बुधवार, 23 जून 2021

डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी- उनकी आंखों में तैरता था अखंड भारत का सपना

 

बलिदान दिवस(23 जून) पर विशेष

- प्रो.संजय द्विवेदी

    भूमि, जन तथा संस्कृति के समन्वय से राष्ट्र बनता है। संस्कृति राष्ट्र का शरीर, चिति उसकी आत्मा तथा विराट उसका प्राण है। भारत एक राष्ट्र है और वर्तमान समय में एक शक्तिशाली भारत के रूप में उभर रहा है। राष्ट्र में रहने वाले जनों का सबसे पहला दायित्व होता है कि वो राष्ट्र के प्रति ईमानदार तथा वफादार रहें। प्रत्येक नागरिक के लिए राष्ट्र सर्वोपरि होता है, जब भी कभी अपने निजी हित, राष्ट्र हित से टकराएं, तो राष्ट्र हित को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए, यह हर एक राष्ट्रभक्त की निशानी होती है। भारत सदियों तक गुलाम रहा और उस गुलाम भारत को आजाद करवाने के लिए असंख्य वीरों ने अपने निजी स्वार्थों को दरकिनार करते हुए राष्ट्र हित में अपने जीवन की आहुति स्वतंत्रता रूपी यज्ञ में डालकर राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया। ऐसे ही महापुरुष थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी।

   यह कितना दुखद था कि माता वैष्णो देवी भी परमिट मांगती थी। डल झील भी पूछती तू किस देश का वासी है, बर्फानी बाबा अमरनाथ के दर्शन के लिए इंतजार करना पड़ता था, जिस प्रकार कैलाश मानसरोवर के लिए करना पड़ता है कि आखिर मेरा नंबर कब आएगा। अगर देश के पास भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी नहीं होते तो कश्मीर का विषय चर्चा में नहीं आता । जिस प्रकार लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने खंड-खंड हो रहे देश को अखंड बनाया, उसी प्रकार डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अखंड भारत की संकल्पना को साकार करने के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया।

    डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी केवल राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं थे। उनके जीवन से ही राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को सीख लेनी चाहिए, उनका स्वयं का जीवन प्रेरणादायी, अनुशासित तथा निष्कलंक था। राजनीति उनके लिए राष्ट्र की सेवा का साधन थी, उनके लिए सत्ता केवल सुख के लिए नहीं थी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी राजनीति में क्यों आए? इस प्रश्न का उत्तर है, उन्होंने राष्ट्रनीति के लिए राजनीति में पदार्पण किया। वे देश की सत्ता चाहते तो थे, किंतु किसके हाथों में? उनका विचार था कि सत्ता उनके हाथों में जानी चाहिए, जो राजनीति का उपयोग राष्ट्रनीति के लिए कर सकें।

     डॉ. मुखर्जी 33 वर्ष की आयु में ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और विश्व का सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान उन्हें प्राप्त हुआ। वे 1938 तक इस पद पर रहे। बाद में उनकी राजनीति में जाने की इच्छा के कारण उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी और कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल विधान परिषद का सदस्य चुना गया, लेकिन कांग्रेस द्वारा विधायिका के बहिष्कार का निर्णय लेने के पश्चात उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। बाद में डॉ. मुखर्जी ने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए।

     1943 में बंगाल में पड़े अकाल के दौरान श्यामा प्रसाद जी का मानवतावादी पक्ष निखर कर सामने आया, जिसे बंगाल के लोग कभी भुला नहीं सकते। बंगाल पर आए संकट की ओर देश का ध्यान आकर्षित करने के लिए और अकाल-ग्रस्त लोगों के लिए व्यापक पैमाने पर राहत जुटाने के लिए उन्होंने प्रमुख राजनेताओं, व्यापारियों, समाजसेवी व्यक्तियों को जरुरतमंद और पीड़ितों को राहत पहुंचाने के उपाय खोजने के लिए आमंत्रित किया। फलस्वरूप बंगाल राहत समिति गठित की गई और हिन्दू महासभा राहत समिति भी बना दी गई। श्यामा प्रसाद जी इन दोनों ही संगठनों के लिए प्रेरणा के स्रोत थे। लोगों से धन देने की उनकी अपील का देशभर में इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि बड़ी-बड़ी राशियां इस प्रयोजनार्थ आनी शुरू हो गई। इस बात का श्रेय उन्हीं को जाता है कि पूरा देश एकजुट होकर राहत देने में लग गया और लाखों लोग मौत के मुंह में जाने से बच गए। वह केवल मौखिक सहानुभूति प्रकट नहीं करते थे, बल्कि ऐसे व्यावहारिक सुझाव भी देते थे, जिनमें सहृदय मानव-हृदय की झलक मिलती, जो मानव पीड़ा को हरने के लिए सदैव लालायित और तत्पर रहता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने संसद में एक बार कहा था, ‘‘अब हमें 40 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं, पता नहीं भविष्य में लोकसभा के सदस्यों के भत्ते क्या होंगे। हमें स्वेच्छा से इस दैनिक भत्ते में 10 रुपये प्रतिदिन की कटौती करनी चाहिए और इस कटौती से प्राप्त धन को हमें इन महिलाओं और बच्चों (अकाल ग्रस्त क्षेत्रों के) के रहने के लिए मकान बनाने और खाने-पीने की व्यवस्था करने के लिए रख देना चाहिए।’’

      पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में शामिल किया। लेकिन नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच हुए समझौते के पश्चात 6 अप्रैल, 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श लेकर मुखर्जी ने 21 अक्टूबर, 1951 को जनसंघ की स्थापना की। भारत में जिस समय जनसंघ की स्थापना हुई, उस समय देश विपरीत परिस्थितयों से गुजर रहा था। जनसंघ का उदेश्य साफ था। वह अखंड भारत की कल्पना कर कार्य करना चाहता था। वह भारत को खंडित भारत करने के पक्ष में नहीं था। जनसंघ का स्पष्ट मानना था कि भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में दुनिया के सामने आएगा। डॉ. मुखर्जी के अनुसार अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं है, अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का द्योतक है, जो अनेकता में एकता का दर्शन करता है। जनसंघ के लिए अखंड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं था, बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण जीवनदर्शन का मूलाधार है।

    देश में पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर, 1951 से 21 फरवरी, 1952 तक हुआ। इन आम चुनावों में जनसंघ के 3 सांसद चुने गए, जिनमें एक डॉ. मुखर्जी भी थे। तत्पश्चात उन्होंने संसद के अंदर 32 लोकसभा और 10 राज्यसभा सांसदों के सहयोग से नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया। डॉ. मुखर्जी सदन में नेहरू की नीतियों पर तीखा प्रहार करते थे। जब संसद में बहस के दौरान पंडित नेहरू ने भारतीय जनसंघ को कुचलने की बात कही, तब डॉ. मुखर्जी ने कहा, ‘‘हम देश की राजनीति से इस कुचलने वाली मनोवृत्ति को कुचल देंगे।’’

    डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत का विभाजन नहीं होने देना चाहते थे। इसके लिए वे महात्मा गांधी के पास भी गए थे। परंतु गांधी जी का कहना था कि कांग्रेस के लोग उनकी बात सुनते ही नहीं। जब देश का विभाजन अनिवार्य जैसा हो गया, तो डॉ. मुखर्जी ने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं के हितों की उपेक्षा न हो। उन्होंने बंगाल के विभाजन के लिए जोरदार प्रयास किया, जिससे मुस्लिम लीग का पूरा प्रांत हड़पने का मंसूबा सफल नहीं हो सका। श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रभक्ति एवं देश प्रेम की उस महान परंपरा के वाहक थे, जो देश की परतंत्रता के युग तथा स्वतंत्रता के काल में देश की एकता, अखंडता तथा विघटनकारी शक्तियों के विरुद्ध सतत् जूझते रहे। उनका जीवन भारतीय धर्म तथा संस्कृति के लिए पूर्णतः समर्पित था। वे एक महान शिक्षाविद् तथा प्रखर राष्ट्रवादी थे। पारिवारिक परिवेश शिक्षा, संस्कृति तथा हिन्दुत्व के प्रति अनुराग उन्हें परिवार से मिला था।

      डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक भारतकी कल्पना में विश्वास रखते थे। हमारे स्वाधीनता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने भी ऐसे ही भारत की कल्पना की थी। मगर जब आजाद भारत की कमान संभालने वालों का बर्ताव इस सिद्धांत के खिलाफ हो चला, तो डॉ. साहब ने बहुत मुखरता और प्रखरता के साथ इसका विरोध किया। महाराजा हरि सिंह के अधिमिलन पत्र अर्थात् 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन' पर हस्ताक्षार करते ही समूचा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो गया। बाद में संविधान के अनुच्छेद एक के माध्यम से जम्मू कश्मीर भारत का 15वां राज्य घोषित हुआ। ऐसे में जम्मू कश्मीर में भी शासन व संविधान व्यवस्था उसी प्रकार चलनी चाहिए थी, जैसे कि भारत के किसी अन्य राज्य में। जब ऐसा नहीं हुआ तो मुखर्जी ने अप्रैल 1953 में पटना में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि, “जम्मू एवं कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला और उनके मित्रों को यह साबित करना होगा कि भारतीय संविधान जिसके अंतर्गत देश के पैंतीस करोड़ लोग, जिनमें चार करोड़ लोग मुसलमान भी हैं, वे खुश रह सकते हैं, तो जम्मू-कश्मीर में रहने वाले 25 लाख मुसलमान क्यों नही?” उन्होंने शेख को चुनौती देते हुए कहा था कि, यदि वह सेकुलर हैं, तो वह संवैधानिक संकट क्यों उत्पन्न करना चाहते हैं। आज जब राज्य का एक बड़ा हिस्सा अपने आप को संवैधानिक व्यवस्था से जोड़ना चाहता है, तो शेख अब्दुल्ला इसमें रोड़े क्यों अटका रहे हैं?”3   उनके द्वारा उठाये गए सवालों के जवाब न शेख के पास थे और न पंडित नेहरू के पास। इसीलिए दोनों ने कभी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से सीधे बात करने की कोशिश भी नहीं की।

      अनुच्छेद 370 के राष्ट्रघातक प्रावधानों को हटाने के लिए भारतीय जनसंघ ने हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद के साथ सत्याग्रह आरंभ किया। डॉ. मुखर्जी इस प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है। उन्होंने सिंह-गर्जना करते हुए कहा था कि, “एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा उस समय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। डॉ. मुखर्जी इस प्रावधान के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था कि, नेहरू ने ही ये बार-बार ऐलान किया है कि जम्मू व कश्मीर राज्य का भारत में 100% विलय हो चुका है, फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए बिना दाखिल नहीं हो सकता। मैं नहीं समझता कि भारत सरकार को यह हक है कि वह किसी को भी भारतीय संघ के किसी हिस्से में जाने से रोक सके, क्योंकि खुद नेहरू ऐसा कहते हैं कि इस संघ में जम्मू व कश्मीर भी शामिल है।

     उन्होंने इस प्रावधान के विरोध में भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू व कश्मीर जाने की योजना बनाई। इसके साथ ही उनका अन्य मकसद था वहां के वर्तमान हालात से स्वयं को वाकिफ कराना, क्योंकि शेख अब्दुल्ला की सरकार ने वहां के सुन्नी कश्मीरी मुसलमानों के बाद दूसरे सबसे बड़े स्थानीय भाषाई डोगरा समुदाय के लोगों पर असहनीय जुल्म ढाना शुरू कर दिया था। नेशनल कांफ्रेंस का डोगरा-विरोधी उत्पीड़न वर्ष 1952 के शुरुआती दौर में अपने चरम पर पहुंच गया था। डोगरा समुदाय के आदर्श पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने बलराज मधोक के साथ मिलकरजम्मू व कश्मीर प्रजा परिषद् पार्टीकी स्थापना की थी। इस पार्टी ने डोगरा अधिकारों के अलावा जम्मू व कश्मीर राज्य के भारत संघ में पूर्ण विलय की लड़ाई, बिना रुके और बिना थके लड़ी।

     डॉ. मुखर्जी ने भारतीय संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को कहा था किया तो मैं संविधान की रक्षा करूंगा, नहीं तो अपने प्राण दे दूंगाहुआ भी यही। 8 मई, 1953 को सुबह 6:30 बजे दिल्ली रेलवे स्टेशन से पैसेंजर ट्रेन में अपने समर्थकों के साथ सवार होकर डॉ. मुखर्जी पंजाब के रास्ते जम्मू के लिए निकले। उनके साथ बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, टेकचंद, गुरुदत्त वैद्य और कुछ पत्रकार भी थे। रास्ते में हर जगह डॉ. मुखर्जी की एक झलक पाने एवं उनका अभिवादन करने के लिए लोगों का जनसैलाब उमड़ पड़ता था। डॉ. मुखर्जी ने जालंधर के बाद बलराज मधोक को वापस भेज दिया और अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ी। 11 मई, 1953 को कुख्यात परमिट सिस्टम का उलंघन करने पर कश्मीर में प्रवेश करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और गिरफ्तारी के दौरान ही रहस्मयी परिस्थितियों में 23 जून, 1953 को उनकी मौत हो गई। डॉ. मुखर्जी की माता जी ने नेहरू के 30 जून, 1953 के शोक संदेश का 4 जुलाई,1953 को उत्तर देते हुए पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने उनके बेटे की रहस्मयी परिस्थितियों में हुई मौत की जांच की मांग की। जवाब में पंडित नेहरु ने जांच की मांग को ख़ारिज कर दिया। उन्होंने जवाब देते हुए यह लिखा कि, मैंने कई लोगों से इस बारे में पता लगवाया है, जो इस बारे में काफी कुछ जानते थे और उनकी मौत में किसी प्रकार का कोई रहस्य नहीं था।

     उनकी शहादत पर शोक व्यक्त करते हुए तत्कालीन लोकसभा के अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर ने कहा था, ‘‘वे हमारे महान देशभक्तों में से एक थे और राष्ट्र के लिए उनकी सेवाएं भी उतनी ही महान थीं। जिस स्थिति में उनका निधन हुआ, वह स्थिति बड़ी ही दुःखदायी है। उनकी योग्यता, उनकी निष्पक्षता, अपने कार्यभार को कौशल्यपूर्ण निभाने की दक्षता, उनकी वाक्पटुता और सबसे अधिक उनकी देशभक्ति एवं अपने देशवासियों के प्रति उनके लगाव ने उन्हें हमारे सम्मान का पात्र बना दिया।’’

       उनकी मृत्यु के पश्चात टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा अत्यंत उल्लेखनीय श्रद्धांजलि दी गई, जिसमें कहा गया कि ‘‘डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सरकार पटेल की प्रतिमूर्ति थे’’ यह एक अत्यंत उपर्युक्त श्रद्धांजलि थी, क्योंकि डॉ. मुखर्जी नेहरू सरकार पर बाहर से उसी प्रकार का संतुलित और नियंत्रित प्रभाव बनाए हुए थे, जिस प्रकार का प्रभाव सरकार पर अपने जीवन काल में सरदार पटेल का था। राष्ट्र-विरोधी और एक दलीय शासनपद्धति की सभी नीतियों तथा प्रवृत्तियों के प्रति उनकी रचनात्मक एवं राष्ट्रवादी विचारधारा तथा उनके प्रबुद्ध एवं सुदृढ़ प्रतिरोध ने उन्हें देश में स्वतंत्रता और लोकतंत्र का प्राचीर बना दिया था। संसद में विपक्ष के नेता के रूप में उनकी भूमिका से उन्हें ‘‘संसद का शेर’’ की उपाधि अर्जित हुई।

भारतीय जनसंघ से लेकर भाजपा के प्रत्येक घोषणा पत्र में अपने बलिदानी नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के इस घोष वाक्य को, किहम संविधान की अस्थायी धारा 370 को समाप्त करेंगे’, सदैव लिखा जाता रहा। समय आया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने स्वयं डॉ. मुरली मनोहर जोशी के साथ भारत की यात्रा करते हुए श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराया था और गृह मंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त, 2019 को धारा 370 को राष्ट्र हित में समाप्त करने के निर्णय को दोनों सदनों से पारित कर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी। वे महापुरुष बहुत भाग्यशाली होते हैं, जिनकी आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वर्जों की कही गई बातों को साकार करती है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भाग्यशाली हैं कि उनके विचारों के संवाहक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं गृह मंत्री अमित शाह सहित पूरे मंत्रिमंडल ने धारा 370 को समाप्त कर दुनिया को बता दिया:-

जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है,

जो कश्मीर हमारा है, वह सारा का सारा है।

      सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतों के पक्के डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा था। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है। एक कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व वाले मुखर्जी अपनी मृत्यु के दशकों बाद भी अनेक भारतवासियों के आदर्श और पथप्रदर्शक हैं। जिस प्रकार हैदराबाद को भारत में विलय करने का श्रेय सरदार पटेल को जाता है, ठीक उसी प्रकार बंगाल, पंजाब और कश्मीर के अधिकांश भागों को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने की सफलता प्राप्ति में डॉ. मुखर्जी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। उन्हें किसी दल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, क्योंकि उन्होंने जो कुछ किया, देश के लिए किया और इसी भारतभूमि के लिए अपना बलिदान तक दे दिया।

      वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रधर्म का पालन करने वाले साहसी, निडर एवं जुझारु कर्मयोद्धा थे। जीवन में जब भी निर्माण की आवाज उठेगी, पौरुष की मशाल जगेगी, सत्य की आंख खुलेगी एवं अखंड राष्ट्रीयता की बात होगी, तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अवदान को सदा याद किया जायेगा।

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान , नई दिल्ली के महानिदेशक है)

मंगलवार, 15 जून 2021

पत्रकारिता की उजली परंपरा के वाहक

 

75 वीं वर्षगांठ (18 जून) पर विशेष

स्वदेश कुल की वैचारिक पत्रकारिता के कुलपति हैं राजेंद्र शर्मा

-प्रो.संजय द्विवेदी



      उनका हमारे बीच होना उस उम्मीद और आत्मविश्वास का होना है कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। पत्रकारिता के छीजते आभामंडल, प्रश्नांकित हो रही विश्वसनीयता और बाजार की तेज हवाओं के बीच जब विचार की पत्रकारिता सहमी हुई है तभी वे एक प्रकाशपुंज की तरह हमारे सामने आते हैं। बात स्वदेश समाचार पत्र समूह, भोपाल के प्रधान संपादक श्री राजेंद्र शर्मा की हो रही है। 18 जून,1946 को उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्में श्री शर्मा इस समय स्वदेश के छह संस्करणों की कमान संभाल रहे हैं। इस कठिन समय में वे ही हैं, जो डटे हुए हैं और विचार की पत्रकारिता की मशाल को थामे हुए हैं। तमाम आदर्शों के आत्मसमर्पण के बाद भी वे न जाने किस विश्वास पर अपने उस विचार पर डटे हैं, जो उन्होंने अपनी युवा अवस्था में अपनाया था। उन्होंने रिश्ते बनाए, नाम कमाया किंतु समझौतों से उन्हें परहेज रहा। कठिन मार्ग ही उन्हें भाता है और वे उस पर ही चलते आ रहे हैं। सच कहने और लिखने की सजा भी भुगतते रहे हैं और अनेक साथियों से पीछे रह जाने का भी उन्हें कोई अफसोस नहीं है। ऐसे लोग ही किसी भी समय के नायक होते हैं और उनका होना हमेशा हमें प्रेरित करता है। अपनी सरलता,सहज स्नेह से किसी को भी अपना बना लेने वाले राजेंद्र जी सही मायने में अजातशत्रु हैं। पत्रकारिता में एक खास विचारधारा से जुड़े होकर काम करने के बाद भी उनका कोई शत्रु नहीं है, प्रतिद्वंदी नहीं है, आलोचक नहीं है। वे अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने वाले व्यक्ति हैं और शायद इसीलिए भोपाल ही नहीं देश की पत्रकारिता के शिखर संपादकों की सूची में उन्हें बड़े सम्मान से देखा जाता है।

विचारधारा के प्रति अविचल आस्थाः

    सभी राजनीतिक दलों के शिखर पुरुषों से उनके रिश्ते हैं, घर आना-जाना है, किंतु विचारधारा के साथ वे कभी समझौता करते नहीं देखे गए। उनका अखबार कम छपे, कम बिके पर अपनी राह चलता है। उस प्रवाह के साथ जिसे आदरणीय दीनदयालजी, अटल जी, माणिकचंद्र वाजपेयी जी जैसे तपस्वी पत्रकारों ने गढ़ा था। उन्हें पता है कि जब विचार की ही पत्रकारिता कठिन है तो विचारधारा का मार्ग तो और भी कठिन है। बाजार में उतर गई और कारपोरेट बनने को आतुर मीडिया समय में वे एक कठिन संकल्प के साथ हैं। स्वदेश समाचार पत्र समूह की विचारधारा स्पष्ट है और उसके लक्ष्य सबके सामने हैं। अपना अखबार होने के नाते उसके अपने भी उसकी बहुत परवाह नहीं करते फिर विरोधी क्यों करेंगें? ऐसा नहीं है कि देश में विचारधारा आधारित अखबारों की कोई परंपरा नहीं है। बावजूद इसके वर्तमान में ऐसे अखबारों को चलाना और स्पर्धा में बनाए रखना कठिन है। ऐसे अखबार इस मनोरंजक,नकारात्मक और जुगुत्सा जगाने वाली खबरों की पत्रकारिता के समय में अपने कंटेंट के नाते स्वयं ही स्पर्धा से बाहर हो जाते हैं। उनका वैचारिक आग्रह ही उन पर भारी पड़ता है। केरल में माकपा के मुखपत्र पीपुल्स डेली, बंगाल के पीपुल्स डेमोक्रेसी, कांग्रेस के नवजीवन, नेशनल हेराल्ड, कौमी आवाज, शिवसेना के सामना और दोपहर का सामना जैसे अखबारों की ओर देखें तो पता चलता है कि विचारधारा आधारित पत्र अपने कैडर तक भी नहीं पहुंच पाते। अगर विचारधारा और राजनीतिक प्रशिक्षण पर जोर दिया जाता तो निश्चय ही इन अखबारों की अपनी उपस्थिति बन पाती। सच तो यह है कि अगर ये अखबार विवादित और तेवर भरी टिप्पणियां न करें तो उनका उल्लेख भी नहीं होता। इन स्थितियों के बीच भी मध्यप्रदेश में अगर स्वदेश की आवाज कही और सुनी गयी तो इसके पीछे इसके यशस्वी संपादकों की परंपरा और समाज जीवन में उनकी गहरी उपस्थिति के कारण ही हो पाया। श्री माणिकचंद्र वाजपेयी मामा जी, श्री जयकृष्ण गौड़, श्री जयकिशन शर्मा, श्री बलदेव भाई शर्मा, श्री भगवतीधर वाजपेयी, श्री बबन प्रसाद मिश्र ( युगधर्म)  जैसे अनेक नाम इसके उदाहरण हैं। इसी परंपरा का सबसे प्रासंगिक नाम श्री राजेंद्र शर्मा का है, जिन्होंने पिछले पांच दशक से मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में अपनी यशस्वी पत्रकारिता के पदचिन्ह छोड़े हैं।

स्वदेश की विस्तार यात्रा के सारथीः

  श्री राजेंद्र शर्मा का पिंड पत्रकार का है,लेखक का है , संपादक का है। बावजूद इसके वे चुनौतियों से भागने वाले व्यक्ति नहीं हैं। एक सफल संपादक के नाते ग्वालियर में उनकी ख्याति हम सब जानते हैं। बावजूद इसके पत्रकार-संपादक होते हुए भी उन्होंने न सिर्फ प्रबंधन की जिम्मेदारियां संभाली, वरन स्वदेश के विस्तार की सफल योजनाएं बनाईं। जिसके चलते स्वदेश ग्वालियर और इंदौर से आगे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का प्रमुख पत्र बन सका। उसकी आवाज और उपस्थिति पूरे संयुक्त मध्यप्रदेश में महसूस की जाने लगी। आज ई-माध्यमों की उपस्थिति के बाद स्वदेश के सभी संस्करणों की वैश्विक उपस्थिति है। इसके लेख, समाचार और विचार वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर में पढ़े जाते हैं, जिनकी खबरों और लेखों को सुधी पाठक सोशल मीडिया पर शेयर करते रहते हैं। यह राजेंद्र जी का ही करिश्मा है कि उन्होंने स्वदेश के संपादकीय पृष्ठ को कभी प्राणहीन नहीं होने दिया। देश के शिखर संपादक और लेखक स्वदेश के संपादकीय पृष्ठ पर अपने विचारों से विमर्श के नित नए बिंदु देते हैं, जिससे लोकमत निर्माण का पत्रकारीय उद्देश्य पूर्ण होता है। बावजूद इसके प्रबंधन में उनकी व्यस्तता ने उनके मूल काम(लेखन) को प्रभावित किया है, इसमें दो राय नहीं है। प्रबंधन में उनकी गहरी संलग्नता न होती तो आज वे देश के श्रेष्ठतम लेखकों में गिने जाते। जिन्होंने उनकी आलंकारिक भाषा, साहसी कलम, गहरी सामाजिक संलग्नता से निकली अभिव्यक्ति देखी है, वे मानेंगें कि राजेंद्र जी अपने को जिस तरह और जितना अभिव्यक्त कर सकते थे, नहीं कर पाए। कहा भी जाता है कि संपादन का कर्म आपके व्यक्तिगत लेखन को खा जाता है। यहां तो राजेंद्र जी संपादन और प्रबंधन दोनों को साधते दिखते हैं, सो उनका लेखन तो इससे प्रभावित होना ही था। बावजूद इसके उनकी अन्य उपलब्धियां कम नहीं हैं, जो उन्हें हमारे समाज में आदर्श के रूप में प्रस्तुत करती हैं।

अप्रतिम संपादक, संदर्भों के सृजनकारः

   श्री राजेंद्र शर्मा एक दैनिक अखबार के संपादक तो हैं ही, साथ ही संदर्भों के सृजनहार भी हैं। उनके संपादन में जो पुस्तकें निकली हैं, उनका मूल्यांकन होना अभी शेष है। स्वदेश के विविध विषयों पर निकले विशेषांक अलग से समीक्षा और समालोचना की मांग करते हैं। इन सभी विशेषांकों का ऐतिहासिक महत्त्व है. क्योंकि ये पहली बार किसी भी व्यक्तित्व पर एकत्र की गयी अप्रतिम संदर्भ सामग्री है। मुझे लगता है श्री अटलविहारी वाजपेयी अमृत महोत्सव विशेषांक, राजमाता सिंधिया पुण्य स्मरण विशेषांक, लालकृष्ण आडवाणीः व्यक्ति और विचार, राष्ट्रऋषि गुरूजी, सुदर्शन स्मृति, भाजपा रजत जयंती विशेषांक, स्वामी विवेकानंद विशेषांक, माणिकचंद्र वाजपेयी विशेषांक, प्यारेलाल खंडेलवाल विशेषांक,जनादेश विशेषांक, आओ बनाएं अपना मध्यप्रदेश, विश्वसनीय छत्तीसगढ़, जननायक (श्री नरेंद्र मोदी पर एकाग्र) को जिन्होंने न देखा हो, उन्हें इन ग्रंथों/विशेषांकों को पलटकर देखना चाहिए। इसके साथ ही कर्इ वर्षों तक आप मध्यप्रदेश संदर्भ का भी संपादन- प्रकाशन करते रहे। ये सभी ग्रंथ सिर्फ विशेषांक नहीं हैं, एक पूर्ण संदर्भ ग्रंथ हैं। अफसोस है कि इस महत्त्वपूर्ण प्रदेय की उतनी चर्चा नहीं हुई, जैसी होनी चाहिए। जिद के धनी राजेंद्र जी इन ग्रंथों की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान देते हैं। ये सारे ग्रंथ(विशेषांक) महाकाय हैं। ग्लेज पेपर पर बहुत सुंदर प्रिंटिग के साथ छपे हैं, जिसे देखकर ही इनकी गुणवत्ता का पता चलता है। उनका यह प्रदेय निश्चित ही रेखांकित किया जाना चाहिए। किसी भी समाचार पत्र द्वारा ऐसे ग्रंथों का प्रकाशन एक अद्भुत घटना है, क्योंकि समाचार पत्र समूह प्रायः उन्हीं संदर्भों पर विशेषांक छापते हैं, जिनसे व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति होती है। इस अर्थ में राजेंद्र जी के विषय चयन और उसकी प्रस्तुति सराहनीय है।

सामाजिक सरोकारों से जुड़ा जीवनः

  संपादक- प्रबंधक की आसंदी व्यस्तता की पराकाष्ठा है। इसके बीच भी राजेंद्र शर्मा सामाजिक सरोकारों, सामाजिक आंदोलनों, तमाम विधाओं के संगठनों से जुड़कर अपना सामाजिक उत्तरदायित्व भी निभाते हैं। वे सही अर्थों में सरोकारी, जीवंत और लोकाचारी व्यक्तित्व हैं। वे भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों की प्रतिनिधि संस्था इंडियन लैंग्वेज न्यूज पेपर एसोसिएशन(इलना) के दो बार अध्यक्ष रहे, ग्वालियर के श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष रहे। वे उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के उपाध्यक्ष भी रहे। ग्वालियर प्रेस क्लब के संस्थापक अध्यक्ष होने के साथ आप अखिलभारतीय संपादक सम्मेलन से भी जुड़े रहे। इसके साथ ही मप्र समाचार पत्र संघ, मप्र प्रेस सलाहकार परिषद, मप्र रेडक्रास सोसाइटी, मप्र अधिमान्यता समिति, मप्र पत्रकार कल्याण कोष, डीएवीपी की प्रेस एडवाइजरी कमेटी, श्रम सलाहकार परिषद, समाचार पत्र संचालकों की संस्था आईएनएस जैसे संगठनों में उनकी सक्रियता उनकी सामाजिक उपस्थिति का प्रमाण है। सबको पता है कि राजेंद्र जी के व्यक्तित्व को रचने और गढ़ने वाले संगठन का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है, जिसके संपर्क में वे बाल्यकाल में ही आ गए थे। इसी भावधारा के चलते वे 25 वर्षों तक विश्व हिंदू परिषद, मध्यभारत प्रांत के अध्यक्ष रहे। मानस भवन, भोपाल और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से भी वे अनेक दायित्वों से जुड़े रहे हैं। उन्हें उप्र हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा पत्रकारिता भूषण, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान से भी अलंकृत किया गया है।

मेरे गुरु, मेरे अभिभावकः

    श्री राजेंद्र शर्मा की मेरे जीवन में बहुत खास जगह है। वे मेरे लिए पितातुल्य तो हैं ही, मेरे पत्रकारिता गुरू और अभिभावक भी हैं। उनकी स्नेहछाया में ही मैंने पत्रकारिता की मैदानी दीक्षा ली और उन्होंने बहुत कम आयु में ही श्री हरिमोहन शर्मा जी की संस्तुति पर मुझे अखबार का संपादक बना दिया। यह भरोसा साधारण नहीं था। उनके इस कदम से मुझमें अतिरिक्त आत्मविश्वास भी पैदा हुआ और पत्रकारिता के क्षेत्र में मैं कुछ कर सका। उनकी प्रेरणा, प्रोत्साहन और संरक्षण ने मेरी जिंदगी की हर कठिनाई का अंत ही नहीं किया, वरन विजेता भी बनाया। आपकी जिंदगी में जब ऐसे स्नेही अभिभावक होते हैं तो आपके लिए हर मंजिल आसान हो जाती है। आज भी वे मुझे बहुत उम्मीदों से देखते हैं। उनका यह भरोसा बचा और बना रहे इसके लिए मैं भी सतत कोशिशें भी करता हूं। उनका मार्गदर्शन और स्नेह पितृछाया की तरह ही है, जो आपको जीवन के झंझावातों से जूझने के लिए हौसला देती है। राजेंद्र जी का असली सच यह है कि वे एक वैचारिक योद्धा हैं जिन्होंने अपने जैसे न जाने कितने विचारवंत संपादक-पत्रकार तैयार किए हैं। स्वदेश को वैचारिक पत्रकारिता की नर्सरी यूं ही नहीं कहा जाता। स्वदेश में प्रशिक्षण प्राप्त कर अनेक संपादक और पत्रकार अपने क्षेत्र में यशस्वी हैं, उनकी प्रगति और ख्याति निश्चित ही राजेंद्र जी के लिए संतोष का बड़ा कारण है। श्री अक्षत शर्मा उनके सुयोग्य पुत्र और सक्षम उत्तराधिकारी हैं। अक्षत जी ने अपने पिता का सौंदर्य, आकर्षक व्यक्तित्व, सरलता, सहजता और सौजन्य पाया है। वे स्वदेश कुल को निश्चित ही आगे लेकर जाएंगें। स्वदेश कुल का शिक्षार्थी होने के नाते मैं स्वयं को गौरवशाली मानता हूं। साथ ही कामना करता हूं कि स्वदेश कुल के कुलपति श्री राजेंद्र शर्मा यूं ही हम सबको दिशाबोध कराते रहें। उनके स्वस्थ-सानंद व सुदीर्घ जीवन की मंगलकामनाएं, प्रार्थनाएं।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। स्वदेश, भोपाल और रायपुर संस्करणों से जुड़े रहे श्री द्विवेदी के श्री राजेंद्र शर्मा से पारिवारिक और आत्मीय रिश्ते हैं।)



सोमवार, 14 जून 2021

हिंदी पत्रकारिता के प्रवर्तक के नाम पर होगा आईआईएमसी का पुस्तकालय


देश में पं. युगल किशोर शुक्ल के नाम पर बनेगा पहला स्मारक



नई दिल्ली, 14 जून। भारतीय जन संचार संस्थान का पुस्तकालय अब पं. युगल किशोर शुक्ल ग्रंथालय एवं ज्ञान संसाधन केंद्र के नाम से जाना जाएगा। हिंदी पत्रकारिता के प्रवर्तक पं. युगल किशोर शुक्ल के नाम पर यह देश का पहला स्मारक होगा। पुस्तकालय के नामकरण के अवसर पर आईआईएमसी द्वारा 17 जून को "हिंदी पत्रकारिता की प्रथम प्रतिज्ञा: हिंदुस्तानियों के हित के हेत" विषय पर एक विशेष विमर्श का आयोजन किया जाएगा। इस कार्यक्रम में देश के प्रमुख विद्वान अपने विचार व्यक्त करेंगे।

आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने बताया कि इस वेबिनार में दैनिक जागरण (दिल्ली-एनसीआर) के संपादक श्री विष्णु प्रकाश त्रिपाठी मुख्य अतिथि होंगे तथा पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर मुख्य वक्ता के तौर पर शामिल होंगे। कार्यक्रम के विशिष्ट वक्ताओं के रूप में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की निदेशक डॉ. सोनाली नरगुंदे, पांडिचेरी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. सी. जय शंकर बाबु, कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष श्री स्नेहाशीष सुर एवं आईआईएमसी, ढेंकनाल केंद्र के निदेशक प्रो. मृणाल चटर्जी अपने विचार प्रकट करेंगे।

प्रो. द्विवेदी ने इस आयोजन के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत पं. युगल किशोर शुक्ल द्वारा 30 मई, 1826 को कोलकाता से प्रकाशित समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' से हुई थी। इसलिए 30 मई को पूरे देश में हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। उन्होंने कहा कि 'उदन्त मार्तण्ड' का ध्येय वाक्य था, ‘हिंदुस्तानियों के हित के हेत’ और इस एक वाक्य में भारत की पत्रकारिता का मूल्यबोध स्पष्ट रूप में दिखाई देता है।

प्रो. द्विवेदी ने कहा कि ये हमारे लिए बड़े गर्व का विषय है कि आईआईएमसी का पुस्तकालय अब पं. युगल किशोर शुक्ल के नाम से जाना जाएगा। उन्होंने कहा कि हिंदी पत्रकारिता ने स्वाधीनता से लेकर आम आदमी के अधिकारों तक की लड़ाई लड़ी है। समय के साथ पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य चाहे बदलते रहे हों, लेकिन हिंदी पत्रकारिता पर देश के लोगों का विश्वास आज भी है।

शुक्रवार, 28 मई 2021

कोरोना संकट में संबल बनी पत्रकारिता

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

-प्रो.संजय द्विवेदी

      कोविड-19 के दौर में हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाते हुए हम तमाम प्रश्नों से घिरे हैं। अंग्रेजी पत्रकारिता ने अपने सीमित और विशेष पाठक वर्ग के कारण अपने संकटों से कुछ निजात पाई है। किंतु भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के भी संकट जस के तस खड़े हैं। कोरोना संकट ने प्रिंट मीडिया को जिन गहरे संकटों में डाला है और उसके सामने जो प्रश्न उपस्थित किए हैं,उस पर संवाद जरूरी है। 30 मई,1826 को जब पं.युगुल किशोर शुक्ल ने कोलकाता से हिंदी के पहले पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया तब से लेकर प्रिंट मीडिया ने अनेक दौर देखे हैं। वे दौर तात्कालिक संकटों के थे और टल गए। अंग्रेजों के दौर से लेकर आजाद भारत में आपातकाल के दिनों से भी उसने जूझकर मुक्ति पाई। किंतु नए कोरोना संकट ने अभूतपूर्व दृश्य देखें हैं। आगे क्या होगा इसकी इबारत अभी लिखी जानी है।

     कोरोना ने हमारी जीवन शैली पर निश्चित ही प्रभाव डाला है। कई मामलों में रिश्ते भी दांव पर लगते दिखे। रक्त संबंधियों ने भी संकट के समय मुंह मोड़ लिया, ऐसी खबरें भी मिलीं। सही मायने में यह पूरा समय अनपेक्षित परिर्वतनों का समय है। प्रिंट मीडिया भी इससे गहरे प्रभावित हुआ। तरह-तरह की अफवाहों ने अखबारों के प्रसार पर असर डाला। लोगों ने अखबार मंगाना बंद किया, कई स्थानों पर कालोनियों में प्रतिबंध लगे, कई स्थानों वितरण व्यवस्था भी सामान्य न हो सकी। बाजार की बंदी ने प्रसार संख्या को प्रभावित किया तो वहीं अखबारों का विज्ञापन व्यवसाय भी प्रभावित हुआ। इससे अखबारों की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई। इसका परिणाम अखबारों के पेज कम हुए, स्टाफ की छंटनी और वेतन कम करने का दौर प्रारंभ हुआ। आज भी तमाम पाठकों को वापस अखबारों की ओर लाने के जतन हो रहे हैं। किंतु इस दौर में आनलाईन माध्यमों का अभ्यस्त हुआ समाज वापस लौटेगा यह कहा नहीं जा सकता।

    सवा साल के इस गहरे संकट की व्याख्या करने पर पता चलता है कि प्रिंट मीडिया के लिए आगे की राहें आसान नहीं है। विज्ञापन राजस्व तेजी से टीवी और  डिजीटल माध्यमों पर जा रहा है,क्योंकि लाकडाउन के दिनों में यही प्रमुख मीडिया बन गए हैं। तकनीक में भी परिर्वतन आया है। जिसके लिए शायद अभी हमारे प्रिंट माध्यम उस तरह से तैयार नहीं थे। इस एक सवा साल की कहानियां गजब हैं। मौत से जूझकर भी खबरें लाने वाला मैदानी पत्रकार है, तो घर से ही अखबार चला रहा डेस्क और संपादकों का समूह भी है। किसे भरोसा था कि समूचा न्यूज रूम आपकी मौजूदगी के बिना, घरों से चल सकता है। नामवर एंकर घरों पर बैठे हुए एंकरिंग कर पाएंगें। सारे न्यूज रूम अचानक डिजीटल हो गए। साक्षात्कार ई-माध्यमों पर होने लगे। इसने भाषाई पत्रकारिता के पूरे परिदृश्य को प्रभावित किया है। जो परिवर्तन वर्षों में चार-पांच सालों में घटित होने थे, वे पलों में घटित होते दिखे। तमाम संस्थाएं इसके लिए तैयार नहीं थीं। कुछ का मानस नहीं था। कुछ सिर्फ ईपेपर और ई-मैगजीन निकाल रहे हैं। बावजूद इसके भरोसा टूटा नहीं है। हमारे सामाजिक ढांचे में अखबारों की खास जगह है और छपे हुए शब्दों पर भरोसा भी कायम है। इसके साथ ही अखबार को पढ़ने में होनी वाली सहूलियत और उसकी अभ्यस्त एक पीढ़ी अभी भी मौजूद है। कई बड़े अखबार मानते हैं कि इस दौर में उनके अस्सी प्रतिशत पाठकों  की वापसी हो गयी है, तो ग्रामीण अंचलों और जिलों में प्रसारित होने वाले मझोले अखबार अभी भी अपने पाठकों की वापसी का इंतजार कर रहे हैं। वे मानते हैं कि उनके भी 40 प्रतिशत पाठक तो लौट आए हैं, बाकी का इंतजार है। नई पीढ़ी का ई-माध्यमों पर चले जाना चिंता का बड़ा कारण है। वैसे भी डिजीटल ट्रांसफामेशन की जो गति है, वह चकित करने वाली है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि डिजीटल का सूरज कभी नहीं डूबता और वह 24X7 है।

     ऐसे कठिन समय में भी बहुलांश में पत्रकारिता ने अपने धर्म का निर्वाह बखूबी किया है। स्वास्थ्य, सरोकार और प्रेरित करने वाली कहानियों के माध्यम से पत्रकारिता ने पाठकों को संबल दिया है। निराशा और अवसाद से घिरे समाज को अहसास कराया कि कभी भी सब कुछ खत्म नहीं होता। संवेदना जगाने वाली खबरों और सरोकारों से जुड़े मुद्दों को अहमियत देते हुए आज भी पत्रकारिता अपना धर्म निभा रही है। संकट में समाज का संबल बनकर मीडिया नजर आया। कई बार उसकी भाषा तीखी थी, तेवर कड़े थे, किंतु इसे युगधर्म कहना ठीक होगा। अपने सामाजिक दायित्वबोध की जो भूमिका मीडिया ने इस संकट में निभाई, उसकी बानगी अन्यत्र दुर्लभ है। जागरूकता पैदा करने के साथ, विशेषज्ञों से संवाद करवाते हुए घर में भयभीत बैठे समाज को संबल दिया है। लोगों के लिए आक्सीजन, अस्पताल ,व्यवस्थाओं के बारे में जागरूक किया है। हम जानते हैं मनुष्य की मूल वृत्ति आनंद और सामाजिक ताना-बाना है। कोविड काल ने इसी पर हमला किया। लोगों का मिलना-जुलना, खाना-पीना, पार्टियां, होटल, धार्मिक स्थल, पर्व -त्यौहार, माल-सिनेमाहाल सब सूने हो गए। ऐसे दृश्यों का समाज अभ्यस्त कहां है? ऐसे में मीडिया माध्यमों ने उन्हें तरह-तरह से प्रेरित भी किया और मुस्कुराने के अवसर भी उपलब्ध कराए। इस दौर में मेडिकल सेवाओं, सुरक्षा सेवाओं, सफाई- स्वच्छता के अमले के अलावा बड़ी संख्या में अपना दायित्व निभाते हुए अनेक पत्रकार भी शहीद हुए हैं। अनेक राज्य सरकारों ने उन्हें फ्रंटलाइन वर्कर मानते हुए आर्थिक मदद का ऐलान किया है। केंद्र सरकार ने भी शहीद पत्रकारों के परिजनों को 5 लाख रूपए प्रदान करने की घोषणा की है। ऐसे तमाम उपायों के बाद भी पत्रकारों को अनेक मानसिक संकटों,वेतन कटौती और नौकरी जाने जैसे संकटों से भी गुजरना पड़ा है। बावजूद इसके अपने दायित्वबोध के लिए सजग पत्रकारों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संकट टलेगा और जिंदगी फिर से मुस्कुराएगी।


सकारात्‍मक खबरें देकर पाठकों में विश्वास पैदा करे मीडिया

हिंदी पत्रकारिता दिवस के उपलक्ष्‍य में भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा ‘कोरोना काल के बाद की पत्रकारिता’ विषय पर चर्चा




नई दिल्ली, 28 मई “तन का कोरोना यदि तन से तन में फैलातो मन का कोरोना भी मीडिया के एक वर्ग ने बड़ी तेजी से फैलाया। मीडिया को लोगों के सरोकारों का ध्‍यान रखना होगा, उनके प्रति संवेदनशीलता रखनी होगी। यदि सत्‍य दिखाना पत्रकारिता का दायित्‍व हैतो ढांढस देनादिलासा देनाआशा देना, उम्‍मीद देना भी उसी का उत्‍तरदायित्‍व है। अमेरिका में 6 लाख मौते हुईंलेकिन वहां हमारे चैनलों जैसे दृश्‍य नहीं दिखाए गए। 11 सितम्‍बर के आतंकवादी हमले के बाद भी पीड़ितों के दृश्‍य नहीं दिखाए गए थे। हमारे यहां कुछ वर्जनाएं हैंजिन पर ध्‍यान देना होगा।  सत्‍य दिखाएं लेकिन कैसे दिखाएंइस पर गौर करना जरूरी है। चाकू चोर की तरह चलाना हैया सर्जन की तरह यह तय करना होगा,” यह कहना है वरिष्ठ पत्रकार श्री उमेश उपाध्याय का।  वे भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा हिंदी पत्रकारिता दिवस के उपलक्ष्‍य में आयोजित शुक्रवार संवाद’ में कोरोना काल के बाद की पत्रकारिता’’ विषय पर मीडिया छात्रों को संबोधित कर रहे थे।  इस अवसर पर अमर उजाला डिजिटल के संपादक श्री जयदीप कर्णिक, दैनिक ट्रिब्‍यून चंडीगढ़ के संपादक श्री राजकुमार सिंह और हिंदुस्‍तान की कार्यकारी संपादक सुश्री जयंती रंगनाथन ने भी अपने विचार साझा किए।

इससे पहले भारतीय जन संचार संस्‍थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि समाज के अवसादचिंताएं कैसे दूर होंइस पर चिंतन आवश्‍यक है। यह सामाजिक संवेदनाएं जगाने का समय है। सारे काम सरकार पर नहीं छोड़े जा सकते। विद्यार्थियों के लिए इस समय जमीन पर जाकर कर काम करना जरूरी है। वे अपने आसपास के लोगों को संबल दें। हमें ऐसी शिक्षा चाहिएजो इंसान को इंसान बनाए।

श्री जयदीप कर्णिक ने कहा कि तकनीक की दृष्टि से कोरोना ने फास्‍ट फारवर्ड का बटन दबा दिया है। यूं तो पहले से ही डिजिटल इज़ फ्यूचर जुमला बन चुका थालेकिन जो तकनीकी बदलाव 5 साल में होना थावह अब पांच महीने में ही करना होगा। तकनीक के साथ चलना होगातभी कोई मीडिया घराने के रूप में स्‍थापित हो सकेगा। उन्होने कहा कि इस दौर में पत्रकारिता को भी अपने हित पर गौर करना होगा। कोरोना की पहली लहर में डिजिटल पर ट्रैफिक चार गुना बढ़ा थाजो दूसरी लहर में उससे भी कई गुना बढ़ गया। डिजिटल में यह जानने की सुविधा है कि पाठक क्‍या पढ़ना चाहता है और कितनी देर तक पढ़ना चाहता है। पत्रकार शुतुर्मुर्ग की तरह नहीं बन सकताजरूरी है कि  सत्‍य दिखाइए, पर इस तरह दिखाइए कि लोग अवसाद में न जाएं। हमें सलीके से सच दिखाना होगा।

श्री राजकुमार सिंह ने कहा कि कोरोना काल ने केवल पत्रकारिता को ही नहींबल्कि हमारी जीवन शैली और जीवन मूल्‍यों को भी झकझोर कर रख दिया। पत्रकारिता ने कई अनपेक्षित बदलाव देखे। उस पर कई तरफ से प्रहार हुआ। सबसे ज्‍यादा असर तो यह हुआ कि लोगों ने अखबार लेना बंद कर दिया। कोरोना की पहली लहर के बाद 40 से 50 प्रतिशत पाठक ही अखबारों की ओर लौट पाए। कोरोना काल में अपनी जान गँवाने वाले पत्रकारों का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि देश में ऐसा कोई आंकड़ा नहीं कि कितने पत्रकारों की जान गईं। यह आंकड़ा चिकित्‍सा जगत के लोगों की मौतों के आंकड़े से कहीं ज्‍यादा हो सकता है। पत्रकार भी फ्रंटलाइन योद्धा हैं उनकी भी चिंता की जानी चाहिए।

सुश्री जयंती रंगनाथन ने कहा कि मीडिया को सकारात्‍मक खबरें देनी होंगी। उसे लोगों को बताना होगा कि पुराने दिन लौट कर आएंगेलेकिन उसमें थोड़ा वक्‍त लगेगा। हमारा डीएनए पश्चिमी देशों से भिन्‍न हैजैसा वहां हैयहां ऐसा नहीं होगा। हमें भी अपने पाठकों की मदद करनी होगी। हमें लोगों के सरोकारों से जुड़ना होगा। सकारात्‍मक खबरों का दौर लौटेगा और प्रिंट मीडिया मजबूती से जमा रहेगा।

कार्यक्रम का संचालन “अपना रेडियो” और आईटी विभाग की विभागाध्‍यक्ष प्रोफेसर (डॉ.) संगीता प्रणवेंद्र ने किया। डीन (अकादमिक)  प्रो. (डॉ.) गोविन्‍द सिंह  ने धन्‍यवाद ज्ञापन किया।



गुरुवार, 27 मई 2021

वीर सावरकरः स्वातंत्र्य समर का एक उपेक्षित नायक

 जयंती (28 मई) पर विशेष

-प्रो.संजय द्विवेदी

       स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर की पूरी जिंदगी रचना, सृजन और संघर्ष का उदाहरण है। आजादी के आंदोलन के वे अप्रतिम नायक हैं। उनकी प्रतिभा के इतने कोण हैं कि किसी एक पक्ष का भी अभी ठीक से मूल्यांकन होना शेष है। वे क्रांतिकारी, सामाजिक चिंतक, समाज सुधारक,इतिहासकार, उपन्यासकार, कवि, राजनेता एवं संगठनकर्ता हैं। सावरकर भारतीय स्वातंत्र्य समर के प्रथम क्रांतिकारी हैं, जिन्हें दो बार काला पानी सजा सुनाई गई। सावरकर पर अंग्रेज अफसर की हत्या की साजिश रचने और भारत में क्रांति की पुस्तकें भेजने के दो अभियोगों में 25-25 वर्ष मतलब कुल मिलाकर 50 वर्ष की सजा सुनाई गयी थी। 4 जुलाई 1911 को अंडमान-निकोबार की सेल्लुलर जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में उनके बड़े भाई गणेश भी थे, किंतु कड़े नियमों के कारण दो साल तक दोनों भाई आपस में मिल भी नहीं सके। 

    उनके व्यक्तित्व का गलत आकलन और उनकी मृत्यु के इतने सालों बाद भी उनका उपहास उड़ाने वालों की एक लंबी सूची है। किंतु काला पानी की भयंकरता का अनुमान उनके आलोचकों को नहीं है। यदि होता तो वे स्वातंत्र्यवीर सावरकर की पूजा करते, आलोचना नहीं। काला पानी की विभीषिका,यातना और त्रासदी  किसी नरक से कम नहीं है। सावरकर ने न सिर्फ इसे भोगा बल्कि उन्होंने इस अनुभव से काला पानी नामक एक उपन्यास भी लिखा। यह उपन्यास अंडमान की जेल में बंद सश्रम कारावास काट रहे बंदियों के ऊपर हो रहे अत्याचारों, क्रूरतापूर्ण व्यवहार के बारे में त्रासद वर्णन करता है।

     वीर सावरकर का जन्म 28, मई,1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले ग्राम भगूर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई और 1905 में उन्होंने बीए पास किया। वे 9 जून,1906 को इंग्लैंड के चले जाते हैं और इंडिया हाउस, लंदन में रहते हुए क्रांतिकारी गतिविधियो के साथ लेखन कार्य में जुट जाते हैं। इंडिया हाउस उन दिनों राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था, जिसे पंडित श्यामजी चला रहे थे। सावरकर ने फ्री- इंडिया सोसाइटी का निर्माण किया, जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। उनकी एक लेखक के तौर पर यहीं से पहचान बननी प्रारंभ हुई। 1907 में आपने 1857 का स्वातंत्र्य समर नामक पुस्तक लिखनी प्रारंभ की। उनके मन में आजादी की अलख जल रही थी। वे ऐसे पहले भारतीय भी हैं, जिन पर हेग की अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा भी चला। अपने जीवनकाल में संघर्षों के बाद भी उन्होंने विपुल लेखन किया। उनकी प्रमुख किताबों में- कमला, गोमांतक,मोपलों का विद्रोह,मेरा आजीवन कारावास, वरहोच्छवास, हिंदुत्व, हिंदु पदपादशाही, 1857 का स्वातंत्र्य समर, उः श्राप, उत्तरक्रिया, संन्यस्त खड्ग आदि हैं।

      30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे के बाद सावरकर जी को भी गिरफ्तार किया था, क्योंकि गोडसे भी हिन्दू महासभा का कार्यकर्ता था, जिसके सावरकर 1943 तक अध्यक्ष रह चुके थे। हत्या की साजिश में शामिल होने का उन पर भी आरोप लगाया गया। हालांकि नाथूराम गोडसे ने हत्या की योजना के लिए खुद को ही जिम्मेदार बताया। बाद में आरोप मुक्त करते हुए सावरकर को रिहा कर दिया गया। वरिष्ठ पत्रकार श्री राम बहादुर राय ने एक साक्षात्कार में कहा है कि, "दरअसल उन पर आख़िरी दिनों में जो कलंक लगा है, उसने सावरकर की विरासत पर अंधकार का बादल डाल दिया है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा उदाहरण मिले जो क्राँतिकारी कवि भी हो, साहित्यकार भी हो और अच्छा लेखक भी हो। अंडमान की जेल में रहते हुए पत्थर के टुकड़ों को कलम बना कर जिसने 6000 कविताएं दीवार पर लिखीं और उनकी कंठस्थ किया। यही नहीं पाँच मौलिक पुस्तकें वीर सावरकर के खाते में हैं, लेकिन इसके बावजूद जब सावरकर का नाम महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से जुड़ जाता है, सावरकर समाप्त हो जाते हैं और उनकी राजनीतिक विचारधारा वहीं सूख भी जाती है।"

     देखा जाए तो सावरकर अकेले ऐसे नहीं हैं, जिन्हें इतिहास में उपेक्षा मिली। ऐसे अनेक क्रांतिवीर हैं जो अंग्रेजों के विरूद्ध लड़े,किंतु स्वतंत्र भारत की बदली राजनीति ने उन्हें अप्रासंगिक कर दिया। खासकर ऐसे क्रांतिकारी जो गरम दल से जुड़े थे। बावजूद इसके इससे सावरकर का संघर्ष और त्याग कहीं से कम नहीं होता। कई बार उनकी भगत सिंह से तुलना की जाती है कि आखिर भगत सिंह ने माफी क्यों नहीं मांगी। सच तो यह है कि भगत सिंह अपने इरादों का ऐलान कर चुके थे और उन्हें बम धमाके के बाद फांसी के फंदे पर जाना स्वीकार था। सावरकर यहां अपने माफीनामे को रणनीति की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे शायद यह मानते रहे होगें कि यहां से निकलकर वे देश के लिए कुछ कर पाएं। श्री रामबहादुर राय उन्हें अपने इसी इंटरव्यू में सावरकर को एक चतुर क्रांतिकारी की संज्ञा देते हैं। राय कहते हैं- "उनकी कोशिश रहती थी कि भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है। सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े की उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे। उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे।"

     विवादों के बाद भी अपनी पूरी जिंदगी देश के लिए होम करने वाले नायक को राजनीति के निशाने पर क्यों रखा गया, इसका बड़ा कारण हिंदुत्व के प्रति उनकी सोच और व्याख्याएं हैं। हिंदुत्व की विचारधारा के विरोधी जनों ने उनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को भी लांछित करना प्रारंभ किया ताकि उन्हें अंग्रेजों का पिठ्ठू बताकर हिंदुत्व को भी लांछित किया जा सके। निशाने पर दरअसल सावरकर नहीं, हिंदुत्व का विचार है। सावरकर की सारी तपस्या पर पानी फेरने के यह जतन तब किए जा रहे हैं, जबकि महात्मा गांधी भी उन्हें वीर कहकर संबोधित करते थे। सरदार भगत सिंह भी सावरकर को आदर्श के रूप में देखते थे। मतवाला के 15 और 22 नवंबर,1924 के अंक में भगत सिंह का लेख बलवंत सिंह के छद्म नाम से छपा है। विश्वप्रेम शीर्षक से छपे इस लेख में भगत सिंह लिखते हैं- विश्व प्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते- वही वीर सावरकर। विश्व प्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जायेगी।  हालांकि 1966 में इंदिरा गांधी ने सावरकर के बलिदान, देशभक्ति और साहस को प्रणाम करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी। 1970 में इंदिरा सरकार ने सावरकर जी के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था। इतिहास में वह पत्र भी दर्ज है जो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सावरकर राष्ट्रीय स्मारक को लिखा था। 20 मई, 1980 को श्रीमती गांधी ने स्मारक के सचिव श्री बाखले को लिखे पता में कहा था कि- मुझे आपका 8 मई 1980 को भेजा पत्र मिला। वीर सावरकर का अंग्रेजी हुक्मरानों का खुलेआम विरोध करना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक अलग और अहम स्थान रखता है। मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें और भारत माता के इस महान सपूत की 100 वीं जयंती के उत्सव को योजनानुसार पूरी भव्यता के साथ मनाएं।

     इतना ही नहीं राष्ट्रध्वज के बीच में चक्र लगाने का सुझाव वीर सावरकर ने सर्वप्रथम दिया था, जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया। सावरकर जी सामाजिक कुप्रथाओं के विरूद्ध थे। उन्होंने छुआछूत के विरोध में आंदोलन चलाया और जाति प्रथा का विरोध किया। इसके साथ ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए भी उन्होंने मांग की। उन्होंने अपनी पुस्तक हिंदुत्व में लिखा है- हमारे राष्ट्र के लोगों की जीवंत मातृभाषा बनने का बहुमान संस्कृत की ज्येष्ठ कन्या हिंदी को प्राप्त हुआ है। ...रामेश्वरम् से निकलकर हरिद्वार की यात्रा पर जानेवाला कोई साधु, सन्यासी अथवा कोई व्यापारी संपूर्ण यात्रा के समय संपूर्ण हिंदुस्थान में इसी भाषा का प्रयोग करता गया। आजादी के आंदोलन में अपना सर्वस्व झोंक देने वाले इस क्रांतिकारी ने 1 फरवरी,1966 से अन्न-जल त्याग दिया और 26 फरवरी,1966 को उनका देहावसान हो गया। एक लेख में उन्होंने अपने इस संकल्प को आत्महत्या नहीं आत्मार्पण नाम दिया। उनका कहना था कि उनके जीवन का उद्देश्य अब पूरा हो चुका है, ऐसे में मृत्यु की प्रतीक्षा करने के बजाए अपना जीवन त्याग देना ही श्रेयस्कर है। ऐसे प्रखर राष्ट्रचिंतक एवं ध्येयनिष्ठ क्रांतिधर्मा वीर सावरकर की स्मृतियां लंबे समय से हमारे राष्ट्रजीवन को उनके त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाती रहेंगीं।

बुधवार, 26 मई 2021

लोकमंगल के संचारकर्ता हैं नारद

                                                                    -प्रो. संजय द्विवेदी


   ब्रम्हर्षि नारद लोकमंगल के लिए संचार करने वाले देवता के रूप में हमारे सभी पौराणिक ग्रंथों में एक अनिवार्य उपस्थिति हैं। वे तीनों लोकों में भ्रमण करते हुए जो कुछ करते और कहते हैं, वह इतिहास में दर्ज है। इसी के साथ उनकी गंभीर प्रस्तुति नारद भक्ति सूक्ति में प्रकट होती है, जिसकी व्याख्या अनेक आधुनिक विद्वानों ने भी की है। नारद जी की लोकछवि जैसी बनी और बनाई गई है, वे उससे सर्वथा अलग हैं। उनकी लोकछवि झगड़ा लगाने या कलह पैदा करने वाले व्यक्ति कि है, जबकि हम ध्यान से देखें तो उनके प्रत्येक संवाद में लोकमंगल की भावना ही है। भगवान के दूत के रूप में उनकी आवाजाही और उनके कार्य हमें बताते हैं कि वे निरर्थक संवाद नहीं करते। वे निरर्थक प्रवास भी नहीं करते। उनके समस्त प्रवास और संवाद सायास हैं। सकारण हैं। उद्देश्य की स्पष्टता और लक्ष्यनिष्ठा के वे सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। हम देखते हैं कि वे देवताओं के साथ राक्षसों और समाज के सब वर्गों से संवाद रखते हैं। सब उन पर विश्वास भी करते हैं। देवताओं, मनुष्यों और राक्षसों के बीच ऐसा समान आदर तो देवाधिदेव इंद्र को भी दुर्लभ है। वे सबके सलाहकार, मित्र, आचार्य और मार्गदर्शक हैं। वे कालातीत हैं। सभी युगों और सभी लोकों में समान भाव से भ्रमण करने वाले। ईश्वर के विषय में जब वे हमें बताते हैं, तो उनका दार्शनिक व्यक्तित्व भी हमारे सामने प्रकट हो जाता है।

      पुराणों में नारद जी को भागवत संवाददाता की तरह देखा गया है। हम यह भी जानते हैं कि वाल्मीकि जी ने रामायण और महर्षि व्यास ने श्रीमद्भागवत गीता का सृजन नारद जी प्रेरणा से ही किया था। नारद अप्रतिम संगीतकार हैं। उन्होंने गंधर्वों से संगीत सीखकर खुद को सिद्ध किया, नारद संहिता ग्रंथ की रचना की। नारद ने कठोर तपस्या कर भगवान विष्णु से संगीत का वरदान लिया। सबसे खास बात यह है कि वे महान ऋषि परंपरा से आते हैं, किंतु कोई आश्रम नहीं बनाते, कोई मठ नहीं बनाते। वे सतत प्रवास पर रहते हैं ,उनकी हर यात्रा उदेश्यपरक है। एक सबसे बड़ा उद्देश्य तो निरंतर संपर्क और संवाद है,साथ ही वे जो कुछ वहां कहते हैं, उससे लोकमंगल की एक यात्रा प्रारंभ होती है। उनसे सतत संवाद,सतत प्रवास, सतत संपर्क, लोकमंगल के लिए संचार करने की सीख ग्रहण की जा सकती है।

     भारत के प्रथम हिंदी समाचार-पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के लिए संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने देवर्षि नारद जयंती (30 मई, 1826 / ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया) की तिथि का ही चुनाव किया था। हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला रखने वाले पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तण्ड के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर आनंद व्यक्त करते हुए लिखा कि आद्य पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रारंभ होने जा रही है। इससे पता चलता है परंपरा में नारद जी की जगह क्या है। इसी तरह एक अन्य उदाहरण है। नारद जी को संकटों का समाधान संवाद और संचार से करने में महारत हासिल है। आज के दौर में उनकी यह शैली विश्व स्वीकृत है। समूचा विश्व मानने लगा है कि युद्ध अंतिम विकल्प है। किंतु संवाद शास्वत विकल्प है। कोई भी ऐसा विवाद नहीं है, जो बातचीत से हल न किया जा सके। इन अर्थों में नारद सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक हैं। सबसे बड़ी बात है नारद का स्वयं का कोई हित नहीं था। इसलिए उनका समूचा संचार लोकहित के लिए है। नारद भक्ति सूत्र में 84 सूत्र हैं। ये भक्ति सूत्र जीवन को एक नई दिशा देने की सार्मथ्य रखते हैं। इन सूत्रों को प्रकट ध्येय तो ईश्वर की प्राप्ति ही है, किंतु अगर हम इनका विश्लेषण करें तो पता चलता है इसमें आज की मीडिया और मीडिया साथियों के लिए भी उचित दिशाबोध कराया गया है। नारद भक्ति सूत्रों पर ओशो रजनीश, भक्ति वेदांत,स्वामी प्रभुपाद, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि,गुरूदेव श्रीश्री रविशंकर,श्री भूपेंद्र भाई पंड्या, श्री रामावतार विद्याभास्कर,स्वामी अनुभवानंद, हनुमान प्रसाद पोद्दार, स्वामी चिन्मयानंद जैसे अनेक विद्वानों ने टीकाएं की हैं। जिससे उनके दर्शन के बारे में विस्तृत समझ पैदा होती है। पत्रकारिता की दृष्टि से कई विद्वानों ने नारद जी के व्यक्तित्व और कृतित्व का आकलन करते हुए लेखन किया है। हालांकि उनके संचारक व्यक्तित्व का समग्र मूल्यांकन होना शेष है। क्योंकि उनपर लिखी गयी ज्यादातर पुस्तकें उनके आध्यात्मिक और दार्शनिक पक्ष पर केंद्रित हैं। काशी विद्यापीठ के पत्रकारिता के आचार्य प्रो. ओमप्रकाश सिंह ने आदि पत्रकार नारद का संचार दर्शन शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है। संचार के विद्वान और हरियाणा उच्च शिक्षा आयोग के अध्यक्ष प्रो. बृजकिशोर कुठियाला मानते हैं, नारदजी सिर्फ संचार के ही नहीं, सुशासन के मंत्रदाता भी हैं। वे कहते हैं-व्यास ने नारद के मुख से युधिष्ठिर से जो प्रश्न करवाये उनमें से हर एक अपने आप में सुशासन का एक व्यावहारिक सिद्धांत है। 123 से अधिक प्रश्नों को व्यास ने बिना किसी विराम के पूछवाया। कौतुहल का विषय यह भी है कि युधिष्ठिर ने इन प्रश्नों का उत्तर एक-एक करके नहीं दिया परंतु कुल मिलाकर यह कहा कि वे ऋषि नारद के उपदेशों के अनुसार ही कार्य करते आ रहे हैं और यह आश्वासन भी दिया कि वह इसी मार्गदर्शन के अनुसार भविष्य में भी कार्य करेंगे। एक सुंदर दुनिया बनाने के लिए सार्वजनिक संवाद में शुचिता और मूल्यबोध की चेतना आवश्यक है। इससे ही हमारा संवाद लोकहित केंद्रित बनेगा। नारद जयंती के अवसर नारद जी के भक्ति सूत्रों के आधार पर आध्यात्मिकता के घरातल पर पत्रकारिता खड़ी हो और समाज के संकटों के हल खोजे, इसी में उसकी सार्थकता है।

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं) 

सोमवार, 24 मई 2021

बनिए कर्मयोगी, जिंदगी मुस्कुराएगी

 जीवन महान संभावनाओं से भरा है इसे यूं न गवाएं

-प्रो. संजय द्विवेदी

      कर्म की महत्ता अनंत है। हमारी परंपरा इसे कर्मयोग कहकर संबोधित करती है। हताश, निराश, अवसाद से घिरे वीरवर अर्जुन को महाभारत के युद्ध में योगेश्वर कृष्ण इसी कर्मयोग का उपदेश देते हैं। इसके बाद अर्जुन में जो सकारात्मक परिर्वतन आते हैं, उसे हम सब जानते हैं। हमारे देश में कर्मयोग की साधना करने वाले अनेक महापुरूष हुए हैं। कम आयु पाकर भी सिद्ध हो जाने वाले जगद्गुरू शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद का कृतित्व भी हमें पता है। संकल्प के धनी, परिस्थितियों को धता बताकर अपने जीवन लक्ष्यों को पाने वाले भी अनेक हैं। गुलाम भारत में भी ऐसी प्रतिभाओं ने अपने सपनों को मरने नहीं दिया और आगे आए। जिंदगी में असंभव स्वप्न देखे और पूरे किए। देश की आजादी का सपना देखने वालों में ऐसे तमाम योद्धा थे, जिन्हें पता नहीं था कि ये जंग कब तक चलेगी, पर वे जीते। भारत से अंग्रेजी राज का सूर्यास्त हो गया।

वे जूझते हैं ताकि हम रहें खुशहालः

       मनुष्य का सारा जीवन इसी कर्मयोग का उदाहरण है। कर्तव्यबोध से भरे हुए लोग ही समाज का नेतृत्व करते हैं। उनकी कर्मठता,समर्पण से ही यह पृथ्वी सुखों का सागर बन जाती है। स्वयं को झोंककर नए-नए अविष्कार करने वाले वैज्ञानिक, सीमा पर डटे जवान, विपरीत स्थितियों में खेतों में जुटे किसान,आर्थिक गतिविधियों में लगे व्यापार उद्योग के लोग, मीडियाकर्मी, मेडिकल और स्वास्थ्य सेवाओं में लगे लोग ऐसे न जाने कितने क्षेत्र हैं, जहां लोगों ने खुद को झोंक रखा है ताकि हमारी जिंदगी खुशहाल रहे। कोई भी व्यक्ति कर्म से अलग होकर नहीं रह सकता। सोते-जागते, उठते बैठते, यहां तक कि सांस लेते हुए वह कर्म करता है। कर्मशील व्यक्ति वर्तमान को पहचानता है। उसका उपयोग करता है। श्रद्धा, आस्था और लगन से किया गया हर कार्य पूजा बन जाता है। जैसे हम कहते हैं कि उन डाक्टर साहब के हाथ में यश है। जादू है। वह कोई जादू नहीं है। उन्होंने लगन और निष्ठा से अपने काम में सिद्धि प्राप्त कर ली है।

सिद्ध कारीगरों से भरे थे हमारे गांवः

    एक समय में हमारे गांव भी ऐसे सिद्धों से भरे हुए थे। गहरी कलात्मकता, आंतरिक गुणों के आधार हमारे गांव कलाकारों, कारीगरों से भरे थे। जो समाज के उपयोग की चीजें बनाते थे, समाज उनका संरक्षण करता था। श्री धर्मपाल ने अपने लेखन में ऐसे समृद्ध गांवों का वर्णन किया है। जो समृध्दि से भरे थे, आत्मनिर्भर भी। इसके पीछे था ग्रामीण भारत में छिपा कर्मयोग। उनके मन में रची-बसी गीता। इन्हीं जागरूक भारतीय कारीगरों, कर्मठता से भरे कलाकारों ने भारत को विश्वगुरू बनाया था। कबीर अपने समय के लोकप्रिय कवि, समाजसुधारक हैं, पर वे भी कर्मयोगी हैं। वे अपना मूल काम नहीं छोड़ते। झीनी-झीनी चादर भी बीनते रहे। संत रैदास भी सिद्धि प्राप्त कर अपना काम करते रहे। यहां ज्ञान के साथ कर्म संयुक्त था। इसलिए गुरूकुल परंपरा में वहां की सारी व्यवस्थाएं छात्र खुद संभालते हैं। कर्मयोग और ज्ञानयोग की शिक्षा उन्हें साथ मिलती है। उनकी ज्ञान पिपासा उन्हें कर्म से विरत नहीं करती। वहां राजपुत्र भी सन्यासी वेश में रहते हैं और गुरू आज्ञानुसार लकड़ी काटने से लेकर भिक्षा मांगने, खेती-बागवानी का काम करते हुए जीवन युद्ध के लिए तैयार होते हैं। जमीन हकीकतें उन्हें योग्य बनाती हैं,गढ़ती हैं। वहां राजपुत्रों के फाइव स्टार स्कूल नहीं हैं। आश्रम ही हैं। समान व्यवस्था है। गीता में इसीलिए कृष्ण कहते हैं-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

       महात्मा गांधी इसी कर्मयोग को बुनियादी शिक्षा के माध्यम से जोड़ना चाहते थे। लंबे समय के बाद आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में एक बार फिर कौशल आधारित शिक्षा की बात कही जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कर्मयोग की बात कर रहे हैं और केंद्र सरकार ने मिशन कर्मयोगी के माध्यम से अपने अधिकारियों को और भी अधिक रचनात्मक, सृजनात्मक, विचारशील, नवाचारी, अधिक क्रियाशील, प्रगतिशील, ऊर्जावान, सक्षम, पारदर्शी और प्रौद्योगिकी समर्थ बनाते हुए भविष्य के लिये तैयार करने का लक्ष्य तय किया है। यह लक्ष्य तभी पूरा होगा जब हर भारतवासी अपने कर्मपथ पर आगे बढ़े। सही मायनों में व्यक्ति को कर्मभोगी नहीं, कर्मयोगी बनना चाहिए। इसके मायने हैं कि कोई भी छोटा से छोटा काम भी इतनी गुणवत्ता से किया जाए कि वह उदाहरण बन जाए। खास बन जाए। आपका हर कार्य कर्ता की ईमानदारी का साक्षी बन जाए।

छोटी शुरूआत के बड़े मायनेः

        हर काम जिंदगी में महान संभावनाएं लेकर आता है। छोटे से बीज से ही विशाल वृक्ष बनते हैं और देते हैं हमें ढेर सी आक्सीजन, छाया और फल। कर्मवीर इसीलिए अपने काम को ही जीवन का आधार मानते हैं। एक संत कहा करते थे-हे कार्य! तुम्हीं मेरी कामना हो, तुम्हीं मेरी प्रसन्नता हो, तुम्हीं मेरा आनंद हो। हमारी जिंदगी में कई बार ऐसा लगता है कि यह काम छोटा है, मेरे व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं है। हमें सोचना चाहिए कि जब कोई नदी अपने उद्गम से निकलती है तो वह बहुत छोटी होती है। एक पेड़ जो अपनी विशालता से आकर्षित करता है, अनेक पक्षियों का बसेरा होता है, वह भी आरंभ में एक बीज ही रहता है। एक बहुमूल्य मोती अपने प्रारंभ में बालू का कण ही होता है। हमने अनेक महापुरूषों के बारे में सुना है कि उन्होंने जीवन का आरंभ किस काम से किया। छोटी शुरूआत के मायने ठहरना नहीं है,यात्रा का आरंभ है। थामस अल्वा एडीशन वैज्ञानिक बनना चाहते थे, किंतु उनके अध्यापक ने उन्हें घर में झाड़ू लगाने का काम दिया। किंतु जब उन्होंने देखा कि इस बालक में गहरी प्रतिभा है तो उन्होंने उसे विज्ञान की शिक्षा देनी आरंभ की। बाद में थामस एक महान वैज्ञानिक बने। इस बात को याद रखिए सफलतम लोगों का जीवन प्रायः उन कामों से प्रारंभ होता है, जिन्हें हम मामूली समझकर छोड़ देते हैं। कोई भी व्यक्ति जब खुद को कर्म, परिश्रम और पुरूषार्थ की आग में तपाता है तो वह कुंदन(सोने) की तरह चमकने लगता है। उसके आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।बाधाएं उसे सफलता के रहस्य और मार्ग बताती हैं। सूरज, चांद, तारे, नदियां, पेड़-पौधे सब अपना काम नियमित करते हैं। हम एक सचेतन मनुष्य होकर किसकी प्रतीक्षा में हैं। इसी भाव से गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा था-

करम प्रधान विश्व रचि राखा,

जो जस करहि सो तस फल चाखा।

सकल पदारथ है जग मांही

करमहीन नर पावत नाहीं।

    कठिन से कठिन परिस्थितियों में हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। अमरीका के टेनेसी में रहने वाली चार साल की लड़की के पैरों को लकवा मार जाता है। वो हिम्मत से जूझती है। चलने की जगह दौड़ने का अभ्यास करने लगी। ऐसा समय भी आया जब वह ओलंपिक में शामिल होकर तीन पदक जीते।वह लड़की थी गोल्डीन रूलाफ, जो आज भी प्रेरणा देती है।

आत्मविश्वास, आत्मबल और आत्मनिर्भरता हैं मंत्रः

         कर्मयोगी बनना है तो आत्मविश्वास, आत्मबल और आत्मनिर्भरता को साधना होगा। इन तीन मंत्रों को साधकर ही हम जिंदगी की हर जंग जीत सकते हैं। निडर होकर सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए, समाजहितों में लगे रहनेवाली दृढ़ता आत्मबल से आती है। सफलता के सबसे जरूरी है आत्मविश्वास। स्वामी विवेकानंद कहते थे- आत्मविश्वास जैसा कोई मित्र नहीं है। आत्मविश्वास के कारण बाधाएं भी मंजिल पर पहुंचाने वाली सीढ़ियां बन जाती हैं। हमने राजस्थान के राणा सांगा का नाम जरूर सुना होगा। वे 80 धाव होने पर भी युद्ध में जूझते रहे। ऐसी ही कहानी है इंग्लैंड के वेल्स की । वो बहुत दुबला पर सेना में शामिल हुआ। एक युद्ध में दाहिना हाथ कट गया, दूसरे युद्ध में आंख चली गई। सरकार ने उसे दिव्यांगों की पेंशन देनी चाही किंतु उसने  मना कर दिया। उसके बाद भी उसने कई युध्दों में भाग लिया। हर स्थिति में न झुकने वालों में वेल्स का नाम लिया जाता है। वेल्स कहते थेः कायर एक बार जीता और बार-बार मरता है, लेकिन जिसके पास आत्मविश्वास है, वो एक बार ही जन्म लेता है और एक बार ही मरता है। तीसरी खास चीज है आत्मनिर्भरता। मनोविज्ञान हमें बताता है, जब तक आप दूसरों पर निर्भर हैं, आप धोखे में हैं। सच तो यह है कि हर संकट से जूझने की चाबी आपके पास है।जीवन में सफलता पाने के लिए हमें अपने सपनों, आकांक्षाओं के साथ अपनी योग्यताओं में वृध्दि करना प्रारंभ कर देना चाहिए। इससे न सिर्फ हमें सफलता मिलेगी, तनावों से मुक्ति मिलेगी बल्कि शांति, संतोष और सुखद जीवन भी प्राप्त होगा। आइए आज से ही निष्काम कर्मयोग की यात्रा पर निकलते हैं। तय मानिए एक सुंदर दुनिया बनेगी और जिंदगी मुस्कराएगी।