गुरुवार, 15 जुलाई 2010

जब वीआईपी आते हैं


अमन के कत्ल का इल्जाम व्यवस्था के सिर पर
-संजय द्विवेदी
क्या हिंदुस्तान में वीआईपी मौत का सबब बन गए हैं। चंढीगढ़ से लेकर कानपुर तक फैली ये कहानियां बताती हैं कि किसी वीआईपी का शहर में आना आम आदमी के लिए कितना भारी पड़ता है। एक खास आदमी की सुरक्षा किस तरह आम आदमी की मौत बन जाती है इसका ताजा किस्सा कानपुर से आया है जहां पिछले दिनों प्रधानमंत्री के दौरे के नाते एक घायल बच्चा समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सका और उसकी मौत हो गयी। अब उसकी मां के पास अपने इकलौते बेटे को खोने के बाद क्या बचा है। इसी तरह गत वर्ष नवंबर माह में प्रधानमंत्री का चंड़ीगढ़ दौरा एक मरीज का मौत का कारण बन गया था। गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति को पुलिस वाले इसलिए नहीं जाने दिया क्योंकि मनमोहन सिंह का काफिला उधर से गुजरने वाला था। जब पीजीआई के पास यह मरीज पहुंचा तो प्रधानमंत्री के काफिले के गुजरने को लेकर आम ट्रैफिक के लिए रास्ता बंद कर दिया गया। सुमित गुर्दे का मरीज होने की वजह से हर महीने पीजीआई खून बदलवाने के लिए जाया करता था। पर जब उसके परिजन उसे लेकर आये तो वी. आई.पी. काफिले के गुजरने को लेकर चंडीगढ़ पीजीआई के पास इस मरीज की गाड़ी रोक दी गयी। परिजनों ने वहां खड़े पुलिस वालों से स्थिति से अवगत कराया लेकिन पुलिस वालों ने एक न सुनी और कहा कि जबतक प्रधानमंत्री का काफिला नहीं गुजर जाता तबतक किसी कीमत से नहीं जाने दिया जाएगा।
ये दो हादसे हमारे सुरक्षा तंत्र की लाचारगी और संवेदनहीनता दोनों का बयान करते हैं। जाहिर तौर पर हमारे देश में जिस तरह की दुखद घटनाएं हुई हैं और उसमें देश के दो प्रधानमंत्रियों को अपनी जान गंवानी पड़ी उसके बाद वीआईपी सुरक्षा का दबाव बढ़ना ही था। आज भी वीआईपी तमाम कारणों से अपने आपको असुरक्षित ही पाते हैं। सुरक्षा तंत्र के सामने वीआईपी दौरा एक बड़ा तनाव होता है। वे इसे लेकर खासे परेशान रहते हैं कि किसी तरह से वीआईपी जल्दी-जल्दी शहर छोड़कर चला जाए। प्रधानमंत्री की सुरक्षा पद विशेष के नाते संकट का एक बड़ा कारण बन गयी है। एसपीजी कवर प्राप्त जो राजनेता हैं उनकी सुरक्षा के इंतजाम इतने कड़े हैं कि पूरा शहर, उनके शहर में होने का दंड भोगता है। आधे-अधूरे और अचानक के दौरे तो और तबाह करते हैं। लेकिन घटनाओं के बाद सोचने का विषय यह है कि क्या वीआईपी की जान के सामने एक आम शहरी की जान की कोई कीमत नहीं है। ये हादसे सवाल कर रहे हैं कि आखिर इस देश में जनतंत्र के मायने क्या हैं कि एक लोकसेवक की रक्षा की कीमत पर आम लोगों की जान पर बन आए। ये तो कुछ ऐसे हादसे हैं जो प्रकाश में आ गए हैं, लेकिन तमाम ऐसे दर्द है जो मीडिया और लोगों की नजरों से बच जाते हैं। ऐसे समय में हमें सोचना होगा कि हम अपने सुरक्षा तंत्र को इतना संवेदनशील तो बनाएं ही कि वह आम आदमी की जान से न खेल सके। वीआईपी जिन शहरों में जाते हैं उनके लिए इस तरह के इंतजाम हों कि उन्हें खास रास्तों से ही गुजारा जाए और आम शहरी तंग न हो। इसके साथ ही वैकल्पिक मार्गों की व्यव्स्था भी की जाए जिन पर उस समय नाहक पुलिस या सुरक्षा कर्मियों का आतंक न हो। सामान्य पूछताछ और गाड़ियों की पड़ताल एक विषय है किंतु किसी अस्पताल जा रहे मरीज को रोका जाना कहां का न्याय है। वैसे भी हमारे देश के राजनेता और वीआईपी जनता के नजरों में अपनी कदर खो चुके हैं। राजनेताओं को लेकर हमारे देश की जनता में एक खास तरह का अवसाद विकसित हुआ है। लोग अपने नेताओं से कोई उम्मीद नहीं रखते और जनतंत्र को एक मजाक मानने लगे हैं। क्योंकि हमारे जनतंत्र ने बहुत जल्दी ही राजतंत्र की सारी खूबियों को आत्मसात कर लिया है। इससे राजनेताओं की जनता से बहुत दूरी भी बन चुकी है। इसे चाहकर भी अब हमारे राजनेता पाट नहीं सकते। वे उन्हीं बने-बनाए मानकों में कैद हो जाते हैं जैसा व्यवस्था चाहती है। वीआईपी सुरक्षा का विषय निश्चय ही देश के वर्तमान हालात में बहुत बड़ा है। कब कौन सी घटना हो जाए कहा नहीं जा सकता। देश की सरकारें जिस तरह आतंकवाद और अतिवादी ताकतों के सामने घुटनाटेक आचरण का परिचय दे रही हैं उससे किसी की जान तभी तक सुरक्षित है जब तक आतंकी चाहें। आज हालात यह हैं कि हमारी ट्रेनों को नक्सली सात घंटे तक रोक कर रख सकते हैं और हमारा राज्य इसे देखकर खामोश है। पिछले पांच सालों में नक्सली 11 हजार लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। मणिपुर महीनों अराजकता का शिकार बना रहता है और वहां नाकेबंदी चलती रहती है। कश्मीर के तमाम शहरों में हिंसक प्रदर्शन जारी हैं। कहने का मतलब यह है कि भारतीय राज्य को सुरक्षा के प्रसंगों पर जहां राज्य की दंड शक्ति का परिचय देना चाहिए वहां वह बेचारा साबित हो रहा है। उसके हाथ अतिवादियों पर कार्रवाई करते हुए कांपते हैं। किंतु आम जनता पर अपनी बहादुरी दिखाने से वह बाज नहीं आता। क्या सिर्फ इसलिए कि आम शहरी कानून को मानता और उस पर भरोसा करता है। इसलिए उसके जान की कोई कीमत नहीं है। एक वीआईपी के किसी शहर में आने से शहर को राहत मिलनी चाहिए या सजा यह एक बड़ा सवाल है। इसी तरह वीआईपी सुरक्षा के दुरूपयोग के भी किस्से आम हैं। आज हर नेता अपने को वीआईपी बनाने के लिए आमादा है। सबको अपनी सुरक्षा के ग्रेड बढ़वाने हैं क्योंकि इससे रूतबा बढ़ता है और यह एक स्टेट्स सिंबल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। हमें देखना होगा कि इस तरह की सुरक्षा हमारे जनतंत्र पर कितनी भारी पड़ रही है। ऐसे सुरक्षा घेरों में वीआईपी को आते-जाते समय जनता क्या प्रतिक्रिया करती है कभी उसे भी सुनिए तो पता चलेगा कि लोग इस पूरे तंत्र को किस नजर से देखते हैं। जनता के बीच काम करने वाला आम नेता जैसे ही पदधारी होता है उसे वीआईपी बनने का मनोरोग लग जाता है।यह एक ऐसी बीमारी है जो हमारे जनतंत्र को कमजोर और अविश्वासी बना रही है। किंतु चिंता का विषय ये छोटी बीमारियां नहीं हैं। हमें देखना होगा कि प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति की सुरक्षा के नाते यदि आम जनता आहत हो रही है तो उसका संदेश क्या जाता है। जाहिर तौर पर हमें अपने नेताओं के पद की गरिमा के अनुकूल ही सुरक्षा के इंतजाम करने चाहिए ताकि वे महफूज रहें और देश के प्रति अपना श्रेष्ठ योगदान सुनिश्चित कर सकें। किंतु हमें यह भी ध्यान देना होगा कि एक भी आम हिंदुस्तानी अगर उनकी सुरक्षा के चलते अपनी जान गंवा बैठता है तो यह अच्छी बात नहीं हैं। कानपुर की मां ऊषा शर्मा ने की पीड़ा को समझने की जरूरत है जिसने अपना इकलौता बेटा खो दिया है। जरूरत है हमारे तंत्र को मानवीय बनाने की ताकि फिर कोई मां अपना बेटा न खो दे। आठ साल के अमन की मौत ने हमारे सामने कई सवाल खड़े किए हैं और वे सवाल तब तक हल नहीं होंगें जबतक हमारी व्यवस्था में मानवीय पहलू शामिल नहीं किए जाते। जाहिर तौर पर हमारी सुरक्षा एजेंसियों को भी यह सबक सीखने की जरूरत है कि कई बार मानवीय दृष्टि से भी कई फैसले किए जाते हैं और अगर वह दृष्टि हमारे सुरक्षा अमले के पास होती तो आज अमन के कत्ल का इल्जाम इस तंत्र के सिर पर न होता।

3 टिप्‍पणियां:

  1. द्विवेदी जी, आपने एक बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है. अफ़सोस, हमारे देश में ऐसे बीसियों किस्से रोज ही मिल जायेंगे, जहाँ किसी न किसी सरकारी अफसर की लालफीताशाही या लापरवाही की वजह से लोगो की जिंदगी बदतर हो गई.
    ये पुलिस या अन्य कोई भी सरकारी कर्मचारी आम जनता के दिए हुए टैक्स से वेतन पाते है, उसी आम जनता से रिश्वत के टुकडो की भीख लेकर उस रिश्वत के पैसे से ऐय्याशी उड़ाते है और उसी जनता का खून चूसते है.
    आज जो जमीनी हालत है उसे देखते हुए मुझे ये कतई नहीं लगता कि हमारे देश में कभी भी सरकारी नौकर किसी भी तरह का मानवीय संवेदना को तजरीह देकर जनता की मदद के लिए सोचेंगे क्योंकि इनकी कोई जवाबदेही जनता के प्रति है ही नहीं. इनको पता है कि ये जनता के लिए चाहे कुछ करे या न करे, इनकी नौकरी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और कोई माँ का लाल इनका बाल भी बांका नहीं कर सकता :-(

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  2. सर दुरुस्त कहा आपने, वीआईपी मूवमेंट से लोगों का परेशान होना कोई नई बात नहीं... लेकिन बात जब जान पर बन आए तो चिंतित होना लाज़मी है। मानवीय संवेदनशीलता की बात आपने कही, लेकिन ये उस तंत्र के आगे कहां तक ठहर सकती है, जहां आकाओं को ख़ुश करने की रवायत हो।

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