माओवाद
के खिलाफ निर्णायक जंग की जरूरत
- संजय द्विवेदी
छत्तीसगढ़
में शनिवार को कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुआ माओवादी हमला और उसमें कांग्रेस
के दिग्गज नेताओं की हत्या एक ऐसा दुख है जिसे देश के लोग लंबे समय तक नहीं भूल
पाएंगें। माओवादी आतंकवाद को पालते-पोसते हुए हमारी सरकारें और राजनीति यह भूल गयी
कि इसकी आंच देर-सबेर उनके दामन को भी झुलसा सकती है। हमें पता है कि हम एक खतरनाक
वैचारिक दानवी आतंकवाद के सामने हैं, जिसका घोषित लक्ष्य हमारे लोकतंत्र को समाप्त
कर 2050 तक भारत की राजसत्ता पर कब्जा करना है। किंतु सावन के अंधे हमारे कुछ
बुद्धिजीवी और कुछ अर्धशिक्षित राजनेता इस संकट की व्याख्या सामाजिक और आर्थिक
समस्या के रूप में करते हुए स्वयं के ज्ञान पर मुग्ध होते रहते हैं। बस्तर के शेर
कहे जाने वाले पूर्व मंत्री एवं सांसद रहे महेंद्र कर्मा, कांग्रेस के प्रदेश
अध्यक्ष और मप्र व छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री रहे नंदकुमार पटेल, पूर्व विधायक उदय
मुदलियार की हत्या के सबक हमने आज न लिए तो कल बहुत देर हो जाएगी।
नक्सलियों का खूनी खेल इस देश की जमीन पर
जारी है और हमारी सरकारें अपनी कमजोर इच्छाशक्ति और चुनाव जीत लेने की मानसिक
बीमारियों से धिरी हुयी हैं। पांच साल तक की सोचने वाली राजनीति और भ्रष्ट तंत्र
क्या खाकर माओवादियों से लड़ेगा, यह एक बड़ा सवाल है। अब तक छत्तीसगढ़ में सुरक्षा
से जुड़े जवानों की हत्याएं लगातार हो रही थीं। जब छत्तीसगढ़ में 6 अप्रैल,2010 को
एक साथ 73 सीआरपीएफ जवानों की हत्या नक्सलियों ने की थी, जिस पर लेखिका अरूंधती
राय ने “दंतेवाड़ा
के लोगों को सलाम” भेजा
था। क्या वह समय नहीं था कि हम चेत जाते और कुछ ऐसा करते कि घटनाओं की पुनरावृत्ति
न होती। किंतु पांच साल की सोचने वाली सरकारें, लूट और भ्रष्टाचार में लगा सरकारी
तंत्र कैसे माओवादियों की संगठित, समर्पित रणनीति का मुकाबला करेगा? हमारे
आदिवासियों को इस तंत्र ने मौत के मुंह में झोंक दिया है। अकेले छत्तीसगढ़ से
नक्सली 600 करोड़ रूपए की लेवी व्यापारियों, अधिकारियों और उद्योगों से वसूल रहे
हैं। हमने इन इलाकों को छोड़ दिया है कि यहां जो भी हो। आखिर इस तरह हम अपने
लोकतंत्र को कैसे बचा पाएंगें। बस्तर के सारे जनप्रतिनिधि गगनविहारी हो चुके हैं।
वे हेलीकाप्टर से अपने इलाकों में जाते हैं या तो नहीं जाते हैं। कांग्रेस के
दिग्गजों ने सड़क मार्ग से निकलने की हिम्मत की तो उनका हश्र देख लीजिए। आखिर
माओवादी चाहते यही हैं कि लोकतंत्र, सरकार, राजनीतिक दल नाम की चीज इन इलाकों से
अनुपस्थित हो जाएं। माओवादियों के पनपने का कारण यही है कि हमारा लोकतंत्र विफल हो
रहा है। यह विफल और नकली लोकतंत्र ही माओवाद को खाद-पानी दे रहा है। राजनीति और
प्रशासनिक तंत्र के नैतिक पतन, जनता से टूटे सरोकारों, धन की प्रकट पिपासा ने यह
हालात पैदा किए हैं। ऐसे में हमारी राजनीति ने अपनी जमीन छोड़ दी है, प्रशासन
तंत्र सिर्फ पैसे की लूट में लगा है और पुलिस थानों में छिपी अपनी जान बचा रही है।
जहां सरकार न हो वहां जंगलराज ही बच जाता है।
यहां भारतीय राज्य की अनुपस्थिति ने
माओवादियों को मनमानियों के अपार अवसर दिए हैं। ये इलाके लूट के इलाकों में बदल गए
हैं। सरकारी अधिकारी भी इनके ही रहमोकरम पर हैं। रायपुर के पुलिस हेडक्वार्टर में
बैठे अफसर आपसी गंदी राजनीति में लगे हैं और उन्हें अपने वातानूकूलित कमरों से
निकलने की फुरसत नहीं है। ऐसे में माओवादी अपने इरादों में सफल होते नजर आते हैं।
शहरों में कार्यरत माओवादियों के समर्थक बुद्धिजीवी, पत्रकार और स्वयंसेवी संगठन
चलाने वाले सफेदपोश लोकतंत्र के प्रति लोगों में अविश्वास पैदा करने के यत्न में
अलग लगे हैं। नक्सलियों को धन देकर चुनाव जीतने वाली राजनीति आखिर कैसे इन इलाकों
में अपना नैतिक आधार बना सकती है, यह सोचने की जरूरत है। सबसे दुखद यह है कि सरकार
ने बड़ी संख्या में केंद्रीय सुरक्षा बलों को इन इलाकों में बिना किसी नीति के
झोंक रखा है। उन्हें पता नहीं कि करना क्या है, वे जंगल में कठिन स्थितियों में
पड़े हैं और अपनी जान गंवा रहे हैं। एक लोकतंत्र को बचाने के लिए यह कीमत बहुत
ज्यादा है। उद्देश्यहीन और लक्ष्यहीन राजनीति हमें कहीं नहीं पहुंचाती और अंततः
हमें उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
बस्तर जैसे इलाकों को हमने आखिर किसके भरोसे
छोड़ रखा है? इन
इलाकों का सबसे बड़ा संकट माओवादी आतंकवाद है, इस आतंक के खिलाफ हमारी नीति क्या
है? अगर
यह सामाजिक-आर्थिक समस्या भी है तो भी क्या हमने इसके निदान के लिए ईमानदार प्रयास
प्रारंभ किए हैं? अगर यह
कानून- व्यवस्था की समस्या है तो हम इससे निपटने के लिए संकल्पबद्ध हैं? इस जंग को
जीतने के लिए हमारे पास क्या ब्लूप्रिंट है। साल-दर-साल नक्सली अपने प्रभाव
क्षेत्र में वृद्धि करते जा रहे हैं और हमारा नक्सली हिंसा से लड़ने का बजट बढ़ता
जा रहा है, किंतु घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। हमें सोचना होगा कि इसी देश ने
पंजाब के बर्बर आतंकवाद का मुकाबला कर जीत हासिल की थी। किंतु अफसोस है कि हमारे
पास उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री और पंजाब में बेअंत सिंह जैसे
संकल्प के धनी मुख्यमंत्री थे। दोनों को अपनी शहादत देनी पड़ी किंतु पंजाब आज राहत
की सांस ले रहा है।
आज के
हालात में हमारी सरकारों को दृढ़ संकल्प लेना होगा। दिल्ली की केंद्रीय सरकार और
राज्यों के मुख्यमंत्री एक संकल्प लेकर, समन्वय के साथ, कुछ ईमानदार और दृढ़
प्रतिज्ञ अधिकारियों को इन इलाकों में उतारकर काम प्रारंभ करें तो यह जंग जीतना
कठिन नहीं है। लंका जैसा देश अगर लिट्टे के जहर की काट ढूंढ सकता है तो हम कोई
साधारण देश नहीं हैं। किंतु समस्या यह है कि आतंकवाद और माओवादी आतंकवाद के सामने
हमारा रवैया बेहद बेईमानी भरा है। कई बार यह भी लगता है कि क्या हम माओवादी
आतंकवाद से लड़ना भी चाहते हैं या नहीं?
नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा, उदय् मुदलियार
और उन तमाम निरीह आदिवासियों व सुरक्षाबलों के लोगों की शहादत हमसे यह सवाल कर रही
है कि आखिर यह कब तक चलेगा? क्या हम अपने छोटे स्वार्थों, राजनीतिक बेईमानियों और आर्थिक
लालचों में पड़कर झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों को भगवान भरोसे छोड़ देंगें? हमें समझना
होगा कि यह एक ऐसा संघर्ष है जिसकी जड़ें एक विदेशी विचार में है, जो भारत का सबसे
बड़ा प्रतिद्धंदी बनकर उभरा है। भारत को कमजोर करने और तोड़ने के प्रयासों में बन
रहा रेड कारीडोर और देशतोड़क ताकतों का आपसी समन्वय कई बार प्रकट हो चुका है किंतु
क्या कारण है कि हम सबकुछ जानकर भी अनजान बने बैठे हैं? यह जंग अब
भर्त्सना, निंदा,बैठकों, योजनाओं और विमर्शो से नहीं लड़ी जा सकती है। हमें
माओवादियों को समझते हुए उसका प्रतिकार करना होगा।
हमारी राजनीति के लिए बस्तर के सुकमा में घटी यह घटना एक
सबक भी है और चेतावनी भी। जितनी सक्रियता राजनीतिक दल इस समय दिखा रहे हैं और
प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी तक इस घटना पर संवेदनशील दिख रहे
हैं और रायपुर पहुंचे हैं। कृपया इस घटना को राजनीतिक हथियार बनाने के बजाए माओवाद
के अंत के संकल्प का क्षण बनाइए। अब तय कीजिए कि बस्तर या देश के अन्य इलाकों में
अब माओवाद के नाम पर कोई खून नहीं बहेगा। भारत की सरकार और हमारी राज्य की सरकारें
अगर तय कर लें तो क्या नहीं हो सकता। पूरा देश इस संकल्प के साथ खड़ा दिखेगा।
अपनी लालचों चाहे वो वोट की हों या पैसे की उसे
थोड़ा विराम दीजिए। कुछ ही समय में करोड़पति बनाने के सपनों वाली राजनीति से थोड़ा
मुंह मोडिए और सोचिए कि इस हिंसा में देश के सबसे खूबसूरत लोग मारे जा रहे हैं। आम
आदिवासी इस हिंसा का सबसे बड़ा शिकार बन रहा है। आदिवासी जो जंगलों का राजा था, जो
प्रकृतिपूजक है उसके हाथों में माओवादियों ने बंदूकों पकड़ा दी हैं। हरे जंगलों
में बारूदों और मांस के लोथड़ों की गंध फैली हुयी है। हमें इस चित्र को बदलने के
लिए निर्णायक संकल्प लेना होगा। यही संकल्प भारतीय लोकतंत्र के माथे पर सौभाग्य का
टीका साबित होगा। जंगलों में फिर से अमन- चैन और महुआ की खुशबू फैलेगी, पर शर्त
यही है कि लालची, लुटेरी और लोभी राजनीतिक के बस का यह काम नहीं है। यह होगा
संकल्प से दमकते सामाजिक कार्यकर्ताओं, ईमानदार प्रशासनिक-पुलिस अधिकारियों और
दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति से। क्योंकि ध्यान दीजिए यह लड़ाई अपनों के साथ है,
इसलिए शत्रु की पहचान भी सावधानी से करनी होगी। ताकि निर्दोष लोग इस जंग के शिकार
न हों। केंद्रीय सुरक्षा बलों को सही नेतृत्व व दिशा देकर बिना सेना को उतारे, हम
यह जंग जीत सकते हैं किंतु क्या भारतीय राज्य अपने अंतर्विरोधों को छोड़कर यह
लड़ाई लड़ने को तैयार है?
सिर्फ सहानुभूति और घटना की निंदा ही नहीं, अब तो बस ठोस और सार्थक कदम की आवश्यकता है ! अपनी हिम्मत, इच्छाशक्ति और क्षमता को प्रमाणित करने का वक़्त है !
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