शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

कश्मीरः रेकार्ड पर ठहरी सूइयां


केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकारों से बहुत उम्मीदें न रखिए

-संजय द्विवेदी

कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘सिकारों’ पर फिर हंसी-खुशी गायब है और जिंदगी अचानक बहुत खामोश हो गयी है। हवा में बारुद की गंध है और फिजां में तैरने वाली खुशबू गायब है।कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती। यूं लगता है कि कश्मीर में हमारी सारी ‘लाइफ लाइन्स’ मर चुकी हैं और अब कोई ऐसा सहारा नहीं दिखता जो इसके समाधान की कोई सीधी विधि बता सके। ऐसे घने अंधेरे में भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में बातचीत के लिए तीन वार्ताकारों का एक पैनल बनाया है। जिसमें एक पत्रकार, एक प्रोफेसर और एक सूचना आयुक्त हैं।

जाहिर तौर पर सूची में शामिल नामों से भी, बिगड़े हालात के मद्देनजर भी और इस पैनल के धोषित होते ही आयी प्रतिक्रियाओं से लगता है कि हमें इससे बहुत उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। बताया जाता है कि इस पैनल के लिए एक और सदस्य की तलाश जारी है। साथ ही खबर यह भी कि कोई महत्वपूर्ण कांग्रेस नेता इसका हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं है। जबकि कहा यह जा रहा है कि अगर इसमें राजनीतिक व्यक्तित्व न होंगें तो तो उसे गंभीरता नहीं लिया जाएगा। अब फौरी तौर पर कश्मीर के अतिवादी संगठनों ने इसे बेकार की कवायद करार दे दिया है। अलगाववादी नेता गिलानी का कहना है कि भारत सरकार गूंगे-बहरों की तरह की व्यवहार कर रही है। हालांकि सरकार अपने इस कदम से बहुत आशान्वित है कि वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, जामिया मिलिया की प्रोफेसर राधा कुमार और सूचना आयुक्त एमएम अंसारी की टीम सभी तरह के राजनीतिक विचारों वाले लोगों से विचार विमर्श कर एक ऐसा रास्ता सुझाएंगें जो जो सही मायनों में जम्मू-कश्मीर और खासकर वहां के नौजवानों की उम्मीदों के अनुकूल हो। कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व की बेबसी और सीमाएं हमारे सामने हैं ही। जाहिर तौर पर मामला इतना सीधा नहीं है।

आजादी का नारा वहां के आवाम की जुबान पर यूं चढ़ाया जा रहा है, जैसे उसके बिना बात नहीं बनेगी। कुल मिलाकर यह युद्ध बहुत भावनात्मक हो चुका है। गिलानी जैसे नेताओं के स्टैंड से साफ दिखता है कि उन्हें आजादी चाहिए क्योंकि वे हिंदू बहुल भारत से मुक्ति चाहते हैं। अली शाह गिलानी की सुनिए तो बात साफ हो जाएगी। वे साफ कहते हैं कि- “ हमारा यह आंदोलन द्विराष्ट्रवाद के आधार पर हुए देश के विभाजन का हिस्सा है। मुस्लिम कश्मीर घाटी हिंदू भारत से अलग होना चाहती है। वह उसका हिस्सा नहीं है। भारत ने सेना के द्वारा हमारे क्षेत्र पर कब्जा किया हुआ है। भारतीय सेना की उपस्थिति को हम एक कब्जाऊ विदेशी सेना के रूप में देखते हैं। ” गिलानी अपनी इस बात को अनगिनत बार और कई टीवी चैनलों पर कहते रहे हैं। ऐसे में विकास और प्रगति के सवाल यहां अलहदा हो जाते हैं। ऐसे अतिवादी विचारों से जंग हो तो विकल्प जाहिर तौर पर बहुत सीमित हो जाते हैं। सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का भी गिलानी ने बहिष्कार किया। फिर भी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी के नेतृत्व में कुछ सदस्य उनसे मिलने पहुंचे। उस बातचीत का सीधा प्रसारण टीवी चैनलों पर हुआ जिसमें साफ तौर गिलानी ने कहा कि उनकी लड़ाई आर्थिक विकास और राजनीतिक सुविधाओं के लिए नहीं है। वे मुस्लिम घाटी की हिंदू भारत से मुकम्मल आजादी चाहते हैं। गिलानी आज की तारीख में कश्मीर के सबसे प्रभावशाली नेता हैं। उनके हुक्म पर पत्थरबाज सड़कों पर उतर आते हैं। बाजार बंद हो जाते हैं। वे कहते हैं तो पत्थर बाजी रूक जाती है। वे सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के बहिष्कार की बात करते हैं तो श्रीनगर की सड़कें सूनी हो जाती हैं। स्कूल खाली हो जाते हैं। जाहिर तौर पर हमारे राजनीतिक दलों और राजनीतिक नेताओं की विफलता से ये अतिवादी ताकतें आज प्रभावी भूमिका में हैं। पाकिस्तान का संरक्षण इन्हें ताकत दे रहा है। अब हालात यह हैं कि कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी अतिवादियों की भाषा बोलनी पड़ रही है। जिसे लेकर विधानसभा में हंगामा भी हुआ। कुल मिलाकर जैसे हालात हैं उसमें कश्मीर एक ऐसी आग में जल रहा है जहां तर्क, संवाद और बातचीत के मायने खत्म से लगते हैं। सेना और पुलिस की बबर्रता वहां के बड़े सवाल हैं, किंतु आतंकी हिंसा और अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिखों, बौद्धों) के साथ हुयी हिंसा वहां के संवाद से गायब है। सवाल यह भी उठता है कि आखिर गिलानी के लिए कश्मीर में दीवानगी क्यों है। आखिर क्या कारण है राजनीतिक नेतृत्व के बजाए अलगाववादी नेतृत्व वहां के लोगों को ज्यादा भाता है। कहीं उसके पीछे वही अतिवादी धार्मिक भाव आज भी काम नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते एक निष्ठावान मुसलमान मौलाना अबुल कलाम आजाद की जगह मजहब से दूर रहने वाले पश्चिमी रंग में रंगे मुहम्मद अली जिन्ना आंखों के तारे बन जाते हैं। क्या आज भी कहीं न कहीं हम उसी मानसिकता के शिकार तो नहीं हो रहे हैं। जिन्ना से लेकर गिलानी के बीच छः दशक की दूरियां हैं, किंतु सवाल वही हैं जो 1947 में हमारे सामने थे। द्विराष्ट्रवाद आज भी दंश दे रहा है।

वार्ताकार इसीलिए भी उम्मीद नहीं जगाते, क्योंकि हमारे समय के सवालों का हल आज की राजनीति के पास नहीं है। आजादी मांग रहे लोगों से यह पूछने का साहस हमारी राजनीति में नहीं है कि आजादी लेकर क्या करोगे और आजादी के बाद क्या होगा। आजादी एक सपना है जिसका बाजार है, जो बिक सकता है। लेकिन इस आजादी के मायने बहुत अलग हैं। वह आजादी एक कश्मीरियत की आजादी है या हिंदू भारत से आजादी,इस सवाल पर हमें गंभीरता से सोचना होगा। शायद इसीलिए इस कथित आजादी के दीवानों और पत्थर बाजों को अपनी आजादी में सबसे बड़ा रोड़ा सेना दिखती है। इसलिए सेना को बदनाम कर, उसे वापस बुलाने के राजनीतिक और मानवाधिकारवादी षडयंत्र सचेतन तरीके से चलाए जा रहे हैं। कश्मीर पर हो रही वार्ताओं में दरअसल कश्मीर के सवाल नहीं, विकास के प्रश्न नहीं, रोजगार के सवाल नहीं हैं - ऐसी जिदें हैं जिसे पूरा कर पाना भारतीय राज्य के लिए संभव नहीं है। कश्मीर की राजनीति में दिल्ली की सरकार के खिलाफ बोलने की एक प्रतियोगिता चल रही है और उसमें कश्मीर की नई पीढ़ी का भविष्य खराब हो रहा है। अलगाववादियों और राजनीतिक नेताओं ने अपनी संतानों को विदेशों में शिक्षा के लिए भेजकर, स्थानीय सामान्य युवाओं के हाथ में पत्थर पकड़ा दिए हैं। ये पत्थर देश की एकता और अखंडता पर भी बरस रहे हैं उनकी निजी जिंदगी को तबाह भी कर रहे हैं। भय, खौफ और लाशों के ये व्यापारी हमारे नौजवानों को हमारे खिलाफ ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

जाहिर है समस्या को कई स्तरों पर कार्य कर सुलझाने की जरूरत है। सबसे बड़ी चुनौती सीमा पर घुसपैठ की है और हमारे युवाओं के उनके जाल में फंसने की है-यह प्रक्रिया रोकने के लिए पहल होनी चाहिए। कश्मीर युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा, शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी। समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें, वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । भटके युवाओं को हम भारत-पाकिस्तान का अंतर समझा सकें तो यह बात इस समस्या की जड़ को सुलझा सकती है। आजादी के सपनों के व्यापारियों की हरकतों पर इन्हीं प्रयासों से रोक लगाई जा सकती है। कश्मीर पर हो रही हर तरह की पहल को शुरू होने के पहले ही विफल करने की कोशिशें भी इसीलिए शुरू हो जाती हैं क्योंकि कश्मीर वहां की अलगाववादी ताकतों के लिए एक बड़ा व्यापार है। 22 फरवरी,1994 को भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव में कहा था कि “जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। शेष भारत से उसे अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक उपायों से प्रतिरोध किया जाएगा।” कोई भी वार्ताकार संसद में लिए गए इस संकल्प को न भूले और देश विरोधी ताकतों को मंसूबों को समझते हुए कश्मीर को बचाने के लिए किए जा रहे सकारात्मक प्रयत्नों को आगे बढाने के लिए मदद करे। क्योंकि इससे ही कश्मीर घाटी में जमी बर्फ पिधल सकती है।

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

फिर भी क्यों भूखा है भारत ?

-संजय द्विवेदी
अनाज गोदामों में भरा हो और भुखमरी देश के गांव, जंगलों और शहरों को डस रही हो तो ऐसे लोककल्याणकारी राज्य का हम क्या करें ? वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर भारत जैसे देश का 67 वें स्थान पर रहना हमें चिंता में डालता है। इतना ही नहीं इस सूची में पाकिस्तान 52 वें स्थान पर है, यानि हमसे काफी आगे। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों में तीसरे नंबर पर गिने जा रहे देश भारत का एक चेहरा यह भी है जो खासा निराशाजनक है। यह बताता है कि हमारे आधुनिक तंत्र की चमकीली प्रगति के बावजूद एक भारत ऐसा भी है जिसे अभी रोटियों के भी लाले हैं। भुखमरी में लड़ने में हम चीन और पाकिस्तान से भी पीछे हैं। ऐसे में हमारी चकाचौंध के मायने क्या हैं? एक गणतंत्र में लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना पर ये चीजें एक कलंक की तरह ही हैं। हमें देखना होगा कि आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं, जहां लोंगों को दो वक्त की रोटी भी उपलब्ध नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ( आईएफपीआरआई) द्वारा जारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक,2010 में 84 देशों की सूची में भारत का 67 वां स्थान चिंता में डालने वाला है। भारत को कुपोषण और भरण पोषण के मामले में महिलाओं की खराब स्थिति के कारण काफी नीचे स्थान मिला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व में 42 प्रतिशत कमजोर पैदायशी भारत में हैं। इस मामले में पाकिस्तान हमसे पांच प्रतिशत की बेहतर स्थिति में है। जाहिर तौर पर ये चिंताएं समूची दुनिया को मथ रही हैं। शायद इसीलिए भुखमरी के खिलाफ पूरी दुनिया में एक चिंतन चल रहा है। भारत में भी भोजन का अधिकार दिलाने के लिए कई जनसंगठन काम कर रहे हैं और इसे कानूनी जामा पहनाने की बातें भी हो रही हैं। दुनिया के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी सम्मेलन में तय विकास लक्ष्य के जरिए 1990 और 2015 के बीच भुखमरी की शिकार जनसंख्या का अनुपात आधा करने का लक्ष्य रखा था। हालांकि दुनिया भर में चल प्रयासों से भुखमरी में कमी आई है और लोगों को राहत मिली है। किंतु अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है क्योंकि समस्या वास्तव में गंभीर है। आम तौर पर यह माना जाता है कि जब किसी देश की अर्थव्यवस्था सुधरती है तो वहां भुखमरी के हालात कम होते हैं। किंतु भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के सामने ये आंकड़े मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं। देश में तेजी से बढ़ी महंगाई और बढ़ती खाद्यान्न की कीमतें भी इसका कारण हो सकती हैं। खासतौर पर गांवों, वनवासी क्षेत्रों में रहने वाले लोग इन हालात से ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि सरकारी सुविधा देने का तंत्र कई बार नीचे तक नहीं पहुंच पाता। ग्लोबल हंगर इंडेक्स को सामने रखते हुए हमें अपनी नीतियों, कार्यक्रमों और जनवितरण प्रणाली को ज्यादा प्रभावी बनाने की जरूरत है। शायद सरकार की इन्हीं नीतियों से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई,2010 को कहा था कि “जिस देश में हजारों लोग भूखे मर रहे हों वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है। यहां 6000 टन से ज्यादा अनाज सड़ चुका है। ” इसी तरह 12 अगस्त,2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि –“ अनाज सड़ने के बजाए केंद्र सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करे। इसके लिए केंद्र हर प्रदेश में एक बड़ा गोदाम बनाने की व्यवस्था करे।” जाहिर तौर पर देश की जमीनी स्थिति को अदालत समझ रही थी किंतु हमारी सरकार इस सवाल पर गंभीर नहीं दिख रही थी। यहां तक कि हमारे कृषि मंत्री अदालत के आदेश को सुझाव समझने की भूल कर बैठे जिसके चलते अदालत को फिर कहना पड़ा कि यह आदेश है, सलाह नहीं है। जबकि हमारी सरकार तब तक 6.86 करोड़ का अनाज सड़ा चुकी थी। आज कुपोषण के हालात हमारी आंखें खोलने के लिए काफी हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश में 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और तीन साल से कम के 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं। अनाज के कुप्रबंधन में सरकार की विफलताएं सामने हैं और इसके चलते ही इस तरह के आंकड़े सामने आ रहे हैं। जिस देश में भारी मात्रा में अनाज सड़ रहा हो वहां लोग भुखमरी या कुपोषण के शिकार हों यह कतई अच्छी बात नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर इस समस्या के कारगर निदान के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि देश का नाम इस तरह की सूचनाओं से खराब होता है। हम कितनी भी प्रगति कर लें, हमारी अर्थव्यवस्था कितनी भी कुलांचे भर ले किंतु अगर हम अपने लोगों के लिए ईमानदार नहीं हैं,तो इसके मायने क्या हैं। हमारे लोग भूखे हैं तो इस जनतंत्र के भी मायने क्या हैं। जाहिर तौर पर हमें ईमानदार कोशिशें करनी होंगीं। वरना एक जनतंत्र के तौर पर हम दुनिया के सामने मानवीय और सामाजिक सवालों पर यूं ही लांछित होते रहेगें। गांधी के इस देश में आम आदमी अगर व्यवस्था के केंद्र में नहीं है तो विकल्प क्या हैं। जगह-जगह पैदा हो रहे असंतोष और लोकतंत्र के प्रति जनता में एक तरह का निराशाभाव इन्हीं कारणों से प्रबल हो रहा है। क्या हम अपने लोकतंत्र को वास्तविक जनतंत्र में बदलने के लिए आगे बढेंगें या इसी चौंधियाती हुयी चमकीली प्रगति में अपने मूल सवालों को गंवा बैठेगें? यह एक यक्ष प्रश्न है इसके ठोस और वाजिब हल तलाशने की अगर हमने कोशिश न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

कला आलोचना में व्यापक संभावनाएं : मनीष




पत्रकारिता विश्वविद्यालय में चित्रकार मनीष पुष्कले का व्याख्यान


भोपाल 13 अक्टूबर। रजा फेलोशिप से सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चित्रकार मनीष पुष्कले का कहना है कि भारत में कला एवं सांस्कृतिक समीक्षा का स्तर दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले काफी पिछड़ा हुआ है। भारत में आलोचना केवल रिपोर्ताज तक ही सीमित है, इस कारण भारत में अच्छे आलोचकों एवं समीक्षकों की कमी है। श्री पुष्कले बुधवार को माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंपर्क विभाग द्वारा ’व्यावसायिक संचार का सौंदर्यशास्त्र’ विषय पर एक सेमीनार को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने छात्रों से कहा कि वे कला आलोचना के प्रति अपनी समझ विकसित करें और इस क्षेत्र में आगे आएं, क्योंकि इस क्षेत्र में असीम सम्भावनाएं हैं। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र रहे मनीष पिछले बीस सालों से कला के क्षेत्र में सक्रिय हैं अपने छात्र जीवन को याद करते हुए उन्होंने कहा कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय के परिसर ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया है। मनीष पुष्कले के चित्रों की 500 से ज्यादा प्रदर्शनियां लग चुकी हैं। भारत के अलावा 55 अन्य देशों में भी उनके चित्रों की प्रदर्शनी हो चुकी है। मनीष ने पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय में बिताए गए समय के अनुभवों को छात्रों के साथ बांटा, उन्होंने कहा कि इसके चलते वह भाषा के प्रति अपनी एक नई नजर और बेहतर समझ विकसित कर पाए, जिससे उनकी भाषा को मजबूती मिली। उन्होंने कहा कि भाषा का चित्रों की अभिव्यक्ति में काफी अहम योगदान रहता है। उन्होंने छात्रों से कहा कि वह भाषा का सिर्फ एक योग्यता तक सीमित न रखें, बल्कि वह भाषा के प्रति श्रद्धा भी रखें। मनीष का कहना था कि हमारी देश में भाषा का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है, हमारे देश ने चार धर्म दिए हैं, कई महाकाव्य दिए हैं। उन्होंने भाषा में नई सम्भावनाओं को तलाशने पर जोर दिया। साहित्य को उन्होंने वैचारिक शक्ति व भाषाई समझ विकसित करने वाला माध्यम बताया। छात्रों को प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा कि वे जीवन की आपाधापी में अपने सपनों को देखना बन्द न करें बल्कि उसको जीने की कोशिश करें। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पत्रकारिता विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. कमल दीक्षित ने कहा कि अपने छात्रों को ऊंचाईयाँ छूते देख उन्हें काफी खुशी होती है। इस दौरान विश्वविद्यालय के शिक्षक व बडी संख्या में छात्र-छात्राएं मौजूद रहे। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी एवं आभार जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव ने व्यक्त किया।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

पाक जैसे पड़ोसी हों तो दुश्मनों की जरूरत क्या है ?


मुर्शरफ ने जो कहा वही पाकिस्तानी राजनीति का मूल चरित्र
- संजय द्विवेदी

अगर पाकिस्तान जैसे पड़ोसी हों तो आपको दुश्मनों की जरूरत नहीं है। अपनी कुठांओं और आंतरिक बदहाली का शिकार, यह विफल राष्ट्र, खुद से ज्यादा भारत की चिंता करता है। हमारी आंतरिक समस्याओं में अतिरिक्त रूचि दिखाकर वह अपने आवाम को भारत विरोध की धुट्टी पिलाता रहता है। पाकिस्तान के मन में अपने पड़ोसी के प्रति कैसे षडयंत्रकारी विचार हैं अगर जानना है तो मुशर्रफ की ओर देखिए, क्योंकि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने यह स्वीकार कर लिया है कि पाकिस्तान ने ही कश्मीर में लड़ने के लिए भूमिगत आतंकी समूहों को प्रशिक्षित किया था। एक जर्मन पत्रिका में दिए इंटरव्यू ने यह जहर परवेज मुर्शरफ ने उगला है। कारगिल घुसपैठ का भी का भी पाकिस्तान के इस पूर्व शासक को कोई अफसोस नहीं हैं, क्योंकि भारत घृणा ही पाकिस्तान की राजनीति का एक अनिवार्य तत्व है और परवेज मुशर्रफ यही कर रहे हैं।

पाकिस्तान में अब एक नई पार्टी बनाकर अपनी दूसरी राजनीतिक पारी की शुरूआत करने जा रहे परवेज मुशर्रफ का यह बयान निश्चय ही सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। इस बहाने वे देश में अपनी अलोकप्रियता कम करने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि इन दिनों में पाकिस्तान में उन्हें लेकर बहुत अच्छे भाव नहीं हैं। उनकी राजनीतिक पार्टी को अपनी जड़ें जमाने के लिए अतिवादी और आतंकी समूहों के समर्थन की जरूरत है और उसके तहत ही उन्होंने ये बातें कहीं हैं। किंतु इससे इतना तो पता ही चलता है कि पाकिस्तान की भारत के प्रति क्या सोच और रणनीति रही है। पाकिस्तान ने हमेशा भारत में आतंकवाद को पोषित करने का काम किया है। परवेज मुशर्रफ के इस बयान ने दरअसल पाकिस्तानी राजनीति और सरकार के असली चेहरे को उजागर कर दिया है। वहां की पूरी राजनीति दरअसल भारत घृणा के तत्व से ही प्रेरणा पाती है और कुर्सी पर बैठने वाला हर शासक भारत के विरूद्ध अभियान चलाकर अपने को बचाए रखना चाहता है। क्योंकि पाकिस्तान वास्तव में एक विफल देश बन चुका है, जिसके पास अपनी समस्याओं का समाधान नहीं हैं। सो उसके नेताओं के सामने यही विकल्प है कि वे भारत का भय दिखाकर अपने देश को संभाले रहें। पाकिस्तान में आयी विकराल बाढ़ और तबाही के समय वहां की राजनीति का असली चेहरा लोगों ने देखा है। इतनी संवेदनहीन राजनीति के लोग जब काश्मीर के लोगों को न्याय दिलाने की बात करते हैं तो हंसी आती है। परवेज मुशर्रफ स्वयं बाढ़ की तबाही के दौरान कहीं नजर नहीं आए। पाकिस्तान की कश्मीर में अतिरिक्त रूचि के कारण ही, आजादी के बाद से ही कश्मीर के भाग्य में चैन नहीं है, जैसे-तैसे भारत विलय के बाद से आज तक वह लगातार खूनी संघर्षों का अखाड़ा बना हुआ है। सही अर्थो में भारत के अप्राकृतिक विभाजन का जितना कष्ट कश्मीर ने भोगा है, वह अन्य किसी राज्य के हिस्से नहीं आया। दिल्ली के राजनेताओं की नासमझियों ने हालात और बिगाड़े, आज हालात ये हैं कि कश्मीर के प्रमुख हिस्सों लद्दाख, जम्मू और घाटी तीनों में आतंकवाद की लहरें फैल चुकी हैं। इनमें सबसे बुरा हाल कश्मीर घाटी का है, जहां सिर्फ सेना को छोड़कर ‘भारत मां की जय’ बोलने वाला कोई नहीं है। आखिर इन हालात के लिए जिम्मेदार कौन है ? वे कौन से हालात हैं वे कौन लोग हैं जो पाकिस्तान षड्यंत्रों का हस्तक बनकर इस्लामी आतंकवाद की लहर की सवारी कर रहे है।

हालात जितने भी बुरे हों, हम कश्मीर विहीन भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते, इसलिए कश्मीर मसले से जुड़े हर पक्ष के साथ हमें संवेदनशीलता से पेश आना होना। कश्मीर को राजनीति और तिकड़मों से नहीं सुधारा जा सकता । यह हमने चुनी गयी सरकारें गिराकर तथा केंद्र के कठपुतली मुख्यमंत्रियों तथा राज्यपालों को बिठाकर दिख लिया है। सेना की सीमाएं क्या हैं, यह भी हमने देख लिया है। सारी कवायदों के बावजूद, जगमोहन की उपस्थिति में भी कश्मीरी पंडितों को घर छोड़ना पड़ा था, इसलिए कश्मीर के प्रसंग पर हमारी पराजय के संदेश बहुत खतरनाक होंगे और एक राष्ट्र-राज्य के रूप में हम अपनी विफलता का इतिहास अपने ही हाथों से लिख रहे होंगे । यह पराजय सिर्फ दिल्ली में बैठी सरकार की नही होगी, पराजय देश की 1 अरब जनता की होगी। हमारे उस इतिहास की होगी जो सालों-साल कश्मीर को अपने मुकुट और ‘धरती के स्वर्ग’ के रूप में अपनी स्मृति में रखता आया है। हम कश्मीर में अपनी पराजय से इस्लामी कट्टरवाद के सामने समर्पण का इतिहास लिखेंगे । इसलिए कश्मीर को कैसे भी बचाना देश के राजनीतिक नेतृत्व और जनता की जिम्मेदारी है । यह हार हमें विश्व मंच पर मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ेगी । इस्लामी कट्टरपंथ की यह जीत समूचे उप-महाद्वीप में सांप्रदायिक विद्वेष की लपटों का कारण बनेगी। भारत में रहने वाले हिंदू-मुस्लिमों के रिश्तों की बुनियाद इससे हिल जाएगी । देश के हिंदू-मुसलमानों को इस खतरे को समझना होगा। किसी ‘राजनीतिक एजेंडे’ के आधार पर नहीं, दिनायतदारी के आधार पर हमें कश्मीर का माथा झुकने नहीं देना है। जाहिर है, भारत को अपनी लड़ाई का आधार अब इस्लामी कट्टरंपंथ से संघर्ष को बनाना होगा। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद सही अर्थों में कुंठा और अराजक मानसिकता से प्रेरणा पाता है। उससे कश्मीरी मानस के हितलाभ की कोई सोच जुड़ी हुई नहीं है। भारत को यहीं चोट करनी होगी। अपने राजनीतिक एजेंडों से परे कश्मीर को एक विशेष विमर्श का हिस्सा मानकर हमें समाधान के रास्ते तलाशने होंगे। अफसोस है कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला जैसे लोग भी आज गलत भाषा बोल रहे हैं। उमर अब्दुल्ला जो भाषा बोल रहे हैं उसे कोई भी स्वाभिमानी समाज और राष्ट्र कैसे सह सकता है। ऐसे में राज्य की विधानसभा में भारतीय जनता के विधायकों के द्वारा उनका विरोध जायज ही कहा जाएगा। उमर ने अपने नासमझी भरे बयानों से निरंतर भारत को नीचा दिखाने की कोशिश की है। आखिर वे किसका दिल जीतना चाहते हैं ? वे किसे खुश करना चाहते हैं? अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक विफलताओं पर परदा डालने के लिए राजनेता ऐसे बयान देते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। किंतु हमें देखना होगा कि एक देश के नाते हम अपने ऐसे नेताओं को कितना और कब तक स्वीकार करें। ऐसे नेताओं की पाकपरस्ती और भारत के प्रति अनुदार रवैया चिंता में डालता है। एक मुख्यमंत्री ही अगर अलगाववादियों की भाषा बोलने लगे तो कहने के लिए क्या बचता है।

जहां तक परवेज मुशर्रफ जैसे पाकिस्तानी नेताओं की बात है -संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार और धार्मिक भावनाओं व भारत विरोध के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाले ये जहरीले नेता निश्चय ही पाकिस्तान को बरबाद कर रहे हैं और अपनी नकारात्मक राजनीति से भारत को भी प्रभावित कर रहे हैं। अफसोस है कि जनता भी इनकी चालों को न समझकर राजनीति का शिकार बन रही है। जबकि बदलती दुनिया के मद्देनजर राजनीति के मुद्दे बदल रहे हैं किंतु पाकिस्तान के भाग्य में शायद चैन नहीं है। क्योंकि वहां के राजनीतिक नेतृत्व में देश और अपनी जनता के प्रति ईमानदारी नहीं है।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

भोपाल के हिंदी भवन में संजय द्विवेदी का सम्मान


वाड्.मय पुरस्कार से नवाजे गए संजय द्विवेदी
मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने किया सम्मान


भोपाल,10 अक्टूबर। मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने रविवार को भोपाल स्थित हिंदी भवन के सभागार में आयोजित समारोह में युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी को उनकी नई किताब ‘मीडियाः नया दौर- नई चुनौतियां’ के लिए इस वर्ष के वाड्.मय पुरस्कार से सम्मानित किया। स्व. हजारीलाल जैन की स्मृति में प्रतिवर्ष किसी गैर साहित्यिक विधा पर लिखी गयी किताब पर यह पुरस्कार दिया जाता है।
मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा आयोजित इस सम्मान समारोह की अध्यक्षता प्रदेश के नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर ने की और विशिष्ट अतिथि के रूप में सांसद रधुनंदन शर्मा मौजूद थे। कार्यक्रम के प्रारंभ में स्वागत भाषण समिति के अध्यक्ष रमेश दवे ने किया और आभार प्रदर्शन कैलाश चंद्र पंत ने किया। संजय की यह किताब यश पब्लिकेशन, दिल्ली ने छापी है और इसमें मीडिया के विविध संदर्भों पर लिखे उनके लेख संकलित हैं। सम्मान समारोह में वितरित पुस्तिका में कहा गया है कि- “वर्ष 2010 में प्रकाशित इस कृति में लेखक के आत्मकथ्य सहित 27 लेख हैं। इन लेखों में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की दशा व दिशा का आज के बाजारवाद के परिप्रेक्ष्य में विशद् तार्किक विवेचन किया गया है। पुस्तक के लेखक संजय द्विवेदी स्वयं पत्रकारिता को जी रहे हैं, इसलिए पुस्तक के लेखों में विषय की गहराई, सूक्ष्मता और अनुभवपरकता तीनों मौजूद है। पुस्तक मीडिया से जुड़े कई अनदेखे पृष्ठ खोलने में सफल है।” श्री द्विवेदी अनेक प्रमुख समाचार पत्रों के अलावा इलेक्ट्रानिक और वेबमीडिया में भी महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं। उनकी अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और छः पुरस्कार भी मिल चुके हैं। संप्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।

पुस्तक परिचयः
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

भोपाल के हिंदी भवन में संजय द्विवेदी का सम्मान-2

भोपाल के हिंदी भवन में संजय द्विवेदी का सम्मान-3


संजय द्विवेदी को सम्मान देते हुए महामहिम राज्यपाल (मप्र) श्री रामेश्वर ठाकुर, मंत्री श्री बाबूलाल गौर, सांसद रधुनंदन शर्मा, प्रो. रमेश दवे और कैलाशचंद्र पंत।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

दस बरस का छत्तीसगढ़

स्थापना दिवस( 1 नवंबर) के प्रसंग पर एक विहंगावलोकनः
छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र दस वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने रचनात्मक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह राजनीति, साहित्य,कला और संस्कृति के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारे की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से भारतीय और हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है, जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है। अपनी आदर्श परंपराओं और संस्कारों के लिए जाना जाने वाला छत्तीसगढ़ सही अर्थों में सद्भावना का टापू है। भारतीय परम्परा की उदात्तता इसकी थाती है और सामाजिक समरसता इसका मूलमंत्र। सदियों से अपनी इस परंपरा के निर्वहन में लगी यह धरती अपनी ममता के आंचल में सबको जगह देती आयी है। शायद यही कारण है कि राजनीति की ओर से यहां के समाज जीवन में पैदा किए जाने वाले तनाव और विवाद की स्थितियां अन्य प्रांतों की तरह कभी विकराल रूप नहीं ले पाती हैं।
समता के गहरे भावः समाज की शक्तियों में समता का भाव इतने गहरे पैठा हुआ है कि तोड़ने वाली ताकतों को सदैव निराशा ही हाथ लगी है।संतगुरू घासीदास से लेकर पं. सुन्दरलाल शर्मा तक के प्रयासों ने जो धारा बहाई है वह अविकल बह रही है और सामाजिक तौर पर हमारी शक्ति को, एकता को स्थापित ही करती है। इस सबके मूल में असली शक्ति है धर्म की, उसके प्रति हमारी आस्था की। राज्य की धर्मप्राण जनता के विश्वास ही उसे शक्ति देते हैं और अपने अभावों, दर्दों और जीवन संघर्षों को भूलकर भी यह जनता हमारी समता को बचाए और बनाए रखती है।प्राचीनकाल से ही छत्तीसगढ़ अनेक धार्मिक गतिविधियों और आंदोलनों का केन्द्र रहा है। इसने ही क्षेत्र की जनता में ऐसे भाव भरे जिससे उसके समतावादी विचारों को लगातार विस्तार मिला। खासकर कबीरपंथ और सतनाम के आंदोलन ने इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी। इसके ही समानांतर सामाजिक तौर पर महात्मा गांधी और पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रभावों को हम भुला नहीं सकते।
अप्रतिम धार्मिक विरासतः छत्तीसगढ़ में मिले तमाम अभिलेख यह साबित करते हैं तो यहां शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य आदि देवताओं की उपासना से संबंधित अनेक मंदिर हैं। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्मों के अस्तित्व के प्रमाण यहां के अभिलेखों से मिलते हैं। कलचुरिकालीन अभिलेख भी क्षेत्र की धार्मिक आस्था का ही प्रगटीकरण करते हैं। छत्तीसगढ़ में वैष्णव पंथ का अस्तित्व यहां के साहित्य, अभिलेख, सिक्के आदि से पता चलता है। विष्णु की मूर्ति बुढ़ीखार क्षेत्र में मिलती है जिसे दूसरी सदी ईसा पूर्व की प्रतिमा माना जाता है। शरभपुरीय शासकों के शासन में वैष्णव पंथ का यहां व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। ये शासक अपने को विष्णु का उपासक मानते थे। इस दौर के सिक्कों में गरूड़ का चित्र भी अंकित मिलता है। शरभपुरीय शासकों के बाद आए पांडुवंशियों ने भी वैष्णव पंथ के प्रति ही आस्था जतायी। इस तरह यह पंथ विस्तार लेता गया। बाद में बालार्जुन जैसे शैव पंथ के उपासक रहे हों या नल और नाम वंषीय या कलचुरि शासक, सबने क्षेत्र की उदार परंपराओं का मान रखा और धर्म के प्रति अपनी आस्था बनाए रखी। ये शासक अन्य धर्मों के प्रति भी उदार बने रहे। इसी तरह प्रचार-प्रसार में बहुत ध्यान दिया। कलचुरि नरेशों के साथ-साथ शैव गुरूओं का भी इसके प्रसार में बहुत योगदान रहा।शाक्तपंथ ने भी क्षेत्र में अपनी जगह बनायी। बस्तर से लेकर पाली क्षेत्र में इसका प्रभाव एवं प्रमाण मिलता है। देवियों की मूर्तियां इसी बात का प्रगटीकरण हैं। इसी प्रकार बौद्ध धर्म के आगमन ने इस क्षेत्र में बह रही उदारता, प्रेम और बंधुत्व की धारा को और प्रवाहमान किया। चीनी यात्री हवेनसांग के वर्णन से पता चलता है कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आरंग, तुरतुरिया और मल्लार इसके प्रमुख केन्द्र थे। हालांकि कलचुरियों के शासन काल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम होने लगी पर इसके समाज पर अपने सकारात्मक प्रभाव छोड़े। जैन धर्म अपनी मानवीय सोच और उदारता के लिए जाना जाने वाला धर्म है। यहां इससे जुड़े अनेक शिल्प मिलते हैं। रतनपुर, आरंग और मल्लार से इसके प्रमाण मिले हैं।
शांति और सद्भाव की धाराओं का प्रवक्ताः छत्तीसगढ़ क्षेत्र में व्याप्त सहिष्णुता की धारा को आगे बढ़ाने में दो आंदोलनों का बड़ा हाथ है। तमाम पंथों और धर्मों की उपस्थिति के बावजूद यहां आपसी तनाव और वैमनस्य की धारा कभी बहुत मुखर रूप में सामने नहीं आयी। कबीर पंथ और सतनाम के आंदोलन ने सामाजिक बदलाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बदलाव की इस प्रक्रिया में वंचितों को आवाज मिली और वे अपनी अस्मिता के साथ खड़े होकर सामाजिक विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। कबीर पंथ और सतनाम का आंदोलन मूलतः सामाजिक समता को समर्पित था और गैरबराबरी के खिलाफ था। यह सही अर्थों में एक लघुक्रांति थी जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिंदू समाज के अंदर व्याप्त बुराइयों के साथ-साथ आत्मसुधार की भी बात संतवर गुरू घासीदास ने की। उनकी शिक्षाओं ने समाज में दमित वर्गों में स्वाभिमान का मंत्र फूंका और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। छत्तीसगढ़ में सतनाम के प्रणेता बाबा गुरूघासीदास थे। 1756 को गिरोद नामक गांव में जन्मे बाबा ने जो क्रांति की, उसके लिए यह क्षेत्र और मानवता सदैव आभारी रहेगी। मूर्तिपूजा, जातिभेद, मांसाहार, शराब व मादक चीजों से दूर रहने का संकल्प दिलवाकर सतनाम ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। भारत जैसे धर्मप्राण देश की आस्थाओं का यह क्षेत्र सही अर्थों में एक जीवंत सद्भाव का भी प्रतीक है। रतनपुर, दंतेश्वरी, चंद्रपुर, बमलेश्वरी में विराजी देवियां हों या राजीवलोचन और शिवरीनाराण या चम्पारण में बह रही धार्मिकता सब में एक ऐसे विराट से जोड़ते हैं जो हमें आजीवन प्रेरणा देते हैं। धार्मिक आस्था के प्रति इतने जीवंत विश्वास का ही कारण है कि क्षेत्र के लोग हिंसा और अपराध से दूर रहते अपने जीवन संघर्ष में लगे रहते हैं। यह क्षेत्र अपने कलागत संस्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। जाहिर है धर्म के प्रति अनुराग का प्रभाव यहां की कला पर भी दिखता है। शिल्प कला, मूर्ति कला, स्थापत्य हर नजर से राज्य के पास एक महत्वपूर्ण विरासत मौजूद है। भोरमदेव, सिरपुर, खरौद, ताला, राजिम, रतनपुर, मल्लार ये स्था कलाप्रियता और धार्मिकता दोनों के उदाहरण हैं।इस नजर से यह क्षेत्र अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राज्य गठन के बाद इसके सांस्कृतिक वैभव की पहचान तथा मूल्यांकन जरूरी है। सदियों से उपेक्षित पड़े इस क्षेत्र के नायकों और उनके प्रदेय को रेखांकित करने का समय अब आ गया है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता और योगदान को पुराने कवियों ने भी रेखांकित किया है। आवश्यक है कि हम इस प्रदेय के लिए हमारी सांस्कृतिक विरासत को पूरी दुनिया के सामने बताएं। बाबू रेवाराम ने अपने ग्रंथ ‘विक्रम विलास’ में लिखा हैः
जिनमें दक्षिण कौशल देसा,
जहॅं हरि औतु केसरी वेसा,
तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन,
पुण्यभूमि सुर-मुनि-मन-भावन।

राजनीति की एक अलग धाराः छत्तीसगढ़ की इसी सामाजिक-धार्मिक परंपरा ने यहां की राजनीति में भी सहिष्णुता के भाव भरे हैं। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की तरह जातीयता की भावना आज भी यहां की राजनीति का केंद्रीय तत्व नहीं बन पायी है। मप्र के साथ रहते हुए भी एक भौगोलिक इकाई के नाते अपनी अलग पहचान रखनेवाला यह क्षेत्र पिछले दस सालों में विकास के कई सोपान पार कर चुका है। अपनी तमाम समस्याओं के बीच उसने नए रास्ते देखे हैं। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के तीन साल हों या डा. रमन सिंह के कार्यकाल के ये बरस, हम देखते हैं, विकास के सवाल पर सर्वत्र एक ललक दिखती है। राजनीतिक जागरूकता भी बहुत तेजी से बढ़ी है। नवसृजित तीनों राज्यों झारखंड,उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में अगर तुलना करें तो छत्तीसगढ़ ने तेजी से अनेक चुनौतियों के बावजूद, विकास का रास्ता पकड़ा है। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का कार्यकाल जहां एक नए राज्य के सामने उपस्थित चुनौतियों को समझने और उससे मुकाबले के लिए तैयारी का समय रहा, वहीं डा. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में कई मानक स्थापित किए। लोगों को सीधे राहत देने वाले विकास कार्यक्रम हों या नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता, सबने उन्हें एक नई पहचान दी। अजीत जोगी के कार्यकाल में जिस तरह की राजनीतिक शैली का विकास हुआ, उससे तमाम लोग उनके खिलाफ हुए और भाजपा को मजबूती मिली। डा. रमन सिंह ने अपनी कार्यशैली से विपक्षी दलों को एक होने के अवसर नहीं दिया और इसके चलते आसानी के साथ वे दूसरा चुनाव भी जीतकर पुनः मुख्यमंत्री बन गए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के इस बदलते परिवेश को देखें तो पता चलता है कि संयुक्त मप्र में जो राजनेता काफी महत्व रखते थे, नए छत्तीसगढ़ में उनके लिए जगह सिकुड़ती गई। आज का छत्तीसगढ़ सर्वथा नए नेतृत्व के साथ आगे बढ़ रहा है। संयुक्त मप्र में कांग्रेस में स्व. श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, अरविंद नेताम, शिव नेताम, गंगा पोटाई, बीआर यादव, सत्यनारायण शर्मा, चरणदास महंत, भूपेश बधेल, बंशीलाल धृतलहरे, नंदकुमार पटेल, पवन दीवान, केयूर भूषण जैसे चेहरे नजर आते थे, तो भाजपा में स्व.लखीराम अग्रवाल, नंदकुमार साय, मूलचंद खंडेलवाल, रमेश बैस, लीलाराम भोजवानी, अशोक शर्मा, शिवप्रताप सिंह, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेता अग्रणी दिखते थे। किंतु पार्टियों का यह परंपरागत नेतृत्व राज्य गठन के बाद अपनी पुरानी ताकत में नहीं दिखता। नए राज्य के नए नेता के रूप में डा. रमन सिंह, अजीत जोगी, अमर अग्रवाल, धनेंद्र साहू, अजय चंद्राकर, केदार कश्यप, टीएस सिंहदेव, चंद्रशेखर साहू, धरमलाल कौशिक, राजेश मूणत, रामविचार नेताम, वाणी राव, सरोज पाण्डेय, महेश गागड़ा, रामप्रताप सिंह, डा.रेणु जोगी, हेमचंद्र यादव जैसे नामों का विकास नजर आता है। जाहिर तौर पर राज्य की राजनीति परंपरागत मानकों से हटकर नए आयाम कायम कर रही है। उसकी आकांक्षाओं को स्वर और शब्द देने के लिए अब नया नेतृत्व सामने आ रहा है। ऐसे में ये दस साल दरअसल आकांक्षाओं की पूर्ति के भी हैं और बदलते नेतृत्व के भी हैं। छत्तीसगढ़ एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में भाजपा नेतृत्व के सामने है जहां वह तीसरी बार सरकार आने की उम्मीद पाल बैठी है। जबकि राज्य का परंपरागत वोटिंग पैटर्न इसकी इजाजत नहीं देता। राज्य गठन के पहले इस इलाके की सीटें जीतकर ही कांग्रेस मप्र में सरकार बनाया करती थी। किंतु पिछले दो चुनावों में लोकसभा की 10-10 सीटें दो बार जीतकर और विधानसभा की 50-50 सीटें लगातार दो चुनावों में जीतकर भाजपा ने जो करिश्मा किया है, उसकी मिसाल न मिलेगी। कांग्रेस के लिए आज यह राज्य एक कठिन चुनौती बन चुका है। देश के दूसरे हिस्सों से छत्तीसगढ़ को देखना एक अलग अनुभव है। बस्तर की निर्मल और निर्दोष आदिवासी संस्कृति, साथ ही नक्सल के नाम मची बारूदी गंध व मांस के लोथड़े, भिलाई का स्टील प्लांट, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्लरी, गरीबी, पलायन और अंतहीन शोषण के किस्से यह हमारी पहचान के कुछ दृश्य हैं, जिनसे छतीसगढ़ का एक कोलाज बनता है। छत्तीसगढ़ आज भी इस पहचान के साथ खड़ा है। वह अपने साथ शुभ को रखना चाहता है और अशुभ का निष्कासन चाहता है। छत्तीसगढ़ महतारी की मुक्ति और उसकी पीड़ा के हरण के लिए तमाम भागीरथ सक्रिय हैं। दसवें साल पर छत्तीसगढ़ को देश भी एक आशा के साथ देख रहा है।

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

पत्रकार संजय द्विवेदी को वाड्.मय पुरस्कार


भोपाल,5 अक्टूबर। युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी को उनकी नई किताब ‘मीडिया नया दौर नई चुनौतियां ’ के लिए इस वर्ष का वाड्.मय पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गयी है। स्व. हजारीलाल जैन की स्मृति में प्रतिवर्ष किसी गैर साहित्यिक विधा पर लिखी गयी किताब पर यह सम्मान दिया जाता है। मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा संचालित इस सम्मान समारोह का आयोजन आगामी 10 अक्टूबर,2010 में 11 बजे भोपाल स्थित हिंदी भवन में किया गया है। समारोह के मुख्यअतिथि मप्र के राज्यपाल श्री रामेश्वर ठाकुर होंगे तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रदेश के नगरीय विकास मंत्री श्री बाबूलाल गौर करेंगें। विशिष्ट अतिथि के रूप में सांसद श्री रधुनंदन शर्मा मौजूद होंगें। श्री द्विवेदी अनेक प्रमुख समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं और संप्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। संजय की यह किताब यश पब्लिकेशन, दिल्ली ने छापी है और इसमें मीडिया के विविध संदर्भों पर लिखे उनके लेख संकलित हैं।

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

संचार माध्यमों का संयम


अयोध्या मामले पर मीडिया की भूमिका को सलाम कीजिए
-संजय द्विवेदी

मीडिया, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका पर उठते सवालों के बीच अयोध्या मामले पर उसकी प्रस्तुति और संदेश एक नया चित्र उपस्थित करते नजर आते हैं। अयोध्या के मामले पर फैसला आने से पहले ही मीडिया ने जो रूख और लाइन अख्तियार की, वह अपने आप में सराहनीय है। अयोध्या के फैसले को लेकर जिस तरह का वातावरण बनाया गया था, उससे एक दहशत और सिहरन का अहसास होता था। कई बार लगता कि कहीं फिर हम उन्हीं खूरेंजीं दिनों में न लौट जाएं, जिनकी यादें आज भी हिंदुस्तान को सिहरा देती हैं। हुंकारों और ललकारों के उस दौर से हालांकि हिंदुस्तान बहुत आगे निकल आया है और आज की पीढ़ी के मूल्य व उसकी जरूरतें बहुत जुदा हैं। मीडिया ने देश की इस भावना को पकड़कर अयोध्या पर अपनी लाइन ली और उसने जिस तरह अपने को प्रस्तुत किया, उससे मीडिया की एक राष्ट्रीय भूमिका समझ में आती है। मीडिया पर जिस तरह की गैरजिम्मेदार प्रस्तुति के आरोप पिछले दिनों लगे हैं, अयोध्या मामले पर उसकी गंभीरता ने उसे पापमुक्त कर दिया है।
अयोध्या का फैसला आने से पहले से ही आप देश के प्रिंट मीडिया पर नजर डालें देश के सभी प्रमुख अखबार किस भाषा में संवाद कर रहे थे ? जबकि 90 के दशक में भारतीय प्रेस परिषद ने माहौल को बिगाड़ने में कई अखबारों को दोषी पाया था। किंतु इस बार अखबार बदली हुयी भूमिका में थे। वे राष्ट्रधर्म निभाने के लिए तत्पर दिख रहे थे। फैसले के पहले से ही अमन की कहानियों को प्रकाशित करने और फैसले के पक्ष में जनमानस का मन बनाने में दरअसल अखबार सफल हुए। ताकि सांप्रदायिकता को पोषित करने वाली ताकतें इस फैसले से उपजे किसी विवाद को जनता के बीच माहौल खराब करने का साधन न बना सकें। यह एक ऐसी भूमिका थी जिससे अखबारों एक वातावरण रचा। मीडिया की ताकत आपको इससे समझ में आती है। शायद यही कारण था कि राजनीति के चतुर सुजान भी संयम भरी प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर हुए। इसका कारण यह भी था कि इस बार मीडिया के पास भड़काने वाले तत्वों के लिए खास स्पेस नहीं था। उस हर आदमी से बचने की सचेतन कोशिशें हुयीं, जो माहौल में अपनी रोटियां सेंकने की कोशिशें कर सकता था। अदालत का दबाव, जनता का दबाव और मीडिया के संपादकों का खुद का आत्मसंयम इस पूरे मामले में नजर आया। टीवी मीडिया की भूमिका निश्चय ही फैसले के दिन बहुत प्रभावकारी थी। एक दिन पहले से ही उसने जो लाइन ली, उसने फैसले को धैर्य से सुनने और संयमित प्रतिक्रिया करने का वातावरण बनाया। यह एक ऐसी भूमिका थी जो मीडिया की परंपरागत भूमिका से सर्वथा विपरीत थी। टीवी सूचना माध्यमों को आमतौर पर बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। टीआरपी की होड़ ने दरअसल उन्हें उनके लक्ष्य पथ से विचलित किया भी है। किंतु अयोध्या के मामले पर उसकी पूरी प्रस्तुति पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का बड़े से बड़ा आलोचक सवाल खड़े नहीं कर सकता। इस पूरे वाकये पर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने एक अभियान की तरह अमन के पैगाम को जनता तक पहुंचाया और राजनीतिक व धार्मिक नेताओं को भी इसकी गंभीरता का अहसास कराया। यह मानना होगा कि कोर्ट के फैसले को सुनने और उसके फैसले को स्वीकारने का साहस और सोच, सब वर्गों में दरअसल मीडिया ने ही पैदा किया। राममंदिर जैसे संवेदनशील सवाल पर साठ साल आए फैसले पर इसीलिए देश की राजनीति में फिसलन नहीं दिखी, क्योंकि इस बार एजेंडा राजनेता नहीं, मीडिया तय कर रहा था। यह साधारण नहीं था कि 1990 से 92 के खूंरेंजी दौर के नायक इस बार संचार माध्यमों में वह स्पेस नहीं पा सके जिसने उन्हें मंदिर या बाबरी समर्थकों के बीच महानायक बनाया था। मीडिया संवाद की एक नई भाषा रच रहा था जिसमें जनता के सवाल केंद्र में थे, एक तेजी से बढ़ते भारत का स्वप्न था, नए भारतीयों की आकांक्षाएं थीं, सबको साथ रहने की सलाहें थीं। यह एजेंडा दरअसल मीडिया का रचा हुआ एजेंडा था, अदालत के निर्देशों ने इसमें मदद की। उसने संयम रखने में एक वातावरण बनाया। देश में कानून का राज चलेगा, ऐसी स्थापनाएं तमाम टीवी विमर्शों से सामने आ रही थीं।
आप कल्पना करें कि मीडिया अगर अपनी इस भूमिका में न होता तो क्या होता। आज टीवी न्यूज मीडिया जितना पावरफुल है उसके हाथ में जितनी शक्ति है, वह पूरे हिंदुस्थान को बदहवाश कर सकता था। प्रायोजित ही सही, जैसी प्रस्तुतियां और जैसे दृश्य टीवी न्यूज मीडिया पर रचे गए, वे बिंब भारत की एकता की सही तस्वीर को स्थापित करने वाले थे। मीडिया, फैसले के इस पार और उस पार कहीं नहीं था, वह संवाद की स्थितियां बहाल करने वाला माध्यम बना। फैसले से पहले ही उसने अपनी रचनात्मक भूमिका से दोनों पक्षों और सभी राजनीतिक दलों को अमन के पक्ष में खड़ाकर एक रणनीतिक विजय भी प्राप्त कर ली थी, जिससे फैसले के दिन कोई पक्ष यू-टर्न लेने की स्थितियों में नहीं था। सही मायने में आज देश में कोई आंदोलन नहीं है, मीडिया ही जनभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रगटीकरण का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। देश ने इस दौर में मीडिया की इस ताकत को महसूसा भी है। फिल्म, टेलीविजन दोनों ने देश के एक बड़े वर्ग को जिस तरह प्रभावित किया है और आत्मालोचन के अवसर रचे हैं, वे अद्भुत हैं। पीपली लाइव जैसी फिल्मों के माध्यम से देश का सबसे प्रभावी माध्यम(फिल्म) जहां किसानों की समस्या को रेखांकित करता है वही वह न्यूज चैनलों को मर्यादाएं और उनकी लक्ष्मणरेखा की याद भी दिलाता है। ऐसे ही शल्य और हस्तक्षेप किसी समाज को जीवंत बनाते हैं। अयोध्या मामले पर मीडिया और पत्रकारिता की जनधर्मी भूमिका बताती है कि अगर संचार माध्यम चाह लें तो किस तरह देश की राजनीति का एजेंडा बदल सकते हैं। माध्यमों को खुद पर भरोसा नहीं है किंतु अगर वे आत्मविश्वास से भरकर पहल करते हैं तो उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। क्योंकि सही बात को तो बस कहने की जरूरत होती है, अच्छी तो वह लग ही जाती है। अयोध्या मामले के बहाने देश के मीडिया ने एक प्रयोग करके देखा है, देश के तमाम सवालों पर अभी उसकी ऐसी ही रचनात्मक भूमिका का इंतजार है।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

खबर की कोई विचारधारा नहीं होतीः प्रभात झा


संजय द्विवेदी की पुस्तक का लोकार्पण समारोह
भोपाल। पत्रकारिता सदैव मिशन है, यह कभी प्रोफेशन नही बन सकती। रोटी कभी राष्ट्र से बड़ी नहीं हो सकती। मीडिया के हर दौर में लोकतंत्र की पहरेदारी का कार्य अनवरत जारी रहा है। उक्त आशय के वक्तव्य वरिष्ठ पत्रकार एवं सांसद प्रभात झा ने व्यक्त किए। वे संजय द्विवेदी की पुस्तक ‘मीडिया: नया दौर नई चुनौतियां’ के लोकार्पण के अवसर पर मुख्यअतिथि की आसंदी से बोल रहे थे। समारोह में श्री झा ने कहा कि खबर की कभी मौत नहीं हो सकती। खबर की कोई विचारधारा नहीं होती। न्यूज में व्यूज नहीं होना चाहिए। इन्फॉरमेशन केवल सोर्स है, न्यूज नहीं। इन्फॉरमेशन का कन्फरमेशन ही न्यूज है। पत्रकारिता में अपग्रेड होने के लिए अपडेट होना आवश्यक है। संवेदनात्मक विषय पर सनसनी फैलाना गलत है। शब्द आराधना है, ब्रह्म है, ओम् है, उपासना है। जो शब्दों से मजाक करते हैं, उनकी पत्रकारिता बहुत कम समय तक रहती है।
श्री झा ने कहा कि पत्रकारिता में अवसर है, चुनौती है, खतरे भी हैं। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण मिथक तोड़ना सिद्धांतो के खिलाफ है। जीवटता व जीवन-मूल्य को पत्रकारिता में धारण करना पड़ेगा। यह किसी पुस्तक में नहीं मिलेगा। विज्ञापन कभी खबर नहीं बन सकता और खबर कभी विज्ञापन नहीं हो सकती। पत्रकार को यह समझना चाहिए कि कहाँ फायर करना है और कहाँ मिसफायर करना है। उन्होंने कहा कि नए दौर में सबसे बड़ी बात पारदर्शिता है। आज के दौर में आप कुछ भी करिए, मीडिया उसे जान ही लेगा। मीडिया का जितना महत्व बढ़ता जा रहा है, उसकी जिम्मेदारी उतनी ही बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में मालिक को पत्रकार मत बनने दीजिए। लोकाधिकार का दुरुपयोग करने से मीडिया अविश्वसनीय हो जाएगा।
कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि और इंडिया टीवी के कार्यकारी संपादक रविकांत मित्तल ने कहा कि पुस्तक के लेखक संजय द्विवेदी के लेख शोधपरक होते हैं। यह किताब मीडिया की वर्तमान स्थिति पर गंभीर प्रकाश डालती है। संजय एक ऐसे लेखक हैं जिनके लेखन में उत्तेजना नहीं, संयम है। वे एक जिम्मेदार मीडिया विश्वेषक हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के कुलपति प्रो. बी.के.कुठियाला ने कहा कि पत्रकारिता का ध्येय सत्यम शिवम सुंदरम् होना चाहिए। कल्याणकारी सत्य ही प्रकाशित और प्रसारित होना चाहिए। उन्होंने श्री द्विवेदी के लेखन की मौलिकता की प्रशंसा की। समारोह का उद्घाटन अतिथियों ने माँ सरस्वती और माखनलाल जी के चित्र के सामने दीप-प्रज्वलन कर किया। इस अवसर पर अतिथियों का सम्मान भी शाल-श्रीफल देकर किया गया। कार्यक्रम में छात्र-छात्राओं ने देशभक्ति गीत गाकर वातावरण को सरस बना दिया। संचालन एनी अंकिता और गौरव मिश्रा ने किया तथा आभार प्रदर्शन हेमंत पाणिग्रही ने किया। समारोह में सर्वश्री दीपक तिवारी, शिव अनुराग पटैरया, बृजेश राजपूत, नरेंद्र जैन, रमेश शर्मा, डॉ मंजुला शर्मा, भारत शास्त्री, मनोज शर्मा, विजय मनोहर तिवारी, जी. के. छिब्बर, डॉ हितेश वाजपेय़ी, रामभुवन सिंह कुशवाह, विजय बोंद्रिया, अरुण तिवारी सौरभ मालवीय, ओमप्रकाश गौड़, हितेश शुक्ल, दीपक शर्मा, डा. श्रीकांत सिहं, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. अविनाश वाजपेयी, पुष्पेंद्रपाल सिंह, रजिस्ट्रार सुधीर त्रिवेदी, हर्ष सुहालका, सरमन नगेले, विनय त्रिपाठी, दीपेंद्र सिहं बधेल, राजेश पाठक, मीता उज्जैन, डा. मोनिका वर्मा, डा. रंजन सिंह, डा. राखी तिवारी, साधना सिंह, नीलिमा भार्गव, आकृति श्रीवास्तव सहित बड़ी संख्या में विद्वान पत्रकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं सहित बडी संख्या में पत्रकारिता के विद्यार्थी उपस्थित थे।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

संजय द्विवेदी की मीडिया केंद्रित पुस्तक का लोकार्पण 22 को


भोपाल। पत्रकार एवं मीडिया विश्वेषक संजय द्विवेदी की पुस्तक “मीडियाः नया दौर, नई चुनौतियां” का लोकार्पण समारोह 22 सितंबर, 2010 को अपराह्न 3.30 बजे भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सभागृह में आयोजित किया गया है।
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि वरिष्ठ पत्रकार एवं सांसद प्रभात झा होंगें तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें। आयोजन में इंडिया टीवी के कार्यकारी संपादक रविकांत मित्तल, विशिष्ट अतिथि होंगें। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की यह किताब यश पब्लिकेशन दिल्ली ने प्रकाशित की है, जिसमें आज के मीडिया पर खास विमर्श है।
पुस्तक परिचयः
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मीडिया विमर्श के हिंदी पर केंद्रित अंक का विमोचन


‘विश्वभाषा बनेगी हिंदी’ पर हुआ विमर्श
रायपुर,14 सितंबर। मीडिया विमर्श के हिंदी पर केंद्रित अंक का विमोचन छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने किया। बीज भवन में आयोजित कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के पूर्व नेता प्रतिपक्ष एवं सांसद नंदकुमार साय, राज्यसभा के सदस्य श्रीगोपाल व्यास, छत्तीसगढ़ ग्रंथ अकादमी के संचालक एवं दैनिक भास्कर के पूर्व संपादक रमेश नैयर, छत्तीसगढ़ राज्य कृषक कल्याण परिषद के उपाध्यक्ष डा. विशाल चंद्राकर विशेष रुप से मौजूद थे।
आयोजन में ‘विश्वभाषा बनेगी हिंदी’ पर विषय पर वक्ताओं ने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए।
अपने संबोधन में कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने कहा कि हिंदी विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है, किंतु हमें अपने प्रयासों में तेजी लाने की जरूरत है। हमें गुलामी की मानसिकता छोड़कर तेजी से कदम बढ़ाने होंगें। उन्होंने मीडिया विमर्श के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि वह पत्रकारों बंधुओं का एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मंच बन गयी है। जिसके अंकों ने विविध संदर्भों पर सार्थक बहस का सूत्रपात किया है। सांसद नंदकुमार साय ने हिंदी की वैज्ञानिकता का जिक्र करते हुए कहा कि उसके विश्वभाषा बनने में शक नहीं है। राजकाज की भाषा में हिंदी का दखल बढ़ना चाहिए। चीन, जापान को हमें उदाहरण के रूप में लेना चाहिए जिन्होंने स्वभाषा में ही प्रगति की। सांसद श्रीगोपाल व्यास ने कहा कि हिंदी के लिए मैं ताजिंदगी काम करता रहूंगा, एक सांसद के नाते मैं इस दिशा में निरंतर सक्रिय हूं। वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर ने कहा कि हिंदी भारतीय संस्कृति एवं हमारे सरोकारों की भाषा है। वैश्विक भाषाई सर्वेक्षण में हिंदी दूसरे क्रम पर है, सो वह विश्वभाषा तो बन चुकी है। हमें इसे लेकर किसी हीनताबोध का शिकार नहीं होना चाहिए।
स्वागत भाषण कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष डा. शाहिद अली ने किया। कार्यक्रम का संचालन पत्रिका के संपादक मंडल के सदस्य प्रभात मिश्र ने एवं आभार प्रदर्शन डा. दिनेश शर्मा ने किया। इस अवसर पर गुरू घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की रीडर डा. गोपा बागची, हेमंत पाणिग्राही, नवीन ओझा, सुभाष शर्मा, हरिभाई बाहेती, बीज निगम के प्रबंध संचालक एएन मिश्रा, डा. विनीता पाण्डेय, प्रशांत नीरज ठाकर, अनुराग जैन, एस. चावला मौजूद रहे।
इस अंक में क्या है खासः मीडिया विमर्श के सितंबर,2010 के इस अंक में सर्वश्री असगर वजाहत, रमेश नैयर, अष्टभुजा शुक्ल प्रकाश दुबे, बसंत कुमार तिवारी प्रो. कमल दीक्षित, प्रभु जोशी, डा. सुभद्रा राठौर,अरूंधती राय, कनक तिवारी, संजय द्विवेदी, साजिद रशीद आदि महत्वपूर्ण लेखकों के लेख प्रकाशित किए गए हैं। पत्रिका प्राप्ति का संपर्क है- संपादकः मीडिया विमर्श, 328, रोहित नगर, फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल- 39 (मप्र)

बुधवार, 15 सितंबर 2010

समझौतों के खिलाफ थी सर्वेश्वर की पत्रकारिता

जयंती (15 सितंबर,1927 एवं पुण्यतिथि 23सितंबर,1983) पर विशेषः
-संजय द्विवेदी
अपने तीखे तेवरों से सम्पूर्ण भारतीय पत्रकारिता जगत को चमत्कृत करने वाले सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की उपलब्धियां बड़े महत्व की हैं । सर्वेश्वर जी मूलतः कवि एवं साहित्यकार थे, फिर भी वे जब पत्रकारिता में आए तो उन्होंने यह दिखाया कि वे साथी पत्रकारों से किसी मामले में कमतर नहीं हैं । दिनमान के प्रारंभ होने पर उसके संस्थापक संपादक श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय ने कवि सर्वेश्वर में छिपे पत्रकार को पहचाना तथा उन्हें दिनमान की टीम में शामिल किया । दिनमान पहुंच कर सर्वेश्वर ने तत्कालीन सवालों पर जिस आक्रामक शैली में हल्ला बोला तथा उनके वाजिब एवं ठोस उत्तर तलाशने की चेष्टा की, वह महत्वपूर्ण है । खबरें और उनकी तलाश कभी सर्वेश्वर जी की प्राथमिकता के सवाल नहीं रहे, उन्होंने पूरी जिंदगी खबरों के पीछे छिपे अर्थों की तलाश में लगाई। उन्होंने समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया।
उन्होंने बचपन एवं युवावस्था का काफी समय गांव में बड़ी विपन्नता एवं अभावों के बीच गुजारा था। वे एक छोटे से कस्बे (बस्ती-उप्र) से आए थे। जीवन में संघर्ष की स्थितियों ने उनको एक विद्रोही एवं संवेदनशील इन्सान बना दिया था। वे गरीबों, वंचितों, दलितों पर अत्याचार देख नहीं पाते थे । ऐसे प्रसंगों पर उनका मन करुणा से भर उठता था । जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया उनके पत्रकारिता लेखन एवं कविताओं में दिखती है । उन्होंने आम आदमी की जिंदगी को, हमारे आपके परिवेश के संकट को आत्मीय, सहज एवं विश्वसनीय शिल्प में ढालकर व्यक्त किया है । उनका कहा हुआ हमारी चेतना में समा जाता है । पाठक को लगता है इस सबमें उसकी बहुत बड़ी हिस्सेदारी है । इन अर्थों में सर्वेश्वर परिवेश को जीने वाले पत्रकार थे । वे न तो चौंकाते हैं, न विज्ञापनी वृत्ति को अपनाते हैं और न संवेदना और शिल्प के बीच कोई दरार छोड़ते हैं।
श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पत्रकारिता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह अपने परिवेश पर चौकस निगाहें रखते हैं । उन्होंने राष्ट्रीय सीमाओं से मिली अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को भी देखा है । वे गांधी, नेहरु, इंदिरा गांधी, लोहिया, विनोबा के देश को भी देखते हैं तो दुनिया में घट रही घटनाओं पर भी नजर रखते हैं । उन्होंने लोकतंत्र का अर्थ समझा है तो संसद की दृश्यावली को भी समझा है । वे महंगाई के भूत-पिशाच को भी भोगते रहे हैं और व्यवस्था की भ्रष्टता का भी अनुभव करते हैं । उनकी नजर भूखे आदमी से लेकर सत्ता के भूखे भेड़ियों तक है । इसी के चलते उनकी पत्रकारिता का एक-एक शब्द परिवेश का बयान है । सर्वेश्वर जी इसी के चलते अपने युगीन संदर्भों, समस्याओं और देश के बदलते मानचित्र को भूल नहीं पाते । उन्होंने युद्ध, राजनीति, समाज, लोकतंत्र, व्यवस्था गरीबी, कला-संस्कृति हर सवाल पर अपनी कलम चलाई है । युद्ध हो या राजनीति, लोकतंत्र हो या व्यवस्थाकर्ताओं का ढोंग, गरीबी हटाने का नारा हो या कम्बोडिया पर हुए अत्याचार का सवाल या अखबारों की स्वायत्तता का प्रश्न, सर्वेश्वर सर्वत्र सजग हैं । उनकी दृष्टि से कुछ भी बच नहीं पाता । फलतः वे घुटन और बेचैनी महसूस करते हुए, आवेश में आकर कड़ी से कड़ी बात करने में संकोच नहीं करते । उनकी पत्रकारिता संवेदना के भावों तथा विचारों के ताप से बल पाती है। वस्तुतः सर्वेश्वर की पत्रकारिता में एक साहसिक जागरुकता सर्वत्र दिखती है।सर्वेश्वर जी के लिए पत्रकारिता एक उत्तदायित्वपूर्ण कर्म है । वे एक तटस्थ चिंतक, स्थितियों के सजग विश्लेषक एवं व्याख्याकार हैं । सर्वेश्वर न तो सत्ता की अर्चना के अभ्यासी हैं और न पत्रकारिता में ऐसा होते देखना चाहते हैं । समसामयिक परिवेश कि विसंगतियों और राजनीति के भीतर फैली मिथ्या-चारिता को भी वे पहचानते हैं।वे हमारी सामाजिक एवं व्यवस्थागत कमियों को भी समझते है।
सर्वेश्वर जी के पत्रकार की संवेदना एवं सम्प्रेषण पर विचार करने से पूर्व यह जानना होगा कि कलाकारों की संवेदना, आम आदमी से कुछ अधिक सक्रिय, अधिक ग्रहणशील और अधिक विस्तृत होती हैं । सर्वेश्वर की संवेदना के धरातलों में समसामयिक संदर्भ, सांस्कृतिक मूल्य, मनोवैज्ञानिक संदर्भ और राजनीति तक के अनुभव अनुभूति में ढलकर संवेदना का रूप धारण करते रहे हैं । अनेक संघर्षों की चोट खाकर सर्वेश्वर का पत्रकार अपनी संवेदना को बहुआयामी और बहुस्तरीय बनाता रहा है। इसके चलते सर्वेश्वर की संवेदना स्वतः पाठकीय संवेदना का हिस्सा बन गई है। वस्तुतः सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता समझौतों के खिलाफ है ।
लोकमंगल की भावना से की पत्रकारिताः
वे सदैव लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित रहे हैं । उनकी पत्रकारिता में आम आदमी की पीड़ा को स्वर मिला है । इसके चलते उन्होंने सामाजिक जटिलताओं एवं विसंगतियों पर तीखे सवाल किए हैं । आजादी के बाद के वर्षों में साम्राज्यवादी शक्तियों और उपनिवेशवादी चरित्रों ने अमानवीयता, पशुता, मिथ्या, दंभ और असंस्कृतिकरण को बढ़ावा दिया है। प्रजातंत्र को तानाशाही का पर्याय बना दिया है, मनमानी करने का माध्यम बना दिया है । फलतः गरीबी, भूख, बेकारी और भ्रष्टाचार बढ़ा है । ये स्थितियां सर्वेश्वर को बराबर उद्वेलित करती हैं और उन्होंने इन प्रश्नों पर तीखे सवाल खड़े किए हैं । उनका पत्रकार ऐसी स्थितियों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ता नजर आता है । व्यक्ति की त्रासदी, समाज का खोखला रूप और आम आदमी का दर्द – सब उनकी पत्रकारिता में जगह पाते हैं । यह पीड़ा सर्वेश्वर की पत्रकारिता में बखूबी महसूसी जा सकती है। वे अपने स्तंभ चरचे और चरखे में कभी दर्द से, कभी आक्रोश से तो कभी विश्लेषण से इस पीड़ा को व्यक्त करते हैं । पत्रकार सर्वेश्वर इन मोर्चों पर एक क्रांतिकारी की तरह जूझते हैं। उनकी पत्रकारिता में वैचारिकता की धार भी है । उनकी वैचारिकता का मूल मंत्र यह है कि वे अराजकता, विश्रृंखलता, विकृति, अस्तित्वहीनता और सड़ांध को कम करके स्वस्थ जीवन दृष्टि के आकांक्षी हैं । वे स्वतंत्र चिंतन के हिमायती, निजता एवं अस्मिता के कायल, जिजीविषा के साथ दायित्वबोध के समर्थक, पूंजीवादी, अवसरवादी और सत्तावादी नीतियों के कटु आलोचक रहे तथा पराश्रित मनोवृत्तियों के विरोधी हैं । सीधे अर्थ में सर्वेश्वर की पत्रकारिता समाजवादी चिंतन से प्रेरणा पाती है । वे एक मूल्यान्वेषी पत्रकार दृष्टि के विकास के आकांक्षी हैं जिसमें मनुष्य, मनुष्य और जीवन रहे हैं।सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता अपने समय, समाज और परिवेश को कभी उपेक्षित करके नहीं चलती ।सर्वेश्वर की पत्रकारिता में स्वातंत्र्योत्तर भारत के कई रंग हैं, वे चुनौतियां हैं जो हमारे सामने रही हैं, वे विचारणाएं रहीं हैं जो हमने पाई हैं, वे समस्याएं हैं जो हमारे लिए प्रश्न रही हैं। साथ ही वह वैज्ञानिक बोध है जिसने बाहरी सुविधाओं का जाल फैलाकर आदमी को अंदर से निकम्मा बना दिया है । भूख, बेकारी, निरंतर बढ़ती हुई दुनिया, आदमी, उसके संकट और आंतरिक तथा बाह्य संघर्ष, उसकी इच्छाएं, शंकाएं, पीड़ा और उससे जन्मी निरीह स्थितियां, शासन तंत्र, राजनीतिक प्रपंच, सत्ताधीशों की मनमानी, स्वार्थपरता, अवसरवादिता, शोषकीय वृत्ति, अधिनायकवादी आदतों, मिथ्या आश्वासन, विकृत मनोवृत्तियां, सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन, ईमान बेचकर जिंदा रहने की कोशिश जैसी अनगिनत विसंगतियां सर्वेश्वर की लेखकीय संवेदना का हिस्सा बनी हैं । परिवेश के प्रति यह जाकरुकता पत्रकार सर्वेश्वर की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है । कहने का तात्पर्य सर्वेश्वर की पत्रकारिता में समसामयिक परिवेश का गहरा साक्षात्कार मिलता है।
बालपत्रिका पराग के संपादकः
सर्वेश्वर बाद के दिनों में अपने समय की सुप्रसिद्ध बाल पत्रिका पराग के सम्पादक बने । उन्होंने पराग को एक बेहतर बाल पत्रिका बनाने की कोशिश की । इन अर्थों में उनकी पत्रकारिता में बाल पत्रकारिता का यह समय एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप रेखांकित किया जाना चाहिए । बाल साहित्य के सृजन को प्रोत्साहन देने वालों में सर्वेश्वर का स्थान महत्वपूर्ण था । उन्होंने इस भ्रम को तोड़ने का प्रयास किया कि बड़ा लेखक बच्चों के लिए नहीं लिखता तथा उच्च बौद्धिक स्तर के कारण बच्चों से संवाद स्थापित नहीं कर सकता । सर्वेश्वर ने यह कर दिखाया । पराग का अपना एक इतिहास रहा है । आनंद प्रकाश जैन ने इसमें कई प्रयोग किए । फिर कन्हैया लाल नन्दन इसके संपादक रहे । नंदन जी के दिनमान का संपादक बनने के बाद सर्वेश्वर ने पराग की बागडोर संभाली । सर्वेश्वर के संपादन काल पराग की गुणवत्ता एवं प्रसार में वृद्धि हुई । उन्होंने तमाम नामवर साहित्यकारों पराग से जोड़ा और उनसे बच्चों के लिए लिखवाया । उन्होंने ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निबाही । सर्वेश्वर मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता । सर्वेश्वर की यह अग्रगामी सोच उन्हें एक बाल पत्रिका के सम्पादक के नाते प्रतिष्ठित और सम्मानित करती है।
जनभाषा को बनाया अनुभव की भाषाः
इसके अलावा सर्वेश्वर ने भाषा के सवाल पर महत्वपूर्ण उपलब्धियां अर्जित की । उन्होंने भाषा के रचनात्मक इस्तेमाल पर जोर दिया, किंतु उसमें दुरुहता पैदा न होने दी । सर्वेश्वर की पत्रकारिता में सम्प्रेषण शक्ति गजब की है । उन्हें कथ्य और शिल्प के धरातल पर सम्प्रेषणीयता का बराबर ध्यान रखा है । उनकी भाषा में जीवन और अनुभव का खुलापन तथा आम आदमी के सम्पृक्ति का गहरा भाव है । वे एक अच्छे साहित्यकार थे इसलिए उनकी लेखनी ने पत्रकारिता की भाषा को समर्थ एवं सम्पन्न बनाया । सर्वेश्वर का सबसे बड़ा प्रदेय यह था कि उन्होंने जनभाषा को अनुभव की भाषा बनाया, पारम्परिक आभिजात्य को तोड़कर नया, सीधा सरल और आत्मीय लिखने, जीवन की छोटी से छोटी चीजों को समझने की कोशिश की।सर्वेश्वर में एक तीखा व्यंग्यबोध भी उपस्थित था । अपने स्तंभ चरचे और चरखे में उन्होंने तत्कालीन संदर्भों पर तीखी व्यंग्यात्मक टिप्पणियां लिखीं । सर्वेश्वर के व्यंग्य की विशेषता यह है कि वह मात्र गुस्सा न होकर शिष्ट, शालीन और रचनात्मक है । वह आक्रामक तो है पर उसकी शैली महीन है । सर्वेश्वर ने प्रायः व्यंग्य के सपाट रूप को कम ही इस्तेमाल किया है । उनकी वाणी का कौशल उनको ऐसा करने से रोकता है । प्रभावी व्यंग्य वह होता है जो आलंबन को खबरदार करते हुए सही स्थिति का अहसास करा सके । ड्राइडन ने एक स्थान पर लिखा है कि “किसी व्यक्ति के निर्ममता से टुकड़े-टुकड़े कर देने में तथा एक व्यक्ति के सर को सफाई से धड़ से अलग करके लटका देने में बहुत अंतर है । एक सफल व्यंग्यकार अप्रस्तुत एवं प्रच्छन्न विधान की शैली में अपने भावों को व्यक्त कर देता है । वह अपने क्रोध की अभिव्यक्ति अलंकारिक एवं सांकेतिक भाषा में करता है ताकि पाठक अपना स्वतंत्र निष्कर्ष निकाल सके । व्यंग्यकार अपने व्यक्तित्व को व्यंग्य से अलग कर लेता है । ताकि व्यंग्य कल्पना के सहारे अपने स्वतंत्र रूप में कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश कर सके । कुल मिला कर सर्वेश्वर की पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता का एक स्वर्णिम अध्याय है जो पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ती है ।
साहित्य में बनाई एक बड़ी जगहः
सर्वेश्वर ने अपनी लेखनी से जहाँ पत्रकारिता को लालित्य का पुट दिया वहीं उन्होंने उनकी वैचारिक तपन को कम नहीं होने दिया । शुद्ध भाषा के आग्रही होने के बावजूद उन्होंने भाषा की सहजता को बनाए रखने का प्रयास किया । भाषा के स्तर पर उनका योगदान बहुत मौलिक था । वे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया(रेडियो) की पत्रकारिता से प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता में आए थे पर यहाँ भी उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई । हालांकि वे सदैव पत्रिका संपादन (दिनमान एवं पराग)से जुड़े रहे, इसलिए उन्हें कभी दैनिक समाचार पत्र में कार्य करने का अनुभव नहीं मिला । हो सकता है कि यदि उन्हें किसी दैनिक समाचार पत्र में कार्य करने का अवसर मिलता तो वे उस पत्र पर अपनी छाप छोड़ पाते । पत्रिका संपादन के एक निष्णात व्यक्तित्व होने के नाते वे एक दैनिक समाचार पत्र के कैसे इस्तेमाल के पक्ष में थे, वे एक सम्पूर्ण दैनिक निकालते तो उसका स्वरूप क्या होता, यह सवाल उनके संदर्भ में महत्पूर्ण हैं । इसके बावजूद दिनमान के प्रारंभकर्ताओं में वे रहे और उन्होंने एक बेहतर समाचार पत्रिका हिंदी पत्रकारिता को दी जिसका अपना एक अलग इतिहास एवं योगदान है ।सर्वेश्वर की रुचियां व्यापक थीं, वे राजनीति, कला, संस्कृति, नाटक, साहित्य हर प्रकार के आयोजनों पर नजर रखते थे । उनकी कोशिश होती थी कि कोई भी पक्ष जो आदमी की बेहतरी में उसके साथ हो जाए, छूट न जाए । उनकी यह कोशिश उनकी पत्रकारिता को एक अलग एवं अहम दर्जा दिलाती है । साहित्य के प्रति अपने अतिशय अनुराग के चलते वे पत्रकारिता जगत के होलटाइमर कभी न हो पाए । अगर ऐसा हो पाता तो शायद हिंदी पत्रकारिता जगत को क साथ ज्यादा गति एवं ऊर्जा मिल पाती,पर हाँ, इससे हिंदी जगत को एक बड़ा साहित्यकार न मिल पाता।

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना होने के मायने


जयंती (15 सितंबर,1927 एवं पुण्यतिथि 23सितंबर,1983) पर विशेषः
-संजय द्विवेदी
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का समूचा व्यक्तित्व एक आम आदमी की कथा है । एक साधारण परिवार में जन्म लेकर अपनी संघर्षशीलता से असाधारण बन जाने की कथा इसी सर्वेश्वर परिघटना में छिपी है। वे आम आदमी से लगते थे पर उनके मन में बड़ा बनने का सपना बचपन से पल रहा था । वे हमेशा संघर्षों की भूमि पर चलते रहे, पर न झुके न टूटे न समझौते किए । उत्तर प्रदेश के एक अत्यंत पिछड़े जिले बस्ती में जन्मे सर्वेश्वर की पारिवारिक परिस्थितियां बहुत बेहतर न थीं । विपन्नता एवं अभावों से भरी जिंदगी उन्हें विरासत में मिली थी । ग्रामीण-कस्बाई परिवेश तथा निम्न मध्यवर्ग की आर्थिक विसंगतियों के बीच सर्वेश्वर का व्यक्तित्व पका एवं निखरा था। गरीबी एवं संघर्षशील जीवन की उके व्यक्तित्व पर गहरी छाया पड़ी, फलतः उनके मन में गहन मानवीय पीड़ाबोध तथा आम आदमी से लगाव था । वे अपने आसपास के परिवेशगत अनुभहों से गहरे जुड़े थे । अपनी माटी, अपनी जमीन एवं उसकी सोंधी गंध बराबर उनके मन में रची-बसी रही । वे एक छोटे कस्बे से बड़े महानगर में आए थे और इस बात को कभी भुला न पाए ।

दिल्ली में रहने के बावजूद बचपन की अनुभूतियां उनके साथ बनी रहीं । अपनी कविता, पत्रकारिता में उन्होंने अपनी जड़ों को लगातार दोहराया। परिवार में सर्वेश्वर के पिता गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे । उनकी माँ प्राध्यापिका थीं । इसके चलते उनमें अच्छे संस्कार एवं लोगों के प्रति संवेदना के बीज उगे । बचपन से ही वे विद्रोही प्रवृत्ति के थे । व्यवस्था एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ वे हमेशा खड़े रहे । बस्ती के किसानों, आम लोगों के दर्दों से सदैव जुड़े रहे । उनकी विपन्नता उनके कष्ट एवं संत्रास लगातार सर्वेश्वर की मानसभूमि में एक संवेदना जगाते रहे।
पारिवारिक जिम्मेदारियों, माँ-पिता की मृत्यु ने सर्वेश्वर को युवावस्था में ही झकझोर कर रख दिया पर बस्ती के खैर इण्टर कॉलेज में साठ रुपए की प्राध्यापकी उनके हौसलों को कम न कर पाई । वे जीवनानुभवों को समेटकर इलाहाबाद चले आए । बस्ती में बिताया समय उनके साथ ताजिंदगी बना रहा । उसने उनके रचना संसार में न सिर्फ गहराई पैदा की वरन उनके मानवीय पीड़ा बोध को महत्वपूर्ण बनाया । कस्बाई-ग्रामीण परिवेश में पकी उनकी सोच को संकीर्ण मानना उचित न होगा, पर यह सच है कि वे अपने ग्रामीण परिवेश से ऐसे जुड़े थे कि वे उससे कभी खुद को अलग न कर पाए ।
बिसरा न पाए माटी की महकः
गांव का यह संस्कार ही उन्हें ज्यादा सदाशय एवं मानवीय बनाता है । बस्ती के अलावा उनकी पढ़ाई बनारस में भी हुई, वे क्वींस कॉलेज बनारस को भी अपने व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण मानते रहे । जीवन एवं नौकरी के लिए संघर्ष सर्वेश्वर में ऐसा जज्बा कायम कर सका, जो उन्हें एक मजबूत इंसान बना गया । जो मूल्यों एवं सिद्धांतों की खातिर कुछ भी निछावर कर सकता था। खैर कॉलेज, बस्ती की साठ रुपए की नौकरी छोड़ कर युवा सर्वेश्वर, प्रयाग आ पहुंचे । यहाँ उन्हें एजी आफिस में नौकरी मिल गई । प्रयाग में सर्वेश्वर के व्यक्तित्व को एक नई ऊर्जा एवं परिवेश मिला । प्रयाग नगर के साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक वातावरण का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा । समाजवादी लोहियावादी चिंतन की गंभीर छाया उनके व्यक्तित्व पर पड़ी । तमाम युवाओं की तरह डॉ. लोहिया के क्रांतिकारी व्यक्तित्व एवं चिंतन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया । प्रयाग की दो संस्थाओं परिमल एवं प्रतीक ने सर्वेश्वर के व्यक्तित्व निर्माण में अहम भूमिका निभाई । सर्वेश्वर के मित्र केशवचंद वर्मा के मुताबिक, “सर्वेश्वर परिमल से जुड़े तो उसमें एकदम सरस हो गए । सर्वेश्वर परिमल के संयोजक बना दिए गए । उनके भीतर का सोया हुआ जल जाग उठा और उनके भीतर से एक अजस्र धारा का प्रवाह जागृत हुआ । वह परिमल का यौवन काल था । अनेक प्रतिभाओं ने परिमल में अपना रचना मंच प्राप्त किया और हिंदी की अनेक श्रेष्ठ रचनाओं का जन्म परिमल की उन्हीं गोष्ठियों का परिणाम था । सर्वेश्वर कई सालों तक परिमल को चलाते रहे । उन गोष्ठियों की जो रिपोर्ट परिमल तैयार करते थे, उनका स्वाद बड़ा ही अनोखा होता था । सभी इसे सुनने को आतुर रहते । साधारण और साधारण को कलम का यह जादूगर कैसे साहित्यिक गरिमा देकर समसायिक और शाश्वत के दोनों छोरों से बांध देता था – उसकी साधना सर्वेश्वर ने तभी से शुरू कर दी थी । इस कला उपयोग उन्होंने दिनमान में चरचे और चरखे स्तंभ में तथा गहरे और सूक्ष्म स्तर पर अपनी कविताओं में किया है ।” श्री वर्मा के अनुसार, “इलाहाबाद में मित्रों के बीच रहने के मोह में सर्वेश्वर एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर में एक छोटी सी नौकरी के माध्यम स रहने लगे । वहां के बाबूगीरी के वातावरण से सर्वेश्वर हमेशा मानसिक रूप से क्षुब्ध रहे । अंततः उनके भीतर के रचनाकार ने जोखिम उठाया और वे लगी-लगाई सरकारी नौकरी छोड़कर दिल्ली चले गए। ”
प्रयाग में वे रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण शाही, हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, केशवचन्द्र वर्मा के संपर्क में आए । विजयदेव नारायण शाही से तो उनकी खासी छनती रही । प्रयाग के बाद वे रेडियो की नौकरी में दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, इंदौर में भी रहे । लखनऊ में उनकी दोस्ती कवि कुंवर नारायण से रही । कुंवर नारायण लिखते हैं – “सर्वेश्वर जब लखनऊ में होते, तो लगभग रोज ही उनसे मिलना हो जाता था । उनकी बेटियां शुभा एवं विभा उन दिनों छोटी थीं । पत्नी अक्सर बीमार रहा करती थीं । इस सबके बीच सर्वेश्वर अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए समय निकाल लेते थे । उन दिनों लखनऊ साहित्यकार सम्पन्न लखनऊ था । इन लोगों की अनेक साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, जिनमें सर्वेश्वर न रहें, यह असंभव था।”
लखनऊ में निवास के दौरान ही सर्वेश्वर के दो कविता संग्रह – बांस का पुल और एक सूनी नाव प्रकाशित हुईं । श्री कुंवर नारायण उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि “शीघ्र ही निरीहता की हद तक भावुक हो जाने वाले सर्वेश्वर और उद्दण्डता की हद तक उत्तेजित हो जाने वाले सर्वेश्वर के अनेक तेवर याद आते हैं। वह सर्वेश्वर नहीं जो प्यार और घृणा, आदर और अनादर, दोनों को ही पराकाष्ठा तक न पहुंचा दे । इसके बावजूद वे अंदर से बहुत सरल स्वभाव वाले व्यक्ति थे । जो जिस समय महसूस करते उसे उसी समय प्रकट कर देते । बिल्कुल बच्चों की तरह खुश होते और उन्हीं की तरह रुष्ट । जब वे उग्र होते तो संयम की सीमा लांघ जाते । जब आत्मीय होते और उन्हीं की तरह तो इतने भावुक कि उनकी कोमलता अभिभूत कर देती ।” श्री कुंवर नारायण मानते हैं कि “ऐसा मुझे हमेशा लगा कि अतिरिक्त सजग होते हुए भी निजी मामलों में वे व्यवहारकुशल नहीं थे । अपने लेखन की आलोचना वे बिल्कुल नहीं सह पाते थे । एक बार मैंने हंसी-हंसी में कुछ कह दिया तो वे आपे से बाहर हो गए । फिर काफी दिनों तक हमारे संबंध असहज रहे ।”

दिल्ली में आकर भी सर्वेश्वर माटी की महक को बिसरा न पाए । वे बराबह महानगर में अपना गांव तलाशते रहे । सर्वेश्वर की मृत्यु के पश्चात दिल्ली में हुई साहित्यकारों की शोकसभा में बोलते हुए प्रख्यात कवि तथा सर्वेश्वर के मित्र स्व. श्रीकांत वर्मा ने कहा था “दिल्ली को उन्होंने कभी स्वीकार न किया और अपनी जड़ों को इनकार नहीं किया ।” इस सबके बावजूद दिल्ली के महानगरीय जटिल एवं संश्लिष्ट परिवेश का सर्वेश्वर के व्यक्तित्व पर खासा असर पड़ा । दिल्ली ने उनके अनुभव जगत को व्यापक बनाया एवं गांवों-कस्बों तक दिल्ली एवं महानगरों की सोच एवं समझ का अंतर समझाया । दिल्ली उनके सरोकारों, चिंताओं एवं शख्सियत को ज्यादा विराट बनाया । दिल्ली के साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं कला क्षेत्र के वे ऐसे जरूरी नाम बन गए कि उनकी जरूरत वहाँ पूरी शिद्दत से महसूसी जाती थी । उनके निधन पर नाट्य समीक्षम नेमिचन्द्र जैन का कहना था कि “उनकी मौजूदगी के बिना दिल्ली के साहित्य कला, रंगमंच के परिदृश्य की कल्पना करना कठिन है । पिछले कुछ वर्षों से सर्वेश्वर इस परिदृश्य का ही नहीं, हममें से बहुतों के आंतरिक परिदृश्य का भी जरूरी हिस्सा, खास पहचान बन गए थे । संगीत, साहित्य, चित्रकला, नाटक के शायद कोई कार्यक्रम हों जहाँ वे मौजूद न रहते हों और अपनी मौजूदगी से उसे भरा-पूरा न करते हों ।” नेमिचंद्र जी कहते हैं, “सर्वेश्वर का यह कलाओं के रसिक और पारखी का रूप मेरे लिए कुछ नया ही था, क्योंकि मैं उन्हें देर तक सिर्फ एक कवि, फिर पत्रकार के रूप में पढ़ता-जानता रहा ।”
कारण जो भी हो सर्वेश्वर उन गिने-चुने पत्रकारों में थे जिन्हें विभिन्न कलाओं से न सिर्फ लगाव था वरन उनके भीतरी रिश्तों, उनकी आपसी निर्भरता का भी उन्हें गहरा अहसास था । इस लगाव और अहसास की छाप उनके व्यक्तित्व और साहित्य दोनों पर दिखाई पड़ने लगी थी, जो उनकी रचना यात्रा में एक नए और उत्तेजक मोड़ की संभावना को रेखांकित करती थी । यह इसलिए और भी कि उनकी कला रसिकता में कोई दिखावा या अहंकार नहीं था, बल्कि शायद इसने उन्हें अधिक सौम्य, उदार एवं ग्रहणशील बनाया ।
लेखन में दिखता है जनपक्ष और लोकमंगलः
इसके कारण वे हर विचार का उदारता एवं उत्साह से स्वागत कर पाते थे, भले वे उससे सहमत न हों । दिनमान में सर्वेश्वर के सहयोगी रहे पत्रकार महेश्वर गंगवार बताते हैं, “सर्वेश्वर जी जब हल्के-फुलके मूड में होते तो अक्सर हमारे बीच आकर बैठकर गपशप मारते, तुकबंदियां करते और चाय पीते । तीखी से तीखी बात भी इतने सहज भाव से कह जाते कि सामने वाला यह भी नहीं समझ पाता कि वह हंसे या रोए । अगर गुस्से में होते तो सारा लिहाज भूल कर जो मन में आता, कह देते । कुछ गांठ बांधकर नहीं रखते । गुस्सा शांत होते ही सहज हो जाते ।” श्री गंगवार याद करते हैं – “मुझे याद है एक दिन मुहावरे के प्रयोग को लेकर मैंने उनका विरोध किया और उन्होंने डांटते कहा – ‘अब भाषा मुझे तुमसे सीखनी पड़ेगी ?’ वह अपन जगह सही थे – शब्द को नया अर्थ देते उन्हें देर नहीं लगती थी । फिर मैं भला उन्हें क्या भाषा सिखाता । लेकिन उस दिन उनका व्यवहार सचमुच भीतर तक बेध गया, क्योंकि मैं सही था । चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया । एक घण्टे बाद वे मेरी और बोले, ‘तुम्हीं सही हो । अब चाय तो मंगाओ।’ दिनमान के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार कन्हैयालाल नन्दन का मानना है कि “सर्वेश्वर जी ऐसे साहित्यकारों में थे जिनकी न तो उपस्थिति की उपेक्षा की जा सकती थी, और न उनके लिखे शब्दों की । सर्वेश्वर इस बात को लेकर बराबर चिंतित रहा करते थे कि लोग इतने ठंडे क्यों पड़ते जा रहे हैं कि लगता है कि जैसे लिखने का कोई अर्थ भी नहीं रहा जा रहा।” सर्वेश्वर के व्यक्तित्व के निर्माण में इन संदर्भों का गहरा प्रभाव पड़ा । आरंभिक समय गांव में तथा विपन्नता व तंगी से परेशान हाल रहने के कारण उनके मन में ग्रामीण व कस्बाई परिवेश से गहरा लगाव दिखता है । शोषित, पीड़ित, दलित एवं वंचित वर्गों की पक्षधरता एवं लगाव उनके सम्पूर्ण लेखन का मूल भाव है । साहित्य एवं पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों में बराबर की दखल ने उनके व्यक्तित्व को इस कदर प्रभावित किया कि उनके साहित्य में पत्रकारिता का दबाव और पत्रकारिता में साहित्य का प्रभाव स्प्ष्ट दिखता है । साहित्य जो स्थायी मूल्यों की ओर उन्मुख होता है, पर पत्रकारिता के प्रभाव के चलते सर्वेश्वर के साहित्य में तात्कालिकता ज्यादा है । पैराफ्रेजिंग, सपाट बयानी एवं समस्याओं के समाधान हेतु साहित्य को हथियार बनाने की रोशिश सर्वेश्वर में स्पष्ट दिखती है । जो निश्चय ही सर्वेश्वर के साहित्य पर पत्रकारीय प्रभाव का प्रमाण है । इसके विपरीत पत्रकारिता में गंभीर दृष्टि के चलते वह तात्कालिकता सु ऊपर उठकर गहन मानवीय दृष्टिकोण की पक्षधरता ग्रहण करती है । इन अर्थों में सर्वेश्वर पत्रकारिता की भाषा को कुछ जटिल बनाते नजर आते हैं । सर्वेश्वर का समूचा व्यक्तित्व इसी द्वन्द की यात्रा है । वे नए शब्द रचने एवं उन्हें नए अर्थ देने में प्रवीण थे । कुल मिलाकर सर्वेश्वर पत्रकारिता की जमीन पर खड़े हों या साहित्य की, वे अपन रचनाकर्म एवं प्रदेय में हमेशा विशिष्ट रहेंगे । उनका काव्य व्यक्तित्व सहज, निश्छल एवं खिलखिलाकर हंस सकने वाला है तो एक आम आदमी की तरह उनके गुस्साने, नाराज हो जाने, बिदकने, निंदा या आलोचना न सुनने जैसे भाव हैं, जो बताते हैं कि सर्वेश्वर एक आम आदमी की तरह जिए । उन्होंने खास होते हुए भी खास दिखने की कोशिश नहीं की ।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

सोमवार, 13 सितंबर 2010

विलाप मत कीजिए, संकल्प लीजिए !


हिंदी दिवस पर विशेषः
- संजय द्विवेदी
राष्ट्रभाषा के रूप में खुद को साबित करने के लिए आज वस्तुतः हिंदी को किसी सरकारी मुहर की जरूरत नहीं है। उसके सहज और स्वाभाविक प्रसार ने उसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिया है। वह अब सिर्फ संपर्क भाषा नहीं है, इन सबसे बढ़कर वह आज बाजार की भाषा है, लेकिन हर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर होने वाले आयोजनों की भाषा पर गौर करें तो यूँ लगेगा जैसे हिंदी रसातल को जा रही है। यह शोक और विलाप का वातावरण दरअसल उन लोगों ने पैदा किया है, जो हिंदी की खाते तो हैं, पर उसकी शक्ति को नहीं पहचानते। इसीलिए राष्ट्रभाषा के उत्थान और विकास के लिए संकल्प लेने का दिन ‘सामूहिक विलाप’ का पर्व बन गया है। कर्म और जीवन में मीलों की दूरी रखने वाला यह विलापवादी वर्ग हिंदी की दयनीयता के ढोल तो खूब पीटता है, लेकिन अल्प समय में हुई हिंदी की प्रगति के शिखर उसे नहीं दिखते।

अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को लेकर हिंदी भक्तों की चिंताएं कभी-कभी अतिरंजित रूप लेती दिखती हैं। वे एक ऐसी भाषा से हिंदी की तुलना कर अपना दुख बढ़ा लेते हैं, जो वस्तुतः विश्व की संपर्क भाषा बन चुकी है और ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें लंबा और गंभीर कार्य हो चुकाहै। अंग्रेजी दरअसल एक प्रौढ़ हो चुकी भाषा है, जिसके पास आरंभ से ही राजसत्ताओं का संरक्षण ही नहीं रहा वरन ज्ञान-चिंतन, आविष्कारों तथा नई खोजों का मूल काम भी उसी भाषा में होता रहा। हिंदी एक किशोर भाषा है, जिसके पास उसका कोई ऐसा अतीत नहीं है, जो सत्ताओं के संरक्षण में फला-फूला हो । आज भी ज्ञान-अनुसंधान के काम प्रायः हिंदी में नहीं हो रहे हैं। उच्च शिक्षा का लगभग अध्ययन और अध्यापन अंग्रेजी में हो रहा है। दरअसल हिंदी की शक्ति यहां नहीं है, अंग्रेजी से उसकी तुलना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए क्योकि हिंदी एक ऐसे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है, जो विश्व मानचित्र पर अपने विस्तारवादी, उपनिवेशवादी चरित्र के लिए नहीं बल्कि सहिष्णुता के लिए जाना जाने वाला क्षेत्र है। फिर भी आज हिंदी, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आवादी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, क्या आप इस तथ्य पर गर्व नहीं कर सकते ? दरअसल अंग्रेजी के खिलाफ वातावरण बनाकर हमने अपने बहुत बड़े हिंदी क्षेत्र को ‘अज्ञानी’ बना दिया तो दक्षिण के कुछ क्षेत्र में हिन्दी विरोधी रूझानों को भी बल दिया । सच कहें तो नकारात्मक अभियान या भाषा को शक्ति नहीं दे सकते । एक भाषा के रूप में अंग्रेजी को सीखने तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को समादर देने, मातृभाषा के नाते मराठी, बंगला या पंजाबी का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। किंतु किसी भाषा को समाज में यदि प्रतिष्ठा पानी है तो वह नकारात्मक प्रयासों से नहीं पाई जा सकती । अंग्रेजी के विस्तारवाद को हमने साम्राज्यवादी ताकतों का षडयंत्र माना और प्रचारित किया। फलतः भावनात्मक रूप से सोचने-समझने वाला वर्ग अंग्रेजी से कटा और आज यह बात समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए गलत नजीर बन गई। यद्यपि अंग्रेजी मुठ्ठीभर सत्ताधीशों, नौकरशाहों और प्रभुवर्ग की भाषा है। वह उनकी शक्ति बन गई है। तो शक्ति को छीनने का एकमेव हथियार है उस भाषा पर अधिकार । यदि देश के तमाम गांवों, कस्बों, शहरों के लोग निज भाषा के आग्रहों आज मुठ्ठी भर लोगों के ‘अकड़ और शासन’ की भाषा न होती। इस सिलसिले में भावनात्मक नारेबाजियों से परे हटकर ‘विश्व परिदृश्य’ में हो रही घटनाओं-बदलावों का संदर्भ देखकर ही कार्यक्रम बनाने चाहिए । यह बुनियादी बात हिंदी क्षेत्र के लोग नहीं समझ सके। आज यह सवाल महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजी सीखकर हम साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी कुछ क्रों से जुझ सकेंगे या उससे अनभिज्ञ रहकर। अपनी भाषा का अभिमान इसमें कहीं आड़े नहीं आता। भारतेंदु की यह बात-‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’ आज के संदर्भ में भी अपनी प्रासंगिकता रखती है। आप इसी भाषा प्रेम के रुझानों को समझने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों पर नजर डालें तो चित्र ज्यादा समझ में आएगा । मैं नहीं समझता कि किसी मलयाली भाषी, तमिल भाषी का अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम किसी बिहार, उ. प्र. या म. प्र. के हिंदी भाषी से कम है लेकिन दक्षिण के राज्यों ने अपनी भाषा के प्रति अनुराग को बनाए रखते हुए अंग्रेजी का भा ज्ञानार्जन किया, हिंदी भी सीखी। यदि वे निज भाषाका आग्रह लेकर बैठ जाते तो शायद वे आज सफलताओं के शिखर न छू रहे होते। आग्रहों से परे स्वस्थ चिंतन ही किसी समाज और उसकी भाषा को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकता है। भाषा को अपनी शक्ति बनाने के बजाए उसे हमने अपनी कमजोरी बना डाला। बदलती दुनिया के मद्देनजर ‘विश्व ग्राम’ की परिकल्पना अब साकार हो उठी है। सो अंग्रेजी विश्व की संपर्क भाषा के रूप में और हिंदी भारत में संपर्क भाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित हो चुकी है, यह चित्र बदला नहीं जा सकता ।

हिंदी की ताकत दरअसल किसी भाषा से प्रतिद्वंद्विता से नहीं वरन उसकी उपयोगिता से ही तय होगी। आज हिंदी सिर्फ ‘वोट माँगने की भाषा’ है, फिल्मों की भाषा है। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां में अभी आधारभूत कार्य होना शेष है। उसने खुद को एक लोकभाषा और जनभाषा के रूप में सिद्ध कर दिया है। किंतु ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें काम होना बाकी है, इसके बावजूद हिंदी का अतीत खासा चमकदार रहा है।नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा हिंदी ही बनी। गांधी ने भाषा की इस शक्ति को पहचाना और करोड़ों लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम हिंदी ही बनी थी। दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिंदी में रचकर हिंदी को एक प्रतिष्ठा दी। जानकारी के लिए ये दोनों महानायक हिंदी भाषा नहीं थे । तिलक, गोखले, पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी ही देश में उठे जनज्वार का कारण बनी । यह वही दौर है जब आजादी की अलख जगाने के लिए ढेरों अखबार निकले । उनमें ज्यादातर की भाषा हिंदी थी। यह हिंदी के खड़े होने और संभलने का दौर था । यह वही दौर जब भारतेन्दु हरिचन्द्र ने ‘भारत दुर्दशा’ लिखकर हिंदी मानस झकझोरा था।उधर पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘आज’ के संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी एक इतिहास रच रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता का यह समय ही हमारी हिंदी पत्रकारिता की प्रेरणा और प्रस्थान बिंदु है।
आजादी के बाद भी वह परंपरा रुकी या ठहरी नहीं है। हिंदी को विद्यालयों विश्वविद्यालयों, कार्यालयों। संसद तथा अकादमियों में प्रतिष्ठा मिली है। तमाम पुरस्कार योजनाएं, संबर्धन के, प्रेरणा के सरकारी प्रयास शुरू हुए हैं। लेकिन इन सबके चलते हिंदी को बहुत लाभ हुआ है, सोचना बेमानी है। हिंदी की प्रगति के कुछ वाहक और मानक तलाशे जाएं तो इसे सबसे बड़ा विस्तार जहां आजादी के आंदोलन ने, साहित्य ने, पत्रकारिता ने दिलाया, वहीं हिंदी सिनेमा ने इसकी पहुँच बहुत बढ़ा दी। सिनेमा के चलते यह दूर-दराज तक जा पहुंची। दिलीप कुमार, राजकूमार, राजकपूर, देवानंद के ‘स्टारडम’ के बाद अभिताभ की दीवनगी इसका कारण बनी। हिंदी न जानने वाले लोग हिंदी सिनेमा के पर्दे से हिंदी के अभ्यासी बने। यह एक अलग प्रकार की हिंदी थी। फिर ट्रेनें, उन पर जाने वाली सवारियां, नौकरी की तलाश में हिंदी प्रदेशों क्षेत्रों में जाते लोग, गए तो अपनी भाषा, संस्कृति,परिवेश सब ले गए । तो कलकत्ता में ‘कलकतिया हिंदी’ विकसित हुई, मुंबई में ‘बम्बईयी हिंदी’ विकसित हुई। हिंदी ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से तादात्म्य बैठाया, क्योंकि हिंदी के वाहक प्रायः वे लोग थे जो गरीब थे, वे अंग्रेजी बोल नहीं सकते थे। मालिक दूसरी भाषा का था, उन्हें इनसे काम लेना था। इसमें हिंदी के नए-नए रूप बने। हिंदी के लोकव्यापीकरण की यह यात्रा वैश्विक परिप्रक्ष्य में भी घट रही थी। पूर्वीं उ. प्र. के आजमगढ़, गोरखपुर से लेकर वाराणसी आदि तमाम जिलों से ‘गिरमिटिया मजदूरों’ के रूप में विदेश के मारीशस, त्रिनिदाद, वियतनाम, गुयाना, फिजी आदि द्वीपों में गई आबादी आज भी अपनी जडो़ से जुड़ी है और हिंदी बोलती है। सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर नवीन रामगुलाम, वासुदेव पांडेय आदि तमाम लोग अपने देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी बने। बाद में शिवसागर रामगुलाम गोरखपुर भी आए। यह हिंदी यानी भाषा की ही ताकत थी जो एक देश में हिंदी बोलने वाले हमारे भारतीय बंधु हैं। इन अर्थों में हिंदी आज तक ‘विश्वभाषा’ बन चुकी है। दुनिया के तमाम देशों में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन का काम हो रहा है।देश में साहित्य-सृजन की दृष्टि से, प्रकाश-उद्योग की दृष्टि से हिन्दी एक समर्थ भाषा बनी है । भाषा और ज्ञान के तमाम अनुशासनों पर हिन्दी में काम शुरु हुआ है । रक्षा, अनुवांशिकी, चिकित्सा, जीवविज्ञान, भौतिकी क्षेत्रों पर हिन्दी में भारी संख्या में किताबें आ रही हैं । उनकी गुणवक्ता पर विचार हो सकता है किंतु हर प्रकार के ज्ञान और सूचना को अभिव्यक्ति देने में अपनी सामर्थ्य का अहसास हिन्दी करा चुकी है । इलेक्ट्रानिक मीडिया के बड़े-बड़े ‘अंग्रेजी दां चैनल’ भी हिन्दी में कार्यक्रम बनाने पर मजबूर हैं । ताजा उपभोक्तावाद की हवा के बावजूद हिन्दी की ताकत ज्यादा बढ़ी है । हिन्दी में विज्ञापन, विपणन उपभोक्ता वर्ग से हिन्दी की यह स्थिति ‘विलाप’ की नहीं ‘तैयारी’ की प्रेरणा बननी चाहिए । हिन्दी को 21वीं सदी की भाषा बनना है । आने वाले समय की चुनौतियों के मद्देनजर उसे ज्ञान, सूचनाओं और अनुसंधान की भाषा के रुप में स्वयं को साबित करना है । हिन्दी सत्ता-प्रतिष्ठानों के सहारे कभी नहीं फैली, उसकी विस्तार शक्ति स्वयं इस भाषा में ही निहित है । अंग्रेजी से उसकी तुलना करके कुढ़ना और दुखी होना बेमानी है । अंग्रेजी सालों से शासकवर्गों तथा ‘प्रभुवर्गों’ की भाषा रही है । उसे एक दिन में उसके सिंहासन से नहीं हटाया जा सकता । हिन्दी का इस क्षेत्र में हस्तक्षेप सर्वथा नया है, इसलिए उसे एक लंबी और सुदीर्घ तैयारी के साथ विश्वभाषा के सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा करनी चाहीए, इसीलिए हिन्दी दिवस को विलाप, चिंताओं का दिन बनाने के बतजाए हमें संकल्प का दिन बनाना होगा। यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी को उसकी जगह दिलाएगा ।

सोमवार, 6 सितंबर 2010

सत्ता से आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता बनाएं लेखकःसंजय


पत्रकार रमण किरण के काव्य संग्रह का विमोचन समारोह

बिलासपुर(छत्तीसगढ़)। कवि, पत्रकार ,पेंटर और प्रेस फोटोग्राफर व्ही.व्ही. रमण किरण के कविता संग्रह “मर्म का अन्वेषणः 37 कविताएं ”का विमोचन समारोह बिलासपुर के होटल सेंट्रल पाइंट में सम्पन्न हुआ। आयोजन के मुख्यअतिथि गजलकार एवं टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव (दिल्ली) थे और अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने की। इस अवसर पर रविवार डाटकाम के संपादक आलोक प्रकाश पुतुल, प्रख्यात कथाकार शशांक, साहित्यकार रामकुमार तिवारी भी विशेष रूप से मौजूद थे।कार्यक्रम में आलोक श्रीवास्तव ने अपनी गजलें सुनाकर श्रोताओं की काफी प्रशंसा पायी।
कार्यक्रम के अध्यक्ष की आसंदी से बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी ने कहा कि लेखकों को अपने लेखन के माध्यम से सत्ता के साथ आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता बनाना चाहिए। इससे ही वह अपने धर्म का निवर्हन कर सकेंगें। उन्होंने कहा कि विचारधाराओं की आड़ लेकर हमें हिंसा और आतंकी गतिविधियों के महिमामंडन या समर्थन से बचना चाहिए। क्योंकि भारत का लोकतंत्र बहुत मुश्किल से अर्जित हुआ है और इसे वास्तविक जनतंत्र में बदलने के लिए हमें लंबी लड़ाई लड़नी है। उन्होंने कहा कि पूरे देश में इस समय जिस तरह के कठिन सवाल खड़े हैं उनका उत्तर हमारी राजनीति के पास नहीं है क्योंकि वह स्वयं इन समस्याओं के गहराने के लिए जिम्मेदार है। साहित्यकारों और पत्रकारों को अपने धर्म का निवर्हन करते हुए समाज का मार्गदर्शन करना चाहिए। श्री द्विवेदी ने कहा कि इस कठिन समय मौजूद सवालों के ठोस और वाजिब हल लेखकों को ही तलाशने होंगें। इस मौके पर रमण किरण को शुभकामनाएं देते हुए संजय द्विवेदी ने कहा कि प्रेस फोटोग्राफर, पेंटर और कवि के रूप में उनका हस्तक्षेप स्वागत योग्य है।
कार्यक्रम के प्रारंभ में रमण किरण ने संजय द्विवेदी और आलोक श्रीवास्तव को अपनी पेंटिंग भेंट की। आभार प्रदर्शन रोटरी क्लब, बिलासपुर के अध्यक्ष रणबीर सिंह मरहास ने किया एवं संचालन सुप्रिया भारतीयन ने किया। कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, सतीश जायसवाल, कपूर वासनिक, डा. पालेश्वर शर्मा, डा.विनयकुमार पाठक, डा. गंगाधर पुष्कर, डा. सत्यभामा अवस्थी, प्रियनाथ तिवारी, पूर्व विधायक चंद्रप्रकाश वाजपेयी, कृष्णकुमार यादव राजू, डा. अजय पाठक, विश्वेष ठाकरे, प्रतीक वासनिक, यशवंत गोहिल, बृजेश सिंह, सुनील शर्मा सहित नगर के अनेक पत्रकार, साहित्यकार और बुद्धिजीवी मौजूद रहे।

संजय द्विवेदी को अपनी पेंटिग भेंट करते हुए रमण किरण


बिलासपुर(छत्तीसगढ़)5 सितंबर।
कवि,साहित्यकार,पेंटर और फोटोग्राफर व्ही.व्ही. रमण किरण के कविता संग्रह मर्म का अन्वेशणः 37 कविताएं का विमोचन समारोह बिलासपुर के होटल सेंट्रल पाइंट में सम्पन्न हुआ। आयोजन के मुख्यअतिथि गजलकार एवं टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव थे और अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने की। इस अवसर पर रमन किरण ने अपनी बनाई पेंटिंग भी मुख्यअतिथि एवं कार्यक्रम के अध्यक्ष को भेंट की।

रमन किरण के कविता संग्रह का विमोचन


बिलासपुर(छत्तीसगढ़)5 सितंबर
कवि,साहित्यकार,पेंटर और फोटोग्राफर व्ही.व्ही. रमण किरण के कविता संग्रह मर्म का अन्वेशणः 37 कविताएं का विमोचन समारोह बिलासपुर के होटल सेंट्रल पाइंट में सम्पन्न हुआ। आयोजन के मुख्यअतिथि गजलकार एवं टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव थे और अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने की। इस अवसर पर रविवार डाटकाम के संपादक आलोक प्रकाश पुतुल, कथाकार शशांक, साहित्यकार रामकुमार तिवारी भी विशेष रूप से मौजूद थे।
कार्यक्रम में आलोक श्रीवास्तव ने अपनी गजलें सुनाकर श्रोताओं की काफी प्रशंसा पायी।

संजय द्विवेदी की नई किताबः मीडिया नया दौर-नई चुनौतियां


भारतीय मीडिया की सच्ची पड़ताल
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

नए दौर में मीडिया दो भागों में बंटा हुआ है, एक प्रिंट मीडिया और दूसरा इलेक्ट्रानिक मीडिया। भाषा और तेवर भी दोनों के अलग–अलग हैं। खबरों के प्रसार की दृष्टि से इलेक्ट्रानिक मीडिया तेज और तात्कालिक बहस छेड़ने में काफी आगे निकल आया है। प्रभाव की दृष्टि से प्रिंट मीडिया आज भी जनमानस पर अपनी गहरी पैठ रखता है। फिर वे कौन से कारण हैं कि आज मीडिया की कार्यशैली और उसके व्यवहार को लेकर सबसे ज्यादा आलोचना का सामना मीडिया को ही करना पड़ रहा है। चौथे खंभे पर लगातार प्रहार हो रहे हैं। समाज का आईना कहे जाने वाले मीडिया को अब अपने ही आईने में शक्ल को पहचानना कठिन हो रहा है। पत्रकारिता के सरोकार समाज से नहीं बल्कि बाजार से अधिक निकट के हो गये हैं। नए दौर का मीडिया सत्ता की राजनीति और पैसे की खनक में अपनी विरासत के वैभव और त्याग का परिष्कार कर चुका है। यानी मीडिया का नया दौर तकनीक के विकास से जितना सक्षम और संसाधन संपन्न हो चुका है उससे कहीं ज्यादा उसका मूल्यबोध और नैतिक बल प्रायः पराभव की तरफ बढ़ चला है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की नई पुस्तक ‘मीडिया- नया दौर नई चुनौतियां’ इन सुलगते सवालों के बीच बहस खड़ी करने का नया हौसला है। संजय द्विवेदी अपनी लेखनी के जरिए ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर विमर्श लगातार करते रहते हैं। लेखक और पत्रकार होने के नाते उनका चिन्तन अपने आसपास के वातावरण के प्रति काफी चौकन्ना रहता है, इसलिए जब वे कुछ लिखते हैं तो उनकी संवेदनाएं बरबस ही मुखर होकर सामने आती हैं। राजनीति उनका प्रिय विषय है लेकिन मीडिया उनका कर्मक्षेत्र है। संजय महाभारत के संजय की तरह नहीं हैं जो सिर्फ घटनाओं को दिखाने का काम करते हैं, लेखक संजय अपने देखे गये सच को उसकी जड़ में जाकर पड़ताल करते हैं और सम्यक चेतना के साथ उन विमर्शों को खड़ा करने का काम करते हैं जिसकी चिंता पूरे समाज और राष्ट्र को करना चाहिए।
यह महज वेदना नहीं है बल्कि गहरी चिंता का विषय भी है कि आजादी के पहले जिस पत्रकारिता का जन्म हुआ था इतने वर्षों बाद उसका चेहरा-मोहरा आखिर इतना क्यों बदल गया है कि मीडिया की अस्मिता ही खतरे में नजर आने लगी है। पत्रकार संजय लंबे समय से मीडिया पर उठ रहे सवालों का जवाब तलाशने की जद्दोजहद करते हैं। कुछ सवाल खुद भी खड़े करते हैं और उस पर बहस के लिये मंच भी प्रदान करते हैं। बाजारवादी मीडिया और मीडिया के आखिरी सिपाही स्व.प्रभाष जोशी के बीच की जंग तक के सफर को संजय काफी नजदीक से देखते हैं और सीपियों की तरह इकट्ठा करके लेखमालाओं के साथ प्रस्तुत करते हैं। संजय के परिश्रमी लेखन पर प्रख्यात कवि श्री अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं – “संजय के लेखन में भारतीय साहित्य, संस्कृति और इसका प्रगतिशील इतिहास बार-बार झलक मारता है बल्कि इन्हीं की कच्ची मिट्टी से लेखों के ये शिल्प तैयार हुए हैं। अतः उनका लेखन तात्कालिक सतही टिप्पणियां न होकर, दीर्घजीवी और एक निर्भीक, संवेदनशील तथा जिन्दादिल पत्रकार के गवाह हैं। ऐसे ही शिल्प और हस्तक्षेप किसी भी समाज की संजीवनी है।”
यह सच है कि संजय के लेखों में साहित्य, संस्कृति और प्रगतिशील इतिहास का अदभुत संयोग नजर आता है। इससे भी अधिक यह है कि वे बेलाग और त्वरित टिप्पणी करने में आगे रहते हैं। वैचारिक पृष्ठभूमि में विस्तार से प्रकाश डालना संजय की लेखनी का खास गुण हैं, जिससे ज्यादातर लोग सहमत हो सकते हैं। पं.माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर कमल दीक्षित ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि “ श्री द्विवेदी प्रोफेशनल और अकादमिक अध्येता – दोनों ही हैं। वे पहले समाचार-पत्रों में संपादक तक की भूमिका का निर्वाह कर चुके हैं। न्यूज चैनल में रहते हुए उन्होंने इलेक्ट्रानिक मीडिया को देखा समझा है। अब वे अध्यापक हैं। ऐसा व्यक्ति जब कोई विमर्श अपने विषय से जुड़कर करता है तो वह अपने अनुभव तथा दृष्टि से संपन्न होता है, इस मायने में संजय द्विवेदी को पढ़ना अपने समय में उतरना है। ये अपने समय को ज्यादा सच्चाई से बताते हैं।” संजय के लेखन के बारे में दो विद्वानों की टिप्पणियां इतना समझने में पर्याप्त है कि उनकी पुस्तक का फलसफा क्या हो सकता है। अतः इस पुस्तक में संजय ने मीडिया की जिस गहराई में उतरकर मोती चुनने का साहस किया है वह प्रशंसनीय है। पुस्तक में कुल सत्ताइस लेखों को क्रमबद्ध किया गया हैं जिनमें उनका आत्मकथ्य भी शामिल है।
पहले क्रम में लेखक ने नई प्रौद्योगिकी, साहित्य और मीडिया के अंर्तसंबंधों को रेखांकित किया है। आतंकवाद, भारतीय लोकतंत्र और रिपोर्टिंग, कालिख पोत ली हमने अपने मुंह पर, मीडिया की हिन्दी, पानीदार समाज की जरुरत, खुद को तलाशता जनमाध्यम जैसे लेखों के माध्यम से लेखक ने नए सिरे से तफ्तीश करते हुए समस्याओं को अलग अन्दाज में रखने की कोशिश की है। बाजारवादी मीडिया के खतरों से आगाह करते हैं मीडिया को धंधेबाजों से बचाइए, दूसरी ओर मीडिया के बिगड़ते स्वरुप पर तीखा प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। इन लेखों में एक्सक्लुजिव और ब्रेकिंग के बीच की खबरों के बीच कराहते मीडिया की तड़फ दिखाने का प्रयास भी संजय करते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रिंस की पहचान कराते हैं और मीडिया के नारी संवेदनाओं को लेकर गहरी चिंता भी करते हैं। मीडिया में देहराग, किस पर हम कुर्बान, बेगानी शादी में मीडिया दीवाना जैसे लेखों में वे मीडिया की बेचारगी और बेशर्मी पर अपना आक्रोश भी जाहिर करते हैं।
श्री संजय की पुस्तक में मीडिया शिक्षा को लेकर भी कई सवाल हैं। मीडिया के शिक्षण और प्रशिक्षण को लेकर देश भर कई संस्थानों ने अपने केन्द्र खोले है। कई संस्थान तो ऐसे हैं जहां मीडिया शिक्षण के नाम पर छद्म और छलावा का खेल चल रहा है। मीडिया में आने वाली नई पीढ़ी के पास तकनीकी ज्ञान तो है लेकिन उसके उद्देश्यों को लेकर सोच का अभाव है। अखबारों की बैचेनी के बीच उसके घटते प्रभाव को लेकर भी पुस्तक में गहरा विमर्श देखने को मिलता है। विज्ञापन की तर्ज पर जो बिकेगा, वही टिकेगा जैसा कटाक्ष भी लेखक संजय ने किया है। वहीं थोड़ी सी आशा भी मीडिया से रखते हैं कि जब तंत्र में भरोसा न रहे वहां हम मीडिया से ही उम्मीदें पाल सकते हैं।
संजय हिंदी की पत्रकारिता पर भी अपना ध्यान और ध्येय केन्द्रित करते हैं। उनका मानना है कि अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिन्दी में प्रकाशन यह साबित करता है कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का नया युग प्रारंभ हो रहा है। हिंदी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रशासनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति की संभावनाएं साफ नजर आ रही हैं। हालांकि वे हिन्दी बाजार में मीडिया वार की बात भी करते हैं। फिलवक्त उन्होंने अपनी पुस्तक में पत्रकारिता की संस्कारभूमि छत्तीसगढ़ के प्रभाव को काफी महत्वपूर्ण करार दिया है। अपने आत्मकथ्य ‘मुसाफिर हूं यारों’ के माध्यम से वे उन पलों को नहीं भूल पाते हैं जहां उनकी पत्रकारिता परवान चढ़ी है। वे अपने दोस्तों, प्रेरक महापुरुषों और मार्गदर्शक पत्रकारों की सराहना करने से नहीं चूकते हैं जिनके संग-संग छत्तीसगढ़ में उन्होंने अपनी कलम और अकादमिक गुणों को निखारने का काम किया है।
संजय द्विवेदी के आत्मकथ्य को पढना काफी सुकून देता है कि आज भी ऐसे युवा हैं जिनके दमखम पर मीडिया की नई चुनौतियां का सामना हम आसानी से कर सकते हैं। जरुरत है ज़ज्बे और ईमानदार हौसलों की और ये हौसला हम संजय द्विवेदी जैसे पत्रकार, अध्यापक और युवा मित्र में देख सकते हैं। संजय की यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों और मीडिया से जुड़े प्रत्येक वर्ग के लिये महत्वपूर्ण दस्तावेज है। ज्ञान, सूचना और घटनाओं का समसामयिक अध्ययन पुस्तक में दिग्दर्शी होता है। भाषा की दृष्टि से पुस्तक पठनीयता के सभी गुण लिए हुए है। मुद्रण अत्यन्त सुंदर और आकर्षक है। कवर पृष्ठ देखकर ही पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाती है।
समीक्षकः डा. शाहिद अली, अध्यक्षः जनसंचार विभाग, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, कोटा स्टेडियम, रायपुर (छत्तीसगढ़)

शनिवार, 4 सितंबर 2010

सोनियाःअब सहानुभूति नहीं, बड़ी उम्मीदें


उनका कांग्रेस अध्यक्ष बनना चौंकाने वाली खबर नहीं
-संजय द्विवेदी

देश की 125 साल पुरानी पार्टी ने एक बार फिर श्रीमती सोनिया गांधी को अपना अध्यक्ष चुन लिया है। जाहिर तौर पर यह कोई चौंकाने वाली सूचना नहीं है। पार्टी के 125 सालों के इतिहास में 32 वर्ष इस दल पर नेहरू परिवार के वारिसों का कब्जा रहा है, श्रीमती गांधी की उपलब्धि यही है कि वे इन वारिसों के बीच में सर्वाधिक समय तक अध्यक्ष रहने वाली बन चुकी हैं। पिछले 12 सालों में सोनिया गांधी ने कांग्रेस को पिछले दो चुनावों में सत्ता के केंद्र में पहुंचाया और दल को एकजुट किया। इस सफलता के चलते आज वे देश की सबसे प्रभावी नेता बन गयी हैं। कांग्रेस जहां पर सत्ता और संगठन एकमेक थे, वे वहां पर संगठन की पुर्नवापसी की प्रतीक बन गयी हैं। इसके साथ ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि उन्होंने अपने पुत्र राहुल गांधी को जिस खूबसूरती के साथ राजनीतिक क्षेत्र में लांच किया, वह एक मिसाल है। सत्ता में होते हुए सत्ता के प्रति आशक्ति न दिखाकर सोनिया और राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं ही नहीं देश की जनता के मन में एक बड़ी जगह बना ली है।
अब जबकि वे चौथी बार कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी जा चुकी हैं तो उनके लिए यह कोई उपलब्धि भले न हो पर उनकी चुनौतियां बहुत बढ़ गयी हैं। क्योंकि इसी दौर में उन्हें मनमोहन सिंह के विकल्प के रूप में अपने सुपुत्र को स्थापित करना है और अगला लोकसभा चुनाव भी जीतना है। किंतु देखें तो यह समय कांग्रेस के पक्ष में नहीं दिखता। उनके नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार आज आरोपों के कठघरे में है। पार्टी की सबसे प्रभावी नेता होने के नाते सोनिया को इन सवालों के ठोस और वाजिब हल तलाशने ही होंगें, क्योंकि वोट मांगने के मोर्चे पर मनमोहन सिंह जैसे मनोनीत प्रधानमंत्री नहीं, नेहरू परिवार के वारिस ही होते हैं। क्या कारण है कि गरीबों की लगातार बात करने के बावजूद उनकी सरकार का चेहरा गरीब विरोधी बन गया है ? राहुल गांधी ने अपनी राजनीति से जरूर गरीब और दलित समर्थक होने की छवियां प्रस्तुत कीं किंतु उनकी सरकार का चेहरा तो गरीब विरोधी ही बना रहा। परमाणु बिल जैसे सवालों पर तो उनके प्रधानमंत्री अतिउत्साह में नजर आए किंतु गरीबों को अनाज बांटने के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की दोबारा फटकार के बाद उनकी सरकार को होश आया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सोनिया और राहुल गांधी द्वारा लगातार गरीबों की बात करने के मायने क्या हैं, जब उनकी सरकार का हर कदम आम आदमी की जिंदगी को नरक बनाने वाला है। महंगाई के सवाल पर कांग्रेस संगठन ने सरकार पर दबाव बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। भोपाल गैस त्रासदी के सवाल पर भी लंबे समय तक सोनिया और राहुल खामोश रहे। भला हो कि इस देश में सुप्रीम कोर्ट भी है। क्या इसके ये मायने निकाले जाएं कि गांधी परिवार के वारिस मनमोहन सिंह को एक विफल प्रधानमंत्री साबित कर अपने लिए राजमार्ग सुगम बना रहे हैं। या गरीबों के प्रति उनकी ममता सिर्फ वाचिक ही है।सोनिया गांधी को अपने इस कार्यकाल में इन सवालों से जूझना पड़ेगा। देश के सामने मौजूद जो महत्व के सवाल हैं, उस पर नेहरू परिवार के दोनों वारिसों के क्या विचार हैं, यह देश जानना चाहता है। नक्सलवाद के सवाल पर कांग्रेस के मंत्री और नेता ही आपस में टकराते रहते हैं, सोनिया जी को साफ करना पड़ेगा कि वे इस सवाल पर कहां खड़ी हैं और कांग्रेस में इसे लेकर इतना भ्रम क्यों है ? आतंकवाद को लेकर नरम रवैये पर भी उनको जवाब देना पड़ेगा। आखिर आतंकवाद को लेकर हमारी सरकार इतनी दिशाहीन क्यों है? उसके पास इस सवाल से जूझने का रोड मैप क्या है ?भोपाल गैस त्रासदी जिसमें पंद्रह हजार लोगों की मौतों के बाद, आज 25 साल के बाद, एक भी आरोपी जेल में नहीं है, पर उनकी दृष्टि क्या है? देश के सामने मौजूद ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके उत्तर उन्हें देने होंगें, क्योंकि अब वे एक समर्थ नेता हैं और उनसे देश अब सहानुभूति नहीं वरन बड़ी उम्मीदें रखने लगा है। कांग्रेस नेतृत्व ने भले ही एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का चयन किया है उसे जनता की भावनाएं भी समझनी होंगी। यदि वर्तमान शासन एवं प्रधानमंत्री को अलोकप्रिय कर, कांग्रेस के युवराज को कमान संभालने और उनके जादुई नेतृत्व की आभा से सारे संकट हल करने की योजना बन रही हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु ऐसा थकाहारा, दिशाहारा नेतृत्व आखिर हमारे सामने मौजूद चुनौतियों और संकटों से कैसे जूझेगा।
श्रीमती सोनिया गांधी के सामने अपने संगठन को बिहार, उत्तरप्रदेश, मप्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ में भी स्थापित करने की चुनौती है जहां उसे अपना पुराना वैभव हासिल करने में बहुत पसीना बहाना होगा। कांग्रेस अध्यक्ष को यह पता है कि उनसे देश की उम्मीदें बहुत हैं और वे देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों का सामना करें। सबसे बड़ा सवाल महंगाई है और दूसरा राष्ट्रीय सुरक्षा का। इन दोनों सवालों पर सरकार में बदहवाशी दिखती है। उसके पास कोई दिशा नहीं दिखती। भ्रष्टाचार के सवाल पर भी सरकार का रिकार्ड बहुत बेहतर नहीं है। ऐसे में उन्हें अपने दल को व्यापक लोकस्वीकृति दिलाने के लिए भगीरथ प्रयास करने होंगें। एक राष्ट्रीय दल के तौर पर कांग्रेस की ताकत कम हो रही है, उसके लिए भी उन्हें सोचना होगा। यह सही बात है कि कांग्रेस ने जिस तेजी से अपनी जगह छोड़ी उसकी प्रतिद्वंदी भाजपा उसे भर नहीं पाई, किंतु क्षेत्रीय दलों की चुनौती उसके लिए चिंता का एक बड़ा कारण है। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का संकुचन देश की राजनीति के अखिलभारतीय चरित्र के लिए चिंता का एक बड़ा विषय है। इसके चलते स्थानीय स्वार्थ और क्षेत्रीय भावनाओं का विकास हो रहा। ऐसे में राष्ट्रीय दलों की मजबूती इस देश में अखिलभारतीय चरित्र के विकास के लिए अपरिहार्य है। सो कांग्रेस की अध्यक्ष के नाते जनता की तमाम समस्याओं के निदान के लिए लोग उन्हें आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। कांग्रेस की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में लोगों को खासा निराश किया है, क्या श्रीमती गांधी इतिहास की घड़ी में अपनी सरकार से जनधर्म निभाने और जनता की भावनाओं के साथ चलने के लिए कहेंगीं। पार्टी अध्यक्ष और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष होने के नाते उन्हें कुछ अधिक कड़े तेवर अपनाने होंगें, इससे ही उनकी सरकार से कुछ अनूकूल परिणाम पाए जा सकते हैं।