शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

संजय द्विवेदी द्वारा संपादित दो पुस्तकों का विमोचन

एक पुस्तक पत्रकार अच्युतानंद मिश्र और दूसरी मीडिया पर केन्द्रित



भोपाल, 7 फरवरी। मीडिया विमर्श के तत्वावधान में आयोजित समारोह में लेखक एवं मीडिया गुरु संजय द्विवेदी द्वारा संपादित दो पुस्तकों 'अजातशत्रु अच्युतानंद और 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाज का विमोचन किया गया। इस मौके पर संपादक श्री द्विवेदी ने कहा कि दोनों पुस्तकें रचनात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधाओं को समर्पित हैं। पुस्तकों का विमोचन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थियों ने किया, जो इन दिनों देश के विभिन्न मीडिया माध्यमों में कार्यरत हैं। कार्यक्रम का आयोजन सात फरवरी को भोपाल स्थित गांधी भवन में किया गया। इस मौके पर दिल्ली, छत्तीसगढ़, पंजाब, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, बिहार और उत्तरप्रदेश सहित अन्य शहरों से आए मीडियाकर्मी, बुद्धिजीवी एवं पत्रकारिता के विद्यार्थी मौजूद थे।
   लेखक एवं संपादक श्री संजय द्विवेदी लगभग दो दशक से पत्रकारिता एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं तथा कई मीडिया संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। वर्तमान में वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। श्री द्विवेदी निरंतर लेखन और संपादन में कार्यरत हैं। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक 'अजातशत्रु अच्युतानंद का लोकार्पण संयुक्त रूप से सात पूर्व विद्यार्थियों ने किया, जिनमें आर जे अनादि (रेड एफएम, भोपाल), प्राची मजूमदार (हिंदुस्तान टाइम्स, भोपाल), राहुल चौकसे( पीपुल्स समाचार, भोपाल),पंकज कुमार साव( भास्कर डाट काम, रांची), मनीष अग्रवाल (नई दुनिया, इंदौर), हेमंत पाणिग्राही (जगदलपुर) और पंकज गुप्ता (जनजन जागरण, भोपाल) शामिल हैं।
   इसी तरह दूसरी किताब 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाज  का विमोचन सर्वश्री का लोकार्पण संयुक्त रूप से सात पूर्व विद्यार्थियों ने किया जिनमें संयुक्ता बनर्जी( भास्कर डिजिटल, भोपाल), अमित सिंह (आजतक,दिल्ली) चैतन्य चंदन ( डाउन टू अर्थ, दिल्ली),  राजीव कुमार गांधी (साधना टीवी, रायपुर), कौशल वर्मा (दिल्ली), प्रेम राम त्रिपाठी (स्टार समाचार, सतना), दीपक कुमार (बिहार पुलिस) शामिल हैं। दोनों पुस्तकें नई दिल्ली के प्रकाशक यश पब्लिकेशंस ने प्रकाशित की हैं। 'अजातशत्रु अच्युतानंदपुस्तक जनसत्ता के पूर्व संपादक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के लिखे 30 आलेख शामिल हैं। सर्वश्री रामबहादुर राय, विश्वनाथ सचदेव, पद्मश्री रमेशचंद्र शाह, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर, कैलाशचंद्र पंत, रघु ठाकुर, प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, रमेश नैयर, डॉ. सच्चिदानंद जोशी, अभय प्रताप, संत समीर सहित कई प्रमुख लोगों ने अच्युतानंद मिश्र के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है। 
   दूसरी पुस्तक 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाजसमूची पत्रकारिता के क्षेत्र में आए बदलावों को उजागर करती हुई दिखती है। संपादक संजय द्विवेदी कहते हैं कि भूमण्डलीकरण के बाद देश के मीडिया की स्थितियों में बहुत बदलाव आए हैं। सच कहें तो पूरी दुनिया ही बदल गई है। ऐसे में भूमण्डलीकरण के चलते विविध क्षेत्रों में पड़े प्रभावों का आकलन मीडिया प्राध्यापकों, पत्रकारों, चिंतकों और विद्वानों ने इस पुस्तक में किया है। पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के 34 आलेख 203 तीन पृष्ठों में समाहित हैं। डॉ. रामगोपाल सिंह, पी. साईंनाथ, अष्टभुजा शुक्ल, प्रो. कमल दीक्षित, डॉ. सुशील त्रिवेदी, आनंद प्रधान, डॉ. श्रीकांत सिंह, डॉ. वर्तिका नंदा, अनिल चमडिय़ा, डॉ. हरीश अरोड़ा, डॉ. सुभद्रा राठौर, अंकुर विजयवर्गीय, लोकेन्द्र सिंह और ऋतेश चौधरी सहित अन्य विद्वानों ने इस पुस्तक में मीडिया में आए बदलावों को रेखांकित किया है। दोनों पुस्तकें निश्चित ही पत्रकारिता से जुड़े बौद्धिक जगत और पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी साबित होंगी। 
पुस्तक परिचयः
1.      अजातशत्रु अच्युतानंद, संपादकः संजय द्विवेदी,
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस, 1 /11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032
मूल्यः 395/-   पृष्ठः144
2.      मीडिया, भूमंडलीकरण और समाज, संपादकः संजय द्विवेदी,
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस, 1 /11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032
मूल्यः 495/-   पृष्ठः207



राष्ट्र के बौद्धिक विकास में भूमिका निभाए मीडिया


-संजय द्विवेदी

   राष्ट्र के बौद्धिक विकास में मीडिया एक खास भूमिका निभा सकता है। वह अपनी सकारात्मक भूमिका से राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित अनेक चुनौतियों के समाधान खोजने की दिशा में वह एक अभियान चला सकता है। दुनिया के अनेक विकसित देशों में वहां के मीडिया ने सामुदायिक विकास में अपना खास योगदान दिया है। भारत का मीडिया तो इस गौरव से युक्त है कि उसने आजादी की लड़ाई में अपना विशेष योगदान दिया। आजादी के बाद भारत के नवनिर्माण में भी उसने भूमिका निभाई। सामाजिक भेदभाव-गैरबराबरी को दूर करने से लेकर अन्याय और शोषण के विरूद्ध पत्रकारिता का इस्तेमाल        
हमेशा एक लोकतंत्र में हथियार की तरह होता रहा है।
  आज दुनिया के तमाम देश प्रगति और विकास की ओर तेजी से बढ़ते भारत को एक नई उम्मीद से देख रहे हैं। भारत के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा की एक नई शुरूआत हुयी है। भारत की पहचान बदल रही है और वह एक समर्थ परंपरा का सांस्कृतिक उत्तराधिकारी मात्र नहीं बल्कि तेजी से सब क्षेत्रों में विकास करता हुआ राष्ट्र है। इसलिए वह उम्मीदें भी जगा रहा है। ऐसे समय में भारतीय मीडिया का आकार-प्रकार और शक्ति भी बढ़ी है। भारत में मीडिया का इस्तेमाल और उपयोग करने वाले लोग भी बढ़े हैं। तमाम संचार माध्यमों से विविध प्रकार की सूचनाएं समाज के सामने उपस्थित हो रही हैं। इसमें सूचनाओं की विविधता भी है और विकृति भी। अधिक सूचनाओं से संपन्न दुनिया बनाने के बजाए हमें सार्थक सूचनाओं की दुनिया बनानी होगी।
     भारत जैसे विविधता और बहुलता के वाहक देश में कोई एक माध्यम या कोई एक बाहरी विचार थोपा नहीं जा सकता। भारत के पास स्वयं का विचार ही इसे जोड़ने और शक्ति देने का काम कर सकता है। हमारे पास दुनिया को देने के लिए श्रेष्ठतम विचार हैं। श्रेष्ठतम जीवन पद्धति है। श्रेष्ठतम सांस्कृतिक धारा है। जिसमें दूसरों का भी स्वीकार है। दूसरों के लिए भी जगह है। भारतीय सांस्कृतिक धारा और उसके विविध पहलुओं पर संवाद के माध्यम से स्वीकृति बनाने का यह उपयुक्त समय है।
   मीडिया इस देश की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए इसमें एकत्व के सूत्र निकाल सकता है। गणतंत्र दिवस पर इस शक्ति का प्रगटीकरण हमने होते हुए देखा। भारत की सांस्कृतिक विविधता और शक्ति के दर्शन हमें पहली बार इतने प्रकट रूप में देखने को मिले क्योंकि मीडिया की शक्ति और उसकी उपस्थिति ने पूरे देश को दिल्ली के राजपथ से जोड़ दिया। इसके पूर्व ऐसे आयोजन कई सालों से एक औपचारिकता बनकर रह गए थे जिसे मीडिया भी बहुत महत्व नहीं देता था। इस बार के आयोजन में एक राष्ट्र की शक्ति और उसकी एकता महसूस की गयी। ऐसे अवसरों पर मीडिया की शक्ति प्रकट रूप में दिखती है।
  हमारे देश की ताकत यह है कि हम संकटों में शीघ्र ही एकजुट हो जाते हैं। किंतु संकट टलते ही वह भाव नहीं रहता। हमें इस बात को लोगों के मनों में स्थापित करना है कि वे हर स्थिति में साथ हैं और अच्छे दिनों में साथ मिलकर चल सकते हैं। यही एकात्म भाव है। यही जुड़ाव जिसे जगाने की जरूरत है। बौद्धिकता सिर्फ बुद्धिजीवियों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, उसे आम-आदमी के विचार का हिस्सा बनना चाहिए। मीडिया अपने लोगों को प्रबोधन करने में भूमिका निभा सकता है। मीडिया का काम सिर्फ सूचनाएं देना नहीं है अपने पाठकों की रूचि परिष्कार तथा उन्हें बौद्धिक रूप से उन्नत करना भी है। हमें ऐसे मीडिया प्रोफेशनलों की पौध तैयार करनी होगी जो, अपने पाठकों की रूचियों का संसार विस्तृत तो करें हीं उनका परिष्कार भी करें। भौतिक विकास के साथ बुद्धि का स्तर भी बढ़ना जरूरी है। कोई भी लोकतंत्र ऐसे ही सहभाग से साकार होता है। सार्थक होता है। अतः जनता से जुड़े मुद्दे और देश के सवालों की गंभीर समझ पाठकों और दर्शकों में पैदा करना मीडिया की जिम्मेदारी है।

   भारत जैसे देश में मीडिया का प्रभाव पिछले दो दशकों में बहुत बढ़ा है। वह तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के साथ कदमताल करता हुआ एक बड़े उद्योग में भी बदल गया है। बावजूद हमें यह मानना पड़ेगा कि मीडिया का व्यवसाय अन्य व्यवसायों या उद्योगों सरीखा नहीं है। इसके साथ सामाजिक दायित्वबोध गुंथे हुए हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व से रहित मीडिया किसी काम का नहीं है। मीडिया के इसी चरित्र का विकास हमारा दायित्व है। मीडिया के नए बदलावों पर आज सवाल उठने लगे हैं। बाजार के दबावों ने मीडिया प्रबंधकों की रणनीति बदल दी है और बाजार के मूल्यों पर आधारित मीडिया का विकास भी तेजी से हो रहा है। जहां खबरों को बेचने पर जोर है। यहां मूल्य सकुचाए हुए दिखते हैं। समझौते और समर्पण के आधार पर बनने वाला मीडिया किसी भी तरह राष्ट्रीय संकल्पों का वाहक नहीं बन सकता। हमें अपने मीडिया की जड़ों को देखना होगा। वह परंपरा से ही व्यवस्था विरोधी और सामाजिक मूल्यों का संरक्षक और प्रेरक है। इसलिए हमें यह देखना होगा कि हम अपनी जड़ों से अलग न हों। पारंपरिक मूल्यों के आधार पर हम अपने मीडिया का विकास और विस्तार करें। आज मीडिया के प्रभाव के चलते इस क्षेत्र में तमाम तरह ऐसे लोग भी शामिल हुए हैं जिनके सामाजिक सरोकार शून्य हैं। वे विविध साधनों से धन कमाकर मीडिया में अचानक अवतरित हो गए हैं। उनका मुख्य उद्देश्य मीडिया की ताकत का इस्तेमाल करना है। इसके चलते मूल्यों में चौतरफा गिरावट देखने को मिल रही है। घने अंधेरे में रौशनी की चाह और प्रबल होती है। लगातार सच्चाई और अच्छाई की भूख बढ़ रही है। समाज तेजी से बदल रहा है। राजनीति, समाज हर जगह आज शुचिता और सच्चाई की भूख की इच्छा बढ़ रही है। यह इच्छा ही बदलाव की वाहक बनेगी। नए मीडियकर्मियों पर यह दायित्व है कि वे इस जनाकांक्षा को मूर्त रूप देने में सहायक बनें।

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

भाजपा की हार या आप की जीत !

-संजय द्विवेदी


   दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम में भाजपा की पराजय की चर्चा हर जुबान पर है। जाहिर तौर पर इस हार ने भाजपा के अश्वमेघ के अश्व को रोक दिया है और नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी के जलवे में भी कमी आई है। दिल्ली का चुनाव सही मायने में बहुत छोटा चुनाव है, किंतु इसके संदेश बहुत बड़े हैं। मुंबई के मेयर से ज्यादा दिल्ली के मुख्यमंत्री का न कार्यक्षेत्र है, न ही बजट। किंतु राज्य तो राज्य है और महापालिका एक छोटी इकाई है। दिल्ली के चुनाव दरअसल जिस वातावरण और हाईपिच पर लड़ा गया, उसने इस छोटे से राज्य की राजनीतिक महत्ता को बहुत बढ़ा दिया है।
अप्रासंगिक कांग्रेसः
   आंदोलन से उपजी एक पार्टी के सामने दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का जो हाल हुआ, उसके सदमे से उबर पाना दोनों के लिए आसान नहीं होगा। पंद्रह साल तक दिल्ली में राज करने वाली कांग्रेस का खाता भी न खुलना और भाजपा का तीन सीटों पर सिमट जाना कोई साधारण सूचना नहीं है। यह बात बताती है कि जनता के बीच किस तरह हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की हैसियत दिल्ली के अंदर घटी है। जहां तक कांग्रेस की बात है वह दिल्ली के चुनावों में अप्रासंगिक हो चुकी थी। अपने परंपरागत वोट प्रतिशत को भी वह, आप के खाते में जाने से रोक नहीं पाई। वहीं दिल्ली में भाजपा की हार के जो मोटे कारण समझ में आते हैं, वह सब लोगों की समझ में हैं। पता नहीं क्यों यह बात भाजपा का आलाकमान नहीं समझ सका।
काडर की नाराजगीः
भाजपा एक काडर बेस पार्टी है। सालों साल से उसके कार्यकर्ता और संघ परिवार के समविचारी संगठन उसका वोट आधार हैं। यह काडर इस चुनाव में अपने नेताओं के फैसलों से हैरान दिखा। दिल्ली एक बिखरा हुआ राज्य नहीं है, वह एक इकाई है और एक सरीखा सोचती है। वह इतनी बड़ी भी नहीं कि एक जगह का प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। दिल्ली भाजपा की उपेक्षा इस चुनाव का सबसे बड़ा कारण है। इसकी शुरूआत हुई दिल्ली भाजपा के सबसे प्रमुख चेहरे डा. हर्षवर्धन के स्वास्थ्य मंत्रालय से हटाए जाने से। यह क्रम जारी रहा। आयातित नेताओं को टिकट देना, मुख्यमंत्री का प्रत्याशी भी आयात करना और स्थानीय नेताओं को घर बिठाना। यहां तक की दिल्ली भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय खुद भी टिकट नहीं ले पाए। लेकिन कृष्णा तीरथ और विनोद कुमार बिन्नी जैसों को घर बैठे टिकट मिल गया। यह उत्तर प्रदेश जैसा राज्य नहीं कि पूरब की घटनाएं पश्चिम को, पूर्वांचल की घटनाएं बुंदेलखंड और रूहेलखंड को प्रभावित न करें। एक इकाई होने के नाते चीजों को होता हुआ देखकर कार्यकर्ता अवाक थे किंतु कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। मीडिया और पैसे के रूतबे की सवारी गांठ रहे आलाकमान के पास कार्यकर्ताओं को सुनने-गुनने का अवकाश भी नहीं था। कई राज्यों की विजय ने उनके चुनावी प्रबंधन के कौशल को स्थापित कर दिया था। यानी कार्यशैली पर सवाल नहीं उठ सकते थे, क्योंकि सफलता साथ-साथ थी। यह अकेली बात कार्यकर्ताओं को अवसाद में डाल चुकी थी।
  भाजपा और संघ परिवार के कार्यकर्ता आज भी भावनात्मक आधार पर कार्य करने वाला समूह है, यहां यह कहने में संकोच नहीं है कि वे राजनीतिक रूप से उतना विचार नहीं करते। राजनीतिक तरीके से चीजों को न सोचने के कारण वे भावनात्मक आधार पर फैसले करते हैं, जिसका भाजपा को अकसर नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में निराशा की स्थिति में वे घर बैठना पसंद करते हैं। दिल्ली में जहां आप के कार्यकर्ता राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित और आक्रामक थे, घर-घर संवाद कर रहे थे। वहीं भाजपा का कार्यकर्ता चुनाव के करीब आते-आते उदासीन होता गया। चुनाव जब प्रारंभ हुए उस समय का टेम्पो भी भाजपा अंत तक कायम नहीं रख सकी। भाजपा का पूरा चुनाव अभियान मीडिया शोर, साधनों की बहुलता और देश भर के सांसदों, संगठन की सक्रियता के बावजूद, इसी उदासीनता का शिकार हो गया। शायद यह पहली बार था जब टीम मोदी को पराजय हाथ लगी है। यह संवाद आम है कि मोदी-शाह-जेटली ही भाजपा बन गए हैं और भाजपा का शेष नेतृत्व स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहा है। चुनावी प्रबंधन, धनशक्ति, दल से बड़ी होती हुई दिखती है। जाहिर तौर पर दिल्ली के चुनावों को इससे अलग करके देखना संभव नहीं है।
आक्रामक और शब्द की हिंसा से भरा चुनावः
 कहते हैं दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम जहां सीधे संपर्क, संवाद और बातचीत में संयम का परिचय दे रही थी, वहीं भाजपा का प्रचार अभियान आक्रामक और शब्द की हिंसा से भरा था। लोकतंत्र में हिस्सा ले रहे लोग नक्सली हैं या बदनसीब हैं, यह बात समझ से परे है। फिर अरविंद केजरीवाल ने उपद्रवी गोत्र को जिस तरह व्याख्यायित किया, वह बात भी भाजपा के खिलाफ गयी। विज्ञापनों में अन्ना की फोटो पर माला, केजरीवाल के परिवार का जिक्र, सब उल्टे पड़े। केजरीवाल एक ऐसे बेचारे की तरह प्रस्तुत होने लगे जैसे भारत की सरकार ने दिल्ली के लोगों पर हमला कर दिया हो। गुजराती अस्मिता की बात करनेवाले प्रधानमंत्री इस बात को गहरे समझ रहे होंगे। बाहरी लोगों, बाहरी ताकतों और बाहरी नेताओं ने इस पूरे चुनाव में भाजपा की एक बड़ी पराजय की भूमिका तैयार की। इस चुनाव में लालकृष्ण आडवानी से लेकर विजय कुमार मल्होत्रा जैसे नेताओं की भूमिका क्या थी? यह भी सवाल पूछे जा रहे हैं। जबकि ऐसे नेता दिल्ली की रगों को जानते हैं, पहचानते हैं। क्योंकि इन सबने नगर निगम से लेकर लोकसभा की राजनीति इसी शहर में की है।
हारे को हरिनामः
 अब जबकि भाजपा यह चुनाव हार चुकी है। भाजपा के ताकतवर समूह के सामने चुप रहने वाले लोग भी आवाजें जरूर उठाएंगे। प्रधानमंत्री ने इस चुनाव में स्वयं को झोंककर खुद इस चुनाव को मोदी बनाम केजरीवाल में बदल दिया था। इससे पार्टी यह भले कहती रहे कि यह मोदी की हार नहीं है, इसके कोई मायने नहीं हैं। सच्चाई यह है कि दिल्ली के लोग भाजपा के साथ चलने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने एक चमकीली प्रगति का आश्वासन दे रही राजसत्ता के बजाए एक भगोड़े मुख्यमंत्री के इस आश्वासन पर भरोसा किया है कि वह अब नहीं भागेगा।
कैसे बनी अमीरों की पार्टीः

आखिर आठ महीनों में ऐसा क्या हुआ कि भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी जहां हर भारतीय के आशा के केंद्र बने हुए थे, दिल्ली वालों के लिए वे अमीरों की पार्टी और अमीरों के नेता बन गए। यह आम आदमी पार्टी का संवाद कौशल ही कहा जाएगा कि उन्होंने एक चायवाले से अपना जीवन शुरू करने वाले प्रधानमंत्री को कारपोरेट और अमीरों के नेता के रूप में स्थापित कर दिया। मफलर और प्रधानमंत्री के 10 लाख के कोट की कहानियां कैसे जन-मन में स्थापित कर दी गयीं, इस पर भी भाजपा के कम्युनिकेशन विभाग को सोचना चाहिए। एक ऐसी पार्टी जिसने अभी कुछ समय पूर्व, पूरे देश का प्यार पाया है, उसे दिल्ली में एक नई-नवेली पार्टी अगर पराजित करती है, तो यह साधारण नहीं है। इस चुनाव से भाजपा का कुछ नहीं बिगड़ा है, वह बहुत बड़ी पार्टी है और अगले पांच सालों के लिए देश की राजसत्ता के लिए जनादेश से संयुक्त है। किंतु भाजपा का जो बिगड़ा है, वह है उसकी और उसके नेता की छवि, जिसकी भरपाई के लिए उसने आज से कोशिशें शुरू नहीं कीं, तो कल बहुत देर हो जाएगी। सत्ता, संगठन, प्रभावी नेतृत्व और धन तो ठीक है किंतु जनता का भरोसा भी चाहिए। बहुत कम समय में मोदी- शाह और भाजपा को यह संदेश दिल्ली की जनता ने दिया है, यह उनके ऊपर है कि वे दिल्ली को सिर्फ एक राज्य का संदेश मानते हैं या देश की जनता का संयुक्त संदेश... मरजी टीम मोदी की।

संवेदनाएं हो रही हैं खत्म : तेजिन्दर

पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में वरिष्ठ पत्रकार विनय उपाध्याय का सम्मान


भोपाल, 07 फरवरी। हम बहुत ही कठिन समय में जी रहे हैं, यह हमें याद रखना चाहिए। वर्तमान समय में लोगों की संवेदनाएं खत्म हो रही हैं, यह गंभीर बात है। मीडिया की भी यही स्थिति है। मीडिया के लिए भूख और गरीबी कोई खबर नहीं है। उसकी सारी खबरें राजनीति, क्रिकेट, बॉलीवुड और फैशन के इर्द-गिर्द हैं। ये विचार प्रख्यात उपन्यासकार तेजिन्दर ने व्यक्त किए। मीडिया विमर्श के तत्वावधान में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में वे बतौर मुख्य अतिथि मौजूद थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की। उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं सांसद जगदम्बिका पाल भी विशिष्ट अतिथि के नाते उपस्थित थे। सम्मान समारोह में आठवां पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2015 'कला समय' और 'रंग संवाद' के संपादक विनय उपाध्याय को दिया गया।
            साहित्यकार श्री तेजिन्दर ने कहा कि बाजारवाद के प्रभाव से साहित्य को किनारे किया जा रहा है। हमारी भाषा, शैली और शब्दों पर कार्पोरेट ने कब्जा कर लिया है। कार्पोरेट बड़ी चालाकी से साहित्य का इस्तेमाल अपने उत्पाद को बेचने में कर रहा है, लेकिन उसे साहित्यकार की संवेदनाओं की परवाह नहीं है। आज शब्द की सत्ता पर सबसे अधिक खतरा है। साहित्यिक पत्रिकाओं के मुकाबले फैशन की पत्रिकाएं अधिक हैं। आर्थिक पत्रिकाओं की भी संख्या ज्यादा है। उन्होंने बताया कि प्रकाशकों और पूंजीपतियों ने लेखकों की संवेदनाओं का दुरुपयोग करने के नए तरीके इजाद कर लिए हैं। उनके जाल में मध्यमवर्गीय लेखक धंसता जा रहा है। ऐसे दौर में मीडिया विमर्श पत्रिका ने साहित्यिक पत्रकारिता का सम्मान कर एक सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की है।
संसद नहीं कर सकती, वे काम मीडिया ने किए : सांसद जगदम्बिका पाल
उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के सांसद जगदम्बिका पाल ने कहा कि पत्रकारिता के उद्देश्य से भटकने की बहस के बीच आज भी पत्रकारिता की भूमिका और प्रभाव को उपेक्षित नहीं किया जा सकता है। जनधारणा है कि आज भी जो काम संसद नहीं कर सकी है, वे सब काम पत्रकारिता ने किए हैं और कर रही है। संसद की कार्यवाही के एजेंडा तक पत्रकारों के समाचार और लेख से तय हो जाते हैं। भोपाल को कला-संस्कृति का केन्द्र बताते हुए उन्होंने कहा कि देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली है, आर्थिक राजधानी मुम्बई है तो सांस्कृतिक राजधानी भोपाल है। उन्होंने कहा कि आज के समय में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है। आप किसी भी प्रकार के ट्रायल से बच सकते हैं लेकिन मीडिया ट्रायल से नहीं। भारतीय पत्रकारिता ने कई घोटाले उजागर किए हैं। समाज में सकारात्मक वातावरण का निर्माण भी मीडिया कर रहा है। 
विमर्श से समाज का बौद्धिक विकास : प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि समाज का बौद्धिक विकास विमर्श से होता है। लेकिन, विमर्श की दिशा क्या हो, यह साहित्यकारों और प्रबुद्धवर्ग को गंभीर चिंतन कर तय करनी चाहिए। शब्द ब्रह्म भी है और भ्रम भी। विमर्श के माध्यम से हमें समाज में ऐसा जागरण लाना चाहिए कि लोग शब्द के भ्रम से बच सकें। शब्द के माध्यम से जोडऩे का प्रयास होना चाहिए, तोडऩे का नहीं। बौद्धिक विमर्शों के माध्यम से हमें यह प्रयास करना चाहिए कि शब्द भ्रम का मायाजाल खड़ा न हो पाए। उन्होंने कहा कि शब्द का व्यापार होने लगे तो कहीं न कहीं समाज का नुकसान है। प्रो. कुठियाला ने कहा कि बौद्धिक पत्रिकाओं की आज भी जरूरत है। शोध ने यह सिद्ध किया है कि 70 प्रतिशत परिवारों में साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ा जा रहा है।
सार्थक कोशिशों का सम्मान है : वरिष्ठ पत्रकार विनय उपाध्याय
समारोह में वरिष्ठ साहित्यिक पत्रकार विनय उपाध्याय को शॉल-श्रीफल और सम्मान निधि से सम्मानित किया गया। पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित होने के अवसर पर श्री उपाध्याय ने कहा कि यह मेरा नहीं बल्कि साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सार्थक कोशिशों का सम्मान है। उन्होंने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता के पुरोधा माखनलाल चतुर्वेदी की कर्मभूमि खण्डवा में पढ़ाई के दौरान साहित्यिक पत्रकारिता के बीज मेरे हृदय में पड़े। भोपाल आकर मैंने असल मायने में साहित्यिक पत्रकारिता को जाना। शुरुआत में मुझे हतोत्साहित करने का प्रयास भी किया गया लेकिन बाद में सबने मेरे प्रयासों की सराहना की। श्री उपाध्याय ने बताया कि पहले मुख्यधारा के समाचार-पत्रों में साहित्यिक पत्रकारिता के लिए पर्याप्त स्थान दिया जाता था, जो वर्तमान में गायब हो गया है। यह समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है।
सरकार करे साहित्यिक पत्रकारिता का संरक्षण : वरिष्ठ पत्रकार कमल भुवनेश
कमोडिटीज कंट्रोल डॉट कॉम के सम्पादक कमल भुवनेश ने कहा कि पत्रकारिता में खबरों को उत्पाद की तरह बेचने की जो प्रवृत्ति आई है, उसने कहीं न कहीं पत्रकारिता और समाज दोनों का नुकसान किया है। इलेक्ट्रोनिक चैनल्स की बाढ़ आ गई है। लेकिन, इन चैनल्स का दृष्टिकोण राष्ट्रहित न होकर व्यावसायिक हित तक ही सीमित है। किस खबर को बेचा जा सकता है, यह ही ध्यान दिया जा रहा है। उन्होंने बताया कि पूंजीपतियों ने समाचार पत्र-पत्रिकाओं को उत्पाद बनाकर बेचने पर जोर दिया है, इसीलिए उन्होंने अपनी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाएं बंद कर दी हैं। श्री भुवनेश ने कहा कि समाज हित में सरकार को साहित्यिक पत्रकारिता का संरक्षण करना चाहिए। साहित्यिक पत्रिकाओं को मुख्यधारा के समाचार पत्रों की तरह सुविधाएं देनी चाहिए।
परंपराओं और लोक कलाओं पर आक्रमण का समय : साहित्यकार गिरीश पंकज
    वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज ने कहा कि यह हमारी परंपराओं, संस्कृति और लोक कलाओं पर आक्रमण का समय है। पेरिस में चार्ली एब्दो पर हमला वैश्विक आतंकवाद का सबसे घृणित चेहरा है। यह बताता है कि किस तरह अभिव्यक्ति पर खतरा है। यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। हम जिस प्रकार की पत्रकारिता करें, उसके केन्द्र में मनुष्य होना चाहिए। समाज में सकारात्मक विचारों को बढ़ाने के लिए हमें कलम चलानी चाहिए। उन्होंने पश्चिम के नाम पर चल रही अंधानुकरण पर भी सवाल खड़े किए। श्री पंकज ने कहा कि अब बस्तर में भी बाजार घुस आया है। जिसके कारण हमारी मौलिकता खत्म हो रही है। पारंपरिक गीत-संगीत गायब हो गया है। पहनावा भी पश्चिमी हो गया है। कार्यक्रम में स्वागत भाषण पत्रिका के संपादक डॉ. श्रीकांत सिंह ने भी दिया। निर्णायक मण्डल की ओर से प्रतिवेदन सृजनगाथा डॉट कॉम के सम्पादक जयप्रकाश मानस ने पढ़ा। उन्होंने कहा कि बाजार और वैश्वीकरण के इस दौर में साहित्यिक पत्रकारिता को बचाने का प्रयास है, पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक सम्मान। पत्रकारिता की मुख्यधारा की पत्रिका होकर मीडिया विमर्श के इन प्रयासों से साहित्यिक पत्रकारिता को बढ़ावा मिल रहा है।  

    कार्यक्रम का संचालन डॉ. सुभद्रा राठौर ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ. सौरभ मालवीय ने किया। पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेंट किए। इस मौके पर डा. विजयबहादुर सिंह, प्रो, रमेश दवे, कैलाशचंद्र पंत, सुबोध श्रीवास्तव, शिवकुमार अर्चन, डा. रमाकांत श्रीवास्तव, महेश सक्सेना, अनिल चौबे, मधुकर द्विवेदी, डा.सुनीता खत्री, महेंद्र गगन, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी.शशिकला, डा. अविनाश वाजपेयी सहित भोपाल के अनेक प्रबुद्ध लोग मौजूद थे। 

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

राष्ट्र की प्रकृति के अनुरूप हों विकास की नीतियां: प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी




पं. माखनलाल चतुर्वेदी की पुण्यतिथि के अवसर पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने किया व्याख्यान का आयोजन
भोपाल, 30 जनवरी। प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वभाव और प्रकृति होती है। उसी प्रकृति के अनुरूप नीतियां बनें तो विकास होगा, अन्यथा विकृति आएगी। मनुष्य का बौद्धिक विकास सबसे पहले घर में होता है और फिर समाज में। अब तो मनुष्य के बौद्धिक विकास में मीडिया की अहम भूमिका हो गई है। इसलिए मीडिया को सांस्कृतिक भारत की प्रकृति को जानकर उसका हस्तातंरण करना चाहिए। ये विचार हरियाणा के राज्यपाल प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी ने व्यक्त किए। प्रो. सोलंकी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के तत्वावधान में क्रांतिकारी कवि और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. माखनलाल चतुर्वेदी के पुण्य स्मरण दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित थे। कार्यक्रम में बतौर मुख्य वक्ता केन्द्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्य एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश पतंगे उपस्थित रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की।
      राज्यपाल प्रो. सोलंकी ने कहा कि दुनिया के प्रत्येक राष्ट्र का निर्माण किसी न किसी राजा ने किया है, इसलिए वे सब राजनीतिक राष्ट्र हैं। जबकि भारत का निर्माता कोई राजा नहीं है, इसलिए यह सांस्कृतिक राष्ट्र है। संतों की परंपरा और ज्ञान से भारत का निर्माण हुआ है। उन्होंने कहा कि भारत को जानना है तो महात्मा गांधी और पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन को देख लीजिए। केवल हम ही इनके जीवन से प्रेरणा नहीं लेते बल्कि दुनिया सीखती है। अमरीका के राष्ट्रपति ने तो बार-बार महात्मा गांधी को याद किया। पत्रकारिता के महत्व को रेखांकित करते हुए राज्यपाल प्रो. सोलंकी ने कहा कि देश की दिशा ठीक रखने के लिए पत्रकारिता का बहुत महत्व है। यदि आज के पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता के आदर्शों का अनुसरण करें तो देश ठीक रास्ते पर चलेगा। पत्रकारिता कभी भी पैसा कमाने का जरिया नहीं हो सकती। पत्रकारों को महात्मा गांधी के प्रिय भजन से प्रेरणा लेनी चाहिए। यदि पत्रकार के मन में 'पीर पराई' का भाव आ जाए तो समाज में बहुत बड़ा बदलाव आ जाएगा। उन्होंने कहा कि 30 जनवरी बलिदान दिवस है। यह दिवस भारत के लिए जीने का संदेश देता है।
बौद्धिक स्वतंत्रता की लड़ाई सबसे कठिन है : वरिष्ठ पत्रकार रमेश पतंगे
वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश पतंगे ने कहा कि चार प्रकार की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण होती हैं। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक स्वतंत्रता। हमने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है, सामाजिक स्वतंत्रता के लिए लम्बा संघर्ष चलता है और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए भी लड़ रहे हैं। बौद्धिक स्वतंत्रता की लड़ाई सबसे कठिन होती है, लेकिन यह बहुत आवश्यक है। आज मीडिया को यह जिम्मेदारी मिली है। उसे चिंतन करना चाहिए कि राष्ट्र का बौद्धिक विकास कैसे करे? श्री पतंगे ने कहा कि इतिहासकारों ने एक बौद्धिक भ्रम समाज के सामने खड़ा कर दिया है। इतिहासकारों ने भारत के गौरवशाली इतिहास को नकारा है, उसे ठीक ढंग से नहीं लिखा। आर्यों का सिद्धांत इसका उदाहरण है। बाबा साहेब आम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में इस बात का पुरजोर खण्डन किया है कि आर्य बाहर से आए थे। मीडिया की जिम्मेदारी है कि उसे इस भ्रम को दूर करना चाहिए। श्री पतंगे ने कहा कि राष्ट्र का बौद्धिक विकास करना है तो हमें अपने इतिहास, परम्पराओं, दर्शन और तत्व ज्ञान को अच्छे से समझना होगा। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद भले ही पत्रकारिता का परिदृश्य बदल गया हो, लेकिन आज भी महात्मा गांधी और माखनलाल चतुर्वेदी की मूल्य आधारित पत्रकारिता की जरूरत है। सिर्फ पैसा कमाना पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं हो सकता, समाज के बौद्धिक विकास में उसकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।
मीडिया बढ़ाता है व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता : कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षा के अलावा मीडिया भी व्यक्ति की बौद्धिकता को बढ़ाता है। समाज के बौद्धिक स्तर को श्रेष्ठतम स्तर तक ले जाने की जिम्मेदारी मीडिया की है। अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए पत्रकारों को किसी भी समाचार को प्रकाशित करने से पूर्व विकसित विवेक के आधार पर विचार करना चाहिए। इस मौके पर पं. माखनलाल चतुर्वेदी की दो कविताओं का संगीतमय पाठ विद्यार्थियों ने किया। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष श्री संजय द्विवेदी ने किया। इस मौके पर शहर के गणमान्य नागरिक, पत्रकार, विश्वविद्यालय के अधिकारी-कर्मचारी और विद्यार्थी उपस्थित थे।


रविवार, 18 जनवरी 2015

क्रिकेट जैसा रोमांचक हुआ दिल्ली चुनाव


स्टार समाचार, सतना में प्रकाशित लेख

शनिवार, 17 जनवरी 2015

वन डे क्रिकेट सरीखा रोमांचक हुआ दिल्ली चुनाव

                            -संजय द्विवेदी

                 
                     

   राजनीति में सब कुछ निश्चित होता तो क्या यह इतनी मजेदार होती? शायद नहीं। संभावनाओं का खेल होने के नाते ही राजनीति और क्रिकेट एक सा आनंद देते हैं। दिल्ली का चुनाव भी इसीलिए अब खासा मजेदार हो गया है। दिल्ली का सरजमीं पर घट रहीं घटनाएं बताती हैं कि राजनीति वास्तव में कितनी रोचक हो सकती है। कभी आंदोलनों की भूमि रही दिल्ली इन दिनों राजनीतिक आत्मसमर्पणों की भूमि बन गयी है। यहां नए समीकरण बन रहे हैं, नए संबंध जुड़ रहे हैं और रोज एक नया धमाका हो रहा है। यह चुनाव अभियान भले कई दिन चले किंतु यह वन डे क्रिकेट का रोमांच जगा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच सीधी जंग।
    दिल्ली का मैदान भाजपा और कांग्रेस के बीच बंटा हुआ नहीं है, राजनीति के तीसरे कोण आम आदमी पार्टी ने मैदान को ही तिकोना नहीं बनाया है, उसमें रोचकता भी भरी है। आम आदमी पार्टी के सधे हुए तीरों, मीडिया के स्मार्ट इस्तेमाल और जुमलेबाजियों का सही उत्तर देने में कांग्रेस की क्षमता चुक सी गयी लगती है,किंतु भाजपा के तरकश में उनसे जूझने के तीर दिखते हैं- जिनमें किरण बेदी और शाजिया इल्मी का भाजपा में प्रवेश एक दिलचस्प प्रयोग रहा है। आप के नेता अरविंद केजरीवाल के कुर्सी छोड़ने के बाद, आप की लीडरशिप में यह अहसास गहरा हुआ है कि गलती तो हुयी है। इसे अरविंद खुद भी स्वीकार कर चुके हैं और अब दूसरा मौका मांगने जनता की अदालत में हैं। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में स्वयं को संगठनात्मक रूप से काफी मजबूत किया है। इसका प्रमाण लोकसभा के चुनाव है जहां वह सभी सीटों पर दूसरे नंबर पर रही। यह अकेली सूचना आम आदमी पार्टी को दिल्ली में ताज का ख्वाब दिखा रही है।
  भाजपा जिस तरह लगातार विजयरथ पर सवार है उसे तो सपने देखने का हक है ही। किंतु कांग्रेस ने भी अजय माकन को आगे कर यह तो कहने की कोशिश की है कि उसने हथियार नहीं डाले हैं। कांग्रेस के पक्ष में निश्चित ही कोई वातावरण और आस नहीं है किंतु वह खत्म हो गयी है यह सोचना नासमझी है। उसके अपने जनाधार वाले कई नेता लोकसभा में अपनी जमानत खो बैठे यह भी सच है किंतु वह कोशिश करेगी कि उसकी आठ सीटें तो लौट आएं ताकि सत्ता समीकरणों में वह  अनुपस्थित न हो जाए। मीडिया को द्वंद चाहिए और इस द्वंद के लिए भाजपा और आप जबरदस्त हैं, बहुत मुफीद हैं। दोनों के पास कहने को, बताने और कुछ माहौल बनाने के लिए काफी कुछ है। खासकर टीवी पत्रकारों के लिए यह स्थितियां बहुत सुखद हैं, जहां दोनों पक्ष बोलने और नित्य ड्रामा क्रियेट करने के मास्टर हों।
    भाजपा को जहां केंद्रीय सत्ता में होने का मनोवैज्ञानिक लाभ है, वहीं मोदी विरोधी सभी राजनीतिक शक्तियों के लिए एकमात्र विकल्प आम आदमी पार्टी है। प्रतिपक्ष की वास्तविक जगह घेर लेना भी साधारण नहीं है किंतु आप ने दिल्ली में वह कर दिखाया है। आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट नेताओं और अन्ना समर्थक नेताओं का भाजपा में आना एक ऐसी सूचना है, जिसकी घबराहट आम आदमी पार्टी में साफ देखी जा सकती है। बहुत कम समय में पार्टी का ऐसा बिखराव बताता है कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी रैली में जिस तरह आम आदमी पार्टी और उसके नेता पर हमला बोला, उसने भी आम आदमी पार्टी को वास्तविक प्रतिपक्ष बनाकर कांग्रेस को हाशिए लगाने का काम किया है। शायद नरेंद्र मोदी अपने कांग्रेस मुक्त भारत के सपने से इतना जुड़े हुए हैं कि वे दिल्ली में उसे लड़ाई में भी मानने के लिए तैयार नहीं है और आम आदमी पार्टी को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। इससे मोदी विरोधी वोटों का एकत्रीकरण आम आदमी पार्टी के साथ हो सकता है। दिल्ली में बसपा नेता मायावती का सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा और  ऑल इंडिया मजिलिस-ए-इत्तिहादुल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन औवेसी का दिल्ली से अपनी पार्टी को चुनाव न लड़ाने का फैसला बहुत कुछ कहता है। जबकि हाल में औवेसी की पार्टी महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है।
      ये समीकरण बताते हैं कि दिल्ली का चुनाव वन डे क्रिकेट जैसा ही रोचक होने वाला है। केजरीवाल, किरण बेदी, साजिया इल्मी, और जयाप्रदा जैसे किरदार तो इसमें रंग भरेंगें ही साथ ही कांग्रेस भी अपने अस्तित्व के लिए जूझेगी। दिल्ली में भाजपा के पास सात सांसद, तीन नगर निगम के साथ दिल्ली में उसकी सरकार होने के मनोवैज्ञानिक लाभ भी हैं। नेतृत्व न होने की बात कहकर आम आदमी पार्टी भाजपा पर सवाल खड़े कर रही थी, यहां तक कि उसने भाजपा नेता जगदीश मुखी वर्सेज अरविंद केजरीवाल के पोस्टर भी लगा दिए थे। अब जबकि किरण बेदी सरीखी अन्ना आंदोलन की प्रमुख नेत्री भाजपा के मंच पर हैं तो यह मुद्दा भी आम आदमी पार्टी के हाथ से जाता रहा। संभव है कि समाजसेवी अन्ना हजारे भी किरण बेदी के समर्थन में वोट की अपील करें, इससे एक नया दृश्य बन सकता है।
   यह भी मानना होगा अगर आमने सामने भाजपा-कांग्रेस होते तो इस चुनाव में इतना आनंद न आता। किंतु आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच यह चुनाव होने के नाते इसका रोमांच बढ़ गया है। क्योंकि दोनों दल अपने मीडिया इस्तेमाल, रणनीति कौशल और प्रचार रणनीति के लिए ख्यात हैं। दोनों एक- दूसरे को हर स्तर पर निपटाने की मुद्रा से लैस हैं। नरेंद्र मोदी विरोधी शक्तियां महाराष्ट्र, झारखंड और काश्मीर में भाजपा की सफलता से बौखलाई हुयी हैं। उन्हें लगता है कि अश्वमेघ का रथ अब दिल्ली में बांध ही लिया जाना चाहिए। इससे बिहार और यूपी में निर्माणाधीन जनता परिवार के रास्ते सुगम होंगें। मायावती का अचानक दिल्ली में अपने प्रत्याशी सभी सीटों पर लड़ाने का फैसला साधारण नहीं है। राजनीति की जरा सी समझ रखने वाले इसे समझते हैं।
    दिल्ली का जो भी फैसला होगा, वह राष्ट्रीय राजनीति में गहरे असर डालेगा। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह आखिरी वक्त में दिल्ली का मामला अपने हाथ में लिया है और ताबड़तोड़ अन्ना आंदोलन के नेताओं को भाजपा में जगह मिली है, वह महत्वपूर्ण बात है। यानि भाजपा आलाकमान किसी भी कीमत पर दिल्ली पर अपने दांव कम नहीं करना चाहता। उन्हें पता है यह आधा-अधूरा छोटा सा राज्य भले हो, किंतु इसका प्रभाव बहुत व्यापक है। दिल्ली वास्तव में देश का दिल है और इसके परिणामों का प्रभाव पूरे देश की राजनीति पर पड़ता है। नरेंद्र मोदी इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं। अगर मोदी और शाह की टीम ने एक असंभव सी समझी जाने वाली जीत के लिए जम्मू- काश्मीर में जान लड़ा दी और सबसे ज्यादा वोट हासिल कर लिए तो यह सोचना नादानी है कि मोदी ने अरविंद के मुकाबले किरण बेदी को उतारकर खुद को मुक्त कर लिया है। दिल्ली में अभी बहुत कुछ होना है क्योंकि दोनों तरफ के किरदार बहुत स्मार्ट हैं ,इससे कुछ हो न हो स्मार्ट दिल्ली का सपना तो बिकेगा ही।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

रविवार, 11 जनवरी 2015

स्टार समाचार, सतना में प्रकाशित लेख


शनिवार, 10 जनवरी 2015

असभ्यताओं के संघर्ष का समय !


दूसरे विश्वासों को सम्मान और राष्ट्रवाद से ही रूकेगी खून की होली
-संजय द्विवेदी
     फ्रांस से लेकर सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर दुनिया के तमाम देशों में बहता खून आखिर क्या कह रहा है? मानवता के शत्रु, पंथ की नकाब पहनकर मनुष्यों के खून की होली खेल रहे हैं। वे यह सारा कुछ पंथ राज्य की स्थापना के लिए हो रहा है। सैम्युल पी. हटिंग्टन ने अपनी किताब क्लैस आफ सिविलाइजेशन में इन खतरों पर बात करते हुए इसे सभ्यताओं के संघर्ष की संज्ञा दी थी। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सभ्यताएं भी संघर्ष करती हैं? वास्तव में इसे तो असभ्यताओं के संघर्ष की संज्ञा दी जानी चाहिए। लगता है यह पूरा समय असभ्यताओं के विस्तार का समय है और लगता है कि असभ्यताओं का नया उपनिवेश भी स्थापित हो रहा है। अगर दुनिया के महादेशों में मानवता के अंश और बीज होते तो वे इन घटनाओं पर शर्मसार होते और उनकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए कदम उठाते। आखिर यह सिलसिला कब रूकेगा, इस प्रश्न के उत्तर भी नदारद हैं।
    हम देख रहे हैं कि 21 वीं सदी में यह खतरा और गहरा हो रहा है। अपने ही संप्रदाय बंधुओं का खून बहाने की वृत्ति भी देखी जा रही है। आतंकवादी संगठन नई तकनीकों और हथियारों से लैस हैं। वे राजसत्ता और समाज दोनों को चुनौती दे रहे हैं। मानवता सामने खड़ी सिसक रही है। ये चित्र हैरान करने वाले हैं किंतु इससे निजात पाना कठिन दिखता है।
   देखने में आ रहा है कि पंथ ने राष्ट्र-राज्य की सीमाएं तोड़कर एक नया संसार बना लिया है। जहां लोग अपने राष्ट्र की सीमाएं छोड़कर दूर देश में अपने पंथ की खातिर खून बहाने के लिए एकत्र हो रहे हैं। आंतकी संगठनों के आह्वान पर अपना देश छोड़कर खून बहाने के लिए निकलना साधारण नहीं है। भारत, फ्रांस और ब्रिटेन के नागरिक भी खून बहाने वाली जमातों में शामिल हैं। यह बात बताती है कि अब राष्ट्रीयता पर पंथ का विचार भारी पड़ रहा है। पंथ की उग्रता ने राष्ट्रों को शर्मशार किया है। क्या हमें उन पंथों की पहचान नहीं करनी चाहिए जो देश से बड़ा अपने पंथ को बता रहे हैं। क्या कारण है कि सांप्रदायिकता की भावना में हम अपने ही भाई का खून बहाने से नहीं चूकते। माटी का प्यार कमजोर हो रहा है और पांथिक भावनाएं मजबूत बन रही हैं। आज भारत जैसे देश के सामने यह बड़ा सवाल है कि वह नए विचारों के साथ खड़ा हो। क्योंकि वैश्विक आतंकवाद के सामने वह सबसे कमजोर शिकार है। देश के नागरिकों में राष्ट्रप्रेम की भावना को गहरा करना जरूरी है। अपनी शिक्षा में, अपने नागरिकबोध में हमें देशभक्ति की भावना को तीव्रतम करना होगा। हम भारतीय हैं और यही भारतबोध हमें जागृत करना है। यही भारतबोध हमारा धर्म है और हमारा पंथ उसके बाद है। आज यह सवाल हर नागरिक से पूछने की जरूरत है कि पहले राष्ट्र है या उसका पंथ। हमें हर मन में यह स्थापित करना होगा कि पंथ या पूजा पद्धति हमेशा द्वितीयक है और हमारा राष्ट्र सर्वोच्च है। तभी हम इस आंधी को रोक पाएंगें। मैं ही श्रेष्ठ हूं, मेरा पंथ ही सर्वश्रेष्ठ है की भावना चलते यह स्थितियां पैदा हुयी हैं। अगर तमाम देशों के लोग यह भाव अपने नागरिकों में भर पाते हैं कि मेरी माटी,मेरा देश सबसे बड़ा है- कोई भी पंथ या विचारधारा उसके बाद है तो खून बहने से रोका जा सकता था। भारत इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। क्योंकि हमारी सांस्कृतिक परंपरा के सूत्र वसुधैव कुटुम्बकम् की बात कहते हैं। यह विचार आशा का विचार है क्योंकि यह सर्वे भवंतु सुखिनः की अवधारणा पर काम करने वाला समाज है। संकट यह है कि हम अपने विचार को भूल रहे हैं। इसलिए आतंकी ताकतें कामयाब होती हुई दिखती हैं और उन्होंने हमारे युवाओं के हाथ में कहीं बंदूक, कही एके-47 तो कहीं पत्थर पकड़ा रखे हैं। पंथ के नाम पर हो रहे कत्लेआम के अलावा विचारधारा के नाम पर भी खून बहा रहे कम्युनिस्ट या उग्र माओवादी इसी विचार का हिस्सा हैं। क्या किसी विचार और पंथ या समूह को लोगों की हत्याओं की आजादी दी जा सकती है? एक सभ्य समाज में रह रहे हम लोगों का मुकाबला कैसे असभ्यों से है, जो असहमति या विविध विचारों को फलने-फूलने तो दूर, उसे सांस लेने की भी अनुमति नहीं दे रहे हैं। ऐसे में हमें तय करना होगा कि हम पंथों की उस जड़ पर चोट करें जो खुद को ही श्रेष्ठ मानती है और इतना तक तो ठीक है पर उन्हें न मानने वालों को खत्म कर देने के स्वप्न देखती है। विविधता और बहुलता एक प्राकृतिक तत्व है। यह ऊपरवाले के द्वारा ही बनाई गयी है। इसे जो नहीं समझते वे जाहिल हैं। उन्हें न तो धर्म का पता है, न पंथ, न ही प्रकृति को वे समझते हैं। हमें एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर बढ़ना होगा जो विविध विश्वासों, विविध विचारों और पंथों के बीच सहजता से जी सके। एक- दूसरे के विश्वासों का आदर और उसकी अस्मिता की रक्षा कर सके। यह होगा, सिर्फ माटी के प्रति अटूट प्यार से। सबसे बड़ा है मेरा देश, मेरा राष्ट्र सर्वोपरि है। उसके एक-एक व्यक्ति से मेरा रिश्ता है। इस माटी का ऋण मुझे चुकाना है। यह भाव आते ही आप दूसरे देश में अपने पंथ की लड़ाई लड़ने नहीं जाएंगें। अपनी सेना और अपनी फौज पर पत्थर नहीं फेंकेंगें, अपने लोगों का खून बहाते हुए आपके हाथ कांपेंगें, मुंबई की अमर जवान ज्योति पर हमला करने की आप सोच भी नहीं पाएंगें।

   हम सब एक माटी के पुत्र और एक सांस्कृतिक प्रवाह के उत्तराधिकारी हैं। मेरा राष्ट्र ही मेरा देवता है, मैं इस मादरेवतन के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दूंगा। आज इसी भावना की जरूरत है। ऐसा हो पाया तो हम दुनिया में शांति और सद् भावना को स्थापित होते हुए देख पाएंगें। खून बहाते लोगों को भी इससे सबक मिलेगा। आज जरूरत इस बात की है कि हम यह भावना स्थापित करें कि देश प्रथम। देश सबसे ऊपर होगा तो हम कई संकटों से निजात पा सकेंगें। अपने-अपने देश को सर्वोच्च बनाएं और विश्वबंधुत्व का प्रसार करें। भारत के वैश्विक परिवार दर्शन को दुनिया में स्थापित करें। यही दर्शन विश्वमानवता को सुख-शांति का मार्ग दिखा सकता है। कटुता को समाप्त कर सकता है। विभिन्न पंथों के आपसी संघर्ष ने पूरी दुनिया में सिर्फ खून की नदियां बहाई हैं। क्योंकि ये पंथ विस्तारवाद की भावना से पीड़ित हैं। ये चाहते हैं कि पूरी दुनिया एक ही रंग में रंग जाए। जबकि हमें पता है कि यह असंभव है। दुनिया में विविध विचार, विश्वास और आस्थाएं साथ-साथ सांस लेती हैं, ऐसा होना भी चाहिए। बावजूद इसके इस सत्य को स्वीकार कर लेने में कुछ पंथों को मुश्किल क्यों है, यह समझना कठिन है। दुनिया में खून बहने से रोकने का अब एक ही तरीका है कि हम अपने ही विश्वास को श्रेष्ठतम मानना बंद करें और दूसरों को भी जगह और सम्मान दें। इससे दुनिया ज्यादा सुंदर, ज्यादा मानवीय और ज्यादा रहने लायक बनेगी।