शनिवार, 28 अगस्त 2010

मैदान में उतरा ‘गांधी’ !


देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों के उत्तर भी तलाशें राहुल
-संजय द्विवेदी


पिछले कई महीनों से संसद के अंदर और बाहर कांग्रेस की सरकार की छवि मलिन होती रही, देश की जनता महंगाई की मार से तड़पती रही। भोपाल गैस त्रासदी के सवाल हों या महंगाई से देश में आंदोलन और बंद, किसी को पता है तब राहुल गांधी कहां थे? मनमोहन सिंह इन्हीं दिनों में एक लाचार प्रधानमंत्री के रूप में निरूपित किए जा रहे थे किंतु युवराज उनकी मदद के लिए नहीं आए। महंगाई की मार से तड़पती जनता के लिए भी वे नहीं आए। आखिर क्यों? और अब जब वे आए हैं तो जादू की छड़ी से समस्याएं हल हो रही हैं। वेदान्ता के प्लांट की मंजूरी रद्द होने का श्रेय लेकर वे उड़ीसा में रैली करके लौटे हैं। उप्र में किसान आंदोलन में भी वे भीगते हुए पहुंचे और भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का आश्वासन वे प्रधानमंत्री से ले आए हैं। जाहिर है राहुल गांधी हैं तो चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। यूं लगता है कि देश के गरीबों को एक ऐसा नेता मिल चुका है जिसके पास उनकी समस्याओं का त्वरित समाधान है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैसे भी अपने पूरे कार्यकाल में एक दिन भी यह प्रकट नहीं होने दिया कि वे जनता के लिए भी कुछ सोचते हैं। वे सिर्फ एक कार्यकारी भूमिका में ही नजर आते हैं जो युवराज के राज संभालने तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री है। इसके कारण समझना बहुत कठिन नहीं है। आखिरकार राहुल गांधी ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं और इस पर बहस की गुंजाइश भी नहीं है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी अपनी राय दे चुके हैं कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। यह अकेली दिग्विजय सिंह की नहीं कांग्रेस की सामूहिक सोच है। मनमोहन सिंह इस मायने में गांधी परिवार की अपेक्षा पर, हद से अधिक खरे उतरे हैं। उन्होंने अपनी योग्यताओं, ईमानदारी और विद्वता के बावजूद अपने पूरे कार्यकाल में कभी अपनी छवि बनाने का कोई जतन नहीं किया। महंगाई और भोपाल गैस त्रासदी पर सरकारी रवैये ने मनमोहन सिंह की जनविरोधी छवि को जिस तरह स्थापित कर दिया है वह राहुल के लिए एक बड़ी राहत है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। जाहिर तौर पर इस चुनिंदा रवैये से वे अपनी भुवनमोहिनी छवि के निर्माण में सफल भी हुए हैं।
वे सही मायने में एक सच्चे उत्तराधिकारी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर यह साबित कर दिया है उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों हैं।सत्ता पाकर अधीर होनेवाली पीढ़ी से अलग वे कांग्रेस में संगठन की पुर्नवापसी का प्रतीक बन गए हैं।वे अपने परिवार की अहमियत को समझते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने कहा- ‘मैं राजनीतिक परिवार से न होता तो यहां नहीं होता। आपके पास पैसा नहीं है, परिवार या दोस्त राजनीति में नहीं हैं तो आप राजनीति में नहीं आ सकते, मैं इसे बदलना चाहता हूं।’आखिरी पायदान के आदमी की चिंता करते हुए वे अपने दल का जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। नरेगा जैसी योजनाओं पर उनकी सर्तक दृष्ठि और दलितों के यहां ठहरने और भोजन करने के उनके कार्यक्रम इसी रणनीति का हिस्सा हैं। सही मायनों में वे कांग्रेस के वापस आ रहे आत्मविश्वास का भी प्रतीक हैं। अपने गृहराज्य उप्र को उन्होंने अपनी प्रयोगशाला बनाया है। जहां लगभग मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस को उन्होंने पिछले चुनावों में अकेले दम पर खड़ा किया और आए परिणामों ने साबित किया कि राहुल सही थे। उनके फैसले ने कांग्रेस को उप्र में आत्मविश्वास तो दिया ही साथ ही देश की राजनीति में राहुल के हस्तक्षेप को भी साबित किया। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी के प्रबंधकों ने उन्हें जो राह बताई है वह बहुत ही आकर्षक है और उससे राहुल की भद्र छवि में इजाफा ही हुआ है। किंतु यह बदलाव अगर सिर्फ रणनीतिगत हैं तो नाकाफी हैं और यदि ये बदलाव कांग्रेस की नीतियों और उसके चरित्र में बदलाव का कारण बनते हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि राहुल गांधी को पता है कि भावनात्मक नारों से एक- दो चुनाव जीते जा सकते हैं किंतु सत्ता का स्थायित्व सही कदमों से ही संभव है। सत्ता में रहकर भी सत्ता से निरपेक्ष रहना साधारण नहीं होता, राहुल इसे कर पा रहे हैं तो यह भी साधारण नहीं हैं। लोकतंत्र का पाठ यही है कि सबसे आखिरी आदमी की चिंता होनी ही नहीं, दिखनी भी चाहिए। राहुल ने इस मंत्र को पढ़ लिया है। वे परिवार के तमाम नायकों की तरह चमत्कारी नहीं है। उन्हें पता है वे कि नेहरू, इंदिरा या राजीव नहीं है। सो उन्होंने चमत्कारों के बजाए काम पर अपना फोकस किया है। शायद इसीलिए राहुल कहते हैं-“ मेरे पास चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने लायक अनुभव नहीं है, मेरे पिता की बात अलग थी। ” राहुल की यह विनम्रता आज सबको आकर्षित कर रही है पर जब अगर वे देश के प्रधानमंत्री बन पाते हैं तो उनके पास सवालों और मुद्दों को चुनने का अवकाश नहीं होगा। उन्हें हर असुविधाजनक प्रश्न से टकराकर उन मुद्दों के ठोस और वाजिब हल तलाशने होंगें। आज मनमोहन सिंह जिन कारणों से आलोचना के केंद्र में हैं वही कारण कल उनकी भी परेशानी का भी सबब बनेंगें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनके प्रति देश की जनता में एक भरोसा पैदा हुआ है और वे अपने ‘गांधी’ होने का ब्लैंक चेक एक बार तो कैश करा ही सकते हैं।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री


अपनी योग्यताओं के बावजूद बहुत औसत राजनेता साबित हुए मनमोहन
-संजय द्विवेदी

मनमोहन सिंह की सफलताएं देखकर लगता है कि आखिर वे इतने बड़े कैसे हो पाए, तो फिलहाल दो ही कारण समझ में आते हैं एक उनका भाग्य और दूसरा श्रीमती सोनिया गांधी। किंतु इन दोनों कारणों से ही कुर्सी पाने के बावजूद भी वे इस अवसर को एक सौभाग्य में बदल सकते थे- इसका कारण यह है कि उनके पास ईमानदारी और विद्वता की एक ऐसी विरासत थी जिसका संयोग आज की राजनीति में दुर्लभ है। अब जबकि वे एक लंबा कार्यकाल पाने वाले देश के तीसरे प्रधानमंत्री बन चुके हैं तो भी उनके पास उपलब्धियों का खाता खाली है। पिछले चुनावों में उनकी जिस शुचिता, ईमानदारी और भद्रता पर मुग्ध देश ने भाजपा दिग्गज लालकृष्ण आडवानी के एक तर्क नहीं सुने और मनमोहन सिंह की वापसी पर मुहर लगाई, आज देश अपने प्रधानमंत्री से खासा निराश दिखता है। अपने व्यक्तिगत गुणों के कारण अगर वे चाहते तो लालबहादुर शास्त्री की तरह एक बड़ी रेखा खींच सकते थे, जबकि शास्त्री जी को समय बहुत कम मिला था। किंतु मनमोहन सिंह पूरे साढ़े छः बाद भी एक बहुत औसत राजनेता के रूप में ही सामने आते हैं।
परमाणु करार बिल को पास कराने के समय और पिछले लोकसभा चुनावों में जिस तेवर का उन्होंने परिचय दिया था उससे लगता था कि मनमोहन सिंह बदल रहे हैं। पर अब यह लगने लगा है कि वे कांग्रेस के युवराज की ताजपोशी तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री ही हैं, जो राज नहीं कर रहा अपना समय काट रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि मनमोहन सिंह की अपार योग्यताओं के बावजूद उनकी क्षमताएं किसी मोर्चे पर प्रकट होती नहीं दिखतीं। वे दुनिया को मंदी से उबरने के मंत्र बता रहे हैं। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कह रहे हैं कि डा. मनमोहन सिंह जब बोलते हैं दुनिया उनकी बातों को ध्यान से सुनती है। तो क्या कारण है कि यह भारतीय प्रधानमंत्री अपने देश के सवालों पर खामोश है? क्या कारण है कि हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास देश में फैली महंगाई का कोई हल, कोई समाधान नहीं है ? आखिर क्या कारण है कि कश्मीर के संकट को विकराल होते जाने देने के लगभग दो महीने बाद वे नींद से जागते हैं और स्वायत्तता का झुनझुना लेकर सामने आते हैं? क्या कारण है कि नक्सलवाद के सवाल पर सरकार के बीच ही इतने किंतु-परंतु हैं जिसका लाभ हिंसक आंदोलन से जुड़ी ताकतें उठाकर अपना क्षेत्र विस्तार कर रही हैं? कांग्रेस के कुछ दिग्गज और एक केंद्रीय मंत्री नक्सल आंदोलन के प्रति सहानुभूति के बोल कह देते हैं पर हमारे प्रधानमंत्री कुछ नहीं कहते। जयराम रमेश और प्रफुल्ल पटेल की भिडंत से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता। द्रुमुक के मंत्रियों के कदाचार उन्हें नहीं दिखते। क्या कारण है पूर्वांचल का एक राज्य मणिपुर महीने पर तक नाकेबंदी झेलता है पर हमारी दिल्ली की सरकार को फर्क नहीं पड़ता। क्या कारण है कि कश्मीर में सिखों को यह धमकी जा रही है कि वे इस्लाम स्वीकारें अथवा घाटी छोड़ें पर हमारी सरकार के पास इस मामले में सिर्फ आश्वासन हैं। परमाणु जवाबदेही कानून के मामले में लगता है कि राजनीतिक विमर्श के बजाए सरकार सौदेबाजी कर रही है। नहीं तो क्या कारण है कि कुछ समय पहले जब केंद्र सरकार इस विधेयक को लाई थी तो उसका कड़ा विरोध हुआ था। अब कांग्रेस-भाजपा दोनों इस विषय पर एक हो गए हैं। सबसे गंभीर एतराज संयंत्र के लिए मशीनों और कलपुर्जों की सप्लाई करने वाली विदेशी कंपनियों को जवाबदेही से मुक्त करने पर है।ऐसी ही कुछ राहत भोपाल गैस त्रासदी की आरोपी कंपनी को दी गयी है। ऐसा लगता है कि हमारी सरकारों के फैसले संसद में नहीं वाशिंगटन से होते हैं। ऐसी सरकार किस मुंह से एक लोककल्याणकारी सरकार होने का दावा करती है। एक तरफ तो यह सरकार गांधी से अपना रिश्ता जोड़ते नहीं थकती वहीं गांधी जयंती के मौके पर खादी पर मिलने वाली 20 प्रतिशत सब्सिडी वापस ले लेती है। उसे खादी ग्रामोद्योग को दी जा रही सब्सिडी भारी लगती है, किंतु विदेशी कंपनियों के लिए सरकार सब तरह की छूट देने के लिए आतुर है। लगता ही नहीं कि देश में हम भारत के लोगों की सरकार चल रही है।
प्रधानमंत्री अगले माह 78 साल के हो रहे हैं, क्या ये माना जाए कि उन पर आयु हावी हो रही है या वे अब अपने आपको इस तंत्र में मिसफिट पा रहे हैं और मानने लगे हैं कि राहुल गांधी का प्रधानमंत्री के रूप में अवतार ही देश के सारे संकट हल करेगा। देश की जनता ने उन्हें लगातार ‘कमजोर प्रधानमंत्री’ कहे जाने के बजाए उन पर भरोसा जताते हुए, न सिर्फ जिताया वरन वरन पिछले दो दशकों में यह कांग्रेस का बेहतरीन प्रदर्शन था। प्रधानमंत्री अपनी पहली पारी में तमाम वामपंथी दलों और नासमझ दोस्तों से घिरे थे, इस बार वह संकट भी नहीं है। आखिर फिर क्यों उन्हें फैसले लेने में दिक्कतें आ रही हैं। वे आखिर क्यों अपने आपको एक अनिर्णय से घिरे रहने वाले नेता के रूप में खुद को स्थापित कर रहे हैं। अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी के बावजूद उनकी सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी है। जिन राष्ट्रमंडल खेलों में प्रकट भ्रष्टाचार हुआ उनको वे अपने भाषण में देश का गौरव बता आए। भोपाल गैस त्रासदी से लेकर जातिगण जनगणना हर सवाल पर सरकार का नेतृत्व कहीं नेतृत्वकारी भूमिका में नजर नहीं आया। यह जानते हुए भी कि यह उनके राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण पारी है, डा. मनमोहन सिंह ऐसा क्यों कर रहे हैं, यह एक आश्चर्य की बात है। यूं लगने लगा है जैसे वास्तव में उनका नौकरशाह अतीत उनपर हावी हो और अनिर्णय को ही निर्णय मानने की कुशल अफसरशाही के मंत्र को ही उन्होंने अपना आर्दश बना रखा है। यह भी संभव है कि हमारे प्रधानमंत्री क्योंकि जनता के बीच से नहीं आते और उनके सामने जनसमर्थन जुटाने की वैसी चुनौती नहीं है जो आम तौर पर नेताओं के पास होती है, तो वे जनता के प्रश्नों को बहुत महत्व का न मानते हों। क्योंकि संयोग से कांग्रेस के पास जनसमर्थन जुटाने की जिम्मेदारी वर्तमान प्रधानमंत्री की नहीं है , गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों पर है। पिछले कार्यकाल में परमाणु करार को पास कराने के प्रधानमंत्री की जो ताकत, बेताबी और उत्साह नजर आया था तो ऐसा लगा था कि डा. मनमोहन सिंह ने अपने पद की ताकत को पहचान लिया है। किंतु वह सारा कुछ करार पास होने के बाद हवा हो गया। शायद अमरीका से किए वायदे चुकाने का जोश उनमें ज्यादा था किंतु जनता से किए वायदे हमारे नेताओं को याद कहां रहते हैं। शायद यही कारण है कि आज की राजनीति में जनता का एजेंडा हाशिए पर है। मनमोहन सिंह की सरकार इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल के पहले साल में ही निराश करती नजर आ रही है। कांग्रेस नेतृत्व ने भले ही एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री का चयन किया है उसे जनता की भावनाएं भी समझनी होंगी। यदि वर्तमान शासन एवं प्रधानमंत्री को अलोकप्रिय कर, कांग्रेस के युवराज को कमान संभालने और उनके जादुई नेतृत्व की आभा से सारे संकट हल करने की योजना बन रही हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु ऐसा थकाहारा, दिशाहारा नेतृत्व आखिर हमारे सामने मौजूद चुनौतियों और संकटों से कैसे जूझेगा। देश को फिलहाल प्रतीक्षा ऐसे नेतृत्व की है जो उसके सामने मौजूद प्रश्नों के ठोस और वाजिब हल तलाश सके। गंभीर मसलों पर हमारा मौन देश की जनता में निराशा और अवसाद भर रहा है। क्या श्रीमती सोनिया गांधी भी इसे महसूस कर रही हैं ?

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कश्मीरः कब पिघलेगी बर्फ


-संजय द्विवेदी
इन्तहा हो गई है, कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती । आजादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी लगता है कि सूइयां रेकार्ड पर ठहर सी गयी हैं। समस्या के समाधान के लिए सारी ‘पैथियां’ आजमायी जा चुकी हैं और अब वर्तमान प्रधानमंत्री ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ से इस लाइलाज बीमारी का हल करने में लगे हैं। ‘जाहिर है मामला ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के सवालों जैसा आसान नहीं है, कश्मीर में आपकी सारी ‘लाइफ लाइन्स’ मर चुकी हैं और अब कोई ऐसा सहारा नहीं दिखता जो इसके समाधान की कोई सीधी विधि बता सके।
यह बात बुरी लगे पर मानिए कि पूरी कश्मीर घाटी में आज भारत की अपनी आवाज कहने और उठाने वाले लोग न्यूनतम हो गए हैं । आप सेना के भरोसे कितना कर सकते हैं, या जितना कर सकते हैं-कमोबेश घाटी उतनी ही देर तक आपके पास है। यहां वहां से पलायन करती हिंदू पंडितों की आबादी के बाद शेष बचे मुस्लिम समुदाय की नीयत पर कोई टिप्पणी किए बिना इतना जरूर जोड़ना है कश्मीर में गहरा आए खतरे के पीछ सिर्फ उपेक्षा व शोषण नहीं है। ‘धर्म’ के जुनून एवं नशे में वहां के युवाओं को भटकाव के रास्ते पर डालने की योजनाबद्ध रणनीति ने भी हालात बदतर किए हैं, पाकिस्तान का पड़ोसी होना इस मामले में बदतरी का कारण बना । ये सब स्थितियां चाहे वे भौगोलिक, आर्थिक व सामाजिक हों, मिलकर कश्मीर का चेहरा बदरंग करती हैं। लेकिन सिर्फ विकास व उपेक्षा को कश्मीर से उठती अलगावादी आवाजों का कारण मानना समस्या को अतिसरलीकृत करके देखना है। बंदूक से समस्याएं नहीं सुलझ सकतीं, विकास नहीं आ सकता, लेकिन ‘इस्लाम का राज’ आ सकता है-समस्या के मूल में अंशतः सही, यह भावना जरूर है। अगर यह बात न होती तो पाकिस्तान के शासकों व दुनिया के जघन्यतम अपराधी लादेन की कश्मीरियों से क्या हमदर्दी थी ? भारत के खिलाफ कश्मीर की युवाशक्ति के हाथ में हथियार देने वाले निश्चय ही एक ‘धार्मिक बंधुत्व भाव व अपनापा’ जोड़कर एक कश्मीरी युवक को अपना बना लेते हैं। वहीं हम जो अनादिकाल से एक सांस्कृतिक परंपरा व भावनात्मक आदान-प्रदान से जुड़े हैं, अचानक कश्मीरियों को उनका शत्रु दिखने लगते हैं। लड़ाई यदि सिर्फ कश्मीर की, उसके विकास की, वहां के नौजवानों को काम दिलाने की थी तो वहां के कश्मीरी पंडित व सिखों का कत्लेआम कर उन्हें कश्मीर छोड़ने पर विवश क्यों किया गया ? जाहिर है मामला धर्मांधता से प्रेरित था। उपेक्षा के सवाल नारेबाजी के लिए थे, निशाना कुछ और था। इसलिए यह कहने में हिचक नहीं बरतनी चाहिए कि सेना के अलावा आज घाटी में ‘भारत माँ की जय’ बोलने वाले शेष नहीं रह गए हैं। जिन लोगों की भावनाएं भारत के साथ जुड़ी हैं, वे भी कुछ मजबूरन-कुछ मसलहतन जुबां पर ताले लगाकर खामोश हैं। मंत्री भयभीत हैं, अफसरान दहशत जदा हैं, आतंक का राज जारी है।इन हालात में प्रधानमंत्री कश्मीर में ‘अमन का राज’ लाना चाहते हैं । लेकिन क्या इस ‘शांति प्रवचन’ से पाकिस्तान और लश्कर के गुंडे कश्मीर में आतंक का प्रसार बंद देंगे। आंखों पर पट्टी बांधकर जुनूनी लड़ाई लड़ने वाले अपने हथियार फेंक देंगे। जाहिर है ये बातें इतनी आसान नहीं दिखतीं । जब तक सीमा पार से आतंकवाद का पोषण नहीं रुकेगा, कश्मीर की समस्या का समाधान सोचना भी बेमानी है। कश्मीर की भौगोलिक स्थितियां ऐसी हैं कि घुसपैठ को रोकना वैसे भी संभव नहीं है। अन्य राष्ट्रों से लगी लंबी सीमा, पहाड़ और दर्रे वहां घुसपैठ की स्थितियों को सुगम बनाते हैं। पाक व तालिबान की प्रेरणा व धन से चल रहे कैंपों से प्रशिक्षित उग्रवादी वहां के आंतकवाद की असली ताकत हैं। सरकार को इन हालात के मद्देनजर ‘आतंकवादी संगठनों’ की कृपा पाने के बजाए उनके प्रेरणास्त्रोतों पर ही चोट करनी होगी, क्योंकि जब तक विदेशी सहयोग जारी रहेगा, यह समस्या समाप्त नहीं हो सकती । हुर्रियत या अन्य कश्मीरी संगठनों से वार्ता कर भी ये हालात सुधर नहीं सकते, क्योंकि हुर्रियत अकेली न कश्मीरियों की प्रतिनिधि है, न ही उसकी आवाज पर उग्रवादी हथियार डालने वाले हैं। जाहिर है समस्या को कई स्तरों पर कार्य कर सुलझाने की जरूरत है। सबसे बड़ी चुनौती सीमा पर घुसपैठ की है और हमारे युवाओं के उनके जाल में फंसने की है-यह प्रक्रिया रोकने के लिए पहल होनी चाहिए। आबादी का संतुलन बनाना दूसरी बड़ी चुनौती है। कुछ मार्ग निकालकर घाटी के क्षेत्रों में भूतपूर्व सैनिकों को बसाया जाना चाहिए तथा कश्मीर पंडितों की घर वापसी का माहौल बनाना चाहिए। कश्मीर युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी। समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । भटके युवाओं को हम भारत-पाकिस्तान का अंतर समझा सके तो यह बात इस समस्या की जड़ को सुलझा सकती है। सच्चे मन से किए गए प्रयास ही इस इलाके में जमी बर्फ को पिघला सकते हैं। यही बात कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘शिकारों’ पर फिर हंसी-खुसी और जिंदगी को लौटा सकती है। हवा से बारुद की गंध को कम कर सकती है और फिजां में खुशबू घोल सकती है।

मीडिया विमर्श के वार्षिकांक में एक बड़ी बहस क्या रोमन में लिखी जाए हिंदी ?


इस बार की आवरण कथा हैः हा! हा!! HINDI दुर्दशा देखि न जाई!!!
रायपुर।
मीडिया विमर्श का सितंबर, 2010 का अंक 15 अगस्त तक बाजार में आ जाएगा। इस अंक में एक बड़ी बहस है कि क्या रोमन में लिखी जाए हिंदी। सितंबर के महीने की 14 तारीख को पूरा देश हिंदी दिवस मनाता है। इस वार्षिक कर्मकांड को जाने दें तो भी हम अपने आसपास रोजाना हिंदी की दैनिक दुर्दशा का आलम देखते हैं। ऐसे में हिंदी की ताकत, वह आम जनता ही है जो इसमें जीती, बोलती और सांस लेती है। बाजार भी इस जनता के दिल को जीतना चाहता है इसलिए वह उसकी भाषा में बात करता है। यह हिंदी की ताकत ही है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या हिंदी सिर्फ वोट मांगने और मनोरंजन की भाषा रह गयी है। इन मिले-जुले दृश्यों से लगता है कि हिंदी कहीं से हार से रही है और अपनों से ही पराजित हो रही है।
इन हालात के बीच हिंदी के विख्यात लेखक एवं उपन्यासकार श्री असगर वजाहत ने हिंदी को देवनागरी के बजाए रोमन में लिखे जाने की वकालत कर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। श्री वजाहत ने देश के प्रमुख हिंदी दैनिक जनसत्ता में 16 और 17 मार्च,2010 को एक लेख लिखकर अपने तर्क दिए हैं कि रोमन में हिंदी को लिखे जाने से उसे क्या फायदे हो सकते हैं। जाहिर तौर पर हिंदी का देवनागरी लिपि के साथ सिर्फ भावनात्मक ही नहीं, कार्यकारी रिश्ता भी है। श्री वजाहत की राय पर मीडिया विमर्श ने अपने इस अंक में देश के कुछ प्रमुख पत्रकारों, संपादकों, बुद्धिजीवियों, प्राध्यापकों से यह जानने की कोशिश की कि आखिर असगर की बात मान लेने में हर्ज क्या है। हिंदी दिवस के प्रसंग को ध्यान में रखते हुए यह बहस एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है जिससे हम अपनी भाषा और लिपि को लेकर एक नए सिरे से विचार कर सकते हैं। इस बहस को ही हम इस अंक की आवरण कथा के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आवरण कथा की शुरूआत में श्री असगर वजाहत का लेख जनसत्ता से साभार लिया गया है, इसके साथ इस विमर्श में शामिल हैं- वरिष्ठ पत्रकार एवं छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर, हिंदी के चर्चित कवि अष्टभुजा शुक्ल, दैनिक भास्कर-नागपुर के संपादक प्रकाश दुबे, देशबंधु के पूर्व संपादक बसंत कुमार तिवारी, नवभारत- इंदौर के पूर्व संपादक प्रो. कमल दीक्षित, प्रख्यात कवि-कथाकार प्रभु जोशी, हिंदी की प्राध्यापक डा. सुभद्रा राठौर
इसके अलावा नक्सलवाद को बौद्धिक समर्थन पर प्रख्यात लेखिका अरूंधती राय के अलावा कनक तिवारी, संजय द्विवेदी, साजिद रशीद के लेख प्रकाशित किए गए हैं।जिसमें लेखकों ने पक्ष विपक्ष में अपनी राय दी है। इसके अलावा अन्य कुछ लेख भी इस अंक का आकर्षण होंगें। पत्रिका के इस अंक की प्रति प्राप्त करने के लिए 25 रूपए का डाक टिकट भेज सकते हैं। साथ ही वार्षिक सदस्यता के रूप में 100 रूपए मनीआर्डर या बैंक ड्राफ्ट भेज कर सदस्यता ली जा सकती है। पत्रिका प्राप्ति के संपर्क है-
संपादकः मीडिया विमर्श, 328, रोहित नगर,
फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल- 39 (मप्र)

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

संजय द्विवेदी को प्रज्ञारत्न सम्मान


बिलासपुर। पत्रकार एवं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी को प्रज्ञारत्न सम्मान से सम्मानित किया गया है। यह सम्मान पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए पिछले दिनों बिलासपुर के राधवेंद्र राव सभा भवन में आयोजित समारोह में छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने प्रदान किया। कार्यक्रम का आयोजन छत्तीसगढ़ साहित्यकार परिषद, बिलासपुर ने किया था। इस मौके पर परिषद ने छत्तीसगढ़ के नवरत्न के तहत हास्य-व्यंग्य कवि सुरेंद्र दुबे, लेखक गिरीश पंकज, डा.दानेश्वर शर्मा, नवभारत के संपादक श्याम वेताल, कवि त्रिभुवन पाण्डेय, कथाकार डा. परदेशीराम वर्मा, नवभारत के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आर.अजीत एवं डा. विजय सिन्हा को भी सम्मानित किया गया।
आयोजन को संबोधित करते हुए विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा कि हमारे समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए साहित्यकारों और पत्रकारों को मार्गदर्शक की भूमिका निभानी होगी। इसके लिए एक वैचारिक क्रांति की जरूरत है। कार्यक्रम के मुख्यवक्ता के पत्रकार एवं मीडिया प्राध्यापक संजय द्विवेदी ने कहा कि संवेदना के बिना न तो साहित्य रचा जा सकता है न ही पत्रकारिता की जा सकती है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ के सामने सबसे बड़ी चुनौती नक्सलवाद की है। यह एक वैचारिक संघर्ष भी है। क्योंकि हमारे जनतंत्र को यह हिंसक विचारधारा की चुनौती है। उन्होंने कहा माओवादी राज में पहला हमला कलम पर ही होता है और लेखक निर्वासन भुगतते हैं या मार दिए जाते हैं। इसलिए हमें अपने जनतंत्र को असली लोकतंत्र में बदलने के लिए सचेतन प्रयास करने होंगें ताकि जो लोग हिंसा के माध्यम से भारत की राजसत्ता पर 2050 तक कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं वे सफल न हों। आरंभ में अतिथियों का स्वागत संस्था के अध्यक्ष डा. गिरधर शर्मा ने किया। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ राज्य के अनेक प्रमुख साहित्यकार एवं पत्रकार मौजूद रहे।

रचना और संघर्ष का सफरनामाः राजेंद्र माथुर


जयंती ( 7 अगस्त) पर खासः -संजय द्विवेदी


राजेंद्र माथुर की पूरी जीवन यात्रा एक साधारण आम आदमी की कथा है। वे इतने साधारण हैं कि असाधारण लगने लगते हैं। उन्होंने जो कुछ पाया एकाएक नहीं पाया। संघर्ष से पाया, नियमित लेखन से पाया, अपनी रचनाशीलता से पाया। इसी संघर्ष की वृत्ति ने उन्हें असाधारण पत्रकार और संपादक बना दिया। राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात से तय होता है कि आखिर उनके लेखन में विचारों की गहराई कितनी है। अपने अखबार को उंचाईयों पर ले जाने का उसका संकल्प कितना गहरा है। हमारे समय के प्रश्नों के जबाव तलाशने और नए सवाल खड़े की कितनी प्रश्नाकुलता संबंधित व्यक्ति में है। राजेंद्र माथुर का संपादकीय और पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात की गवाही है वे असहज प्रश्नों से मुंह नहीं चुराते बल्कि उनसे दो-दो हाथ करते हैं। वे सवालों से जूझते हैं और उनके सही एवं प्रासंगिक उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। वे सही मायने में पत्रकारिता में विचारों के एक ऐसे प्रतीक पुरूष बनकर सामने आते है जिसने अपने लेखन के माध्यम से एक बौद्धिक उत्तेजना का सृजन किया। हिंदी को एक ऐसी भाषा और विराट अनुभव संसार दिया जिसकी प्रतीक्षा में वह सालों से खड़ी थी। इस मायने में राजेंद्र माथुर की उपस्थिति अपने समय में एक कद्दावर पत्रकार-संपादक की मौजूदगी है। श्री सूर्यकांत बाली के मुताबिक- “ माथुर साहब जैसा बोलते थे वैसा ही लिखते थे। वे धाराप्रवाह, विचार-परिपूर्ण और रूपक-अलंकृत बोलते थे, तो धाराप्रवाह विचार-परिपूर्ण और रूपक-अलंकृत लिखते भी थे।”
श्री बाली लिखते हैं कि “वह एक ऐसा संपादक है जिसके मन-समुद्र में विचारों की लहरें एक के बाद एक लगातार, अनवरत उठती हैं, कोई लहर किसी दूसरी लहर को नष्टकर आगे बढ़ने के अहंकार का शिकार नहीं है। और पूनम की कोई ऐसी भली रात हर महीने आती है जब ये लहरें किसी विराट-सर्वोच्च को छू लेने को बेताब हो उठती हैं।” ऐसे में कहा जा सकता है कि राजेंद्र माथुर के पत्रकारीय एवं संपादकीय व्यक्तित्व में एक बौद्धिक आर्कषण दिखता है। उनके लेखन में भारत जिज्ञासा, भारत-जिज्ञासा, भारत-अनुराग और भारत-स्वप्न पूरी समग्रता में प्रकट होता है। वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने लिखा है कि –“ राजेंद्र माथुर हिंदी पत्रकारिता के उस संधिकाल में संपादक के रूप में सामने आए थे, जब हिंदी अखबार अपने पुरखों के पुण्य के संचित कोष को बढ़ा नहीं पा रहे थे। यह जमा पूंजी इतनी नहीं थी कि हिंदी की पत्र-पत्रिकाएं व्यावसायिकता की बढ़ती हुयी चुनौती को स्वीकार करते हुए इसे बाजार के दबाव से बचा सकें। राजेंद्र माथुर में बौद्धिकता और सच्चरित्रता का असाधारण संगम था, इसीलिए वे हिंदी पत्रकारिता में शिखर स्थान बना सके। वे असाधारण शैलीकार थे। अंग्रेजी साहित्य से प्रकाशित उनकी हिंदी लेखन शैली बिंब प्रधान थी। उनके मुहावरे अपने होते थे। उनमें अभिव्यंजना की अद्बुत शक्ति थी। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में वे शैलीकार के रूप में याद किए जाएंगें। ”
राजेंद्र माथुर एक श्रेष्ठ संपादक थे। उनकी उपस्थित ही नई दुनिया और नवभारत टाइम्स को एक ऐसा समाचार पत्र बनाने में सफल हुयी जिस पर हिंदी पत्रकारिता को नाज है।नवभारत टाइम्स में श्री माथुर के सहयोगी रहे श्री विष्णु खरे ने लिखा है कि- “राजेंद्र माथुर महान संपादक होने का अभिनय करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करते थे। दरअसल, लिबास से लेकर बोलचाल तक उनकी कोई शैली या लहजा नहीं था वे अपने मामूलीकरण में विश्वास करते थे वैशिष्ट्य में नहीं। उनकी संपादकी आदेशों या हुकमों से नहीं, एक गुणात्मक तथा नैतिक विकिरण से चलती थी। वे एक आणविक ताप या विद्युत संयत्र की तरह बेहद चुपचाप काम करते थे, जो अपने प्रभाव से लगभग उदासीन रहता है। लेकिन वे बेहद परिश्रमी संपादक थे और शायद एक या दो उपसंपादकों की मदद से एक दस पेज का अखबार रोज निकाल सकते थे। वे अजातशत्रु और धर्मराज युधिष्ठिर जैसे थे लेकिन जरूरत पड़ने पर वज्र की तरह कठोर भी हो सकते थे।” राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व बेहद प्रेरक था। आज की पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में घुस आई तमाम बुराईयों से उनका व्यक्तित्व बेहद अलग था। संपादक की जैसी शास्त्रीय परिभाषाएं बताई गयी हैं श्री माथुर उसमें फिट बैठते हैं। उनका व्यक्तित्व बौद्धिक उंचाइयां लिए हुए था। अपनी पत्रकारिता को कुछ पाने और लाभ लेने की सीढ़ी बनाना उन्हें नहीं आता था। उनके समकक्ष पत्रकारों की राय में वे जिस समय दिल्ली में नवभारत टाइम्स जैसे बड़े अखबार के संपादक थे तो वे सत्ता के लाभ उठा सकते थे। आज की पत्रकारिता में जिस तरह पत्रकार एवं संपादक सत्ता से लाभ लेकर मंत्री से लेकर राज्यसभा की सीटें ले रहे हैं, श्री माथुर भी ऐसे प्रलोभनों के पास जा सकते थे। किंतु उन्होंने तमाम चर्चाओं के बीच इससे खुद को बचाया। पत्रकार विष्णु खरे अपने लेख में इस बात की पुष्टि भी करते हैं। सही मायने में राजेंद्र माथुर एक ऐसे संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने अपने पत्रकारीय व्यक्तित्व को वह उंचाई दी जिसके लिए पीढ़ियां उन्हें याद कर रही हैं।
विष्णु खरे उनके इन्हीं व्यक्तित्व की खूबियों को रेखांकित करते हुए कहते हैं- “राजेंद्र माथुर का जीवन और उनके कार्य एक खुली पुस्तक की तरह थे। कानाफूसी, चुगलखोरी, षडयंत्र, झूठ-फरेब, मक्कारी, उनके स्वभाव में थे ही नहीं। वे किसी चीज को गोपनीय रखना ही नहीं चाहते थे और अक्सर कई ऐसी सूचनाएं निहायत मामूली ढंग से देते थे, जिनपर दूसरे लोग कारोबार कर लेते हैं। इसलिए उनसे बातें करना बेहद असुविधाजनक स्थितियां पैदा कर देता, क्योंकि वे कभी भी किसी के द्वारा कही गयी बात को जगजाहिर कर देते थे और वह व्यक्ति अपना मुंह छिपाता फिरता था। उनकी स्मरण शक्ति अद्वितीय थी और भारतीय तथा विश्व राजनीति में सतही और चालू दिलचस्पी न रखने के बावजूद राष्ट्रीय व विदेशी घटनाक्रम तथा इतिहास में उनकी पैठ आश्चर्यजनक थी। एक सच्चे पत्रकार की तरह उनमें जमाने भर के विषयों के बारे में जानकारी थी और वे घंटों अपने प्रबुद्ध श्रोताओं को मंत्रमुग्ध रख सकते थे। नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन जाने के बाद वे भविष्य में क्या बनेंगें इसको लेकर उनके मित्रों में दिलचस्प अटकलबाजियां होती थीं और बात राष्ट्रसंघ और मंत्रिमंडल तक पहुंचती थी। लेकिन अपने अंतिम दिनों में तक राजेंद्र माथुर एटीटर्स गिल्ड आफ इंडिया जैसी पेशेवर संस्था के काम में ही स्वयं को होमते रहे।” उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी हिंदी पत्रकारिता को लेकर उनकी चिंताएं हैं। वे हिंदी पत्रकारिता के एक ऐसे संपादक थे जो लगातार यह सोचता रहा कि हिंदी पत्रकारिता का विचार दारिद्रय कैसे दूर किया जाए। कैसे हिंदी में एक संपूर्ण अखबार निकले और उसे व्यापक लोकस्वीकृति भी मिल सके। नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक रहे स्व.सुरेंद्र प्रताप सिंह ने उनकी इन चिंताओं को निकटता से देखा था और वे लिखते हैं- “माथुर साहब का गहन इतिहासबोध, शुद्ध श्रध्दा और उससे उत्पन्न गरिमामय अतीत की मरीचिका पर आधारित हिंदी पत्रकारिता की कमजोर आधारभूमि के बारे में उन्हें बार-बार सचेत करता रहता था। वे भूतकाल के वायवी स्वर्णिम अतीत में जीने वाले नहीं थे। वे स्वप्नदर्शी थे और अपने सपनों की उदात्तता के साथ उन्होंने कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं किया। हिंदी पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य उन्हें बार-बार विचलित तो कर देता था लेकिन एक कुशल अभियात्री की तरह उन्होंने अपने जहाज की दिशा को क्षणिक प्रलोभनों के लिए किसी अन्य रास्ते पर डालने के बारे में क्षणिक विचार भी नहीं किया।”
उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की विशिष्टता यह भी है कि वे अंग्रेजी प्राध्यापक और विद्वान होने के बावजूद अपने लेखन की भाषा के नाते हिंदी को चुनते हैं। हिंदी उनकी सांसों में बसती है। हिंदी पत्रकारिता को नई जमीन तोड़ने के लिए प्रेरित करने और हिंदी लेखकों एवं पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी का निर्माण करने का काम श्री माथुर जीवन भर करते रहे। इंदौर से लेकर दिल्ली तक उनकी पूरी यात्रा में एक भारत प्रेम, भारत बोध और हिंदी प्रेम साफ नजर आता है। शायद इसी के चलते वे देश की पत्रकारिता को एक नई और सही दिशा देने में सफल रहे। श्री मधुसूदन आनंद लिखते हैं- “माथुर साहब ने अंग्रेजी में एमए किया था और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ अंग्रेजी पत्रकारों को भी विस्मय में डालती थी। लेकिन उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को चुना तो शायद इसलिए कि वे अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। अगर यह कहा जाए कि हिंदी पत्रकारों की एक पीढ़ी माथुर साहब को पढ़कर पली और बढ़ी है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। उनके असामयिक निधन के बाद नवभारत टाइम्स को देश के दूर-दूर के इलाकों से हजारों पत्र प्राप्त हुए थे। ये वे पाठक थे जो उनके उत्कट राष्ट्र-प्रेम, समाज के प्रति उनके सरोकारों, इतिहास की अतल गहराइयों से अनमोल तथ्य ढूंढ कर लाने के उनके सार्मथ्य और शालीन भाषा में राजनेताओं की खिंचाई करने के उनके साहस पर मुग्ध थे। शब्दों का कारोबार करने वाले हमारे जैसे अनपढ़ों और बौद्धिक संस्कारहीनों के साथ तो नियति ने सचमुच अन्याय किया है। उनके लेखन से हम जैसे लोगों को एक दृष्टि तो मिलती ही थी, ज्ञान का वह विपुल भंडार भी कभी बातचीत से तो कभी उनके लेखन से टुकड़ों-टुकड़ों में मिल जाता था, जो प्रायः अंग्रेजी में ही उपलब्ध है और जिसे पढ़कर पचा लेना प्रायः कठिन होता है।”
पत्रकारीय सहयोगियों और मित्रों की नजर से देखें तो राजेंद्र माथुर के पत्रकारीय व्यक्तित्व की कुछ खूबियां साफ नजर आती हैं। जैसे वे बेहद अध्ययनशील संपादक एवं पत्रकार हैं। उनका अध्ययन और विषयों के प्रति उनके ज्ञान की गहराई उन्हें अपने सहयोगियों के बीच अलग ही व्यक्तित्व दे देती है। दूसरे उनका लेखन भारतीयता और उसके मूल्यों को समर्पित है। तीसरा है उनके मन में किसी प्रकार की पदलाभ की कामना नहीं है। वे अपने काम के प्रति समर्पित हैं और किसी राजनीति का हिस्सा नहीं हैं। चौथा उनमें मानवीय गुण भरे हुए हैं जिसके चलते वे मानवीय कमजोरियों और पद के अहंकार के शिकार नहीं होते। इसके चलते एक बड़े अखबार के संपादक का पद, रूतबा और अहं उन्हें छू नहीं पाता। यह उनके व्यक्तित्व की एक बड़ी विशेषता है जिसे उनके सहयोगी रहे सूर्यकांत बाली कहते हैं- “हमारे प्रधान संपादक को को पांचवा कोई काम आता है, इसमें तो मुझे पूरा शक हैः बस सोचना, पढ़ना, बतियाना और लिखना, उनकी सारी दुनिया इन चार कामों में सिमट चुकी थी।” श्री माथुर के व्यक्तित्व पर यह एक मुकम्मल टिप्पणी है जो बताती है कि वे किस तरह के पत्रकार संपादक थे। उनका पत्रकारीय व्यक्तित्व इसीलिए एक अलग किस्म की आभा के साथ समाने आता है। जिसमें एक बौद्धिक तेज और आर्कषण निरंतर दिखता है। जाहिर तौर पर ऐसे उदाहरण आने वाली पत्रकार पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने को तैयार किया। असहज और वैश्विक सवालों पर इतनी कम आयु में लेखन शुरू कर अपनी देशव्यापी पहचान बनाई। शायद इसीलिए देश के दो महत्वपूर्ण अखबारों नई दुनिया और नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक पद तक वे पहुंच पाए। यह यात्रा एक ऐसा सफर है जिसमें श्री माथुर ने जो रचा और लिखा वह आज भी पत्रकारिता की पूंजी और धरोहर है। पत्रकारिता का लेखन सामयिक होता है उसकी तात्कालिक पहचान होती है। श्री माथुर के पत्रकारीय लेखन के बहाने हर हम लगभग चार दशक की राजनीति, उसकी समस्याओं और चिंताओं से रूबरू होते हैं। यह एक दैनिक इतिहास की तरह का लेखन है जिससे हम अपने विगत में झांक सकते हैं और गलतियों से सबक लेकर नए रास्ते तलाश सकते हैं। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे एक ऐसे लेखक संपादक के तौर पर सामने आते हैं जो पूर्णकालिक पत्रकार हैं। वे किसी साहित्य की परंपरा से आने वाले संपादक नहीं थे। सो उन्होंने हिंदी पत्रकारिता पर साहित्यकार संपादकों द्वारा दी गयी भाषा और उसके मुहावरों से अलग एक अलग पत्रकारीय भाषा का अनुभव हमें दिया। हिंदी को संवाद को,संचार की, सूचना की भाषा बनाने में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। सही मायने में वे एक ऐसे संपादक और लेखक के रूप में सामने आते हैं जिसने बहुत से अनछुए विषयों को हिंदी के अनुभव के विषय बनाया जिनपर पहले अंग्रेजी के पत्रकारों का एकाधिकार माना जाता था। उन्होंने भावना से उपर विचार और बौद्धिकता को महत्व दिया। जिसके चलते हिंदी को एक नई भाषा, एक नया अनुभव और अभिव्यक्ति का एक नया संबल मिला। उनकी बौद्धिकता ने हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी अखबारों के सामने सम्मान से खड़े होने लायक बनाया। इससे हिंदी पत्रकारिता एक आत्मविश्वास हासिल हुआ। उसे एक नई ऊर्जा मिली। आज हिंदी पत्रकारिता में जिस तरह बाजारवादी ताकतों का दबाव गहरा रहा है ऐसे समय में राजेंद्र माथुर के बहाने हिंदी पत्रकारिता की पड़ताल एक आवश्यक विमर्श बन गयी है। शायद उनकी स्मृति के बहाने हम कुछ रास्ते निकाल पाएं जो हमें इस कठिन समय में लड़ने और मूल्यों के साथ काम करने का हौसला दे सके।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

विचारों की पत्रकारिता के नायक थे राजेंद्र माथुर

जयंती (7 अगस्त) पर विशेषः
- संजय द्विवेदी

आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता में उन जैसा नायक खोजे नहीं मिलता। राजेंद्र माथुर सही अर्थों में एक ऐसे लेखक, विचारक और संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने हिंदी पत्रकारिता को समकालीन विमर्श की एक सार्थक भाषा दी। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को वह ऊंचाई दी जिसका वह एक अरसे से इंतजार कर रही थी। राष्ट्रीय एवं वैश्विक संदर्भों में जिस तरह से उन्होंने हिंदी को एक सामर्थ्य का बोध कराया वह उल्लेखनीय है। 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश के धार जिले की बदनावर तहसील में जन्मे राजेंद्र माथुर की प्राथमिक शिक्षा धार में ही हुई। इंदौर से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की। श्री माथुर को अंग्रेजी साहित्य और दर्शन में बहुत रूचि थी। पढ़ाई पूरी होने के पहले ही 1955 से उन्होंने इंदौर के अखबार नई दुनिया में लिखना शुरू कर दिया था। साठ के दशक में उनका स्तंभ 'पिछला सप्ताह' काफी लोकप्रिय हो गया था। 1970 तक वे इंदौर के एक कालेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन करते रहे और फिर पूरी तरह से पत्रकारिता के प्रति समर्पित हो गए। 1980 में वे द्वितीय प्रेस आयोग के सदस्य मनोनीत किए गए। 1981 में वे नई दुनिया का प्रधान संपादक बने। इसी तरह एक सफल पारी का निर्वहन करने के बाद अक्टूबर 1982 में वे दिल्ली से प्रकाशित नवभारत टाइम्स के संपादक बने। राजेंद्र माथुर की पूरी पत्रकारीय यात्रा में विचारों की जगह साफ दिखाई देती है।
साहित्य और पत्रकारिता की जिस तरह की जुगलबंदी आजादी के आंदोलन के दौरान ही कायम हो गयी थी। प्रायः वे ही पत्रकार एवं संपादक हिंदी की मुख्यधारा की पत्रकारिता का नेतृत्व कर रहे थे जो साहित्यकार भी थे। हिंदी पत्रकारिता के नायकों में इसीलिए साहित्यकार पत्रकारों की एक लंबी परंपरा देखने को मिलती है। इसके चलते तमाम संपादकों ने गति न होते हुए भी साहित्य लिखने की कोशिश की, जबकि यह कर्म एक विशेष कौशल की मांग करता है। राजेंद्र माथुर का ऐसे समय में राष्ट्रीय पत्रकारिता के फलक पर अवतरण एक ऐसे नायक की तरह हुआ जिसने साहित्य से इतर पत्रकारिता की भाषा को न सिर्फ संबल दिया वरन यह साबित भी किया कि पत्रकारिता एक अलग किस्म का कौशल है और यशस्वी संपादक होने के लिए साहित्य में गति होना अनिवार्य नहीं है। इस संदर्भ में राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी जहां विचार की पत्रकारिता के वाहक बने वहीं हिंदी को सूचना की ताकत का अहसास एसपी सिंह ने कराया। ये तीन नायक हमें न मिलते तो यह कहना कठिन है कि हिंदी पत्रकारिता का चेहरा- मोहरा आज कैसा होता। हिंदी पत्रकारिता यदि अंग्रेजी पत्रकारिता के अनुगमन से मुक्त होकर अपनी खास भाषा और शैली के साथ आत्मविश्वास पा सकी तो इसके लिए इन नायकों के कार्यों का मूल्यांकन जरूरी होगा। तो बात राजेंद्र माथुर की। माथुर साहब ने जिस तरह भारत के इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य, समाज और राजनीति में रुचि दिखायी, वह प्रेरणा का बिंदु है। उनका विश्लेषण जिस तरह की बौद्धिक उत्तेजना पैदा करता है, हिंदी के पाठक ऐसी सामग्री पहली बार अपनी भाषा में पा रहे थे। वे एक ऐसे पत्रकार थे जो लगातार अपने देश को जानने की कोशिश कर रहा था। उनकी देश के प्रति जिज्ञासा, भारत प्रेम उनके लेखन में सदैव महसूस होता है, वे अपने पाठकों को अपने साथ लेने की कोशिश करते हैं। हिंदी पत्रकारिता के वैचारिक दारिद्रय को लेकर वे बहुत सजग थे। राजेंद्र माथुर ने अंग्रेजी साहित्य में एमए किया था और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ ने उनके सरोकार व्यापक किए। वे चाहते तो आसानी से किसी मुख्यधारा के अंग्रेजी अखबार में अपनी सेवाएं दे सकते थे। किंतु उन्होंने हिंदी को अपनाया। जाहिर तौर पर वे ज्यादातर लोगों से संवाद करना चाहते थे। अंग्रेजी साहित्य और विश्व की तमाम नई जानकारियों से वे लैस रहा करते थे। विदेशों में छप रही नई किताबों पर उनकी नजर रहती थी और वे उन्हें पढ़कर अपने पाठकों तक उसका आस्वाद पहुंचाते थे। प्रोफेसर ए. एल. बाशम की किताब- 'द वंडर दैट वाज इंडिया' पर उन्होंने 'क्या बतलाता है हमें बाशम का अदभुत भारत' नामक लेख लिखा। उन्होंने लिखा-“यह किताब उन लोंगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो विद्वान बने बगैर भारत के बारे में एक दृष्टि विकसित करना चाहते हैं। ”
राजेंद्र माथुर हिंदी अखबारों की विचारहीनता को लेकर लगातार सोचते रहे। एक संपूर्ण अखबार के बारे में भी उन्होंने सोचने की शुरुआत की। आज जब हिंदी की पत्रकारिता एक उंचाई ले रही है और विविध सामग्री अखबारों में जगह पा रही, तब राजेंद्र माथुर की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। राजेंद्र माथुर की भारत की तरफ देखने की एक खास नजर थी। वे देश के महान नेताओं महात्मा गाँधी और पं. जवाहर लाल नेहरू से खासे प्रभावित थे। बावजूद इसके, उनका लेखन तमाम सीमाओं का अतिक्रमण करता है। तमाम तरह के विचार उनके लेखन को प्रभावित करते हैं। अपने एक लेख 'गहरी नींद के सपनों में बनता हुआ देश' में माथुर साहब भारत की अदभुत व्याख्या करते हैं। वे भारतीय राज्य-राष्ट्र की एक नई व्याख्या करते नजर आते हैं। वे आज के एक बेहद विवादित विषय पर लिखते हैं कि – “दरअसल जिसे हिंदू धर्म कहते हैं, वह इस लेख में वर्णित अर्थों में धर्म है ही नहीं। वह मिथक- संचय की भारतीय प्रक्रिया का नाम है। इस संचय–प्रक्रिया को त्यागकर कोई देश नहीं बन सका, तो हिंदुस्तान कैसे बनेगा, जिसकी निरंतरता तीन हजार साल से नहीं टूटी है। आशंका इस बात की है कि सिंहासन के झगड़ों के कारण और आसपास के दबावों के कारण कहीं यह संचय प्रक्रिया समाप्त न हो जाए और हिंदुत्व सचमुच एक धर्म न बन जाए। आज हिंदुत्व पर भारी दबाव है कि वह संकीर्ण, एकांगी और असहिष्णु बने।”
राजेंद्र माथुर संभावनाओं और खतरों को भांपकर चलनेवाले दूरदर्शी पत्रकार थे। उनकी पंक्तियां जाहिर तौर पर भविष्य को व्यक्त कर देती हैं, एक लेख में वे लिखते हैं- “राज्य के छोटे टुकड़े होने पर स्वराज्य का पारिभाषित अंतर समाप्त हो जाएगा, यह मानने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता। यदि गाय मांस नहीं खाती तो छोटे-छोटे टुकड़े कर देने से उसकी खून की उल्टियां रूक नहीं जाएंगी। इसी लेख में वे लिखते हैं- चालीस साल से कभी अपने निजत्व से राज्य को क्षत-विक्षत करते कभी राज्य के खातिर अपने निजत्व लहूलुहान होते हुए देखते हुए हम चल रहे हैं। कोई संभावना नहीं है कि इस त्रास से निकट भविष्य से हमें मुक्ति मिलेगी। जब मिलेगी, तब तक हम बदल चुके होंगें और हमारा राज्य भी। ”
कुल मिलाकर राजेंद्र माथुर का लेखन और चिंतन हमें प्रेरित करता है और प्रभावित भी। राजेंद्र माथुर सही मायनों में एक ऐसे संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने समूची हिंदी पत्रकारिता को आंदोलित किया। वे अपने समय में एक लेखक और संपादक के रूप में ऐसी मिसाल कायम करते हैं जिसपर आज भी हिंदी पत्रकारिता को गर्व है। आज जबकि हिंदी पत्रकारिता पर कई तरह के संकट सवाल की तरह खड़े हैं, श्री माथुर की स्मृति एक संबल की तरह हमारे साथ है।

इस कठिन समय में राजेंद्र माथुर की याद

जयंती 7 अगस्त पर विशेषः
-संजय द्विवेदी

राजेंद्र माथुर की पत्रकारिता, लेखन के प्रति एक गंभीर अभिरूचि के चलते परवान चढ़ी। वे अध्ययन-मनन के साथ-साथ अपने प्राध्यापकीय व्यवसाय के चलते एक अपेक्षित गंभीरता को लेकर पत्रकारिता में आए थे। वे खबरों को दर्ज करने वाले साधारण खबरनवीस नहीं खबरों के घटने की प्रक्रिया और उसके प्रभावों के सजग व्याख्याता थे।आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता यदि अपने नायकों की तलाश करने निकले तो वह इतिहास प्रख्यात पत्रकार और नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक रहे राजेंद्र माथुर के नाम के बिना पूरा नहीं हो सकता। राजेंद्र माथुर की जिंदगी ऐसे जुझारू पत्रकार का सफर है जिसने मध्यप्रदेश के मालवा की माटी से निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उनकी बनाई लीक आज भी हिंदी पत्रकारिता का एक ऐसा रास्ता है जिस पर चलकर हम मीडिया की पारंपरिक शैली के साथ अधुनातन विमर्शों को भी साथ लेकर चल सकते हैं। वे सही मायने में परंपरा और आधुनिकता को एक साथ साधने वाले नायक थे। हिंदी और अंग्रेजी भाषा पर समान अधिकार, मालवांचल के लोक का संस्कार, इंदौर और दिल्ली जैसे शहरों ने मिलकर उन्हें जैसा गढ़ा वह हिंदी की पत्रकारिता में एक अलग स्वाद, रस और गंध पैदा करने में समर्थ रहा। अपने दोस्तों के बीच रज्जू बाबू के नाम से मशहूर राजेंद्र माथुर ने जो रचा और लिखा उसपर हिंदी ही नहीं संपूर्ण भारतीय पत्रकारिता को गर्व है।
मध्यप्रदेश के धार जिले के बदनावर कस्बे में 7 अगस्त, 1935 को जन्मे राजेंद्र माथुर की पूरी जीवन यात्रा रचना, सृजन और संघर्ष की यात्रा है। उनकी शिक्षा उज्जैन, मंदसौर, धार तथा इंदौर में हुयी। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य और दर्शन उनके प्रिय विषय थे। पढ़ाई पूरी होने के पहले ही उन्होंने इंदौर से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार नई दुनिया में लिखना प्रारंभ कर दिया था। शायद इसीलिए वे एक स्तंभ लेखक के रूप में जिस पत्र (नई दुनिया, इंदौर) से जुड़ते हैं वहीं पर वह एक प्रधान संपादक के रूप में स्थापित हो पाते हैं। एक ऐसी लीक बनाते हैं जिससे नई दुनिया ही नहीं समूची भारतीय पत्रकारिता को आंदोलित, प्रेरित और प्रभावित कर पाते हैं। सही मायने में वे अपनी पत्रकारिता में एक नई दुनिया बनाने और स्थापित करने वाले नायक के रूप में सामने आते हैं जिसने जो लीक बनाई वह दूसरों के लिए उदाहरण बन गयी। इंदौर का नई दुनिया भारतीय पत्रकारिता एक ऐसा मानक बना तो उसके संपादकों राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के कारण ही यह संभव हो पाया। ऐसे परिवेश को उपलब्ध कराने वाले नई दुनिया के प्रबंधकों और संपादक के रूप में राजेंद्र माथुर को प्रेरित करने वाले राहुल बारपुते के उल्लेख के बिना बात पूरी न होगी।
सही मायने में श्री माथुर, नई दुनिया से स्वतंत्र लेखक के रूप में ही जुड़ते हैं। श्री राजेंद्र माथुर की नई दुनिया के प्रधान संपादक श्री राहुल बारपुते से मुलाकात पहली बार 1955 में हुयी और उनसे हुयी चर्चा के बाद माथुर जी ने अपना स्तंभ नई दुनिया में प्रारंभ किया। प्रारंभ में श्री माथुर ने तीन लेख दिए जिनके शीर्षक थे- पख्तून राष्ट्रीयता, यूगोस्लाव विदेशनीति और हिंद अफ्रीका।यह उनके स्वतंत्र लेखन की शुरूआत थी। 2 अगस्त, 1955 को श्री माथुर का पहला स्तंभ ‘अनुलेख’ नाम से नई दुनिया में छपा। यह भी महत्वपूर्ण है कि वे इस कालम को अपने नाम से नहीं लिखते थे। एक फ्रीलांसर के रूप में राजेंद्र माथुर ने अनेक महत्वपूर्ण कामों को अंजाम दिया जो उन्हें नई दुनिया के संपादक के नाते राहुल जी से प्राप्त होते थे। जब उन्होंने नई दुनिया में लिखना प्रारंभ किया तो उस समय उसकी प्रसार संख्या पांच हजार थी।
फिर 1965 में उन्होंने ‘पिछला सप्ताह’ नाम से नई दुनिया इंदौर में ही एक कालम लिखना शुरू किया। यह स्तंभ बीते सप्ताह की घटनाओं की विश्लेषण होता था। इस तरह एक गुजराती कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक होने के साथ-साथ श्री माथुर का लेखन चलता रहा। वे अगस्त, 1955 तक नई दुनिया में पूर्णकालिक रूप में 1970 में आने तक स्वतंत्र रूप से लेखन करते रहे। 1963 से लेकर 1969 तक के उनके लेखों का संकलन ‘राजेंद्र माथुर संचयन’ नाम से मप्र सरकार ने प्रकाशित किया है जिसमें श्री माथुर के 208 लेख संकलित हैं। यह संचयन मप्र सरकार ने 1996, जुलाई में प्रकाशित किया। जिसका संपादन मधुसूदन आनंद ने किया है। इसमें श्री माथुर के 1963 से लेकर 1969 तक के लेख हैं जिस समय वे स्वतंत्र पत्रकार के रूप में नई दुनिया से जुड़े थे और लेखन कर रहे थे। इनके आरंभिक लेखन की यह बानगी बताती है उनमें उसी समय ही एक महान लेखक और संपादक की झलक मिलती है। उनके लेखन में भरपूर विविधता है और कहीं भी उथलापन नहीं दिखता। पुस्तक के संपादक एवं वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन आनंद ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है-“ माथुर साहब ने बड़ी ईमानदारी, बौद्धिक तैयारी और विलक्षणता के साथ उपलब्ध सच को लिखा है उसकी चीरफाड़ की है और बाकायदा एक रचनात्मक प्रक्रिया से गुजरकर किन्हीं नतीजों पर पहुंचे हैं। इसलिए ये लेख महज अखबारी लेख नहीं हैं इतिहास और दर्शन के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। ” उनके प्रारंभिक लेख भाषा की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। संपादक मधुसूदन आनंद इसी भूमिका में लिखते हैं- “ माथुर साहब के लेखों की भाषा का तो कहना ही क्या है उन्होंने पत्रकारिता को नई भाषा दी है। हिंदी में आधुनिक विचार के लिए सम्मानजनक जगह बनाई है और विचार के लिए नई भाषा शैली का निर्माण किया है। कई लेखों में लगता है कि जैसे कि माथुर साहब रूपकों में फंसकर रह गए हैं लेकिन लेख के अंत में आप पाते हैं कि ये रूपक चीजों को समझाने का उनका सशक्त हथियार है। ”
श्री आनंद ने अपनी इस भूमिका में उनके विषयगत दक्षता का भी जिक्र किया है वे लिखते हैं-“ माथुर साहब के सरोकार जितने राष्ट्रीय थे उतने ही उनमें अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम को समझने की बेचैनी थी। अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर उन्होंने सीमित सूचना तंत्र के बावजूद जितना लिखा है, वह अप्रतिम है और उनकी जागरूकता का नमूना है।”
श्री माथुर का आरंभिक स्वतंत्र लेखन नई दुनिया, इंदौर के पन्नों पर बिखरा पड़ा है। यह सारी सामग्री राजेंद्र माथुर संचयन के रूप में उपलब्ध है। इस दौर के लेखन का विश्लेषण करें तो श्री माथुर खासे प्रभावित करते हैं। अपने आरंभिक दिनों के लेखन में भी श्री माथुर देश की समस्याओं पर तो संवाद करते ही हैं विदेशी सवालों को भी बहुत प्रमुखता से उठाते हैं। अक्टूबर,1982 में वे दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बने। यह एक बेहद गौरव का क्षण था। मप्र की कलम पर एक राष्ट्रीय कहे जाने अखबार की मोहर लग रही थी। वे श्री अक्षय कुमार जैन जैसे वरिष्ठ पत्रकार के उत्तराधिकारी बनकर आए थे। जाहिर तौर पर उनसे अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थी। इस अखबार के संपादकों में हिंदी के प्रख्यात संपादक एवं लेखक अज्ञेय जी भी रह चुके थे। जाहिर तौर पर श्री माथुर का चयन एक बेहतर संभावना का चयन तो था ही किंतु माथुर जी के लिए यह समय एक बड़ी चुनौती भी था।
प्रख्यात पत्रकार विष्णु खरे इंदौर छोड़कर श्री माथुर के दिल्ली जाने की पीड़ा को कुछ इस तरह व्यक्त किया है- “ यह अपरिहार्य था कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी पत्रकारिता के तकाजे राजेंद्र माथुर को इंदौर छोड़ने पर बाध्य करते, हालांकि जो जानते हैं वे जानते हैं कि उन्होंने नई दुनिया, इंदौर, मालवा और मध्यप्रदेश को बहुत मुश्किल से छोड़ा। नवभारत टाइम्स उनके संपादक बनने से पहले ही एक सफल दैनिक था, लेकिन राजेंद्र माथुर ने उसे इस सदी के आठवें और नवें दशक के तेवर दिए। उनकी वजह से बीसियों ऐसे युवा तथा प्रौढ़ पत्रकार एवं लेखक तथा स्तंभकार नवभारत टाइम्स से जुड़े, जो शायद किसी और के संपादन में न जुड़ पाते। कोई भी अखबार अपने संपादकों से ही अपना व्यक्तित्व हासिल करता है और बदलता है। संपादक वही काम करता है जो एक कंडक्टर अपने आर्केस्ट्रा के लिए करता है। राजेंद्र माथुर महान संपादक होने का अभिनय करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करते थे। ” 9 अप्रैल, 1991 को दिल का दौरा पड़ने से दिल्ली में उनका निधन हो गया। आज जबकि हिंदी मीडिया पर बाजारवाद, पेडन्यूज के साथ ही उसकी प्रामणिकता एवं विश्वसनीयता का गंभीर खतरा मंडरा रहा है, श्री राजेंद्र माथुर की जयंती पर उनकी याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

मैदानों में सना कीचड़

-संजय द्विवेदी

खेल और खेल उत्सव दोनों अब इतने पवित्र नहीं रहे कि उनसे बहुत नैतिक अपेक्षाएं पाली जाएं। हाकी के खिलाड़ियों के यौन उत्पीड़न को लेकर जो खबरें सामने आई हैं उसमें नया कुछ भी नहीं हैं। ये चीजें तभी सामने आती हैं जब इसमें कोई एक पक्ष विरोध में उतरता है या कोई किसी के पीछे पड़ जाए। यह दरअसल एक नैतिक सवाल भी है कि हम अपनी महिला खिलाड़ियों को इन वहशियों के हाथों में जाने से कैसे बचा सकते हैं, जबकि वे प्रमुख निर्णायक पदों पर हों। वह भी तब जबकि समर्पण पर पुरस्कार और स्वाभिमान दिखाने पर तिरस्कार मिलना तय हो। निर्णायक पदों पर बैठे पुरूष ही इन लड़कियों के भाग्य विधाता होते हैं। सवाल जब कोच जैसे पद का हो तो उसकी महिमा और बढ़ जाती है। एक मानवीय कमजोरी के नाते किसी का विचलित हो जाना स्वाभाविक है किंतु इसे एक चलन बना लेना और नैतिकता की सीमाओं को लांधकर महिलाओं के शोषण का कुचक्र रचना तो उचित नहीं कहा जा सकता। किंतु यह हो रहा है और हम इसे देखते रहने के लिए विवश हैं। सवाल यह भी है कि जो लड़की इन घटनाओं का विरोध करते हुए आगे आती है उसके साथ हमारा व्यवहार क्या होता है। क्या वह आगे के जीवन में सहज होकर इन मैदानों में खेल सकती है? अधिकारी वर्ग उसके प्रति एक शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण नहीं अपना लेता होगा ? और उसे अंततः मैदान से बाहर धकेलने की कोशिश क्या नहीं की जाती होगी ? क्योंकि उसने पुरूष सत्ता को चुनौती दी होती है।
अपने कोच और खेल अधिकारियों के खिलाफ जाना किसी भी खिलाड़ी के साधारण नहीं होता। वह तभी संभव होता है जब पानी सर से उपर जा चुका हो। आज हाकी पर जिस तरह के घिनौने आरोप हैं उससे मैदान तो गंदा हुआ ही है, आने वाली पीढ़ी को भी लोग मैदानों में भेजने में संकोच करेंगें। महिला हाकी वैसे ही इस देश में एक उपेक्षित खेल है। ऐसी घटनाओं के बाद वहां कौन सी रौनक लौट पाएगी,कहा नहीं जा सकता। अगर एक महिला खिलाड़ी अपने मुख्य कोच पर सेक्स उत्पीड़न के आरोप लगाती है तो शक की पूरी वजह है। कोच अपने को निर्दोष भले बता रहे हों किंतु जब महिला हाकी की एक पूर्व कप्तान हेलेन मेरी यह कहती हैं कि चार साल पहले उन्हें भी इस कोच के चलते ही हाकी छोड़नी पड़ी थी तो कहने को क्या रह जाता है। अब जबकि महिला आयोग भी इस मामले में दिलचस्पी ले रहा है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि कुछ सही निष्कर्ष और समाधान भी सामने आएंगें।
इसके साथ ही एक वृहत्तर प्रश्न यह भी उठता है कि हम अपने खेलों को सेक्स के साथ जोड़कर उसके उत्सवधर्म को एक बेहदूगी क्यों बना रहे हैं। इस पर भी सोचना जरूरी है। हमने देखा कि खेलों के उत्सवों में आज लड़कियां, वेश्याएं, शराब और अश्लील पार्टियां एक जरूरी हिस्सा हो गए हैं। इससे कौन सा खेल धर्म पुष्ट हो रहा है सोचना मुश्किल है। औरत की देह इस समय खेल प्रबंधकों और इलेक्ट्रानिक मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है । खेल उत्सव, सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह सभी संचार माध्यमों पर पसरा हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा । यह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और अन्य संचार माध्यमों से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। इस पूरे वातावरण को इलेक्ट्रानिक टीवी चेनलों ने आंधी में बदल दिया है। इंटरनेट ने सही रूप में अपने व्यापक लाभों के बावजूद सबसे ज्यादा फायदा सेक्स कारोबार को पहुँचाया । पूंजी की ताकतें सेक्सुएलिटी को पारदर्शी बनाने में जुटी है। मीडिया इसमें उनका सहयोगी बना है, अश्लीलता और सेक्स के कारोबार को मीडिया किस तरह ग्लोबल बना रहा है इसका उदाहरण विश्व कप फुटबाल बना। मीडिया रिपोर्ट से ही हमें पता चला कि वेश्यालय इसके लिए तैयार हुए और दुनिया भर से वेश्याएं वहाँ पहुंचीं।कुछ विज्ञापन विश्व कप के इस पूरे उत्साह को इस तरह व्यक्त करते है ‘मैच के लिए नहीं, मौज के लिए आइए’ । दुनिया भर की यौनकर्मियों ने दक्षिण अफ्रीका के फुटबाल मैचों में एक अलग ही रंग भरा। खेलों में उत्साह भरने के लिए उसके प्रबंधक और मीडिया मिलकर जैसा वातावरण रच रहे हैं उसमें खेलों को गंदगी से मुक्त कराना कठिन है।
हमने देखा कि आईपीएल के खेलों में किस तरह चीयर लीर्डस का इस्तेमाल हुआ और रंगीन पार्टियों ने अलग का तरह शमां बांधे रखा। बाजार इसी तरह से हमारे हर खेल उत्सव को अपनी जद में ले रहा है और हम इसे देखते रहने के लिए विवश हैं। यही कारण है कि आईपीएल खेलों से ज्यादा उत्साह रात को होने वाली नशीली पार्टियों में दिखता था। इससे क्रिकेट को क्या मिला किंतु व्यापारी मालामाल हो गए और सेक्स के कारोबार को उछाल मिला। एक उपेक्षित खेल हाकी के एक अधिकारी की रातें अगर इतनी रंगीन हैं तो क्रिकेट जैसे खेल के अधिकारियों और आईपीएल के अधिकारियों की शामों का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक माह तक चले आईपीएल खेलों के लिए ढाई सौ चीयर लीडर्स की मौजूदगी यूं ही नहीं थी। इसके साथ ही हजार से ज्यादा यौनकर्मी विभिन्न शहरों से खास मेहमानों के स्वागत के लिए मौजूद रहती थीं। यही हाल और नजारे जल्दी ही दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों में दिखने वाले हैं। दिल्ली में अक्टूबर में होने जा रहे इन खेलों के लिए भी देह की मंडी सजने जा रही है। दुनिया भर से वेश्याएं यहां पहुंचेगीं और कई एस्कार्ट कंपनियां करोंड़ों का कारोबार करेंगीं। यूक्रेन,उजबेकिस्तान, अजरबेजान, चेचन्या, किर्गीस्तान, फिलीपींस जैसे देशों से तमाम यौनकर्मियों के आने की खबरें हैं। ऐसे हालात में हमारे पास इसे रोकने के कोई इंतजाम नहीं है। खेल प्रबंधकों, मीडिया प्रबंधकों और हमारी सरकारों की साझा युति से ये काम चलते आए हैं और चलते रहेंगें। मैदान से लेकर मैदान के बाहर खेलों का पूरा तंत्र ही उसे कलुषित करने की तैयारी है। जिसमें औरतें सबसे आसान शिकार हैं चाहे वे खिलाड़ी के रूप में या चीयर लीर्डस के रूप में या धन कमाने के लिए आई यौनकर्मी के रूप में। भारत जैसे देश में जहां ऐसे कामों को सामाजिक तौर पर स्वीकृति नहीं है वहां इसमें रोमांच और बढ़ जाता है। किंतु चिंता की बात यही है कि हमारे खेल प्रबंधकों को यह सोचना होगा कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो क्या हम मैदानों में अपने परिवार के बच्चों को खेलते हुए देखना चाहेंगें। इसलिए भारतीय महिला हाकी टीम के ही बहाने जो बातचीत शुरू हुई है उसे निष्कर्ष तक पहुंचाना और दोषियों को दंडित करना जरूरी है। वरना फिल्मों के कास्टिंग काउच की तरह हमारे खेलों के मैदान भी ऐसे ही कीचड़ से सने हुए दिखेंगें।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

कहां से आए हिंदू आतंकवादी ?


आखिर आरएसएस क्यों है निशाने पर
-संजय द्विवेदी
एक टीवी चैनल के खिलाफ आरएसएस के कार्यकर्ताओं के प्रदर्शन को लेकर जैसी बातें की गयीं वह एक बहस का हिस्सा जरूर हैं पर इससे देश को क्या मिलेगा? बहस दरअसल इस बात पर होनी चाहिए कि खबरों को पुष्ट किए बिना ले उड़ने की जो वर्तमान टीवी पत्रकारिता है वह कितनी उचित है। दिल्ली की शिक्षिका उमा खुराना के प्रकरण से लेकर गुजरात की लड़की इशरत हो या आरूषि हत्याकांड के मामले हमारे सामने हैं जहां टीवी मीडिया ने अपनी गैरजिम्मेदार रिर्पोटिंग से माहौल को खराब किया। इस बार भी आरएसएस की भूमिका को संदेहास्पद बनाना उसी सोच का हिस्सा है जिसका शिकार वह आजादी के बाद से लगातार होता आया है। लेकिन इससे आरएसएस की न तो ताकत घटी न ही उसकी देशनिष्ठा पर विरोधियों ने भी शक किया। आज जैसी भूमिका इलेक्ट्रानिक मीडिया खबरों को लेकर निभा रहा उस पर सवालिया निशान उठते ही रहे हैं। खबरों को जल्दी देने की त्वरा ही इसके पीछे जिम्मेदार नहीं है उसके पीछे वह मानसिकता भी है जो आरएसएस के खिलाफ सालों से बनाई गयी है। जैसे कि हिंदू आतंकवाद शब्द का सृजन। आप कहना क्या चाहते हैं, क्या आतंक पंथों और धर्मों का होता है। आतंकवाद से लड़ने के मामले पर चयनात्मक रूख नहीं अपनाया जा सकता है। उसे जातियों, पंथों, धर्मों में बांटकर हम कमजोर ही करेंगें। आरएसएस पर हिंदू आतंकवाद की तोहमत लगाने के पहले क्या उसका पक्ष जानने की कोशिश हुयी ? एक संगठन के तौर पर हर तरह की आतंकी गतिविधि को संघ ने हमेशा खारिज किया और कहा कि उसका इस तरह की कामों में यकीन नहीं है। अब आप उसकी तुलना सिमी, अलकायदा या लश्कर तैयबा से करने लगें तो यह जायज नहीं है। एक चीज के खिलाफ दूसरी चीज है ही नहीं, तो उसे मीडिया क्यों खड़ा करना चाहता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ऐसा क्या है कि वह देश के तमाम बुद्धिजीवियों की आलोचना के केंद्र में रहता है। ऐसा क्या कारण है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी उसे संदेह की नजर से देखता है। बिना यह जाने कि आखिर उसका मूल विचार क्या है। आरएसएस को न जानने वाले और जानकर भी उसकी गलत व्याख्या करनेवालों की तादाद इतनी है कि पूरा सच सामने नहीं आ पाता। आरएसएस के बारे में बहुत से भ्रम हैं कुछ तो विरोधियों द्वारा प्रचारित हैं तो कुछ ऐसे हैं जिनकी गलत व्याख्या कर विज्ञापित किया गया है। आरएसएस की काम करने की प्रक्रिया ऐसी है कि वह काम तो करता है प्रचार नहीं करता। इसलिए वह कही बातों का खंडन करने भी आगे नहीं आता। ऐसा संगठन जो प्रचार के काम में भरोसा नहीं करता और उसके कैडर को सतत प्रसिध्दि से दूर रहने का पाठ ही पढ़ाया गया है वह अपनी अच्छाइयों को बताने के आगे नहीं आता, न ही गलत छप रही बातों का खंडन करने का अभ्यासी है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आरएसएस के बारे में जो कहा जाता है, वह कितना सच है।
जैसे कि आरएसएस के बारे में यह कहा जाता है कि वह मुस्लिम विरोधी है। जबकि सच्चाई यह है कि राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच नामक संगठन बनाकर मुस्लिम समाज के बीच काम कर रहा है। संघ का मानना है कि यह देश तभी प्रगति कर सकता है जब उसके सभी नागरिक राष्ट्रजीवन में सामूहिक योगदान दें। संघ के एक अत्यंत वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार मुस्लिम समाज को जोड़ने के इस काम में लगे हैं। संघ का मानना है कि पूजा-पद्धति में बदलाव से राष्ट्र के प्रति किसी समाज की निष्ठा कम नहीं होती। हमारे पूर्वज एक हैं इसलिए हम सब एक हैं। संघ किसी पूजा उपासना पद्धति के खिलाफ नहीं है, वह तो राष्ट्रमंदिर का पुजारी है। उसकी सोच है कि देश सर्वोपरि है, उसके बाद सब हैं। ईसाई मिशनरियों से भी संघ का संघर्ष किसी द्वेष भावना के चलते नहीं है, धर्मपरिवर्तन के उनके प्रयासों के कारण है। संघ का मानना है प्रलोभन देकर कराया जा रहा धर्मांतरण उचित नहीं है। शायद इसीलिए दुनिया भर में मीडिया का उपयोग कर संघ की छवि बिगाड़ी गयी। वनवासी क्षेत्रों में लोभ के आधार पर कराया जा रहा धर्मांतरण संघर्ष की एक बड़ी वजह बना हुआ है।
आरएसएस के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों का विरोधी है। सच्चाई यह है कि आरएसएस के प्रातः स्मरण में महात्मा गांधी का जिक्र अन्य स्मरीय महापुरूषों के साथ किया गया है। स्वदेशी और स्वालंबन की गांधी की नीति का संघ कट्टर समर्थक है। वह मानता है कि गांधी के रास्ते से भटकाव के चलते ही उनके अनुयायियों ने देश का कबाड़ा किया। ध्यान दें केंद्र में वाजपेयी सरकार के समय भी आर्थिक नीतियों पर संघ के मतभेद सामने आए थे उसके पीछे स्वदेशी की प्रेरणा ही थी। कहने की जरूरत नहीं कि संघ पर गांधी जी हत्या का आरोप भी झूठा था जिसे अदालत ने भी माना। गांधी जी स्वयं अपने जीवन काल में संघ की शाखा में गए और वहां के अनुशासन, सामाजिक एकता और साथ मिलकर भोजन करने की भावना को सराहा। वे इस बात से खासे प्रभावित हुए कि यहां जांत-पांत का असर नहीं है।
संघ की राजनीति में बहुत सीमित रूचि है। राजनीति में अच्छे लोग जाएं और राष्ट्रवादी सोच के तहत काम करें संघ की इतनी ही मान्यता है। वह किसी दल के साथ अच्छी या बुरी सोच नहीं रखता बल्कि उस दल के आचरण के आधार पर अपनी सोच बनाता है। जैसे कि श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की भी कुछ प्रसंगों पर संघ ने सराहना की। सरदार वल्लभभाई पटेल को भी उसने आदर दिया। जबकि ये कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए थे। संघ की राजनीति दरअसल चुनावी और वोट बैंक की सोच से उपर की है, उसने सदैव देश और देश की जनता के हित को सिर माथे लिया है। हम देखें तो संघ की समस्त राष्ट्रीय चिंताएं आज सामने प्रकट रूप में खड़ी हैं। संघ ने नेहरू की काश्मीर नीति की आलोचना की तो आज उसका सच सामने है। हजारों कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थी बनने के लिए विवश होना पड़ा। बांग्लादेशी घुसपैठ को मुद्दा बनाया तो आज पूर्वांचल और बंगाल ही नहीं पूरे देश में हमारी सुरक्षा को लेकर बड़ा संकट खड़ा हो गया है। जिसका सबसे ज्यादा असर आज असम में देखा जा रहा है। संघ ने अपनी प्रतिनिधि सभा की बैठकों में 1980 में सबसे पहले यह मुद्दा उठाया।1982,1984,1991 की संघ की प्रतिनिधि सभा के बैठकों के प्रस्ताव देखें तो हमारी आंखें खुल जाएंगीं। इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर संघ की चिंताएं ही आज भारतीय राज्य की सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई हैं। 1990 में संघ की प्रतिनिधि सभा ने आतंकवादी उभार पर अपनी बैठक में प्रस्ताव पास किया। आज 2010 में वह हमारी सबसे बड़ी चिंता बन गया है। इसी तरह अखिलभारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में 1990 में ही हैदराबाद में आरएसएस ने आतंकवाद पर सरकार की ढुलमुल नीति को निशाने पर लेते हुए प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में वह आतंकवाद और नक्सलवाद के दोनों मोर्चों पर विचार करते हुए बात कही गयी थी। इस तरह देखें तो आरएसएस की चिंता में देश सबसे पहले है और देश की लापरवाह राजनीति को जगाने और झकझोरने का काम वह अपने तरीके से करता रहता है।
आरएसएस को उसके आलोचक कुछ भी कहें पर उसका सबसे बड़ा जोर सामाजिक और सामुदायिक एकता पर है। आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों को जोड़ने और वृहत्तर हिंदू समाज की एकता और शक्ति को जगाने के उसके प्रयास किसी से छिपे नहीं हैं। वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठन संघ की प्रेरणा से ही सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। शायद इसीलिए ईसाई मिशनरियों के साथ उसका संधर्ष देखने को मिलता है। आरएसएस के कार्यकर्ताओं के लिए सेवा का क्षेत्र बेहद महत्व का है। अपने स्कूल, कालेजों, अस्पतालों के माध्यमों से कम साधनों के बावजूद उन्होंने जनमानस के बीच अपनी पैठ बनाई है। देश पर पड़ी आपदाओं के समय हमेशा संघ के स्वयंसेवक सेवा के लिए तत्पर रहे। 1950 में संघ के तत्कालीन संघ चालक श्रीगुरू जी ने पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की मदद के लिए आह्वान किया। 1965 में पाक आक्रमण के पीड़ितों की सहायता का काम किया,1967 में अकाल पीड़ितों की मदद के लिए संघ आगे आया, 1978 के नवंबर माह में दक्षिण के प्रांतों में आए चक्रवाती तूफान में संघ आगे आया। इसी तरह 1983 में बाढ़पीडितों की सहायता, 1991 में कश्मीरी विस्थापितों की मदद के अलावा तमाम ऐसे उदाहरण हैं जहां पीड़ित मानवता की मदद के लिए संघ खड़ा दिखा। इस तरह आरएसएस का चेहरा वही नहीं है जो दिखाया जाता है। हर संगठन समय के साथ अपने को परिष्कृत करता है और नए विचारों को शामिल करता है। ऐसे समय में जब संघ मुस्लिम समाज से एक संवाद विकसित करता चुका है और संवाद के नए अवसरों की तलाश कर रहा है। उसे आतंकवादी गतिविधियों का पोषक बताना न्याय नहीं है। सभी संगठनों में कुछ भटके हुए लोग होते हैं संभव है कि कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें आरएसएस के काम करने में आस्था न हो और वे अलग रास्ता लेकर अतिवादी राह पकड़ लेते हों। किंतु इसके लिए संघ को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। वह हर तरह की हिंसा के खिलाफ है और ऐसे में सिर्फ सस्ती लोकप्रियता या मीडिया के द्वारा टीआरपी के लिए उसे आरोपित करना ठीक नहीं है।
संकट यह है कि आरएसएस का मार्ग ऐसा है कि आज की राजनीतिक शैली और राजनीतिक दलों को वह नहीं सुहाता। वह देशप्रेम, व्यक्ति निर्माण के फलसफे पर काम करता है। वह सार्वजनिक जीवन में शुचिता का पक्षधर है। वह देश में सभी नागरिकों के समान अधिकारों और कर्तव्यों की बात करता है। उसे पीड़ा है अपने ही देश में कोई शरणार्थी क्यों है। आज की राजनीति चुभते हुए सवालों से मुंह चुराती है। संघ उससे टकराता है और उनके समाधान के रास्ते भी बताता है। संकट यही है कि आज की राजनीति के पास न तो देश की चुनौतियों से लड़ने का माद्दा है न ही समाधान निकालने की इच्छाशक्ति। आरएसएस से इसलिए इस देश की राजनीति डरती है। वे लोग डरते हैं जिनकी निष्ठाएं और सोच कहीं और गिरवी पड़ी हैं। संघ अपने साधनों से, स्वदेशी संकल्पों से, स्वदेशी सपनों से खड़ा होता स्वालंबी देश चाहता है,जबकि हमारी राजनीति विदेशी पैसे और विदेशी राष्ट्रों की गुलामी में ही अपनी मुक्ति खोज रही है। जाहिर तौर पर ऐसे मिजाज से आरएसएस को समझा नहीं जा सकता। आरएसएस को समझने के लिए दिमाग से ज्यादा दिल की जरूरत है। क्या वो हमारे पास है ?

सोमवार, 19 जुलाई 2010

जगदीश उपासने को पितृशोक

रायपुर, 19 जुलाई।
इंडिया टुडे के कार्यकारी सम्पादक जगदीश उपासने एवं भारतीय जनता पार्टी छत्तीसगढ़ के प्रदेश उपाध्यक्ष सच्चिदानंद उपासने के पिता श्री दत्तात्रय उपासने (वर्ष 87) का सोमवार को निधन हो गया। वे प्रख्यात समाज सेवी थे, स्व. उपासने की धर्मपत्नी श्रीमती रजनीताई उपासने रायपुर शहर से विधायक भी रही हैं। उपासने परिवार का राजनीति एवं समाज सेवा में काफी योगदान रहा है। परिवार के मुखिया के नाते स्व. उपासने ने आपात काल का वह दौर भी झेला था, जब उनके परिवार के अधिकतर सदस्य जेल में डाल दिए गए थे। भाजपा परिवार में भी उनका अभिभावक जैसा सम्मान था। यही कारण है कि जब स्व. उपासने ने स्थानीय अस्पताल में अंतिम सांस ली उस समय मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी वहां उपस्थित थे। वे अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड़ गये हैं। स्व. उपासने का अंतिम संस्कार शाम 4 बजे मारवाड़ी श्मशान घाट, रायपुर में किया।

रविवार, 18 जुलाई 2010

कुछ करिए, कुछ करिए !!


नक्सलवाद पर कार्रवाई पर किंतु परंतु न कीजिए
-संजय द्विवेदी
देर से ही सही केंद्र सरकार और हमारी राज्य सरकारों ने नक्सलवाद के खतरे को उसके सही संदर्भ में पहचान लिया है। शायद इसीलिए अब इस मसले पर एकीकृत कमान की बात की जा रही है। पिछले एक दशक नक्सली हिंसा का विस्तार रोक नहीं पाए और अब जब यह आतंकी वाद बेकाबू हो गया है तब हमारी सरकारों को इसके खतरे का अंदाजा हुआ है। इंतजार और धैर्य के मामले में वास्तव में हमारी सरकारें प्रेरणा का विषय हैं। जब तक पानी सर से ऊपर न हो जाए उन पर जूं ही नहीं रेंगती। अब नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की मौजूदगी में यह फैसला किया गया है कि माओवादियों की हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में एकीकृत कमान होगी। जो इस चुनौती से निपटने की रणनीति पर काम करेंगें। इस के साथ ही केंद्र इन राज्यों को नक्सली विरोधी अभियान के लिए हेलीकाप्टर तथा अन्य साधन मुहैया कराएगा।
एकीकृत कमान बनाए जाने के फैसले से चारो राज्य सहमत हैं और इसकी अध्यक्षता राज्य के मुख्यसचिव करेंगें। यह कमान पुलिस, अर्द्धसैनिक बल तथा खुफिया एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल बैठाएगी। इस एकीकृत कमान में सेना का एक रिटायर्ड मेजर जनरल भी शामिल होगा। जाहिर तौर पर यह फैसला नक्सलवाद के खिलाफ जंग में एक बड़ी सफलता की शुरूआत कर सकता है। क्योंकि यह समस्या किसी एक राज्य की नहीं है बल्कि पूरे देश की है सो इसमें सबका सहयोग और समन्वय आवश्यक है। अलग-अलग विचार रखकर इस लड़ाई को जीत पाना कठिन है। इसके लिए ठोस रणनीति बनाकर इस लड़ाई को परिणाम तक ले जाने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जैसे नेता प्रारंभ से ही एक समन्वित रणनीति बनाकर काम करने की बात करते रहे हैं किंतु केंद्र में बैठे कुछ नेता आज भी इसे कानून-व्यवस्था की सामान्य समस्या मानकर चल रहे हैं। जबकि यह एक अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा है जिसमें हमारे अपने लोगों को मोहरा बनाकर लड़ाई लड़ी जा रही है। यह दुखद है कि देश के राजनीतिक जीवन में सक्रिय अनेक राजनेता और अधिकारी व बुद्धिजीवी आज भी नक्सली आंदोलन के साथ सहानुभूति का व्यवहार रखते हैं, इससे जाहिर तौर पर चिंता बढ़ जाती है और नक्सलवाद के खिलाफ संर्धष के मार्ग में एक भ्रम का निर्माण होता है।
यह कैसा ‘वाद’ हैः
सवाल यह उठता है कि क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। यह एक ऐसी कायराना लड़ाई है जिसमें नक्सलवादी नरभक्षियों में बदल गए हैं। ट्रेन में यात्रा कर रहे आम लोग अगर आपके निशाने पर हैं तो आप कैसी जंग लड़ रहे हैं। आम आदमी का खून बहाकर वे कौन सा राज लाना चाहते हैं यह किसी से छिपा नहीं है।
क्या कह रही हो अरूंधतीः
न जाने किस दिल से देश की महान लेखिका और समाज सेविका अरूंधती राय और महाश्वेता देवी को नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति के शब्द मिल जाते हैं। नक्सलवाद को लेकर प्रख्यात लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरूंधती राय का बयान दरअसल आंखें खोलने वाला है। अब तो इस सच से पर्दा हट जाना चाहिए कि नक्सलवाद किस तरह से एक देशतोड़क आंदोलन है और इसे किस तरह से समर्थन मिल रहा है। नक्सलियों द्वारा की जा रही हत्याओं का समर्थन कर अरूंधती राय ने अपने समविचारी मानवाधिकारवादियों, कथित लेखकों और आखिरी आदमी के लिए लड़ने का दम भरने वाले संगठनों की पोल खोल दी है। उन्होंने अपना पक्ष जाहिर कर देश का बहुत भला किया है। उनके इस साहस की सराहना होनी चाहिए कि खूनी टोली का साथ तमाम किंतु-परंतु के साथ नहीं दे रही हैं और नाहक नाजायज तर्कों का सहारा लेकर नक्सलवाद को जायज नहीं ठहरा रही हैं। उनका बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के महान लोकतंत्र व संविधान के प्रति आस्था रखनेवालों और उसमें आस्था न रखनेवालों के बीच साफ-साफ युद्ध छिड़ चुका है। ऐसे में अरूंधती के द्वारा अपना पक्ष तय कर लेना साहसिक ही है। वे दरअसल उन ढोंगी बुद्धिजीवियों से बेहतर है जो महात्मा गांधी का नाम लेते हुए भी नक्सल हिंसा को जायज ठहराते हैं। नक्सलियों की सीधी पैरवी के बजाए वे उन इलाकों के पिछड़ेपन और अविकास का बहाना लेकर हिंसा का समर्थन करते हैं। अरूंधती इस मायने में उन ढोंगियों से बेहतर हैं जो माओवाद, लेनिनवाद, समाजवाद, गांधीवाद की खाल ओढ़कर नक्सलियों को महिमामंडित कर रहे हैं।
तय करें आप किसके साथः
खुद को संवेदनशील और मानवता के लिए लड़ने वाले ये कथित बुद्धिजीवी कैसे किसी परिवार को उजड़ता हुआ देख पा रहे हैं। वे नक्सलियों के कथित जनयुद्ध में साथ रहें किंतु उन्हें मानवीय मूल्यों की शिक्षा तो दें। हत्यारों के गिरोह में परिणित हो चुका नक्सलवाद अब जो रूप अख्तियार कर चुका है उससे किसी सदाशयता की आस पालना बेमानी ही है। सरकारों के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। हिंसा के आधार पर 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जा करने का सपना देखने वाले लोगों को उनकी भाषा में ही जवाब दिया जाना जरूरी है। सो इस मामले पर किसी किंतु पंरतु के बगैर भारत की आम जनता को भयमुक्त वातावरण में जीने की स्थितियां प्रदान करनी होंगी। हर नक्सली हमले के बाद हमारे नेता नक्सलियों की हरकत को कायराना बताते हैं जबकि भारतीय राज्य की बहादुरी के प्रमाण अभी तक नहीं देखे गए। जिस तरह के हालात है उसमें हमारे और राज्य के सामने विकल्प कहां हैं। इन हालात में या तो आप नक्सलवाद के साथ खड़े हों या उसके खिलाफ। यह बात बहुत तेजी से उठाने की जरूरत है कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें नदारद हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
हमारा भ्रष्ट तंत्र कैसे जीतेगा जंगः
सवाल यह है कि क्या कोई भ्रष्ट तंत्र नक्सलवादियों की संगठित और वैचारिक शक्ति का मुकाबला कर सकता है। विदेशों से हथियार और पैसे अगर जंगल के भीतर तक पहुंच रहे हैं, नक्सली हमारे ही लोगों से करोड़ों की लेवी वसूलकर अपने अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं तो हम इतने विवश क्यों हैं। क्या कारण है कि हमारे अपने लोग ही नक्सलवाद और माओवाद की विदेशी विचारधारा और विदेशी पैसों के बल पर अपना अभियान चला रहे हैं और हम उन्हें खामोशी से देख रहे हैं। महानगरों में बैठे तमाम विचारक एवं जनसंगठन किस मुंह से नक्सली हिंसा को खारिज कर रहे हैं जबकि वे स्वयं इस आग को फैलाने के जिम्मेदार हैं। शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा। ऐसे शब्दजालों और भ्रमजालों में फंसी हमारी सरकारें कैसे कोई निर्णायक कदम उठा पाएंगीं। जो लोग नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर मौतों पर गम कम करना चाहते हैं वो सावन के अंधे हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारी सरकारें नक्सलवाद का समाधान चाहती हैं? अगर चाहती हैं तो उन्हें किसने रोक रखा है? क्या इस सवाल का कोई जवाब भारतीय राज्य के पास है,,क्योंकि यह सवाल उन तमाम निर्दोष भारतीयों के परिवारों की ओर से भी है जो लाल आतंक की भेंट चढ़ गए हैं।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

आल इज नाट वेल


भारतधृणा से ही चलती है पाकिस्तानी राजनीति
आइए एक और तारीख मुकरर्र करें अगली बातचीत के लिए
-संजय द्विवेदी

कुछ चीजें कभी नहीं सुधरतीं, पाकिस्तान और उसकी राजनीति उनमें से एक है। वे फिर लौटकर वहीं आ जाते हैं जहां से उन्होंने शुरूआत की होती है। जाहिर तौर ऐसे पड़ोसी के साथ भारत का धैर्य ही निभा सकता है। बावजूद इसके यह बहुत विश्वास से कहा जा सकता है कि अगर पाकिस्तान जैसे पड़ोसी हों तो आपको दुश्मनों की जरूरत नहीं है। 1947 के बंटवारे के बाद ही पाकिस्तान एक ऐसी अंतहीन आग में जल रहा है जिसके कारण समझना मुश्किल है। भारतधृणा वहां की राजनीति का एक ऐसा तत्व बन गया है जिसके बिना वहां टिकना कठिन है।
अपनी सत्ता को बनाए और बचाए रखने के लिए पाक के राजनेता इसलिए भारत के खिलाफ राग अलापने से बाज नहीं आते। भारत-पाक के बीच विदेश मंत्री स्तर की वार्ता सद्भाव के वातावरण में हुयी, दो के बजाए वह छः घंटे चली। उसके बाद हमारे विदेश मंत्री दिल्ली वापस पहुंचे ही नहीं थे कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री के कुबोल शुरू हो गए। इससे पता लगता है कि पाकिस्तान में एक पक्ष ऐसा है जो भारत-पाक के सहज होते रिश्तों को देख नहीं सकता क्योंकि भारतविरोध पर ही उसकी राजनीति चलती है। गुरूवार को विदेशमंत्री स्तर की वार्ता में भी माहौल को गरमाने में पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कोई कसर नहीं छोड़ी। गृहसचिव पिल्लै के बयान को मुद्दा बनाकर वे जिस तरह संयुक्त प्रेस कांफ्रेस में बिफरे वह नादानी ही थी। कौन नहीं जानता कि भारत विरोधी अभियानों में आईएसआई की क्या भूमिका है। अगर गृहसचिव पिल्लै ने आईएसआई का नाम लिया तो इसके लिए उनके पास प्रमाण हैं।जाहिर तौर पर यह पाकिस्तान की बौखलाहट ही कही जाएगी। बावजूद इसके भारत के संयम का पाक हमेशा लाभ लेता आया है। आतंकवाद का गढ़ बन चुका पाक बुरे हालात से गुजर रहा है। उसके अंदरूनी हालात भयावह हैं। भारतीय विदेश मंत्री ने इस प्रेस कांफ्रेस में अपना धैर्य नहीं खोया, संयम बनाए रखा, नहीं तो वार्ता वहीं खत्म हो जाती। खिसियाए पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने भारतीय विदेश मंत्री कृष्णा के विदा होते ही नापाक बोल बोलने शुरू कर दिए। पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने जिस तरह के हल्के बयान दिए हैं, वह कहीं से भी मर्यादा के अनूकूल नहीं कहे जा सकते। भारतीय गृहसचिव की तुलना आतंकी हाफिज सईद जैसे व्यक्ति से करना एक ऐसा बचकानापन है जिसे कोई भी गंभीर देश बर्दाश्त नहीं कर सकता। पाकिस्तान जाने कैसे इस प्रकार के नेतृत्व के हाथ में विदेश मंत्रालय जैसे गंभीर विभाग की कमान देकर बैठा है। पाक विदेश मंत्री के उलजूलूल बयान बताते हैं कि पाकिस्तान, अमरीकी दबाव में वार्ता की मेज पर आया है जबकि उसकी बातचीत को सफल बनाने में कोई रूचि नहीं दिखती। इससे पाकिस्तानी राजनीति और कूटनीति दोनों की अपरिपक्वता का पता चलता है। इससे यह भी पता चलता है पाकिस्तान दरअसल भारत से सहजतापूर्ण संबंधों के पक्ष में नहीं है। उसे किसी भी तरह भारत विरोध और कश्मीर जैसे मसलों को उठाकर अपने आवाम के बीच अपनी नाक उंची रखनी है ताकि उसके खुद के देश में हो रही बर्बादी से ध्यान हटाया जा सके।
पाकिस्तान में करीब 32 आतंकवादी गुट सक्रिय हैं जिनमें लगभग सभी आईएसआई से जुड़े हैं। अमरीकी वित्तीय मदद का एक बड़ा हिस्सा आतंकी संगठनों तक पहुंच जाता है। ऐसे कठिन देश में सद्बाव की बात करना मुश्किल ही है। बावजूद इसके भारत के पास संवाद के अलावा चारा क्या है। संभव है कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों से पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ अपनी मौखिक जिम्मेदारी प्रकट कर रहा हो किंतु लगता नहीं कि वह वहां के हालात में कोई गंभीर पहल कर पाने की स्थिति में है। भारत इस पूरे संवाद से आशान्वित नजर आ रहा था क्योंकि उसकी नीति पड़ोसियों से बेहतर रिश्तों की रही है। पाकिस्तान से बार-बार छले जाने के बावजूद भारत की इस नीति में बदलाव नहीं हुआ है। जाहिर है भारत के प्रयास अपने पड़ोसियों के साथ सामान्य संबंध बनाने के हैं। लेकिन दुखद है कि पाकिस्तान ने भारत की इस सद्भावना हमेशा मजाक बनाया या धोखा दिया। आतंकवाद से ग्रस्त होने के बावजूद वह भारत के पक्ष को समझना नहीं चाहता जबकि आज भारत उसकी जमीन पर बन रहे षडयंत्रों का सबसे बड़ा शिकार है। पाकिस्तान तल्ख जुबां से दोस्ती की बात करता है जैसे दोस्ती अकेली भारत की गरज हो। हमेशा की तरह कश्मीर का राग अलाप कर वह क्या साबित करना चाहता है। कश्मीर के हालात की उसे चिंता है तो उसे यह भी सोचना चाहिए कि आज कश्मीर जिस अंतहीन पीड़ा को भोग रहा है उसमें सबसे बड़ा योगदान पाकिस्तान का ही है। कश्मीर के हालात को बिगाड़ने में पाकिस्तानी सरकार और आईएसआई की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। अब जबकि मुंबई हमलों में भी आईएसआई का नाम शामिल नजर आ रहा है तो पाकिस्तानी राजनीति की चूलें हिल गयी हैं और बौखलाए विदेश मंत्री, भारतीय गृहसचिव की तुलना एक आतंकी से कर रहे हैं। आजादी के बाद से ही कश्मीर के भाग्य में चैन नहीं है, जैसे-तैसे भारत विलय के बाद से आज तक वह लगातार खूनी संघर्षों का अखाड़ा बना हुआ है। सही अर्थो में भारत के अप्राकृतिक विभाजन का जितना कष्ट कश्मीर ने भोगा है, वह अन्य किसी राज्य के हिस्से नहीं आया। दिल्ली के राजनेताओं की नासमझियों ने हालात और बिगाड़े, आज हालात ये हैं कि कश्मीर के प्रमुख हिस्सों लद्दाख, जम्मू और घाटी तीनों में आतंकवाद की लहरें फैल चुकी हैं। इनमें सबसे बुरा हाल कश्मीर घाटी का है, जहां सिर्फ सेना को छोड़कर ‘भारत मां की जय’ बोलने वाला कोई नहीं है। आखिर इन हालात के लिए जिम्मेदार कौन है ? वे कौन से हालात हैं, वे कौन लोग हैं जो पाकिस्तान षड्यंत्रों का हस्तक बनकर इस्लामी आतंकवाद की लहर की सवारी कर रहे हैं। पाकिस्तान इस पूरे इलाके की तबाही का जिम्मेदार है और वही आज कश्मीरी नागरिकों की चिंता का नाटक कर विश्वमंच पर भारत की छवि को खराब करना चाहता है। जबकि उसे अपने खुद के देश के अंदर झांकना चाहिए कि वहां के अंदरूनी हालात क्या हैं।उसे अपने देश की तबाही से ज्यादा चिंता कश्मीर की है। शायद इसीलिए भारत जब आतंकवाद पर चर्चा करना चाहता है तो वह बगलें झांकने लगता है या फिर कश्मीर का सवाल उठा देता है। दोनों देशों के बीच बातचीत का एकमात्र बिंदु है वह है आतंकवाद। किंतु पाक इस सवाल पर गंभीर नहीं है। वह दाउद और हाफिज सईद जैसे भारत के दुश्मनों को शरण देगा और अमन की दुआ भी करेगा। इस ढोंग से क्या हासिल है। पाकिस्तान के छः दशकों का चरित्र धोखा देने का रहा है। यह तो भारत सरकार को ही तय करना है कि उससे बात करे या न करे किंतु संवाद से कुछ हासिल होगा यह सोचना बेमानी है। एक असफल राष्ट्र अपने पड़ोसी की समृद्धि और प्रगति को सह नहीं पाते। पाकिस्तान भी जलन, धृणा और ईष्र्या का शिकार है। वह भारत के साथ संवाद तो करेगा पर अमल अपनी उन्हीं नीतियों पर करेगा जिससे भारत कमजोर हो। दिखावे की बातचीत का उसका खेल जानकर भी हम समझने को तैयार नहीं हैं और धोखा खाना हमारी फितरत बन गयी है, तो आइए पाकिस्तान से एक और बातचीत के लिए दिन और तारीख मुकर्रर करते हैं।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

जब वीआईपी आते हैं


अमन के कत्ल का इल्जाम व्यवस्था के सिर पर
-संजय द्विवेदी
क्या हिंदुस्तान में वीआईपी मौत का सबब बन गए हैं। चंढीगढ़ से लेकर कानपुर तक फैली ये कहानियां बताती हैं कि किसी वीआईपी का शहर में आना आम आदमी के लिए कितना भारी पड़ता है। एक खास आदमी की सुरक्षा किस तरह आम आदमी की मौत बन जाती है इसका ताजा किस्सा कानपुर से आया है जहां पिछले दिनों प्रधानमंत्री के दौरे के नाते एक घायल बच्चा समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सका और उसकी मौत हो गयी। अब उसकी मां के पास अपने इकलौते बेटे को खोने के बाद क्या बचा है। इसी तरह गत वर्ष नवंबर माह में प्रधानमंत्री का चंड़ीगढ़ दौरा एक मरीज का मौत का कारण बन गया था। गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति को पुलिस वाले इसलिए नहीं जाने दिया क्योंकि मनमोहन सिंह का काफिला उधर से गुजरने वाला था। जब पीजीआई के पास यह मरीज पहुंचा तो प्रधानमंत्री के काफिले के गुजरने को लेकर आम ट्रैफिक के लिए रास्ता बंद कर दिया गया। सुमित गुर्दे का मरीज होने की वजह से हर महीने पीजीआई खून बदलवाने के लिए जाया करता था। पर जब उसके परिजन उसे लेकर आये तो वी. आई.पी. काफिले के गुजरने को लेकर चंडीगढ़ पीजीआई के पास इस मरीज की गाड़ी रोक दी गयी। परिजनों ने वहां खड़े पुलिस वालों से स्थिति से अवगत कराया लेकिन पुलिस वालों ने एक न सुनी और कहा कि जबतक प्रधानमंत्री का काफिला नहीं गुजर जाता तबतक किसी कीमत से नहीं जाने दिया जाएगा।
ये दो हादसे हमारे सुरक्षा तंत्र की लाचारगी और संवेदनहीनता दोनों का बयान करते हैं। जाहिर तौर पर हमारे देश में जिस तरह की दुखद घटनाएं हुई हैं और उसमें देश के दो प्रधानमंत्रियों को अपनी जान गंवानी पड़ी उसके बाद वीआईपी सुरक्षा का दबाव बढ़ना ही था। आज भी वीआईपी तमाम कारणों से अपने आपको असुरक्षित ही पाते हैं। सुरक्षा तंत्र के सामने वीआईपी दौरा एक बड़ा तनाव होता है। वे इसे लेकर खासे परेशान रहते हैं कि किसी तरह से वीआईपी जल्दी-जल्दी शहर छोड़कर चला जाए। प्रधानमंत्री की सुरक्षा पद विशेष के नाते संकट का एक बड़ा कारण बन गयी है। एसपीजी कवर प्राप्त जो राजनेता हैं उनकी सुरक्षा के इंतजाम इतने कड़े हैं कि पूरा शहर, उनके शहर में होने का दंड भोगता है। आधे-अधूरे और अचानक के दौरे तो और तबाह करते हैं। लेकिन घटनाओं के बाद सोचने का विषय यह है कि क्या वीआईपी की जान के सामने एक आम शहरी की जान की कोई कीमत नहीं है। ये हादसे सवाल कर रहे हैं कि आखिर इस देश में जनतंत्र के मायने क्या हैं कि एक लोकसेवक की रक्षा की कीमत पर आम लोगों की जान पर बन आए। ये तो कुछ ऐसे हादसे हैं जो प्रकाश में आ गए हैं, लेकिन तमाम ऐसे दर्द है जो मीडिया और लोगों की नजरों से बच जाते हैं। ऐसे समय में हमें सोचना होगा कि हम अपने सुरक्षा तंत्र को इतना संवेदनशील तो बनाएं ही कि वह आम आदमी की जान से न खेल सके। वीआईपी जिन शहरों में जाते हैं उनके लिए इस तरह के इंतजाम हों कि उन्हें खास रास्तों से ही गुजारा जाए और आम शहरी तंग न हो। इसके साथ ही वैकल्पिक मार्गों की व्यव्स्था भी की जाए जिन पर उस समय नाहक पुलिस या सुरक्षा कर्मियों का आतंक न हो। सामान्य पूछताछ और गाड़ियों की पड़ताल एक विषय है किंतु किसी अस्पताल जा रहे मरीज को रोका जाना कहां का न्याय है। वैसे भी हमारे देश के राजनेता और वीआईपी जनता के नजरों में अपनी कदर खो चुके हैं। राजनेताओं को लेकर हमारे देश की जनता में एक खास तरह का अवसाद विकसित हुआ है। लोग अपने नेताओं से कोई उम्मीद नहीं रखते और जनतंत्र को एक मजाक मानने लगे हैं। क्योंकि हमारे जनतंत्र ने बहुत जल्दी ही राजतंत्र की सारी खूबियों को आत्मसात कर लिया है। इससे राजनेताओं की जनता से बहुत दूरी भी बन चुकी है। इसे चाहकर भी अब हमारे राजनेता पाट नहीं सकते। वे उन्हीं बने-बनाए मानकों में कैद हो जाते हैं जैसा व्यवस्था चाहती है। वीआईपी सुरक्षा का विषय निश्चय ही देश के वर्तमान हालात में बहुत बड़ा है। कब कौन सी घटना हो जाए कहा नहीं जा सकता। देश की सरकारें जिस तरह आतंकवाद और अतिवादी ताकतों के सामने घुटनाटेक आचरण का परिचय दे रही हैं उससे किसी की जान तभी तक सुरक्षित है जब तक आतंकी चाहें। आज हालात यह हैं कि हमारी ट्रेनों को नक्सली सात घंटे तक रोक कर रख सकते हैं और हमारा राज्य इसे देखकर खामोश है। पिछले पांच सालों में नक्सली 11 हजार लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। मणिपुर महीनों अराजकता का शिकार बना रहता है और वहां नाकेबंदी चलती रहती है। कश्मीर के तमाम शहरों में हिंसक प्रदर्शन जारी हैं। कहने का मतलब यह है कि भारतीय राज्य को सुरक्षा के प्रसंगों पर जहां राज्य की दंड शक्ति का परिचय देना चाहिए वहां वह बेचारा साबित हो रहा है। उसके हाथ अतिवादियों पर कार्रवाई करते हुए कांपते हैं। किंतु आम जनता पर अपनी बहादुरी दिखाने से वह बाज नहीं आता। क्या सिर्फ इसलिए कि आम शहरी कानून को मानता और उस पर भरोसा करता है। इसलिए उसके जान की कोई कीमत नहीं है। एक वीआईपी के किसी शहर में आने से शहर को राहत मिलनी चाहिए या सजा यह एक बड़ा सवाल है। इसी तरह वीआईपी सुरक्षा के दुरूपयोग के भी किस्से आम हैं। आज हर नेता अपने को वीआईपी बनाने के लिए आमादा है। सबको अपनी सुरक्षा के ग्रेड बढ़वाने हैं क्योंकि इससे रूतबा बढ़ता है और यह एक स्टेट्स सिंबल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। हमें देखना होगा कि इस तरह की सुरक्षा हमारे जनतंत्र पर कितनी भारी पड़ रही है। ऐसे सुरक्षा घेरों में वीआईपी को आते-जाते समय जनता क्या प्रतिक्रिया करती है कभी उसे भी सुनिए तो पता चलेगा कि लोग इस पूरे तंत्र को किस नजर से देखते हैं। जनता के बीच काम करने वाला आम नेता जैसे ही पदधारी होता है उसे वीआईपी बनने का मनोरोग लग जाता है।यह एक ऐसी बीमारी है जो हमारे जनतंत्र को कमजोर और अविश्वासी बना रही है। किंतु चिंता का विषय ये छोटी बीमारियां नहीं हैं। हमें देखना होगा कि प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति की सुरक्षा के नाते यदि आम जनता आहत हो रही है तो उसका संदेश क्या जाता है। जाहिर तौर पर हमें अपने नेताओं के पद की गरिमा के अनुकूल ही सुरक्षा के इंतजाम करने चाहिए ताकि वे महफूज रहें और देश के प्रति अपना श्रेष्ठ योगदान सुनिश्चित कर सकें। किंतु हमें यह भी ध्यान देना होगा कि एक भी आम हिंदुस्तानी अगर उनकी सुरक्षा के चलते अपनी जान गंवा बैठता है तो यह अच्छी बात नहीं हैं। कानपुर की मां ऊषा शर्मा ने की पीड़ा को समझने की जरूरत है जिसने अपना इकलौता बेटा खो दिया है। जरूरत है हमारे तंत्र को मानवीय बनाने की ताकि फिर कोई मां अपना बेटा न खो दे। आठ साल के अमन की मौत ने हमारे सामने कई सवाल खड़े किए हैं और वे सवाल तब तक हल नहीं होंगें जबतक हमारी व्यवस्था में मानवीय पहलू शामिल नहीं किए जाते। जाहिर तौर पर हमारी सुरक्षा एजेंसियों को भी यह सबक सीखने की जरूरत है कि कई बार मानवीय दृष्टि से भी कई फैसले किए जाते हैं और अगर वह दृष्टि हमारे सुरक्षा अमले के पास होती तो आज अमन के कत्ल का इल्जाम इस तंत्र के सिर पर न होता।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

बाढ़ से कराहती मानवता


प्रलंयकारी बाढ़ के कारणों के स्थाई समाधान खोजने की जरूरत

-संजय द्विवेदी
कोई संकट अगर हर साल आता है तो क्या उसके स्थाई समाधान नहीं हो सकते। अगर हो सकते हैं तो हमें किसने रोक रखा है। उप्र, बिहार से लेकर देश के तमाम इलाके कभी बाढ़ और कभी सूखे की चपेट में रहते हैं। आजादी के छः दशक से हम इन विनाशलीलाओं को देख रहे हैं और इस बार हरियाणा- पंजाब के जो हालात हैं वे सोचने के लिए विवश करते हैं।हरियाणा इस बार प्रलयंकारी बाढ़ का शिकार बना हुआ है। दर्जनो गांव जलमग्न हुए और फसलों को खासा नुकसान पहुंचा है, पानी बस्तियों में घुसने जनजीवन भी बदहाल हुआ।ऐसे में बाढ़ की हर साल आने वाली तबाही किस कदर किसानों की कमर तोड़ देती है यह किसी से छिपा नहीं है । ऐसे में इस त्रासदी से लड़कर क्षेत्र के लोग कितने दिनों में कमर सीधी कर पाएंगे, कहा नहीं जा सकता।

उप्र, बिहार, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्य हर साल बाढ़ या सूखे का शिकार होते हैं। अब सवाल यह उठता है कि हर साल आने वाली बाढ़ से निपटने के लिए सरकारी प्रयास क्या इतने अगंभीर और वायवीय थे कि हालात इतने बदतर हो जाते हैं । आजादी के बाद बांधों ओर नहरों का तंत्र खडा करके हमने जल प्रबंधन की जो तैयारियां की क्या वे बेमानी हैं ? बाढ़ों का सालाना सिलसिला और उसके बाद चलने वाले राहत के कामों का सिलसिला आखिर कब तक जारी रहेगा ? इन सबके बीच जन-धन हानि को छोड़ें तो भी प्रशासनिक स्तर पर कितना बड़ा भ्रष्टाचार फलता-फूलता है यह किसी से छिपा नहीं हैं । चेतावनियों को अनदेखा करने, समस्याओं को टालने, उनके तात्कालिक समाधान खोजने की जो अद्भुत प्रशासनिक शैली हमने 60 सालों से विकसित की है निश्चय ही उससे ऐसी स्थाई समस्याओं का निदान संभव नहीं है । इतना समय और संसाधन खर्च करने के बावजूद हम अपने गांवों, खेतों, लोगों और मवेशियों को कब तक प्राकृतिक विनाशलीलाओं का हिस्सा बनते जाने देंगे ? निश्चय ही नदियों का काम उफनना है, वे उफनेंगी पर उफन कर वे हजारों गांव बहा ले जाएं तो हमारे समूचे तंत्र का क्या मतलब ? आजादी के बाद इन विनाशलीलाओं पर नियंत्रण के लिए हमने बड़े बांधों, जल परियोजनाओं की शुरुआत की नहरें बनाकर गांवों तक पानी पहुंचाने के इंतजाम किए। इस जल प्रबंधन के पीछे तबाही से बचने और गांवों को खुशहाल बनाने की नीयत संयुक्त थी। हमारा सपना था कि ये बड़े-बड़े बांध बाढ़ की त्रासदी को झेल जाएंगे और लोगों पर उसका असर नहीं पड़ेगा, लेकिन विकास के प्रतीक ये बांध बहुत कुछ नहीं कर पाए। नदियां नए रास्ते तलाशती गई। बाढ़ कम होने के बजाए ज्यादा आने लगी। इन बाढ़ों को नजीर मानें तो यह भीषणतम तबाही पैदा करतीं हैं। बिहार में पिछले सालों की बाढ़ ऐसी मानवीय त्रासदी थी जिसके उदाहरण खोजने पर भी न मिलेंगें।ऐसे में विकास का चक्र आगे जाने के बजाए पीछे खिसकता दिखता है। बाढ़ रोकने में बड़े बांघ, तटबंध विफल हो रहे हैं यह साफ दिखता है। फिर संभव है देश के रक्त में घुस आए भ्रष्टाचार के अंश भी अपना खेल दिखाते हों।
हम बाधों और नहरों के प्रति उचित प्रबंधन का दिखावा तो करते हैं, पर उसे कार्यरूप में न बदल पाते हों। इस सबके बावजूद यह बात तो साफ तौर पर कही जा सकती है कि जलप्रबंधन में हमारी कुशलता नाकाफी साबित हुई है। ग्रामीण विकास के नाम पर हम आज भी सड़कें बनाने की बात करते हैं। सिंचाई परियोजनाओं को शुरू करने और उन्हें व्यवस्थित करने की नहीं।ऐसे समय में बाढ़ के नाते हर साल लोगों की जिंदगी में तबाही लाने, अरबों रुपए के राहत के काम करके हम फिर अगली बाढ़ के इंतजार में चुप बैठ जाते हैं। इसी काहिल जल प्रबंधन और अकुलशलता ने हिंदी भाषी राज्यों. को आज के हालात में पहुंचाया है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री इन्हीं आपदाओं में तेजी से बहती है। जनता भले बेहाल हो, राहत के नाम पर नौकरशाही को ‘लूट’ के अवसर तो मिल ही जाते हैं। अगर जान-माल की ऐसी त्रासद स्थितियों की पुनरावृत्ति हम रोकना चाहते हैं तो हमें बनावटी राहत के मिशनों, हवाई सर्वेक्षणों से ऊपर उठकर एक नई शुरुआत करनी होगी, उन कारणों तथा नदियों की पड़ताल करनी होगी जो इस लीला की विभीषिका में मददगार हैं। तबाही के माध्यमों की शिनाख्त और उनके अनुकूल जल प्रबंधन के रास्तों की तलाश की गई, तो संभव है कि ये स्थितियां इतनी बेलगाम न हों । नदियों को जोड़ने की जो शुरूआत राजग सरकार ने की थी उससे इस संकट के समाधान निकल सकते थे किंतु इस योजना पर आगे बढ़कर काम शुरू नहीं हो सका। इसके चलते हम अपनी नदियों को न तो बचा पा रहे हैं न ही उनका लाभ ले पा रहे हैं। वर्षा जल के संचयन से लाभ उठाने के बजाए हम उसकी तबाही के फलितार्थ ही पा रहे हैं। देश में साठ सालों में हमले जलप्रबंधन की कोई विधि नहीं विकसित की। साथ ही आपदा प्रबंधन के भी हमारे इंतजाम सिर्फ भ्रष्टाचार को वैध बनाने के तरीके हैं। हम अपने लोगों को इन आपदाओं के असर से बचा नहीं पाते और उन्हें ज्यादा बदहाल बना देते हैं। देश के आपदा प्रबंधन तंत्र की विफलताएं हमेशा ऐसे प्रसंगों पर उजागर होती हैं। लोग तबाह होते रहते हैं। आज भी यह सोचने का समय है कि हम इन आपदाओं के निर्णायक समाधान की ओर क्यों नहीं बढना चाहते। क्यों हम चाहते हैं कि हम साल दर साल बाढ़ या सूखे या इंतजार करें। मानसून पर निर्भर हमारी ज्यादातर खेती को बचाने के लिए हम जलसंरक्षण के माकूल इंतजाम क्यों नहीं करते। क्या कारण है कि विकास का हमारा पश्चिमी माडल हम पर भारी पड़ रहा है किंतु हम नई और स्वदेशी विधियों के साथ काम करने को तैयार नहीं हैं। जलप्रबंधन में आज भी हमारे पास राजेंद्र सिंह जैसी प्रतिभाएं हैं जिनके पास नदियों को जिंदा करने के अनुभव है उनके अनुभवों से लाभ लेकर हमें एक समन्वित योजना बनाकर जल के प्रबंधन के स्वदेशी इंतजामों की ओर बढ़ना होगा। बड़े बांध और नहरों का फलित हम देख चुके हैं, तो इन प्रयोगों में हर्ज क्या है। उ. प्र. ,बिहार के बाद अब हरियाणा और पंजाब की त्रासकारी बाढ़ के संदेशों को पढ़कर यदि हम किसी बेहतर दिशा में बढ़ सकें तो शायद आगे हमें ऐसी विभीषिकाओं पर शर्मिन्दा न होने पड़े।

माओवादी आतंकवाद सबसे बड़ा खतराःसंजय


भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा पर व्याख्यान
पटना। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी का कहना है कि माओवादी आतंकवाद से अब निर्णायक जंग लड़ने की जरूरत है क्योंकि यह देश के लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ा संकट है। देश के सबसे गरीब 165 जिलों में काबिज माओवादी प्रतिवर्ष दो हजार करोड़ की लेवी वसूलकर हमारे गणतंत्र को नष्ट करने की साजिशों में लगे है। वे पटना (बिहार) स्थित बिहार उद्योग परिसंघ के सभागार में विश्व संवाद केंद्र द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला में “भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा” विषय पर मुख्यवक्ता के रूप में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।
श्री द्विवेदी ने कहा कि आज हम विदेशी विचारों और विदेशी मदद से देश को तोड़ने के लिए चलाए जा रहे एक घोषित युद्ध के सामने हैं। जो लोग 2050 तक भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं हम किस तरह उनके प्रति सहानुभूति रख सकते हैं। उन्होंने कहा कि क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। श्री द्विवेदी ने सवाल किया कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें की जा रही हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
उन्होंने भारतीय बुद्धिजीवियों की भूमिका पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा।
कार्यक्रम की अध्यक्षता बिहार विधान परिषद् के सभापति ताराकांत झा ने की। इस अवसर पर श्री झा ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुरसा की तरह मुंह फैलाए हुए है। देश का विकास इनके कारण अवरूद्ध हो गया है। श्री झा ने कहा कि साम्यवादी और माओवादी दोनों का गोत्र एक है। बिहार की सीमा नेपाल से सटे होने के कारण यहां हमेशा नक्सली घटना की आशंका बनी रहती है।
इस अवसर बिहार के वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘आज ’ के पूर्व संपादक पारसनाथ सिंह को देशरत्न राजेंद्र प्रसाद पत्रकारिता शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा सुश्री शालिनी सिंह (ईटीवी,पटना), अरूण अभि (दैनिक हिंदुस्तान) को भी सम्मानित किया गया। आयोजन में ‘बिहार में पत्रकारिता’ पर केंद्रित पुस्तिका का विमोचन भी हुआ। आयोजन में केंद्र के अध्यक्ष प्रकाश नारायण सिंह, डा. अर्जुन तिवारी, डा.शत्रुध्न प्रसाद, रामदेव प्रसाद, संजीव सिंह, विमल कुमार सहित अनेक गणमान्य नागरिक मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन प्रख्यात लोकगायिका श्रीमती शांति जैन ने किया।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कालजयी साहित्यकार मुक्तिबोध की पत्नी का निधन


रायपुर।
प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का निधन गुरुवार रात हो गया। उनकी उम्र 88 वर्ष थी। वे लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं। शुक्रवार सुबह 11 बजे उनका अंतिम संस्कार रायपुर के देवेंद्र नगर श्मशानघाट में किया गया। वे रमेश, दिवाकर, गिरीश व दिलीप मुक्तिबोध की माता थीं। उन्हें मुखाग्नि उनके कनिष्ठ पुत्र गिरीश मुक्तिबोध ने दी।कालजयी साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की जीवन संगिनी के तौर पर संघर्ष के दिनों उनका साए की तरह हर घड़ी उन्होंने साथ निभाया। इस बात का जिक्र व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई, नेमीचंद्र जैन, अशोक वाजपेयी जैसे दिग्गज साहित्यकारों ने अपने संस्मरणों में प्रमुखता से किया है। पति के निधन के बाद बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ उनको मुकाम दिलाने में अहम भूमिका निभाई। वे मुक्तिबोध की स्मृति में होने वाले केवल चुने हुए कार्यक्रमों में ही हिस्सा ले पाती थीं।

शांता मुक्तिबोध का निधन

रायपुर. 9 जुलाई 2010

सुप्रसिद्ध साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का गुरुवार की रात रायपुर में निधन हो गया. 88 वर्ष की शांता मुक्तिबोध लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं.
1939 में गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ प्रेम विवाह करने वाली शांता जी ने मुक्तिबोध जी के हर सुख-दुख में साथ निभाया. गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन के बाद उन्होंने अपने बच्चों का लालन-पालन और बेहतर शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शांता जी के बेटे दिवाकर मुक्तिबोध देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं, वहीं गिरीश मुक्तिबोध भी पत्रकारिता से संबद्ध हैं. रमेश मुक्तिबोध और दिलीप मुक्तिबोध ने गजानन माधव मुक्तिबोध की अप्रकाशित कृतियों का संपादन किया है।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

इस कठिन समय में उनके बिना


राष्ट्रवादी पत्रकारिता के प्रमुख हस्ताक्षर थे रामशंकर अग्निहोत्री
-संजय द्विवेदी

वे राममंदिर के आंदोलन के व्यापक असर के दिन थे। 1990 के वे दिन आज भी सिरहन से भर देते हैं। तभी मैंने पहली बार वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री को विश्व संवाद केंद्र, लखनऊ के पार्क रोड स्थित दफ्तर में देखा था। आयु पर उनका उत्साह भारी था। उनके जीवन के लक्ष्य तय थे। विचारधारा उनकी प्रेरणा थी और कर्म के प्रति समर्पण उनका संबल। वे जानते थे वे किस लिए बने हैं और वे यह भी जानते थे कि वे क्या कर सकते हैं। तब से लेकर रायपुर, भोपाल और दिल्ली की हर मुलाकात में उन्होंने यह साबित किया कि वे न तो थके हैं न ही हारे हैं।
बुधवार सुबह जब रायपुर से डा. शाहिद अली का फोन आया कि अग्निहोत्री जी नहीं रहे तो सहसा इस सूचना पर भरोसा नहीं हुआ। क्योंकि उनकी गति और त्वरा कहीं से कम नहीं हुयी थी, इस विपरीत समय में भी और अपनी बढ़ती आयु के चलते भी। काम करने के अंदाज और तेजी से कहीं भी जा पहुंचने में वे हम नौजवानो से होड़ लेते थे। हम सोचते थे यह आदमी ऐसा क्यूं है। लेकिन पिछले साल जब मध्यप्रदेश की सरकार ने उन्हें अपने प्रतिष्ठित माणिकचंद्र वाजपेयी सम्मान से अलंकृत किया और उस मौके पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की मौजूदगी में पूर्व सरसंघचालक के.सी.सुदर्शन ने जो कुछ उनके बारे में कहा उसने कई लोगों के भ्रम दूर कर दिए। श्री सुदर्शन ने स्वीकार किया कि वे श्री अग्निहोत्री के ही बनाए स्वयंसेवक हैं और उनके एक वाक्य – “संघ तुमसे सब करवा लेगा” ने मुझे प्रचारक निकलने की प्रेरणा दी। यह एक ऐसा स्वीकार था जो रामशंकर अग्निहोत्री की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता को जताने के लिए पर्याप्त था। यह बात यह भी साबित करती है कि अगर वे चाहते तो कोई भी उंचाई पा सकते थे किंतु उन्होंने जो दायित्व उन्हें मिला उसे लिया और प्रामणिकता से उसे पूरा किया। आज की राजनीति में पदों की दौड़ में लगे लोग उनसे प्रेरणा ले सकते हैं।
4 अप्रैल, 1926 को मप्र के सिवनी मालवा में जन्में श्री अग्निहोत्री की जिंदगी एक ऐसे पत्रकार का सफर है जिसने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया। वे अपनी युवा अवस्था में जिस विचार से जुड़े उसके लिए पूरी जिंदगी होम कर दी। विचारधारा और लक्ष्यनिष्ठ जीवन के वे ऐसे उदाहरण थे जिस पर पीढ़ियां गर्व कर सकती हैं। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म, तरूण भारत, हिंदुस्तान समाचार, आकाशवाणी, युगवार्ता वे जहां भी रहे राष्ट्रवाद की अलख जगाते रहे। उनका खुद का कुछ नहीं था। देश और उसकी बेहतरी के विचार उनकी प्रेरणा थे। राजनीति के शिखर पुरूषों की निकटता के बावजूद वे कभी विचलित होते नहीं दिखे। युवाओं से संवाद की उनकी शैली अद्बुत थी। वे जानते थे कि यही लोग देश का भविष्य रचेंगें। रायपुर में हाल के दिनों में उनसे अनेक स्थानों पर, तो कभी डा. राजेंद्र दुबे के आवास पर जब भी मुलाकात हुयी उनमें वही उत्साह और अपने लिए प्यार पाया। वे सदैव मेरे लिखे हुए पर अपनी सार्थक टिप्पणी करते। अपने विचार परिवार के प्रति उनका मोह बहुत प्रकट था। संपर्कों के मामले में उनका कोई सानी न था। पहली मुलाकात में ही आपका परिचय और फोन नंबर सब कुछ उनके पास होता था और वे वक्त पर आपको तलाश भी लेते। मैंने पाया कि उनमें बढ़ी आयु के बावजूद चीजों को जानने की ललक कम नहीं हुयी थी वे मुझे कभी विश्राम में दिखे ही नहीं। यह ऐसा व्यक्तित्व था जिसकी सक्रियता ही उसकी पहचान थी। हर आयोजन में वे आते और खामोशी से शामिल हो जाते। उन्हें इस बात की कभी परवाह नहीं थी उन्हें नोटिस भी किया जा रहा है या नहीं। मान-अपमान की परवाह उन्होंने कभी नहीं की, इस तरह के मिथ्या दंभ से दूर वे अपने बहुत कम आयु के हम जैसे नौजवानों के बीच भी खुद को सहज पाते तो सत्ता और शासन के शिखरों पर बैठे लोगों के बीच भी। जो व्यक्ति पांचजन्य का प्रबंध संपादक, राष्ट्रधर्म का संपादक, लगभग एक दशक नेपाल में एक हिंदी समाचार एजेंसी का संवाददाता रहा हो, हिंदुस्तान समाचार का प्रधानसंपादक और अध्यक्ष जैसे पदों पर रहा हो, जिसे भारतीय जनता पार्टी ही नहीं देश की राजनीति के प्रथम पंक्ति के सभी राजनेता प्रायः नाम से पुकारते हों, जिसने दर्जन भर देशों की यात्राएं की हों, साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में जिसकी एक बड़ी जगह हो। माधवराव सप्रे संग्रहालय,भोपाल से लेकर इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती जैसे संस्थाएं जिसे सम्मानित कर चुकी हों ऐसे व्यक्ति का इस कठिन समय में चला जाना वास्तव में एक बड़ा शून्य रच रहा है। वास्तव में वे एक ऐसे समय में हमसे विदा हुए हैं जब पत्रकारिता पर पेड न्यूज और राजनीति पर जनविरोधी आचरणों के आरोप हैं। देश अनेक मोर्चों पर कठिन लड़ाइयां लड़ रहा है चाहे वह महंगाई, आतंकवाद और नक्सलवाद की शक्ल में ही क्यों न हों। आज हम यह भी कह सकते हैं कि रामशंकर अग्निहोत्री अपने हिस्से का काम कर चुके हैं, पर क्या हमारी पीढ़ी में उनका उत्तराधिकार, उनकी शर्तों पर लेने का साहस है ? शायद नहीं, क्योंकि ये जगह सिर्फ उनकी है और इस विपरीत समय में सारे युद्ध हमें ही लड़ने हैं उनके बिना ही।