शनिवार, 10 जुलाई 2010
बाढ़ से कराहती मानवता
प्रलंयकारी बाढ़ के कारणों के स्थाई समाधान खोजने की जरूरत
-संजय द्विवेदी
कोई संकट अगर हर साल आता है तो क्या उसके स्थाई समाधान नहीं हो सकते। अगर हो सकते हैं तो हमें किसने रोक रखा है। उप्र, बिहार से लेकर देश के तमाम इलाके कभी बाढ़ और कभी सूखे की चपेट में रहते हैं। आजादी के छः दशक से हम इन विनाशलीलाओं को देख रहे हैं और इस बार हरियाणा- पंजाब के जो हालात हैं वे सोचने के लिए विवश करते हैं।हरियाणा इस बार प्रलयंकारी बाढ़ का शिकार बना हुआ है। दर्जनो गांव जलमग्न हुए और फसलों को खासा नुकसान पहुंचा है, पानी बस्तियों में घुसने जनजीवन भी बदहाल हुआ।ऐसे में बाढ़ की हर साल आने वाली तबाही किस कदर किसानों की कमर तोड़ देती है यह किसी से छिपा नहीं है । ऐसे में इस त्रासदी से लड़कर क्षेत्र के लोग कितने दिनों में कमर सीधी कर पाएंगे, कहा नहीं जा सकता।
उप्र, बिहार, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्य हर साल बाढ़ या सूखे का शिकार होते हैं। अब सवाल यह उठता है कि हर साल आने वाली बाढ़ से निपटने के लिए सरकारी प्रयास क्या इतने अगंभीर और वायवीय थे कि हालात इतने बदतर हो जाते हैं । आजादी के बाद बांधों ओर नहरों का तंत्र खडा करके हमने जल प्रबंधन की जो तैयारियां की क्या वे बेमानी हैं ? बाढ़ों का सालाना सिलसिला और उसके बाद चलने वाले राहत के कामों का सिलसिला आखिर कब तक जारी रहेगा ? इन सबके बीच जन-धन हानि को छोड़ें तो भी प्रशासनिक स्तर पर कितना बड़ा भ्रष्टाचार फलता-फूलता है यह किसी से छिपा नहीं हैं । चेतावनियों को अनदेखा करने, समस्याओं को टालने, उनके तात्कालिक समाधान खोजने की जो अद्भुत प्रशासनिक शैली हमने 60 सालों से विकसित की है निश्चय ही उससे ऐसी स्थाई समस्याओं का निदान संभव नहीं है । इतना समय और संसाधन खर्च करने के बावजूद हम अपने गांवों, खेतों, लोगों और मवेशियों को कब तक प्राकृतिक विनाशलीलाओं का हिस्सा बनते जाने देंगे ? निश्चय ही नदियों का काम उफनना है, वे उफनेंगी पर उफन कर वे हजारों गांव बहा ले जाएं तो हमारे समूचे तंत्र का क्या मतलब ? आजादी के बाद इन विनाशलीलाओं पर नियंत्रण के लिए हमने बड़े बांधों, जल परियोजनाओं की शुरुआत की नहरें बनाकर गांवों तक पानी पहुंचाने के इंतजाम किए। इस जल प्रबंधन के पीछे तबाही से बचने और गांवों को खुशहाल बनाने की नीयत संयुक्त थी। हमारा सपना था कि ये बड़े-बड़े बांध बाढ़ की त्रासदी को झेल जाएंगे और लोगों पर उसका असर नहीं पड़ेगा, लेकिन विकास के प्रतीक ये बांध बहुत कुछ नहीं कर पाए। नदियां नए रास्ते तलाशती गई। बाढ़ कम होने के बजाए ज्यादा आने लगी। इन बाढ़ों को नजीर मानें तो यह भीषणतम तबाही पैदा करतीं हैं। बिहार में पिछले सालों की बाढ़ ऐसी मानवीय त्रासदी थी जिसके उदाहरण खोजने पर भी न मिलेंगें।ऐसे में विकास का चक्र आगे जाने के बजाए पीछे खिसकता दिखता है। बाढ़ रोकने में बड़े बांघ, तटबंध विफल हो रहे हैं यह साफ दिखता है। फिर संभव है देश के रक्त में घुस आए भ्रष्टाचार के अंश भी अपना खेल दिखाते हों।
हम बाधों और नहरों के प्रति उचित प्रबंधन का दिखावा तो करते हैं, पर उसे कार्यरूप में न बदल पाते हों। इस सबके बावजूद यह बात तो साफ तौर पर कही जा सकती है कि जलप्रबंधन में हमारी कुशलता नाकाफी साबित हुई है। ग्रामीण विकास के नाम पर हम आज भी सड़कें बनाने की बात करते हैं। सिंचाई परियोजनाओं को शुरू करने और उन्हें व्यवस्थित करने की नहीं।ऐसे समय में बाढ़ के नाते हर साल लोगों की जिंदगी में तबाही लाने, अरबों रुपए के राहत के काम करके हम फिर अगली बाढ़ के इंतजार में चुप बैठ जाते हैं। इसी काहिल जल प्रबंधन और अकुलशलता ने हिंदी भाषी राज्यों. को आज के हालात में पहुंचाया है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री इन्हीं आपदाओं में तेजी से बहती है। जनता भले बेहाल हो, राहत के नाम पर नौकरशाही को ‘लूट’ के अवसर तो मिल ही जाते हैं। अगर जान-माल की ऐसी त्रासद स्थितियों की पुनरावृत्ति हम रोकना चाहते हैं तो हमें बनावटी राहत के मिशनों, हवाई सर्वेक्षणों से ऊपर उठकर एक नई शुरुआत करनी होगी, उन कारणों तथा नदियों की पड़ताल करनी होगी जो इस लीला की विभीषिका में मददगार हैं। तबाही के माध्यमों की शिनाख्त और उनके अनुकूल जल प्रबंधन के रास्तों की तलाश की गई, तो संभव है कि ये स्थितियां इतनी बेलगाम न हों । नदियों को जोड़ने की जो शुरूआत राजग सरकार ने की थी उससे इस संकट के समाधान निकल सकते थे किंतु इस योजना पर आगे बढ़कर काम शुरू नहीं हो सका। इसके चलते हम अपनी नदियों को न तो बचा पा रहे हैं न ही उनका लाभ ले पा रहे हैं। वर्षा जल के संचयन से लाभ उठाने के बजाए हम उसकी तबाही के फलितार्थ ही पा रहे हैं। देश में साठ सालों में हमले जलप्रबंधन की कोई विधि नहीं विकसित की। साथ ही आपदा प्रबंधन के भी हमारे इंतजाम सिर्फ भ्रष्टाचार को वैध बनाने के तरीके हैं। हम अपने लोगों को इन आपदाओं के असर से बचा नहीं पाते और उन्हें ज्यादा बदहाल बना देते हैं। देश के आपदा प्रबंधन तंत्र की विफलताएं हमेशा ऐसे प्रसंगों पर उजागर होती हैं। लोग तबाह होते रहते हैं। आज भी यह सोचने का समय है कि हम इन आपदाओं के निर्णायक समाधान की ओर क्यों नहीं बढना चाहते। क्यों हम चाहते हैं कि हम साल दर साल बाढ़ या सूखे या इंतजार करें। मानसून पर निर्भर हमारी ज्यादातर खेती को बचाने के लिए हम जलसंरक्षण के माकूल इंतजाम क्यों नहीं करते। क्या कारण है कि विकास का हमारा पश्चिमी माडल हम पर भारी पड़ रहा है किंतु हम नई और स्वदेशी विधियों के साथ काम करने को तैयार नहीं हैं। जलप्रबंधन में आज भी हमारे पास राजेंद्र सिंह जैसी प्रतिभाएं हैं जिनके पास नदियों को जिंदा करने के अनुभव है उनके अनुभवों से लाभ लेकर हमें एक समन्वित योजना बनाकर जल के प्रबंधन के स्वदेशी इंतजामों की ओर बढ़ना होगा। बड़े बांध और नहरों का फलित हम देख चुके हैं, तो इन प्रयोगों में हर्ज क्या है। उ. प्र. ,बिहार के बाद अब हरियाणा और पंजाब की त्रासकारी बाढ़ के संदेशों को पढ़कर यदि हम किसी बेहतर दिशा में बढ़ सकें तो शायद आगे हमें ऐसी विभीषिकाओं पर शर्मिन्दा न होने पड़े।
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संजय द्विवेदी,
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प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
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abhi to sirf upasthiti darj kara raha hu.
जवाब देंहटाएंसंजय जी, क्या नदियों को जोड़ने से इस समस्या का समाधान हो सकता है...
जवाब देंहटाएंपूर्ववर्ती राजग सरकार ने इसके लिए योजना बनाई थी। यह सच है कि उसका क्रियान्वयन नहीं हो पाया। मुझे लगता है कि ऐसा करने से शायद बाढ़ की विभीषिका से मुक्ति मिल सकती है। इसके अलावा कई क्षेत्रों में बाढ़ और कई जगह सूखे के हालात से भी छुटकारा मिल जाएगा। केन्द्र सरकार को इसे अमलीजामा पहनाना चाहिए।