दूसरे विश्वासों को सम्मान और राष्ट्रवाद से ही
रूकेगी खून की होली
-संजय द्विवेदी
फ्रांस से लेकर सीरिया,
ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर दुनिया के तमाम देशों में बहता खून आखिर
क्या कह रहा है? मानवता के शत्रु, पंथ
की नकाब पहनकर मनुष्यों के खून की होली खेल रहे हैं। वे यह सारा कुछ ‘पंथ राज्य’ की स्थापना के लिए हो रहा है।
सैम्युल पी. हटिंग्टन ने अपनी किताब ‘क्लैस आफ सिविलाइजेशन’ में इन खतरों पर बात करते हुए इसे ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की संज्ञा दी थी। लेकिन सवाल यह
उठता है कि क्या सभ्यताएं भी संघर्ष करती हैं? वास्तव में इसे तो असभ्यताओं के संघर्ष की संज्ञा दी
जानी चाहिए। लगता है यह पूरा समय असभ्यताओं के विस्तार का समय है और लगता है कि
असभ्यताओं का नया उपनिवेश भी स्थापित हो रहा है। अगर दुनिया के महादेशों में
मानवता के अंश और बीज होते तो वे इन घटनाओं पर शर्मसार होते और उनकी पुनरावृत्ति
रोकने के लिए कदम उठाते। आखिर यह सिलसिला कब रूकेगा, इस प्रश्न के उत्तर भी नदारद
हैं।
हम देख रहे हैं कि 21 वीं सदी में
यह खतरा और गहरा हो रहा है। अपने ही संप्रदाय बंधुओं का खून बहाने की वृत्ति भी
देखी जा रही है। आतंकवादी संगठन नई तकनीकों और हथियारों से लैस हैं। वे राजसत्ता
और समाज दोनों को चुनौती दे रहे हैं। मानवता सामने खड़ी सिसक रही है। ये चित्र
हैरान करने वाले हैं किंतु इससे निजात पाना कठिन दिखता है।
देखने में आ रहा है कि पंथ ने
राष्ट्र-राज्य की सीमाएं तोड़कर एक नया संसार बना लिया है। जहां लोग अपने राष्ट्र
की सीमाएं छोड़कर दूर देश में अपने पंथ की खातिर खून बहाने के लिए एकत्र हो रहे हैं।
आंतकी संगठनों के आह्वान पर अपना देश छोड़कर खून बहाने के लिए निकलना साधारण नहीं
है। भारत, फ्रांस और ब्रिटेन के नागरिक भी खून बहाने वाली जमातों में शामिल हैं।
यह बात बताती है कि अब राष्ट्रीयता पर पंथ का विचार भारी पड़ रहा है। पंथ की
उग्रता ने राष्ट्रों को शर्मशार किया है। क्या हमें उन पंथों की पहचान नहीं करनी चाहिए
जो देश से बड़ा अपने पंथ को बता रहे हैं। क्या कारण है कि सांप्रदायिकता की भावना
में हम अपने ही भाई का खून बहाने से नहीं चूकते। माटी का प्यार कमजोर हो रहा है और
पांथिक भावनाएं मजबूत बन रही हैं। आज भारत जैसे देश के सामने यह बड़ा सवाल है कि
वह नए विचारों के साथ खड़ा हो। क्योंकि वैश्विक आतंकवाद के सामने वह सबसे कमजोर
शिकार है। देश के नागरिकों में राष्ट्रप्रेम की भावना को गहरा करना जरूरी है। अपनी
शिक्षा में, अपने नागरिकबोध में हमें देशभक्ति की भावना को तीव्रतम करना होगा। हम
भारतीय हैं और यही भारतबोध हमें जागृत करना है। यही भारतबोध हमारा धर्म है और
हमारा पंथ उसके बाद है। आज यह सवाल हर नागरिक से पूछने की जरूरत है कि पहले
राष्ट्र है या उसका पंथ। हमें हर मन में यह स्थापित करना होगा कि पंथ या पूजा
पद्धति हमेशा द्वितीयक है और हमारा राष्ट्र सर्वोच्च है। तभी हम इस आंधी को रोक
पाएंगें। “मैं ही श्रेष्ठ हूं,
मेरा पंथ ही सर्वश्रेष्ठ है” की भावना चलते यह
स्थितियां पैदा हुयी हैं। अगर तमाम देशों के लोग यह भाव अपने नागरिकों में भर पाते
हैं कि मेरी माटी,मेरा देश सबसे बड़ा है- कोई भी पंथ या विचारधारा उसके बाद है तो
खून बहने से रोका जा सकता था। भारत इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। क्योंकि हमारी
सांस्कृतिक परंपरा के सूत्र ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात कहते हैं। यह विचार आशा का विचार
है क्योंकि यह ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की अवधारणा पर काम करने वाला समाज
है। संकट यह है कि हम अपने
विचार को भूल रहे हैं। इसलिए आतंकी ताकतें कामयाब होती हुई दिखती हैं और उन्होंने
हमारे युवाओं के हाथ में कहीं बंदूक, कही एके-47 तो कहीं पत्थर पकड़ा रखे हैं। पंथ
के नाम पर हो रहे कत्लेआम के अलावा विचारधारा के नाम पर भी खून बहा रहे कम्युनिस्ट
या उग्र माओवादी इसी विचार का हिस्सा हैं। क्या किसी विचार और पंथ या समूह को
लोगों की हत्याओं की आजादी दी जा सकती है? एक सभ्य समाज में रह रहे हम लोगों का मुकाबला कैसे
असभ्यों से है, जो असहमति या विविध
विचारों को फलने-फूलने तो दूर, उसे सांस लेने की भी
अनुमति नहीं दे रहे हैं। ऐसे में हमें तय करना होगा कि हम पंथों की उस जड़ पर चोट
करें जो खुद को ही श्रेष्ठ मानती है और इतना तक तो ठीक है पर उन्हें न मानने वालों को खत्म
कर देने के स्वप्न देखती है। विविधता और बहुलता एक प्राकृतिक तत्व है। यह ऊपरवाले के
द्वारा ही बनाई गयी है। इसे जो नहीं समझते वे जाहिल हैं। उन्हें न तो धर्म का पता
है, न पंथ, न ही प्रकृति को वे समझते हैं। हमें एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर
बढ़ना होगा जो विविध विश्वासों, विविध विचारों और पंथों के बीच सहजता से जी सके।
एक- दूसरे के विश्वासों का आदर और उसकी अस्मिता की रक्षा कर सके। यह होगा, सिर्फ
माटी के प्रति अटूट प्यार से। सबसे बड़ा है मेरा देश, मेरा राष्ट्र सर्वोपरि है।
उसके एक-एक व्यक्ति से मेरा रिश्ता है। इस माटी का ऋण मुझे चुकाना है। यह भाव आते
ही आप दूसरे देश में अपने पंथ की लड़ाई लड़ने नहीं जाएंगें। अपनी सेना और अपनी फौज
पर पत्थर नहीं फेंकेंगें, अपने लोगों का खून बहाते हुए आपके हाथ कांपेंगें, मुंबई
की अमर जवान ज्योति पर हमला करने की आप सोच भी नहीं पाएंगें।
हम सब एक माटी के पुत्र और एक सांस्कृतिक प्रवाह
के उत्तराधिकारी हैं। मेरा राष्ट्र ही मेरा देवता है, मैं इस मादरेवतन के लिए अपना
सर्वश्रेष्ठ दूंगा। आज इसी भावना की जरूरत है। ऐसा हो पाया तो हम दुनिया में शांति
और सद् भावना को स्थापित होते हुए देख पाएंगें। खून बहाते लोगों को भी इससे सबक
मिलेगा। आज जरूरत इस बात की है कि हम यह भावना स्थापित करें कि ‘देश प्रथम’। देश सबसे ऊपर होगा तो हम कई
संकटों से निजात पा सकेंगें। अपने-अपने देश को सर्वोच्च बनाएं और विश्वबंधुत्व का
प्रसार करें। भारत के वैश्विक परिवार दर्शन को दुनिया में स्थापित करें। यही दर्शन
विश्वमानवता को सुख-शांति का मार्ग दिखा सकता है। कटुता को समाप्त कर सकता है। विभिन्न
पंथों के आपसी संघर्ष ने पूरी दुनिया में सिर्फ खून की नदियां बहाई हैं। क्योंकि
ये पंथ विस्तारवाद की भावना से पीड़ित हैं। ये चाहते हैं कि पूरी दुनिया एक ही रंग
में रंग जाए। जबकि हमें पता है कि यह असंभव है। दुनिया में विविध विचार, विश्वास
और आस्थाएं साथ-साथ सांस लेती हैं, ऐसा होना भी चाहिए। बावजूद इसके इस सत्य को
स्वीकार कर लेने में कुछ पंथों को मुश्किल क्यों है, यह समझना कठिन है। दुनिया में
खून बहने से रोकने का अब एक ही तरीका है कि हम अपने ही विश्वास को श्रेष्ठतम मानना
बंद करें और दूसरों को भी जगह और सम्मान दें। इससे दुनिया ज्यादा सुंदर, ज्यादा
मानवीय और ज्यादा रहने लायक बनेगी।
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