बलिदान
दिवस(23 जून) पर विशेष
- प्रो.संजय द्विवेदी
भूमि, जन तथा संस्कृति के समन्वय से राष्ट्र बनता है। संस्कृति राष्ट्र का शरीर, चिति उसकी आत्मा तथा विराट उसका प्राण है। भारत एक राष्ट्र है और वर्तमान समय में एक शक्तिशाली भारत के रूप में उभर रहा है। राष्ट्र में रहने वाले जनों का सबसे पहला दायित्व होता है कि वो राष्ट्र के प्रति ईमानदार तथा वफादार रहें। प्रत्येक नागरिक के लिए राष्ट्र सर्वोपरि होता है, जब भी कभी अपने निजी हित, राष्ट्र हित से टकराएं, तो राष्ट्र हित को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए, यह हर एक राष्ट्रभक्त की निशानी होती है। भारत सदियों तक गुलाम रहा और उस गुलाम भारत को आजाद करवाने के लिए असंख्य वीरों ने अपने निजी स्वार्थों को दरकिनार करते हुए राष्ट्र हित में अपने जीवन की आहुति स्वतंत्रता रूपी यज्ञ में डालकर राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया। ऐसे ही महापुरुष थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी।
यह कितना दुखद था कि माता वैष्णो देवी भी परमिट
मांगती थी। डल झील भी पूछती तू किस देश का वासी है, बर्फानी बाबा अमरनाथ के दर्शन के लिए इंतजार करना पड़ता था, जिस प्रकार कैलाश
मानसरोवर के लिए करना पड़ता है कि आखिर मेरा नंबर कब आएगा। अगर देश के पास भारतीय जनसंघ
के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी नहीं होते तो कश्मीर
का विषय चर्चा में नहीं आता । जिस प्रकार लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने खंड-खंड हो रहे देश को अखंड बनाया, उसी प्रकार डॉ.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अखंड भारत की संकल्पना को साकार करने के लिए
अपना पूरा जीवन होम कर दिया।
डॉ. श्यामा
प्रसाद मुखर्जी केवल राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं थे। उनके जीवन से ही राजनीतिक दलों के
कार्यकर्ताओं को सीख लेनी चाहिए, उनका स्वयं का जीवन प्रेरणादायी,
अनुशासित तथा निष्कलंक था। राजनीति उनके लिए राष्ट्र की सेवा का साधन
थी, उनके लिए सत्ता केवल सुख के लिए नहीं थी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी राजनीति में क्यों आए? इस प्रश्न
का उत्तर है, उन्होंने राष्ट्रनीति के लिए राजनीति में पदार्पण
किया। वे देश की सत्ता चाहते तो थे, किंतु किसके हाथों में?
उनका विचार था कि सत्ता उनके हाथों में जानी चाहिए, जो राजनीति का उपयोग राष्ट्रनीति के लिए कर सकें।
डॉ. मुखर्जी
33 वर्ष की आयु में ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए
और विश्व का सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान उन्हें प्राप्त हुआ। वे 1938 तक इस पद पर रहे। बाद में उनकी राजनीति में जाने की इच्छा के कारण उन्हें कांग्रेस
प्रत्याशी और कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल विधान परिषद का
सदस्य चुना गया, लेकिन कांग्रेस द्वारा विधायिका के बहिष्कार
का निर्णय लेने के पश्चात उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। बाद में डॉ. मुखर्जी ने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए।
1943 में बंगाल में पड़े अकाल के दौरान श्यामा प्रसाद जी का मानवतावादी पक्ष निखर
कर सामने आया, जिसे बंगाल के लोग कभी भुला नहीं सकते। बंगाल पर
आए संकट की ओर देश का ध्यान आकर्षित करने के लिए और अकाल-ग्रस्त
लोगों के लिए व्यापक पैमाने पर राहत जुटाने के लिए उन्होंने प्रमुख राजनेताओं,
व्यापारियों, समाजसेवी व्यक्तियों को जरुरतमंद
और पीड़ितों को राहत पहुंचाने के उपाय खोजने के लिए आमंत्रित किया। फलस्वरूप बंगाल
राहत समिति गठित की गई और हिन्दू महासभा राहत समिति भी बना दी गई। श्यामा प्रसाद जी
इन दोनों ही संगठनों के लिए प्रेरणा के स्रोत थे। लोगों से धन देने की उनकी अपील का
देशभर में इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि बड़ी-बड़ी राशियां इस प्रयोजनार्थ
आनी शुरू हो गई। इस बात का श्रेय उन्हीं को जाता है कि पूरा देश एकजुट होकर राहत देने
में लग गया और लाखों लोग मौत के मुंह में जाने से बच गए। वह केवल मौखिक सहानुभूति प्रकट
नहीं करते थे, बल्कि ऐसे व्यावहारिक सुझाव भी देते थे,
जिनमें सहृदय मानव-हृदय की झलक मिलती, जो मानव पीड़ा को हरने के लिए सदैव लालायित और तत्पर रहता है। स्वतंत्रता प्राप्ति
के बाद उन्होंने संसद में एक बार कहा था, ‘‘अब हमें
40 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं, पता नहीं भविष्य
में लोकसभा के सदस्यों के भत्ते क्या होंगे। हमें स्वेच्छा से इस दैनिक भत्ते में
10 रुपये प्रतिदिन की कटौती करनी चाहिए और इस कटौती से प्राप्त धन को
हमें इन महिलाओं और बच्चों (अकाल ग्रस्त क्षेत्रों के)
के रहने के लिए मकान बनाने और खाने-पीने की व्यवस्था
करने के लिए रख देना चाहिए।’’
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार
में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में शामिल किया। लेकिन नेहरू और पाकिस्तान के
प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच हुए समझौते के पश्चात
6 अप्रैल, 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र
दे दिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श लेकर
मुखर्जी ने 21 अक्टूबर, 1951 को जनसंघ की
स्थापना की। भारत में जिस समय जनसंघ की स्थापना हुई, उस समय देश
विपरीत परिस्थितयों से गुजर रहा था। जनसंघ का उदेश्य साफ था। वह अखंड भारत की कल्पना
कर कार्य करना चाहता था। वह भारत को खंडित भारत करने के पक्ष में नहीं था। जनसंघ का
स्पष्ट मानना था कि भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में दुनिया के सामने आएगा। डॉ.
मुखर्जी के अनुसार अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं
है, अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का द्योतक है, जो अनेकता में एकता का दर्शन करता है। जनसंघ के लिए अखंड भारत कोई राजनीतिक
नारा नहीं था, बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण जीवनदर्शन का मूलाधार
है।
देश में पहला आम चुनाव
25 अक्टूबर, 1951 से 21 फरवरी,
1952 तक हुआ। इन आम चुनावों में जनसंघ के
3 सांसद चुने गए, जिनमें एक डॉ. मुखर्जी भी थे। तत्पश्चात उन्होंने संसद के अंदर 32 लोकसभा
और 10 राज्यसभा सांसदों के सहयोग से नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी
का गठन किया। डॉ. मुखर्जी सदन में नेहरू की नीतियों पर तीखा प्रहार
करते थे। जब संसद में बहस के दौरान पंडित नेहरू ने भारतीय जनसंघ को कुचलने की बात कही,
तब डॉ. मुखर्जी ने कहा, ‘‘हम देश की राजनीति से इस कुचलने वाली मनोवृत्ति को कुचल देंगे।’’
डॉ. श्यामा
प्रसाद मुखर्जी भारत का विभाजन नहीं होने देना चाहते थे। इसके लिए वे महात्मा गांधी
के पास भी गए थे। परंतु गांधी जी का कहना था कि कांग्रेस के लोग उनकी बात सुनते ही
नहीं। जब देश का विभाजन अनिवार्य जैसा हो गया, तो डॉ.
मुखर्जी ने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं के
हितों की उपेक्षा न हो। उन्होंने बंगाल के विभाजन के लिए जोरदार प्रयास किया,
जिससे मुस्लिम लीग का पूरा प्रांत हड़पने का मंसूबा सफल नहीं हो सका।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रभक्ति एवं देश प्रेम की उस महान परंपरा के वाहक थे,
जो देश की परतंत्रता के युग तथा स्वतंत्रता के काल में देश की एकता,
अखंडता तथा विघटनकारी शक्तियों के विरुद्ध सतत् जूझते रहे। उनका जीवन
भारतीय धर्म तथा संस्कृति के लिए पूर्णतः समर्पित था। वे एक महान शिक्षाविद् तथा प्रखर
राष्ट्रवादी थे। पारिवारिक परिवेश शिक्षा, संस्कृति तथा हिन्दुत्व
के प्रति अनुराग उन्हें परिवार से मिला था।
डॉ. श्यामा
प्रसाद मुखर्जी ‘एक भारत’ की कल्पना में
विश्वास रखते थे। हमारे स्वाधीनता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने भी ऐसे ही भारत
की कल्पना की थी। मगर जब आजाद भारत की कमान संभालने वालों का बर्ताव इस सिद्धांत के
खिलाफ हो चला, तो डॉ. साहब ने बहुत मुखरता
और प्रखरता के साथ इसका विरोध किया। महाराजा हरि सिंह के अधिमिलन पत्र अर्थात्
'इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन' पर हस्ताक्षार करते
ही समूचा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो गया। बाद में संविधान
के अनुच्छेद एक के माध्यम से जम्मू कश्मीर भारत का 15वां राज्य
घोषित हुआ। ऐसे में जम्मू कश्मीर में भी शासन व संविधान व्यवस्था उसी प्रकार चलनी चाहिए
थी, जैसे कि भारत के किसी अन्य राज्य में। जब ऐसा नहीं हुआ तो
मुखर्जी ने अप्रैल 1953 में पटना में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में
कहा था कि, “जम्मू एवं कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला
और उनके मित्रों को यह साबित करना होगा कि भारतीय संविधान जिसके अंतर्गत देश के पैंतीस
करोड़ लोग, जिनमें चार करोड़ लोग मुसलमान भी हैं, वे खुश रह सकते हैं, तो जम्मू-कश्मीर
में रहने वाले 25 लाख मुसलमान क्यों नही?” उन्होंने शेख को चुनौती देते हुए कहा था कि, “यदि
वह सेकुलर हैं, तो वह संवैधानिक संकट क्यों उत्पन्न करना चाहते
हैं। आज जब राज्य का एक बड़ा हिस्सा अपने आप को संवैधानिक व्यवस्था से जोड़ना चाहता है,
तो शेख अब्दुल्ला इसमें रोड़े क्यों अटका रहे हैं?”3 उनके द्वारा उठाये गए सवालों के जवाब न शेख के पास थे और न पंडित नेहरू के
पास। इसीलिए दोनों ने कभी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से सीधे
बात करने की कोशिश भी नहीं की।
अनुच्छेद 370 के राष्ट्रघातक प्रावधानों को हटाने के लिए भारतीय जनसंघ ने हिन्दू महासभा
और रामराज्य परिषद के साथ सत्याग्रह आरंभ किया। डॉ. मुखर्जी इस
प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है। उन्होंने सिंह-गर्जना करते हुए कहा था कि, “एक देश में दो विधान,
दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा”। उस समय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370
में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए
हुए जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। डॉ.
मुखर्जी इस प्रावधान के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था कि, “नेहरू ने ही ये बार-बार ऐलान किया है कि जम्मू व कश्मीर
राज्य का भारत में 100% विलय हो चुका है, फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए
बिना दाखिल नहीं हो सकता। मैं नहीं समझता कि भारत सरकार को यह हक है कि वह किसी को
भी भारतीय संघ के किसी हिस्से में जाने से रोक सके, क्योंकि खुद
नेहरू ऐसा कहते हैं कि इस संघ में जम्मू व कश्मीर भी शामिल है।”
उन्होंने इस प्रावधान के विरोध
में भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू व कश्मीर जाने की योजना बनाई। इसके साथ
ही उनका अन्य मकसद था वहां के वर्तमान हालात से स्वयं को वाकिफ कराना, क्योंकि शेख अब्दुल्ला की सरकार ने वहां के सुन्नी कश्मीरी मुसलमानों के बाद
दूसरे सबसे बड़े स्थानीय भाषाई डोगरा समुदाय के लोगों पर असहनीय जुल्म ढाना शुरू कर
दिया था। नेशनल कांफ्रेंस का डोगरा-विरोधी उत्पीड़न वर्ष
1952 के शुरुआती दौर में अपने चरम पर पहुंच गया था। डोगरा समुदाय के
आदर्श पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने बलराज मधोक के साथ मिलकर ‘जम्मू
व कश्मीर प्रजा परिषद् पार्टी’ की स्थापना की थी। इस पार्टी ने
डोगरा अधिकारों के अलावा जम्मू व कश्मीर राज्य के भारत संघ में पूर्ण विलय की लड़ाई,
बिना रुके और बिना थके लड़ी।
डॉ. मुखर्जी
ने भारतीय संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को कहा था कि
‘या तो मैं संविधान की रक्षा करूंगा, नहीं तो अपने
प्राण दे दूंगा’। हुआ भी यही।
8 मई, 1953 को सुबह 6:30 बजे दिल्ली रेलवे स्टेशन से पैसेंजर ट्रेन में अपने समर्थकों के साथ सवार होकर
डॉ. मुखर्जी पंजाब के रास्ते जम्मू के लिए निकले। उनके साथ बलराज
मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, टेकचंद,
गुरुदत्त वैद्य और कुछ पत्रकार भी थे। रास्ते में हर जगह डॉ.
मुखर्जी की एक झलक पाने एवं उनका अभिवादन करने के लिए लोगों का जनसैलाब
उमड़ पड़ता था। डॉ. मुखर्जी ने जालंधर के बाद बलराज मधोक को वापस
भेज दिया और अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ी। 11 मई, 1953 को कुख्यात परमिट सिस्टम का उलंघन करने पर कश्मीर में प्रवेश करते हुए उन्हें
गिरफ्तार कर लिया गया और गिरफ्तारी के दौरान ही रहस्मयी परिस्थितियों में
23 जून, 1953 को उनकी मौत हो गई। डॉ. मुखर्जी की माता जी ने नेहरू के 30 जून, 1953
के शोक संदेश का 4 जुलाई,1953 को उत्तर देते हुए
पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने उनके बेटे की रहस्मयी परिस्थितियों
में हुई मौत की जांच की मांग की। जवाब में पंडित नेहरु ने जांच की मांग को ख़ारिज कर
दिया। उन्होंने जवाब देते हुए यह लिखा कि, “मैंने कई लोगों
से इस बारे में पता लगवाया है, जो इस बारे में काफी कुछ जानते
थे और उनकी मौत में किसी प्रकार का कोई रहस्य नहीं था।”
उनकी शहादत पर शोक व्यक्त करते हुए तत्कालीन
लोकसभा के अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर ने कहा था, ‘‘वे हमारे महान देशभक्तों में
से एक थे और राष्ट्र के लिए उनकी सेवाएं भी उतनी ही महान थीं। जिस स्थिति में उनका
निधन हुआ, वह स्थिति बड़ी ही दुःखदायी है। उनकी योग्यता,
उनकी निष्पक्षता, अपने कार्यभार को कौशल्यपूर्ण
निभाने की दक्षता, उनकी वाक्पटुता और सबसे अधिक उनकी देशभक्ति
एवं अपने देशवासियों के प्रति उनके लगाव ने उन्हें हमारे सम्मान का पात्र बना दिया।’’
उनकी मृत्यु के पश्चात टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा
अत्यंत उल्लेखनीय श्रद्धांजलि दी गई, जिसमें
कहा गया कि ‘‘डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी
सरकार पटेल की प्रतिमूर्ति थे’’। यह
एक अत्यंत उपर्युक्त श्रद्धांजलि थी, क्योंकि डॉ. मुखर्जी नेहरू सरकार पर बाहर से उसी प्रकार का संतुलित और नियंत्रित प्रभाव
बनाए हुए थे, जिस प्रकार का प्रभाव सरकार पर अपने जीवन काल में
सरदार पटेल का था। राष्ट्र-विरोधी और एक दलीय शासनपद्धति की सभी
नीतियों तथा प्रवृत्तियों के प्रति उनकी रचनात्मक एवं राष्ट्रवादी विचारधारा तथा उनके
प्रबुद्ध एवं सुदृढ़ प्रतिरोध ने उन्हें देश में स्वतंत्रता और लोकतंत्र का प्राचीर
बना दिया था। संसद में विपक्ष के नेता के रूप में उनकी भूमिका से उन्हें ‘‘संसद का शेर’’ की उपाधि अर्जित हुई।
भारतीय
जनसंघ से लेकर भाजपा के प्रत्येक घोषणा पत्र में अपने बलिदानी नेता डॉ.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के इस घोष वाक्य को, कि
‘हम संविधान की अस्थायी धारा 370 को समाप्त करेंगे’,
सदैव लिखा जाता रहा। समय आया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने स्वयं डॉ. मुरली मनोहर जोशी के साथ भारत की
यात्रा करते हुए श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराया था और गृह मंत्री अमित शाह ने
5 अगस्त, 2019 को धारा 370 को राष्ट्र हित में समाप्त करने के निर्णय को दोनों सदनों से पारित कर डॉ.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी। वे महापुरुष बहुत भाग्यशाली
होते हैं, जिनकी आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वर्जों की कही गई बातों
को साकार करती है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भाग्यशाली हैं कि
उनके विचारों के संवाहक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं गृह मंत्री अमित शाह सहित पूरे
मंत्रिमंडल ने धारा 370 को समाप्त कर दुनिया को बता दिया:-
जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है,
जो कश्मीर हमारा है, वह सारा का सारा है।
सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतों
के पक्के डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सदैव राष्ट्रीय
एकता की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा था। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने
स्पष्ट कहा था कि राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती
है। एक कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व वाले मुखर्जी अपनी मृत्यु के दशकों बाद भी अनेक
भारतवासियों के आदर्श और पथप्रदर्शक हैं। जिस प्रकार हैदराबाद को भारत में विलय करने
का श्रेय सरदार पटेल को जाता है, ठीक उसी प्रकार बंगाल,
पंजाब और कश्मीर के अधिकांश भागों को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने
की सफलता प्राप्ति में डॉ. मुखर्जी के योगदान को नकारा नहीं जा
सकता। उन्हें किसी दल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, क्योंकि
उन्होंने जो कुछ किया, देश के लिए किया और इसी भारतभूमि के लिए
अपना बलिदान तक दे दिया।
वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रधर्म का पालन करने
वाले साहसी, निडर एवं जुझारु कर्मयोद्धा थे।
जीवन में जब भी निर्माण की आवाज उठेगी, पौरुष की मशाल जगेगी,
सत्य की आंख खुलेगी एवं अखंड राष्ट्रीयता की बात होगी, तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अवदान को सदा याद किया
जायेगा।
(लेखक
भारतीय जनसंचार संस्थान , नई दिल्ली के महानिदेशक है)
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