जिस दौर में भारत की परिवार परंपरा खतरे में हो,रिश्तों के नकलीपन उजागर हो रहे हों, उस समय में अपने पूर्वजों की स्मृति में ऐसा बड़ा आयोजन जड़ों से जोड़ने का प्रयास है। साहित्यिक पत्रकारिता ने निश्चय ही हिंदी की सेवा और गंभीर विमर्शों के क्षेत्र में बड़ा काम किया है। ऐसे में इस सम्मान की सार्थकता और प्रासंगिकता बहुत बढ़ जाती है।
  समारोह में सद्भावना दर्पण(रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज को 11 हजार रूपए की सम्मान राशि, शाल, श्रीफल, मानपत्र और प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर श्री पंकज ने कहा कि अपनी पत्रकारिता के माध्यम से वे भाषाई सद्भभावना को फैलाने का काम कर रहे हैं।
   कार्यक्रम में सर्वश्री रमेश दवे, कमल दीक्षित, सुबोध श्रीवास्तव, महेंद्र गगन, दिनकर सबनीस, हेमंत मुक्तिबोध, नरेंद्र जैन, दीपक तिवारी, गिरीश उपाध्याय, मधुकर द्विवेदी, अनिल सौमित्र,प्रकाश साकल्ले सहित अनेक साहित्यकार, पत्रकार,लेखक एवं नगर के विविध क्षेत्रों से जुड़े लोग और छात्र बड़ी संख्या में मौजूद थे। स्वागत भाषण संजय द्विवेदी ने और आभार प्रदर्शन मीडिया विमर्श के संपादक डा.श्रीकांत सिंह ने किया। कार्यक्रम का संचालन डा.सुभद्रा राठौर ने किया।
गूंजा कबीर रागः कार्यक्रम के दूसरे सत्र में पूरा रवींद्र भवन कबीर और सूफी राग में नहा उठा। अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति में पद्श्री स्वामी जीसीडी भारती ( भारती बंधु) ने समूचे श्रोता वर्ग को सूफीयाना माहौल में रंग दिया। कार्यक्रम के प्रारंभ में इस सत्र के मुख्यअतिथि पूर्व सांसद कैलाश नारायण सारंग ने भारती बंधु और सभी साथी कलाकारों का शाल-श्रीफल देकर अभिनंदन किया।
 

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

भोपाल में 5 मार्च को सम्मानित होंगें गिरीश पंकज


भोपाल, 19 फरवरी,2013। साहित्यिक पत्रिका ‘सद्भावना दर्पण’ के संपादक गिरीश पंकज को पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से 5 मार्च, 2013 को सम्मानित किया जाएगा। भोपाल के रवींद्र भवन में सायं 4 बजे आयोजित इस समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार विजयबहादुर सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्ववविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर, छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष श्यामलाल चतुर्वेदी(बिलासपुर), वरिष्ठ पत्रकार डा. हिमांशु द्विवेदी(रायपुर) मौजूद होंगे।

मीडिया विमर्श पत्रिका द्वारा प्रतिवर्ष साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले संपादकों को यह सम्मान प्रदान किया जाता है। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा( इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज (गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथप्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण और अक्सर (जयपुर) के संपादक हेतु भारद्वाज को दिया जा चुका है। मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने यह जानकारी देते हुए बताया कि सम्मान के तहत ग्यारह हजार रुपए, शाल- श्रीफल, प्रतीक चिन्ह एवं मानपत्र देकर सम्मानित किया जाता है। इस सम्मान के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव, रमेश नैयर, डा. सुभद्रा राठौर, जयप्रकाश मानस एवं डा. श्रीकांत सिंह शामिल हैं। उन्होंने बताया कि सद्भावना दर्पण विगत 16 सालों से रायपुर से निरंतर प्रकाशित एक ऐसी पत्रिका है जिसने विविध भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य का अनुवाद प्रकाशित कर भाषाई सद्भभावना को स्थापित करने में उल्लेखनीय योगदान किया है।

गूंजेगा कबीर और सूफी रागः इस मौके पर पद्मश्री से अलंकृत छत्तीसगढ़ के जाने माने लोकगायक स्वामी जीसीडी भारती (भारती बंधु) कबीर और सूफी गायन प्रस्तुत करेंगें। श्री भारती बंधु को इसी साल पद्मश्री से सम्मानित करने की घोषणा भारत सरकार ने की है। इस सत्र के मुख्यअतिथि पूर्व सांसद कैलाशनारायण सारंग होंगें।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

अटलजीः सत्ता साकेत का एक वीतरागी



           जन्मदिन (25 दिसंबर) पर विशेषः 
  हिंदुस्तानी राजनीति के आखिरी करिश्माई राजनेता हैं वाजपेयी
                         -संजय द्विवेदी
       
  अटलबिहारी वाजपेयी यानि एक ऐसा नाम जिसने भारतीय राजनीति को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से इस तरह प्रभावित किया जिसकी मिसाल नहीं मिलती। एक साधारण परिवार में जन्में इस राजनेता ने अपनी भाषण कला, भुवनमोहिनी मुस्कान, लेखन और विचारधारा के प्रति सातत्य का जो परिचय दिया वह आज की राजनीति में दुर्लभ है। सही मायने में वे पं.जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के सबसे करिश्माई नेता और प्रधानमंत्री साबित हुए।
   एक बड़े परिवार का उत्तराधिकार पाकर कुर्सियां हासिल करना बहुत सरल है किंतु वाजपेयी की पृष्ठभूमि और उनका संघर्ष देखकर लगता है कि संकल्प और विचारधारा कैसे एक सामान्य परिवार से आए बालक में परिवर्तन का बीजारोपण करती है। शायद इसीलिए राजनैतिक विरासत न होने के बावजूद उनके पीछे एक ऐसा परिवार था जिसका नाम संघ परिवार है। जहां अटलजी राष्ट्रवाद की ऊर्जा से भरे एक ऐसे महापरिवार के नायक बने, जिसने उनमें इस देश का नायक बनने की क्षमताएं न सिर्फ महसूस की वरन अपने उस सपने को सच किया, जिसमें देश का नेतृत्व करने की भावना थी। अटलजी के रूप में इस परिवार ने देश को एक ऐसा नायक दिया जो वास्तव में हिंदू संस्कृति का प्रणेता और पोषक बना। याद कीजिए अटल जी की कविता तन-मन हिंदू मेरा परिचय। वे अपनी कविताओं, लेखों ,भाषणों और जीवन से जो कुछ प्रकट करते रहे उसमें इस मातृ-भू की अर्चना के सिवा क्या है। वे सही मायने में भारतीयता के ऐसे अग्रदूत बने जिसने न सिर्फ सुशासन के मानकों को भारतीय राजनीति के संदर्भ में स्थापित किया वरन अपनी विचारधारा को आमजन के बीच स्थापित कर दिया।
समन्वयवादी राजनीति की शुरूआतः
सही मायने में अटलबिहारी वाजपेयी एक ऐसी सरकार के नायक बने जिसने भारतीय राजनीति में समन्वय की राजनीति की शुरूआत की। वह एक अर्थ में एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार थी जिसमें विविध विचारों, क्षेत्रीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले तमाम लोग शामिल थे। दो दर्जन दलों के विचारों को एक मंत्र से साधना आसान नहीं था। किंतु अटल जी की राष्ट्रीय दृष्टि, उनकी साधना और बेदाग व्यक्तित्व ने सारा कुछ संभव कर दिया। वे सही मायने में भारतीयता और उसके औदार्य के उदाहरण बन गए। उनकी सरकार ने अस्थिरता के भंवर में फंसे देश को एक नई राजनीति को राह दिखाई। यह रास्ता मिली-जुली सरकारों की सफलता की मिसाल बन गया। भारत जैसे देशों में जहां मिली-जुली सरकारों की सफलता एक चुनौती थी, अटलजी ने साबित किया कि स्पष्ट विचारधारा,राजनीतिक चिंतन और साफ नजरिए से भी परिवर्तन लाए जा सकते हैं। विपक्ष भी उनकी कार्यकुशलता और व्यक्तित्व पर मुग्ध था। यह शायद उनके विशाल व्यक्तित्व के चलते संभव हो पाया, जिसमें सबको साथ लेकर चलने की भावना थी। देशप्रेम था, देश का विकास करने की इच्छाशक्ति थी। उनकी नीयत पर किसी कोई शक नहीं था। शायद इसीलिए उनकी राजनीतिक छवि एक ऐसे निर्मल राजनेता की बनी जिसके मन में विरोधियों के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं था।
आम जन का रखा ख्यालः
 उनकी सरकार सुशासन के उदाहरण रचने वाली साबित हुई। जनसमर्थक नीतियों के साथ महंगाई पर नियंत्रण रखकर सरकार ने यह साबित किया कि देश यूं भी चलाया जा सकता है। सन् 1999 के राजग के चुनाव घोषणापत्र का आकलन करें तो पता चलता है कि उसने सुशासन प्रदान करने की हमारी प्रतिबद्धता जैसे विषय को उठाने के साथ कहा-लोगों के सामने हमारी प्रथम प्रतिबद्धता एक ऐसी स्थायी, ईमानदार, पारदर्शी और कुशल सरकार देने की है, जो चहुंमुखी विकास करने में सक्षम हो। इसके लिए सरकार आवश्यक प्रशासनिक सुधारों के समयबद्ध कार्यक्रम शुरू करेगी, इन सुधारों में पुलिस और अन्य सिविल सेवाओं में किए जाने वाले सुधार शामिल हैं राजग ने देश के सामने ऐसे सुशासन का आदर्श रखा जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, संघीय समरसता, आर्थिक आधुनिकीकरण, सामाजिक न्याय, शुचिता जैसे सवाल शामिल थे। आम जनता से जुड़ी सुविधाओं का व्यापक संवर्धन, आईटी क्रांति, सूचना क्रांति इससे जुड़ी उपलब्धियां हैं।
एक भारतीय प्रधानमंत्रीः
   अटलबिहारी बाजपेयी सही मायने में एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो भारत को समझते थे।भारतीयता को समझते थे। राजनीति में उनकी खींची लकीर इतनी लंबी है जिसे पार कर पाना संभव नहीं दिखता। अटलजी सही मायने में एक ऐसी विरासत के उत्तराधिकारी हैं जिसने राष्ट्रवाद को सर्वोपरि माना। देश को सबसे बड़ा माना। देश के बारे में सोचा और अपना सर्वस्व देश के लिए अर्पित किया। उनकी समूची राजनीति राष्ट्रवाद के संकल्पों को समर्पित रही। वे भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री भी रहे। उनकी यात्रा सही मायने में एक ऐसे नायक की यात्रा है जिसने विश्वमंच पर भारत और उसकी संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास किया। मूलतः पत्रकार और संवेदनशील कवि रहे अटल जी के मन में पूरी विश्वमानवता के लिए एक संवेदना है। यही भारतीय तत्व है। इसके चलते ही उनके विदेश मंत्री रहते पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने के प्रयास हुए तो प्रधानमंत्री रहते भी उन्होंने इसके लिए प्रयास जारी रखे। भले ही कारगिल का धोखा मिला, पर उनका मन इन सबके विपरीत एक प्रांजलता से भरा रहा। बदले की भावना न तो उनके जीवन में है न राजनीति में। इसी के चलते वे अजातशत्रु कहे जाते हैं।
  आज जबकि राष्ट्रजीवन में पश्चिमी और अमरीकी प्रभावों का साफ प्रभाव दिखने लगा है। रिटेल में एफडीआई के सवाल पर जिस तरह के हालात बने वे चिंता में डालते हैं। भारत के प्रधानमंत्री से लेकर बड़े पदों पर बैठे राजनेता जिस तरह अमरीकी और विदेशी कंपनियों के पक्ष में खड़े दिखे वह बात चिंता में डालती है। यह देखना रोचक होता कि अगर सदन में अटलजी होते तो इस सवाल पर क्या स्टैंड लेते। शायद उनकी बात को अनसुना करने का साहस समाज और राजनीति में दोनों में न होता। सही मायने में राजनीति में उनकी अनुपस्थिति इसलिए भी बेतरह याद की जाती है, क्योंकि उनके बाद मूल्यपरक राजनीति का अंत होता दिखता है। क्षरण तेज हो रहा है, आदर्श क्षरित हो रहे हैं। उसे बचाने की कोशिशें असफल होती दिख रही हैं। आज भी वे एक जीवंत इतिहास की तरह हमें प्रेरणा दे रहे हैं। वे एक ऐसे नायक हैं जिसने हमारे इसी कठिन समय में हमें प्रेरणा दी और हममें ऊर्जा भरी और स्वाभिमान के साथ साफ-सुथरी राजनीति का पाठ पढ़ाया। हमें देखना होगा कि यह परंपरा उनके उत्तराधिकार कैसे आगे बढाते हैं। उनकी दिखायी राह पर भाजपा और उसका संगठन कैसे आगे बढ़ता है।
   अपने समूचे जीवन से अटलजी जो पाठ पढ़ाते हैं उसमें राजनीति कम और राष्ट्रीय चेतना ज्यादा है। सारा जीवन एक तपस्वी की तरह जीते हुए भी वे राजधर्म को निभाते हैं। सत्ता साकेत में रहकर भी वीतराग उनका सौंदर्य है। वे एक लंबी लकीर खींच गए हैं, इसे उनके चाहनेवालों को न सिर्फ बड़ा करना है बल्कि उसे दिल में भी उतारना होगा। उनके सपनों का भारत तभी बनेगा और सामान्य जनों की जिंदगी में उजाला फैलेगा। स्वतंत्र भारत के इस आखिरी  करिश्माई नेता का व्यक्तित्व और कृतित्व सदियों तक याद किया जाएगा, वे धन्य हैं जिन्होंने अटल जी को देखा, सुना और उनके साथ काम किया है। ये यादें और उनके काम ही प्रेरणा बनें तो भारत को परमवैभव तक पहुंचने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए उनको चाहनेवाले उनकी लंबी आयु की दुआ  करते हैं और यह पंक्तियां गाते हुए आगे बढ़ते हैं चल रहे हैं चरण अगणित, ध्येय के पथ पर निरंतर

 ( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)