गुरुवार, 12 जून 2014

कापी के मास्टर

                             


                          -         संजय द्विवेदी

हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता की तरह कापी संपादन का बहुत रिवाज नहीं है। अपने लेखन और उसकी भाषा के सौंदर्य पर मुग्ध साहित्यकारों के अतिप्रभाव के चलते हिंदी पत्रकारिता का संकोच इस संदर्भ में लंबे समय तक कायम रहा। जनसत्ता और इंडिया टुडे (हिंदी) के दो सुविचारित प्रयोगों को छोड़कर ये बात आज भी कमोबेश कम ही नजर आ रही है। वैसे भी जब आज की हिंदी पत्रकारिता भाषाई अराजकता और हिंग्लिश की दीवानी हो रही है ऐसे समय में हिंदी की प्रांजलता और पठनीयता को स्थापित करने वाले संपादकों को जब भी याद किया जाएगा, जगदीश उपासने उनमें से एक हैं। वे कापी संपादन के मास्टर हैं। भाषा को लेकर उनका अनुराग इसलिए और भी महत्व का हो जाता है कि मूलतः मराठीभाषी होने के नाते भी उन्होंने हिंदी की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका इंडिया टुडे को स्थापित करने में अपना योगदान दिया। 
   जनसत्ता, युगधर्म, हिंदुस्तान समाचार जैसे अखबारों में पत्रकारिता करने के बाद जब वे इंडिया टुडे पहुंचे तो इस पत्रिका का दावा देश की भाषा में देश की धड़कन बनने का था। समय ने साबित किया कि इसे इस पत्रिका ने सच कर दिखाया। छत्तीसगढ़ के बालोद और रायपुर शहर से अपनी पढ़ाई करते हुए छात्र आंदोलनों और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े जगदीश उपासने ने विधि की परीक्षा में गोल्ड मैडल भी हासिल किया। अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद, मप्र के वे प्रमुख कार्यकर्ताओं में एक थे। आपातकाल के दौरान वे तीन माह फरार रहे तो मीसा बंदी के रूप में 16 महीने की जेल भी काटी ।उनके पिता और माता का छत्तीसगढ़ के सार्वजनिक जीवन में खासा हस्तक्षेप था। मां रजनीताई उपासने 1977 में रायपुर शहर से विधायक भी चुनी गयी। उनके छोटे भाई सच्चिदानंद उपासने आज भी छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं। राजनीतिक परिवार और एक खास विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद उन्होंने पत्रकारिता में अपेक्षित संतुलन बनाए रखा। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को एक ऐसी भाषा दी जिसमें हिंदी का वास्तविक सौंदर्य व्यक्त होता है।
  उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन किया है जिनमें दस खंडों में प्रकाशित सावरकर समग्र काफी महत्वपूर्ण है। टीवी चैनलों में राजनीतिक परिचर्चाओं का आप एक जरूरी चेहरा बन चुके हैं। गंभीर अध्ययन, यात्राएं, लेखन और व्याख्यान उनके शौक हैं। आज जबकि वे मीडिया में एक लंबी और सार्थक पारी खेल कर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नोयडा परिसर के प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं तो भी वे रायपुर के अपने एक वरिष्ठ संपादक दिगंबर सिंह ठाकुर को याद करते हैं, जिन्होंने पहली बार उनसे एक कापी तीस बार लिखवायी थी। वे प्रभाष जोशी, प्रभु चावला और बबन प्रसाद मिश्र जैसे वरिष्ठों को अपने कैरियर में दिए गए योगदान के लिए याद करते हैं, जिन्होंने हमेशा उन्हें कुछ अलग करने को प्रेरित किया।


बुधवार, 11 जून 2014

अच्युतानंद मिश्र -एक असली आदमी


                                  -संजय द्विवेदी
हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण संपादक, पत्रकार, लेखक, पत्रकार संगठनों के अगुआ, शिक्षाविद्, आयोजनकर्ता, और सामाजिक कार्यकर्ता जैसी अच्युतानंद मिश्र की अनेक छवियां हैं। उनकी हर छवि न सिर्फ पूर्णता लिए हुए है वरन् लोगों को जोड़ने वाली साबित हुयी है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानव की सहज कमजोरियां भी उनके आसपास से होकर नहीं गुजरी हैं। राग-द्वेष और अपने- पराए के भेद से परे जैसी दुनिया उन्होंने रची है उसमें सबके लिए आदर है, प्यार है, सम्मान है और कुछ देने का भाव है। देश के आला अखबारों जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, लोकमत समाचार के संपादक के नाते उन्हें हिंदी की दुनिया ने देखा और पढ़ा है।

  6 मार्च, 1937 को गाजीपुर के एक गांव में जन्मे श्री मिश्र पत्रकारों के संघर्षों की अगुवाई करते हुए संगठन को शक्ति देते रहे हैं तो एक शिक्षाविद् के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति के नाते उन्होंने पत्रकारिता शिक्षा और शोध के क्षेत्र में नए आयाम गढ़े। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने जो काम किया है वह आने वाली पीढियों के लिए एक मानक काम है, जिसके आगे चलकर और भी नए रास्ते निकलेंगें। लोगों को जोड़ना और उन्हें अपने प्रेम से सींचना, उनसे सीखने की चीज है। उनके जानने वाले लोगों से आप मिलें तो पता चलेगा कि आखिर अच्युतानंद मिश्र क्या हैं। वे कितनी धाराओं, कितने विचारों, कितने वादों और कितनी प्रतिबद्धताओं के बीच सम्मान पाते हैं कि व्यक्ति आश्चर्य से भर उठता है। उनका कवरेज एरिया बहुत व्यापक है, उनकी मित्रता में देश की राजनीति, मीडिया और साहित्य के शिखर पुरूष भी हैं तो बेहद सामान्य लोग और साधारण परिवेश से आए पत्रकार और छात्र भी। वे हर आयु के लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। उनके परिधानों की तरह उनका मन, जीवन और परिवेश भी बहुत स्वच्छ है। यह व्यापक रेंज उन्होंने सिर्फ अपने खरे पन से बनाई है, ईमानदारी भरे रिश्तों से बनाई है। लोगों की सीमा से बाहर जाकर मदद करने का स्वभाव जहां उनकी संवेदनशीलता का परिचायक है, वहीं रिश्तों में ईमानदारी उनके खांटी मनुष्य होने की गवाही देती है। वे जैसे हैं, वैसे ही प्रस्तुत हुए हैं। इस बेहद चालाक और बनावटी समय में वे एक असली आदमी हैं। अपनी भद्रता से वे लोगों के मन, जीवन और परिवारों में जगह बनाते गए। खाने-खिलाने, पहनने-पहनाने के शौक ऐसे कि उनसे हमेशा रश्क हो जाए। जिंदगी कैसे जीनी चाहिए उनको देख कर सीखा जा सकता है। डायबिटीज है पर वे ही ऐसे हैं जो खुद न खाने के बावजूद आपके लिए एक-एक से मिठाईंयां पेश कर सकते हैं। उनका आतिथ्यभाव,स्वागतभाव, प्रेमभाव मिलकर एक अहोभाव रचते हैं।  

ह्रदयनारायण दीक्षितः प्रखर राष्ट्रवादी स्वर

                                     


                                        - संजय द्विवेदी

वे हिंदी पत्रकारिता में राष्ट्रवाद का सबसे प्रखर स्वर हैं। दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा समेत देश के अनेक प्रमुख अखबारों में उनकी पहचान एक प्रख्यात स्तंभलेखक की है। राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर चल रही उनकी कलम के मुरीद आज हर जगह मिल जाएंगें। उप्र के उन्नाव जिले में जन्में श्री ह्दयनारायण दीक्षित मूलतः एक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। उनका सार्वजनिक जीवन और पत्रकारिता एक दूसरे ऐसे घुले-मिले हैं कि अंदाजा ही नहीं लगता कि उनका मूल काम क्या है। उनका सार्वजनिक जीवन उन्नाव जिले की सामाजिक समस्याओं, जनसमस्याओं से जूझते हुए प्रारंभ हुआ। वे अपने जिले में पुलिस अत्याचार, प्रशासनिक अन्याय लेकर लगातार आंदोलनरत रहे। इसी ने उन्हें राज्य की राजनीति का एक प्रमुख चेहरा बना दिया। जनता के प्रति यही संवेदनशीलता उनके पत्रकारीय लेखन में भी झांकती है।

    सन् 1972 में जिला परिषद, उन्नाव के सदस्य के रूप में अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ करने वाले श्री दीक्षित आपातकाल के दिनों में 19 महीने जेल में भी रहे। उप्र की विधानसभा में लगातार चार बार चुनाव जीतकर पहुंचे। राज्यसरकार में पंचायती राज और संसदीय कार्यमंत्री भी रहे। इन दिनों विधानपरिषद के सदस्य और भाजपा की उप्र इकाई में उपाध्यक्ष हैं। उनके पत्रकारीय जीवन पर एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। 1978 में उन्होंने कालचिंतन नाम से एक पत्रिका निकाली। जिसे  2004 तक चलाया। इसके साथ ही राष्ट्रवादी विचारधारा के अखबारों-पत्रिकाओं पांचजन्य और राष्ट्रधर्म में लिखने का सिलसिला शुरू हुआ। आज तो वे देश के सबसे बड़े हिंदी अखबार दैनिक जागरण के नियमित स्तंभलेखक हैं। अब तक उनके चार हजार से अधिक लेख अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। राष्ट्रवादी विचारधारा के लेखक होने के नाते उनके सामने तमाम ऐसे सवाल जो मुख्यधारा की मीडिया को असहज लगते हैं उनपर भी उन्होंने खूब लिखा। उन्होंने उस दौर में राष्ट्रवादी पत्रकारिता का झंडा उठाया, जब इस विचार को मुख्यधारा की पत्रकारिता में बहुत ज्यादा स्वीकृति नहीं थी। दीनदयाल उपाध्याय पर लिखी गयी उनकी किताब-भारत के वैभव का दीनदयाल मार्गतथा दीनदयाल उपाध्यायः दर्शन, अर्थनीति और राजनीति खासी चर्चा में रही। इसके अलावा भगवदगीता पर भी उनकी एक किताब को सराहा गया। उनकी किताबसांस्कृतिक राष्ट्रदर्शन भारतीय राष्ट्रवाद के मूलस्रोत,विकास, राष्ट्रभाव और राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्वों का विवेचन करती है। अब तक दो दर्जन पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति और उसकी समाजोपयोगी भूमिका का ही आपने रेखांकन किया है। संसदीय परंपराओं और राजनीतिक तौर-तरीकों पर उनका लेखन लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती देने वाला है। एक लोकप्रिय स्तंभकार के नाते मध्य प्रदेश सरकार ने उनके पत्रकारीय योगदान को देखते हुए उन्हें गणेशशंकर विद्यार्थी सम्मान से अलंकृत किया। इसके अलावा राष्ट्रधर्म पत्रिका की ओर से भी उनको भानुप्रताप शुक्ल पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।  

शनिवार, 7 जून 2014

सोशल मीडिया जिसका है नाम !


सामाजिक परिवर्तन और बदलाव की संभावनाओं का प्रेरक है यह माध्यम
-संजय द्विवेदी
   भारतीय समाज में किसी नए प्रयोग को लेकर इतनी स्वीकार्यता कभी नहीं थी, जितनी कम समय में सोशल मीडिया ने अर्जित की है। जब इसे सोशल मीडिया कहा गया तो कई विद्वानों ने पूछा अरे भाई क्या बाकी मीडिया अनसोशल है? अगर वे भी सामाजिक हैं,तो यह सामाजिक मीडिया कैसे? किंतु समय ने साबित किया कि यह वास्तव में सोशल मीडिया है।
   पारंपरिक मीडिया की बंधी-बंधाई और एकरस शैली से अलग हटकर जब भारतीय नागरिक इस पर विचरण करने लगे तो लगा कि रचनात्मकता और सृजनात्मकता का यहां विस्फोट हो रहा है। दृश्य, विचार, कमेंट् और निजी सृजनात्मकता के अनुभव जब यहां तैरने शुरू हुए तो लोकतंत्र के पहरूओं और सरकारों का भी इसका अहसास हुआ। आज वे सब भी अपनी सामाजिकता के विस्तार के लिए सोशल मीडिया पर आ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं भी कहा कि सोशल मीडिया नहीं होता तो हिंदुस्तान की क्रियेटिविटी का पता ही नहीं चलता। सोशल मीडिया अपने स्वभाव में ही बेहद लोकतांत्रिक है। जाति, धर्म, भाषा, लिंग और रंग की सीमाएं तोड़कर इसने न सिर्फ पारंपरिक मीडिया को चुनौती दी है वरन् यह सही मायने में आम आदमी का माध्यम बन गया है। इसने संवाद को निंरतर, समय से पार और लगातार बना दिया है। इसने न सिर्फ आपकी निजता को स्थापित किया है वरन एकांत को भी भर दिया है।
   सूचनाएं आज मुक्त हैं और वे इंटरनेट के पंखों पर उड़ रही हैं। सूचना 21 वीं सदी की सबसे बड़ी ताकत बनी तो सोशल मीडिया, सभी उपलब्ध मीडिया माध्यमों में सबसे लोकप्रिय माध्यम बन गया। सूचनाएं अब ताकतवर देशों, बड़ी कंपनियों और धनपतियों द्वारा चलाए जा रहे प्रचार माध्यमों की मोहताज नहीं रहीं। वे कभी भी वायरल हो सकती हैं और कहीं से भी वैश्विक हो सकती हैं। स्नोडेन और जूलियन असांजे को याद कीजिए। सूचनाओं ने अपना अलग गणतंत्र रच लिया है। निजता अब सामूहिक संवाद में बदल रही है। वार्तालाप अब वैश्विक हो रहे हैं। इस वचुर्अल दुनिया में आपका होना ही आपको पहचान दिला रहा है। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय कहने वाले देश में अब एक वाक्य का विचार क्रांति बन रहा है। यही विचार की ताकत है कि वह किताबों और विद्वानों के इंतजार में नहीं है।
   सोशल साइट्स का समाजशास्त्र अलग है। यहां ट्वीट फैशन भी है और सामाजिक काम भी। फेसबुक और ट्विटर नए गणराज्य हैं। इस खूबसूरत दुनिया में आपकी मौजूदगी को दर्ज करते हुए गणतंत्र। एक नया भूगोल और नया प्रतिपल नया इतिहास रचते हुए गणतंत्र। निजी जिंदगी से लेकर जनांदोलन और चुनावों तक अपनी गंभीर मौजूदगी को दर्ज करवा रहा ये माध्यम, सबको आवाज और सबकी वाणी देने के संकल्प से लबरेज है। कंप्यूटर से आगे अब स्मार्ट होते मोबाइल इसे गति दे रहे हैं। इंटरनेट की प्रकृति ही ऐसी है कि वह डिजीटल गैप को समाप्त करने की संभावनाओं से भरा –पूरा है। यहां मनुष्य न तो सत्ता का मोहताज है, न ही व्यापार का। कोई भी मनुष्यता सहअस्तित्व से ही सार्थक और जीवंत बनती है। यहां यह संभव होता हुआ दिख रहा है।
  अपने तमाम नकारात्मक प्रभावों के बावजूद इसके उपयोग के प्रति बढ़ती ललक बताती है कि सोशल मीडिया का यह असर अभी और बढ़ने वाला है। 2014 के अंत तक मोबाइल पर इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले साढे सात करोड़ हो जाएंगें। यह विस्तार इस माध्यम को शक्ति देने वाला है। इसे टाइम किलिंग मशीन और धोखे का बाजार कहने वाले भी कम नहीं हैं। अपसंस्कृति के विस्तार का भी इसे दोषी माना जाने लगा है। व्यक्ति का हाइपरऐक्टिव होना, उसकी एकाग्रता में कमी,अवसाद और एबिलिटी में कमी जैसे दोष भी इस माध्यम को दिए जाने लगे हैं। इसके स्वास्थ्यगत प्रभावों, मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर बातचीत तेज हो रही है। ऐसे में यह मान लेने में हिचक नहीं करनी चाहिए कि यहां मोती भी हैं और कीचड़ भी। झूठ, बेईमानी, अपराध और बेवफाई के किस्से हैं तो दूसरी तरफ निभ रही दोस्तियों की लंबी कहानियां हैं। हो चुकी और चल रही शादियों की लंबी श्रृंखला है। आज जबकि अस्सी प्रतिशत युवा सोशल नेटवर्क पर हैं, तो शोध यह भी बताते हैं कि दिन में इन माध्यमों के अभ्यासी 111 (एक सौ ग्यारह) बार मोबाइल चेक करते हैं। जाहिर तौर पर यह सच है तो एकाग्रता में कमी आना संभव है। आज देश के लगभग 22 करोड़ लोग इंटरनेट पर हैं। आप देखें तो कभी किसी भी माध्यम के प्रति इतना स्वागत भाव नहीं था। फिल्में आई तो अच्छे घरों के लोग न इसमें काम करते थे, ना ही वे फिल्में देखने जाते थे। मां-पिता से छिपकर युवा सिनेमा देखने जाते थे। टीवी आया तो उसे भी इडियट बाक्स कहा गया। टीवी को लगातार देखते हुए भी हिंदुस्तान उसके प्रति आलोचना के भाव से भरा रहा और आज भी है। किंतु सोशल मीडिया के प्रति आरंभ से ही स्वागत भाव है। इसके प्रति समाज में अस्वीकृति नहीं दिखती क्योंकि यह कहीं न कहीं संबंधों का विस्तार कर रहा है। संवाद की गुंजाइश बना रहा है। रहिए कनेक्ट के नारे को साकार कर रहा है। इसके सही और सार्थक इस्तेमाल से छवियां गढ़ी जा रही हैं, चुनाव लड़े और जीते जा रहे हैं। समाज में पारदर्शिता का विस्तार हो रहा है। लोग कहने लगे हैं। प्रतिक्रिया करने लगे हैं।
  इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा किसी भी माध्यम का गलत इस्तेमाल हमें संकट में ही डालता है। यह समय इंफारमेशन वारफेयर का भी है और साइको वारफेयर का भी। इस दौर में सूचनाएं मुक्त हैं और प्रभावित कर रही हैं। यहां संपादक अनुपस्थित है और रिर्पोटर भी प्रामाणिक नहीं हैं। इसलिए सूचनाओं की वास्तविकता भी जांची जानी चाहिए। कई बार जो संकट खड़े हो रहे हैं, वह वास्तविकता से दूर होते हैं। सोशल मीडिया की पहुंच और प्रभाव को देखते हुए यहां दी जा रही सूचनाओं के सावधान इस्तेमाल की जरूरत भी महसूस की जाती है। इसे अफवाहें, तनाव और वैमनस्य फैलाने का माध्यम बनाने वालों से सावधान रहने की जरूरत है। हमारे साईबर कानूनों में भी अपेक्षित गंभीरता का अभाव है और समझ की भी कमी है। इसके चलते तमाम स्थानों पर निर्दोष लोग प्रताड़ित भी रहे हैं। पुणे में एक इंजीनियर की हत्या सभ्य समाज पर एक तमाचा ही है। ऐसे में हमें एक ऐसा समाज रचने की जरूरत है जहां संवाद कड़वाहटों से मुक्त और निरंतर हो। जहां समाज के सवालों के हल खोजे जाएं न कि नए विवाद और वितंडावाद को जन्म दिया जाए। सोशल मीडिया में समरस और मानवीय समाज की रचना की शक्ति छिपी है। किंतु उसकी यह संभावना उसके इस्तेमाल करने वालों में छिपी हुयी है। इसका सही इस्तेमाल ही हमें इसके वास्तविक लाभ दिला सकता है। सामाजिक सवालों पर जागरूकता और जनचेतना के जागरण में भी यह माध्यम सहायक सिद्ध हो सकता है। आम चुनावों में राजनीतिक दलों ने इस माध्यम की ताकत को इस्तेमाल किया और समझा है। आज युवा शक्ति के इस माध्यम में बड़ी उपस्थित के चलते इसे सामाजिक बदलाव और परिवर्तन का वाहक भी माना जा रहा है। सकात्मकता से भरे-पूरे युवा और सामाजिक सोच से लैस लोग इस माध्यम से उपजी शक्ति को भारत के निर्माण में लगा सकते हैं। ऐसे समय में जब सोशल मीडिया की शक्ति का प्रगटीकरण साफ है, हमें इसके सावधान, सर्तक और समाज के लिए उपयोगी प्रयोगों की तरफ बढ़ने की जरूरत है। यदि ऐसा संभव हो सका तो सोशल मीडिया की शक्ति हमारे लोकतंत्र के लिए वरदान साबित हो सकती है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 1 जून 2014

अरविंद केजरीवालः भरोसा तोड़ता नायक

अरविंद केजरीवालः भरोसा तोड़ता नायक
-संजय द्विवेदी
   हमारे जैसे देश के तमाम लोग अरविंद केजरीवाल से नाराज हैं। देश की जनता की उम्मीदों का चेहरा और एक समय में मध्यवर्ग के हीरो बन चुके इस आदमी को आखिर हुआ क्या है? शायद ही कोई हो जो अपनी मेहनत से अर्जित सार्वजनिक छवि को खुद मटियामेट करे। आज लोगों को यह सवाल मथ रहा है कि क्या अरविंद केजरीवाल अंततः और प्रथमतः एक आंदोलनकारी ही बनकर रह जाएंगें? सवाल यह भी उठता है कि जिन सवालों को लेकर उनका आंदोलन खड़ा हुआ और वह बाद में एक पार्टी में तब्दील हुआ,वे सवाल तो आज भी जस के तस हैं। अरविंद सही मायने में एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने लोगों में सपने जगाए भी और उन्हें अपने हाथों से तोड़ा भी।
     अरविंद केजरीवाल पर भरोसा करते हुए दिल्ली की जनता ने जिस तरह से उनके पक्ष में अपनी एकजुटता दिखाई, वह अभूतपूर्व थी। किंतु लगता है कि इस सफलता ने उनमें विनम्रता के बजाए अहंकार ही भरा। सत्ता को छोड़कर भागना और बाद में उसके लिए पछताना। साथियों का एक-एक कर अलग होते जाना, यह बताता है कि वे कहीं न कहीं अपनी कार्यशैली से लोगों को आहत कर रहे थे। उनके नासमझ फैसले बताते हैं कि राजनीति में अपनी जमीन छोड़ना कितना खतरनाक होता है। दिल्ली, हरियाणा,पंजाब जैसे राज्यों को केंद्र बनाकर अपनी एक ठोस राजनीतिक जमीन बनाने के बजाए उनका वामन से विराट बनने का सपना, उनकी रणनीतिक  विफलता तो है ही दिल तोड़ने वाली भी है। दिल्ली में एक आंदोलन से उपजी पार्टी ने जिस तरह का वातावरण बनाकर राजधानी में अपनी पैठ बनाई, उसके नेताओं का बनारस, अमेठी की ओर पलायन बताता था कि वे एक गहरे भ्रम के शिकार हैं। अरविंद इसलिए दोषी नहीं हैं कि वे राजनीतिक तौर पर असफल हो गए। यह कोई बड़ी बात नहीं है। वे असफल इसलिए हुए हैं कि उन्होंने जो जनविश्वास अर्जित किया था वह खो दिया। लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया और उन्हीं कठघरों में कैद होकर रह जाए जिसमें भारतीय राजनीति अब तक कैद है और उसे वहां से निकालने की जरूरत लोग गहरे महसूस करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने दल के विस्तार का सपना देखना गुनाह नहीं है, किंतु विस्तार एक चरणबद्ध और सुनियोजित प्रक्रिया का हिस्सा है। टीवी पर बनी आत्मछवि से मुग्ध होकर देश के सभी मैदानों में कमजोर सिपाही उतारने के बजाए कुछ ठोस जगहों पर ठोस काम करके दिखाया जाए। अरविंद यहीं चूक गए। उनके सलाहकार जो उन्हें प्रधानमंत्री का राजपथ दिखा रहे थे, उनसे भी गहरी चूक हुई है। लगता है कि वे इस देश के भौगोलिक-सामाजिक व्याप और आकांक्षाओं को नहीं समझते। आम आदमी पार्टी अंतिम दिनों तक मीडिया के केंद्र में रही। ये देखना आश्चर्यजनक था कि मीडिया के सभी आयोजनों में देश में अनेक प्रमुख दलों की उपस्थिति के बावजूद अगर तीन प्रतिनिधि बुलाए जाते थे उनमें एक कांग्रेस, एक भाजपा और एक आम आदमी पार्टी का होता था। टीवी मीडिया के सभी चुनावी प्रोमो में राहुल,मोदी और केजरीवाल की छवि रहती थी। जबकि देश में तमाम ऐसे नेता और दल हैं जो केजरीवाल से बड़ा सामाजिक और भौगोलिक आधार रखते हैं। मीडिया कवरेज में विसंगति थी। हर क्षेत्र में लड़ रहे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के बारे में दो प्रमुख दलों के साथ जरूर बताया जाता था। यह बात बताती है मीडिया में इस दल की मौजूदगी कैसी थी। अरविंद ने कई बार मीडिया पर भी गुस्सा जताया लेकिन देखा जाए तो आम आदमी पार्टी को उसकी हैसियत से ज्यादा जगह मीडिया में मिली। शायद उनका दिल्लीपति होना इसका कारण रहा हो। आप देखें तो मीडिया का असंतुलन इसी से पता चलता है कि इस विकराल चुनावी शोर में सीमांध्र, तेलंगाना, उड़ीसा के विधानसभा परिणामों को बिल्कुल जगह नहीं मिली। इसी तरह ममता बनर्जी और जयललिता का की भारी विजय पर बात कहां हो रही है। आप कल्पना करें ममता और जयललिता सरीखी लोकसभा सीटें आम आदमी पार्टी को मिली होतीं तो मीडिया में बैठे उनके क्रांतिकारी दोस्त मोदी की जीत को भी पराजय में बदल देते और केजरीवाल को भविष्य का प्रधानमंत्री घोषित कर देते। लेकिन देश की जनता बहुत समझदार है। वह आपके आचरण, देहभाषा, वादों और इरादों को तुरंत स्कैन कर लेती है।
   इसमें भी कोई दो राय नहीं कि देश में जो बैचैनियां पल रही थीं। जो अंसतोष मन में पनप रहा था, उसे स्वर देने का प्रारंभिक काम अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव जैसे लोगों ने किया। सही मायने में ये लोग ही संसद में न होने के बावजूद वास्तविक प्रतिपक्ष बन गए थे। साहस के साथ मंत्रियों, सरकार और गांधी परिवार पर जैसे हमले इन्होंने किए, उसने सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का वातावरण तैयार किया। भारतीय मध्यवर्ग और आम लोगों में एक भरोसा बनाया कि कुछ बदल सकता है। इतना ही नहीं उदास और हताश लोगों को राजनीतिक विमर्श में शामिल करने का श्रेय भी काफी हद तक इस समूह को जाता है। किंतु इन बैचैनियों, आलोड़नों को संभालने के आत्मविश्वास से अरविंद खाली थे। आगे उनके दल और उनकी राह क्या होगी कहना कठिन है। जनांदोलनों की धार को लंबे समय के लिए कुंद और भोथरा बनाकर वे चले गए हैं, यह कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। देश में उपस्थित तमाम चुनौतियों के मद्देनजर जनांदोलन और सामाजिक शक्तियों की एकजुटता जरूरी है। जनता के एजेंडे पर बात और सरकारों की निगहबानी जरूरी है। किंतु अरविंद ने जनांदोलनों की विश्वसनीयता को जो क्षति पहुंचाई है, उसकी मिसाल खोजे नहीं मिलेगी। अन्ना हजारे का आंदोलन दरअसल उनके चेहरे और निष्पाप भोलेपन के नाते एक विश्वसनीयता अर्जित कर सका। दूसरी बात उसकी टाईमिंग बहुत सटीक थी। यह ऐसा समय था जब बाबा रामदेव बुरी तरह पिटकर वापस जा चुके थे। देश में सरकारविहीनता के खिलाफ गुस्सा फैल रहा था और ऐसे समय में अन्ना और उनके समर्थकों ने एक ऐसा आंदोलन खड़ा किया जिसमें आम आदमी उम्मीदें देखने लगा। बाद की कथाएं सबको पता हैं। राजनीतिक दल बनाने का अरविंद का फैसला और दिल्ली के चुनावों के अप्रत्याशित परिणामों ने यह संदेश भी दिया कि कांग्रेस के दिन अब लद गए हैं। बावजूद इसके दिल्ली में सरकार बनाना आम आदमी पार्टी के लिए घाटे का सौदा साबित हुआ। क्या ही अच्छा होता कि अरविंद भाजपा को समर्थन देकर उन्हें ज्यादा विधायक होने के नाते सरकार बनाने का मौका देते और उसकी निगहबानी करते। राजनीतिक प्रशिक्षण का एक दौर इससे पूरा होता और कम सीटों पर लोकसभा का चुनाव लड़कर वे बेहतर संभावनाओं को जन्म दे सकते थे। समाज के पढ़े-लिखे वर्ग, मध्य वर्ग और तमाम संवेदनशील लोगों ने आम आदमी पार्टी में एक वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदें देखनी शुरू कर दी थीं। इन उम्मीदों को इस दल के नेताओं ने स्वयं घराशाही कर दिया। दिल्ली की सफलता को पचा न पाने और बड़े सपनों ने छोटी सफलताएं भी छीन लीं। उनके द्वारा खड़े किए गए प्रखर आंदोलन और मुखर राजनीति का काफी लाभ नरेंद्र मोदी और उनके दल को मिला। एक देशव्यापी संगठन आधार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेटवर्क ने इस असंतोष और पीड़ा को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया। जिस काम को अन्ना हजारे ने शुरू किया उसे नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों ने अंजाम तक पहुंचाया। अपने 12 साल गुजरात के मुख्यमंत्रित्वकाल की विश्लसनीयता उनके साथ थी। काम करने वाले व्यक्ति की छवि, विकास व सुशासन के मुद्दे उन्हें मदद दे रहे थे। एक तरफ सरकार से भागता नायक था दूसरी तरफ आशाएं जगाता हुआ हीरो, लोगों ने दूसरे पर भरोसा जताया। वाराणसी और अमेठी की जंग ने सारा कुछ बहुत साफ-साफ कह दिया है। इन परिणामों के बावजूद आम आदमी पार्टी के चरित्र में बहुत परिवर्तन आता नहीं दिख रहा है। वहां मंथन और चिंतन के बजाए इस्तीफों का दौर जारी है। जबकि सच्चाई यह है कि राजनीति में कुछ भी खत्म नहीं होता। एक नवोदित पार्टी  होने के नाते उसे मिले वोट और सफलताएं बेमानी नहीं हो जाते हैं। राजनीतिक विमर्श में चाहे-अनचाहे आम आदमी पार्टी एक खास जगह घेर रही है। मीडिया, लेखक समुदाय में उसके प्रति सदभाव रखने वाले क्रांतिकारियों की कमी भी नहीं है। किंतु सत्ता जाने की विकलता और सत्ता पाने लिप्सा को आज भी यह दल छिपा नहीं पा रहा है। जब कांग्रेस के खिलाफ जनरोष था तो वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़े रहे थे, अब मोदी सरकार की निगहबानी का समय है तो वे आपस में लड़ रहे हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी को अपनी कार्यशैली और फैसलों पर फिर से विचार करने की जरूरत है। वरना भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह वे भी ऐतिहासिक भूलें करते और उनके लिए क्षमा मांगते रह जाएंगें।
(लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

शनिवार, 24 मई 2014

सशक्त समाज के लिए जरूरी है स्वतंत्र पत्रकारिता


                                   


लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक 'देश कठपुतलियों के हाथ में' विमोचित 
ग्वालियर, 24 मई। पत्रकारिता सिर्फ सूचनाओं का संप्रेषण नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता में संवेदनशील लेखन होना चाहिए। आज देश में जिस प्रकार से पत्रकारिता और राजनीति में विकृतियां उत्पन्न हो रही हैं, उनके मूल में विदेशी पूंजी निवेश है। इसलिए सशक्त समाज के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता बहुत आवश्यक है। वर्तमान में पत्रकार परतंत्र हो गए हैं, जब तक पत्रकारों को लिखने की आजादी प्राप्त नहीं होगी तब तक हम सशक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। यह बात गणेश शंकर विद्यार्थी मंच एवं जीवाजी विश्वविद्यालय दूरस्थ शिक्षण अध्ययनशाला के संयुक्त तत्वावधान में 'पत्रकारिता, राजनीति और देश' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में आमंत्रित वक्ताओं ने कही। गालव सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के प्रोडक्शन सहायक लोकेन्द्र सिंह राजपूत की पुस्तक 'देश कठपुतलियों के हाथ में' का विमोचन भी किया गया। 
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि गांधीवादी विचारक एवं चिंतक रघु ठाकुर थे। जबकि अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद सृजनपीठ उज्जैन के निदेशक जगदीश तोमर ने की। विशिष्ट अतिथियों के रूप में आईटीएम विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रमाशंकर सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष एवं राजनीतिक विश्लेषक संजय द्विवेदी उपस्थित थे। इस मौके पर स्वदेश के सम्पादक लोकेन्द्र पाराशर दूरस्थ शिक्षण अध्ययनशाला के उप निदेशक प्रो. हेमंत शर्मा एवं पुस्तक के लेखक लोकेन्द्र सिंह भी मंचासीन थे।

राजनीति और पत्रकारिता एक सिक्के के दो पहलू : रघु ठाकुर
गांधीवादी विचारक एवं चिंतक रघु ठाकुर ने कहा कि पत्रकारिता और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इन्हें धर्म के रास्ते पर चलाना चाहिए। धर्म का तात्पर्य यह है कि वह समाज की पीड़ा को समझें। उन्होंने पत्रकारिता की आजादी की बात करते हुए कहा कि आज देश में लिखने वाले परतंत्र हो गए हैं। जब तक पत्रकारों को लिखने की आजादी नहीं होगी तब तक हम सशक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। श्री ठाकुर ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि आज राजनीति और पूंजी में एक रिश्ता बन गया है। राजनीति और पूंजी के घालमेल के कारण आज समाज प्रभावित हो रहा है। उन्होंने कहा कि पत्रकारों को ऐसा लेखन करना चाहिए जिससे समाज सही दिशा पा सके। उन्होंने कहा कि मीडिया संस्थानों के मालिक निजी स्वार्थ देखते हैं। पत्रकारों के भले के लिए मालिक नहीं सोच रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अब तक देश के प्रमुख समाचार पत्रों ने मजीठिया आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की हैं। मजीठिया से संबंधित कोई समाचार भी समाचार-पत्रों में भेजा जाए तो एक लाइन भी नहीं छपेगा। उन्होंने मीडिया के वर्तमान स्वरूप को रेखांकित करते हुए कहा कि आज के मीडिया के लिए खबर के मुख्य आधार हैं- क्राइम, कॉमेडी, क्रिकेट, सिनेमा और सेलेब्रिटी। सामाजिक सरोकार आज पत्रकारिता में कहीं पीछे छूट गए हैं। इसके साथ ही उन्होंने चुनाव आयोग पर सवाल उठाते हुए कहा कि चुनाव आयोग ने आम चुनाव में खर्च की सीमा तय कर दी ७० लाख रुपए। ऐसे में क्या कोई आम आदमी चुनाव लड़ सकेगा। क्या आम आदमी चुनाव में खड़े होकर ७० लाख रुपए खर्च करने के क्षमता रखने वाले व्यक्ति से मुकाबला कर सकेगा। 

सवालों से मजबूत होता है लोकतंत्र : संजय द्विवेदी  
राजनीतिक विश्लेषक और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि हिन्दुस्तान को समझने वालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। उन्होंने कहा कि जनता को मीडिया और राजनेताओं से सवाल करते रहना चाहिए क्योंकि सवालों से ही लोकतंत्र मजबूत होता है। निष्पक्ष होकर पत्रकार को अपनी कलम चलानी चाहिए। किसी पार्टी विशेष से जुड़कर लिखेंगे तो उस लेखन में वह धार नहीं होगी। किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर लेखन करना भी ठीक नहीं। चुनाव के दौरान कई लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी सुपारी लेकर कलम चला रहे थे कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे। क्यों नहीं बनने देंगे, इसका किसी के पास वाजिब जवाब नहीं था। यह तरीका ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता, राजनीति और देश आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। पत्रकारिता देश हित में होनी चाहिए। श्री द्विवेदी ने मुजफ्फरनगर के दंगों का जिक्र करते हुए बताया कि मुजफ्फरनगर के दंगों की रिपोर्टिंग गलत तरीके से की गई। इसका नतीजा यहा रहा कि स्थितियां और अधिक बिगड़ीं।  
स्वतंत्र पत्रकारिता लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है : रमाशंकर सिंह
कार्यक्रम के विशिष्ट आईटीएम विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रमाशंकर सिंह  ने कहा कि महात्मा गांधी भी मानते थे कि स्वतंत्र पत्रकारिता लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है। उन्होंने कहा कि आज मीडिया और राजनीति में गहरा रिश्ता हो गया है, जिसे समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि आज शेयर बाजार, सट्टा और सर्वे कई गलत तस्वीरें समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं, जिससे समाज प्रभावित होता है। उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान तभी आगे बढ़ेगा जब लोगों में सामाजिक न्याय के लिए भूख पैदा होगी। पत्रकारिता का यह दायित्व है कि लोगों में सामाजिक चेतना की भूख पैदा करे। 

कठपुतलियों की डोर अपने हाथ में ले जनता : लोकेन्द्र पाराशर
स्वदेश के सम्पादक लोकेन्द्र पाराशर ने कहा कि मीडिया और पत्रकारिता में भिन्नता है लेकिन समाज को दोनों एक ही दिखाई देते हैं। उन्होंने कहा कि अगर मीडिया प्रबंधन हो रहा है तो उसमें पत्रकारिता नहीं है। उन्होंने कहा कि समाज का दर्द लिखने के लिए लेखक या पत्रकार के मन में आग होनी चाहिए। यह आग एक से दूसरे के मन में जलनी चाहिए। पुस्तक का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि देश कठपुतलियों के हाथ में नहीं होना चाहिए। अगर कठपुतलियों के हाथ में देश है भी तो इन कठपुतलियों की डोर हमारे हाथ में होनी चाहिए, किसी और के हाथ में डोर नहीं होनी चाहिए।

लोकेन्द्र ने देश के मानस को झकझोरा है : जगदीश तोमर
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रेमचंद सृजन पीठ के निदेशक एवं वरिष्ठ साहित्यकार जगदीश तोमर ने पत्रकारिता और पत्रकार को समाज का महत्वपूर्ण अंग बताया। उन्होंने कहा कि आजादी के समय भी हर पत्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका में था। पत्रकार अच्छे से काम कर सके, सकारात्मक पत्रकारिता कर सके इसके लिए समाज को उसका साथ देना चाहिए। पत्रकारिता के मूल्यों में समय के साथ कमी आई है लेकिन यह सही नहीं है कि पत्रकारिता में सब बुरा ही बुरा है। पत्रकारिता एकदम भ्रष्ट हो गई है। पत्रकारिता में अब भी अच्छे लोग हैं। उनका साथ देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता आज भी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और वह अपना धर्म आज भी निभा रही है। श्री तोमर ने 'देश कठपुतलियों के हाथ मेंÓ पुस्तक के लेखक एवं युवा साहित्यकार लोकेन्द्र सिंह को बधाई देते हुए कहा कि लोकेन्द्र ने अपने आलेखों के माध्यम से देश के मानस को झकझोरने की कोशिश की है। उनके लेखों में सकारात्मकता है। पत्रकारिता को सही मायने में एक विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए। लोकेन्द्र ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से उसी विपक्ष की भूमिका निभाई है। उन्होंने कहा कि लोकेन्द्र सिंह के आलेख ही नहीं बल्कि उनकी कहानियां भी विचारोत्तेजक हैं। वे लेखक हैं, कहानीकार हैं, कवि हैं। लोकेन्द्र बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं।

प्रबुद्धजन रहे मौजूद : 
पुस्तक विमोचन समारोह और संगोष्ठी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत सहकार्यवाह यशवंत इंदापुरकर, दूरदर्शन केन्द्र ग्वालियर के निदेशक संतोष अवस्थी, वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र श्रीवास्तव, सुरेश सम्राट, राकेश अचल, देव श्रीमाली, जनसम्पर्क विभाग के संयुक्त संचालक डॉ. एच.एल. चौधरी, सुभाष अरोरा, प्रो. ए.पी.एस. चौहान, डॉ. केशव ङ्क्षसह गुर्जर, प्रो. अयूब खान सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार एवं गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। इससे पूर्व कार्यक्रम का शुभारंभ अतिथियों द्वारा मां सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलन कर किया गया। अतिथियों का स्वागत हरेकृष्ण दुबोलिया, विभोर शर्मा, गिरीश पाल, विवेक पाठक द्वारा किया गया। कार्यक्रम का संचालन जयंत तोमर ने एवं आभार दूरस्थ शिक्षण अध्ययन के उप निदेशक प्रो. हेमंत शर्मा ने व्यक्त किया।

शुक्रवार, 23 मई 2014

असहमतियों से ही खूबसूरत बनता है लोकतंत्र

अनंतमूर्ति को धमकाना या उन्हें करांची का टिकट भेजना निंदनीय
-संजय द्विवेदी

 देश के ख्यातिनाम लेखक एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्री यू.आर. अनंतमूर्ति के चुनाव पूर्व दिए गए बयान (मोदी प्रधानमंत्री बने तो मैं देश छोड़ दूंगा) नाते उन्हें डराना-धमकाना या करांची का बुक कराने की हरकतें शर्मनाक हैं। जबकि श्री अनंतमूर्ति पहले ही कह चुके हैं कि यह बात उन्होंने भावना में बहकर कही थी। अपने ताजा बयान में उन्होंने साफ कहा है कि- इस बार मेरा मानना है कि मोदी युवाओं के बीच काफी आकर्षक थे क्योंकि वे बढ़ते चीन, अमेरिका या किसी देश की तरह मजबूत राष्ट्र चाहते थे। मेरा मानना है कि यह राष्ट्रीय भावना है जिससे वे सत्ता में आए हैं। (जनसत्ता,22 मई,2014)
     श्री अनंतमूर्ति यह बयान न भी देते तो भी उन्हें सम्मान और सुरक्षा मिलनी चाहिए। वे हमारे समय के एक बड़े लेखक हैं। असहमति किसी भी लोकतंत्र का सौंदर्य है। हमारे परिवार के बुर्जुगों और विद्वानों का सम्मान तो हमें हमारी संस्कृति ही सिखाती है। कई बार बड़ों का गुस्सा ही आशीष बन जाता है। जो उन्हें कराची का टिकट भेज रहे हैं- वे भारत को नहीं समझते, ना ही इसकी लोकतांत्रिकता का मान करते हैं। वे राजनीतिक नहीं, असामाजिक तत्व हैं और खबरों में आने के लिए ऐसी हरकतें कर रहे हैं। लेखक बिरादरी को अपने हीरो अनंतमूर्ति के साथ खड़ा होना चाहिए। स्वयं प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि चुनाव बीत चुके हैं, अब कड़वी बातों और दलगत विवादों का वक्त खत्म हो चुका है। हमें मिलकर इस देश के सपनों और युवाओं की आकांक्षाओं के लिए काम करना है। जनता जनार्दन ने जब श्री नरेंद्र मोदी को अभूतपूर्व बहुमत दे दिया है, तो उनके चाहने वालों को भी अपेक्षित संयम और गरिमा का परिचय देना चाहिए,जैसा कि श्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों और कार्यों में दे रहे हैं। क्योंकि संवाद, आलोचना और चर्चा से ही कोई लोकतंत्र जीवंत होता है।
     मैंने श्री अनंतमूर्ति के पूर्व विवादित बयान पर स्वयं एक लेख लिखकर इसकी आलोचना की थी। देखें लिंक-http://sanjayubach.blogspot.in/2014/04/blog-post_9.html किंतु समय के इस मोड़ पर मैं अपनी वैचारिक असहमति के बावजूद आदरणीय अनंतमूर्ति जी के साथ खड़ा हूं। उनके स्वस्थ और दीर्ध जीवन की कामना करता हूं। ऐसे सम्मानित बुर्जुगों की मौजूदगी ही हमारे लेखक समुदाय का संबल है। आम चुनावों ने साबित कर दिया कि देश की जनता में किस तरह की बैचेनियां मौजूद हैं। हमारे लेखक और पत्रकार समुदाय के लोग भी जनता के बीच पल रही इन बैचेनियों, आलोड़नों और चिंताओं से अपरिचित नजर आए या किसी खास विचारधारा के खूंटे से बंधे होने के कारण वातावरण को जानकर भी अनजान बनने का अभिनय करते नजर आए। जबकि इससे लेखक समुदाय और मीडिया की भूमिका भी संदेह के दायरे में आ गयी है। चुनाव में फैसले का हक जनता-जर्नादन को है। वही किसी व्यक्ति को सत्तासीन करती है या सड़क पर ला देती है। ऐसे में जनता के फैसले का मान रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। हमें समझना होगा कि यह लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनता ने ही पूर्व सत्ताधीशों को बेदखल कर विपक्ष को सत्ता सौंपी है। इस सबके लिए हमारी महान जनता की न्यायबुद्धि जिम्मेदार है। इसलिए जनता के इस विवेक या न्यायबुद्धि पर सवाल उठाना कहां की बुद्धिजीविता है?
   किसी व्यक्ति की नीयत पर सवाल उठाने के पहले यह सोचना होगा कि ऐसी अन्य घटनाओं के जिम्मेदार अन्य लोगों पर भी क्या इसी तरह हम इतने ही प्रश्चनाकुल दिखते हैं। दंगें गुजरात में हों या उप्र में ये मानवता के प्रति सबसे जघन्य अपराध हैं। किंतु चयनित दृष्टिकोण से टिप्पणी करने वाले हमारे लेखकों को गुजरात का 2012 का दंगा याद आता है, लेकिन उसके बाद और उसके पहले हुए दंगें वे भूल जाते हैं। राष्ट्रवाद के अधिष्ठान पर खड़ी भारतीय जनता पार्टी को यह समझना होगा कि भारतीय विचार किसी को समाप्त करने का अधिनायकवादी विचार नहीं है। यह विचार तो असहमतियों के बीच ही सबको साथ लेकर चलता और फलता-फूलता है। देश की आकांक्षाओं के प्रतिनिधि बन चुके श्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रधानमंत्री मनोनीत होने के बाद इसी तरह की अपेक्षित गरिमा का परिचय दिया है। उन्हें चाहने वाले और उनके समर्थकों को यह ध्यान रखना होगा कि वे कोई भी आचरण न करें जिसमें हिंसक भाव व विचार शामिल हों। जिन्हें नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में कबूल नहीं थे, उन्हें देश की जनता ने जवाब दे दिया है। राजनीति आज सिद्धातों व विचारों के आधार पर नहीं सुविधा और समीकरणों के आधार पर की जा रही है। नरेंद्र मोदी को जवाब देने के लिए बिहार में नितीश कुमार और लालू प्रसाद यादव का साथ आना इसका उदाहरण है। विजय को बेहद गरिमा से स्वीकारना और उसके अनुरूप सार्वजनिक आचरण करना बेहद जरूरी है। जीत की खुशी में आप कतई न भूलें कि जिन चीजों के लिए आप दूसरे दलों की आलोचना करते आए वही आप भी करने लगें। क्योंकि हिंसक राजनीति का विस्तार अंततः आपके खिलाफ भी जाता है। भरोसा न हो तो पश्चिम बंगाल से सीखिए। वहां वाममोर्चा की हिंसा, अधिनायकवाद और अपने विरोधियों को कुचल डालने की राजनीति का क्या हुआ? हुआ यह कि आज उसी हिंसा, अधिनायकवाद का शिकार खुद वाममोर्चा के कार्यकर्ता हो रहे हैं। तृणमूल उन्हीं के प्रवर्तित मार्ग पर चलकर ज्यादा हिंसक, ज्यादा अधिनायक और ज्यादा अलोकतांत्रिक व्यवहार करती हुयी दिखती है।
    ऐसे में एक समर्थ भारत बनाने की आकांक्षा से लैस भारतीय युवाओं पर भरोसा कीजिए। मानिए कि वे इस तरह की राजनीति, राजनीति प्रेरित लेखन से उब चुके हैं। वे नकारात्मकता से मुक्ति चाहते हैं। सिर्फ आलोचना और सिर्फ निंदा से अलग हटकर एक सकारात्मक राजनीतिक-सामाजिक परिवेश को बनाने की जरूरत है। सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध तो हो किंतु वह चयनित दृष्टिकोण के आधार पर न हो। सरकारें ज्यादा जवाबदेह बनें, व्यवस्था पारदर्शी बने और हम वास्तविक लोकतंत्र का औदार्य हासिल कर सकें, उस ओर यात्रा करने की आवश्यकता है। यह काम आतंक हिंसा और लेखक समुदाय या मीडिया को नियंत्रित करने से नहीं होगा। वे अपना काम करें और राजनीति अपना काम करे। लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों और कवियों ने हमेशा समाज की आवाज को मुखरित करने का काम किया है। उनके आकलन में गलती भी हो सकती है। ऐसे में असहमतियों को आदर करने का भाव तो हमें रखना ही होगा। कई बार वैचारिक तौर पर आग्रह प्रखर होने के नाते यह दुराग्रह की सीमा तक चला जाता है। सत्य को स्वीकारने में भी संकट दिखता है। लेखक की पार्टी निष्ठा उसके लेखन पर भारी पड़ जाती है। यहीं संकट खड़ा होता है। किंतु हम एक लोकतंत्र में हैं, यह समझना होगा।
   हमारे समय के एक बड़े लेखक- पत्रकार श्री प्रभाष जोशी स्वयं कहते थे-पत्रकार की पार्टी लाइन तो नहीं, पोलिटिकल लाइन जरूर होनी चाहिए। यह बात हमें हमारी जिम्मेदारियां बताती है, सीमाएं भी बताती है। यह पोलिटिकल लाइन हमें बताती है कि हम दल के गलत कामों की आलोचना भी कर सकते हैं। नीर-क्षीर-विवेक एक लेखक की पहली शर्त है। हमारे उच्चतम न्यायालय ने भी हमें रास्ता बताया कि लोकतांत्रिक होने के मायने क्या हैं। एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हमारे देश में सवा करोड़ लोग हैं, तो सवा करोड़ विचार भी हो सकते हैं। लेकिन संकट यह है कि हम अपने, विचारधाराओं, दलों और निजी आग्रहों में इतने बंधे हुए हैं कि हमारा सच ही हमें सच लगता है। हम विरोधी विचार को सुनने के लिए भी तैयार नहीं है। सुझाव हमें आलोचना लगते हैं, आलोचना हमें षडयंत्र प्रतीत होने लगी है। भारत के ध्वज में तीन रंगों के प्रति प्रतिबद्धता ही हमें रास्ता दिखा सकती है। अपने लोगों और इस माटी के प्रति हमारे दायित्वबोध का भान करा सकती है। क्योंकि कोई भी लोकतंत्र इसी तरह की सहभागिता, संवाद और संवदनशीलता से सार्थक बनता है। हिंदुस्तान के नए प्रधानमंत्री जब सवा करोड़ हिंदुस्तानियों की बात कर रहे हैं तो जाहिर है समूचा भारतीय महापरिवार उनकी चिंता के केंद्र में है। ऐसे में एक लेखक, एक पत्रकार या उनका एक विरोधी भी असुरक्षा महसूस करे तो हम सबको उसके साथ खड़ा ही होना चाहिए।
(लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं)



शनिवार, 17 मई 2014

भागवत, भाजपा और मोदी!



     सफल रहा आरएसएस का नरेंद्र मोदी प्रयोग
-संजय द्विवेदी
           इस बात पर बहस हो सकती है कि भारतीय जनता पार्टी की इस ऐतिहासिक विजय का सूत्रधार कौन है। टीवी चैनलों की अनंत और निष्कर्षहीन बहसें भी इस सत्य को पूरा उजागर नहीं कर सकतीं। किंतु राजनीति के पंडितों को नरेंद्र मोदी ने 16 मई के अपने बडोदरा और अहमदाबाद के भाषणों में विश्लेषण के अनेक सूत्र दिए। जिसमें सबसे प्रमुख यह कि कांग्रेस पार्टी छोड़कर यह पहली ऐसी सरकार है, जिसमें किसी दल ने अकेले दम पर बहुमत पाया है। वे याद दिलाते हैं कि 1977 की जनता पार्टी की सरकार भी अनेक कांग्रेस विरोधी दलों का गठबंधन ही थी। किंतु परदे के पीछे के नायकों को देखें तो इस जीत ने उन्हें भी मुस्कराने का अवसर दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए शायद यह क्षण सबसे अधिक प्रसन्नता का है, जब वह दूसरी बार किसी स्वयंसेवक को भारत जैसे विशाल राष्ट्र का नेतृत्व करता हुआ देख रहा है। किंतु संघ परिवार की खुशी का सबसे बड़ा कारण यह है कि उसके विचार परिवार से जुड़े एक दल ने अपने दम पहली बार बहुमत पाया है।
    संघ एक ऐसा संगठन है जो राजनीतिक क्रियाकलापों पर मर्यादा में रहते हुए ही अपनी सक्रियता का प्रदर्शन करता है। आप ध्यान दें कि इस चुनाव में अपनी अतिसक्रियता के बावजूद आरएसएस के सरसंघचालक को एक बार कहना पड़ा कि हमारा काम नमो- नमो करना नहीं हैं। यह साधारण वक्तव्य नहीं था और यह ध्यान दिलाने के लिए था कि उसके स्वयंसेवक अपनी सीमाएं और मर्यादाएं न भूलें। बावजूद इसके यह मानना पड़ेगा कि इस चुनाव में जैसी सक्रियता संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने दिखाई वह अभूतपूर्व थी। इसका श्रेय लेने से वे बचने की कोशिश भी करेंगें और टीवी पर दिखने वाले उनके प्रवक्ताओं में एक वीतरागी विचार भी दिखेगा। किंतु यह तय मानिए कि यह चुनाव दरअसल संघ का खुद का रचा हुआ प्रयोग था जिसमें वह सफल हुआ।
     भारतीय जनता पार्टी 2004 और 2009 की पराजय से निष्प्राण होकर पड़ी थी। संघ अपनी सीमित राजनीतिक आकांक्षाओं के बावजूद अपने सम्मान और शुचिता को लेकर बेहद सजग संगठन है। कांग्रेस के वाचाल नेताओं द्वारा उस पर किए जा रहे हमले और हिंदू आतंकवाद जैसे गढ़े गए नए शब्दों से वह निरंतर आहत हो रहा था। कांग्रेस की इस संघ विरोधी फौज को लगता था कि इससे कांग्रेस अध्यक्षा प्रसन्न होंगीं। जबकि इतिहास की ओर नजर डालें तो जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक संघ नेतृत्व का संवाद कांग्रेस से कभी इतना कड़वाहट भरा नहीं था। संघ परिवार ने कभी सीधे तौर पर नेहरू-गांधी परिवार पर हमले नहीं बोले। जबकि कांग्रेस के सोनिया समय में यह सारा कुछ बिगड़ता दिखा।पस्तहाल भाजपा कांग्रेस की बी टीम सरीखा व्यवहार कर रही थी। भाजपा नेतृत्व एक गहरी दिशाहीनता का शिकार था और सत्ता जाने की व्याकुलता उसमें साफ दिखती थी। लालकृष्ण आडवानी जैसे शीर्ष नेता उसके कांग्रेसीकरण पर चिंताएं तो जता रहे थे पर बिखर रहे परिवार को लामबंद कर पुनः खड़ा करने के आत्मविश्वास से वे खाली थे। ऐसे में संघ प्रमुख मोहन भागवत का एक वक्तव्य आता है कि भाजपा का अगला अध्यक्ष दिल्ली से नहीं होगा जिसे उन्होंने डी-4 नाम दिया था। यह दरअसल संघ के मैदान में उतरकर खड़े होने और देश को सरकारविहीनता और अराजकता से मुक्त कराकर एक समर्थ नेतृत्व एवं सरकार देने की दिशा में एक शुरूआत थी। इसके पूर्व 1975 के आपातकाल विरोधी आंदोलन में अपनी सक्रियता से संघ ने 1977 में जनता पार्टी सरकार बनाने में योगदान दिया था। लंबे समय बाद उसकी सक्रियता राममंदिर आंदोलन में नजर आई जब अटलजी को सरकार बनाने का अवसर मिला। किंतु राजग ने उसके सपनों पर पानी फेर दिया। वाजपेयी की सरकार से संघ के मतभेद आर्थिक नीतियों सहित अनेक मामलों पर सामने दिखने लगे थे। ऐसे में संघ ने अपने को अपनी गतिविधियों तक सीमित कर लिया और राजनीतिक विमर्शों से एक मर्यादित दूरी दिखाने लगा। एक अराजनैतिक और सांस्कृतिक संगठन होने के नाते उसकी गतिविधियों का समाज जीवन पर व्यापक प्रभाव है। इसे देखते हुए कमजोर भाजपा के बजाए कांग्रेस के कुछ नेता संघ को ही निशाने पर लेने लगे। इसी दौर में हिंदू आतंकवाद शब्द को प्रायोजित किया गया और संघ को एक ऐसे खतरे की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा कि जिसके बढ़ते प्रभाव से देश टूट जाएगा। संघ की ओर से मुस्लिम संपर्क का काम देखने वाले इंद्रेश कुमार जैसे प्रचारकों पर आरोप लगाने के प्रयास हुए और बम धमाकों में अनेक  निर्दोष स्वयंसेवकों को फंसाने की कोशिशें हुयीं। यह सारा कुछ इतने सधे हुए अंदाज में हो रहा था कि लगने लगा कि गृह मंत्रालय एक गलत विषय को जनता के बीच स्थापित कर ले जाएगा। राजनीति के इस घिनौने स्वरूप के खिलाफ संघ की चिंताएं सामने आ रही थीं किंतु उसका स्वयं का पोषित संगठन भाजपा पस्तहाल था। काडर निराश था और ऐसे समय में दिल्ली में नितिन गडकरी की ताजपोशी के माध्यम से संघ ने एक नया मार्ग पकड़ने के लिए भाजपा को प्रेरित किया। बाद में नितिन गडकरी को कुछ आरोपों के चलते दूसरा कार्यकाल न मिल सका और राजनाथ सिंह को यह काम सौंपा गया। आप देखें तो भाजपा में यह करना साधारण नहीं था। दिल्ली की राजनीति में अरसे काबिज राजनेता नए नेतृत्व को स्वीकारने को तैयार नहीं थे। कांग्रेस पर हमला करने और स्वयं को वास्तविक प्रतिपक्ष साबित करने में भाजपा विफल हो चुकी थी।
    भाजपा संगठन में बदलाव के बाद एक ऐसे चेहरे की तलाश थी जो संघ के प्रयोग को अंजाम तक ले जा सके। तमाम असहमतियों के बावजूद संघ ने साहस दिखाकर नरेंद्र मोदी को भाजपा के केंद्र में स्थापित कर दिया। भाजपा के भीतर रूठने-मनाने और पत्र लेखन के सिलसिले के बावजूद संघ ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की सलाह भाजपा को दी। समय ने साबित किया संघ ने जो निर्णय लिया था वह कितना सकारात्मक और भाजपा के लिए वरदान साबित हुआ। इस बीच दिल्ली में हुए बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के आंदोलनों ने एक नई उर्जा का संचार किया और देश में व्यापक असंतोष का सृजन हुआ। कांग्रेस की सरकार की विफलताएं, मंत्रियों के बड़बोलेपन और अहंकारजन्य प्रस्तुति ने इस असंतोष को बढ़ाने का ही काम किया। नरेंद्र मोदी का नेतृत्व पाकर भाजपा का सोया हुआ काडर जाग उठा। उसमें उम्मीदें हिलोरें लेने लगीं।
   संघ ने अपने रणनीतिकारों भैया जी जोशी, सुरेश सोनी, दत्तात्रेय होसबाले, डा.कृष्णगोपाल, मनमोहन वैद्य,राम माधव की क्षमताओं का पूरा उपयोग करते हुए विविध क्षेत्रों की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी। संघ के क्षेत्र प्रचारकों ने अपने-अपने राज्यों में तगड़ी व्यूह रचना की और माइक्रो मानिटरिंग से एक अभूतपूर्व वातावरण का सृजन किया। चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने और शत प्रतिशत मतदान के लिए संपर्क का तानाबाना रचा गया। जिसका परिणाम है कि सूदूर कन्याकुमारी से लेकर लद्दाख से भी भाजपा के सांसद चुनकर संसद में पहुंचे हैं। संघ के काडर की सक्रियता ने देश में जहां मत प्रतिशत बढ़ाने में मदद की, वहीं नरेंद्र मोदी के समझौताविहीन और आक्रामक तेवरों ने सामान्य मतदाताओं के भीतर भरोसा जगाया। नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व को गढ़नेवाला संघ ही उन्हें अब एक नायक के रूप में पेश कर रहा था, जिसके पास आधुनिक भारत की चुनौतियों और समस्याओं का समाधान था। 2002 से हमले झेल रहे नरेंद्र मोदी का चयन वास्तव में संघ के लिए एक बहुत बड़ा जुआ था, जिसमें हारने पर भाजपा के लिए एक बड़ा संकट खड़ा होता और कम सीटें आने से भाजपा फिर उसी दौर में पहुंच जाती जहां समझौते, समर्पण और चयनित दृष्टिकोण से राजनीति की जाती है। बिहार से आए नीतिश कुमार जैसे नेताओं के विरोध को दरकिनार कर संघ ने एक नई सामाजिक अभियांत्रिकी का पूरा ताना-बाना बुना जिसमें उप्र और बिहार को अपनी राजनीति का केंद्र बनाया। यह तथ्य सामने उजागर नहीं हैं कि किसने नरेंद्र मोदी को बनारस से लड़ाने का फैसला किया किंतु इस एक घटना ने भाजपा को चुनाव-युद्ध के केंद्र में ला दिया। संघ परिवार ने जहां अपने खांटी स्वयंसेवक और पूर्व प्रचारक को मैदान में उतारा वहीं भाजपा के विरोधियों के पास मोदी विरोध के किस्से तो थे किंतु विकल्प नदारद था।
   नरेंद्र मोदी ने भी कांग्रेस और गांधी परिवार के प्रति रियायत न बरतते हुए अपने राजनीतिक विरोधियों की हर गलत बात पर सवाल खड़े किए। वे चुनाव अभियान के ऐसे नायक बने जिसे सुनने को लोग उमड़ रहे थे। अपने भाषणों से वे जनता को राजनीतिक तौर पर प्रशिक्षित कर रहे थे। यूं लगा कि समय का चक्र काफी पीछे घूम गया है, जब अपने नेताओं के सुनने-देखने के लिए लोग दूर-दूर जाया करते थे। मोदी को लेकर पैदा हुयी दीवानगी अकारण नहीं थी। यह संघ की कार्यशाला में पके हुए एक ऐसे व्यक्ति के प्रति जनविश्वास का प्रगटीकरण था जिसके मित्र और शत्रु प्रकट थे, जो अपने विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को छिपाता नहीं था, जो परंपरा और आधुनिकता को एक साथ साधते हुए 21वीं सदी के भारत का नायक बनने की क्षमता से लैस था। वह एक ऐसा नायक था जो अपनी विरासत और परंपरा को हिकारत से नहीं देख रहा था। जो मां के चरण छू-कर हर काम की शुरूआत तो करता था, किंतु परिवार के मोह से मुक्त था। जिसने उसे मिले हुए हर काम को पूरी तनदेही से पूरा किया और आगे की मंजिल पर निगाह रखी। युगों में ऐसे करिश्मे घटित होते हैं। भारतीय राजनीति में करिश्माई व्यक्तित्व के रूप में पं. नेहरू, इंदिरा गांधी, अटलबिहारी वाजपेयी और उसके बाद कौन तो आपको नरेंद्र मोदी ही याद आएंगें। नरेंद्र मोदी ने यह सब करते हुए भी अपने विचार के प्रति आग्रहों को कभी छुपाया नहीं। वे अपने विचारों के प्रति ईमानदार,कार्य के प्रति समर्पित और एक बेहद मेहनती इंसान हैं। इसलिए जब उन्होंने खुद को एक मजदूर नंबर-1 बताया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। अपने साधारण जीवन, अप्रतिम वकृत्व कला, विचारधारा के प्रति समर्पण और टीम भावना ने उन्हें यहां तक पहुंचाया है। याद कीजिए पस्तहाल भाजपा के बारे में कभी संघ प्रमुख ने कहा था कि "भारतीय जनता पार्टी में जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं है। ...भाजपा का पतन नहीं हो सकता, उसमें राख से उठ खड़े होने का माद्दा है। आज इतिहास की इस घड़ी में जब नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री चुने जा चुके हैं तो राजनीतिक पंडितों को संघ के इस नरेंद्र मोदी प्रयोग को ठीक से समझने और व्याख्यायित करने की आवश्यकता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं, लेखक के विचार निजी हैं।)


शुक्रवार, 16 मई 2014

नरेंद्र मोदीः सपनों को सच करने की जिम्मेदारी



-संजय द्विवेदी
         भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय ने सही मायने में राजनीतिक विश्वलेषकों के होश उड़ा दिए हैं। यह इसलिए भी है कि क्योंकि भारतीय जनता पार्टी जैसे दल को लंबी राजनीतिक छूआछूत का सामना करता पड़ता है और कथित सेकुलरिज्म के नारों के बीच नरेंद्र मोदी का चेहरा लेकर वह बहुत आश्वस्त कहां थी? समूचे हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से से भाजपा की अनुपस्थिति और एक बड़ी दुनिया का उसके खिलाफ होना ऐसी स्थितियां थीं जिनसे लगता नहीं था कि भाजपा अपने बूते पर 272 का जादुई आंकड़ा पार कर पाएगी। चुनावी दौर में मेरे दोस्त और कलीग आशीष जोशी ने कहा आप लिखकर दीजिए कि भाजपा को अपने दम पर कितनी सीटें मिलेंगीं। एक अभूतपूर्व वातावरण की पदचाप को महसूस करते हुए भी, बंटें हुए हिंदुस्तान की अभिव्यक्तियों के मद्देनजर मैंने 240 प्लस लिखा और दस्तखत किए। परिणाम आए तो भाजपा 282 सीटें पा चुकी थी। आकलन हम जैसे कथित विश्वलेषकों का ही फेल नहीं हो रहा था। खुद पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इंडिया टुडे को एक इंटरव्यू में कहा था कि हम यूपी में 50 सीटें जीतेंगें, इस अभियान के नायक अमित शाह थोड़ा आगे बढ़े तो सीटों की संख्या 57 तक ले गए। किंतु परिणाम बता रहे हैं कि उप्र से भाजपा को 73 सीटें मिल चुकी हैं। सच मानिए, कौन यह कहने की स्थिति में था कि बसपा जैसी पार्टी का उप्र में खाता नहीं खुलेगा। दिल्ली में आप को एक भी सीट नहीं मिलेगी। कांग्रेस देश में 44 सीटों पर सिमट जाएगी।
     सही मायने में यह अभूतपूर्व चुनाव थे जहां एक ऐतिहासिक संदर्भ जुड़ता नजर आया कि कांग्रेस के अलावा भाजपा पहली ऐसी पार्टी बनी जिसने अपने दम पर पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। 1977 के चुनाव में जनता पार्टी भी कई दलों का गठजोड़ थी, जिसे जयप्रकाश नारायण की जादुई उपस्थिति और आपातकाल के विरूद्ध पैदा हुए जनरोष ने खड़ा किया था। लेकिन 2004 के  लोकसभा चुनावों के बाद देश की राजनीति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिले हैं। देश की जनता अब जहां भी वोट कर रही है, आगे बढ़कर वोट कर रही है। उप्र के नागरिक इस मामले में अभूतपूर्व समझदारी का परिचय देते हुए दिख रहे हैं। आप याद करें कि वे बसपा की मायावती को अकेले दम पर सत्ता में लाते हैं। उनकी मूर्तिकला और पत्थर प्रेम से ऊब कर मुलायम सिंह के नौजवान बेटे पर भरोसा करते हैं और उन्हें भी अभूतपूर्व बहुमत देते हैं। उनकी सांप्रदायिक राजनीति और सपा काडर की गुंडागर्दी से त्रस्त होकर भाजपा को उप्र में लोकसभा की 73 सीटें देकर भरोसा जताते हैं। इतना ही नहीं ईमानदारी से काम कर रही सरकारें भी इसके पुरस्कार पा रही हैं बिहार में नितीश-भाजपा गठजोड़, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस,तमिलनाडु में जयललिता और उड़ीसा में भाजपा से अलग होकर लड़े नवीन पटनायक को भी वहां की जनता ने बहुमत दिया। यह संदेश बहुत साफ है कि अब जनता को काम करने वाली सरकारों का इंतजार है। मप्र, छत्तीसगढ़, गुजरात, गोवा, राजस्थान, पंजाब की भी यही कहानी है।
  यहां सवाल यह उठता है कि आखिर जनता के निर्णायक फैसलों के बावजूद हमारी राजनीति इन संदेशों को समझने में विफल क्यों हो रही है। आखिर क्यों वह राजनीति के बने-बनाए मानकों से निकलने के लिए तैयार नहीं है? क्यों अखिलेख यादव जैसे युवा राजनेता भी अपने पिता की राजनीतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर कुछ सार्थक नहीं कर पाते? ऐसे में जनता का भरोसा तो टूटता है ही, युवा राजनीति के प्रति पैदा हुआ आशावाद भी टूटता है। आप देखें तो परिवारों से आई युवा बिग्रेड का क्या हुआ? कश्मीर के युवा मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला ने ऐसा क्या किया कि उनके अब्बा हुजूर भी हार गए और पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। इसके अलावा राहुल गांधी के युवा बिग्रेड के सितारों में शामिल सचिन पायलट,भंवर जितेंद्र सिंह, आरपीएन सिंह, जतिन प्रसाद, अरूण यादव, मीनाक्षी नटराजन, संदीप दीक्षित का क्या हुआ? इससे पता चलता है कि देश की बदलती राजनीति, उसकी आकांक्षाओं, सपनों का भी इस बिग्रेड को पता नहीं था। अपनी जड़ों से उखड़ी और अहंकार जनित प्रस्तुति से दूर लोगों से संवाद न बना पाने की सीमाएं यहां साफ दिखती हैं। यह अहंकार और संवाद न करने की शैली पराजय के बाद भी नजर आती है। पराजय के बाद की गयी प्रेस कांफ्रेस में कांग्रेस उपाध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्षा की ओर गौर करें वे पराजय की जिम्मेदारी तो लेते हैं और नई सरकार को बधाई देते हैं पर भाजपा का नाम लेना भी उन्हें गवारा नहीं है। साथ ही कोई सवाल लिए बिना वहां से चले जाते हैं। इस तरह राजतंत्र में तो चल सकता है, किंतु लोकतंत्र का तो आधार ही संवाद व विनयभाव है।
   कांग्रेस की इस बुरी पराजय के पीछे सही मायने में यही संवादहीनता घातक साबित हुयी है। अपने चुने हुए प्रधानमंत्री के कामों का अपयश आखिर आपके खाते में ही जाएगा। मनमोहन सिंह पर ठीकरा फोड़ने की कवायदें धरी रह गयीं और अंततः आखिरी दिनों का चुनाव अभियान मां-बेटे की सरकार के खिलाफ जनादेश में बदल गया। यह साधारण नहीं है कि कांग्रेस संगठन व सरकार के समन्यव पर ध्यान नहीं दे पायी। पार्टी में तो पीढ़ीगत परिवर्तन हो रहे थे किंतु सरकार रामभरोसे चल रही थी। क्या ही अच्छा होता कि पार्टी की तरह सरकार भी एक पीढ़ीगत परिर्वतन से गुजरती। दूसरा चुनाव( 2009) जीतने के कुछ समय बाद कांग्रेस अपने प्रधानमंत्री को बदलकर एक संदेश दे सकती थी। सबसे बड़ा संकट यह है कि राहुल जिम्मेदारियां संभालने को तैयार नहीं थे और सरकार किसी को सौंपने का साहस भी उनका परिवार नहीं जुटा पाया। मनमोहन सिंह उनके लिए सबसे सुविधाजनक नाम थे, जिसका परिणाम आज सामने है। यह गजब था कांग्रेस संगठन तो आम आदमी की पैरवी में खड़ा था तो सरकार बाजार की ताकतों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में खेल रही थी। आंदोलनों से निपटने की नादान शैली, अहंकार उगलती भाषा में बोलते वाचाल मंत्री और कुछ न बोलते प्रधानमंत्री- कांग्रेस पर भारी पड़ गए। बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे और न जाने कितने जनांदोलनों ने कांग्रेस के खिलाफ वातावरण को गहराने का काम किया। अहंकार में डूबी कांग्रेस ने अपने शत्रुओं को बढ़ाने में भी खास योगदान दिया। राहुल गांधी के सामने यह समय एक कठिन चुनौती लेकर आया है। उनके लिए संदेश साफ है कि सुविधा की राजनीति से और चयनित दृष्टिकोण से बाहर निकलकर वे कांग्रेस को एक आक्रामक विपक्ष के रूप में तैयार करें। कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारें और खुद भी उतरें। दिल से बात करें और लिखा हुआ संवाद बंद करें। संगठन के मोर्चे पर खुद खड़ें हों और मैदान बहन प्रियंका गांधी के लिए खाली करें। कांग्रेस में नई पीढ़ी की आमद उन्होंने बढ़ाई है तो उन्हें अधिकार भी दें। जैसा कि देखा गया कि इस चुनाव में श्रीमती सोनिया गांधी की सीनियर टीम और राहुल गांधी की जूनियर टीम में एक गहरी संवादहीनता व्याप्त थी। अनुभव और जोश का तालमेल गायब था। एक टीम आराम कर रही थी तो दूसरी टीम मैदान में अपनी स्वाभाविक अनुभवहीनता से पिट रही थी। यह भी सही है कि एक चुनावों से कोई भी दल खत्म नहीं होता, इसे समझना है तो 1984 की भाजपा को याद करें जब उसकी दो सीटें लोकसभा में आयी थीं और 2014 में वह 282 सीटें लेकर सत्ता में वापस आयी है। एक सक्रिय और सार्थक प्रतिपक्ष की भूमिका कांग्रेस के लिए आज भी खाली पड़ी है।
    वहीं भारतीय जनता पार्टी के लिए यह चुनाव परिणाम एक ऐतिहासिक अवसर हैं। उसे इतिहास की इस घड़ी ने अभूतपूर्व बहुमत देकर देश के सपनों को सच करने की जिम्मेदारी दी है। इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी एक ऐसे नेता माने जा रहे हैं जो सूझबूझ, राजनीतिक इच्छाशक्ति और दृढ़ता की भावनाओं से लबरेज हैं। एक सफल नायक के सभी पैमानों पर वे गुजरात में सफल रहे हैं, चुनावी अभियान में भी वे अकेले ही सब पर भारी पड़े। अब सवा करोड़ हिंदुस्तानियों की आकांक्षाओं के वे प्रतिनिधि हैं। जनता का भरोसा बचाए और बनाए रखने की जिम्मेदारी मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तीनों की है। क्योंकि इन तीनों के मिले- जुले वायदों और प्रामाणिकता के आधार पर ही जनता ने उन्हें अपना नेतृत्व करने का अवसर दिया है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं, विचार निजी तौर लिखे गए हैं।)