वैश्विक नेतृत्व की
भूमिका के लिए तैयार है देश
-संजय द्विवेदी
देश में
परिवर्तन की एक लहर चली है। सही मायनों में भारत जाग रहा है और नए रास्तों की तरफ
देख रहा है। यह लहर परिर्वतन के साथ संसाधनों के विकास की भी लहर है। जो नई सोच
पैदा हो रही है वह आर्थिक संपन्नता, कमजोरों की आय बढ़ाने, गरीबी हटाओ और अंत्योदय
जैसे नारों से आगे संपूर्ण मानवता को सुखी करने का विचार करने लगी है। भारत एक
नेतृत्वकारी भूमिका के लिए आतुर है और उसका लक्ष्य विश्व मानवता को सुखी करना है।
नए चमकीले अर्थशास्त्र और
भूमंडलीकरण ने विकार ग्रस्त व्यवस्थाएं रची हैं। जिसमें मनुष्य और मनुष्य के बीच
गहरी खाई बनी है और निरंतर बढ़ती जा रही है। अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब
हो रहा है। शिक्षा,स्वास्थ्य और सूचना और सभी संसाधनों पर ताकतवरों या समर्थ लोगों
का कब्जा है। पूरी दुनिया के साथ तालमेल बढ़ाने और खुले बाजारीकरण से भारत की
स्थिति और कमजोर हुयी है। उत्पादन के बजाए आउटसोर्सिंग बढ़ रही है। इससे अमरीका
पूरी दुनिया का आदर्श बन गया है। मनुष्यता विकार ग्रस्त हो रही है। बढ़ती
प्रतिस्पर्धा से भोग और अपराधीकरण का विचार प्रमुखता पा रहा है। कानून सुविधा के
मुताबिक व्याख्यायित किए जा रहे हैं। साधनों की बहुलता के बीच भी दुख बढ़ रहा है,
असंतोष बढ़ रहा है।
ऐसे समय
में भारत के पास इन संकटों के निपटने के बौद्धिक संसाधन मौजूद हैं। भारत के पास
विचारों की कमी नहीं है किंतु हमारे पास ठहरकर देखने का वक्त नहीं है। आधुनिक समय
में भी महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, जे.कृष्णमूर्ति, महात्मा गांधी जैसे नायक
हमारे पास हैं, जिन्होंने भारत की आत्मा को स्पर्श किया था और हमें रास्ता दिखाया
था। ये नायक हमें हमारे आतंरिक परिर्वतन की राह सुझा सकते हैं। मनुष्य की पूर्णता
दरअसल इसी आंतरिक परिर्वतन में है। मनुष्य
का भीतरी परिवर्तन ही बाह्य संसाधनों की शुद्धि में सहायक बन सकता है। हमें तेजी
के साथ भोगवादी मार्गों को छोड़कर योगवादी प्रयत्नों को बढ़ाना होगा। संघर्ष के
बजाए समन्वय के सूत्र तलाशने होगें। स्पर्धा के बजाए सहयोग की राह देखनी होगी।
शक्ति के बजाए करूणा, दया और कृपा जैसे भावों के निकट जाना होगा। दरअसल यही असली
भारत बनाने का महामार्ग है। एक ऐसा भारत जो खुद को जान पाएगा। सदियों बाद खुद का
साक्षात्कार करता हुआ भारत। अपने बोध को अपने ही अर्थों में समझता हुआ भारत।
आत्मसाक्षात्कार और आत्मानुभूति करता हुआ भारत। आत्मदैन्य से मुक्त भारत।
आत्मविश्वास से भरा भारत।
आज के भारत का संकट यह है
कि उसे अपने पुरा वैभव पर गर्व तो है पर वह उसे जानता नहीं हैं। इसलिए भारत की नई
पीढ़ी को इस आत्मदैन्य से मुक्त करने की जरूरत है। यह आत्म दैन्य है, जिसने हमें
पददलित और आत्मगौरव से हीन बना दिया है। सदियों से गुलामी के दौर में भारत के मन
को तोड़ने की कोशिशें हुयी हैं। उसे उसके इतिहासबोध, गौरवबोध को भुलाने और विदेशी
विचारों में मुक्ति तलाशने की कोशिशें परवान चढ़ी हैं। आजादी के बाद भी हमारे
बौद्धिक कहे जाने वाले संस्थान और लोग अपनी प्रेरणाएं कहीं और से लेते रहे और भारत
के सत्व और तत्व को नकारते रहे। इस गौरवबोध को मिटाने की सचेतन कोशिशें आज भी जारी
हैं। विदेशी विचारों और विदेशी प्रेरणाओं व विदेशी इमदादों पर पलने वाले बौद्धिकों
ने यह साबित करने की कोशिशें कीं कि हमारी सारी भारतीयता पिछडेपन, पोंगापंथ और
दकियानूसी विचारों पर केंद्रित है। हर समाज का कुछ उजला पक्ष होता है तो कुछ अंधेरा
पक्ष होता है। लेकिन हमारा अंधेरा ही उन्हें दिखता रहा और उसी का विज्ञापन ये लोग
करते रहे। किसी भी देश की सांस्कृतिक धारा में सारा कुछ बुरा कैसे हो सकता है।
किंतु भारत, भारतीयता और राष्ट्रवाद के नाम से ही उन्हें मिर्च लगती है। भारतीयता
को एक विचार मानने, भारत को एक राष्ट्र मानने में भी उन्हें हिचक है। खंड-खंड विचार
उनकी रोजी-रोटी है, इसलिए वे संपूर्णता की बात से परहेज करते हैं। वे भारत को
जोड़ने वाले विचारों के बजाए उसे खंडित करने की बात करते हैं। यह संकट हमारा सबसे बड़ा
संकट है। आपसी फूट और राष्ट्रीय सवालों पर भी एकजुट न होना, हमारे सब संकटों का
कारण है। हमें साथ रहना है तो सहअस्तित्व के विचारों को मानना होगा। हम खंड-खंड
विचार नहीं कर सकते। हम तो समूची मनुष्यता के मंगल का विचार करने वाले लोग हैं,
इसलिए हमारी शक्ति यही है कि हम लोकमंगल के लिए काम करें। हमारा साहित्य, हमारा
जीवन, हमारी प्रकृति, हमारी संस्कृति सब कुछ लोकमंगल में ही मुक्ति देखती है। यह
लोकमंगल का विचार साधारण विचार नहीं है। यह मनुष्यता का चरम है। यहां मनुष्यता
सम्मानित होती हुयी दिखती है। यहां वह सिर्फ शरीर का नहीं, मन का भी विचार करती है
और भावी जीवन का भी विचार करती है। यहां मनुष्य की मुक्ति प्रमुख है।
नया भारत बनाने की बात दरअसल पुराने मूल्यों के
आधार पर नयी चुनौतियों से निपटने की बात है। नया भारत सपनों को सच करने और सपनों
में नए रंग भरने के लिए दौड़ लगा रहा है। यह दौड़ सरकार केंद्रित नहीं, मानवीय
मूल्यों के विकास पर केंद्रित है। इसे ही भारत का जागरण और पुर्नअविष्कार कहा जा
रहा है। कई बार हम राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण की बात इसलिए करते हैं, क्योंकि हमें
कोई नया राष्ट्र नहीं बनाना है। हमें अपने उसी राष्ट्र को जागृत करना है, उसका
पुर्ननिर्माण करना है, जिसे हम भूल गए हैं। यह अकेली राजनीति से नहीं होगा। यह तब
होगा जब समाज पूरी तरह जागृत होकर नए विमर्शों को स्पर्श करेगा। अपनी पहचानों को
जानेगा, अपने सत्व और तत्व को जानेगा। उसे भारत और उसकी शक्ति को जानना होगा। लोक
के साथ अपने रिश्ते को समझना होगा। तब सिर्फ चमकीली प्रगति नहीं, बल्कि मनुष्यता
के मूल्य, नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक मूल्यों की चमक उसे शक्ति दे रही होगी। यही
भारत हमारे सपनों का भी है और अपनों का भी। इस भारत को हमने खो दिया, और बदले में
पाएं हैं दुख, असंतोष और भोग के लिए लालसाएं। जबकि पुराना भारत हमें संयम के साथ
उपभोग की शिक्षा देता है। यह भारत परदुखकातरता में भरोसा रखता है। दूसरों के दुख
में खड़ा होता है। उसके आंसू पोंछता है। वह परपीड़ा में आनंद लेने वाला समाज नहीं
है। वह द्रवित होता है। वात्सल्य से भरा है। उसके लिए पूरी वसुधा पर रहने वाले
मनुष्य मात्र ही नहीं प्राणि मात्र परिवार का हिस्सा हैं। इसलिए इस लोक की शक्ति
को समझने की जरूरत है। भारत इसे समझ रहा है। वह जाग रहा है। एक नए विहान की तरफ
देख रहा है। वह यात्रा प्रारंभ कर चुका है। क्या हम और आप इस यात्रा में सहयात्री
बनेगें यह एक बड़ा सवाल है।
बिल्कुल सही कहा सर आपने। आज के समय में जरूरत है पीछे लौटकर थोड़ा सोचने का।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा सर आपने। आज के समय में जरूरत है पीछे लौटकर थोड़ा सोचने का।
जवाब देंहटाएं