रविवार, 1 जून 2014

अरविंद केजरीवालः भरोसा तोड़ता नायक

अरविंद केजरीवालः भरोसा तोड़ता नायक
-संजय द्विवेदी
   हमारे जैसे देश के तमाम लोग अरविंद केजरीवाल से नाराज हैं। देश की जनता की उम्मीदों का चेहरा और एक समय में मध्यवर्ग के हीरो बन चुके इस आदमी को आखिर हुआ क्या है? शायद ही कोई हो जो अपनी मेहनत से अर्जित सार्वजनिक छवि को खुद मटियामेट करे। आज लोगों को यह सवाल मथ रहा है कि क्या अरविंद केजरीवाल अंततः और प्रथमतः एक आंदोलनकारी ही बनकर रह जाएंगें? सवाल यह भी उठता है कि जिन सवालों को लेकर उनका आंदोलन खड़ा हुआ और वह बाद में एक पार्टी में तब्दील हुआ,वे सवाल तो आज भी जस के तस हैं। अरविंद सही मायने में एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने लोगों में सपने जगाए भी और उन्हें अपने हाथों से तोड़ा भी।
     अरविंद केजरीवाल पर भरोसा करते हुए दिल्ली की जनता ने जिस तरह से उनके पक्ष में अपनी एकजुटता दिखाई, वह अभूतपूर्व थी। किंतु लगता है कि इस सफलता ने उनमें विनम्रता के बजाए अहंकार ही भरा। सत्ता को छोड़कर भागना और बाद में उसके लिए पछताना। साथियों का एक-एक कर अलग होते जाना, यह बताता है कि वे कहीं न कहीं अपनी कार्यशैली से लोगों को आहत कर रहे थे। उनके नासमझ फैसले बताते हैं कि राजनीति में अपनी जमीन छोड़ना कितना खतरनाक होता है। दिल्ली, हरियाणा,पंजाब जैसे राज्यों को केंद्र बनाकर अपनी एक ठोस राजनीतिक जमीन बनाने के बजाए उनका वामन से विराट बनने का सपना, उनकी रणनीतिक  विफलता तो है ही दिल तोड़ने वाली भी है। दिल्ली में एक आंदोलन से उपजी पार्टी ने जिस तरह का वातावरण बनाकर राजधानी में अपनी पैठ बनाई, उसके नेताओं का बनारस, अमेठी की ओर पलायन बताता था कि वे एक गहरे भ्रम के शिकार हैं। अरविंद इसलिए दोषी नहीं हैं कि वे राजनीतिक तौर पर असफल हो गए। यह कोई बड़ी बात नहीं है। वे असफल इसलिए हुए हैं कि उन्होंने जो जनविश्वास अर्जित किया था वह खो दिया। लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया और उन्हीं कठघरों में कैद होकर रह जाए जिसमें भारतीय राजनीति अब तक कैद है और उसे वहां से निकालने की जरूरत लोग गहरे महसूस करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने दल के विस्तार का सपना देखना गुनाह नहीं है, किंतु विस्तार एक चरणबद्ध और सुनियोजित प्रक्रिया का हिस्सा है। टीवी पर बनी आत्मछवि से मुग्ध होकर देश के सभी मैदानों में कमजोर सिपाही उतारने के बजाए कुछ ठोस जगहों पर ठोस काम करके दिखाया जाए। अरविंद यहीं चूक गए। उनके सलाहकार जो उन्हें प्रधानमंत्री का राजपथ दिखा रहे थे, उनसे भी गहरी चूक हुई है। लगता है कि वे इस देश के भौगोलिक-सामाजिक व्याप और आकांक्षाओं को नहीं समझते। आम आदमी पार्टी अंतिम दिनों तक मीडिया के केंद्र में रही। ये देखना आश्चर्यजनक था कि मीडिया के सभी आयोजनों में देश में अनेक प्रमुख दलों की उपस्थिति के बावजूद अगर तीन प्रतिनिधि बुलाए जाते थे उनमें एक कांग्रेस, एक भाजपा और एक आम आदमी पार्टी का होता था। टीवी मीडिया के सभी चुनावी प्रोमो में राहुल,मोदी और केजरीवाल की छवि रहती थी। जबकि देश में तमाम ऐसे नेता और दल हैं जो केजरीवाल से बड़ा सामाजिक और भौगोलिक आधार रखते हैं। मीडिया कवरेज में विसंगति थी। हर क्षेत्र में लड़ रहे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के बारे में दो प्रमुख दलों के साथ जरूर बताया जाता था। यह बात बताती है मीडिया में इस दल की मौजूदगी कैसी थी। अरविंद ने कई बार मीडिया पर भी गुस्सा जताया लेकिन देखा जाए तो आम आदमी पार्टी को उसकी हैसियत से ज्यादा जगह मीडिया में मिली। शायद उनका दिल्लीपति होना इसका कारण रहा हो। आप देखें तो मीडिया का असंतुलन इसी से पता चलता है कि इस विकराल चुनावी शोर में सीमांध्र, तेलंगाना, उड़ीसा के विधानसभा परिणामों को बिल्कुल जगह नहीं मिली। इसी तरह ममता बनर्जी और जयललिता का की भारी विजय पर बात कहां हो रही है। आप कल्पना करें ममता और जयललिता सरीखी लोकसभा सीटें आम आदमी पार्टी को मिली होतीं तो मीडिया में बैठे उनके क्रांतिकारी दोस्त मोदी की जीत को भी पराजय में बदल देते और केजरीवाल को भविष्य का प्रधानमंत्री घोषित कर देते। लेकिन देश की जनता बहुत समझदार है। वह आपके आचरण, देहभाषा, वादों और इरादों को तुरंत स्कैन कर लेती है।
   इसमें भी कोई दो राय नहीं कि देश में जो बैचैनियां पल रही थीं। जो अंसतोष मन में पनप रहा था, उसे स्वर देने का प्रारंभिक काम अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव जैसे लोगों ने किया। सही मायने में ये लोग ही संसद में न होने के बावजूद वास्तविक प्रतिपक्ष बन गए थे। साहस के साथ मंत्रियों, सरकार और गांधी परिवार पर जैसे हमले इन्होंने किए, उसने सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का वातावरण तैयार किया। भारतीय मध्यवर्ग और आम लोगों में एक भरोसा बनाया कि कुछ बदल सकता है। इतना ही नहीं उदास और हताश लोगों को राजनीतिक विमर्श में शामिल करने का श्रेय भी काफी हद तक इस समूह को जाता है। किंतु इन बैचैनियों, आलोड़नों को संभालने के आत्मविश्वास से अरविंद खाली थे। आगे उनके दल और उनकी राह क्या होगी कहना कठिन है। जनांदोलनों की धार को लंबे समय के लिए कुंद और भोथरा बनाकर वे चले गए हैं, यह कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। देश में उपस्थित तमाम चुनौतियों के मद्देनजर जनांदोलन और सामाजिक शक्तियों की एकजुटता जरूरी है। जनता के एजेंडे पर बात और सरकारों की निगहबानी जरूरी है। किंतु अरविंद ने जनांदोलनों की विश्वसनीयता को जो क्षति पहुंचाई है, उसकी मिसाल खोजे नहीं मिलेगी। अन्ना हजारे का आंदोलन दरअसल उनके चेहरे और निष्पाप भोलेपन के नाते एक विश्वसनीयता अर्जित कर सका। दूसरी बात उसकी टाईमिंग बहुत सटीक थी। यह ऐसा समय था जब बाबा रामदेव बुरी तरह पिटकर वापस जा चुके थे। देश में सरकारविहीनता के खिलाफ गुस्सा फैल रहा था और ऐसे समय में अन्ना और उनके समर्थकों ने एक ऐसा आंदोलन खड़ा किया जिसमें आम आदमी उम्मीदें देखने लगा। बाद की कथाएं सबको पता हैं। राजनीतिक दल बनाने का अरविंद का फैसला और दिल्ली के चुनावों के अप्रत्याशित परिणामों ने यह संदेश भी दिया कि कांग्रेस के दिन अब लद गए हैं। बावजूद इसके दिल्ली में सरकार बनाना आम आदमी पार्टी के लिए घाटे का सौदा साबित हुआ। क्या ही अच्छा होता कि अरविंद भाजपा को समर्थन देकर उन्हें ज्यादा विधायक होने के नाते सरकार बनाने का मौका देते और उसकी निगहबानी करते। राजनीतिक प्रशिक्षण का एक दौर इससे पूरा होता और कम सीटों पर लोकसभा का चुनाव लड़कर वे बेहतर संभावनाओं को जन्म दे सकते थे। समाज के पढ़े-लिखे वर्ग, मध्य वर्ग और तमाम संवेदनशील लोगों ने आम आदमी पार्टी में एक वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदें देखनी शुरू कर दी थीं। इन उम्मीदों को इस दल के नेताओं ने स्वयं घराशाही कर दिया। दिल्ली की सफलता को पचा न पाने और बड़े सपनों ने छोटी सफलताएं भी छीन लीं। उनके द्वारा खड़े किए गए प्रखर आंदोलन और मुखर राजनीति का काफी लाभ नरेंद्र मोदी और उनके दल को मिला। एक देशव्यापी संगठन आधार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेटवर्क ने इस असंतोष और पीड़ा को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया। जिस काम को अन्ना हजारे ने शुरू किया उसे नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों ने अंजाम तक पहुंचाया। अपने 12 साल गुजरात के मुख्यमंत्रित्वकाल की विश्लसनीयता उनके साथ थी। काम करने वाले व्यक्ति की छवि, विकास व सुशासन के मुद्दे उन्हें मदद दे रहे थे। एक तरफ सरकार से भागता नायक था दूसरी तरफ आशाएं जगाता हुआ हीरो, लोगों ने दूसरे पर भरोसा जताया। वाराणसी और अमेठी की जंग ने सारा कुछ बहुत साफ-साफ कह दिया है। इन परिणामों के बावजूद आम आदमी पार्टी के चरित्र में बहुत परिवर्तन आता नहीं दिख रहा है। वहां मंथन और चिंतन के बजाए इस्तीफों का दौर जारी है। जबकि सच्चाई यह है कि राजनीति में कुछ भी खत्म नहीं होता। एक नवोदित पार्टी  होने के नाते उसे मिले वोट और सफलताएं बेमानी नहीं हो जाते हैं। राजनीतिक विमर्श में चाहे-अनचाहे आम आदमी पार्टी एक खास जगह घेर रही है। मीडिया, लेखक समुदाय में उसके प्रति सदभाव रखने वाले क्रांतिकारियों की कमी भी नहीं है। किंतु सत्ता जाने की विकलता और सत्ता पाने लिप्सा को आज भी यह दल छिपा नहीं पा रहा है। जब कांग्रेस के खिलाफ जनरोष था तो वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़े रहे थे, अब मोदी सरकार की निगहबानी का समय है तो वे आपस में लड़ रहे हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी को अपनी कार्यशैली और फैसलों पर फिर से विचार करने की जरूरत है। वरना भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह वे भी ऐतिहासिक भूलें करते और उनके लिए क्षमा मांगते रह जाएंगें।
(लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें