शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

कश्मीरः रेकार्ड पर ठहरी सूइयां


केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकारों से बहुत उम्मीदें न रखिए

-संजय द्विवेदी

कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘सिकारों’ पर फिर हंसी-खुशी गायब है और जिंदगी अचानक बहुत खामोश हो गयी है। हवा में बारुद की गंध है और फिजां में तैरने वाली खुशबू गायब है।कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती। यूं लगता है कि कश्मीर में हमारी सारी ‘लाइफ लाइन्स’ मर चुकी हैं और अब कोई ऐसा सहारा नहीं दिखता जो इसके समाधान की कोई सीधी विधि बता सके। ऐसे घने अंधेरे में भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में बातचीत के लिए तीन वार्ताकारों का एक पैनल बनाया है। जिसमें एक पत्रकार, एक प्रोफेसर और एक सूचना आयुक्त हैं।

जाहिर तौर पर सूची में शामिल नामों से भी, बिगड़े हालात के मद्देनजर भी और इस पैनल के धोषित होते ही आयी प्रतिक्रियाओं से लगता है कि हमें इससे बहुत उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। बताया जाता है कि इस पैनल के लिए एक और सदस्य की तलाश जारी है। साथ ही खबर यह भी कि कोई महत्वपूर्ण कांग्रेस नेता इसका हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं है। जबकि कहा यह जा रहा है कि अगर इसमें राजनीतिक व्यक्तित्व न होंगें तो तो उसे गंभीरता नहीं लिया जाएगा। अब फौरी तौर पर कश्मीर के अतिवादी संगठनों ने इसे बेकार की कवायद करार दे दिया है। अलगाववादी नेता गिलानी का कहना है कि भारत सरकार गूंगे-बहरों की तरह की व्यवहार कर रही है। हालांकि सरकार अपने इस कदम से बहुत आशान्वित है कि वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, जामिया मिलिया की प्रोफेसर राधा कुमार और सूचना आयुक्त एमएम अंसारी की टीम सभी तरह के राजनीतिक विचारों वाले लोगों से विचार विमर्श कर एक ऐसा रास्ता सुझाएंगें जो जो सही मायनों में जम्मू-कश्मीर और खासकर वहां के नौजवानों की उम्मीदों के अनुकूल हो। कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व की बेबसी और सीमाएं हमारे सामने हैं ही। जाहिर तौर पर मामला इतना सीधा नहीं है।

आजादी का नारा वहां के आवाम की जुबान पर यूं चढ़ाया जा रहा है, जैसे उसके बिना बात नहीं बनेगी। कुल मिलाकर यह युद्ध बहुत भावनात्मक हो चुका है। गिलानी जैसे नेताओं के स्टैंड से साफ दिखता है कि उन्हें आजादी चाहिए क्योंकि वे हिंदू बहुल भारत से मुक्ति चाहते हैं। अली शाह गिलानी की सुनिए तो बात साफ हो जाएगी। वे साफ कहते हैं कि- “ हमारा यह आंदोलन द्विराष्ट्रवाद के आधार पर हुए देश के विभाजन का हिस्सा है। मुस्लिम कश्मीर घाटी हिंदू भारत से अलग होना चाहती है। वह उसका हिस्सा नहीं है। भारत ने सेना के द्वारा हमारे क्षेत्र पर कब्जा किया हुआ है। भारतीय सेना की उपस्थिति को हम एक कब्जाऊ विदेशी सेना के रूप में देखते हैं। ” गिलानी अपनी इस बात को अनगिनत बार और कई टीवी चैनलों पर कहते रहे हैं। ऐसे में विकास और प्रगति के सवाल यहां अलहदा हो जाते हैं। ऐसे अतिवादी विचारों से जंग हो तो विकल्प जाहिर तौर पर बहुत सीमित हो जाते हैं। सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का भी गिलानी ने बहिष्कार किया। फिर भी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी के नेतृत्व में कुछ सदस्य उनसे मिलने पहुंचे। उस बातचीत का सीधा प्रसारण टीवी चैनलों पर हुआ जिसमें साफ तौर गिलानी ने कहा कि उनकी लड़ाई आर्थिक विकास और राजनीतिक सुविधाओं के लिए नहीं है। वे मुस्लिम घाटी की हिंदू भारत से मुकम्मल आजादी चाहते हैं। गिलानी आज की तारीख में कश्मीर के सबसे प्रभावशाली नेता हैं। उनके हुक्म पर पत्थरबाज सड़कों पर उतर आते हैं। बाजार बंद हो जाते हैं। वे कहते हैं तो पत्थर बाजी रूक जाती है। वे सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के बहिष्कार की बात करते हैं तो श्रीनगर की सड़कें सूनी हो जाती हैं। स्कूल खाली हो जाते हैं। जाहिर तौर पर हमारे राजनीतिक दलों और राजनीतिक नेताओं की विफलता से ये अतिवादी ताकतें आज प्रभावी भूमिका में हैं। पाकिस्तान का संरक्षण इन्हें ताकत दे रहा है। अब हालात यह हैं कि कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी अतिवादियों की भाषा बोलनी पड़ रही है। जिसे लेकर विधानसभा में हंगामा भी हुआ। कुल मिलाकर जैसे हालात हैं उसमें कश्मीर एक ऐसी आग में जल रहा है जहां तर्क, संवाद और बातचीत के मायने खत्म से लगते हैं। सेना और पुलिस की बबर्रता वहां के बड़े सवाल हैं, किंतु आतंकी हिंसा और अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिखों, बौद्धों) के साथ हुयी हिंसा वहां के संवाद से गायब है। सवाल यह भी उठता है कि आखिर गिलानी के लिए कश्मीर में दीवानगी क्यों है। आखिर क्या कारण है राजनीतिक नेतृत्व के बजाए अलगाववादी नेतृत्व वहां के लोगों को ज्यादा भाता है। कहीं उसके पीछे वही अतिवादी धार्मिक भाव आज भी काम नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते एक निष्ठावान मुसलमान मौलाना अबुल कलाम आजाद की जगह मजहब से दूर रहने वाले पश्चिमी रंग में रंगे मुहम्मद अली जिन्ना आंखों के तारे बन जाते हैं। क्या आज भी कहीं न कहीं हम उसी मानसिकता के शिकार तो नहीं हो रहे हैं। जिन्ना से लेकर गिलानी के बीच छः दशक की दूरियां हैं, किंतु सवाल वही हैं जो 1947 में हमारे सामने थे। द्विराष्ट्रवाद आज भी दंश दे रहा है।

वार्ताकार इसीलिए भी उम्मीद नहीं जगाते, क्योंकि हमारे समय के सवालों का हल आज की राजनीति के पास नहीं है। आजादी मांग रहे लोगों से यह पूछने का साहस हमारी राजनीति में नहीं है कि आजादी लेकर क्या करोगे और आजादी के बाद क्या होगा। आजादी एक सपना है जिसका बाजार है, जो बिक सकता है। लेकिन इस आजादी के मायने बहुत अलग हैं। वह आजादी एक कश्मीरियत की आजादी है या हिंदू भारत से आजादी,इस सवाल पर हमें गंभीरता से सोचना होगा। शायद इसीलिए इस कथित आजादी के दीवानों और पत्थर बाजों को अपनी आजादी में सबसे बड़ा रोड़ा सेना दिखती है। इसलिए सेना को बदनाम कर, उसे वापस बुलाने के राजनीतिक और मानवाधिकारवादी षडयंत्र सचेतन तरीके से चलाए जा रहे हैं। कश्मीर पर हो रही वार्ताओं में दरअसल कश्मीर के सवाल नहीं, विकास के प्रश्न नहीं, रोजगार के सवाल नहीं हैं - ऐसी जिदें हैं जिसे पूरा कर पाना भारतीय राज्य के लिए संभव नहीं है। कश्मीर की राजनीति में दिल्ली की सरकार के खिलाफ बोलने की एक प्रतियोगिता चल रही है और उसमें कश्मीर की नई पीढ़ी का भविष्य खराब हो रहा है। अलगाववादियों और राजनीतिक नेताओं ने अपनी संतानों को विदेशों में शिक्षा के लिए भेजकर, स्थानीय सामान्य युवाओं के हाथ में पत्थर पकड़ा दिए हैं। ये पत्थर देश की एकता और अखंडता पर भी बरस रहे हैं उनकी निजी जिंदगी को तबाह भी कर रहे हैं। भय, खौफ और लाशों के ये व्यापारी हमारे नौजवानों को हमारे खिलाफ ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

जाहिर है समस्या को कई स्तरों पर कार्य कर सुलझाने की जरूरत है। सबसे बड़ी चुनौती सीमा पर घुसपैठ की है और हमारे युवाओं के उनके जाल में फंसने की है-यह प्रक्रिया रोकने के लिए पहल होनी चाहिए। कश्मीर युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा, शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी। समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें, वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । भटके युवाओं को हम भारत-पाकिस्तान का अंतर समझा सकें तो यह बात इस समस्या की जड़ को सुलझा सकती है। आजादी के सपनों के व्यापारियों की हरकतों पर इन्हीं प्रयासों से रोक लगाई जा सकती है। कश्मीर पर हो रही हर तरह की पहल को शुरू होने के पहले ही विफल करने की कोशिशें भी इसीलिए शुरू हो जाती हैं क्योंकि कश्मीर वहां की अलगाववादी ताकतों के लिए एक बड़ा व्यापार है। 22 फरवरी,1994 को भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव में कहा था कि “जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। शेष भारत से उसे अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक उपायों से प्रतिरोध किया जाएगा।” कोई भी वार्ताकार संसद में लिए गए इस संकल्प को न भूले और देश विरोधी ताकतों को मंसूबों को समझते हुए कश्मीर को बचाने के लिए किए जा रहे सकारात्मक प्रयत्नों को आगे बढाने के लिए मदद करे। क्योंकि इससे ही कश्मीर घाटी में जमी बर्फ पिधल सकती है।

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