-संजय द्विवेदी
अभी
कुछ ही दिन तो हुए रायपुर गए हुए। श्री नंदकुमार पटेल के शंकर नगर स्थित बंगले
पर उनसे मुलाकात हुयी। बहुत खुश थे वे। बेटे की शादी की खुशी। उन्होंने कहा “आना है आपको।” मैंने उन्हें
अपनी पत्रिका “मीडिया
विमर्श’ का
सिनेमा अंक दिया। उन्होंने पूछा “कैसे इतना काम कर लेते हो यार।” मैंने कहा “आप जैसे नेताओं
से तो कम ही करता हूं।” नाश्ता कराया। साथ में मेरे साथी पत्रकार बबलू तिवारी भी
थे।
श्री नंदकुमार पटेल से मेरा रिश्ता तब बना जब
वे छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री थे। एक किसान परिवार से आने के नाते सहजता और सरलता ऐसी
कि कोई भी मुरीद हो जाए। खरसिया विधानसभा क्षेत्र से लगातार पांच बार भारी अंतर से
वे यूं ही नहीं जीतते थे।भरोसा नहीं होता कि इतनी जल्दी सब कुछ बदल जाएगा। एक हंसता-खेलता
आदमी, जिस पर भरोसा
कर कांग्रेस ने अपने बिखरे परिवार को एक करने की जिम्मेदारी दी, उसने अपनी कोशिशें
भी शुरू कीं। छत्तीसगढ़ में पस्त पड़ी कांग्रेस के संगठन में हलचल होनी शुरू हुयी
और शनिवार को खबर आयी कि नंदकुमार पटेल जी का अपहरण हो गया।
रविवार सुबह मेरे दोस्तों का फोन आया कि उनका
शव मिला है। बर्बर नक्सली हिंसा के वे भी शिकार हुए। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के
अध्यक्ष और मप्र तथा छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री रहे नंदकुमार पटेल और उनके बेटे श्री
दिनेश पटेल की शहादत मेरे लिए बेहद निजी क्षति है। उन दिनों मैं बिलासपुर के दैनिक
भास्कर अखबार में नौकरी करता था। तीन साल मुंबई रहकर लौटा था। छत्तीसगढ़ में अपने
पुराने रिश्तों को रिचार्ज कर रहा था। उसी दौर में पटेलजी से मुलाकात हुयी।
गृहमंत्री थे राज्य के। पहले मप्र में भी गृहमंत्री रह चुके थे। अपने व्यवहार से
उन्होंने कभी यह नहीं जताया कि वे एक बड़ी कुर्सी पर हैं। वे जब रायगढ़ या खरसिया
जा रहे होते तो हम उनसे मिलते। रायपुर जाते तो उनके बंगले पर भी जाते। उनकी
गर्मजोशी कभी कम नहीं होती। इस बीच हमने बिलासपुर में अपनी किताब “इस सूचना समर
में” के
विमोचन का कार्यक्रम बनाया। पुस्तक का लोकार्पण महामंडलेश्वर स्वामी शारदानंद
सरस्वती को करना था। कुछ अन्य अतिथियों को भी बुलाने की सोची। राजनीतिक क्षेत्र से
एक ही नाम ध्यान में आया नंदकुमार पटेल का। शायद इसलिए कि हमें भरोसा था कि वे कहेंगें
तो आएंगें। स्वदेश के संपादक राजेंद्र शर्मा, पं.श्यामलाल चतुर्वेदी,
पत्रकार-संपादक दिवाकर मुक्तिबोध आदि की मौजूदगी में यह आयोजन हुआ। उसके बाद उनसे
रिश्ता और प्रगाढ़ होता गया। वे खुद भी फोन लगाकर कुछ पूछ लेते खबरों के बारे में।
खासकर जब उनकी पार्टी विपक्ष में आयी तब विधानसभा में सवाल उठाने के लिए कई बार
मुद्दों पर चर्चा करते। उन्हें अपने से छोटों से विमर्श करने में गुरेज नहीं था।
माटी की महक उनके साथ थी।
इस बीच मुझे रायपुर शिफ्ट होना पड़ा। कई
नौकरियां छोड़ी- पकड़ीं। जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ में रहे तो ‘दिल से’ नाम का एक
टीवी शो हम हर हफ्ते करते थे। मौके पर जाकर ही शूट करते थे। थोड़ा अनौपचारिक सा शो
था। नेताओं की रीयल लाइफ दिखाते थे। थोड़ी हार्डकोर बात भी करते थे। उसके लिए अनेक
दिग्गजों पर कार्यक्रम बनाए। खरसिया गए तो स्व.लखीराम जी अग्रवाल पर कार्यक्रम
बनाया, वहीं पास में नंदकुमार पटेल जी का गांव है नंदेली। उनसे पूछा तो कहा “आ जाओ तुम्हारा
घर है।” उन पर
भी उसी दिन प्रोग्राम शूट किया। हां, साथ में श्री रविकांत मित्तल भी थे, जो इन
दिनों आजतक के कार्यकारी संपादक हैं।
नंदेली में उनके परिजनों से भेंट हुयी। उनकी
बेहद सरल धर्मपत्नी से भी बात हुयी। सोचता हूं तो आंखें भर आती हैं। एक साथ पति और
बेटे की शहादत से उनके दिल पर क्या गुजर रही होगी। एक हंसता-खेलता परिवार कैसे बिखर
जाता है। नक्सली आतंकवाद के पैरोकार बुद्धिजीवी इसे समझकर भी नहीं समझना चाहते।
भोपाल आए चार साल हो गए। अब उनका भोपाल आना कम होता था। राजधानी रायपुर है और बड़ी
राजधानी दिल्ली। इस बीच मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी पत्नी का निधन
हुआ। उन्हें राधोगढ़ जाना था। रायपुर से भोपाल के लिए निकले तो अपने बेटे दिनेश
पटेल से मुझे कहलाया कि मैं अगर फ्री हूं तो मिल सकता हूं। मैं अपने सहयोगी-मित्र
प्रदीप डहेरिया के साथ उनसे मिला। वही सहजता, भरोसा और अपनापन। फिर कहा “कहां यार, छत्तीसगढ़
छोड़ दिया आपने। आप जैसे लोगों की जरूरत है राज्य में।” मैंने कहा कि “मप्र भी आपका
पुराना राज्य और भोपाल आपकी पुरानी राजधानी है। यहां भी आपके चाहने वाले होने
चाहिए।” वे
मुस्कराकर रह गए। कोई जवाब नहीं दिया। मेरी पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ को उलटते रहे
जिसमें उनका एक चित्र पत्रिका पढ़ते हुए एक मैगजीन के ब्रांडिग एड के साथ लगा था।
इसी
महीने मेरी उनसे फोन पर लंबी बात हुयी। मैं बिलासपुर के दिग्गज कांग्रेसी नेता
बीआर यादव पर एक पुस्तक का संपादन कर रहा हूं। बीआर यादव छत्तीसगढ़ के बड़े नेताओं
में हैं, लंबे
अरसे तक मप्र सरकार में मंत्री रहे। नंदकुमार पटेल से उनके व्यक्तिगत रिश्ते थे।
पटेल जी परिवर्तन यात्रा में व्यस्त थे। मैंने कहा किताब तैयार है- आपका लेख
चाहिए। बोले मैं आपको लिखवा देता हूं, कल सुबह आठ बजे फोन करिएगा। सुबह साढ़े आठ बजे
उन्हें फोन लगाया वे नंदेली में थे। पूरी बात की, मुझे पूरा समय देकर नोट्स दिए। उनका
शायद यह आखिरी लेख होगा। जो जल्दी ही बीआर यादव पर केंद्रित पुस्तक ‘कर्मपथ’ में प्रकाशित
होगा। वे इस योजना को लेकर उत्साहित थे कहा कि “आप अच्छा काम रहे हैं, हम लोग
डाक्युमेंटेशन में पीछे रह जाते हैं। चलिए इस बहाने यादव जी और उस दौर की राजनीति
पर एक अच्छी किताब पढ़ने को मिलेगी।” साथ ही यह भी कहा कि जब भी बिलासपुर में कार्यक्रम
रखें मुझे जरूर बताएं। यादव जी हमारे नेता रहे हैं, उनके कार्यक्रम में मुझे आना
है। मैंने कहा आप तो पार्टी के अध्यक्ष हैं, मेरे जवाब पर वे मुस्करा दिए। लेकिन
सोचा हुआ सब कहां संभव होता है।
अभी पिछले सप्ताह 19 मई,2013 को उन्होंने अपने
छोटे बेटे की शादी का उत्सव किया और फिर निकल पड़े अपने राजनीतिक मिशन पर। क्या
पता था कि मौत उनके इतने करीब खड़ी है। उनका न होना एक शून्य रच रहा है जिसे भर
पाना संभव नहीं है। उनका अपना परिवार और वह परिवार जिसको उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता
से खड़ा किया था दोनों के लिए यह दुख की घड़ी है। उनकी स्मृतियां हमारा संबल हैं,
उम्मीद की जानी चाहिए कि नंदकुमार पटेल की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी और माओवादी आतंक
का नरभक्षी खेल खत्म होगा।
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