रविवार, 23 मई 2021

हर पत्रकार ‘हरिश्चंद्र’ नहीं होताः प्रो.संजय द्विवेदी

 साक्षात्कार

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक प्रोफेसर संजय द्विवेदी से मीडिया प्राध्यापक डा.ऋतेश चौधरी की अंतरंग बातचीत


 
प्रो. संजय द्विवेदी देश के प्रख्यात पत्रकार, संपादक, लेखक, अकादमिक प्रबंधक और मीडिया प्राध्यापक हैं।  दैनिक भास्कर, नवभारत, हरिभूमि, स्वदेश, इंफो इंडिया डाटकाम और छत्तीसगढ़ के पहले सेटलाइट चैनल जी चौबीस घंटे छत्तीसगढ़ जैसे मीडिया संगठनों में संपादक,समाचार सम्पादक, कार्यकारी संपादक, इनपुट हेड और एंकर जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालीं। रायपुर, बिलासपुर, मुंबई और भोपाल में सक्रिय पत्रकारिता के बाद आप अकादमिक क्षेत्र से जुड़े। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष रहने के अलावा विश्वविद्यालय के कुलसचिव और प्रभारी कुलपति  रहे। मूल्यआधारित पत्रकारिता को समर्पित संगठन- ‘मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति’ के अध्यक्ष हैं। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर अब तक 25 पुस्तकों का लेखन एवं संपादन। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया मुद्दों पर नियमित लेखन से खास पहचान। अनेक  संगठनों द्वारा मीडिया क्षेत्र योगदान के सम्मानित। संप्रति भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली के महानिदेशक हैं। मीडिया के समसामयिक सवालों पर उनसे लंबी बातचीत की डा.ऋतेश चौधरी ने। इसी संवाद के अंश-


आपको पत्रकारिता का लंबा अनुभव है। आपने नब्बे के दशक में पत्रकारिता की शुरुआत की। आज लगभग तीन दशक बाद आप इस व्यवसाय में किस तरह का परिवर्तन देख रहे हैं। क्या आपको लगता है कि मीडिया बदल रहा है? क्या मीडिया के काम करने के तरीके में बदलाव आया है?

 -देखिए वक्त का काम है बदलना,वह बदलेगा। समय आगे ही जाएगा,यही उसकी नैसर्गिक वृत्ति है। ऐसे में पत्रकारिता भी अब बहुत बदली है। वह एक सक्षम उद्योग है, जिस पर निर्भर तमाम जिंदगियां बहुत अच्छा जीवन जी रही हैं। परिवर्तन कई तरह के हैं। तकनीक के हैं, भाषा के हैं, प्रस्तुति के भी हैं, छाप-छपाई के हैं,काम करने की शैली के हैं । हर क्षेत्र में हमने प्रगति की है। आज दुनिया के बेहतर अखबारों के समानांतर समाचार पत्र हमारे यहां छप रहे हैं। वे अपनी गुणवत्ता, प्रस्तुति, छाप-छपाई में कहीं कमजोर नहीं हैं। टीवी और इंटरनेट आधारित मीडिया में हमने बहुत प्रगति की है। यह प्रगति विस्मय में डालती है। काम के तरीके में परिवर्तन आया है, तकनीक के सहारे ज्यादा काम हो रहा है। किंतु विचार और गुणवत्ता की जगह तकनीक नहीं ले सकती। यह मानना ही चाहिए।

 

पत्रकारिता के सफर में आपका भारत के विभिन्न रंगों से परिचय हुआ होगा। भारत के उन रंगों को जो आज मीडिया पर प्रतिबिम्बित नहीं हैं, उनके विषय में कुछ साझा कीजिये।

-मीडिया की मजबूरी है कि वह समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसे प्रथमतः और अंततःजनता के दुख-दर्द के साथ होना होगा। कोरोना संकट-एक और दो दोनों समय पर जिस तरह मीडिया ने आम जनता के दुख-दर्द उनकी तकलीफों को बताया। समाज को संबल दिया वह बात बताती है कि मीडिया की मुक्ति कहां है। वह विचारधारा के आधार पर पक्ष लेता है। कुछ के प्रति ज्यादा कड़ा या नरम हो सकता है। पर यह बात बहुलांश पर लागू नहीं होती। ज्यादातर मीडिया अपेक्षित तटस्थता और ईमानदारी के साथ काम करता है। दूसरी बात मीडिया के पाठक वर्ग की है जो उनका पाठक है, उनकी बात ज्यादा रहेगी। मीडिया मूलतः महानगर केंद्रित है। शहर केंद्रित है। पर अब छोटे स्थानों को भी जगह मिल रही है। गांवों तक अखबार जा रहे हैं। उनकी भी खबरें आने लगी हैं। हर अखबार के स्थानीय संस्करण अपने स्थानीयताबोध और माटी की महक के नाते ही स्वीकारे जा रहे हैं।

 

एक जमाना था जब अखबार की सुर्खियाँ महीनों चर्चा का विषय होती थीं और अब अखबार बेचने के लिये स्कीम देनी पड़ती है। ऐसे में अखबारों से क्या उम्मीद की जानी चाहिए?

-आज मीडिया का आकार-प्रकार बहुत बढ़ गया है। अखबारों के पेज बढ़े हैं, संस्करण बढ़े हैं। जिले-जिले के पेज बनते हैं। टीवी न्यूज  चैनल चौबीस घंटे समाचार देते हैं, न्यू मीडिया पल-प्रतिपल अपडेट होता है। ऐसे में खबरों की उमर ज्यादा नहीं रहती। एक जाती है तो तुरंत दूसरी आती है। ऐसे में किसी खबर पर महीनों चर्चा हो यह संभव नहीं है। दोपहर की खबर पर शाम को चैनल चर्चा करते हैं। सुबह अखबारों में संपादकीय, विश्लेषण और लेख आ जाते हैं। इससे ज्यादा क्या चाहिए? गति बढ़ी है तो इससे सारा कुछ बदल गया है। जहां तक अखबार बेचने की बात है, स्कीम दी जाती है, सच है। यह स्पर्धा के नाते है। आज अखबारों में लाखों में छपते और बिकते हैं। चीन, जापान और भारत आज भी प्रिंट के बड़े बाजार हैं। यहां ग्रोथ निरंतर है। ऐसे में अपना प्रसार बढ़ाने की स्पर्धा में स्कीम आदि के कार्य होते हैं। इसमें गलत क्या है? आप सीमित संख्या में छपना और बिकना चाहते हैं, तो स्कीम नहीं चाहिए। आपको ज्यादा प्रसार चाहिए तो कुछ आकर्षण देना पड़ेगा। वे इवेंट हों, इनाम हों, स्कीम हो कुछ भी हो। जहां तक उम्मीद की बात है, तो भरोसा तो रखना पड़ेगा। आप मीडिया पर भरोसा नहीं करेगें तो किस पर करेगें? कहां जाएंगें?

न्यूज़ चैनल का एक एंकर देश को बचाने के लिए स्टूडियो में नकली बुलेट प्रूफ़ जैकेट पहने दहाड़ता रहता है, पता नहीं कब दुष्ट पाकिस्तान गोली चला दे। आपके हिसाब से क्या ये तमाशा पत्रकारिता के लिए खतरे कि घंटी नहीं है?

-टीवी से आप बहुत ज्यादा उम्मीद रख रहे हैं। टीवी ड्रामे का माध्यम है, वहां दृश्य रचने होते हैं। इसलिए यह सब चलता है। कल तक नाग-नागिन की शादी, काल-कपाल-महाकाल,स्वर्ग की सीढ़ी, राजू श्रीवास्तव-राखी सावंत-रामदेव से निकलकर ये  टीवी चैनल बहस पर आए हैं। कल खबरों पर भी आएंगें। थोड़ा धीरज रखिए। गंभीर चैनल भी हैं पर उन्हें देखा नहीं जाता। दर्शकों और पाठकों को भी मीडिया साक्षर बनाने की सोचिए। सारा ठीकरा मीडिया पर मत फोड़िए। डीजी न्यूज खबरें दिखाता है, देखिए। हमें पाठक और दर्शक की सुरूचि का विकास भी करना होगा। वह गंभीर मुद्दों पर स्वस्थ संवाद के लिए तैयार किया जाना चाहिए। अभी इसमें समय लगेगा। नहीं होगा, ऐसा नहीं है। समझ का विकास समय लेता है। लोकतंत्र के लिए वैसे भी कहते हैं कि वह सौ साल में साकार होता है। हमें इंतजार करना होगा।

 नए मीडिया के आगमन के साथ विभिन्न पुराने मीडिया के अपने औडिएंस कम होने लगते हैं। कल तक ये कहा जाता था कि समाचार पत्रों के पाठकों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। बल्कि यूं कहे सकते हैं कि पढ़ने का रुझान ही लोगों का कम हो रहा है। आज नेट्फ़्लिक्स, अमेज़न, हॉटस्टार के आगमन से टेलीविज़न के दर्शक कम हो रहे हैं। इन सबको देख कर लगता है कि आने वाला समय पूरी तरह डिजिटल युग होगा। डिजिटल युग पूरी तरह जल्दबाज़ी की कार्यप्रणाली को अपनाना है। एक पुरानी कहावत है की 'जल्दी का काम, शैतान का', तो ऐसे में क्या भविष्य की पत्रकारिता क्या सामाजिक सरोकार से जुड़ी रह पाएगी।

मैं फिर कह रहा हूं सामाजिक सरोकार छोड़कर कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती। न्यूज मीडिया अलग है और मनोरंजन का मीडिया अलग है। दोनों को मिलाइए मत। दोनों चलेंगें। एक आपको आनंद देता है, दूसरा खबरें और विचार देता है। दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं। इसमें गलत क्या है? मनोरंजन का मीडिया भी जरूरी है। खबर मीडिया भी जरूरी है। कुछ खुद को इंफोटेनमेंट चैनल कहते हैं, यानि दोनों काम करते हैं। इसलिए बाजार है, तो बाजार में हर तरह के उत्पाद हैं। यहां पोर्न और सेमीपोर्न भी है। किंतु हमें न्यूज मीडिया की जिम्मेदारियों और उसकी बेहतरी की बात करनी चाहिए। यही हमारी दुनिया है। शेष से हमारी स्पर्धा नहीं है। यह तय मानिए मनोरंजन, ओटीटी और फिल्म की दुनिया से न्यूज के दर्शक कम ही रहेंगे, इस पर विलाप करने की जरूरत नहीं है। हम खास हैं, यह मानिए। इसलिए हमारे पास खास दर्शक या पाठक समूह हैं, हमें भीड़ आवश्यक्ता नहीं है।

 

'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' ने 180 देशों की सूची जारी की है, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता के हिसाब से भारत का स्थान 142 वां  है। ऐसे में विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस दुनिया का सबसे बड़ा छलावा नहीं माना जाना चाहिए? क्या इसे जनता के साथ एक क्रूर मज़ाक के रूप में देखना गलत होगा?

मैं विदेशी संस्थाओं के जारी किए गए तथ्यों और आंकड़ों पर भरोसा नहीं करता। भारत में लोकतंत्र है और जीवंत लोकतंत्र है। मीडिया में सर्वाधिक आलोचना हमारे सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री की ही होती है और आप कह रहे हैं कि प्रेस की आजादी नहीं है। मई महीने में ही कोविड को लेकर कोलकाता के टेलीग्राफ अखबार ने कैसे शीर्षक लगाए हैं, उसे देखिए। देश की दो प्रमुख पत्रिकाओं इंडिया टुडे(नाकाम सरकार-19 मई,2021) और आउटलुक( लापता-भारत सरकार-31मई,2021) की कवर स्टोरी देखिए, पढ़िए और बताइए कि प्रेस की आजादी कहां चली गई है? यदि आपातकाल है तो आप सत्ता के विरुद्ध ऐसे तेवर लेकर कहां रह पाते? हम एक लोकतंत्र में रहते हैं। यहां पंथ आधारित देशों, साम्यवादी देशों जैसी व्यवस्था नहीं हैं। यहां हमें लिखने, पढ़ने, बोलने की आजादी को संवैधानिक संरक्षण है। यह अलग बात है कि इसी का लाभ लेकर देशतोड़क गतिविधियों भी की जा रही हैं। विरोध करते-करते कब हम देश के विरोध में खड़े हो जाते हैं, हमें पता नहीं चलता। इसलिए आजादी है तो उसके साथ कुछ संवैधानिक सीमाएं भी हैं। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अंतर को समझे बिना हम इसे नहीं समझ पाएंगें। इसलिए विदेशी एजेंसियों के मूल्यांकन का आधार क्या है, वे ही जानें। पत्रकार के रूप में एक्टीविस्ट बनकर आप देश विरोधी हिंसक अभियानों के शहरी-बौद्धिक मददगार बनेंगे और आपके विरूद्ध कुछ न हो यह कहां संभव है?

 

आपको नहीं लगता कि दुनिया भर में मीडिया कार्पोरेट के हाथ में है, जिसका एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक फ़ायदा कमाना है। मीडिया राजनीतिक तंत्र का जीता जगता हथियार भी बन गया है। आज राजनीतिक तंत्र जब चाहे, जहां चाहे मीडिया का उपयोग करता है और बदले में ये राजनीतिक तंत्र मीडिया घरानों, प्रबंधकों व संपादकों की आवश्‍यकताओं की पूर्ति प्रमुखता से करता है। क्या ये हालात लोकताँत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक नहीं है।

इतने भारी-भरकम और खर्चीले मीडिया को कारपोरेट के अलावा कौन चला सकता है? सरकार चलाएगी तो उस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। समाज या पाठक को मुफ्त का अखबार चाहिए। आप अगर सस्ता अखबार और पत्रिकाएं चाहते हैं तो उसकी निर्भरता तो विज्ञापनों पर रहेगी। विज्ञापन देने वाला कुछ तो अपनी भी बात रखेगा। यानि अगर मीडिया को आजाद होना है, तो उसकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए। ऐसे में पाठक और दर्शक उसका खर्च उठाएं। अगर आप अच्छी, सच्ची, शोधपरक खबरें पढ़ना चाहते हैं तो खर्च कीजिए। आज भी हमारे पास बहुत अच्छे अखबार, वेबसाइट, न्यूज चैनल हैं, जो दबाव से मुक्त होकर बातें कहते हैं। लेकिन उन्हें जनसहयोग नहीं होगा, आर्थिक संबल नहीं होगा तो कब तक यह भूमिका निभाएंगें कहा नहीं जा सकता। बावजूद इसके निराशाजनक हालात नहीं हैं। सारी व्यवस्था विरोधी खबरें भी यही कारपोरेट मीडिया लेकर आ रहा है। मीडिया के वजूद को बचाना है तो जनपक्ष अनिवार्य है। थोड़ा बहुत एजेंडा सेंटिंग सब करते हैं। जो सत्ता में हैं,मंत्री हैं उनकी बात ज्यादा आएगी। लेकिन प्रतिपक्ष को जगह नहीं मिलती, यह कहना गलत है। संतुलन बनाने की दृष्टि से भी मीडिया को यह करना होता है। कई बार पत्रकार खुद एक पक्ष हो जाता है, यह बात जरूर चिंता में डालती है। अगर पार्टियों के प्रवक्ताओं का काम एंकर या पत्रकार ही करने लगेंगें तो हमारे इतने सारे प्रतिभाशाली प्रवक्तागण बेरोजगार हो जाएंगें। कुछ लोगों को अपेक्षित संयम रखने की जरूरत है। यह नहीं होना चाहिए कि मैं मुंह खोलूंगा तो क्या बोलूंगा, यह दर्शक को पहले से पता हो। मैं कोई लेख लिखता हूं तो वह इस उम्मीद से पढ़ा जाए कि आज संजय द्विवेदी ने क्या लिखा होगा। यह नहीं कि मेरी फोटो और नाम देखकर ही पाठक लेख का कथ्य ही समझ जाए कि मैंने क्या लिखा है। यह किसी पत्रकार की विफलता है,किंतु सब ऐसे नहीं हैं। बहुलांश में लोग अपना काम अपेक्षित तटस्थता से ही करते हैं। प्रभाष जोशी जी कहते थे- पत्रकार की पोलिटिकल लाइन होना गलत नहीं है, गलत है पार्टी लाइन होना।

 

यह वह दौर है जब मीडिया का तकनीकी विकास अपने चरम पर है। आज उसकी पहुँच देश के कोने-कोने तक है। देश में हजारों अखबार और सैकड़ों संचार चैनल अपने तरीके से इस समय जनतंत्र के बीच हैं। लेकिन क्या आपको नहीं लगता की इस सब के बावजूद यही जनतंत्र मीडिया से गायब है?

    -ऐसा साधारणीकरण करना ठीक नहीं है। यह सबको एक कलर से पेंट कर देना है। लाखों पत्रकारों और मीडिया के लोंगों के त्यागपूर्ण जीवन पर सवाल खड़ा करना है। समाज जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट है। कार्यपालिका,न्यायपालिका, विधायिका से जुड़े लोग क्या शत प्रतिशत ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं? जाहिर है पर उत्तर नकारात्मक आएगा। ऐसे ही मीडिया में भी सब हरिश्चंद्र नहीं हैं। यह भी हमारे समाज का ही हिस्सा है। समाज में डाक्टर, वकील, इंजीनियर, अध्यापक, व्यापारी, सरकारी कर्मचारी जितने प्रतिशत ईमानदार हैं, उससे कुछ ज्यादा पत्रकार और मीडिया के लोग ईमानदार हैं। यह इसलिए क्योंकि मीडिया में आनेवाले ज्यादातर युवा कुछ आदर्शों, बेचैनियों और बदलाव की उम्मीद से आते हैं। वरना मीडिया में आरंभिक दिनों की जो तनख्वाह होती है , वो बहुत उत्साहवर्धक नहीं होती। पर वे आते हैं संघर्ष करते हैं और सपनों को सच करते हैं और वह सब कुछ हासिल करते है जो अन्य व्यवसाय हमें दे सकते हैं। लेकिन उनका आरंभिक संघर्ष हर कोई नहीं देखता। उनकी यात्रा का आरंभ आपने नहीं देखा। आपने कुछ चेहरों की चमक देखकर पूरे मीडिया का आकलन किया है, जो न्यायपूर्ण नहीं है। हमें अपने समाज में व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया को तेज करना होगा। ताकि देश प्रथम का भाव रखने वाले नागरिक तैयार हों। सिर्फ मीडिया क्यों समाज के हर क्षेत्र में ईमानदार, समर्पित, देशभक्त और संवेदनशील लोग चाहिए। किंतु हमारे परिवार, स्कूल, समाज, धर्म और पूरी व्यवस्था अब हमें नागरिक नहीं बना रही है। बाजार हमें जैसा बना रहा है, हम बन रहे हैं। संस्थाओं को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। इसमें सबसे पहली संस्था है परिवार और दूसरे हैं हमारे स्कूल। वे ही हमें अच्छा मनुष्य बनाएगें। यह गजब है कि कोरोना के संकट में भी पूरे समाज, मरीजों और उनके परिजनों को लूट रहे लोगों को अच्छा और ईमानदार मीडिया चाहिए। यह हिम्मत आपमें कहां से आती है? तभी आती है जब आप मनुष्यता के तल से बहुत नीचे गिर चुके होते हैं।

 

संविधान की धारा 19 (1) सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है। देश की मीडिया भी इसी अधिकार से लैस है। इसी औजार के बल पर बिना किसी कानूनी मान्यता के भी मीडिया को लोकतंत्र के चौथे खम्भे का दर्जा हासिल है। आज सवाल मीडिया द्वारा अपने अधिकारों के सही इस्तेमाल को लेकर ही है।

मीडिया को कोई संवैधानिक शक्ति हासिल नहीं है। कोई संरक्षण हासिल नहीं है। अमरीका की बात अलग है। इसलिए यह चौथा और पांचवां खंभा तो ठीक है, किंतु नागरिकों को मिले अधिकार का ही हम उपयोग करते हैं। इसलिए उसकी सीमाएं भी हैं। मीडिया आज जिस स्थिति में हैं, उसमें स्पर्धा के चलते हड़बड़ी में काम करना होता है। खबरों की गति बढ़ गयी है। इसलिए कई बार पुष्टि, प्रतिपुष्टि जैसे मुद्दे हाशिए लग जाते हैं। इस हड़बड़ी ने काफी कुछ बिगाड़ा है।

 

क्या आपको नहीं लगता कि जिस देश में पत्रकार (कुछ पत्रकार) ही दलाली, लाबिंग और तमाम दूसरे प्रवृतियों में संलग्न हो गए, वहाँ किस तरह के सामाजिक सरोकार की स्थापना होगी। क्योंकि  बहुत दिन नहीं हुए जब टूजी घोटाले में फंसे ए. राजा को मंत्री पद दिलाने के लिये लाबिस्ट नीरा राडिया का नाम आया था। जिसमें उसके साथ बड़े मीडिया समूह के कुछ पत्रकारों के भी लाबिंग में शामिल होने के सबूत मिले।  कुछ पत्रकारों को उनके मालिकों ने हटा कर अपने पाप तो धोए लेकिन कुछ लाबिंग जर्नलिस्ट आज भी चौथे स्तम्भ का हिसा बने हुए हैं।

लाबिंग तो होती है। अमरीका जैसे देशों में भी होती है। मैंने कहा कि पत्रकार भी एक मनुष्य भी है। उसके बिगड़ने के अवसर भी ज्यादा हैं। उसकी मुलाकातें, संपर्क अलीट क्लास और ताकतवर लोगों से होते हैं। सो फिसलन भरी राह है। कई लोग फिसल जाते हैं, उनका क्या। पर ज्यादातर उस काजल की कोठरी में जाना नहीं चाहते, यह बड़ा और गहरा सच है। मैं उन्हीं को उम्मीदों से देखता हूं। यह हर क्षेत्र में है, कुछ अच्छे और बुरे लोग हर प्रोफेशन में हैं। वो रहेंगें भी। त्रेता में भी रावण था, द्वापर में कंस था। कलयुग में यह संख्या बढ़ना आश्चर्यजनक नहीं है। हमें उम्मीद रखनी चाहिए कि देश के लोग पढ़ लिखकर,संवेदना के साथ आगे आएंगें और सतयुग आएगा। एक बेहतर और सुंदर दुनिया की उम्मीद तो जिंदा रखनी ही चाहिए। वह बनेगी,भरोसा रखिए।

 

क्या पेड न्यूज़, फेक न्यूज़, नो न्यूज़ जैसे चीजें मीडिया के मजबूत खम्भे को दरका रही है।

इसमें क्या दो राय है। जो गलत है, वो गलत है। इसका समर्थन कोई नहीं करता। जो इन कामों में लिप्त हैं, वह भी नहीं करते। मीडिया में खुद इन चीजों को लेकर बहुत बेचैनी है।

 

हर समाज में पत्रकारिता की ताकत में अंतर होता है। वॉशिंगटन पोस्ट’, ‘न्यूयोर्क टाइम्सने संयुक्त राष्ट्र अमरीका में, जो दुनिया का सबसे पुराना और सबसे ताक़तवर लोकतंत्र है, से टकराने की जुर्रत दिखाई। लेकिन कितने अखबारों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पत्रकारों और उनके काम का पक्ष लेते हुए, शक्तिशाली लोगों से टकराने की हिम्मत दिखाई है? क्या समाज के लिए दुनिया से टक्कर लेने वाले पत्रकार के पक्ष में खड़े होने वाले लोगो की कमी है? अगर हाँ तो इसकी वजह आपके हिसाब से क्या है?

हमारे तमाम अखबार, टीवी चैनल और पत्रिकाएं साहस के साथ अपनी बात कहती हैं। कल यही इतिहास बनेगा। आपातकाल के दिनों में भी वह आग थी। अंग्रेजों के दमनकारी दिनों में भी थी। आगे भी रहेगी। आप इस आग को बुझा नहीं सकते। आप ध्यान देंगें तो पाएंगें कि आपके आसपास समूची पत्रकारिता साहसी लोगों से भरी हुई है। लोग लिख  रहे हैं, बोल रहे हैं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए। पत्रकारिता के लिए कोई आलोचना से परे नहीं है। उसका काम ही है सत्यान्वेषण और प्रश्नाकुलता। इसी में पत्रकारिता की मुक्ति है, यही उसका धर्म है।

 

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने एक बार कहा था कि, कुछ देशों में, अन्य देशों के मुकाबले राजनेता-मीडिया और पत्रकारों को वश में रखने में ज्यादा कामयाब रहे हैं। लेकिन सत्ता पर काबिज एक शक्तिशाली व्यक्ति किसी पत्रकार को किस हद तक वश में कर सकता है, यह बात बहुत हद तक उस पत्रकार विशेष पर भी निर्भर करती है। आज के परिप्रेक्ष्य में आप इसे किस तरह से देखते हैं?

सत्ता या दलों के निकट होना गलत नहीं है। मूल बात है खबरों के लिए ईमानदार होना। अपने पेशे के लिए ईमानदार होना। मैं ऐसे अनेक पत्रकारों को जानता हूं कि वे अनेक नेताओं, अधिकारियों के हमप्याला- हमनिवाला रहे। किंतु जब खबरें मिलीं तो उन्होंने उनके साथ कोई रियायत नहीं बरती। यही मीडिया का चरित्र है। कई बार लोग मजाक में कहते हैं प्रेस वालों से दोस्ती और दुश्मनी दोनों अच्छी नहीं। प्रेस की अपनी जगह है। पत्रकार में यह सहज गुण होता है। जैसे घोड़ा घास से दोस्ती नहीं कर सकता, वैसे ही पत्रकार खबरों से दोस्ती नहीं कर सकता। कब कौन सी एक खबर उसके जीवन में आए और वह अमर हो जाए। वह नहीं जानता। उसी एक खबर के इंतजार में पत्रकार रोज निकलता है। क्योंकि आपकी जिंदगी में ज्यादातर रूटीन होता है। एक खबर ही आपको मीडिया के आकाश का सितारा बना देती है। अगर कोई भी राजनेता या अधिकारी इस धोखे में हैं, उसने मीडिया को या किसी पत्रकार को जेब में रखा हुआ है ,तो उसका यह धोखा बना रहने दीजिए। समय पर उसको इसका पछतावा जरूर होगा।

 

पत्रकारिता के बारे में यह मान्यता थी, विशेषकर आम लोगों में कि जब कहीं सुनवाई न हो, तब पीड़ित व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह अगर पत्रकार के पास पहुंच जाए और पत्रकार उनकी समस्या सुनकर इसका संज्ञान ले ले तो विश्वास था कि उनकी समस्याएं समाधान की तरफ बढ़ जाएंगी। क्या यह विश्वास आज भी लोंगों के मन मे बना हुआ है या ये विश्वास आज गलत साबित हो रहा है?

-तीनों पालिकाओं से निराश लोग खबरपालिका के पास जाते हैं, यह सच है। किंतु संकट तब आता है जब आप चाहते हैं आपकी लड़ाई पत्रकार या उसका प्रेस लड़े, किंतु आप सामने नहीं आएंगें। सच के लिए सबको सामने आना पड़ता है। प्रेस को, पत्रकार को समाज का भी साथ चाहिए होता है। वह कई बार नहीं मिलता।


आप सक्रिय पत्रकारिता से अलग आज लंबे अरसे से पत्रकारिता शिक्षण से जुड़े हैं। क्या आपको नहीं लगता कि देश में पत्रकारिता शिक्षा को लेकर संजीदगी की आवश्यकता है।

-पूरी शिक्षा व्यवस्था पर ही सवाल हैं। अकेली मीडिया शिक्षा को क्यों कह रहे हैं। शिक्षा पहले तो मनुष्य बनाए, वह कौशल से जुड़े और श्रम का सम्मान करना सिखाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इन विषयों को संबोधित कर रही है। हम सब भी एकात्मक और समग्र दृष्टिकोण के साथ काम करें, यह जरूरी है। इससे ही रास्ते निकलेगें।


एक पत्रकार के रूप में आपने पहचान बनाई। आज आपको लोग एक शिक्षाविद् और लेखक के रूप में जानते हैं। आप समाज में किस तरह का परिवर्तन देखना चाहते हैं। किस आदर्श समाज की परिकल्पना करते हैं।

मैं भारत की ज्ञान परंपरा और शाश्वत मूल्यों पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति हूं। जिससे समरसता, समभाव और आत्मीयता का विस्तार होता है। हम सब भारत मां के पुत्र-पुत्रियां हैं, तो हम सबके साझे दुख और सुख हैं। साझी उपलब्धियां और चुनौतियां हैं। रामराज्य हमारा आदर्श समाज है- दैहिक,दैविक,भौतिक तापा,रामराज काहुंहिं नहिं व्यापावसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र हमें बताता है कि हमारा पहला और अंतिम उद्देश्य ही एक बेहतर,सुंदर और सुखमय दुनिया बनाना है। हम ही हैं जो आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः कहकर चारों दिशाओं(पूरी दुनिया) से आ रहे कल्याणाकारी विचारों को स्वीकारना चाहते हैं। जहां किसी प्रकार का द्वेष, विरोध, द्वंद न हो। आत्मीय भाव चारो तरफ हों। इसलिए हमारे ऋषि की प्रार्थना है- सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः। ऐसा सुंदर विचार रखने वाली संस्कृति एक दिन समूचे विश्व में स्वीकारी जाएगी। इससे विश्व भी अपने संकटों से निजात पा सकेगा।


आपने विविध आयामी लेखन किया है। कोई ऐसा विषय जो अभी भी आपको लगता है की उस पर लिखना बाकी है। आपका एक जुमला जो आप अक्सर बातचीत के समय प्रयोग में लाते हैं 'देश हित में सब मंज़ूर'। सवाल आपसे ये है की भविष्य में खुद को कहाँ देखते हैं। ऐसी परिकल्पना जो देश हित में हो।

मैं ही क्यों हर व्यक्ति जो किसी भी क्षेत्र में अपना काम ईमानदारी से कर रहा है वह देशहित में ही कर रहा है। इसमें मेरे जैसे अध्यापक, लेखक, पत्रकार हैं तो किसान, मजदूर, जवान और तमाम श्रमदेव और श्रमदेवियां शामिल हैं। उनके पसीने से ही भारत मां का ललाट चमक रहा है, उसका आत्मविश्वास कायम है। मैंने अपनी बाल्यावस्था में ही खुद को लेखन के लिए समर्पित करने का सपना देखा था। समय के साथ उसमें पत्रकारिता और अध्यापन कार्य भी जुड़ गए। हम आयु से बड़े होते जाते हैं, सपने पूरे होते और बदलते जाते हैं। यह एक यात्रा है जो निरंतर है। अभी तो यही योजना है कि भारतीय जन संचार संस्थान को उसकी पारंपरिक गरिमा के साथ ऊंचाई दे सकूं। एक महान संस्था की सेवा का यह अवसर मेरे लिए बहुत खास है। मैं चाहता हूं कि संस्थान के विद्यार्थियों के लिए वह सब कुछ कर सकूं, जिससे उनमें भरोसा और आत्मविश्वास पैदा है। मैं चाहता हूं कि देश के हर क्षेत्र की नामवर हस्तियों से हमारे विद्यार्थी बात कर पाएं,उनसे सीख पाएं। बहुत सी योजनाएं हैं, सपने हैं। कोरोना ने थोड़ा ब्रेक लगाया है, पर सपने जिंदा हैं।

लोकमत समाचार, नागपुर में प्रकाशित लेख-4 मई,2021


 

बुधवार, 19 मई 2021

विचार को समर्पित बौद्धिक योद्धा

                                

कलम आज उनकी जय बोल

देश के चुनिंदा 11 पत्रकारों की कहानी, जिनके लिए पत्रकारिता का मतलब था भारतबोध का संचार, मूल्यनिष्ठा और समाज के लिए समर्पण

-प्रो. संजय द्विवेदी

  देश में पत्रकारिता के विस्तार और उसके एक उद्योग की तरह बदलने के बाद भी मिशनरी पत्रकारिता का भाव अभी भी जिंदा है। अनेक पत्रकारों ने अपने विचार और सिद्धांतों को जीवन की सुख-सुविधाओं से बड़ा माना। उसी के लिए जिए, संघर्ष में जीवन काटा पर न तो झुके, न टूटे, न समझौते किए। उनकी कलम न तो अटकी, न ही भटकी। ऐसे तपःपूतों ने विचारधारा के लोकव्यापीकरण में अनथक परिश्रम किया है। ऐसे अनाम योद्धाओं को याद करना जरूरी है, जो किसी बड़े मीडिया हाउस में बाजार के साथ चलते हुए बड़ा नाम और बड़ी सुविधाएं पा सकते थे। किंतु इन वैचारिक योद्धाओं ने अपनी विचार निष्ठा, ध्येय निष्ठा, राष्ट्रनिष्ठा को सर्वोपरि माना। यह विचार यज्ञ आज भी जारी है। नई पीढ़ी शायद इन कलमवीरों को उस तरह न जानती हो, किंतु उन्हें जानना अपनी आग तेज करने के लिए जरूरी है।

     इस कड़ी में सर्वाधिक खास योगदान है पांचजन्य का, जिसने राष्ट्रीय भावधारा की पत्रकारिता की अलख जगाई। उसके यशस्वी संपादकों की श्रृखंला में सर्वश्री अटलबिहारी वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री, ज्ञानेन्द्र सक्सेना, गिरीश चन्द्र मिश्र, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, तिलक सिंह परमार, यादव राव देशमुख, वचनेश त्रिपाठी, केवल रतन मलकानी, देवेन्द्र स्वरुप, दीनानाथ मिश्र, भानुप्रताप शुक्ल, रामशंकर अग्निहोत्री, प्रबाल मैत्र, तरूण विजय, बलदेवभाई शर्मा, जगदीश उपासने, हितेश शंकर जैसे नाम आते हैं। राष्ट्रधर्म,स्वदेश, तरूण भारत, साधना, हिंदुस्तान समाचार के संपादकों की गौरवशाली परंपरा भी राष्ट्रीय चेतना को विस्तारित करती रही है। नारद जयंती के मौके पर कुछ ऐसे साधक पत्रकारों को याद करना जरूरी है, जिनके द्वारा स्थापित परंपराओं और मूल्यनिष्ठा के आदर्श से वर्तमान पत्रकारिता को भी संबल मिल सकता है। साथ ही नई पीढ़ी को मूल्याधारित पत्रकारिता का सबक भी।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी दादा साहब आप्टे


दादा साहब आप्टे

   दादा साहब आप्टे उपाख्य शिवराम शंकर आप्टे ने परमपूज्य गुरू जी की भावनानुसार हिंदुस्तान समाचार जैसी बहुभाषी समाचार एजेंसी की स्थापना की। यह एक सहकारी समिति थी। 19 मई,1905 को गुजरात के बड़ोदरा में जन्में दादा साहब जब विधि की पढ़ाई करने मुंबई आए तो आपने भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान के.एम.मुँशी का सानिध्य प्राप्त किया। इसके बाद वे लियो प्रेस से जुड़े। 1939 के आसपास आप संघ के संपर्क में आए और राष्ट्र ही उनके लिए सर्वोपरि हो गया। हिंदुस्तान समाचार की स्थापना और उसके विस्तार में  उन्होंने आपने अपने आपको झोंक दिया। इस प्रकल्प में संघ के अनेक प्रचारक जुड़े जिनमें बापूराव लेले, नारायण राव तर्टे, बालेश्वर अग्रवाल,अशोक पंडित के नाम प्रमुख हैं। आप्टे जी ने राष्ट्रीय स्तर पर इसके विस्तार और तटस्थता व गुणवत्तापूर्ण समाचारों के प्रेषण के लिए जो योजनाएं बनाई उसके यह समाचार एजेंसी मीडिया क्षेत्र की अनिवार्य आवश्यक्ता बन गयी। पत्रकारिता के क्षेत्र में किसी भी सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन की प्रेरणा से चलने वाली इस एजेंसी ने मूल्य आधारित और वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता की परंपरा को स्थापित किया। यह एजेंसी आज भी अपने स्थापित परंपरागत मूल्यों के साथ काम कर रही है। दादा साहब आप्टे एक अनाम योद्धा की तरह काम करते रहे। बाद में दिनों में उन्होंने विश्व हिंदू परिषद की संकल्पना और उसकी स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वे एक लेखक, पत्रकार, चित्रकार,यायावर, प्राचीन भारतीय वांग्मय के ज्ञाता होने के साथ अप्रतिम संगठनकर्ता भी थे। 10 अक्टूबर,1985 को इस महान प्रतिभा का निधन हो गया।

क्रांतिकथाओं के सर्जक वचनेश त्रिपाठी


वचनेश त्रिपाठी

     क्रांतिकारियों के इतिहास और उनके गौरव के व्याख्याकार रहे श्री वचनेश त्रिपाठी का जन्म 24 जनवरी,1914 को हरदोई(उप्र) के संडीला में हुआ था। सिर्फ 12 वीं तक औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी वचनेश जी बहुत प्रतिभावान और स्वाध्यायी थे।1935 में मात्र 15 वर्ष की आयु में मैनपुरी केस के फरार क्रांतिकारी देवनारायण भारतीय से उनका संपर्क हुआ और वे राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। बालामऊ जंक्शन पुलिस चौकी लूटने के आरोप में उन्हें जेल भेजा गया। पं. रामप्रसाद बिस्मिल के दल में काम करते हुए साथियों के साथ मिलकर 1942 में भूमिगत पत्र ‘चिनगारी’ निकाला, उसका संपादन भी किया। श्री अटलबिहारी वाजपेयी जब संडीला में संघ के विस्तारक होकर आए तो वचनेश जी के घर पर ही रहते थे। दोंनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। लखनऊ से राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और स्वदेश का प्रकाशन का कार्य अटलजी के जिम्मे आया, उन्होंने वचनेश जी को पत्रकारिता से जोड़ दिया। 1960 में वचनेश जी तरूण भारत के संपादक बने। 1967 से 1973 तथा 1975 से 1984 तक वे राष्ट्रधर्म के संपादक रहे। 1973 से 75 तक वे पांचजन्य के संपादक रूप में दायित्व निर्वहन करते रहे। वचनेश जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य की हर विधा में उन्होंने काम किया और विपुल लेखन किया। बावजूद इसके क्रांतिकारियों की वीरगाथाओं में उनकी विशेष रूचि थी, अनेक क्रांतिकारियों से उनका संपर्क भी था। 2001 में उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया गया। बड़ा बाजार कुमार सभा पुस्तकालय, कोलकाता ने उन्हें हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान से सम्मानित किया। 30 नवंबर,2006 को लखनऊ में उनका देहांत हो गया।

प्रसिद्धि परांगमुखता के विरल उदाहरण मामाजी

माणिकचंद्र वाजपेयी

   मामाजी के नाम से प्रख्यात श्री माणिकचंद्र वाजपेयी त्याग, अप्रतिम सादगी, समर्पण और प्रतिबद्धता के विरल उदाहरण हैं। उन सा होना कठिन है। 7 अक्टूबर,1919 को आगरा जिले के  बटेश्वर गांव में जन्में मामा जी ने लगभग चार दशक तक पत्रकारिता की। भिंड के एक अखबार देशमित्र से प्रारंभ उनकी पत्रकारिता को राष्ट्रीय पहचान स्वदेश, इंदौर के प्रकाशन के साथ मिली। 1966 में स्वदेश का प्रकाशन इंदौर से प्रारंभ हुआ तो मामा जी उसके संपादक बने। इसके बाद 1971 में ग्वालियर स्वदेश और स्वदेश के अन्य संस्करणों के प्रधान संपादक होने का श्रेय उन्हें प्राप्त है। आपातकाल में वे इंदौर जेल में 19 महीने बंद रहे किंतु उनकी कलम रूकी नहीं, वे जेल से ही संपादकीय लिखकर भेजते रहे।उन्होंने ज्योति जला निज प्राण की, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली अग्निपरीक्षा, आपात् कालीन संघर्ष गाथा,कश्मीर का कड़वा सच, पोप का कसता शिकंजा,भारतीय नारी स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में, ज्योतिपथ, स्वामी विवेकानंद जीवन और विचार, मध्यभारत की संघ गाथा जैसी पुस्तकें लिखीं। आप इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष भी रहे। 2002 में जब माननीय अटलजी प्रधानमंत्री थे, तब स्वदेश (इंदौर) की योजना से दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास पर मामाजी का अभिनंदन समारोह ‘अमृत महोत्सव’ का आयोजन किया गया। उस दिन भार-विभोर होकर छल-छलाती आँखों से भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भरी सभा में मामाजी के चरणस्पर्श करने की अनुमति माँगी, तब वहाँ स्पंदित कर देने वाला वातावरण बन गया। भारत की राजसत्ता त्याग, समर्पण और निष्ठा के पर्याय साधु स्वभाव के मामाजी के सामने नतमस्तक थी। दिल्ली में आयोजित मामा जी जन्मशती वर्ष के समापन कार्यक्रम में पूज्य सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी ने कहा, किसी ने पूछा कि मामा जी कौन हैं? फिर भागवत जी ने कहा -माणिक चंद्र वाजपेयी कौन हैं? यही उनका सबसे बड़ा सर्टिफिकेट है। उनके इसी समर्पण के कारण आज हम उनके बारे में बातचीत कर रहे हैं। बीज मिट्टी में मिलकर वृक्ष खड़ा कर देता है। ऐसे ही थे मामाजी। वे जानते थे कि विश्व को अपना बनाना है तो पहले भारत को अपना बनाना होगा। इसके लिए भारतीयों को खड़ा करना होगा होगा।”

साधक महापुरुष माधव गोविंद वैद्य

माधव गोविंद वैद्य

    श्री मा.गो.वैद्य हमारे समय के साधक महापुरुष थे, जिन्होंने अपनी युवावस्था में जिस विचार को स्वीकारा अपनी सारी  गुणसंपदा उसे ही समर्पित कर दी। श्री वैद्य उन लोंगों मे थे, जिन्होंने पहले संघ को समझा और बाद में उसे गढ़ने में अपनी जिंदगी लगा दी।श्री वैद्य संपादक और लेखक के रुप में बहुत प्रखर थे। उनकी लेखनी और संपादन प्रखरता का आलम यह था कि तरूण भारत मराठी भाषा का एक लोकप्रिय दैनिक बना। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व  में अनेक पत्रकारों का निर्माण किया और पत्रकारों की एक पूरी मलिका खड़ी की। जीवन के अंतिम दिनों तक वे लिखते-पढ़ते रहे, उनकी स्मृति विलक्षण थी।वे स्वभाव से शिक्षक थे, जीवन से स्वयंसेवक और वृत्ति(प्रोफेशन) से पत्रकार थे। लेकिन हर भूमिका में संपूर्ण। कहीं कोई अधूरापन और कच्चापन नहीं। सच कहने का साहस और सलीका दोनों उनके पास था। वे एक ऐसे संगठन के ‘प्रथम प्रवक्ता’ बने, जिसे बहुत ‘मीडिया फ्रेंडली’ नहीं माना जाता था। वे ही ऐसे थे जिन्होंने प्रथम सरसंघचालक से लेकर वर्तमान सरसंघचालक की कार्यविधि के अवलोकन का अवसर मिला। उनकी रगों में, उनकी सांसों में संघ था। अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रणयन कर श्री वैद्य ने राष्ट्रीय भावधारा को एक बौद्धिक आधार दिया। 11 मार्च,1923 को जन्में श्री वैद्य ने 97 साल की आयु में 19 दिसंबर,2020 को नागपुर में आखिरी सांसें लीं। वे बहुत मेधावी छात्र थे,बाद के दिनों  में वे ईसाई मिशनरी की संस्था हिस्लाप कालेज, नागपुर में ही प्राध्यापक भी रहे।

एक आत्मविलोपी व्यक्तित्व रामशंकर अग्निहोत्री


रामशंकर अग्रिहोत्री

    प्रखर चिंतक, पत्रकार और संपादक श्री रामशंकर अग्निहोत्री का जन्म  4 अप्रैल, 1926 को मप्र के सिवनी मालवा हुआ। आरंभ में संघ के प्रचारक रहे श्री अग्निहोत्री बाद के दिनों में पत्रकारिता क्षेत्र में गए। 1951-52 में युगधर्म, नागपुर से जुड़कर उन्होंने पत्रकारिता प्रारंभ की।  पांचजन्य, राष्ट्रधर्म, तरूण भारत, हिंदुस्थान समाचार, आकाशवाणी, युगवार्ता वे जहां भी रहे राष्ट्रवाद की अलख जगाते रहे। उनका खुद का कुछ नहीं था। देश और उसकी बेहतरी के विचार उनकी प्रेरणा थे। राजनीति के शिखर पुरूषों की निकटता के बावजूद वे कभी विचलित होते नहीं दिखे। संपर्कों के मामले में उनका कोई सानी न था। पांचजन्य के प्रबंध संपादक, राष्ट्रधर्म के संपादक, लगभग एक दशक नेपाल में समाचार एजेंसी के संवाददाता, हिंदुस्थान समाचार के प्रधान संपादक और अध्यक्ष जैसे पदों पर रहे। अनेक देशों की यात्राएं की, विपुल लेखन किया। मध्यप्रदेश की सरकार ने उन्हें अपने प्रतिष्ठित माणिकचंद्र वाजपेयी सम्मान से अलंकृत किया था और उस मौके पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में पूर्व सरसंघचालक पूज्य श्री के.सी.सुदर्शन जी ने स्वीकार किया कि वे श्री अग्निहोत्री के ही बनाए स्वयंसेवक हैं और उनके एक वाक्य – “संघ तुमसे सब करवा लेगा” ने मुझे प्रचारक निकलने की प्रेरणा दी। यह एक ऐसा स्वीकार था जो रामशंकर अग्निहोत्री की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता को जताने के लिए पर्याप्त था। उनके बारे में पूर्व सांसद एवं पत्रकार स्व. राजनाथ सिंह कहा करते थे- वे आत्मविलोपी व्यक्तित्व हैं। जिन्हें पीछे रहकर काम करना आता है। अपने जीवन के अंतिम समय में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) में स्थापित शोधपीठ के अध्यक्ष रहे। 7 जुलाई,2010 को रायपुर में उनका निधन हो गया।

इतिहास के व्याख्याकार देंवेंद्र स्वरूप

देवेंद्र स्वरूप

 इतिहास, संस्कृति तथा भारतबोध के अप्रतिम व्याख्याकार और लेखक डा. देवेंद्र स्वरूप का जन्म 30 मार्च,1926 को मुरादाबाद(उप्र) के कांठ कस्बे में हुआ। 1947 से 1960 तक संघ के प्रचारक रहे श्री स्वरूप ने चेतना साप्ताहिक(वाराणसी) से पत्रकारिता प्रारंभ की। 1958 से सह-संपादक, संपादक और स्तंभ लेखक के नाते पांचजन्य से पूरी जिंदगी जुड़े रहे। 1960 से 1963 तक वे स्वतंत्र भारत (लखनऊ) में उपसंपादक भी रहे। दीनदयाल शोध संस्थान निदेशक व उपाध्यक्ष के रूप में आपने काम किया। संस्थान की शोध पत्रिका मंथन का संपादन लंबे समय तक संपादन किया। सन् 1964 से 1991 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कालेज में इतिहास का अध्यापन करते हुए आपने विपुल लेखन किया। अपने लंबे पत्रकारीय एवं अकादमिक जीवन में आपने दो दर्जन से अधिक पुस्तकें और पांच हजार से अधिक लेख लिखे। एक राष्ट्रऋषि और साधक की तरह उनका पूरा जीवन संघ विचार को समर्पित रहा। श्री यादवराव देशमुख ने उनके बारे में ठीक ही कहा था- देवेंद्र स्वरूप भारतीय इतिहास तथा संस्कृति के गहन अध्येता हैं। यदि हम कहें कि वे राष्ट्रवादी पत्रकारिता पत्रकारिता के स्तंभ हैं तो इसमें अतिश्योक्ति नहीं होगी।  14 जनवरी,2019 को उनका दिल्ली में निधन हो गया। उनकी इच्छानुसार उनका देहदान सफदरजंग अस्पताल को किया गया।

यशस्वी संपादक,श्रेष्ठ शिक्षाविद् राधेश्याम शर्मा


श्री राधेश्याम शर्मा

राजस्थान के एक गांव जोनाइचकला में 01 मार्च,1934 को जन्में श्री राधेश्याम शर्मा अपने विद्यार्थी जीवन में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में पढ़ते हुए ही पत्रकारिता से जुड़ गए थे। वे वाराणसी से जनसत्ता के लिए समाचार भेजा करते थे। 1956  से उन्होंने पूरी तरह अपने आपको पत्रकारीय कर्म में समर्पित कर दिया। उसके बाद मध्यप्रदेश ,पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली की पत्रकारिता में उन्होंने अपने उजले पदचिन्ह छोड़े। युगधर्म के एक नगर प्रतिनिधि से काम प्रारंभ कर वे उसके विशेष संवाददाता और फिर संपादक बने। 6 साल युगधर्म(जबलपुर) के संपादक रहने के बाद में वे दैनिक ट्रिब्यून, चंडीगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण अखबार के संपादक भी रहे। इतने बड़े अखबार के संपादक पद पर रहते हुए ही उन्होंने उसे छोड़कर मीडिया शिक्षा के लिए खुद को समर्पित कर दिया और 1990 में भोपाल में स्थापित हुए माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पहले महानिदेशक (अब पदनाम कुलपति है)बने। इसके बाद वे हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक भी बने। अपनी पूरी जीवन यात्रा में उन्होंने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया। पत्रकारीय जीवन में उन्होंने विविध क्षेत्रों के लोगों से लंबे इंटरव्यू किए। मुलाकातें कीं। किंतु उन्हें दादा माखनलाल चतुर्वेदी के साथ उनकी भेंटवार्ता सबसे प्रेरक लगती थी। वे उसे बार-बार याद करते थे। इस भेंट में माखनलाल जी ने उनसे कहा था – “पत्रकार की कलम न अटकनी चाहिए, न भटकनी चाहिए, न रुकनी चाहिए, न झुकनी चाहिए।”  राधेश्याम जी ने इसे अपना जीवन मंत्र बना लिया। 28 दिसंबर,2019 को उनका पंचकूला में निधन हो गया।

अभिव्यक्ति के खतरे उठाते रहे हुसैन


मुजफ्फर हुसैन

 श्री मुजफ्फर हुसैन एक ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने बिना बड़े अखबारों के संपादक जैसी कुर्सियों के भी, सिर्फ कलम के दम पर अपनी बात कही और देश ने उन्हें बहुत ध्यान से सुना। 20 मार्च,1940 को नीमच में जन्में पद्मश्री से अलंकृत श्री मुजफ्फर हुसैन जैसा मसिजीवी होना कठिन था। सत्ता के शिखर पुरुषों से निकटता के बाद भी उनसे एक मर्यादित दूरी रखते हुए, उन्होंने सिर्फ कलम के दम पर अपनी जिंदगी चलाई। नौकरी बहुत कम की। बहुत कम समय देवगिरि समाचार, औरंगाबाद के संपादक रहे। एक स्वतंत्र लेखक, पत्रकार और वक्ता की तरह वे जिए और अपनी शर्तों पर जिंदगी काटी। वे चाहते तो क्या हो सकते थे, क्या पा सकते थे यह कहने की आवश्यक्ता नहीं है। लेकिन उन्हें पता था कि वे एक लेखक हैं, पत्रकार हैं और उनकी अपनी सीमाएं हैं। भारतीय मुस्लिम समाज को भारतीय नजर से देखने और व्याख्यायित करने वाले वे विरले पत्रकारों में थे। अरब देशों और वैश्विक मुस्लिम दुनिया को भारतीय नजरों से देखकर अपने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समाचार पत्रों में विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले वे ही थे। वे भारतीय मुस्लिमों को राष्ट्रीय प्रवाह में शामिल करने के स्वप्न देखते थे। वे मुस्लिम समाज में भारतीयता का भाव भरने के लिए अभिव्यक्ति के खतरे भी उठाते रहे। उन पर हुए हमले, विरोधों ने उन्हें अपने विचारों के प्रति अडिग बनाया। वे वही कहते,लिखते और बोलते थे जो उनके अपने मुस्लिम समाज और राष्ट्र के हित में था। उनके द्वारा लिखित ‘इस्लाम और शाकाहार’, ‘मुस्लिम मानस शास्र’, ‘दंगों में झुलसी मुंबई’, ‘अल्पसंख्याक वाद – एक धोखा’, ‘इस्लाम धर्म में परिवार नियोजन’, ‘लादेन, दहशतवाद और अफगानिस्तान’, ‘समान नागरी कायदा’ आदि पुस्तकें चर्चा में रहीं। 13 फरवरी,2018 को मुंबई में उनका निधन हो गया।

संघ पर लगे तीनों प्रतिबंधों में जेल गए वाजपेयी


भगवतीधर वाजपेयी

राष्ट्रीय भावना से अनुप्राणित होकर पत्रकारिता में आए श्री भगवतीधर वाजपेयी ने मध्यप्रदेश और विदर्भ की पत्रकारिता में महत्वपूर्ण स्थान बनाया। उच्चशिक्षा प्राप्त करने के बाद वे लखनऊ में ' स्वदेश' से पत्रकारिता का पहला पाठ सीखते हैं, जिसमें उन्हें पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख जैसी महान विभूतियों के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। आर्थिक संकटों से अखबार बंद होने के बाद वे अटल जी के साथ दिल्ली आकर 'दैनिक वीर अर्जुन' में काम करने लगे।  बाद के दिनों में अटल जी तो पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ हो गए और भगवतीधर जी ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता को अपने जीवन का मिशन बनाते हुए नागपुर से प्रकाशित 'दैनिक युगधर्म' के संपादकीय दायित्व को संभाला। युगधर्म (नागपुर-जबलपुर-रायपुर) के संपादक के रूप में उनकी पत्रकारिता ने राष्ट्रीय चेतना का विस्तार किया। 1957 में नागपुर में युगधर्म के संपादक के रूप में कार्यभार ग्रहण करने के बाद उन्होंने 1990 तक सक्रिय पत्रकारिता करते हुए युवा पत्रकारों की एक पूरी पौध तैयार की। उनकी समूची पत्रकारिता में मूल्यनिष्ठा, भारतीयता, संस्कृति के प्रति अनुराग और देशवासियों को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने की भावना दिखती है। 2006 में उन्हें मध्यप्रदेश शासन द्वारा माणिकचन्द्र वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी एक विचार के लिए लगा दी और संघर्षपूर्ण जीवन जीते हुए भी घुटने नहीं टेके। आपातकाल में न सिर्फ उनके अखबार पर ताला डाल दिया गया, वरन उन्हें जेल भी भेजा गया। संघ पर लगे तीनों प्रतिबंधों (वर्ष 1948, 1975 और 1992) में कारागृह की यात्रा करने वाले वे बिरले लोगों में से थे। श्री वाजपेयी का पिछले दिनों 7 मई,2021 को जबलपुर में निधन हो गया।

पत्रकारिता के शिक्षक डा. नंद किशोर त्रिखा


डा. नंदकिशोर त्रिखा

   नवभारत टाइम्स, लखनऊ के संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के संस्थापक अध्यक्ष, एनयूजे के माध्यम से पत्रकारों के हित की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ता, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता जैसी डा. नंदकिशोर त्रिखा की अनेक छवियां थीं। लेकिन वे हर छवि में संपूर्ण थे। पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में उनके छोटे से कार्यकाल की अनेक यादें भोपाल में बिखरी पड़ी हैं। समयबद्धता और कक्षा में अनुशासन को उनके विद्यार्थी आज भी याद करते हैं। ये विद्यार्थी मीडिया में शिखर पदों पर हैं लेकिन उन्हें उनके बेहद अनुशासनप्रिय प्राध्यापक डा. त्रिखा नहीं भूले हैं। प्रातः 8 बजे की क्लास में भी वे 7.55 पर पहुंच जाने का व्रत निभाते थे। वे  ही थे, जिन्हें अनुशासित जीवन पसंद था और वे विद्यार्थियों से भी यही उम्मीद रखते थे। वे संपादक के रूप में व्यस्त रहे, किंतु समय निकालकर विद्यार्थियों के लिए पाठ्यपुस्तकें लिखते थे। उनकी किताबें हिंदी पत्रकारिता की आधारभूत प्रारंभिक किताबों  में से एक हैं। समाचार संकलन और प्रेस विधि पर लिखी गयी उनकी किताबें बहुमूल्य हैं। डॉ. त्रिखा छह वर्ष भारतीय प्रेस परिषद् के भी सदस्य और नैशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स (इंडिया) के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे । उन्होंने 1963 से देश के अग्रणी राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता, वरिष्ठ सहायक-संपादक, राजनयिक प्रतिनिधि और स्थानीय संपादक के वरिष्ठ पदों पर कार्य किया । उससे पूर्व वे संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार के काठमांडू (नेपाल), उड़ीसा और दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख और संपादक का दायित्व भी निभाया। 15 जनवरी,2018 को उनका दिल्ली में निधन हो गया।

आखिरी सांस तक लिखते रहे जयकृष्ण गौड़


जयकृष्ण गौड़

   जीवन की आखिरी सांस तक राष्ट्रभाव की पत्रकारिता करने वालों में एक प्रमुख नाम है श्री जयकृष्ण गौड़ का। 6 अगस्त,1944 को मप्र के राजगढ़ जिले सारंगपुर में जन्में श्री गौड़ इंदौर स्वदेश के संपादक, इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष,भाजपा-मप्र के मुखपत्र चैरेवेति के प्रधान संपादक रहे। स्वदेश(इंदौर) के नगर संवाददाता से लेकर वे उसके संपादक भी बने। 1977 में आपातकाल के दौरान वे मीसाबंदी भी रहे। बाल्यकाल से ही संघ की शाखा में उन्हें जो संस्कार मिले उसे उन्होंने पूरे जीवन निभाया। उच्च शिक्षा प्राप्त कर आपको शासकीय सेवा में काम करने का मौका मिला। यहां उनका मन रमा नहीं। शासकीय सेवा छोड़ वे स्वदेश से जुड़ गए। यहां श्री माणिकचंद्र वाजपेयी मामाजी के मार्गदर्शन में उन्होंने पत्रकारिता का ककहरा सीखा और खुद को स्वदेश के लिए समर्पित कर दिया। अनेक पुस्तकों का लेखन करते हुए राष्ट्रीय भाव के साहित्य को समृद्ध किया। बाद के दिनों में श्री गौड़ महर्षि पतंजलि संस्कृत संस्थान के अध्यक्ष, मप्र संस्कृत बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे। 2010 उन्हें मप्र सरकार के माणिकचंद्र वाजपेयी सम्मान से अलंकृत किया गया। 14 अक्टूबर,2019 को भोपाल में उनका निधन हो गया।

    राष्ट्रीय भावधारा के ऐसे अनेक लेखकों, पत्रकारों ने हिंदी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में अपना यशस्वी योगदान दिया है। अपनी राष्ट्रनिष्ठा और भारतप्रेम से भरे ये पत्रकार बिना किसी यश, पद, पुरस्कार और अन्य कामनाओं से लगातार लिखते रहे हैं, जूझते रहे हैं। उनकी सृजनयात्रा और उसके लिए उनका संघर्ष आज भी रोमांचित करता है। ऐसे तमाम अनाम योद्धाओं के बारे में ही कवि श्री रामकृष्ण श्रीवास्तव ने बहुत सार्थक पंक्तियां लिखीं हैं-

जो कलम सरीखे टूट गए पर झुके नहीं

यह दुनिया उनके आगे शीश झुकाती है।

जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी

वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है।

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मंगलवार, 18 मई 2021

कोरोना कालः मानसिक स्वास्थ्य का रखें खास ख्याल

   वक्त का काम है बदलना, यह भी बदल जाएगा

-       प्रो. संजय द्विवेदी

कोविड-19 के इस दौर ने हर किसी को किसी न किसी रूप में गंभीर रूप से प्रभावित किया है । किसी ने अपना हमसफर खोया है तो किसी ने अपने घर-परिवार के सदस्य,दोस्त या रिश्तेदार को खोया ह । इन अपूरणीय क्षति का किसी न किसी रूप में दिलोदिमाग पर असर पड़ना स्वाभविक है, लेकिन मनोचिकित्सकों का कहना है कि ऐसी स्थिति का लम्बे समय तक बने रहना आपको मानसिक तौर पर बीमार बना सकता है । इसलिए जितनी जल्दी हो सके उस दौर से उबरकर आगे के रास्ते को सुगम व सरल बनाने के बारे में विचार करें । इसके लिए परिजनों के साथ-साथ मनोचिकित्सक या काउंसलर की भी मदद ली जा सकती है। जो सदमे से उबारने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं ।

            किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मनोचिकित्सा विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. आदर्श त्रिपाठी  का कहना है कि जिस तरीके से शरीर के हर अंग का इलाज संभव है, उसी तरह से मानसिक स्वास्थ्य का भी इलाज मौजूद है । बहुत सारी समस्याएँ काउंसलर से बात करके और उनके द्वारा सुझाये गए उपाय अपनाकर ही दूर हो जाती हैं तो कुछ दवाओं के सेवन से दूर हो जाती हैं । इसलिए सरकार का भी पूरा जोर है कि जो लोग कोरोना को मात दे चुके हैं लेकिन दिलोदिमाग से उसे भुला नहीं पाए हैं, उनको मानसिक तौर पर संबल देने के साथ ही उन लोगों की भी काउंसिलिंग व इलाज पर ध्यान दिया जाए जो अपने किसी करीबी को खोने के गम से उबरने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं ।

करीबियों से करते रहिए बातः मानसिक तनाव की स्थिति में भी कोई गलत कदम न उठाएं, जिसको अपने सबसे करीब समझते हैं उससे बात कीजिये, यकीन मानिये बात-बात में कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा । ऐसे में अगर परिवार के साथ हैं तो आपस में बातचीत करते रहें। एक-दूसरे की बात को ध्यान से सुनें। बेवजह टोकाटाकी से बचें । यदि अकेले रह रहे हैं तो कोई फिल्म या सीरियल देखें और किताबें पढ़ें। ध्यान, योग और प्राणायाम का भी सहारा ले सकते हैं। अपने करीबी से वीडियो कॉल या फोन करके भी बातचीत कर सकते हैं, इससे भी मन हल्का होगा और हर समय दिमाग में आ रहे नकारात्मक विचार दूर होंगे । यह मानकर चलें कि यह वक्त किसी के लिए भी बुरा हो सकता है, किन्तु ऐसी स्थिति हमेशा तो नहीं बनी रहने वाली। यह वक्त भी गुजर जाएगा । जो वक्त गुजर गया, उसमें से ही कुछ सकारात्मक सोचें । अपने अन्दर साहस लायें ।

दिनचर्या में शारीरिक गतिविधि को शामिल करें: शुरू में भले ही मन न करे फिर भी हर दिन की कुछ ऐसी कार्ययोजना बनाएं जो सार्थकता और उत्पादकता से भरपूर हो । कुछ दिन तक ऐसा करने से निश्चित रूप से उसमें मन लगने लगेगा और कोरोना काल के उस बुरे दौर की छाप भी दिलोदिमाग से हटने लगेगी । दिनचर्या में 45 मिनट का समय शारीरिक गतिविधियों के लिए जरूर तय करें, क्योंकि शारीरिक गतिविधियाँ किसी भी तनाव के प्रभाव को कम करने में प्रभावी साबित होती हैं । नकारात्मक समाचारों से दूरी बनाने में ही ऐसे दौर में भलाई है। खासकर सोशल मीडिया पर आने वाली गैर प्रामाणिक ख़बरों से । तनाव या अवसाद से उबरने के लिए नशीले पदार्थों का सहारा भूलकर भी न लें। क्योंकि ऐसा करना गहरी खाई में धकेलने के समान साबित होगा ।

दूसरों की भलाई सोचें, मिलेगी बड़ी राहत  : तनाव व अवसाद से मुक्ति पाने का सबसे उपयोगी तरीका यही है कि दूसरों के लिए कुछ अच्छा सोचें और उनकी भलाई के लिए कदम बढायें। भले ही वह बहुत ही छोटी सी मदद क्यों न हो । यह भलाई किसी भी रूप में हो सकती है, जैसे- भावनात्मक रूप से या आर्थिक रूप से या किसी अन्य मदद के रूप में । जब आप दूसरों की भलाई या अच्छाई के बारे में सोचते हैं या मदद पहुंचाते हैं तो वह निश्चित रूप से आपको एक आंतरिक शांति और सुकून प्रदान करती है ।

जांच में न करें देरीः कोरोना के लक्षण आने के बाद भी उसे सामान्य सर्दी, खांसी व जुकाम-बुखार मानकर नजरंदाज करने की भूल हुई हो तो न घबराए। जांच में देरी करने की चूक हुई हो, रिपोर्ट के इन्तजार में जरूरी दवाएं न शुरू करने के चलते स्थिति गंभीर बनने से अपनों को खोने जैसे सवाल बार-बार दिमाग में कौंधते ही हैं। संयम बनाए रखें। घबराने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है । हाँ ! इतना जरूर हो सकता है कि दूसरे लोग वह भूल या चूक न करें उनके लिए आप बहुत बड़े मददगार जरूर साबित हो सकते हैं । उनको बताएं कि जैसे ही कोरोना से मिलते-जुलते लक्षण नजर आएं तो अपने को आइसोलेट करने के साथ ही जांच कराएँ। स्वास्थ्य विभाग द्वारा तय दवाओं का सेवन शुरू कर दें। ऐसा करने से कोरोना गंभीर रूप नहीं ले पायेगा। बहुत कुछ संभव है कि बगैर अस्पताल गए कोरोना को कम समय में घर पर रहकर ही मात दे सकते हैं ।

भरपूर नींद है जरूरी :  किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मेडिसिन विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. हरीश गुप्ता का कहना है कि नींद को भी एक तरह की थेरेपी माना जाता है । चिंता के चलते पूरी नींद न लेना अवसाद की ओर ले जाता है । मधुमेह, उच्च रक्तचाप, सिर और शरीर में दर्द , थकान, याददाश्त में कमी आना, चिड़चिड़ापन, क्रोध की अधिकता, हार्मोन का असंतुलन, मोटापा, मानसिक तनाव जैसी समस्याएं अनिद्रा के कारण जन्म लेती हैं ।कई बार चिकित्सक पर्याप्त नींद की सलाह देकर रोगों से छुटकारा दिलाने का काम करते हैं । हर व्यक्ति को 7-8 घंटे की नींद अवश्य लेनी चाहिए । टीवी, लैपटॉप व मोबाइल पर ज्यादा समय न देकर सेहत के लिए अनमोल नींद को जरूर पूरी करें जो कि ताजगी और फुर्ती देने का काम करेगी ।  

योग एवं ध्यान करें : योग प्रशिक्षक बृजेश कुमार का कहना है कि ध्यान, योग और प्राणायाम के जरिये एकाग्रता ला सकते हैं, नकारात्मक विचारों से मुक्ति दिलाने में भी यह बहुत ही कारगर हैं । कोरोना काल में बहुत से लोगों ने इसे जीवन में अपनाया है और फायदे को भी महसूस कर रहे हैं । इम्यून सिस्टम को भी इससे बढ़ाया जा सकता है ।

संतुलित आहार लें : आयुर्वेदाचार्य डॉ. रूपल शुक्ला का कहना है कि हमारे खानपान का असर शरीर ही नहीं बल्कि मन पर भी पड़ता है, इसलिए संतुलित आहार के जरिये भी मन को प्रसन्न रख सकते हैं भारतीय थाली (दाल, चावल, रोटी, सब्जी, सलाद, दही) संतुलित आहार का सबसे अच्छा नमूना है । संतुलित भोजन हमारे शरीर के साथ ही मानसिक स्थितियों को स्वस्थ बनाता है

परेशान हैं तो संपर्क करें हेल्पलाइन पर : विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर सरकार तक को इस बात का एहसास है कि कोरोना के चलते मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं बढ़ सकती हैं । इसीलिए सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी किसी भी समस्या के समाधान के लिए टोल फ्री नंबर 1800-180-5145 पर संपर्क करने को कहा है । किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मानसिक रोग विभाग ने भी इस तरह की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए हेल्पलाइन (नं. 8887019140) शुरू की है,जिस पर काउंसिलिंग की सुविधा प्रदान करने के साथ लोगों को मुश्किल वक्त से उबारकर एक खुशहाल जिन्दगी जीने की टिप्स भी मिलती है ।अनेक राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभागों, सामाजिक संस्थाएं और चिकित्सा संस्थाएं आनलाईन लोगों की मदद कर रही हैं। जरूरत है धैर्य से इस संकट से निपटने की। भरोसा कीजिए हमारे संकट कम होंगें और जिंदगी मुस्कुराएगी।          

रविवार, 16 मई 2021

जल,जंगल और जमीन के सवालों से जूझते रहे अनिल दवे

                                                          पुण्यतिथि(18 मई) पर विशेष

पर्यावरण के मुद्दे को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बनाने वाला नायक

-प्रो.संजय द्विवेदी

    उन्हें याद करना एक ऐसे व्यक्ति को याद करना है, जिसके लिए राजनीति का मतलब इस पृथ्वी और मानवता के सामने उपस्थित संकटों के समाधान खोजना था। उनका सुदर्शन,सजीला और नफासत से भरा व्यक्तित्व, मनुष्य जीवन के सामने उपस्थित चुनौतियों व्यथित रहता था। अपने संवादों में वे इन चिंताओं को निरंतर व्यक्त भी करते थे। विचारों में आधुनिक, किंतु भारतीयता की जड़ों से गहरे जुड़े अनिल दवे संघ परिवार के उन कार्यकर्ताओं में थे, जिनमें गहरा भारतप्रेम और भारतबोध था। पर्यावरण,जल,जीवन और जंगल के सवाल भी किसी राजनेता की जिंदगी की वजह हो सकते हैं, तो ऐसे ही राजनेता थे श्री अनिल माधव दवे। 18 मई,2017 को वे हमें छोड़कर चले गए इसके बाद भी उनकी दिखाई राह आज भी उतनी ही पाक, मुकम्मल और प्रासंगिक है। आज जब कोरोना के संकट से समूचा दुनिया सवालों घिरी है, तब अनिल माधव दवे की याद अधिक स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। वे जिस तरह बुनियादी सवालों पर संवाद कर रहे थे वह दुर्लभ है। जिंदगी को प्रकृति से जोड़ने और उसके साथ सहजीवन कायम करने की उनकी भावना अप्रतिम थी। अपनी मृत्यु के समय वे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री थे। उन्हें संसद में बहुत गंभीरता से सुना जाता था।

      श्री अनिल माधव दवेदेश के उन चुनिंदा राजनेताओं में थेजिनमें एक बौद्धिक गुरूत्वाकर्षण मौजूद था।उन्हें देखनेसुनने और सुनते रहने का मन होता था। पानीपर्यावरण,नदी और राष्ट्र के भविष्य से जुड़े सवालों पर उनमें गहरी अंर्तदृष्टि मौजूद थी। उनके साथ नदी महोत्सवों ,विश्व हिंदी सम्मेलन-भोपालअंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ-उज्जैन सहित कई आयोजनों में काम करने का मौका मिला। उनकी विलक्षणता के आसपास होना कठिन था। वे एक ऐसे कठिन समय में हमें छोड़कर चले गएजब देश को उनकी जरूरत सबसे ज्यादा थी। आज जबकि राजनीति में बौने कद के लोगों की बन आई तब वे एक आदमकद राजनेता-सामाजिक कार्यकर्ता के नाते हमारे बीच उन सवालों पर अलख जगा रहे थेजो राजनीति के लिए वोट बैंक नहीं बनाते। वे ही ऐसे थे जो जिंदगी केप्रकृति के सवालों को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बना सकते थे।

    अपनी वसीयत में ही उन्होंने यह साफ कर दिया था कि उनकी प्रतिबद्धता क्या है। उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था कि मेरा अंतिम संस्कार नर्मदा नदी के तट पर बांद्राभान में किया जाए तथा उनकी स्मृति में कोई स्मारकप्रतियोगितापुरस्कारप्रतिमा स्थापना इत्यादि ना हो। मेरी स्मृति में यदि कोई कुछ करना चाहते हैं तो वृक्ष लगाएं और उन्हें संरक्षित करके बड़ा करेंगे तो मुझे बड़ा आनंद होगा। वैसे ही नदियों एवं जलाशयों के संरक्षण में भी अधिकतम प्रयत्न किए जा सकते हैं। दवे जी का जीवन और उनकी वसीयत एक ऐसा पाठ है जो बहुत कुछ सिखाती है।

     भोपाल में जिन दिनों हम पढ़ाई करने आए तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थेविचार को लेकर स्पष्टतादृढ़ता और गहराई के बावजूद उनमें जड़ता नहीं थी। वे उदारमनाबौद्धिक संवाद में रूचि रखने वालेनए ढंग से सोचने वाले और जीवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से जीने वाले व्यक्ति थे। उनके आसपास एक ऐसा आभामंडल स्वतः बन जाता था कि उनसे सीखने की ललक होती थी। नए विषयों को पढ़नासीखना और उन्हें अपने विचार परिवार (संघ परिवार) के विमर्श का हिस्सा बनानाउन्हें महत्वपूर्ण बनाता था। वे परंपरा के पथ पर भी आधुनिक ढंग से सोचते थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अविवाहित रहकर समाज को समर्पित कर दिया। वे सच्चे अर्थों में भारत की ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी थे। संघ की शाखा लगाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक वे हर काम में सिद्धहस्त थे। 6 जुलाई,1956 को मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्में श्री दवे की मां का नाम पुष्पादेवी और पिता का नाम माधव दवे था।

    उनकी सादगी में भी एक सौंदर्यबोध परिलक्षित होता था। बांद्राभान (होशंगाबाद) में जब वे अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव का आयोजन करते थेतो कई बार अपने विद्यार्थियों के साथ वहां जाना होता था। इतने भव्य कार्यक्रम की एक-एक चीज पर उनकी नजर होती थी। यही विलक्षता तब दिखाई दीजब वे भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इसे स्थापित करते दिखे। आयोजनों की भव्यता के साथ सादगी और एक अलग वातावरण रचना उनसे सीखा जा सकता था। सही मायने में उनके आसपास की सादगी में भी एक गहरा सौंदर्यबोध छिपा होता था। वे एक साथ कितनी चीजों को साधते हैंयह उनके पास होकर ही जाना जा सकता था। हम भाग्यशाली थे कि हमें उनके साथ एक नहीं अनेक आयोजनों में उनकी संगठनपुरूष की छविसौंदर्यबोध,भाषणकला,प्रेरित करनी वाली जिजीविषा के दर्शन हुए। विचार के प्रति अविचल आस्थागहरी वैचारिकतासांस्कृतिक बोध के साथ वे विविध अनुभवों को करके देखने वालों में थे। शौकिया पर्यटन ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था। वे मुद्दों पर जिस अधिकार से अपनी बात रखते थेवह बताती थी कि वे किस तरह विषय के साथ गहरे जुड़े हुए हैं। उनका कृतित्व और जीवन पर्यावरणनदी संरक्षणस्वदेशी के युगानुकूल प्रयोगों को समर्पित था। वे स्वदेशी और पर्यावरण की बात कहते नहींकरके दिखाते थे। उनके मेगा इवेंट्स में तांबे के लोटे ,मिट्टी के घड़ेकुल्हड़ से लेकर भोजन के लिए पत्तलें इस्तेमाल होती थीं। आयोजनों में आवास के लिए उनके द्वारा बनाई गयी कुटिया में देश के दिग्गज भी आकर रहते थे। हर आयोजन में नवाचार करके उन्होंने सबको सिखाया कि कैसे परंपरा के साथ आधुनिकता को साधा जा सकता है। राजनीति में होकर भी वे इतने मोर्चों पर सक्रिय थे कि ताज्जुब होता था।

    वे एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ चुनाव रणनीति में नई प्रविधियों के साथ उतरने के जानकार थे। भाजपा में जो कुछ कुशल चुनाव संचालक हैंरणनीतिकार हैंवे उनमें एक थे। किसी राजनेता की छवि को किस तरह जनता के बीच स्थापित करते हुए अनूकूल परिणाम लानायह मध्यप्रदेश के कई चुनावों में वे करते रहे। दिग्विजय सिंह के दस वर्ष के शासनकाल के बाद उमाश्री भारती के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव और उसमें अनिल माधव दवे की भूमिका को याद करें तो उनकी कुशलता एक मानक की तरह सामने आएगी। वे ही ऐसे थे जो मध्यप्रदेश में उमाश्री भारती से लेकर शिवराज सिंह चौहान सबको साध सकते थे। सबको साथ लेकर चलना और साधारण कार्यकर्ता से भीबड़े से बड़े काम करवा लेने की उनकी क्षमता मध्य प्रदेश ने बार-बार देखी और परखी थी।

     उनके लेखन में गहरी प्रामाणिकताशोध और प्रस्तुति का सौंदर्य दिखता है। लिखने को कुछ भी लिखना उनके स्वभाव में नहीं था। वे शिवाजी एंड सुराजक्रिएशन टू क्रिमेशनरैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशनए ट्रैवलॉगशताब्‍दी के पांच काले पन्‍नेसंभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों सेमहानायक चंद्रशेखर आजादरोटी और कमल की कहानीसमग्र ग्राम विकासअमरकंटक से अमरकंटक तकबेयांड कोपेनहेगनयस आई कैनसो कैन वी जैसी पुस्तकों के माध्यम से अपनी बौद्धिक क्षमताओं से लोगों को परिचित कराते हैं। अनछुए और उपेक्षित विषयों पर गहन चिंतन कर वे उसे लोकविमर्श का हिस्सा बना देते थे। आज मध्यप्रदेश में नदी संरक्षण को लेकर जो चिंता सरकार के स्तर पर दिखती है , उसके बीज कहीं न कहीं दवे जी ने ही डाले हैंइसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए। वे नदीपर्यावरणजलवायु परिर्वतन,ग्राम विकास जैसे सवालों पर सोचने वाले राजनेता थे। नर्मदा समग्र संगठन के माध्यम से उनके काम हम सबके सामने हैं। नर्मदा समग्र का जो कार्यालय उन्होंने बनाया उसका नाम भी उन्होंने ‘नदी का घर’ रखा। वे अपने पूरे जीवन में हमें नदियों सेप्रकृति सेपहाड़ों से संवाद का तरीका सिखाते रहे। प्रकृति से संवाद दरअसल उनका एक प्रिय विषय था। दुनिया भर में होने वाली पर्यावरण से संबंधित संगोष्ठियों और सम्मेलनों मे वे भारत’ (इंडिया नहीं) के एक अनिवार्य प्रतिनिधि थे। उनकी वाणी में भारत का आत्मविश्वास और सांस्कृतिक चेतना का निरंतर प्रवाह दिखता था। एक ऐसे समय में जब बाजारवाद  हमारे सिर चढ़कर नाच रहा हैप्रकृत्ति और पर्यावरण के समक्ष रोज संकट बढ़ता जा रहा हैहमारी नदियां और जलश्रोत- मानव रचित संकटों से बदहाल हैंअनिल दवे का हमारे साथ न होना हमें बहुत अकेला कर गया है। कोरोना संकट के बहाने हमें एक बार फिर जड़ों से जुड़ने और प्रकृति के साथ संवाद का अवसर मिला है। इस अवसर को हम न चूकें, यही अनिल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।