रविवार, 18 जुलाई 2010

कुछ करिए, कुछ करिए !!


नक्सलवाद पर कार्रवाई पर किंतु परंतु न कीजिए
-संजय द्विवेदी
देर से ही सही केंद्र सरकार और हमारी राज्य सरकारों ने नक्सलवाद के खतरे को उसके सही संदर्भ में पहचान लिया है। शायद इसीलिए अब इस मसले पर एकीकृत कमान की बात की जा रही है। पिछले एक दशक नक्सली हिंसा का विस्तार रोक नहीं पाए और अब जब यह आतंकी वाद बेकाबू हो गया है तब हमारी सरकारों को इसके खतरे का अंदाजा हुआ है। इंतजार और धैर्य के मामले में वास्तव में हमारी सरकारें प्रेरणा का विषय हैं। जब तक पानी सर से ऊपर न हो जाए उन पर जूं ही नहीं रेंगती। अब नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की मौजूदगी में यह फैसला किया गया है कि माओवादियों की हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में एकीकृत कमान होगी। जो इस चुनौती से निपटने की रणनीति पर काम करेंगें। इस के साथ ही केंद्र इन राज्यों को नक्सली विरोधी अभियान के लिए हेलीकाप्टर तथा अन्य साधन मुहैया कराएगा।
एकीकृत कमान बनाए जाने के फैसले से चारो राज्य सहमत हैं और इसकी अध्यक्षता राज्य के मुख्यसचिव करेंगें। यह कमान पुलिस, अर्द्धसैनिक बल तथा खुफिया एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल बैठाएगी। इस एकीकृत कमान में सेना का एक रिटायर्ड मेजर जनरल भी शामिल होगा। जाहिर तौर पर यह फैसला नक्सलवाद के खिलाफ जंग में एक बड़ी सफलता की शुरूआत कर सकता है। क्योंकि यह समस्या किसी एक राज्य की नहीं है बल्कि पूरे देश की है सो इसमें सबका सहयोग और समन्वय आवश्यक है। अलग-अलग विचार रखकर इस लड़ाई को जीत पाना कठिन है। इसके लिए ठोस रणनीति बनाकर इस लड़ाई को परिणाम तक ले जाने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जैसे नेता प्रारंभ से ही एक समन्वित रणनीति बनाकर काम करने की बात करते रहे हैं किंतु केंद्र में बैठे कुछ नेता आज भी इसे कानून-व्यवस्था की सामान्य समस्या मानकर चल रहे हैं। जबकि यह एक अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा है जिसमें हमारे अपने लोगों को मोहरा बनाकर लड़ाई लड़ी जा रही है। यह दुखद है कि देश के राजनीतिक जीवन में सक्रिय अनेक राजनेता और अधिकारी व बुद्धिजीवी आज भी नक्सली आंदोलन के साथ सहानुभूति का व्यवहार रखते हैं, इससे जाहिर तौर पर चिंता बढ़ जाती है और नक्सलवाद के खिलाफ संर्धष के मार्ग में एक भ्रम का निर्माण होता है।
यह कैसा ‘वाद’ हैः
सवाल यह उठता है कि क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। यह एक ऐसी कायराना लड़ाई है जिसमें नक्सलवादी नरभक्षियों में बदल गए हैं। ट्रेन में यात्रा कर रहे आम लोग अगर आपके निशाने पर हैं तो आप कैसी जंग लड़ रहे हैं। आम आदमी का खून बहाकर वे कौन सा राज लाना चाहते हैं यह किसी से छिपा नहीं है।
क्या कह रही हो अरूंधतीः
न जाने किस दिल से देश की महान लेखिका और समाज सेविका अरूंधती राय और महाश्वेता देवी को नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति के शब्द मिल जाते हैं। नक्सलवाद को लेकर प्रख्यात लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरूंधती राय का बयान दरअसल आंखें खोलने वाला है। अब तो इस सच से पर्दा हट जाना चाहिए कि नक्सलवाद किस तरह से एक देशतोड़क आंदोलन है और इसे किस तरह से समर्थन मिल रहा है। नक्सलियों द्वारा की जा रही हत्याओं का समर्थन कर अरूंधती राय ने अपने समविचारी मानवाधिकारवादियों, कथित लेखकों और आखिरी आदमी के लिए लड़ने का दम भरने वाले संगठनों की पोल खोल दी है। उन्होंने अपना पक्ष जाहिर कर देश का बहुत भला किया है। उनके इस साहस की सराहना होनी चाहिए कि खूनी टोली का साथ तमाम किंतु-परंतु के साथ नहीं दे रही हैं और नाहक नाजायज तर्कों का सहारा लेकर नक्सलवाद को जायज नहीं ठहरा रही हैं। उनका बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के महान लोकतंत्र व संविधान के प्रति आस्था रखनेवालों और उसमें आस्था न रखनेवालों के बीच साफ-साफ युद्ध छिड़ चुका है। ऐसे में अरूंधती के द्वारा अपना पक्ष तय कर लेना साहसिक ही है। वे दरअसल उन ढोंगी बुद्धिजीवियों से बेहतर है जो महात्मा गांधी का नाम लेते हुए भी नक्सल हिंसा को जायज ठहराते हैं। नक्सलियों की सीधी पैरवी के बजाए वे उन इलाकों के पिछड़ेपन और अविकास का बहाना लेकर हिंसा का समर्थन करते हैं। अरूंधती इस मायने में उन ढोंगियों से बेहतर हैं जो माओवाद, लेनिनवाद, समाजवाद, गांधीवाद की खाल ओढ़कर नक्सलियों को महिमामंडित कर रहे हैं।
तय करें आप किसके साथः
खुद को संवेदनशील और मानवता के लिए लड़ने वाले ये कथित बुद्धिजीवी कैसे किसी परिवार को उजड़ता हुआ देख पा रहे हैं। वे नक्सलियों के कथित जनयुद्ध में साथ रहें किंतु उन्हें मानवीय मूल्यों की शिक्षा तो दें। हत्यारों के गिरोह में परिणित हो चुका नक्सलवाद अब जो रूप अख्तियार कर चुका है उससे किसी सदाशयता की आस पालना बेमानी ही है। सरकारों के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। हिंसा के आधार पर 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जा करने का सपना देखने वाले लोगों को उनकी भाषा में ही जवाब दिया जाना जरूरी है। सो इस मामले पर किसी किंतु पंरतु के बगैर भारत की आम जनता को भयमुक्त वातावरण में जीने की स्थितियां प्रदान करनी होंगी। हर नक्सली हमले के बाद हमारे नेता नक्सलियों की हरकत को कायराना बताते हैं जबकि भारतीय राज्य की बहादुरी के प्रमाण अभी तक नहीं देखे गए। जिस तरह के हालात है उसमें हमारे और राज्य के सामने विकल्प कहां हैं। इन हालात में या तो आप नक्सलवाद के साथ खड़े हों या उसके खिलाफ। यह बात बहुत तेजी से उठाने की जरूरत है कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें नदारद हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
हमारा भ्रष्ट तंत्र कैसे जीतेगा जंगः
सवाल यह है कि क्या कोई भ्रष्ट तंत्र नक्सलवादियों की संगठित और वैचारिक शक्ति का मुकाबला कर सकता है। विदेशों से हथियार और पैसे अगर जंगल के भीतर तक पहुंच रहे हैं, नक्सली हमारे ही लोगों से करोड़ों की लेवी वसूलकर अपने अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं तो हम इतने विवश क्यों हैं। क्या कारण है कि हमारे अपने लोग ही नक्सलवाद और माओवाद की विदेशी विचारधारा और विदेशी पैसों के बल पर अपना अभियान चला रहे हैं और हम उन्हें खामोशी से देख रहे हैं। महानगरों में बैठे तमाम विचारक एवं जनसंगठन किस मुंह से नक्सली हिंसा को खारिज कर रहे हैं जबकि वे स्वयं इस आग को फैलाने के जिम्मेदार हैं। शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा। ऐसे शब्दजालों और भ्रमजालों में फंसी हमारी सरकारें कैसे कोई निर्णायक कदम उठा पाएंगीं। जो लोग नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर मौतों पर गम कम करना चाहते हैं वो सावन के अंधे हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारी सरकारें नक्सलवाद का समाधान चाहती हैं? अगर चाहती हैं तो उन्हें किसने रोक रखा है? क्या इस सवाल का कोई जवाब भारतीय राज्य के पास है,,क्योंकि यह सवाल उन तमाम निर्दोष भारतीयों के परिवारों की ओर से भी है जो लाल आतंक की भेंट चढ़ गए हैं।

5 टिप्‍पणियां:

  1. माओवाद पर एक लाजवाब लेख!
    बहुत अच्छा लिखा है, आपने! बहुत दिनो के बाद इन आतंकवादियों पर केंद्रित एक सुंदर लेख पढ़ने को मिला है|

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  2. माओवाद पर एक लाजवाब लेख!
    बहुत अच्छा लिखा है, आपने! बहुत दिनो के बाद इन आतंकवादियों पर केंद्रित एक सुंदर लेख पढ़ने को मिला है|

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  3. ...नक्सलवाद की रोकथाम की दिशा में यदि सार्थक कदम नहीं उठाये गये तो यह दीमक की भांति फ़ैलते जायेगा !!!

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  4. आपको याद होगा. १९८६ के आसपास जब मैं पत्रकारिता से जुड़ा था, तब भी पत्रकारिता एक मिशन थी. उस समय तनख्वाह कम थी पर जलवा बहुत था. एक पत्रकार की औकात कलेक्टर से कम नहीं थी. बाद में कमीशन की चकाचौंध से मिशन ने दम तोड़ दिया. नव भास्कर से जब रायपुर में दैनिक भास्कर शुरू हुआ, तब रमेश नैय्यर संपादक थे, नैय्यर जी ने उसी समय कह दिया था, की अब अखबार में सम्पादक की नहीं महाप्रबंधक की चलेगी. उनके साथ साथ बहुत से लोगों ने भास्कर छोड़ दिया था. ये किस्सा इसीलिये बताना पड़ा क्योंकि समय के साथ सारी चीज़ें बदल गयी हैं. पूरा विश्व आज पैसों के पीछे अंधों की तरह भाग रहा है. मूल्य - संस्कार- मिशन-धर्म ये सब थोथे शब्द होकर रह गए हैं, आज सीरियल में भाई बहन की बातें भी हमें आपत्तिजनक लगती हैं. जब सब बदल गए तो नक्सली और सरकार की सोच भी तो बदलेगी. आज जैसे अख़बार एक उद्योग हो गया है, वैसे ही नक्सल और सरकार भी इसे उद्योग मानकर चल रहे हैं. सबके पास पैसा आ रहा है. शहीदों की सुध लेने वाला तक कोई नहीं है. इसीलिये न तो जंगल में सर्चिंग हो रही है न कोई ऐसे उपाय जिससे इस मामले पर कुछ सार्थकता दिखे. गुप्त सैनिकों के नाम भी करोड़ों खर्च हो रहे हैं. कौन है गुप्त सैनिक? इतनी बड़ी - बड़ी वारदातें हो गयीं किसी गुप्त सैनिक का सन्देश नहीं आया की फलाने गाँव में वारदात हो सकती है या, नक्सली उधर जाते दिखे. सब नोट छाप रहे हैं. हम दुबले हो रहे हैं. कोई भी गंभीर नहीं है. जो गंभीर हैं उन्हें सरकार मूर्ख समझती है.

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