बुधवार, 27 अप्रैल 2016

शराबबंदीः सवाल, नीयत और नैतिकता का

जिसके पक्ष में एक भी तर्क नहीं, उसे भी बंद करते हुए क्यों कांप रहे हैं हाथ
-संजय द्विवेदी


  शराबबंदी इस तरह राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बन जाएगी किसने सोचा था। भ्रष्टाचार के बाद शायद अगला राजनीतिक विमर्श, शराब पर ही होना है। बिहार के मुख्यमंत्री के इस साहसिक निर्णय ने कई नेताओं को सोचने के लिए बाध्य कर दिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि शराब के सहारे ही चुनाव जीतने वाली राजनीति अब किस मुंह से शराबबंदी की बात करेगी। शराब से मिलने वाला राजस्व जहां राज्य का एक बड़ा सहारा है, वहीं शराब माफिया से मिलने वाला चंदा राजनीति के लिए प्राणवायु। इसके साथ ही चुनावों में बहने और बंटने वाली शराब तो है ही जीवनी शक्ति। ऐसे में राजनीति अचानक शराबबंदी के सवाल पर गंभीर हो जाए, तो सोचने की बात है। सुना है तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता भी अपनी सरकार की वापसी पर शराबबंदी का वायदा कर रही हैं। जाहिर तौर पर शराब आने वाले चुनावों का एक बड़ा मुद्दा बन रही है।
   भारतीय समाज में शराब की वजह से कई तरह के संकट खड़े हो रहे हैं। खासकर गरीब परिवारों में तो शराब ने हालात बहुत खराब कर दिए हैं। अपने खून-पसीने की कमाई शराब में बहाकर तमाम परिवारों के पुरूष, महिलाओं पर अत्याचार करने से भी बाज नहीं आते हैं। यह कितना गजब है कि एक तरफ हमारी सरकारें शराब बेचने पर आमादा हैं तो वहीं दूसरी तरफ यही सरकारें शराब के विरूद्ध जन-जागरण भी करती हैं। यह सरकारों का द्वंद समझ से परे है कि एक तरफ तो आबकारी विभाग भी चलाती हैं तो दूसरी ओर मद्यनिषेध विभाग भी चलाती हैं। ऐसे ढोंग हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बिखरे पड़े हैं। इससे पता चलता है कि हम कितने ढोंगी और नकली समाज के हैं। सच तो यह है कि शराब के पक्ष में एक भी तर्क नहीं है। किंतु वह बिक रही है और सरकारें हर दरवाजे पर शराब की पहुंच के लिए जतन कर रही हैं। शराब का बिकना और मिलना इतना आसान हो गया है कि वह पानी से ज्यादा सस्ती हो गयी है। पानी लाने के लिए यह समाज आज भी कई स्थानों पर मीलों का सफर कर रहा है किंतु शराब तो घर पहुंच सेवा के रूप में ही स्थापित हो चुकी है।
  सवाल यह उठता है कि क्या शराब के बिना हमारा जीवन नहीं चलेगा? या शराब के बिना हमारी सरकार नहीं चलेगी। आप देखें तो शराब के राजस्व के बिना भी गुजरात चल रहा है और शान से चल रहा है। बिहार जैसे पिछड़े राज्य ने भी यह हिम्मत जुटा ली है, तो क्या कारण है कि अन्य राज्य इस बात से हिचक रहे हैं? जाहिर तौर पर शराब माफिया की जकड़ और पकड़ हमारे तंत्र पर ऐसी है कि हम शराब मुक्त राजनीति की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। सरकारें शराब बेचने और उसका बाजार बढ़ाने के लिए आतुर हैं। देखते ही देखते शराब की दुकानें हर कस्बे, हर गांव तक पहुंच गयीं तो इसके पीछे सरकारी नीतियों की ओर ही देखना होगा। क्यों हमारी सरकारें शराब को इतना सुलभ बना देना चाहती हैं? पूर्ण शराबबंदी न सही किंतु उसकी उपलब्धता तो नीतियों को कठोर बनाकर कम की जा सकती है। बढ़ते अपराधों, बिखरते परिवारों, स्त्रियों के बढ़ते उत्पीड़न, परिवारों की बिगड़ती आर्थिक दशा की सामूहिक और चौतरफा शिकायतों के बाद भी शराब का मोह हमारे राजनीतिक परिसर को जकड़े हुए है। निश्चय ही ऐसे फैसले बड़े कलेजे और राजनीतिक संकल्पों से ही लिए जा सकते हैं। नीतिश कुमार ने जो किया वह साधारण नहीं है। लेकिन साथ में उनकी जिम्मेदारी यह भी है कि यह एक मजाक बनकर न रह जाए। नकली शराब का कुटीर उद्योग न पनपे और शराब की तस्करी का खेल न शुरू हो। ऐसे में बिहार के पुलिस तंत्र और प्रशासनिक तंत्र की नैतिकता और समझदारी कसौटी पर है।
   शराब के चलते कितने परिवार उजड़े हैं और मुसीबतजदा हैं, इसे देखने के लिए सरकार के पास तमाम सरकारी और गैरसरकारी आंकड़े उपलब्ध हैं। राज्य की सरकारों को इस ओर देखना चाहिए और खासकर गरीब महिलाओं और उनके परिवारों पर रहम खाना चाहिए। शराब के दुष्प्रभावों के व्यापक आकलन के बाद भी हम अगर इस बीमारी को पाल रहे हैं तो निश्चित ही समाज की ओर से इसके विरूद्ध एक जनांदोलन की जरूरत है। बिहार की महिलाएं इस अर्थ में बहुत ताकतवर है कि उन्होंने अपने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को ऐसा करने के लिए शक्ति दी। यह शक्ति अगर विस्तार पाती है और एक आंदोलन का रूप लेती है तो शराबबंदी का सवाल एक अभियान में बदल सकता है। जो काम गुजरात और बिहार में हो सकता है जिसके लिए तमिलनाडु की राजनीति में वादा किया जा रहा है, वह काम देश के अन्य राज्यों में भी हो सकता है। बस जरूरत है कि हम राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर दबाव  बनाएं और उन्हें इस बात के लिए मजबूर करें कि वे शराब और उसके काले पैसे का मोह छोड़ पाएं। शराब की कमाई से चलते हुए राज्य वैसे भी लोककल्याणकारी राज्य नहीं हो सकते क्योंकि शराबजनित जो सामाजिक संकट और समस्याएं वह राज्य के सकल राजस्व पर भारी हैं। राजनीतिक दलों को भी शराब के सवाल पर अपनी नीति स्पष्ट करनी चाहिए। क्या वे यह चाहते हैं कि शराब की दुकानों का, ठेकों का इस कदर विस्तार हो कि वह हर व्यक्ति की पहुंच में हो? एक तरफ शराब की अंधाधुंध दूकानें खोलना और दूसरी तरफ शराब पर नियंत्रण करने और मद्य-निषेध जैसे अभियानों को चलाकर सरकार अपने धन का अपव्यय नहीं कर रही है? शराब से मिलने वाले राजस्व के क्या अन्य विकल्प नहीं खोजे जा सकते? क्या शराब माफिया के बिना चुनाव लड़ना बहुत कठिन हो जाएगा? क्या हमारी राजनीति यह संकल्प लेने का साहस पालेगी वह बिना शराब बांटे भी चुनावी मैदान में सफलता प्राप्त कर सकती है? क्या शराब के राजस्व की लालच में शराब जनित संकटों के कारण पैदा हो रहे रोगों, बीमारियों, पारिवारिक संकटों को हम नजरंदाज करते रहेगें? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिसका जवाब हमारे राजनेताओं, राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों से पूछे जाने चाहिए। हमारी राजनीति से यह भी पूछा जाना चाहिए कि शराब के पैसे से लड़े जा रहे चुनाव कितने लोकतांत्रिक हैं?  जबकि यह गारंटी भी नहीं रही कि शराब पीकर मतदाता आपके ही पक्ष में मतदान करेगा?

    ऐसे कठिन समय में समाज को नजरंदाज कर की जा रही राजनीति उचित नहीं कही जा सकती। देर-सबेर हमें अपने समाज के संकटों से मुठभेड़ करनी ही होगी। भारत जैसे युवा देश की नई पीढ़ी को नशे, ड्रग्स और शराब से मुक्त कराना हम सबकी जिम्मेदारी है। शराब के खिलाफ नहीं, हर नशे के खिलाफ जनचेतना ही इसका विकल्प है। एक सुंदर समाज जिसकी सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियां धीरे-धीरे बेहतर हो रही हैं, उसे नशे के अभिशाप से बचाना ही होगा। नीतिश कुमार ने हिम्मत दिखाई है, अन्य भी हिम्मत दिखाएं- ज्यादातर समाज इन सुखद संकल्पों के साथ खड़ा होगा, खड़ा रहेगा।

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

ग्रामोदय से भारत उदयः कितना संकल्प, कितनी राजनीति

-संजय द्विवेदी

  क्या नरेंद्र मोदी ने भारत के विकास महामार्ग को पहचान लिया है या वे उन्हीं राजनीतिक नारों में उलझ रहे हैं, जिनमें भारत की राजनीति अरसे से उलझी हुयी है। गांव, गरीब, किसान इस देश के राजनीतिक विमर्श का मुख्य एजेंडा रहे हैं। इन समूहों को राहत देने के प्रयासों से सात दशकों का राजनीतिक इतिहास भरा पड़ा है। कर्ज माफी से लेकर अनेक उपाय किए गए, किंतु हालात यह हैं कि किसानों की आत्महत्याएं एक कड़वे सच की तरह सामने हैं। नीतियों की असफलता और बीमारी की पहचान करने में हमारी विफलता, यहां साफ दिखती है। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार का नया अभियान ग्रामोदय से भारत उदय किन अर्थों में अलग है और उसकी संभावनाएं कितनी उजली हैं, इस पर विचार होना ही चाहिए।
   एक तो शब्द चयन में सरकार का साहस साफ झलकता है। आपको याद होगा वह भारत उदय शब्द ही था, जिसको भारतीय समाज ने स्वीकार नहीं किया और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार केंद्र से विदा हो गयी। इस अर्थ में मोदी भारत उदय का पुर्नपाठ कर रहे हैं और उसे ग्रामोदय की नई पैकेजिंग के साथ पेश कर रहे हैं। यह साहसिक ही है और अपने अतीत से निरंतरता बनाने की कोशिश भी है। इस नवीन अभियान की पैकेजिंग. टाइमिंग और प्रस्तुति सब कुछ प्रथम दृष्टया बहुत मनोहारी है। यह साधारण नहीं है कि 14 अप्रैल को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती से इसकी शुरूआत होती है और इसे एक सप्ताह चलना है। इसके लिए प्रधानमंत्री  उनकी जन्मभूमि महू जाते हैं, यह संयोग ही है कि मप्र में भाजपा की सरकार है और यहां का आयोजन एक बड़े आयोजन में बदल जाता है। आयोजन का संदेश इतना गहरा की मायावती से लेकर मोदी के सभी राजनीतिक विरोधियों का ध्यान इस आयोजन ने खींचा। बाबा साहेब के राजनीतिक उत्तराधिकार की एक जंग भी यहां दिखी, जहां कांग्रेस पर काफी हमले भी हुए। बाबा साहेब की स्मृति से जुड़े पांच स्थलों को पंच तीर्थ की संज्ञा देकर मोदी ने कांग्रेस को बैकफुट पर ला दिया। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का इस आयोजन में पूरा भाषण भी कांग्रेस द्वारा बाबा साहेब से जुड़े स्थानों की उपेक्षा पर केंद्रित था। इस आयोजन का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व ही नहीं है बल्कि इसके गहरे राजनीतिक अर्थ भी हैं।
   इस अभियान के तहत सरकार ने गांवों के लिए पिटारा खोलने जैसे छवि प्रक्षेपित की है। केंद्रीय बजट में भी लगभग यही ध्वनि देने की कोशिश हो चुकी है। 14 अप्रैल को महू में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में सामाजिक समरसता कार्यक्रम हो या पांचवीं अनूसूची के क्षेत्रों की आदिवासी महिला ग्राम पंचायत सरपंचों का राष्ट्रीय सम्मेलन(19 अप्रैल,2016 –विजयवाड़ा) हो या पंचायत प्रतिनिधियों का सम्मेलन (24 अप्रैल,2016 जमशेदपुर) हो- ये आयोजन और इनकी रचना साफ बताती है कि मामला सिर्फ ग्रामोदय का नहीं उससे बड़ा है। इसमें समरसता, सामाजिक न्याय, दलित और आदिवासी समुदायों की भागीदारी महत्व की है। सरकार की एजेंडा साफ दिखता है कि उसने ग्रामीण भारत और उपेक्षित भारत को अपने लक्ष्य में लिया है। इसीलिए देश की 2.5 लाख ग्राम पंचायतों को 14 वें वित्त आयोग की अनुशंसा के अनुसार 2,00,292 करोड़ रूपए, 5 वर्षों के लिए अनुदान के रूप दिए गए हैं। ग्राम पंचायतें इस राशि के साथ-साथ अन्य राशि जैसे मनरेगा का अनुदान मिलाकर ग्राम पंचायत विकास योजना बनाएंगीं जिसमें गांव के सभी व्यक्ति जैसे महिलाएं , वृद्ध और दिव्यांग भाग लेगें। सरकार के तीन मंत्रालयों पंचायती राज मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय और पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के प्रयासों से ये काम जमीन पर उतरने हैं। इसी क्रम में पंचायत स्तर के कार्यक्रम भी तय हो चुके हैं जिनमें सामाजिक समरसता कार्यक्रम 14 से 16 अप्रैल, ग्राम किसान सभा 17 से 20 अप्रैल तथा प्रधानमंत्री का सभी ग्राम सभाओं को संबोधन 24 अप्रैल को होना है। यह रचना बताती है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने इस अभियान को एक आंदोलन की तरह लिया है।

  इस अभियान के प्रशासनिक संकल्प और इसके ईमानदार क्रियान्वयन पर ही इसकी सफलता टिकी है। वरना तमाम अभियानों की तरह इसका भी कुछ परिणाम नहीं आएगा। प्रधानमंत्री मोदी इस पूरे आयोजन में स्वयं जिस तरह रूचि का प्रदर्शन कर रहे हैं और सरकारी तंत्र को इसके प्रचार-प्रसार में झोंक रखा है उससे इस सरकार की प्राथमिकताओं का पता चलता है। नरेंद्र मोदी बहुत साफ जानते हैं एक खास परिस्थितियों में उनकी पार्टी को बहुमत मिला है और उनसे अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं। इस समर्थन को स्थायी बनाने का तंत्र वे अभी भी विकसित नहीं कर सके हैं। राज्यों की स्थानीय राजनीतिक जरूरतों का तोड़ अभी भी उनकी पार्टी के पास नहीं है। साथ ही भाजपा के सीमित भौगोलिक और सामाजिक आधार को बढ़ाने की चुनौती सामने है। केंद्रीय सत्ता में होने के बाद भी आज भी एक बड़े भारत में भाजपा अनुपस्थित है। इसलिए सामाजिक न्याय और ग्रामीण-कृषि विकास के दोनों मंत्रों को साथ-साथ साधा जा रहा है। आज भी भारतीय राजनीतिक में कांग्रेस की सिकुड़न के बावजूद क्षेत्रीय दलों की चुनौती प्रखर है। भाजपा दक्षिण और पूर्वोत्तर में अपनी प्रभावी उपस्थिति के लिए बेचैन है तो लोकसभा चुनावों में बड़ी सफलताओं के बाद भी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपने बेहतर प्रदर्शन के प्रति आश्वस्त नहीं है। जाहिर तौर पर लोकसभा चुनावों में मिले परिणामों ने जहां भाजपा के मनोबल को बहुत बढ़ा दिया था, वहीं दिल्ली और बिहार के परिणामों ने बता दिया कि भाजपा को जमीनी राजनीति में अभी बहुत कुछ करना शेष है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इस अभियान में जुटे हैं। असम, बंगाल जैसे कठिन परीक्षाएं भाजपा के सामने हैं। यह बातें बताती हैं कि भाजपा ने आरंभ में जिस चमक-दमक के साथ अपनी केंद्र सरकार की शुरूआत की आज उसके तेवर बदल गए हैं। मोदी खुद कहने लगे हैं कि कुछ शहरों की चमक-दमक और विकास से कुछ नहीं होगा। हमें अपने गांवों का विकास करना होगा। भूमि अधिग्रहण बिल से अपनी छवि को लगे झटके से उबरने में भाजपा को समय लगा किंतु नए केंद्रीय बजट में ग्रामीण क्षेत्रों को एक नया संदेश देने में वह सफल रही है। इस नए रूप में मोदी सरकार अब सामाजिक समरसता, ग्रामीण-कृषि विकास, हर गांव तक बिजली, हर व्यक्ति को 2022 तक मकान जैसे नारों के साथ मैदान में उतरी है। इससे भाजपा अपनी शहरी विकास और कारपोरेट समर्थक छवि को बदलना चाहती है। इस बहाने वह अपने सामाजिक और भौगोलिक आधार को विस्तृत भी करना चाहती है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को कारपोरेट समर्थक बताने और रेखांकित करने के प्रयास भी जारी हैं किंतु मोदी की भाषण कला के सामने उनके विरोधी फीके पड़ जाते हैं। कृषि और ग्रामीण विकास के सवालों पर वे जिस तरह संवाद कर रहे हैं, वह अप्रतिम है। इससे जमीनी जीवन के उनके अनुभव भी झांकते हैं और विकास के सपने भी। नरेंद्र मोदी की सरकार ने यह अभियान जिन भी कारणों से प्रारंभ किया हो, इसके शुभ फल देश को मिले तो किसानों की आत्महत्या के कलंक से इस राष्ट्र को मुक्ति मिलेगी। जिस देश में अन्नदाता आत्महत्या करने को विवश हो, उस क्षण में हमारी सरकार अगर खेती और ग्रामीण विकास को अपना मुख्य एजेंडा बनाकर कुछ सपने पाल रही है तो हमें उसके सपनों को सच करने के लिए योगदान देना ही चाहिए। सरकार और उसके तंत्र को भी चाहिए कि वह अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ इन योजनाओं का क्रियान्वयन करे तथा इसे भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ने दे। ताकि हम अपने ग्रामीण भारत से भी अच्छी खबरों का इंतजार कर सकें।

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

कुछ बातें ‘भारत माता की जय’ न बोलने वालों से !

-संजय द्विवेदी

  देश की आजादी के सात दशक बाद वंदेमातरम् गाएं या न गाएं, भारत माता की जय बोलें या न बोलें इस पर छिड़ी बहस ने हमारे राजनीतिक विमर्श की नैतिकता और समझदारी दोनों पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आजादी के दीवानों ने जिन नारों को लगाते हुए अपना सर्वस्व निछावर किया, आज वही नारे हमारे सामने सवाल की तरह खड़े हैं। देश की आजादी के इतने वर्षों बाद छिड़ी यह निरर्थक बहस कई तरह के प्रश्न खड़े करती है। यह बात बताती है राजनीति का स्तर इन सालों में कितना गिरा है और उसे अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान से समझौता करने में भी गुरेज नहीं है। लोकतंत्र इस मामले में हमें इतना दयनीय बना देगा, यह सोचकर दुख होता है।
    जिन नारों ने हमारी आजादी के समूचे आंदोलन को एक दिशा दी, ओज और तेज दिया, वे आज हमें चुभने लगे हैं। वोट की राजनीति के लिए समझौतों और समर्पण की यह कथा विचलित करने वाली है। यह बताती है कि एक राष्ट्र के रूप में हमारी पहचानें, अभी भी विवाद का विषय हैं। इन सालों में हमने भारतीयता के उदात्त भावों का तिरस्कार किया और उस भाव को जगाने में विफल रहे, जिनसे कोई देश बनता है। विदेशी विचारों और देश विरोधी सोच ने हमारे पाठ्यक्रमों से लेकर हमारे सार्वजनिक जीवन में भी जगह बना ली है। इसके चलते हमारा राष्ट्रीय मन आहत और पददलित होता रहा और राष्ट्रीय स्वाभिमान हाशिए लगा दिया गया। भारत और उसकी हर चीज से नफरत का पाठ कुछ विचारधाराएं पढ़ाती रहीं। भारत के विश्वविद्यालयों से लेकर भारत के बौद्धिक तबकों में उनकी धुसपैठ ने भारत की ज्ञान परंपरा को पोगापंथ और दकियानूसी कहकर खारिज किया। विदेशी विचारों की जूठन उठाते- उठाते हमारी पूरी उच्चशिक्षा भारत विरोधी बन गयी। अपने आत्मदैन्य के बोझ से लदी पीढी तैयार होती रही और देश इसे देखता रहा।
    सत्ता में रहे जनों को सिर्फ सत्ता से मतलब था, शिक्षा परिसरों में क्या हो रहा है- इसे देखने की फुरसत किसे थी। राजनीति यहां सत्ता प्राप्ति का उपक्रम बनकर रह गयी और किसी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिवर्तन से उसने हाथ जोड़ लिए। कुछ अर्धशिक्षित और वामविचारी चिंतकों ने भारत को छोड़कर सब कुछ जानने-जनाने की कसम खा रखी थी। वे ही शिक्षा मंदिरों में बैठकर सारा कुछ लाल-पीला कर रहे थे। एक स्वाभिमानी भारत को आत्मदैन्य से युक्त करने में इन वाम विचारकों ने एक बड़ी भूमिका निभाई। युवा शक्ति अपनी जड़ों से कटे और भारत का भारत से परिचय न हो सके, इनकी पूरी कोशिश यही थी और इसमें वे सफल भी रहे।दरअसल यही वह समय था, जिसके चलते हमारी भारतीयता, राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावनाएं सूखती गयीं। जो वर्ग जितना पढ़ा लिखा था वह भारत से, उसकी माटी की महक से उतना ही दूर होता गया। देश की समस्याओं की पहचान कर उनका निदान ढूंढने के बजाय, सामाजिक टकराव के बहाने खोजे और स्थापित किए जाने लगे। समाज में विखंडन की राजनीति को स्थापित करना और भारत को खंड-खंड करके देखना, इस बुद्धिजीवी परिवार का सपना था। भारत के लोग और उनके स्वप्नों के बजाए विखंडन ही इनका स्वप्न था।
  दुनिया में कौन सा देश है जो कुछेक समस्याओं से घिरा नहीं है। किंतु क्या वो अपनी माटी और भूमि के विरूद्ध ही विचार करने लगता है। नहीं, वह अपनी जमीन पर आस्था रखते हुए अपने समय के सवालों का हल तलाशते हैं। किंतु यह विचारधारा, समस्याओं का हल तलाशने के लिए नहीं, सवाल खड़े करने और विवाद प्रायोजित करने में लगी रही। राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी रही कांग्रेस जैसी पार्टी ने भी अपने सारे पुण्यकर्मों पर पानी फेरते हुए इसी विचार को संरक्षण दिया। जबकि इन्होंने चीन युद्ध में पं.नेहरू के साथ खड़े होने के बजाए माओ के साथ खड़े होना स्वीकार किया। जिनकी नजर में महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस सब लांछित किए जाने योग्य थे- ये लोग ही भारत के वैचारिक अधिष्ठान के नियंता बन गए। ऐसे में देश का वही होना था जो हो रहा है। यह तो भला हो देश की जनता का जो ज्यादा संख्या में आज भी बौद्धिक क्षेत्र में चलने वाले विमर्शों से दूर अपने श्रम फल से इस देश को गौरवान्वित कर रही है। भला हो इस विशाल देश का कि आज भी बड़ी संख्या में दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समाज तक वामपंथियों का वैचारिक जहर नहीं फैल सका और वे कुछ बौद्धिक संस्थाओं तक सीमित रह गए हैं। वरना देश को टुकड़े करने का, इनका स्वप्न और जोर से हिलोरें मारता।   
  आजादी के शहीदों, हमारे वर्तमान सैनिकों के साहस, पुरूषार्थ और साहस को चुनौती देते ये देशतोड़क आज भी अपने मंसूबों को कामयाब होने का स्वप्न देखते हैं। जंगलों में माओवादियों, कश्मीर में आजादी के तलबगारों, पंजाब में खालिस्तान का स्वप्न देखने वालों और पूर्वोत्तर के तमाम अतिवादी आंदोलनों की आपसी संगति समझना कठिन नहीं है। भारत में पांथिक, जातिवादी, क्षेत्रीय आकांक्षाओं के उभार के हर अभियान के पीछे छिपी ताकतों को आज पहचानना जरूरी है। क्योंकि इन सबके तार देश विरोधी शक्तियों से जुड़े हुए हैं। देश को कमजोर करने, लोकतंत्र से नागरिकों की आस्था उठाने और उन्हें हिंसक अभियानों की तरफ झोंकने की कोशिशें लगातार जारी है। हालात यह हैं कि हम अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों पर भी एक सुर से बात नहीं कर पा रहे हैं। क्या इस देश के और तमाम राजनीतिक दलों के हित अलग-अलग हैं? क्या राज्यों के हित और देश के हित अलग-अलग हैं? क्या इस देश के बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, वनवासी-गिरिवासी-आदिवासियों के हित अलग-अलग हैं? जाहिर तौर पर नहीं। सबकी समस्याएं, इस देश की चिताएं हैं। सबका पिछड़ापन, इस देश का पिछड़ापन है। जाहिर तौर पर अपनी समस्याओं का हल हमें मिलकर ही तलाशना है। जैसे हमने साथ मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी, वैसी ही लड़ाई गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा के खिलाफ करनी होगी। किंतु हर लड़ाई का अलग-अलग मोर्चा खोलकर, हम समाज की सामूहिक शक्ति को कमजोर कर रहे हैं। इस देश और उसकी माटी को लांछित कर रहे हैं। राष्ट्रीयता का यह बोध आज इस स्तर तक जा पहुंचा है कि हमें आज यह बहस करनी पड़ रही है कि भारत मां की जय बोलें या ना बोलें। संविधान की शपथ लेकर संसद में बैठे एक सांसद कह रहे हैं कि भारत की मां की जय नहीं बोलूंगा, क्या कर लेगें। निश्चित ही आप भारत मां की जय न बोलें, पर ऐसा कहने की जरूरत क्या है। यह कहकर आप किसे खुश कर रहे हैं?

       जाहिर तौर पर स्थितियां बहुत त्रासद हैं। देश की अस्मिता और उसके सवालों को इस तरह सड़क पर लांछित होते देखना भी दुखद है। लोकतंत्र में होने का यह मतलब नहीं कि आप मनमानी करें, किंतु ऐसा हो रहा है और हम सब भारत के लोग इसे देखने के लिए विवश हैं। ऐसी गलीज और निरर्थक बहसों से दूर हमें अपने समय के सवालों, समस्याओं के समाधान खोजने में अपनी ताकत लगानी चाहिए। इसी से इस देश और उसके लोगों का सुखद भविष्य तय होगा।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

आत्मदैन्य से मुक्त हो रहा है नया भारत

वैश्विक नेतृत्व की भूमिका के लिए तैयार है देश
-संजय द्विवेदी


      देश में परिवर्तन की एक लहर चली है। सही मायनों में भारत जाग रहा है और नए रास्तों की तरफ देख रहा है। यह लहर परिर्वतन के साथ संसाधनों के विकास की भी लहर है। जो नई सोच पैदा हो रही है वह आर्थिक संपन्नता, कमजोरों की आय बढ़ाने, गरीबी हटाओ और अंत्योदय जैसे नारों से आगे संपूर्ण मानवता को सुखी करने का विचार करने लगी है। भारत एक नेतृत्वकारी भूमिका के लिए आतुर है और उसका लक्ष्य विश्व मानवता को सुखी करना है।
   नए चमकीले अर्थशास्त्र और भूमंडलीकरण ने विकार ग्रस्त व्यवस्थाएं रची हैं। जिसमें मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाई बनी है और निरंतर बढ़ती जा रही है। अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब हो रहा है। शिक्षा,स्वास्थ्य और सूचना और सभी संसाधनों पर ताकतवरों या समर्थ लोगों का कब्जा है। पूरी दुनिया के साथ तालमेल बढ़ाने और खुले बाजारीकरण से भारत की स्थिति और कमजोर हुयी है। उत्पादन के बजाए आउटसोर्सिंग बढ़ रही है। इससे अमरीका पूरी दुनिया का आदर्श बन गया है। मनुष्यता विकार ग्रस्त हो रही है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भोग और अपराधीकरण का विचार प्रमुखता पा रहा है। कानून सुविधा के मुताबिक व्याख्यायित किए जा रहे हैं। साधनों की बहुलता के बीच भी दुख बढ़ रहा है, असंतोष बढ़ रहा है।
   ऐसे समय में भारत के पास इन संकटों के निपटने के बौद्धिक संसाधन मौजूद हैं। भारत के पास विचारों की कमी नहीं है किंतु हमारे पास ठहरकर देखने का वक्त नहीं है। आधुनिक समय में भी महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, जे.कृष्णमूर्ति, महात्मा गांधी जैसे नायक हमारे पास हैं, जिन्होंने भारत की आत्मा को स्पर्श किया था और हमें रास्ता दिखाया था। ये नायक हमें हमारे आतंरिक परिर्वतन की राह सुझा सकते हैं। मनुष्य की पूर्णता दरअसल इसी आंतरिक परिर्वतन में है।  मनुष्य का भीतरी परिवर्तन ही बाह्य संसाधनों की शुद्धि में सहायक बन सकता है। हमें तेजी के साथ भोगवादी मार्गों को छोड़कर योगवादी प्रयत्नों को बढ़ाना होगा। संघर्ष के बजाए समन्वय के सूत्र तलाशने होगें। स्पर्धा के बजाए सहयोग की राह देखनी होगी। शक्ति के बजाए करूणा, दया और कृपा जैसे भावों के निकट जाना होगा। दरअसल यही असली भारत बनाने का महामार्ग है। एक ऐसा भारत जो खुद को जान पाएगा। सदियों बाद खुद का साक्षात्कार करता हुआ भारत। अपने बोध को अपने ही अर्थों में समझता हुआ भारत। आत्मसाक्षात्कार और आत्मानुभूति करता हुआ भारत। आत्मदैन्य से मुक्त भारत। आत्मविश्वास से भरा भारत।
    आज के भारत का संकट यह है कि उसे अपने पुरा वैभव पर गर्व तो है पर वह उसे जानता नहीं हैं। इसलिए भारत की नई पीढ़ी को इस आत्मदैन्य से मुक्त करने की जरूरत है। यह आत्म दैन्य है, जिसने हमें पददलित और आत्मगौरव से हीन बना दिया है। सदियों से गुलामी के दौर में भारत के मन को तोड़ने की कोशिशें हुयी हैं। उसे उसके इतिहासबोध, गौरवबोध को भुलाने और विदेशी विचारों में मुक्ति तलाशने की कोशिशें परवान चढ़ी हैं। आजादी के बाद भी हमारे बौद्धिक कहे जाने वाले संस्थान और लोग अपनी प्रेरणाएं कहीं और से लेते रहे और भारत के सत्व और तत्व को नकारते रहे। इस गौरवबोध को मिटाने की सचेतन कोशिशें आज भी जारी हैं। विदेशी विचारों और विदेशी प्रेरणाओं व विदेशी इमदादों पर पलने वाले बौद्धिकों ने यह साबित करने की कोशिशें कीं कि हमारी सारी भारतीयता पिछडेपन, पोंगापंथ और दकियानूसी विचारों पर केंद्रित है। हर समाज का कुछ उजला पक्ष होता है तो कुछ अंधेरा पक्ष होता है। लेकिन हमारा अंधेरा ही उन्हें दिखता रहा और उसी का विज्ञापन ये लोग करते रहे। किसी भी देश की सांस्कृतिक धारा में सारा कुछ बुरा कैसे हो सकता है। किंतु भारत, भारतीयता और राष्ट्रवाद के नाम से ही उन्हें मिर्च लगती है। भारतीयता को एक विचार मानने, भारत को एक राष्ट्र मानने में भी उन्हें हिचक है। खंड-खंड विचार उनकी रोजी-रोटी है, इसलिए वे संपूर्णता की बात से परहेज करते हैं। वे भारत को जोड़ने वाले विचारों के बजाए उसे खंडित करने की बात करते हैं। यह संकट हमारा सबसे बड़ा संकट है। आपसी फूट और राष्ट्रीय सवालों पर भी एकजुट न होना, हमारे सब संकटों का कारण है। हमें साथ रहना है तो सहअस्तित्व के विचारों को मानना होगा। हम खंड-खंड विचार नहीं कर सकते। हम तो समूची मनुष्यता के मंगल का विचार करने वाले लोग हैं, इसलिए हमारी शक्ति यही है कि हम लोकमंगल के लिए काम करें। हमारा साहित्य, हमारा जीवन, हमारी प्रकृति, हमारी संस्कृति सब कुछ लोकमंगल में ही मुक्ति देखती है। यह लोकमंगल का विचार साधारण विचार नहीं है। यह मनुष्यता का चरम है। यहां मनुष्यता सम्मानित होती हुयी दिखती है। यहां वह सिर्फ शरीर का नहीं, मन का भी विचार करती है और भावी जीवन का भी विचार करती है। यहां मनुष्य की मुक्ति प्रमुख है।

    नया भारत बनाने की बात दरअसल पुराने मूल्यों के आधार पर नयी चुनौतियों से निपटने की बात है। नया भारत सपनों को सच करने और सपनों में नए रंग भरने के लिए दौड़ लगा रहा है। यह दौड़ सरकार केंद्रित नहीं, मानवीय मूल्यों के विकास पर केंद्रित है। इसे ही भारत का जागरण और पुर्नअविष्कार कहा जा रहा है। कई बार हम राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण की बात इसलिए करते हैं, क्योंकि हमें कोई नया राष्ट्र नहीं बनाना है। हमें अपने उसी राष्ट्र को जागृत करना है, उसका पुर्ननिर्माण करना है, जिसे हम भूल गए हैं। यह अकेली राजनीति से नहीं होगा। यह तब होगा जब समाज पूरी तरह जागृत होकर नए विमर्शों को स्पर्श करेगा। अपनी पहचानों को जानेगा, अपने सत्व और तत्व को जानेगा। उसे भारत और उसकी शक्ति को जानना होगा। लोक के साथ अपने रिश्ते को समझना होगा। तब सिर्फ चमकीली प्रगति नहीं, बल्कि मनुष्यता के मूल्य, नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक मूल्यों की चमक उसे शक्ति दे रही होगी। यही भारत हमारे सपनों का भी है और अपनों का भी। इस भारत को हमने खो दिया, और बदले में पाएं हैं दुख, असंतोष और भोग के लिए लालसाएं। जबकि पुराना भारत हमें संयम के साथ उपभोग की शिक्षा देता है। यह भारत परदुखकातरता में भरोसा रखता है। दूसरों के दुख में खड़ा होता है। उसके आंसू पोंछता है। वह परपीड़ा में आनंद लेने वाला समाज नहीं है। वह द्रवित होता है। वात्सल्य से भरा है। उसके लिए पूरी वसुधा पर रहने वाले मनुष्य मात्र ही नहीं प्राणि मात्र परिवार का हिस्सा हैं। इसलिए इस लोक की शक्ति को समझने की जरूरत है। भारत इसे समझ रहा है। वह जाग रहा है। एक नए विहान की तरफ देख रहा है। वह यात्रा प्रारंभ कर चुका है। क्या हम और आप इस यात्रा में सहयात्री बनेगें यह एक बड़ा सवाल है।

शनिवार, 26 मार्च 2016

इतने गुस्से में क्यों हैं लोग?

-संजय द्विवेदी

    यह कितना निर्मम समय है कि लोग इतने गुस्से से भरे हुए हैं। दिल्ली में डा. पंकज नारंग की जिस तरह पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी,वह बात बताती है कि हम कैसा समाज बना रहे हैं। साधारण से वाद-विवाद का ऐसा रूप धारण कर लेना चिंता में डालता है। लोगों में जैसी अधीरता,गुस्सा और तुरंत प्रतिक्रिया देने का अंदाज बढ़ रहा है वह बताता है कि, हमारे समाज को एक गंभीर इलाज की जरूरत है। सोचना यह भी जरूरी है कि क्या कानून का कोई खौफ लोगों के भीतर बचा है या अब सब कानून को हाथ में लेकर खुद ही अपने फैसले करेगें। एक स्कूटी सवार को रबर गेंद लग जाए और वह नाराजगी में किसी की हत्या कर डाले, यह खबर बताती है कि हम कैसा संवेदनहीन समाज बना रहे हैं। कानून अपने हाथ में लेकर घूमते ये लोग दरअसल भारतीय राज्य और पुलिस के लिए भी एक चुनौती हैं।
    गुस्से से भरे लोग क्या यूं ही गुस्से में हैं या उसके कुछ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारण भी हैं। बताया जा रहा है रहा है मारपीट करने वाले लोग बेहद सामान्य परिवारों से हैं और उनमें कुछ बगल की झुग्गी में रहते थे। एक क्षणिक आवेश किस तरह एक बड़ी घटना में बदल जाता है, यह डा. पंकज के साथ हुआ हादसा बताता है। गुस्से और आक्रोश की मिली-जुली यह घटना बताती है लोगों में कानून का खौफ खत्म हो चुका है। लोगों की जाति-धर्म पूछकर व्यवहार करने वाली राजनीति और पुलिस तंत्र से ज्यादातर समाज का भरोसा उठने लगा है। आज यह सवाल पूछना कठिन है, किंतु पूछा जाना चाहिए कि डा. नारंग अगर किसी अल्पसंख्यक वर्ग या दलित वर्ग से होते तो शेष समाज की क्या इतनी सामान्य प्रतिक्रिया होती? इस घटना को मोदी सरकार के विरूद्ध हथियार की तरह पेश किया जाता। इसलिए सामान्य घटनाओं और झड़पों को राजनीतिक रंग देने में जुटी मीडिया और राजनीतिक दलों से यह पूछा जाना जरूरी है कि एक मनुष्य की मौत पर उनमें समान संवेदना क्यों नहीं है? क्यों वे एक इंसान की मौत को धर्म या जाति के चश्मे से देखते हैं?
    डा. नारंग की मौत हमारी इंसानियत के लिए एक चुनौती है और समूची सामाजिक व्यवस्था के लिए एक काला घब्बा है। हम एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जहां सामान्य तरीके से जीने के लिए भी, हमें वहशियों से बचकर चलना होगा। भारत जैसे देश में जहां पड़ोसी के लिए हम कितनी भावनाएं रखते हैं और उसके सुख-दुख में उसके साथ होने की कामना करते हैं। लेकिन यह घटना बताती है कि हमारे पड़ोसी भी कितने ह्दयहीन हैं, वे कैसी पशुता से भरे हुए हैं, उनके मन में हमारे लिए कितना जहर है। समाज में फैलती गैरबराबरी-ऊंच-नीच, जाति-धर्म और आर्थिक स्थितियों के विभाजन बहुत साफ-साफ जंग की ओर इशारा कर रहे हैं। ये स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं, क्योंकि परिवारों में हम बच्चों को अच्छी शिक्षा और दूसरे को सहन करने, साथ लेने की आदतें नहीं विकसित कर रहे हैं। एकल परिवारों में बच्चों की हर जिद का पूरा होना जरूरी है और वहीं सामान्य परिवारों के बच्चे तमाम अभावों के चलते एक प्रतिहिंसा के भाव से भर रहे हैं। एक को सब चाहिए दूसरे को कुछ मिल नहीं रहा है-ये दोनों ही अतियां गलत हैं। समाज में संयम का बांध टूटता दिख रहा है। तेजी से बढ़ती आबादी, सिमटते संसाधन, उपभोग की बढ़ती भूख, बाजारीकरण और बिखरते परिवारों ने एक ऐसे युवा का सृजन किया है जो गुस्से में है और संस्कारों से मुक्त है। संस्कारहीनता और गुस्से का संयोग इस संकट को गहरा कर रहा है। जहां माता-पिता अन्यान्य कारणों से अपनी संततियों को सही शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, वहीं विद्यालय और शिक्षक भी विफल हो रहे हैं। इस संकट से उबरने में सामाजिक संगठनों, परिवारों का एकजुट होना जरूरी है।
  बचपन से ही बच्चों में सहनशीलता, संवाद और साहचर्य को सिखाने की जरूरत है। दिल्ली की ह्दय विदारक घटना में जिस तरह नाबालिग बच्चों ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया और एक परिवार को उजाड़ दिया वह बात बहुत चिंता में डालने वाली है। किसी भी घटना को हिंदू और मुसलमान के नजरिए से देखने के बजाए यह देखना जरूरी है कि इसके पीछे मानसिकता क्या है? इसी हिंसक मानस का रूप आप हरियाणा के जाट आंदोलन में देख सकते हैं जहां अपने पड़ोसियों और अपने शहर के साथ हिंसक आंदोलनकारियों ने क्या किया। इस हिंसक वृत्ति का विस्तार हमें रोकना ही होगा। हमारे आसपास और परिवेश में अनेक ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जिसमें समाज का हिंसक चेहरा उभर कर सामने आ रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन प्रवृत्तियों के खिलाफ हमें साथ आना और एकजुट होना भी सीखना होगा। सार्वजनिक स्थलों पर, बसों में, ट्रेनों में स्त्रियों के विरूद्ध हो रहे अपराध हों या हिंसक आचरण- सबको हम देखकर चुप लगा जाते हैं।

   देश में बढ़ रही हिंसा और अराजकता के विरूद्ध सामाजिक शक्ति को एकत्र होना होगा। सबसे बड़ी बात अपने आसपास हो रहे अपराध और अन्याय के प्रति हमारी खामोशी हमारी सबसे बड़ी शत्रु है। अकेले पुलिस और सरकार के भरोसे बैठा हुआ समाज, कभी सुख से नहीं रख सकता। होते हुए अन्याय को चुप होकर देखना और प्रतिक्रिया न देना एक बड़ा संकट है ऐसे में मनोरोगियों और अपराधियों के हौसले बढ़ते हुए दिखते हैं। समाज को भयमुक्त और आतंक से मुक्त करना होगा। जहां हर बच्चा, बच्ची सुरक्षित होकर अपने बचपन का विकास  कर सके,जहां पिता और मां अपनी पीढ़ी को योग्य संस्कार दे सके। बदली हुयी दुनिया में हमें ज्यादा मनुष्य बनने के यत्न करने होगें। इसलिए एक शायर कहते हैं- आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना । हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को इंसानियत के पाठ पढ़ाने होगें। परदुखकातरता सिखानी होगी। दूसरों के दुख में दुखी होना और दूसरों के सुख में प्रसन्न होना यही संस्कृति है। इसका विपरीत आचरण विकृति है। हमें संस्कृति और इंसानियत के साझा पाठ सीखने होगें। डा. नारंग की हत्या हमारे लिए चेतावनी है और एक पाठ भी कि हम आज भी संवेदना से, इंसानियत से चूके तो कल बहुत देर हो जाएगी। एक नया समाज बनाने की आकांक्षा से भरे-पूरे हम भारतवासी किसी भी इंसानी हत्या को इंसानियत की हत्या मानें और दुबारा यह दोहराया न जाए, इसके लिए सचेतन प्रयास करें। अपने धर्मों की ओर देखें वे भी हमें यही बता रहे हैं। इस्लाम बता रहा है कि कैसे पड़ोसी के साथ रहें, ईसाईयत करूणा को प्राथमिकता दे रही है, हिंदुत्व भी वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को ही समूची मनुष्यता में रूपांतरित करने का इच्छुक है। लोककवि तुलसीदास भी इसी बात को कह रहे हैं-परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। यानि दूसरों का हित करना ही सबसे धर्म है और दूसरे को पीड़ा देना सबसे बड़ा अधर्म है। गुस्से में अंधे हो चुके युवाओं और उनके माताओं-पिताओं की एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे एक बार फिर जागृत विवेक की ओर लौटें ताकि मनुष्यता ऐसे कलंकों से बचकर अपना परिष्कार कर सके। डा. नारंग की हत्या का सबक यही है कि हम अपने क्रोध पर नियंत्रण करें और अपनत्व के दायरे को विस्तृत करें।  

शनिवार, 19 मार्च 2016

हम और हमारा राष्ट्रवाद

फकीरी यहां आदर पाती है और सत्ताएं लांछन पाती हैं
-संजय द्विवेदी
   देश में इन दिनों राष्ट्रवाद चर्चा और बहस के केंद्र में है। ऐसे में यह जरूरी है कि हम भारतीय राष्ट्रवाद पर एक नई दृष्टि से सोचें और जानें कि आखिर भारतीय भावबोध का राष्ट्रवाद क्या है?‘राष्ट्र सामान्य तौर पर सिर्फ भौगोलिक नहीं बल्कि भूगोल-संस्कृति-लोग के तीन तत्वों से बनने वाली इकाई है। इन तीन तत्वों से बने राष्ट्र में आखिर सबसे महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है? जाहिर तौर पर वह लोग ही होगें। इसलिए लोगों की बेहतरी,भलाई, मानवता का स्पंदन ही किसी राष्ट्रवाद का सबसे प्रमुख तत्व होना चाहिए।
        जब हम लोगों की बात करते हैं तो भौगोलिक इकाईयां टूटती हैं। अध्यात्म के नजरिए से पूरी दुनिया के मनुष्य एक हैं। सभी संत, आध्यात्मिक नेता और मनोवैज्ञानिक भी यह मानने हैं कि पूरी दुनिया पर मनुष्यता एक खास भावबोध से बंधी हुयी है। यही वैश्विक अचेतन (कलेक्टिव अनकांशेसनेस) हम-सबके एक होने का कारण है। स्वामी विवेकानंद इसी बात को कहते थे कि इस अर्थ में भारत एक जड़ भौगोलिक इकाई नहीं है। बल्कि वह एक चेतन भौगोलिक इकाई है जो सीमाओं और सैन्य बलों पर ही केंद्रित नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद मनुष्य के विस्तार व विकास पर केंद्रित है। जिसे भारत ने वसुधैव कुटुम्बकम् कहकर संबोधित किया। यह वसुधैव कुटुम्बकम् राजनीतिक सत्ता का उच्चार नहीं है। उपनिषद् का उच्चार है। सारी दुनिया के लोग एक परिवार, एक कुटुम्ब के हैं, इसे समझना ही दरअसल भारतीय राष्ट्रवाद को समझना है। यह राष्ट्रवाद मनुष्य की सांस्कृतिक एकता के विस्तार का प्रतीक है और हमारे सांस्कृतिक मूल्य, मानववादी सांस्कृतिक मूल्यों पर केंद्रित है। हमारी भारतीय अवधारणा में राज्य निर्मित भौगोलिक-प्रशासनिक इकाईयां प्रमुख स्थान नहीं रखतीं बल्कि हमारी चेतना, संस्कृति, मूल्य आधारित जीवन और परंपराएं ही यहां हमें राष्ट्र बनाती हैं। हमारे सांस्कृतिक इतिहास की ओर देखें तो आर्यावर्त की सीमाएं कहां से कहां तक विस्तृत हैं, जबकि सच यह है कि इस पूरे भूगोल पर राज्य बहुत से थे, राजा अनेक थे- किंतु हमारा सांस्कृतिक अवचेतन हमें एक राष्ट्र का अनुभव कराता था। एक ऐतिहासिक सत्य यह  भी यह है  कि हमारा राष्ट्रवाद दरअसल राज्य संचालित नहीं था, वह समाज और बौद्धिक चेतना से संपन्न संतों, ऋषियों द्वारा संचालित था। वह राष्ट्रवाद इस व्यापक भूगोल की चेतना में समाया हुआ था। यहां का ज्ञान विस्तार जिस तरह चारों दिशाओं में हुआ,वह बात हैरत में डालती है।
    आप देखें तो बुद्ध पूरी दुनिया में अपने संदेश को यूं ही नहीं फैला पाए, बल्कि उस ज्ञान में एक ऐसा नवाचार,नवचेतन था जिसे दुनिया ने स्वतः आगे बढकर ग्रहण किया। भारत कई मायनों में अध्यात्म और चेतना की भूमि है, सच कहें तो दुनिया की तमाम स्थितियों से भारत एक अलग स्थिति इसलिए पाता है, क्योंकि यह भूमि संतों के लिए, ज्ञानियों के लिए उर्वर भूमि है। दुनिया के तमाम विचारों की सांस्कृतिक चेतना जड़वादी है, जबकि भारत की चेतना जैविक है। इसलिए भारत मरता नहीं है, क्योंकि वह जड़वादी और हठवादी नहीं है। यहां का मनुष्य सांस्कृतिक एकता के लिए तो खड़ा होता है पर विचारों में जड़ता आते ही उससे अलग हो जाता है। हमारा ईश्वर आंतरिक उन्नयन और पाप  क्षय के लिए काम करता है। हमारे संत भी आध्यात्मिक उन्नयन और पापों के क्षय के लिए काम करते हैं। मनुष्य की चेतना का आत्मिक विस्तार ही इस राष्ट्रवाद लक्ष्य है। इसलिए यह सिर्फ एक खास भूगोल, एक खास विचारधारा और पूजा पध्दति में बंधे लोगों के उद्धार के लिए नहीं, बल्कि समूची मानवता की मुक्ति के काम करने वाला यह विचार है। यहां मानव की मुक्ति ही उसका लक्ष्य है। यह राष्ट्रवाद सैन्यबल और व्यापार बल से चालित नहीं है, बल्कि यह चेतना के विस्तार, उसके व्यापक भावबोध और मनुष्य मात्र की मुक्ति का विचार से अनुप्राणित है।
   भारतीय संदर्भ में राष्ट्रवाद को समझना वास्तव में मानवतावाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य को समझना है। यह विचार कहता है- संतों को सीकरी से क्या काम और फिर कहता है ‘’कोई नृप होय हमें क्या हानि इस मायने में हम राज या राज्य पर निर्भर रहने वाले समाज नहीं थे। राजा या राज्य एक व्यवस्था थी, किंतु जीवन मुक्त था-मूल्यों पर आधारित था। पूरी सांस्कृतिक परंपरा में समाज ज्यादा ताकतवर था और स्वाभिमान के साथ उदार मानवतावाद और एकात्म मानवदर्शन पर आधारित जीवन जीता था। वह चीजों को खंड-खंड करके देखने का अभ्यासी नहीं था। इसलिए इस राष्ट्रवाद में जो समाज बना, वह राजा केंद्रित नहीं, संस्कृति केंद्रित समाज था। जिसे अपने होने-जीने की शर्तें पता थीं, उसे उसके कर्तव्य ज्ञात थे। उसे राज्य की सीमाएं भी पता थीं और अपनी मुक्ति के मार्ग भी पता थे। इस समाज में गुणता की स्पर्धा थी- इसलिए वह एक सुखी और संपन्न समाज था। इस समाज में भी बाजार था, किंतु समाज- बाजार के मूल्यों पर आधारित नहीं था। आनंद की सरिता पूरे समाज में बहती थी और आध्यात्मिकता के मूल्य जीवन में रसपगे थे। भारतीय समाज जीवन अपनी सहिष्णुता के नाते समरसता के मूल्यों का पोषक है। इसीलिए तमाम धाराएं,विचार,वाद और पंथ इस देश की हवा-मिट्टी में आए और अपना पुर्नअविष्कार किया, नया रूप लिया और एकमेक हो गए। भारतीयता हमारे राष्ट्रवाद का अनिवार्य तत्व है। भारतीयता के माने ही है स्वीकार। दूसरों को स्वीकार करना और उन्हें अपनों सा प्यार देना। यह राष्ट्रवाद विविधता को साधने वाला, बहुलता को आदर देने वाला और समाज को सुख देने वाला है। इसी नाते भारत का विचार आक्रामकता का, आक्रामण का, हिंसा या अधिनायकवाद का विचार नहीं है। यह श्रेष्ठता को आदर देने वाली,विद्वानों और त्यागी जनों को पूजने वाली संस्कृति है। अपने लोकतत्वों को आदर देना ही यहां राष्ट्रवाद है। इसलिए यहां भूगोल का विस्तार नहीं, मनों और दिलों को जीतने की संस्कृति यहां जगह पाती है।
   यहां शांति है, सुख है, आनंद है और वैभव है। यह देकर, छोड़कर और त्यागकर मुक्त होती है। समेटना यहां ज्ञान को है, संपत्ति, जमीन और वैभव को नहीं। इसलिए फकीरी यहां आदर पाती है और सत्ताएं लांछन पाती हैं। इसलिए यहां लोकसत्ता का भी मानवतावादी होना जरूरी है। यहां सत्ता विचारों से, कार्यों से और आचरण से लोकमानस का विचार करती है तो ही सम्मानित होती है। वैसे भी भारतीय समाज एक सत्ता निरपेक्ष समाज है। वह सत्ताओं की परवाह न करने वाला स्वाभिमानी समाज है। इसलिए उसने जीवन की एक अलग शैली विकसित की है, जो उसके राष्ट्रवाद ने उसे दी है। यही स्वाभिमान एक नागरिक का भी है और राष्ट्र का भी। इसलिए वह अपने अध्यात्म के पास जाता है, अपने लोक के पास जाता है और सत्ता या राज्य के चमकीले स्वप्न उसे रास नहीं आते। इसी राष्ट्र तत्व को खोजते हुए राजपुत्र सत्ता को छोड़कर वनों, जंगलों में जाते रहे हैं, ज्ञान की खोज में,सत्य की खोज में, लोक के साथ सातत्य और संवाद के लिए। राम हों, कृष्ण हों, शिव हों, बुद्ध हों, महावीर हों- सब राजपुत्र हैं, संप्रुभ हैं और सब राज के साथ समाज को भी साधते हैं और अपनी सार्थकता साबित करते हैं। इसलिए भारतीय जमीन का राष्ट्रवाद एक अलग कथा है, उसे पश्चिमी पैमानों से नापना गलत होगा। आज इस वक्त जब भारतीय राष्ट्रवाद की अनाप-शनाप व्याख्या हो रही है, हमें ठहरकर सोचना होगा कि क्या सच में हममें अपने राष्ट्र की थोड़ी भी समझ बची है? 
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
   



सोमवार, 14 मार्च 2016

अनथक यात्री की कहानी बयां करती किताब

       -लोकेन्द्र सिंह
 

  भारतीय राजनीति के 'अनथक यात्री' लखीराम अग्रवाल पर किसी पुस्तक का आना सुखद घटना है। सुखद इसलिए है, क्योंकि लखीरामजी जैसे राजपुरुषों की प्रेरक कथाएं ही आज हमें राजनीति के निर्लज्ज विमर्श से उबार सकती हैं। दलबंदी के गहराते दलदल में फंसकर इधर-उधर हाथ-पैर मार रहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को सीख देने के लिए लखीरामजी जैसे नेताओं के चरित्र को सामने लाना बेहद जरूरी है। विचार के लिए किस स्तर का समर्पण चाहिए और विपरीत परिस्थितियों में भी राजनीतिक शुचिता कैसे बनाए रखी जाती है, यह सब सिखाने के लिए लखीरामजी सरीखे व्यक्तित्वों को अतीत से खींचकर वर्तमान में लाना ही चाहिए।
    लखीराम अग्रवाल सच्चे अर्थों में राजपुरुष थे। उन्होंने राजनीति का यथेष्ठ उपयोग समाजसेवा के लिए किया। शुचिता की राजनीति की नई लकीर खींच दी। शिखर पर पहुंचकर भी साधारण बने रहे। खुद को महत्वपूर्ण मानकर असामान्य व्यवहार कभी नहीं किया। वे अंत तक खुद को सच्चे अर्थों में जनप्रतिनिधि साबित करते रहे। ऐसे व्यक्तित्व की कहानियां बयां करती है-'लक्ष्यनिष्ठ लखीराम'। श्री लखीराम अग्रवाल स्मृति ग्रंथ 'लक्ष्यनिष्ठ लखीराम' का संपादन राजनीतिक विचारक संजय द्विवेदी ने किया है। श्री द्विवेदी ने अपना महत्वपूर्ण समय छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को दिया है। उन्होंने स्वदेश, दैनिक भास्कर, हरिभूमि और जी-24 घंटे संपादक रहते हुए छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हलचलों को बेहद करीब से देखा है। लखीरामजी के प्रयासों से जब छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की जड़ें मजबूत हो रही थीं, तब इस पुस्तक के संपादक श्री द्विवेदी वहीं थे। इस संदर्भ में पुस्तक में शामिल उनके लेख 'भाजपा की जड़ें जमाने वाला नायक' और 'विचारधारा की राजनीति का सिपाही' को देख लेना उचित होगा। उन्होंने लखीरामजी के मिशन-विजन को नजदीक से देखा-समझा है। इसलिए यह पुस्तक अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि, इसमें उन सब बातों, घटनाओं और विचारों का समावेश निश्चिततौर पर है, जिनसे लखीरामजी की वास्तविक तस्वीर उभरकर सबके सामने आएगी।
      मौटे तौर पर पुस्तक में लखीरामजी से संबंधित सामग्री को तीन स्तरों में रखा गया है। परिचय और छवियों में लखीरामजी सहित इस स्मृतिग्रंथ के पांच भाग हो जाते हैं। पहला है मूल्यांकन, जिसमें पत्रकारों, संपादकों, शिक्षाविदों और लेखकों के अनुभव शामिल हैं। पुस्तक के सलाहकार संपादक बेनी प्रसाद गुप्ता लिखते हैं कि लखीरामजी की सूझ-बूझ के कारण बिना किसी हिंसक आंदोलन, धरना-प्रदर्शन या शोर-शराबे के छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हो गया। वरना हम देखते हैं कि राज्यों के निर्माण में कितना संघर्ष होता है। लखीरामजी जैसी राजनीतिक दूरदर्शिता कम ही देखने को मिलती है। सबको भरोसे में लेकर काम करना उनका विशेष गुण था। इसी खण्ड में वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर लखीरामजी के समाचार-पत्र प्रकाशन और प्रबंध के कौशल का जिक्र करते हैं। श्री नैयर अग्रवाल परिवार के दैनिक समाचार पत्र 'लोकस्वर' के संस्थापक संपादक रहे हैं। वे एक घटना के माध्यम से बताते हैं कि कभी भी लखीरामजी ने पत्रकारिता को अपने स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं किया। न कभी संपादक पर दबाव डाला। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने भी सहृदय संगठक के पत्रकारीय विशेषता को रेखांकित किया है। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि लखीरामजी ने नागपुर टाइम्स और युगधर्म जैसे समाचार-पत्रों में संवाददाता के रूप में काम किया था। लखीरामजी सिर्फ एक राजनेता नहीं थे बल्कि वे 'राजनीति के ओल्ड स्कूल के नेता' थे। इंडिया टुडे के संपादक रहे श्री जगदीश उपासने लिखते हैं कि लखीरामजी उन नेताओं में थे जो पार्टी-संगठन को प्रमुखता और उसके लिए समयानुकूल कार्यकर्ता तथा धन की व्यवस्था करने की परम्परागत राजनीतिक शैली में ढले थे। संगठन के पद पर कार्यकर्ता का चयन पार्टी को बढ़ाने की उसकी योग्यता के आधार पर तो होता ही था, वे यह भी देखते कि उस कार्यकर्ता की नियुक्ति से सांगठनिक संतुलन भी न बिगड़े। ऐसे में कई बार तो वे विरोध पर भी उतर आते थे। लेकिन, लखीरामजी का कौशल ऐसा था कि नाराज कार्यकर्ता उनके साथ एक बार लम्बी बातचीत के बाद फिर से पुराने उत्साह से काम पर लग जाता था। हरेक कार्यकर्ता उनके लिए अपने परिवार के सदस्य की तरह था।
      पुस्तक के दूसरे हिस्से 'राजनेताओं की स्मृतियां' में अनेक रोचक प्रसंग हैं। इस खण्ड में उन नेताओं के लेख शामिल हैं, जिन्होंने उनके राजनीतिक सहयात्री रहे। उन नेताओं ने भी अपनी यादें साझा की हैं, जिन्होंने लखीरामजी के सान्निध्य में रहकर पत्रकारिता का ककहरा सीखा है। एक सर्वप्रिय नेता के संबंध में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, अविभाज्य मध्यप्रदेश प्रभावशाली नेता कैलाश जोशी, मोतीलाल वोरा, स्व. विद्याचरण शुक्ल, कैलाश नारायण सारंग सहित अन्य नेताओं के विचारों का एक ही जगह संग्रह महत्वपूर्ण है। इस खण्ड में कैलाश जोशी और लखीराम अग्रवाल का एक-दूसरे के खिलाफ संगठन का चुनाव लडऩे का अविस्मरणीय और शिक्षाप्रद प्रसंग भी शामिल है। महज 21 वर्ष की युवावस्था में नगरपालिका में पार्षद चुना जाना। खरसिया नगरपालिका का अध्यक्ष चुने जाने का प्रसंग। भाजपा में विभिन्न दायित्व मिलने के किस्से और खरसिया के सबसे चर्चित उपचुनाव को समझने का मौका यह पुस्तक उपलब्ध कराती है। खरसिया उपचुनाव में लखीरामजी ने मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ दिलीप सिंह जूदेव को मैदान में उतारा था। चुनाव की ऐसी रणनीति उन्होंने बनाई थी कि कद्दावर नेता अर्जुन सिंह को पसीना आ गया था। हालांकि श्री जूदेव चुनाव हार गए। लेकिन, लखीरामजी के चुनावी प्रबंधन के कारण यह चुनाव ऐतिहासिक बन गया।
   बहरहाल, पुस्तक के तीसरे अध्याय में 'परिजनों की स्मृतियाँ' शामिल हैं। यह एक तरह से लखीरामजी के प्रति उनके अपनों के श्रद्धासुमन हैं। इस अध्याय में लखीरामजी के अनुज रामचन्द्र अग्रवाल, श्याम अग्रवाल, उनके बड़े बेटे बृजमोहन अग्रवाल, लखीराम अग्रवाल, सजन अग्रवाल और पुत्रवधु शशि अग्रवाल ने अपनी स्मृतियों को सबके सामने प्रस्तुत किया है। लखीरामजी का पारिवारिक जीवन भी कम प्रेरणास्पद नहीं है। उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है कि किस तरह पूरी ईमानदारी के साथ राजनीति और परिवार दोनों का संचालन किया जाता है। उनके लम्बे सार्वजनिक जीवन में कोई राजनीतिक कलंक नहीं है। राजनीति में अपनी पार्टी को और व्यक्तिगत जीवन में अपने परिवार को मजबूत करने के लिए लखीरामजी ने अथक परिश्रम किया है। जैसा कि शुरुआत में ही लिखा है कि ऐसे धवल राजनेताओं का चरित्र सबके सामने आना ही चाहिए। ताकि अपने मार्ग से भटक रही राजनीति इन्हें देख-सुन और स्मरण कर शायद संभल सके। 275 पृष्ठों की पुस्तक के अंतिम पन्नों पर ध्येयनिष्ठ राजनेता और समाजसेवी लखीराम अग्रवाल से संबंधित महत्वपूर्ण चित्रों का संग्रह है। इन चित्रों से होकर गुजरना भी महत्वपूर्ण होगा।
पुस्तक                        :          लक्ष्यनिष्ठ लखीराम
संपादक                       :         संजय द्विवेदी
प्रकाशक          :          मीडिया विमर्श
                     47, शिवा रॉयल पार्क, साज री ढाणी (विलेज रिसोर्ट) के पास,
                     सलैया, आकृति इकोसिटी से आगे, भोपाल - 462042
                      फोन : 9893598888

मूल्य             :         200 रुपये