मंगलवार, 16 जून 2009

आरएसएस के मुस्लिम प्रेम से उपजे कुछ सवाल


यह प्यार अचानक उमड़ा क्यूं

हां, सात जून को मैं रायपुर में ही था। एक चौंकानेवाली खबर अखबारों में थी। खबर थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन शहर में हैं और वे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नामक किसी संगठन के तीन दिवसीय आयोजन में भाग लेने के लिए आए हैं। खबर में बताया गया था कि रायपुर शहर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों की बैठक 4 जून को हो चुकी है और अब एक प्रशिक्षण शिविर चल रहा है जिसमें देशभर के लगभग 215 लोग भाग ले रहे हैं जो लगभग 22 राज्यों से आए हुए थे। इस आयोजन के समापन के दिन राज्य की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, आरएसएस की ओर से इस काम को देखने वाले इंद्रेश कुमार भी सुदर्शन के साथ मंच पर थे।
हालांकि आरएसएस के बारे में जैसा सुना और बताया जाता है कि वह एक हिंदू संगठन है और मुसलमानों से दूरी बनाए रखने में ही उसे मजा आता है। यह भी माना जाता है कि संघ मुस्लिम विरोधी भी है। किंतु इस प्रकार की छवि रखनेवाले संगठन की ऐसी कोशिश की तो मीडिया में जोरदार चर्चा होनी चाहिए लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखा। इस आयोजन की राष्ट्रीय मीडिया में किसी तरह की भी चर्चा नहीं हुयी। जबकि लोगों को यह जानने का हक है कि जब सुर्दशन जैसे कट्टर हिंदू नेता मुस्लिम समाज के साथ होते हैं तो उनके संवाद की भाषा क्या होती है, उनकी देहभाषा क्या होती है। आरएसएस के लिए ऐसा क्या जरूरी है कि वह मुसलमानों के बीच जाए और उनकी सुने या अपनी सुनाए। यह सवाल इसलिए भी बड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है और हिंदू राष्ट्र के विचार में उसकी आस्था अविचल है। एक आरएसएस नेता कहते हैं हमने इसलिए खुद को हिंदू स्वंयसेवक संघ नहीं कहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहा। जब इस आयोजन के संयोजक डा. सलीम राज से इस अचानक पैदा हुयी मुहब्बत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि यह सच है कि आरएसएस के विरोधियों ने हमारी छवि मुस्लिम विरोधी बना दी है जबकि वास्तविकता यह नहीं है। सलीम राज मानते हैं कि उनसे देर तो हुयी है पर बहुत देर नहीं हुयी है।
मुस्लिम समाज और उसकी राजनीति के संकट पर बातचीत करते समय या तो हम इतनी संवेदनशीलता और संकोच से भर जाते हैं कि ‘सत्य’ दूर रह जाता है या फिर उपदेशक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं। हम इन विमर्शों में प्रायः मुस्लिम राजनीति को दिशाहीन, अवसरवादी, कौम की मूल समस्याओं को न समझने वाली आदि-आदि करार दे देते हैं। दरअसल यह प्रवृत्ति किसी भी संकट को अतिसरलीकृत करके देखने से उपजती है।मुस्लिम राजनीति के संकट वस्तुतः भारतीय राजनीति और समाज के ही संकट हैं। उनकी चुनौतियां कम या ज्यादा गंभीर हो सकती हैं, पर वे शेष भारतीय समाज के संकटों से जरा भी अलग नहीं है। सही अर्थों में पूरी भारतीय राजनीति का चरित्र ही कमोबेश भावनात्मक एवं तात्कालिक महत्व के मुद्दों के इर्द-गर्द नचाता रहा है। आम जनता का दर्द, उनकी आकांक्षाएं और बेहतरी कभी भारतीय राजनीति के विमर्श के केंद्र में नहीं रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का यह सामूहिक चरित्र है, अतएव इसे हिंदू, मुस्लिम या दलित राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखने को कोई अर्थ नहीं है और शायद इसलिए ‘जनता का एजेंडा’ किसी की राजनीति का एजेंडा नहीं है। यह अकारण नहीं है कि मंडल और मंदिर के भावनात्मक सवालों पर आंदोलित हो उठने वाला हमारा राजनीतिक समाज बेरोजगारी के भयावह प्रश्न पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए मुस्लिम नेताओं पर यह आरोप तो आसानी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कौम को आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा बनाए रखा, लेकिन क्या यही बात अन्य वर्गों की राजनीति कर रहे लोगों तथा मुख्यधारा की राजनीति करने वालों पर लागू नहीं होती ? बेरोजगारी, अशिक्षा, अंधविश्वास, गंदगी, पेयजल ये समूचे भारतीय समाज के संकट हैं और यह भी सही है कि हमारी राजनीति के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक परिवेश में आश्चर्यजनक ही है। देश की मुस्लिम राजनीति का एजेंडा भी हमारी मुख्यधारा की राजनीति से ही परिचालित होता है।
सही अर्थों में भारतीय मुसलमान अभी भी बंटवारे के भावनात्मक प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। पड़ोसी देश की हरकतें बराबर उनमें भय और असुरक्षाबोध का भाव भरती रहती हैं। लेकिन आजादी के अर्द्धशती भीत जाने के बाद अब उनमें यह भरोसा जगने लगा है। कि भारत में रुकने का उनका फैसला जायज था। इसके बावजूद भी कहीं अन्तर्मन में बंटवारे की भयावह त्रासदी के चित्र अंकित हैं। भारत में गैर मुस्लिमों के साथ उनके संबंधों की जो ‘जिन्नावादी असहजता’ है, उस पर उन्हें लगातार ‘भारतवादी’ होने का मुलम्मा चढ़ाए रखना होता है। दूसरी ओर पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों से अपने रिश्तों के प्रति लगातार असहजता प्रकट करनी पड़ती है। मुस्लिम समाज का यह वैचारिक द्वंद्व बहुत त्रासद है। आप देखें तो हिंदुस्तान के हर मुसलमान नेता को एक ढोंग रचना पड़ता है। एक तरफ तो वह स्वयं को अपने समाज के बीच अपनी कौम और उसके प्रतीकों का रक्षक बताता है, वहीं दसरी ओर उसे अपने राजनीतिक मंच (पार्टी) पर भारतीय राष्ट्र राज्य के साथ अपनी प्रतिबद्धता का स्वांग रचना पड़ता है। समूचे भारतीय समाज की स्वीकृति पाने के लिए सही अर्थों में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में तो ऐसा संभव नहीं दिखता ।भारतीय समाज में ही नहीं, हर समाज में सुधारवादी और परंपरावादियों का संघर्ष चलता रहा है। मुस्लिम समाज में भी ऐसी बहसे चलती रही हैं। इस्लाम के भीतर एक ऐसा तबका पैदा हुआ, जिसे लगता था कि हिंदुत्व के चलते इस्लाम भ्रष्ट और अपवित्र होता जा रहा है। वहीं मीर तकी मीर, नजीर अकबरवादी, अब्दुर्रहीम खानखाना, रसखान की भी परंपरा देखने को मिलती है। हिंदुस्तान का आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर एक शायर था और उसे सारे भारतीय समाज में आदर प्राप्त था। एक तरफ औरंगजेब था तो दूसरी तरफ उसका बड़ा भाई दारा शिकोह भी था, जिसनें ‘उपनिषद्’ का फारसी में अनुवाद किया। इसलिए यह सोचना कि आज कट्टरता बढ़ी है, संवाद के अवसर घटे हैं-गलत है। आक्रामकता अकबर के समय में भी थी, आज भी है। यही बात हिंदुत्व के संदर्भ में भी उतनी ही सच है। सावरकर और गांधी दोनों की उपस्थिति के बावजूद लोग गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इसके विपरीत मुस्लिमों का नेतृत्व मौलाना आजाद के बजाए जिन्ना के हाथ में आ जाता है। इतिहास के ये पृष्ठ हमें सचेत करते हैं। यहां यह बात रेखांकित किए जाने योग्य है कि अल्पसंख्यक अपनी परंपरा एवं विरासत के प्रति बड़े चैतन्य होते हैं। वे चाहते हैं कि कम होने के नाते कहीं उनकी उपेक्षा न हो जाए । यह भयग्रंथि उन्हें एकजुट भी रखती है। अतएव वे भावनात्मक नारेबाजियों से जल्दी प्रभावित होते हैं। सो उनके बीच राजनीति प्रायः इन्हीं आधारों पर होती है। यह अकारण नहीं था कि आज न पढ़ने वाले मोहम्मद अली जिन्ना, जो नेहरू से भी ज्यादा अंग्रेजी थे, मुस्लिमों के बीच आधार बनाने के लिए कट्टर हो गए । आधुनिक संदर्भ में सैय्यद शहबुद्दीन का उदाहरण ताजा है, जिन्हें एक ईमानदार और उदार अधिकारी जानकार ही अटलबिहारी वाजपेयी ने राजनीति में खींचा । लेकिन जब उन्होंने अपनी ‘मुस्लिम कांस्टिटुएंसी’ बनानी शुरु की तो वे खुद को ‘कट्टर मुस्लिम’ प्रोजेक्ट करने लगे । कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई है, लेकिन जामिया मिलिया में मचे धमाल में वे कट्टरपंथियों के साथ खड़े दिखे थे । मुस्लिम राजनीति वास्तव में आज एक खासे द्वंद में हैं, जहां उसके पास नेतृत्व का संकट है । आजादी के बाद 1964 तक पं. नेहरु मुसलमानों के निर्विवादित नेता रहे । सच देखें तो उनके बाद मुसलमान किसी पर भरोसा नहीं कर पाया और जब किया तब ठगा गया । बाबरी मस्जिद काण्ड के बाद मुस्लिम समाज की दिशा काफी बदली है । बड़बोले राजनेताओं को समाज ने हाशिए पर लगा दिया है । मुस्लिम समाज में अब राजनीति के अलावा सामाजिक, आर्थिक, समाज सुधार, शिक्षा जैसे सवालों पर बातचीत शुरु हो गई है । सतह पर दिख रहा मुस्लिम राजनीति का यह ठंडापन एक परिपक्वता का अहसास कराता है । मुस्लिम समाज में वैचारिक बदलाव की यह हवा जितनी ते होगी, समाज उतना ही प्रगति करता दिखेगा । एक सांस्कृतिक आवाजाही, सांस्कृतिक सहजीविता ही इस संकट का अंत है । जाहिर है इसके लिए नेतृत्व का पढ़ा, लिखा और समझदार होना जरुरी है । नए जमाने की हवा से ताल मिलाकर यदि देश का मुस्लिम अपने ही बनाए अंधेरों को चीरकर आगे आ रहा है ति भविष्य उसका स्वागत ही करेगा । वैसे भी धार्मिक और जज्बाती सवालों पर लोगों को भड़काना तथा इस्तेमाल करना आसान होता है । गरीब और आम मुसलमान ही राजनीतिक षडयंत्रों में पिसता तथा तबाह होता है, जबकि उनका इस्तेमाल कर लोग ऊंची कुर्सियां प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें भूल जाते हैं । आरएसएस जैसे संगठन भी यदि यह मानने लगे हैं कि देश की प्रगति बिना मुस्लिम समाज को साथ लिए संभव नहीं है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। जैसा कि रायपुर सम्मेलन का निष्कर्ष है –शिक्षा और वतनपरस्ती ही मुस्लिम समाज की मुक्ति में सहायक हो सकते हैं। यह मान लेने में संकोच नहीं करना चाहिए कि आरएसएस इस पहल को यदि सच्चे दिल से कर रहा है तो इससे सही परिणाम भी दिखने लगेंगें। क्योंकि आरएसएस की निष्ठा और ईमानदारी पर शक उसके विरोधी भी नहीं करते। आरएसएस जैसा कह रहा है वैसा कर पाया तो भारतीय जनमानस में फैले असुरक्षा और अंधकार के बाद छंट सकते हैं। यही क्षण भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।

सोमवार, 1 जून 2009

संजय द्विवेदी पत्रकारिता विवि में जनसंचार के विभागाध्यक्ष बने

भोपाल। संजय द्विवेदी ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष का पदभार संभाल लिया है। संजय की राजनीतिक विश्लेषक एवं मीडिया विशेषज्ञ के तौर पर खास पहचान है। वे दैनिक भास्कर- भोपाल एवं बिलासपुर, हरिभूमि-रायपुर, नवभारत-मुंबई, इंडिया इन्फो डाट काम-मुंबई, स्वदेश-रायपुर एवं भोपाल, न्यूज चैनल – जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ आदि संस्थाओं में स्थानीय संपादक, समाचार संपादक, एडीटर इनपुट एवं एंकर, कंटेट अस्सिटेंट, उप संपादक जैसे महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन कर चुके हैं। संजय इससे पहले भी अध्यापन का कार्य रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में रीडर के रूप में कर चुके हैं। भोपाल, मुंबई, रायपुर, बिलासपुर उनका कार्यक्षेत्र रहा है। सतत लेखन करने वाले संजय विभिन्न सांस्कृतिक संगठनों से जुडे हैं।
संजय ने काफी कुछ लिखा पढ़ा है जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- शावक (बाल कविता संग्रह - 1989), यादें सुरेन्द्र प्रताप सिंह (संपादन - 1997), इस सूचना समर में (लेख संग्रह - 2003), मत पूछ हुआ क्या-क्या (लेख संग्रह - 2003), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और उनकी पत्रकारिता (आलोचना - 2004), सुर्खियां (लेख संग्रह - 2007)। संजय कई तरह के पुरस्कारों से भी नवाजे जा चुके हैं, जो इस प्रकार हैं- म.गो.वैद्य स्मृति रजत पदक (माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा) भोपाल, मध्यप्रदेश- 1995, सृजन-सम्मान, रायपुर द्वारा आंचलिक पत्रकारिता के लिए धुन्नी दुबे सम्मान-2005, अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत सम्मान, भोपाल, मध्यप्रदेश- 2005, पं.प्रतापनारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान (भाऊराव देवरस न्यास, लखनऊ द्वारा) - 2006। संजय की वेबसाइट है
www.sanjaydwivedi.com और उनका ब्लाग है www.sanjayubach.blogspot.com, उनसे ई-मेल - 123dwivedi@gmail.com या उनके मोबाइल – 098935-98888 पर संपर्क किया जा सकता है। उनका डाक का पता हैः अध्यक्षः जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, विकास भवन, प्रेस काम्पलेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (मध्यप्रदेश)

शुक्रवार, 29 मई 2009

कैसा बन रहा है हमारा भारत

प्राथमिक शिक्षा की बदहाली पर सोचना होगा

नारे 21 वीं सदी को भारत की सदी बनाने के हैं, लेकिन हमारी प्राथमिक शिक्षा की बदहाली तो यही कहती है कि यह सपना कहीं सपना ही न रह जाए। जिस तरह से इस बार परीक्षा परिणाम आए हैं वे चौंकाते हैं, सरकारी स्कूलों में पढ़ रही नई पीढ़ी का हम कैसा भविष्य गढ़ रहे हैं इस पर सवाल खड़े हो गए हैं।


परीक्षा के बिगड़े परिणामों से सरकार हैरत में है और अब इसकी समीक्षा की जा रही है। पर देखना होगा कि क्या इसके हालात सरकारी तंत्र ने ही ऐसे नहीं बना दिए हैं। आज हालत यह है कि थोड़ी सी बेहतर आर्थिक स्थिति वाले लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजना चाहते। यहां ठहरकर सोचना होगा कि आजादी के छः दशक में ऐसा क्या हुआ कि हमारे सरकारी स्कूल जहां देश का भविष्य गढ़ा जाना था वे एक अराजकता के केंद्र में तब्दील हो गए। सरकारी शिक्षकों को ऐसा क्या हुआ है कि वे सरकारी नौकरी में आकर एक ऐसे व्यक्ति में तब्दील हो जाते हैं जिसमें काम का जूनून प्रायः नहीं दिखता। सरकारी तंत्र में ऐसा क्या है कि वह व्यक्ति को अपने कर्तव्य के प्रति ही उदासीन बना देता है। मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, उप्र, बिहार जैसे तमाम राज्य जहां आज भी एक बड़ी आबादी सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर है हमें अपनी प्राथमिक शिक्षा के ढांचे पर विचार करना होगा। हमें यह मान लेना चाहिए कि हमारे स्कूल स्लम में तब्दील हो रहे हैं, जहां एक बड़ी आबादी के सपने दफन किए जा रहे हैं।


चमकीली प्रगति कई तरह का भारत रचकर नहीं हो सकती है। लेकिन सचाई यह है कि हम भारत और इंडिया के बीच की खाई और चौड़ी करते जा रहे हैं। सरकारी स्कूलों से पढ़कर निकली पीढ़ी, अंग्रेजी और हिंदी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों से निकली पीढ़ी के अलावा एक बहुत हाई-फाई पीढ़ी भी हम तैयार कर रहे हैं जो आधुनिकतम सुविधाओं से लैस स्कूलों में तैयार हो रही है और लाखों रूपए सालाना फीस देकर पढ़ रही है। यह तीन तरह का भारत हम एक साथ तैयार कर रहे हैं। जिसमें पहला भारत सेवा के लिए, दूसरा बाबू बनने के लिए और तीसरा शासक बनने के लिए तैयार किया जा रहा है। इससे भारत में सामाजिक-आर्थिक परिवेश में बहुत गहरे विभेद पैदा हो रहे हैं जिसके नकारात्मक फलितार्थ हमें दिखाई देने लगे हैं। समाज में इस तरह के विभाजन के अपने खतरे हैं जिसे उठाने के लिए देश तैयार नहीं है। अपने सरकारी स्कूलों को इस हाल में जाता देखने के लिए सरकारें विवश हैं क्योंकि इनकी उपेक्षा के चलते ही ये स्कूल इन हालात में पहुंचे है। सरकार की शिक्षा के प्रति उदासीनता के चलते ही प्राथमिक शिक्षा का बाजार पनपा है और अब उसके हाथ उच्च शिक्षा तक भी पहुंच रहे हैं।


क्या कारण है कि ये सरकारी स्कूल बदहाली के शिकार हैं। क्या कारण है कि इनमें काम करने वाले अध्यापक आज शिक्षा कर्मी के नाम से भर्ती किए जा रहे हैं जिन्हें चपरासी से भी कम वेतन दिया जा रहा है। इसके अलावा तमाम सरकारी काम भी इसी अमले के भरोसे डाल दिए जाते हैं। मतदाता सूची के सर्वेक्षण, मतदान कराने से लेकर, सरकार की तमाम योजनाओं में इन्हीं शिक्षकों का इस्तेमाल किया जाता है। जाहिर तौर पर हमारी प्राथमिक शिक्षा इन्हीं स्थितियों में दम तोड़ रही है। हमें देखना होगा कि हम कैसे इस खोखली होती नींव को बचा सकते हैं। एक बहुत व्यावहारिक सुझाव यह है कि सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के बच्चे भी इन स्कूलों में नहीं जाते, क्या ही अच्छा होता कि यह अनिर्वायता होती कि हर सरकारी कर्मचारी का बच्चे अब सरकारी स्कूल में जाएंगें। इससे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार तो कम होगा ही सरकारी स्कूलों के हालात सुधर जाएंगें। क्योंकि प्राथमिक एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था आजतक हम लागू नहीं कर पाए, इससे हमारा लोकतंत्र बेमानी बनकर रह गया है। तमाम कमेटियों की रिपोर्ट धूल फांक रही है। बच्चे एक प्रयोग का विषय बनकर रह गए हैं। यशपाल कमेटी कहती है कि उन्हें उनकी मातृभाषा में शिक्षा दीजिए,हम उनपर सारे विषय अंग्रेजी में पढ़ने का दबाव बनाए हुए हैं। यह शिक्षा की विसंगतियां हमारे देश के भविष्य पर ग्रहण की तरह खड़ी हैं। बच्चों के परीक्षा परिणाम बिगड़ रहे हैं। शिक्षक मनमानी कर रहे हैं क्योंकि उन्हें सुविधाएं नहीं हैं। सीमित क्षमताओं के साथ ज्यादा अपेक्षाएं पाली जा रही हैं। पाठ्यक्रमों पर भी विचार का सही समय आ गया है। किताबों का बोझ और रटने वाली विद्या से तैयार हो रही पीढ़ी आज के दौर की चुनौतियों से जूझने के लिए कितनी सक्षम है यह भी देखना होगा। हालात बिगड़ने पर ही जागने वाले हम हिंदुस्तानियों ने अपनी प्राथमिक शिक्षा की विसंगतियों पर आज गौर नहीं किया तो कल बहुत देर हो जाएगी। एक लाचार और नाराज पीढ़ी का निर्माण करके हम अपने देश के सुखद भविष्य की कामना तो नहीं कर सकते।

गुरुवार, 28 मई 2009

छत्तीसगढ़ में इस तरह तो नहीं खड़ी होगी कांग्रेस


छत्तीसगढ़ में कांग्रेस रसातल की ओर जा रही है लेकिन इसे रोकने के किसी प्रयास के लिए आलाकमान तैयार नहीं दिखता। 4 लोकसभा सीटों वाले हिमाचल प्रदेश में एक सीट पाकर दो कैबिनेट मंत्री बनाने वाली कांग्रेस को 11 सीटों वाले छत्तीसगढ़ की याद नहीं आयी। हिमाचल से जीते एकमात्र लोकसभा सदस्य वीरभद्र सिंह और राज्यसभा के सदस्य आनंद शर्मा को मंत्रिमंडल में जगह दी गयी है किंतु छत्तीसगढ़ से जीते एकमात्र सांसद के लिए मंत्रिमंडल में जगह नहीं है। उल्लेखनीय है कि चरणदास महंत कोरबा से जीतने वाले कांग्रेस के एकमात्र लोकसभा सदस्य हैं। यही कहानी पिछली लोकसभा में भी दुहराई गयी जब अजीत जोगी को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली। बाद में हुए लोकसभा के उपचुनाव में देवब्रत सिंह राजनांदगांव से चुनाव जीते, दोनों सांसदों को दिल्ली की सरकार में कोई मौका नहीं दिया गया।

याद करें भाजपा की एनडीए सरकार को जिसने छत्तीसगढ़ से लगातार दो मंत्री केंद्र में बनाए रखे। रायपुर के सांसद रमेश बैस और राजनांदगांव से जीते डा. रमन सिंह दोनों को दिल्ली मंत्री बनाया गया। इसी तरह डा. सिंह के राज्य में आने के बाद दिलीप सिंह जूदेव को भी मंत्री पद दिया गया। लेकिन कांग्रेस ऐसा नहीं कर पायी। ऐसा क्यों हुआ इसका सीधा उत्तर भी किसी कांग्रेसी के पास नहीं है। राज्य की यह उपेक्षा निश्चित ही रेखांकित की जानी चाहिए। छत्तीसगढ़ एक नवसृजित राज्य है जहां विकास की अपार संभावनाएं देखी और महसूसी जा रही हैं किंतु कांग्रेस आलाकमान ने पिछले पांच साल से पार्टी को उपेक्षा से ही देखा है। बाकी कसर गुटों में बंटी पार्टी के नेताओं ने तोड़फोड़ मचाकर पूरी कर दी है।

राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का लगभग हर गुट से पंगा है। आपस में लड़ते-झगड़ते कांग्रेसी किसी भी सवाल पर एकमत होने को तैयार नहीं है। इसके चलते राज्य में पार्टी का संगठन ध्वस्त हो गया है। जिन राहुल गांधी के नाम पर पूरे देश में इतनी ढोल पीटी जा रही है वही राहुल बस्तर में रैली करते हैं और बस्तर की 12 में 11 विधानसभा सीटें भाजपा जीत जाती है । एक सीट पर उसके विधायक कवासी लखमा कुल 200 सीटों से जीत पाते हैं। वह आदिवासी बहुल सीटें जिनपर भारी जीत दर्ज करवाकर छत्तीसगढ़ की सीटों की बदौलत कांग्रेस संयुक्त मप्र में अपनी सरकार बनाया करती थी उसकी इतनी बुरी हालत की वजह क्या है इसे सोचना होगा। राहुल गांधी के जिस करिश्मे पर दिल्ली में सरकार बनने की बात कही जा रही है वही राहुल छ्त्तीसगढ़ में इसी लोकसभा चुनाव में छः रैलियां करते हैं जिनमें राजनांदगांव, मरवाही, राजिम, रायगढ़, जांजगीर-चांपा, अम्बिकापुर शामिल हैx आपको बता दें कि इनमें से मरवाही के अलावा कांग्रेस को कहीं बढ़त नहीं मिली। यह भी जान लें कि मरवाही अजीत जोगी का चुनाव क्षेत्र है जहां कांग्रेस को पिछले दो विधानसभा चुनावों में क्रमशः 40 और 50 हजार वोटों की लीड मिली थी। इसी तरह श्रीमती सोनिया गांधी इस बार दो क्षेत्रों में सभाएं लेने पहुंची जिनमें कांकेर और बिलासपुर लोकसभा क्षेत्र हैं, इन पर भाजपा जीती है। इस तरह का आकलन वैसे तो चीजों को अतिसरलीकृत करके देखने जैसा है किंतु यह उस प्रचार की पोल खोलता कि गांधी परिवार के चलते कांग्रेस को बड़ी सफलताएं मिल रही हैं। यदि ऐसा देश के संर्दभ में सच भी हो तो छत्तीसगढ़ में यह जादू क्यों नहीं चल रहा है इस पर कांग्रेस को जरूर सोचना चाहिए।

यह सिर्फ डा. रमन सिंह का करिश्मा है या इस हालत के लिए कांग्रेस आलाकमान खुद भी कोई जिम्मेदारी लेगा। इस खराब होते हालात को संभालने के लिए कोई हाथ आगे बढ़ता दिखाई नहीं देता। शायद यही कारण है कि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी के नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा, प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू, विधानसभा में उपनेता रहे भूपेश बधेल, पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा चुनाव हार गए। इस लोकसभा चुनाव में भी अजीत जोगी की धर्मपत्नी रेणु जोगी बिलासपुर से, भूपेश बधेल रायपुर से, प्रदीप चौबे भाजपा में भारी बगावत के बावजूद दुर्ग से, राजनांदगांव से देवब्रत सिंह जैसे दिग्गज चुनाव हार गए। चरणदास महंत ने जरूर कोरबा की प्रतिष्ठापूर्ण सीट पर भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अटलविहारी वाजपेयी की भतीजी करूणा शुक्ला को चुनाव हराकर कांग्रेस की लाज रखी। बावजूद इसके लगता है कि आलाकमान की प्राथमिकताओं में छत्तीसगढ़ कहीं नहीं है वरना कांग्रेसी दिग्गज मोतीलाल वोरा भी राज्यसभा के सदस्य हैं उन्हें भी मौका देकर छत्तीसगढ़ को प्रतिनिधित्व दिया जा सकता था। राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने अपने छत्तीसगढ़ दौरों में लगातार आदिवासी समाज के प्रति अपने प्रेम का प्रगटीकरण किया था। किंतु इसे प्रकट करने के जो भी अवसर आए कांग्रेस ने इससे किनारा ही किया है। जाहिर तौर पर इस तरीके से तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को कोई करिश्मा ही खड़ा कर सकता है। सकारात्मक परिणाम पाने के लिए सकारात्मक संदेश भी भेजने होते हैं किंतु कांग्रेस आलाकमान ने राज्य की कांग्रेस को उसके बुरे हाल पर छोड़ दिया है। दिल्ली से आने वाले केंद्रीय मंत्री अक्सर डा. रमन सिंह की सरकार की तारीफ करके चले जाते हैं और स्थानीय कांग्रेसजन इसे लेकर सिर पीटते रह जाते हैं किंतु ऐसा लगने लगा है कि वे अनायास ऐसा नहीं करते। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में कांग्रेस के पास अब सिर्फ अतीत की स्वर्णिम यादें हैं और बदहाल भविष्य,जिसे संवारने के लिए फिलहाल तो उसके पास कोई भागीरथ नहीं दिखता।

बुधवार, 27 मई 2009

कालिख पोत ली हमने अपने मुंह पर


इस लूट में हम सब शामिल थे। यह चोरी की बात नहीं थी, डकैती की शक्ल अख्तियार कर चुकी थी। पहले चुपचाप एकाध साथी की नीयत बिगड़ती थी, वह कुछ ले-देकर किनारे हो जाता था, अपनी थोड़ी सी बदनामी के साथ। पर इस बार तस्वीर बदली हुयी थी मीडिया के संस्थान खुद लूट पर उतारू थे। वे राजनीति के सामने खड़े होकर उनके भ्रष्टाचार में अपना हिस्सा मांग रहे थे। जिस तरह की बातें और जैसे ताने मीडिया ने इस बार सुने हैं वैसा कभी अतीत में होता दिखाई-सुनाई नहीं दिया। अचानक हम इतने पतित हो गए यह मान लेना भी ठीक नहीं होगा। यह एक ऐसी गिरावट थी जो धीरे-धीरे हुयी और आज जब इतने विकृत रूप में सामने आई है तो यह सोचना मुश्किल है कि आखिर हम अपना मुंह कहां छिपाएं।

चुनाव के दौरान खबरों की जगह को बेचना अब एक ऐसे पाप के रूप में सामने है कि मीडिया की विश्वसनीयता और प्रामणिकता की बातें अब गुजरे जमाने की बात लगती है। भरोसा नहीं होता कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहकर खुद पर मुग्ध होने वाली जमातें इस सवाल पर मुंह क्यों चुरा रही हैं। देश की हर समस्या पर विचार करने वाले लोग अपनी खुद की समस्या पर इस कदर खामोश क्यों हैं। बाजार और नौकरी क्या इतना मजबूर बना देती है कि सच्चाई को खामोश हो जाना पड़े।

राजनीति के साथ पत्रकारिता का आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता रहा है, वह रिश्ता आज बाजार में है, कसौटी पर भी है। राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार में हम हिस्सा मांग रहे हैं, साथ ही सही और अच्छी सरकार चुनने की अपीलें भी कर रहे हैं। हमारा कौन सा चेहरा सही है जो मतदान के द्वारा अच्छी सरकारें चुनने की अपील कर रहा है या जो राजनीति की देहरी पर झोली फैलाए खड़ा है। यह तो वैसे ही जैसे- हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे। मीडिया की नंगई कोई इस चुनाव ही हुई है ऐसा नहीं है, इस चुनाव में वह लोगों के सामने आई है क्योंकि कुछ राजनेताओं ने इस बार शिकायती अंदाज में चीजें दर्ज करवा दीं। जाहिर तौर पर मीडिया के इस नए चेहरे के बारे में आम लोग नहीं जानते थे पर अब चेहरा छिपाना मुश्किल हो गया है। पहले यह बात बहुत अतिरंजित लगती थी कि राजनीति-मीडिया-उद्योग-माफिया का एक गठजोड़ बन चुका है जो चीजों को अपने हिसाब से अनुकूलित कर रहा है। लेकिन इस चुनाव ने इस सच को बहुत गंभीरता से जतला दिया है। बावजूद इसके मीडिया में इसे लेकर कोई पापबोध, प्रायश्यित नहीं दिखता। भ्रष्टाचार की उसी गंदगी में उन्हीं लोंगो के साथ लोटते हुए अब हमें कोई शर्म नहीं है जिनके खिलाफ मीडिया को सक्रिय होना चाहिए। अकबर इलाहाबादी ने न जाने क्या सोचकर लिखा था-

खींचों न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।

उन्हें क्या पता था कि आजादी के छः दशक बाद ही वे दिन आ जाएंगें जब पत्रकारिता, राजनीति और राजा की गोद में ही बैठकर स्वयं को धन्य समझेगी। यहां उसे किसी का मुकाबला नहीं करना है उसे तो सत्ता की गोद में बैठकर पैकेज प्राप्त करना है। पत्रकारिता की यह दशा देखकर जेम्स आगस्टस हिक्की की आत्मा रो रही होगी जिसने अंग्रेज होने के बावजूद अंग्रेजी शासकों के खिलाफ लिखा और अपनी पत्रकारिता को अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए समर्पित बताया। आजादी के पूर्व हमारी पत्रकारिता सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करती थी। आज वह जनांदोलनों से कटकर मात्र सत्ताधीशों की वाणी एवं सत्ता-संघर्ष का आईना भर रह गई है। बात बुरी है पर क्या पत्रकारिता का काम सिर्फ सौदों में शामिल होना नहीं रह गया है। हमें अगर लोग दलाल शब्द से संबोधित करने लगे हैं तो इसके पीछे हमारा चरित्र जरूर जिम्मेदार है। स्वतंत्रता मिलने के बाद राजनीतिक नेताओं, अफसरों, माफिया गिरोहों की सांठगांठ से सार्वजनिक धन की लूटपाट एवं बंदरबांट में देश का कबाड़ा हो गया, पर मीडिया की इन प्रसंगों पर कोई जंग या प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती। उल्टे ऐसे घृणित समूहों-जमातों के प्रति नरम रूख अपनाने एवं उन्हें सहयोग देने के आरोप पत्रकारों पर जरूर लगे। सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति ऐसी समर्पण भावना ने न सिर्फ मीडिया की गरिमा गिराई वरन पूरे व्यवसाय को कलंकित किया। इसी के चलते मीडिया में आम जनता की आवाज के बचाए सत्ता की राजनीति और उसके द्वन्द्व प्रमुखता पाते हैं। मीडिया की बड़ी जिम्मेदारी थी कि वे आम आदमी के पास तक पहुंचते और उनसे स्वस्थ संवाद विकसित करते । कुछ समाचार पत्रों ने ऐसे प्रयास किए भी किंतु यह हिंदी क्षेत्र की पत्रकारिता की मूल प्रवृत्ति न बन सकी। मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता ने मूलतः शहरी मध्यवर्ग के पाठकों को केन्द्र में रखकर अपना सारा ताना-बाना बुना। इसके चलते अखबार सिर्फ इन्हीं पाठकों के प्रतिनिधि बनकर रह गए और एक बड़ा तबका जो गरीबी, अत्याचार एवं व्यवस्था के दंश को झेल रहा है, मीडिया की नजर से दूर है। ऐसे में मीडिया की संवेदनात्मक ग्रहणशीलता पर सवालिया निशान लगते हैं तो आश्चर्य क्या है ?

मीडिया जैसे प्रभावी जनसंचार माध्यम की सारी विधाएं प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और इंटरनेट जब एक सुर से जनांदोलनों और जिंदगी के सवालों से मुंह चुराने में लगे हों तो विकल्प फिर उसी दर्शक और पाठक के पास है। वह अपनी अस्वीकृति से ही इन माध्यमों को दंडित कर सकता है। एक जागरूक समाज ही अपनी राजनीति, प्रशासन और जनमाध्यमों को नियंत्रित कर सकता है। पर क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं। इस द्वंद को भी समझने की जरूरत है कि बकवास करते न्यूज चैनल, घर फोड़ू सीरियल हिट हो जाते हैं और सही खबरों को परोसते चैनल टीआरपी की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं। वैचारिक भूख मिटाने और सूचना से भरे पूरे प्रकाशन बंद हो जाते हैं जबकि हल्की रूचियों को तुष्ट करने वाली पत्र- पत्रिकाओं का प्रकाशन लोकप्रियता के शिखर पर है। ये कई सवाल हैं जिनमें इस संकट के प्रश्न और उत्तर दोनों छिपे हैं। यह अकारण नहीं है देश की सर्वाधिक बिकनेवाली पत्रिका को साल में दो बार सेक्स हैबिट्स पर सर्वेक्षण छापने पड़ते हैं। क्या इसके बाद यह कहना जरूरी है कि जैसा समाज होगा वैसी ही राजनीति और वैसा ही उसका मीडिया। जाहिर तौर पर इन बेहद प्रभावशाली माध्यमों के इस्तेमाल की शैली हमने अभी विकसित नहीं की है। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि – सस्ते में न तो झूठ को पढ़िए ना ही उसे खरीदिए। खबरों की नीलामी के दौर में अखबारों के दाम प्रतिस्पर्धा के चलते कम हो रहे हैं तो उनकी प्रामणिकता भी कम हो रही है। लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव में जैसी अश्वलीलता का प्रर्दशन मीडिया ने खबरों को बेचकर किया है उसकी पूरी दुनिया में आज चर्चा हो रही है। ऐसे में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दम भरने वाले मीडिया ने आने वाली पीढ़ियों के सामने जो मिशाल पेश की है उसे न सिर्फ लोकतंत्र विरोधी, जनविरोधी कहा जाएगा बल्कि इतिहास में यह प्रसंग एक काले अध्याय के रूप में ही दर्ज किया जाना चाहिए। हमारी खामोशी ने इस पूरे पापाचार पर मुहर भी लगा दी है, लेकिन गर सबक की बात की जाए तो, सबक तो हमने कुछ भी नहीं सीखा है। हम तो भ्रष्टाचार के संस्थानीकरण पर मुग्ध हैं। पैकेज के इस खेल ने हमारे चेहरों पर जो कालिख पोती है उसे साफ करने में हमें बहुत दिन लगेंगें।

शुक्रवार, 22 मई 2009

रमन राज में रमी भाजपा

सत्ता और संगठन के तालमेल से रचा इतिहास
राजनीति में जब सारा कुछ इतना अस्थाई और क्षणभंगुर है तो आखिर छत्तीसगढ़ भाजपा और रमन सिंह का ऐसा क्या करिश्मा है कि जनता का प्यार एक स्थाई विश्वास में बदल गया है। वह क्या जादू है जिसने लगातार छः साल से राज्य की राजनीति में हर स्तर के हुए चुनावों में डा. रमन सिंह के प्रति अपना भरोसा जताया है। वह तब जब इस नवगठित राज्य का राजनीतिक अतीत इसे ऐसी आजादी नहीं देता। छत्तीसगढ़ के इस इलाके के भरोसे ही संयुक्त मध्यप्रदेश में कांग्रेस अपनी सरकारें बनाती रही। राज्य की पहली सरकार भी कांग्रेस ने बनाई। नेताओं और संगठन की नजर से भी कांग्रेस का इस इलाके में एक खास आधार रहा है। किंतु डा. रमन सिंह जिन्हें उनके सर्मथक राज्य के प्रथम निर्वाचित मुख्यमंत्री के रूप में संबोधित करते हैं, की चुनावी सफलताएं पूरे देश में चर्चा का कारण बन गई हैं।
बावजूद इसके डा. रमन इन सफलताओं का श्रेय लेने के उत्सुक नहीं दिखते, उनकी यह विनम्रता ही उन्हें अपने समकालीन नेताओं के बीच यशस्वी बनाती है। वे राज्य में आज छः साल के बाद भी जनता के विश्वासभाजन बने हुए हैं। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में जब वे पिछली लोकसभा के परिणामों को दोहराते हुए दिखते हैं तो यह लगता है कि यह सिर्फ संयोग और भाग्य का मामला नहीं है। वे हाल में ही विधानसभा के चुनावों में 50 सीटें जीते, अपने पिछले चुनाव में भी उनके पास 50 ही विधायक थे। यानि दोनों चुनावों में बराबर सीटें। इसी का दुहराव लोकसभा में हुआ, 10 सीटें 2004 में जीतीं तो 2009 में भी 10 सीटें जीतकर जनता ने उनका मान बनाए रखा है। यह एक गंभीर विश्लेषण का मामला है कि एक नवसृजित राज्य में जब जनआकाक्षाएं उफान पर होती हैं। लोग अपना राज्य हासिल करने के नाते सपनों में रंग भरने के लिए उतावले दिखते हैं। ऐसे में राजनीतिक नेतृत्व को कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ता है। रमन सिंह ने न सिर्फ ये परीक्षाएं पास की वरन विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण होते दिखते हैं। आज के दौर में जब राजनेताओं और राजनीति के सामने विश्वसनीयता का गंभीर संकट है ऐसे ये साधारण नहीं है कि उन्होंने जनता के मन में अपने लिए एक खास जगह बना ली है। उनका भोलापन, सज्जनता, विनम्रता, नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता, राज्य आदिवासी,वनवासी और गरीब वर्ग के प्रति ध्यान में रखकर बनाई गयी योजनाएं डा. रमन सिंह को एक ऐसे ब्रांड में बदलती है जो भरोसे का ब्रांड है। विकास जिसकी प्रतिबद्धता है और राज्य की बेहतरी जिसका सपना। रमन सिंह का यह ब्रांड यूं ही तैयार नहीं होता, भरोसा और सहजता उसकी यूएसपी (यूनिक सेलिंग प्वाइंट) हैं।

भरोसे से जीते कठिन मुकाबलेः
यह करिश्मा अनायास घटित नहीं होता। रमन सिंह आज सत्ता और संगठन के बीच समन्वय की मिसाल बन गए हैं। आमतौर पर सफलताएं व्यक्ति में अहंकार का सृजन करती हैं और वह श्रेय लेने की दौड़ में लग जाता है। छत्तीसगढ़ भाजपा और मुख्यमंत्री दोनों के बीच का समन्वय, एक-दूसरे को शक्ति देते हुए चलना ही आज जनविश्वास का आधार है। यही कारण है लोकसभा के इस चुनाव में जहां भाजपा हारती दिख रही थी, वहां से भी उसे संबल मिला, जनविश्वास मिली। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय, रायगढ़ की एक बेहद कठिन सीट पर मुकाबले में थे। जहां कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में बढ़त पायी थी। स्वंय श्री साय, पत्थलगांव सीट से चुनाव हार गए थे, यह संगठन का आत्मविश्वास ही कहा जाएगा कि उसने अपने अध्यक्ष को पुनः रायगढ़ से मैदान में उतरा और तमाम अटकलों को खारिज करते हुए विजयश्री भी दिलाई। ऐसा ही विश्वास दुर्ग लोकसभा क्षेत्र में देखने को मिला पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और सांसद रहे ताराचंद साहू की बगावत से एक बड़ी चुनौती सामने थी लेकिन तमाम बेसुरी अपीलों, नारेबाजियों में आने के बजाए जनता ने भाजपा पर भरोसा जताया और भाजपा प्रत्याशी सरोज पाण्डेय को विजय मिली। दुर्ग एक ऐसे मैदान में बदल गया था जहां भाजपा समर्थक वोटों में गहरा बंटवारा था ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक इस सीट को भाजपा के खाते से बाहर मानकर चल रहे थे, किंतु समय ने साबित किया कि संगठन की एकजुटता और जनविश्वास ही अंततः निर्णायक शक्ति है। यही हाल बिलासपुर सीट का था जहां दिलीप सिंह जूदेव के मुकाबले कांग्रेस के दिग्गज नेता की धर्मपत्नी श्रीमती रेणु जोगी मुकाबले में थीं। छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद अजीत जोगी परिवार सभी चुनावों में विजयी रहा है। यह पहला चुनाव था जिसमें भाजपा संगठन ने अपने नेता दिलीप सिंह जूदेव को मैदान में उतार यह साबित किया कि वे राज्य के आज भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं। इसके साथ ही उस मिथक को भी तोड़ दिया कि जोगी परिवार राज्य में अविजित है।

सत्ता और संगठन का अनोखा समन्वयः
छत्तीसगढ़ शायद उन राज्यों में है जहां उसके गठन से ही सत्ता और संगठन का रिश्ता बेहतर रहा है। स्व.कुशाभाऊ ठाकरे, गोविंद सारंग, लखीराम जी अग्रवाल,पंढ़रीराव कृदत्त, लरंग साय जैसे संगठनकर्ताओं की आत्मा आज निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ भाजपा का ऐसा विकास देखकर सुख पाती होगी। संगठन और सरकार के मतभेद आजतक किसी रूप में सामने नहीं आए। इसका श्रेय निश्चय ही राज्य भाजपा के पदाधिकारियों और सरकार के मुखिया डा. रमन सिंह को जाता है। लगातार चुनावों की जीत लोगों में अहंकार और श्रेय लेने की होड़ जगाती है किंतु यहां मुखिया मुख सो चाहिए खानपान में एक का मुहावरा साकार होता दिखता है। सर्वश्री सौदान सिंह, रामप्रताप सिंह का नेतृत्व पार्टी के लिए ऐसे अवसर में बदल गया है कि आज केंद्रीय नेतृत्व भी छत्तीसगढ़ भाजपा की ओर बहुत आशा भरी निगाहों से देखता है। शायद यही कारण है भाजपा के सामने विपक्षी दल बौने साबित हो रहे हैं। विधानसभा चुनावों जहां भाजपा को 50 सीटें मिली थीं वही इस लोकसभा चुनाव में उसे 61 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली है। यानि संगठन के सतत प्रयासों से सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ कायम ही नहीं है वरन लगातार बढ़ रहा है।
यूं नहीं होता करिश्माः
राजनीति में करिश्मे यूं ही घटित नहीं होते इसके एक लंबी रणनीति और साधना की जरूरत होती है। छत्तीसगढ़ भाजपा के कार्यकर्ताओं की मेहनत और संगठन की रणनीति को रेखांकित किए बिना इस करिश्मे को समझना आसान नहीं है। यह बात लगभग मानी हुय़ी है कि डा. रमन सिंह स्वभाव से बहुत प्रचारप्रिय नहीं हैं। मुख्यमंत्री होने के नाते उनपर मीडिया फोकस रहता है किंतु वे स्वयं के प्रयास से प्रचारित होने का जतन करने वाले लोंगों में नहीं है। किंतु यह सौभाग्य ही कहा जाएगा कि उन्हें एक संगठन,ऐसा राज्य और ऐसी जनता मिली है जो उनकी इस सादगी, सदभाव भरे व्यवहार को बहुत पसंद करती है। वे इसीलिए आज अपने समकालीन नेताओं में सबसे आगे दिखने लगे हैं। छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है जहां की जनता बेहद सीधी-साधी, सदभाव से रहने वाली, बहुत प्रतिक्रिया न करते हुए आत्मसंतोष भरा जीवन जीने वाली है, साथ ही साथ निवासियों में धार्मिक भावना भी बहुत है। ऐसे लोगों को राजनीति के आज के छल-छद्म से अलग ऐसा नेतृत्व मिला जिसका आचरण राज्य की तासीर से मेल खाता है। डा. रमन सिंह की सफलता और जनता के उनपर भरोसे को इस नजर से भी देखा जाना चाहिए। इस भरोसे को आगे बढ़ाने में संगठन की रणनीति काम आयी। संगठन ने सरकार के कामकाज को जनता तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उसके परिणाम जाहिर तौर पर लाभकारी साबित हुए।

काम आई विकास की राजनीतिः
एक नया राज्य होने के कारण आम जन की आकांक्षाएं उफान पर थीं। संसाधनों की विपुलता के बावजूद एक पिछड़े क्षेत्र का तमगा इस इलाके पर लगा था। राज्य की सत्ता में आने के बाद भाजपा और उसके मुख्यमंत्री ने विकास को अपना एजेंडा बनाया। भावनात्मक नारेबाजी से अलग काम करने वाली सरकार का तमगा हासिल करने के लिए सरकार जुटी। सबसे पहले तो गरीब सर्मथक योजनाओं के माध्यम से सरकार ने जनता को भरोसा दिलाया कि आखिरी पंक्ति में खड़े लोग उसके एजेंडे में सबसे पहले हैं। तीन रूपए किलो चावल से लेकर आज अंत्योदय कार्ड पर एक रुपए किलो चावल एक ऐसी ही योजना साबित हुयी जिसने डा. रमन सिंह को चाउरवाले बाबा का प्यारा संबोधन दिलाया। चावल की योजना को लागू करने के लिए सरकार और संगठन ने एक दिन में एक साथ छत्तीसगढ़ के एक जिले को छोड़कर सबमें कार्यक्रम आयोजित किए, जिसके तहत इन जिला केंद्रों पर भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं ने चावल योजना की शुरूआत की। एक साथ एक छोटे से राज्य में इतने स्थानों पर हुए आयोजन ने एक ही दिन में इस योजना को गांव-गांव तक लोकप्रिय बना दिया। मीडिया ने इस उत्सव को कारपोरेट बांबिग की संज्ञा दी। इसी तरह गांव चलो-घर-घर चलो अभियान के भाजपा के कार्यकर्ता लगभग 20 हजार गांवों तक पहुंचे। अपनी विकास योजनाओं की जानकारी दी और यूपीए सरकार के खिलाफ माहौल बनाया। आमतौर सत्ता हासिल करने के बाद सरकारी मशीनरी तो काम करती है पर संगठन बैठ जाता है किंतु राज्य भाजपा ने सत्तारूढ़ दल होने के बावजूद अभियान जारी रखे। इसी तरह ग्राम सुराज अभियान के माध्यम से सरकार जनता के पास पहुंची। मुख्यमंत्री जब औचक किसी गांव में उतरकर आमजनता की बातें सुनते हैं तो इससे जनविश्वास तो बहाल होता ही है, सरकारी योजनाओं की वास्तविकता का भी पता चलता है। इसके बाद विकास यात्रा नाम से जो कार्यक्रम चलाया गया,वह भी मूलतः सरकारी आयोजन था जिसमें राज्य के मुख्यमंत्री ही नहीं उनके मंत्री भी अलग-अलग इलाकों में जाकर विकास योजनाओं की हकीकत मापते थे और जनता से सीधा संवाद करते थे। इससे जनता में एक काम करने और सतत संपर्क में रहने वाली सरकार की छवि तो बनी ही। विकास संचार के नए आयाम बने जिसमें जनता अपने नेता और सरकार से एक रिश्ता बना पा रही थी, सरकार को फीडबैक भी मिल ही रही थी। बाद में इस प्रयोग को इसी नाम से बिहार सरकार ने भी अपनाया। संसदीय सम्मेलनों के माध्यम से पार्टी काडर को जगाए और एकजुट रखने के प्रयास भी हुए। कुल मिलाकर सरकार एक काम करती हुई, भरोसा जगाती हुयी संस्था में बदलती नजर आयी,जिसके चलते भाजपा ने अपने परंपरागत वोट आधार से अलग भी अपना विस्तार किया। वह चाहे शहरी इलाके हों या सूदूर सरगुजा और बस्तर के वनवासी क्षेत्र। यह विस्तार भौगोलिक और सामाजिक दोनों था, जिससे पार्टी का आधार व्यापक होता नजर आ रहा है। शायद यही कारण है बहुजन समाज पार्टी जैसे दल बहुत ताकत झोंकने के बावजूद यहां बड़ी सफलताएं नहीं पा सके न ही कांग्रेस के स्टार प्रचारकों से पार्टी को बहुत मदद मिली। यही कारण है आज छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का संगठन काफी कमजोर हो गया है।

नक्सलवाद के खिलाफ प्रतिबद्धताः
नक्सलवाद के खिलाफ यह पहली ऐसी सरकार है, जो इतनी प्रखरता के साथ हर मोर्चे पर जूझ रही है। सिर्फ़ बढ़ती नक्सली घटनाओं का जिक्र न करें, तो राज्य सरकार की सोच नक्सलियों के खिलाफ ही रही है। डा. रमन सिंह की सरकार की इस अर्थ में सराहना ही की जानी चाहिए कि उसने राजकाज संभालने के पहले दिन से ही नक्सलवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबध्दता का ऐलान कर दिया था। राजनैतिक लाभ के लिए तमाम पार्टियां नक्सलियों की मदद और हिमायत करती आई हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। इन आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग डा. रमन सिंह की सरकार ने पहली बार नक्सलियों को उनके गढ़ में चुनौती देने का हौसला दिखाया है। राज्य सरकार की यह प्रतिबध्दता उस समय और मुखर रूप में सामने आई, जब श्री ओपी राठौर राज्य के पुलिस महानिदेशक बनाए गए। डा. रमन सिंह और श्री राठौर की संयुक्त कोशिशों से पहली बार नक्सलवाद के खिलाफ गंभीर पहल देखने में आई। वर्तमान डीजीपी विश्वरंजन की कोशिशों को भी उसी दिशा में देखा जाना चाहिए। होता यह रहा है कि नक्सल उन्मूलन के नाम पर सरकारी पैसे को हजम करने की कोशिशों से ज्यादा प्रयास कभी नहीं दिखे। पहली बार नक्सलियों को वैचारिक और मैदानी दोनों मोर्चों पर शिकस्त देने के प्रयास शुरू हुए हैं। यह अकारण नहीं है कि सलवा जुड़ूम का आंदोलन तो पूरी दुनिया में कुछ बुध्दिजीवियों के चलते निंदा और आलोचना का केंद्र बन गया किंतु नक्सली हिंसा को नाजायज बताने का साहस ये बुध्दिवादी नहीं पाल पाए। जब युध्द होते हैं, तो कुछ लोग अकारण ही उसके शिकार होते ही हैं। संभव है इस तरह की लड़ाई में कुछ निर्दोष लोग भी इसका शिकार हो रहे हों। लेकिन जब चुनाव अपने पुलिस तंत्र और नक्सल के तंत्र में करना हो, तो आपको पुलिस तंत्र को ही चुनना होगा। क्योंकि यही चुनाव विधि सम्मत है और लोकहित में भी। पुलिस के काम करने के अपने तरीके हैं और एक लोकतंत्र में होने के नाते उसके गलत कामों की आलोचना तथा उसके खिलाफ कार्रवाई करने के भी हजार हथियार भी हैं। क्योंकि पुलिस तंत्र अपनी तमाम लापरवाहियों के बावजूद एक व्यवस्था के अंतर्गत काम करता है, जिस पर समाज, सरकार और अदालतों की नजर होती है। प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की इसलिए तारीफ करनी पड़ेगी कि पहली बार उन्होंने इस 'छद्म जनवादी युध्द को राष्ट्रीय आतंकवाद की संज्ञा दी। इसका कारण यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी जिस 'विचार परिवार से जुड़ी है वह चाहकर भी माओवादी अतिवादियों के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकती। एक वैचारिक गहरे अंर्तविरोध के नाते भारतीय जनता पार्टी की सरकार राजनैतिक हानि सहते हुए भी माओवाद के खिलाफ ही रहेगी। यह बात कहीं न कहीं नक्सल प्रभावित इलाकों में डा. रमन सिंह के पक्ष में गयी। विधानसभा चुनावों में बस्तर की 12 में 11 सीटें जीतकर भाजपा ने साबित किया कि लोग आतंक के खिलाफ भाजपा की जंग के विश्वसनीय मानते हैं। इस लोकसभा चुनाव में भी कांकेर, सरगुजा और बस्तर की जीत यही कहती है।
भाजपा का रमन ब्रांडः
चुनाव के परिणामों के बाद यह विचार सबल हो उठा है भाजपा का डा. रमन ब्रांड आज सबसे लोकप्रिय है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह अगर अपनी सरकार के छः साल से अधिक का समय पूरा करने के बावजूद जनप्रिय बने हुए हैं, तो यह सोचना बहुत मौजूं है कि आखिर उनके व्यक्तित्व की ऐसी क्या खूबियां हैं, जिन्होंने उन्हें सत्ता के शिखर पर होने के बावजूद अलोकप्रियता के आसपास भी नहीं जाने दिया। देखा जाए तो डा. रमन सिंह एक मुख्यमंत्री से कहीं ज्यादा मनुष्य हैं। उनका मनुष्य होना उन सारे इंसानी रिश्तों और भावनाओं के साथ होना है, जिसके नाते कोई भी व्यक्ति वामन से विराट हो जाता है। मुख्यमंत्री बनने के पूर्व डा. रमन सिंह के व्यक्तित्व की तमाम खूबियां बहुज्ञात नहीं थीं। शायद उन्हें इन चीजों को प्रगट करने का अवसर भी नहीं मिला। वे कवर्धा में जरूर 'गरीबों के डाक्टर के नाम से जाने जाते रहे किंतु आज वे समूचे छत्तीसगढ़ के प्रिय डाक्टर साहब हैं। उनकी छवि इतनी निर्मल है कि वे बड़ी सहजता के साथ लोगों के साथ अपना रिश्ता बना लेते हैं। राजनेताओं वाले लटकों-झटकों से दूर अपनी सहज मुस्कान से ही वे तमाम किले इस तरह जीतते चले गए। सरकारी तंत्र की तमाम सीमाओं के बावजूद मुख्यमंत्री की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता। पहले दिन से ही उनके ध्यान में आखिरी पंक्ति पर खड़े लोग ही हैं। राज्य शासन की ज्यादातर योजनाएं इसी तबके को ध्यान में रखते हुए बनाई गईं। आदिवासियों को गाय-बैल, बकरी देने की बात हो, उन्हें चरण पादुका देने की बात हो, गरीब छात्राओं को साइकिल देने या पच्चीस पैसे में नमक और तीन रुपया किलो चावल सबका लक्ष्य अंत्योदय ही है। इस तरह की तमाम योजनाएं मुख्यमंत्री की दृष्टि और दृष्टिपथ ही साबित करती हैं। विकास की महती संभावनाओं के साथ आज भी पिछड़ेपन और गरीबी के मिले-जुले चित्र राज्य की सर्वांगीण प्रगति में बाधक से दिखते हैं। अमीर और गरीब के बीच की खाई इतनी गहरी है कि सरकार की अत्यंत सक्रियता के बिना विकास के पथ पर बहुत पीछे छूट गए लोगों को मुख्य धारा से जोड़ पाना संभव नहीं है। भूमि, वन, खनिज और मानव संसाधन की प्रचुरता के बावजूद यह राज्य बेहद चुनौतीपूर्ण है, जहां पर एक तरफ विकास की चौतरफा संभावनाएं दिखती हैं, तो दूसरी तरफ बहुत से घरों में न सिर्फ फाका होता है, बल्कि रोजगार की तलाश में नित्य पलायन हो रहा है। भूख, कुपोषण और महामारी जैसे दृश्य यहां बहुत आम हैं। इस दृश्य से निजात दिलाना राज्य भाजपा की एक बड़ी चुनौती है।

अब सपनों को सच करने की जिम्मेदारीः
एक नवंबर, 2000 को अपना भूगोल रचने वाला यह राज्य आज भी एक 'भागीरथ के इंतजार में है। छत्तीसगढ़ का भौगोलिक क्षेत्रफल 1, 35, 194 वर्गकिलोमीटर है, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का 4.1 प्रतिशत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से छत्तीसगढ़ देश के सोलह राज्यों से बड़ा है। यह कई छोटे-छोटे राष्ट्रों से भी विशाल है। छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल पंजाब, हरियाणा और केरल इन तीनों राज्यों के योग से ज्यादा है। जाहिर है इस विशाल भूगोल में बसने वाली जनता छत्तीसगढ़ की सत्ता पर बैठे मुखिया की तरफ बहुत आशा भरी निगाहों से देखती है। इन अर्थों में डा. रमन सिंह के पास एक ऐसी कठिन जिम्मेदारी है, जिसका निर्वहन उन्हें करना ही होगा। इस विशाल भूगोल में सालों साल से रह रही आबादी अपनी व्यापक गरीबी और पिछड़ेपन से मुक्त होने का इंतजार कर रही है। भाजपा और उसके नेता ने राज्य की जनता ने लगातार भरोसा जताते हुए बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। विरासत में मिली इन तमाम चुनौतियों की तरफ देखना और उनके जायज समाधान खोजना किसी भी राजसत्ता की जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को इतिहास की इस घड़ी में यह अवसर मिला है कि वे इस वृहतर भूगोल को उसकी तमाम समस्याओं के बीच एक नया आयाम दे सकें। सालों साल से न्याय और विकास की प्रतीक्षा में खड़ी 'छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा के हर क्षण का रचनात्मक उपयोग करें। बहुत चुनौतीपूर्ण और कंटकाकीर्ण मार्ग होने के बावजूद उन्हें इन चुनौतियों को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि सपनों को सच करने की जिम्मेदारी इस राज्य के भूगोल और इतिहास दोनों ने उन्हें दी है। जाहिर है वे इन चुनौतियों से भागना भी नहीं चाहेंगे। फिलहाल तो राज्य की आम जनता इस विजय पर उन्हें शुभकामनाओं के सिवा क्या दे सकती है।

क्रांति के नाम पर मौत का तांडव

दो दिन के बंद के आह्वान से एक बार फिर ठहर गयी जिंदगी
पूरा देश के लोकतंत्र के महापर्व से निकले अमृत के पान में व्यस्त है, वहीं छत्तीसगढ़ के सूदूर इलाकों में जिंदगी एक बार फिर ठहर गयी है। नक्सलियों के 20 और 21 मई के बंद के आह्ववान से इस इलाके में सन्नाटा पसरा हुआ है। मीडिया के हवाले से जो खबरें मिल रही हैं उनसे पता चलता है कि बंद के चलते ट्रेन, सड़क यातायात प्रभावित हुआ है। सारे रास्ते बंद हैं और तमाम छात्र अपनी परीक्षाओं से भी वंचित हो गए हैं। यह जनयुद्ध जिनके नाम पर लड़ा जा रहा है उन्हें ही सबसे ज्यादा दर्द दे रहा है। दण्डकारण्य बंद का आह्वान नक्सलियों ने इस बार अपने जेल में बंद साथियों की रिहाई और जेल में उन्हें राजनैतिक बंदियों के समान सुविधाएं देने के लिए किया है। वे अपने इन साथियों को क्रांतिकारी कह कर संबोधित करते हैं और चाहते हैं कि इन्हें राजनीतिक बंदी माना जाए। बंदूक के माध्यम से क्रांति का सपना पाले नक्सलियों ने इस बार अपनी पंचायत में नाटक मंडलियों,गीतों और सभाओं के माध्यम से अपनी बात रखने की कोशिश की है। बस्तर इलाके में बोली जाने वाली हल्बी और गोंडी भाषा में रचे गए गीतों में सलवा जुडूम को निशाना बनाया गया है। जिससे पता चलता है कि सलवा जूडूम इस समय नक्सलियों का सबसे बड़ा दर्द है।

इस बंद के पहले ही दिन उन्होंने किरंदुल- विशाखापट्टनम की रेल पटरी पचास मीटर तक उखाड़ ली, खैर रेल प्रशासन ने पहले ही सेवा बंद के मद्देनजर स्थगित कर रखी थी सो हादसा नहीं हुआ। बारूदी सुरंगें तो सड़कों पर उनका एक बड़ा हथियार हैं हीं। सो दहशत के चलते सड़क परिवहन पूरी तरह दो दिनों से ठप पड़ा है। जगदलपुर- हैदराबाद राजमार्ग तो प्रभावित हुआ ही, बसें आंतरिक क्षेत्रों में भी नहीं चलीं। छ्त्तीसगढ़ का यह इलाका इसी तरह की एक अंतहीन पीड़ा झेल रहा है। लाशें गिर रही हैं। आदिवासी समाज इस खून की होली का शिकार हो रहा है। नक्सली जिनका उद्धार करने के दावे से इस इलाके में आए थे, वही आदिवासी समाज आज बड़ी मात्रा में नक्सलियों या पुलिस की गोली का शिकार हो रहा है। सुरक्षाबलों के जवान भी शहीद हो रहे हैं।

बावजूद इसके हमारी सरकारें न जाने क्यों नक्सलवाद के खिलाफ एक समन्वित अभियान छेड़ने में असफल साबित हो रही हैं। राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने या उसे नियंत्रित करने की आकांक्षाएं किसी भी आंदोलन का अंतिम हेतु होती हैं।

देश का नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं।

नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है। छोटे-छोटे इलाकों में बंदूकों के बल पर अपनी सत्ताएं कायम कर किसी भी आंदोलन की उपलब्धि नहीं कही जा सकती। क्योंकि तमाम अराजक तत्व और माफिया भी कुछ इलाकों में ऐसा करने में सर्मथ हो जाते हैं। सशस्त्र संघर्ष में भी जनसंगठनों का अपना योगदान होता है। ऐसे में बहुत संभव है कि नेपाल के माओवादियों की तरह अंततः नक्सल आंदोलन को मुख्यधारा की राजनीति में शिरकत करनी पड़ेगी। पूर्व के उदाहरणों में स्व. विनोद मिश्र के गुट ने एक राजनीतिक पार्टी के साथ पर्दापण किया था तो नक्सल आंदोलन के सूत्रधार रहे कनु सान्याल भी हिंसा को नाजाजय ठहराते नजर आए। क्रांतिकारी वाम विकल्प की ये कोशिशें साबित करती हैं कि आंतक का रास्ता आखिरी रास्ता नहीं है। नक्सली संगठनों और स्वयंसेवी संगठनों के बीच के रिश्तों को भी इसी नजर से देखा जाना चाहिए। महानगरों में नक्सली आंदोलन से जुड़े तमाम कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की गयी है। वे जनसंगठनों का निर्माण कर सक्रिय भी हो रहे हैं।

संसदीय राजनीति अपनी लाख बुराइयों के बावजूद सबसे बेहतर शासन व्यवस्था है। ऐसे में किसी भी समूह को हिंसा के आधार पर अपनी बात कहने की आजादी नहीं दी जा सकती। नक्सलवाद आज भारतीय राज्य के सामने एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में एक साझा रणनीति बनाकर सभी प्रभावित राज्यों और केंद्र सरकार इसके खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी। जिसमें यह साफ हो कि या तो नक्सल संगठन लोकतंत्र के माध्यम से अपनी बात कहने के लिए आगे आएं, हिंसा बंद करें और इसी संसदीय प्रणाली में अपना हस्तक्षेप करें। अन्यथा किसी भी लोकतंत्र विरोधी आवाज को राज्य को शांत कर देना चाहिए। देश की शांतिप्रिय आदिवासी,गरीब और जीवनसंर्घषों से जूझ रही जनता के खून से होली खेल रहे इस आतंकी अभियान का सफाया होना ही चाहिए। यह कितना अफसोस है कि सलवा जुडूम के शिविरों में घुसकर उनके घरों में आग लगाकर उन्हें मार डालने वाले हिंसक नक्सलियों को भी इस देश में पैरवीकार मिल जाते हैं। वे निहत्थे आदिवासियों की, पुलिस कर्मियों की हत्या पर आंसू नहीं बहाते किंतु जेल में बंद अपने साथियों के मानवाधिकारों के चिंतित हैं। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र है तभी असहमति का अधिकार सुरक्षित है। आप राज्य के खिलाफ धरने-प्रदर्शन कर रहे हैं। अदालतें है , जहां आप मानवाधिकार की बात कर सकते हैं। क्या आपके कथित क्रांतिकारी राज्य में आपके विरोधी विचारों को इतनी आजादी रहेगी। ऐसे में सभी लोकतंत्र में आस्था रखने वाले लोंगों को यह सोचना होगा कि क्या नक्सली हमारे लोकतंत्र के लिए आज सबसे बड़ा खतरा नहीं हैं। सत्ता में बैठी सरकारों को भी सोचना होगा कि क्या हम अपने निरीह लोगों का खून यूं ही बहने देंगें। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की गिरफ्तारी पर हायतौबा मचाने वाले क्या उन हजारों-हजार आदिवासियों की निर्मम हत्याओं पर भी कभी अपनी जुबान खोलेंगें। समस्या को इसके सही संदर्भ में समझते हुए भारतीय राज्य को ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे सूदूर वनवासी आदिवासी क्षेत्रों तक सरकार का तंत्र पहुंचे वहीं दूसरी ओर हिंसा के पैरोकारों को कड़ी चुनौती भी मिले। हिंसा और लोकतंत्र विरोधी विचार किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है। इस सच को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना बेहतर होगा। वरना हमारे लोकतंत्र को चोटिल करने वाली ताकतें ऐसी ही अराजकता का सृजन करती रहेंगीं।

मंगलवार, 19 मई 2009

ये युवा नेतृत्व है या राजनैतिक उत्तराधिकार

इस चुनाव की जिस एक बड़ी खूबी को राजनीतिक क्षेत्र और मीडिया में महिमा मंडित किया जा रहा है वह है युवा नेतृत्व की बड़ी विजय। राजनीति में युवाओं की बढ़ती भागीदारी से देश बल्ले-बल्ले है। कहा जा रहा है कि इस चुनाव में देश के 4.30 करोड़ मतदाता ऐसे थे जिन्होंने पहली बार वोट डाला और देश के युवाओं के जो फैसला सुनाया है उसके चलते 15 वीं लोकसभा में युवा सांसदों की संख्या बढ़ी है। इसके चलते लोकसभा में 226 ऐसे सांसद चुनकर आए हैं जिनकी आयु 50 साल से कम है।

दृश्य को निकट से देखें तो युवा नेतृत्व के नाम शोर जरूर मचाया जा रहा है पर इस नाम पर जो चेहरे बताए और जताए जा रहे हैं उसे क्या राजनीतिक रूप से वास्तविक युवा नेतृत्व कहना सही होगा। सही मायने में इनमें ज्यादातर राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं, जो आज नहीं तो कल परिवार की विरासत को संभालने के लिए आगे आते ही। यह बहुत खतरनाक संकेत है, जिसमें आम भारतीय युवा के लिए राजनीति के गलियारे तंग होते जा रहे हैं - बशर्ते वह किसी राजनीतिक परिवार से न आता हो। राजनीति में जनता के बीच संघर्ष करके अपनी जगह बनाने वाले इस सूची में कहां दिखते हैं। इनमें ज्यादातर वे नाम हैं जो विदेशों में पढ़े हैं, युवा अवस्था में ही वे करोड़पति हैं, जनांदोलनों, राजनीतिक प्रशिक्षण से उनका कोई नाता नहीं है, वे सिर्फ बड़े राजनीतिक परिवार के उत्तराधिकारी हैं सो उन्हें बड़े दलों ने टिकट देने से लेकर जिताने की जिम्मेदारी उठाई। इसे भारतीय राजनीति में युवाओं की वापसी की संज्ञा देना या किसी परिवर्तन का वाहक मानना बड़ी भूल होगी। संभव है इस सूची में कुछ ऐसे लोग भी हों जो कुछ नायाब कर जाएं, इतिहास रच जाएं, किंतु आज की तारीख में मिली उनकी उपलब्धि को भारतीय आम नौजवान के खाते में दर्ज करना इतिहास को विकृत करने जैसा है। मामला इतना सीधा नहीं है, यह उपलब्धि सही मायनों राजनीतिक परिवारों की विरासत का स्थानांतरण या विस्तार से ज्यादा नहीं है। साथ ही साथ कड़वा सच यह भी है कि यह उस क्षेत्र के किसी युवा कार्यकर्ता के हक को मारकर पायी गयी उपलब्धि है। यह बात सोचने की है कि जो सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता किसी आशा-विश्वास के साथ राजनीति में आता है, सपने उससे संर्घष करवाते हैं। वह अपने दल के लिए एक या दो दशक की अपनी जवानी को झोंक देता है किंतु जब उसका अवसर आता है तो उसके बड़े नेता का जवान बेटा विदेश से पढ़कर लौटता है और उसका हक मार लिया जाता है। इसी दृश्य को आज महिमा मंडित किया जा रहा है। क्या राजनीति के सितारे अब राजनीतिक घरानों से ही आएंगें। महंगी होती राजनीति में क्या आम नौजवान के लिए अब कोई जगह नहीं बची है - इस विषय पर भी सोचना होगा।

कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी की बात न भी की जाए तो इस दल से जीते राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट, राजस्थान के ताकतवर मिर्धा परिवार की बेटी डा. ज्योति मिर्धा, सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त, मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा, स्व.ओपी जिंदल के पुत्र नवीन जिंदल, हरियाणा के मुख्यमंत्री के बेटे दीपेंद्र हुड्डा, दिल्ली की मुख्यमंत्री के बेटे संदीप दीक्षित, स्व. ललित माकन के परिवार से जुड़े अजय माकन, एबीए गनी खां चौधरी के परिवार से मौसम नूर, माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुभाष यादव के बेटे अरूण यादव, आंध्र के मुख्यमंत्री के बेटे जेएम रेड्डी, नारायण राणे के बेटे नीलेश राणे, स्व. जीतेंद्र प्रसाद के बेटे जतिन प्रसाद, हेमवतीनंदन बहुगुणा के बेटे विजय बहुगुणा, हरियाणा से जीती श्रुति चौधरी युवा नेता हैं या नहीं किंतु राजनीतिक उत्तराधिकारी तो जरूर हैं। कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा ने भी इस परिपाटी को आगे बढ़ाया है। उसके सितारे वरूण गांधी, कर्नाटक के मुख्यमंत्री के बेटे राधवेंद्र, हिमाचल के मुख्यमंत्री के बेटे अनुराग ठाकुर, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे दुष्यंत सिंह कुछ ऐसे नाम हैं जो लोकसभा पहुंचे हैं। क्षेत्रीय दलों में तो परिवार और पार्टी का अंतर ही खत्म हो गया है। मुलायम के बेटे अखिलेश यादव और भतीजे धर्मेंद्र यादव चुनाव जीते हैं। अखिलेश दो सीटों से लड़े और जीते अब यह खाली हो रही एक सीट कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह को दी जा रही है यानि यहां भी कार्यकर्ता की जगह नेता पुत्र को मौका। अजीत सिंह ने भी अपने बेटे जयंत चौधरी को मथुरा से लोकसभा भिजवा ही दिया है। करूणानिधि के परिवार से भी बेटे-बेटी दोनों सांसद हो गए हैं। राकांपा से शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले, पीए संगमा की बेटी भी संसद में पहुंच गयी हैं तो छगन भुजबल के बेटे समीर भुजबल भी चुनाव जीत गए हैं। युवा भारत की इसी तस्वीर का महिमामंडन मीडिया से लेकर राजनीतिक दल कर रहे हैं। क्या वास्तव में यह राजनीति में नौजवानों की बढ़त है। क्या यह लोकतंत्र का विस्तार है या उसका कुछ परिवारों में सिमट जाना है। बावजूद इसके इस अंधेरे में भी रौशनी की किरणें भी हैं, जनता के बीच संगठन के काम करके आगे आए युवा भी हैं जो कम हैं किंतु हैं महत्वपूर्ण, जिनमें कांग्रेस की मीनाक्षी नटराजन, मनीष तिवारी, प्रेमचंद गुड्डू, भाजपा के शाहनवाज हुसैन, राकेश सिंह, मधुसूदन यादव का नाम लिया जा सकता है।

ऐसे में यह सोचना बहुत जरूरी है कि आम भारतीय युवा के लिए राजनीति में किस तरह अवसर बनाए जा सकते हैं। ऐसा न हुआ तो जो चलन चल पड़ा है उसमें भारतीय राजनीति कुछ परिवारों की बंधक बनकर रह जाएगी। जाहिर तौर यह लोकतंत्र के लिए शुभ तो नहीं होगा। अब जबकि नई लोकसभा में 25 से 40 वर्ष की आयु वर्ग के 79 सांसद चुनकर लोकसभा में आए हैं तो यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वे भले ही किसी भी राजनीतिक घराने से हों वे राजनीति में नए प्रयोगों के हमराही बनें। राहुल गांधी जिस युवा राजनीति की कल्पना कर रहे हैं उसमें लोकमंगल की भावनाएं भरकर ही सही परिणाम पाए जा सकते हैं। सपने जगाना आसान है किंतु उनमें रंग भरना कठिन। सत्ता में पुनः लौटी कांग्रेस के लिए यह चुनौती और अवसर दोनों है देखना है युवा ब्रिगेड के नेता राहुल अपनी टीम का कैसा रचनात्मक इस्तेमाल कर पाते हैं।

सोमवार, 18 मई 2009

मीडिया की हिंदी और हिंदी का मीडिया

मीडिया की दुनिया में इन दिनों भाषा का सवाल काफी गहरा हो गया है। मीडिया में जैसी भाषा का इस्तेमाल हो रहा है उसे लेकर शुध्दता के आग्रही लोगों में काफी हाहाकार व्याप्त है। चिंता हिंदी की है और उस हिंदी की जिसका हमारा समाज उपयोग करता है। बार-बार ये बात कही जा रही है कि हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट से हिंदी अपना रूप-रंग-रस और गंध खो रही है। सो हिंदी को बचाने के लिए एक हो जाइए।

हिंदी हमारी भाषा के नाते ही नहीं,अपनी उपयोगिता के नाते भी आज बाजार की सबसे प्रिय भाषा है। आप लाख अंग्रेजी के आतंक का विलाप करें। काम तो आपको हिंदी में ही करना है, ये मरजी आपकी कि आप अपनी स्क्रिप्ट देवनागरी में लिखें या रोमन में। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा ही लेती है। उड़िया न जानने के आरोप झेलनेवाले नेता नवीन पटनायक भी हिंदी में बोलकर ही अपनी अंग्रेजी न जानने वाली जनता को संबोधित करते हैं। इतना ही नहीं प्रणव मुखर्जी की सुन लीजिए वे कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते क्योंकि उन्हें ठीक से हिंदी बोलनी नहीं आती। कुलमिलाकर हिंदी आज मीडिया, राजनीति,मनोरंजन और विज्ञापन की प्रमुख भाषा है।

हिंदुस्तान जैसे देश को एक भाषा से सहारे संबोधित करना हो तो वह सिर्फ हिंदी ही है। यह हिंदी का अहंकार नहीं उसकी सहजता और ताकत है। मीडिया में जिस तरह की हिंदी का उपयोग हो रहा है उसे लेकर चिंताएं बहुत जायज हैं किंतु विस्तार के दौर में ऐसी लापरवाहियां हर जगह देखी जाती हैं। कुछ अखबार प्रयास पूर्वक अपनी श्रेष्टता दिखाने अथवा युवा पाठकों का ख्याल रखने के नाम पर हिंग्लिश परोस रहे हैं जिसकी कई स्तरों पर आलोचना भी हो रही है। हिंग्लिश का उपयोग चलन में आने से एक नई किस्म की भाषा का विस्तार हो रहा है। किंतु आप देखें तो वह विषयगत ही ज्यादा है। लाइफ स्टाइल, फिल्म के पन्नों, सिटी कवरेज में भी लाइट खबरों पर ही इस तरह की भाषा का प्रभाव दिखता है। चिंता हिंदी समाज के स्वभाव पर भी होनी चाहिए कि वह अपनी भाषा के प्रति बहुत सम्मान भाव नहीं रखता, उसके साथ हो रहे खिलवाड़ पर उसे बहुत आपत्ति नहीं है। हिंदी को लेकर किसी तरह का भावनात्मक आधार भी नहीं बनता, न वह अपना कोई ऐसा वृत्त बनाती है जिससे उसकी अपील बने। हिंदी की बोलियां इस मामले में ज्यादा समर्थ हैं क्योंकि उन्हें क्षेत्रीय अस्मिता एक आधार प्रदान करती है। हिंदी की सही मायने में अपनी कोई जमीन नहीं है। जिस तरह भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, बधेली, गढ़वाली, मैथिली,बृजभाषा जैसी तमाम बोलियों ने बनाई है। हिंदी अपने व्यापक विस्तार के बावजूद किसी तरह का भावनात्मक आधार नहीं बनाती। सो इसके साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ किसी का दिल भी नहीं दुखाती। मीडिया और मनोरंजन की पूरी दुनिया हिंदी के इसी विस्तारवाद का फायदा उठा रही है किंतु जब हिंदी को देने की बारी आती है तो ये भी उससे दोयम दर्जे का ही व्यवहार करते हैं। यह समझना बहुत मुश्किल है कि विज्ञापन, मनोरंजन या मीडिया की दुनिया में हिंदी की कमाई खाने वाले अपनी स्क्रिप्ट इंग्लिश में क्यों लिखते हैं। देवनागरी में किसी स्क्रिप्ट को लिखने से क्या प्रस्तोता के प्रभाव में कमी आ जाएगी, फिल्म फ्लाप हो जाएगी या मीडिया समूहों द्वारा अपने दैनिक कामों में हिंदी के उपयोग से उनके दर्शक या पाठक भाग जाएंगें। यह क्यों जरूरी है कि हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी के स्वनामधन्य लेखक, पत्रकार एवं स्तंभकारों के तो लेख अनुवाद कर छापे जाएं उन्हें मोटा पारिश्रमिक भी दिया जाए किंतु हिंदी में मूल काम करने वाले पत्रकारों को मौका ही न दिया जाए। हिंदी के अखबार क्या वैचारिक रूप से इतने दरिद्र हैं कि उनके अखबारों में गंभीरता तभी आएगी जब कुछ स्वनामधन्य अंग्रेजी पत्रकार उसमें अपना योगदान दें। यह उदारता क्यों। क्या अंग्रेजी के अखबार भी इतनी ही सदाशयता से हिंदी के पत्रकारों के लेख छापते हैं।

पूरा विज्ञापन बाजार हिंदी क्षेत्र को ही दृष्टि में रखकर विज्ञापन अभियानों को प्रारंभ करता है किंतु उसकी पूरी कार्यवाही देवनागरी के बजाए रोमन में होती है। जबकि अंत में फायनल प्रोडक्ट देवनागरी में ही तैयार होना है। गुलामी के ये भूत हमारे मीडिया को लंबे समय से सता रहे हैं। इसके चलते एक चिंता चौतरफा व्याप्त है। यह खतरा एक संकेत है कि क्या कहीं देवनागरी के बजाए रोमन में ही तो हिंदी न लिखने लगी जाए। कई बड़े अखबार भाषा की इस भ्रष्टता को अपना आर्दश बना रहे हैं। जिसके चलते हिंदी कोई सरमायी और सकुचाई हुई सी दिखती है। शीर्षकों में कई बार पूरा का शब्द अंग्रेजी और रोमन में ही लिख दिया जा रहा है। जैसे- मल्लिका का BOLD STAP या इसी तरह कौन बनेगा PM जैसे शीर्षक लगाकर आप क्या करना चाहते हैं। कई अखबार अपने हिंदी अखबार में कुछ पन्ने अंग्रेजी के भी चिपका दे रहे हैं। आप ये तो तय कर लें यह अखबार हिंदी का है या अंग्रेजी का। रजिस्ट्रार आफ न्यूजपेपर्स में जब आप अपने अखबार का पंजीयन कराते हैं तो नाम के साथ घोषणापत्र में यह भी बताते हैं कि यह अखबार किस भाषा में निकलेगा क्या ये अंग्रेजी के पन्ने जोड़ने वाले अखबारों ने द्विभाषी होने का पंजीयन कराया है। आप देखें तो पंजीयन हिंदी के अखबार का है और उसमें दो या चार पेज अंग्रेजी के लगे हैं। हिंदी के साथ ही आप ऐसा कर सकते हैं। संभव हो तो आप हिंग्लिश में भी एक अखबार निकालने का प्रयोग कर लें। संभव है वह प्रयोग सफल भी हो जाए किंतु इससे भाषायी अराजकता तो नहीं मचेगी। हिंदी में जिस तरह की शब्द सार्मथ्य और ज्ञान-विज्ञान के हर अनुशासन पर अपनी बात कहने की ताकत है उसे समझे बिना इस तरह की मनमानी के मायने क्या हैं। मीडिया की बढ़ी ताकत ने उसे एक जिम्मेदारी भी दी है। सही भाषा के इस्तेमाल से नई पीढ़ी को भाषा के संस्कार मिलेंगें। बाजार में हर भाषा के अखबार मौजूद हैं, मुझे अंग्रेजी पढ़नी है तो मैं अंग्रेजी के अखबार ले लूंगा, वह अखबार नहीं लूंगा जिसमें दस हिंदी के और चार पन्ने हिंदी के भी लगे हैं। इसी तरह मैं अखबार के साथ एक रिश्ता बना पाता हूं क्योंकि वह मेरी भाषा का अखबार है। अगर उसमें भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है तो क्या जरूरी है मैं आपके इस खिलवाड़ का हिस्सा बनूं। यह दर्द हर संवेदनशील हिंदी प्रेमी का है। हिंदी किसी जातीय अस्मिता की भाषा भले न हो यह इस महादेश को संबोधित करनेवाली सबसे समर्थ भाषा है। इस सच्चाई को जानकर ही देश का मीडिया, बाजार और उसके उपादान अपने लक्ष्य पा सकते हैं। क्योंकि हिंदी की ताकत को कमतर आंककर आप ऐसे सच से मुंह चुरा रहे हैं जो सबको पता है।

कौन कहता है नष्ट हो गए हैं क्षेत्रीय दल



लोकसभा के चुनाव परिणाम आते ही समूचे मीडिया का एक अतिसरलीकृत संदेश है कि क्षेत्रीय दल खत्म हो गए हैं और राष्ट्रीय पार्टियां आगे आ गयी हैं। 543 सदस्यों की लोकसभा में कांग्रेस, भाजपा और वामदलों के कुल 342 सदस्य लोकसभा में जीतकर पहुंचे हैं। जबकि 201 सांसद क्षेत्रीय दलों के ही हैं। ऐसे में यह कहना कि क्षेत्रीय पार्टियां नष्ट हो गयी हैं, मामले को बिना विश्लेषण के समझना है। आज भी तमिलनाडु, बिहार, उप्र, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों से ज्यादा सीटें बटोरी हैं।

उत्तर प्रदेश का मैदान आज भी सपा-बसपा के बीच बंटा हुआ हैं जहां से 80 लोकसभा सदस्य जीत कर आते हैं। इस राज्य में सपा को 23 और कल्याण सीट की एक सीट लेकर 24 सीटें हासिल हुयी हैं। जबकि बसपा को 21 सीटें मिली हैं, अजीत सिंह की रालोद को पांच सीटें मिली हैं। इस तरह उप्र में क्षेत्रीय दलों को पचास सीटें मिली हैं। ऐसे में कांग्रेस के उप्र में थोड़े सुधरे प्रदर्शन को उसी नजर से देखना चाहिए। यही हाल दूसरे बड़े राज्य बिहार का है जहां क्षेत्रीय दलों का प्रर्दशन उल्लेखनीय है। वहां जनता दल यू और राजग को जोड़कर चौबीस सीटें मिली हैं। यहां भी राष्ट्रीय दल पीछे हैं। इसी तरह बीजू जनता दल की उड़ीसा में भारी विजय हुयी है। जबकि वे इस बार भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़े हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत एक क्षेत्रीय दल की विजय है। उन्हें राज्य में 19 सीटें मिली हैं। जो एक ऐतिहासिक सफलता के रूप में निरूपित की जा रही है। इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना को 11 और राकांपा को 09 सीटें मिली हैं। जो मिलकर बीस होती हैं। पंजाब में जरूर अकाली दल को झटका लगा पर उसे चार सीटें मिली हैं। तमिलनाडु में डीएमके को 18,अन्नाद्रमुक को 9 सीटें मिली हैं ये दोनों क्षेत्रीय दल ही हैं। कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस को तीन सीटें मिली हैं, राज्य की सत्ता में भी इसी पार्टी का राज है। कुल मिलाकर कुछ दलों के नुकसान को देखते हुए यह कहना गलत है कि क्षेत्रीय दलों का अंत हो गया है। जो क्षेत्रीय दल जनता के साथ वादाखिलाफी न करते हुए सही दिशा में काम कर रहे हैं उन्हें आज भी जनता का प्यार हासिल हो रहा है। नीतिश कुमार और नवीन पटनायक इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। इसी तरह क्षेत्रीय दलों के जिन नेताओं ने सिर्फ अवसरवाद के आधार पर राजनीति की उन्हें जनता ने सबक सिखाया है। ओमप्रकाश चौटाला, रामविलास पासवान, लालूप्रसाद यादव, मायावती को झटका लगना यही बताता है। यहां यह देखना रोचक है कि क्षेत्रीय दल अपनी जमीन का लगातार विस्तार करते रहे हैं। कांग्रेस को आज भी लोकसभा में कुल 206 सीटें हासिल हैं। यानि बहुमत से वह 70 सीटें कम है। जाहिर तौर पर राष्ट्रीय दलों को अभी लंबा रास्ता तय करना है। कांग्रेस आज भी कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन को साथ लेकर ही सफलता तय कर पाई है तो भाजपा का आज भी कई राज्यों में खाता ही नहीं खुला है।

वास्तव में समस्या क्षेत्रीय दल नहीं समस्या क्षेत्रीय सोच और अवसरवाद है। जो राष्ट्रीय दलों में भी कम नहीं है। भारत जैसे बड़े देश में रहते हुए हमारी राजनीति को जिस तरह के अखिलभारतीय चरित्र की जरूरत है, कमी उसकी है। सो पहली आवश्यक्ता अखिलभारतीय चरित्र को बचाने की है। जरूरी यह है कि हम अपनी राजनीति में अखिलभारतीयता की अभिव्यक्ति दें। जिससे देश को सर्वोपरि मानने की भावना का विकास हो। इससे देश में एक ऐसी राजनीतिक शैली का विकास होगा जहां सब साथ मिलकर आगे बढ़ सकेंगें। क्षेत्रीयता एवं जातीयता के आधार पर राजनीति करनेवाले दलों को कोसने के पहले हमें यह सोचना होगा कि क्या हमारी अखिलभारतीय राजनीति में वह ताकत मौजूद है जो सारे देश के विभिन्न समाजों, जातीयों, भाषाओं, समूहों को न्याय देने की स्थिति में हैं। हमें यह देखना होगा कि नारों और भाषणों से आगे आकर हमें सामाजिक न्याय की भावना को वास्तव में अपनी राजनीति में जगह देनी होगी। वह कृपा पूर्वक नहीं सहजता से। ताकि विभिन्न स्तरों में बंटा देश अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति होता देख सके। एक चुनाव में कांग्रेस की सफलता से इतराने के बजाए राष्ट्रीय दलों को यह सोचना होगा कि आखिर क्या कारण थे जिसके चलते क्षेत्रीय दल हमारी राजनीति में इतने प्रभावी हो गए। यह प्रभाव अकारण नहीं था। कहीं न कहीं राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव, राष्ट्रीय दलों की अकर्मण्यता ही इसके लिए जिम्मेदार रही है। न्याय से वंचित समाज, समूह या अस्मिताएं अपने लिए नए रास्ते तलाश ही लेती हैं। क्षेत्रीय दलों का विकास और विस्तार इन्हीं आकांक्षाओं और मांगों के तले होता है। इससे बचा नहीं जा सकता। बचा तभी जा सकता है जब हम अपने तंत्र, व्यवस्था और राजनीति को इतना संवेदनशील बना पाएं कि छोटी-छोटी अस्मिताएं भी वहां न्याय का भरोसा पा सकें। सच यह है कि हमारे तंत्र में संवेदना सिरे से गायब है। उप्र में बसपा का विकास ही नहीं समूची हिंदी पट्टी में सामाजिक न्याय की ताकतों का विकास एक ऐतिहासिक परिघटना है। इनकी आपसी फूट का लाभ लेकर भले राष्ट्रीय दल इतरा लें किंतु इनकी एकता आज भी राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की क्षमता रखती है। उप्र में माया-मुलायम, बिहार लालू-नीतिश की एकता क्या रंग दिखा सकती है करने की आवश्यक्ता नहीं है। सो यह मान लेना की क्षेत्रीय दल खात्मे की ओर है ठीक नहीं है। क्षेत्रीय दलों के विकास के पीछे जो कारण हैं उनका निदान किए बिना राष्ट्रीय दल अपनी खोई हुयी जमीन नहीं पा सकते। डा. लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। लोकलाज राष्ट्रीय दलों ने छोड़ी तो उनका सफाया हुआ, क्षेत्रीय दल छोड़ेंगें तो उनका भी सफाया होगा। अच्छे काम के पुरस्कार मिलते हैं आप क्षेत्रीय दल हों या अखिलभारतीय इससे फर्क नहीं पड़ता। जिसके उदाहरण सामने हैं चाहे वे भाजपा के नरेंद्र मोदी, येदुरप्पा, शिवराज सिंह चौहान, डा. रमन सिंह हों, कांग्रेस की शीला दीक्षित, राजशेखर रेड्डी हों या क्षेत्रीय दलों के नवीन पटनायक अथवा नीतिश कुमार जैसे नेता। कुल मिलाकर भारतीय लोकतंत्र एक परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है जिसमें अब लोग सरकार और उसके नेता के चाल, चरित्र और चेहरे का मूल्यांकन कर मतदान करने लगे हैं। ये शुभ भी है और लोकमंगलकारी भी। ऐसे में क्षेत्रीय दल एक विकल्प के रूप में हमेशा मौजूद रहेगें बावजूद इसके राष्ट्रीय दलों की जिम्मेदारी ज्यादा है क्योंकि अखिलभारतीय चरित्र का दावा तो वे ही करते हैं। इसमें उनकी विफलता ही क्षेत्रीय दलों के विस्तार का कारण बनती है।

गुरुवार, 14 मई 2009

आतंकवादः जरूरी है खबरों की गेटकीपिंग



वैश्विक आतंकवाद से जूझ रही दुनिया के सामने जिस तरह की लाचारगी आज दिख रही है वैसी कभी देखी नहीं गयी। जाति, धर्म के नाम होते आए उपद्रवों और मारकाट को इससे जोड़कर देखा जाना ठीक नहीं है क्योंकि आतंकवादी ताकतें मानवता के सामने इतने संगठित रूप में कभी नहीं देखी गयीं। अगर आज इनका एक बड़ा संजाल दुनिया के भीतर खड़ा हुआ है तो यह साधारण नहीं है। ऐसे में भारत जैसे आतंकवाद के एक बड़े शिकार देश में, मीडिया की चुनौती बड़ी कठिन हो जाती है।

भारत जैसे देश में जहां विविध भाषा-भाषी, जातियों, धर्मों के लोग अपनी-अपनी सांस्कृतिक चेतना और परंपराओं के साथ सांस ले रहे हैं, आतंक को फलने- फूलने के अवसर मिल ही जाते हैं। हमारा उदार लोकतंत्र और वोट के आधार पर बननेवाली सरकारें भी जिस प्रामणिकता के साथ आतंकवाद के खिलाफ खड़ा होना चाहिए, खड़ी नहीं हो पातीं। जाहिर तौर पर ये लापरवाही, आतंकी ताकतों के लिए एक अवसर में बदल जाती है। ऐसे में भारतीय मीडिया की भूमिका पर विचार बहुत जरूरी हो जाता है कि क्या भारतीय मीडिया अपने आप में एक ऐसी ताकत बन चुका है जिससे आतंकवाद जैसे मुद्दे पर कोई अपेक्षा पाली जानी चाहिए। मुंबई हमलों के वक्त मीडिया कवरेज को लेकर जैसे सवाल उठे वे अपनी जगह सोचने के लिए विवश करते हैं लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि आतंकवाद जैसे गंभीर विषय पर संघर्ष के लिए क्या हमारा राष्ट्र- राज्य तैयार है। भारत जैसा महादेश जहां दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी रहती है में ऐसी क्या कमजोरी है कि हम आतंकवादी ताकतों का सबसे कमजोर निशाना हैं। आतंकवाद का बढ़ता संजाल दरअसल एक वैश्विक संदर्भ है जिसे समझा जाना जरूरी है। दुनिया के तमाम देश इस समस्या से जूझ रहे हैं। बात भारत और उसके पड़ोसी देशों की हो तो यह जानना भी दिलचस्प है कि आतंकवाद की एक बड़ी पैदावार इन्हीं देशों में तैयार हो रही है। भारतीय मीडिया के सामने यह बड़ा सवाल है कि वह आतंकवाद के प्रश्न पर किस तरह की प्रस्तुति करे। आप देखें तो पाकिस्तान हिंदुस्तानी मीडिया का एक प्रिय विषय है वह शायद इसलिए क्योंकि दोनों देशों की राजनीति एक-दूसरे के खिलाफ माहौल बनाकर अपने चेहरों पर लगी कालिख से बचना चाहती है। पाकिस्तान में जिस तरह के हालात लगातार बने हुए हैं उसमें लोकतंत्र की हवा दम तोड़ती नजर आ रही है। जिसके चलते वहां कभी अच्छे हालात बन ही नहीं पाए। भारत धृणा, पाकिस्तानी राजनीति का मूलमंत्र है वहीं कश्मीर का सवाल इस भावना को खाद-पानी देता रहा है। पर बात अब आगे जा चुकी है,बात अब सिर्फ पाक की नहीं है उन अतिवादी संगठनों की भी है जो दुनिया के तमाम देशों में बैठकर एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसकी अंत नजर नहीं आता। पाक की सरकार भी इनके आगे बेबस नजर आती है। यहां भारतीय संदर्भ में यह रेखांकित करना जरूरी है कि हमारा देश भी लगातार ऐसे खतरों से जूझने के बावजूद कोई ऐसी कारगर विधि विकसित नहीं कर पाया जिससे आतंकवाद के विस्तार या प्रसार को रोक पाने में माकूल कदम कहा जा सके। यह पूरा मामला भारतीय राष्ट्र- राज्य की विफलता के रूप में सामने आता है। ऐसे में आतंकवाद की तरफ देखने के मीडिया के रवैये पर बातचीत करने के बजाए हमें सोचना होगा कि क्या हम आतंकवाद को कोई समस्या वास्तव में मान रहे हैं या हमने इसे अपनी नियती मान लिया है। दूसरा सवाल यह उठता है कि अगर हम इसे समस्या मानते हैं तो क्या इसके ईमानदार हल के लिए सच्चे मन से तैयार हैं। मीडिया के इस प्रभावशाली युग में मीडिया को तमाम उन चीजों का भी जिम्मेदार मान लिया जाता है जिसके लिए वह जिम्मेदार होता नहीं हैं। मीडिया सही अर्थों में घटनाओं के होने के बाद उसकी प्रस्तुति या विश्लेषण की ही भूमिका में नजर आता है। आतंकवाद जैसे प्रश्न के समाधान में मीडिया एक बहुत सामान्य सहयोगी की ही भूमिका निभा सकता है। आज भारत जैसा देश आतंकवाद के अनेक रूपों से टकरा रहा है। एक तरफ पाक पोषित आतंकवाद है तो दूसरी ओर वैश्विक इस्लामी आतंकवाद है जिसे अलकायदा,तालिबान जैसे संगठन पोषित कर रहे हैं। इसी तरह पूर्वोत्तर राज्यों में चल रहा आतंकवाद तथा अति वामरूझानों में रूचि रखने वाला नक्सल आतंक जिसने वैचारिक खाल कुछ भी पहन रखी हो, हैं वे भारतीय लोकतंत्र के विरोधी ही। ऐसे समय में जब आतंकवाद का खतरा इतने रूपों में सामने हो तो मीडिया के किसी भी माध्यम में काम करने वाले व्यक्ति की उलझनें बढ़ जाती हैं। एक तो समस्या की समझ और उसके समाधान की दिशा में सामाजिक दबाव बनाने की चुनौती सामने होती है तो दूसरी ओर मीडिया की लगातार यह चिंता बनी रहती है कहीं वह इन प्रयासों में जरा से विचलन से भारतीय राज्य या लोकतंत्र का विरोधी न मान लिया जाए। घटनाओं के कवरेज के समय उसके अतिरंजित होने के खतरे तो हैं पर साथ ही अपने पाठक और दर्शक से सच बचाने की जिम्मेदारी भी मीडिया की ही है। यह बात भी सही है कि तालिबान और अलकायदा के नाम पर कुछ बेहद फूहड़ प्रस्तुतियां भी मीडिया में देखने को मिलीं जिनकी आलोचना भी हुयी। इतने संवेदनशील प्रश्न पर मीडिया का जरा भी विचलन उसे उपेक्षा और उपहास का पात्र जरूर बनाता है। किंतु यह कहने और स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए हर संकट के समय भारतीय मीडिया ने अपने देश गौरव तथा आतंकवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट किया है। मुंबई धमाकों के समय भारतीय मीडिया की भूमिका को काफी लांछित किया गया और उसके सीधे प्रसारण को कुछ लोगों की मौत का जिम्मेदार भी माना गया। किंतु ऐसे प्रसंगों पर सरकार की जबाबदेही सामने आती है। मीडिया अपनी क्षमता के साथ आपके साथ खड़ा है। किस प्रसंग का प्रसारण करना किसका नहीं इसका नियमन मीडिया स्वयं नहीं कर सकता। जब सीधे प्रसारण को रोकने की बात सेना की ओर से कही गयी तो मीडिया ने तत्काल इस पर अमल किया। भारत में इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी शैशव अवस्था में है उसे एक लंबी दूरी तय करके परिपक्वता प्राप्त करनी है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि आतंकवाद जैसे राष्ट्रीय प्रश्न पर मीडिया की भूमिका पर विचार जरूर हो। उसके कवरेज की सीमाएं जरूर तय हों। खासकर ऐसे मामलों में कि जब सेना या सुरक्षा बल कोई सीधी लड़ाई लड़ रहे हों। मीडिया पर सबसे बड़ा आरोप यही है कि वह अपराध या आतंकवाद के महिमामंडन का लोभ संवरण नहीं कर पाता। यही प्रचार आतंकवादियों के लिए मीडिया आक्सीजन का काम करता है। यह गंभीर चिंता का विषय है। इससे आतंकियों के हौसले तो बुलंद होते ही हैं आम जनता में भय का प्रसार भी होता है। विचारक बौसीओऊनी लिखते हैं कि – वास्तव में संवाददाता पूर्णतया सत्य खबरों का विवरण नहीं देते । परिणामतः वे इस प्रक्रिया में एक विषयगत भागीदार बन जाते हैं। ये मुख्यतया समाचार लेखक ही होते हैं। आतंकवादी इन स्थितियों का पूर्ण लाभ उठा लेते हैं औऱ बड़ी ही दक्षतापूर्वक इन जनमाध्यमों का उपयोग अपने स्वार्थ एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर लेते हैं।

जाहिर तौर पर देश जब एक बड़ी लड़ाई से मुखातिब है तो खास संदर्भ में मीडिया को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। आज असहमति के अधिकार के नाम पर देश के भीतर कई तरह के सशस्त्र संघर्ष खड़े किए जा रहे हैं, लोकतंत्र में भरोसा न करने वाली ताकतें इन्हें कई बार समर्थन भी करती नजर आती हैं। यह भी बड़ा गजब है कि लोकतंत्र में आस्था न रखने वाले, खून-खराबे के दर्शन में भरोसा करने वालों के प्रति भी सहानुभूति रखनेवाले मिल जाते हैं। राज्य या पुलिस अथवा सैन्य बलों के अतिवाद पर तो विचार- जांच करने के लिए संगठन हैं किंतु आतंकवादियों या नक्सलियों के खिलाफ आमजन किसका दरवाजा खटखटाएं। यह सवाल सोचने को विवश करता है। क्रांति या किसी कौम का राज लाना और उसके माध्यम से कोई बदलाव होगा ऐसा सोचने मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा ही है। शासन की तमाम प्रणालियों में लोकतंत्र ही अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद सबसे श्रेष्ठ प्रणाली मानी गयी है। ऐसे में मीडिया को यहां सावधान रहने की जरूरत है कि ये ताकतें कहीं उसका इस्तेमाल न कर ले जाएं। सूचना देने के अपने अधिकार के साथ ही साथ हमारी एक बड़ी जिम्मेदारी अपने देश के प्रति भी है। अतएव किसी भी रूप में आतंकवादी हमारी ताकत से प्रचार या मीडिया आक्सीजन न पा सकें यह देखना जरूरी है। विद्वान विलियम कैटन लिखते हैं कि – आतंकवाद बुनियादी रूप से एक रंगमंच की तरह होता है। आतंकवादी गतिविधियों के द्वारा यह समूह जनता में अपनी भूमिकाएं अभिनीत करता है एवं जनमाध्यमों एवं मीडिया द्वारा इसे लोंगों तक सुगमता से पहुंचाता है। हालांकि जनमाध्यमों के बिना भी वह अपना आतंक आम आदमी तक बना ही लेता है।

ऐसे में मीडिया की ताकत का सावधानीपूर्वक उपयोग जरूरी हो जाता। हिंदुस्तानी मीडिया आपातकाल की काली यादों के चलते किसी तरह की सरकारी आचार संहिता को लेकर बेहद एलर्जिक है, ऐसे में मीडिया को अपनी राह खुद बनानी होगी ताकि उसका दुरूपयोग न किया जा सके। इसके लिए मीडिया समूह अपनी तरफ से आचार संहिता बना सकते हैं। कुछ समूह और संगठन ऐसी पहल करते हैं किंतु व्यवहार में देखा गया है कि वे इसका पालन करने में विफल रहे जाते हैं। ऐसे में मीडिया को खबरों की गेटकीपिंग पर खास जोर देना चाहिए ताकि इसका दुरूपयोग रोका जा सके। दूसरा बड़ा काम जनमत निर्माण का है, अपने लेखन और प्रस्तुति से कहीं भी मीडिया को आतंकवाद के प्रति नरम रवैया नहीं अपनाना चाहिए ताकि जनता में आतंकी गतिविधियों के प्रति समर्थन का भाव न आने पाए। आतंकवाद के खिलाफ मुंबई हमलों के बाद मीडिया ने जिस तरह की बहस की शुरूआत की उसे साधारण नहीं कहा जा सकता। उसकी प्रशंसा होनी चाहिए। हमारी आतंरिक सुरक्षा से जुड़े प्रश्न जिस तरह से उठाए गए वे शायद पहली बार इतनी प्रखरता से सामने आए। राजनीतिक नेतृत्व की विफलता को रेखांकित करने के अलावा हमारे गुप्तचर तंत्र और उससे जुड़ी तमाम खामियों पर एक सार्थक विमर्श सामने आया।

आज के दौर में जिस तरह से मीडिया एक प्रभावशाली भूमिका में सामने आया है मीडिया से उम्मीदें बहुत बढ़ गयीं हैं। शायद इसीलिए मीडिया की आलोचना बहुत हो रही है क्योंकि सभी तंत्रों से निराश लोगों की उम्मीदें आखिर में मीडिया पर टिकी हैं। इन उम्मीदों को पूरा करना और उस पर खरा उतरना मीडिया की जिम्मेदारी है। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि आतंकवाद की खबर अन्य खबरों की तरह एक सामान्य खबर है यह सोच भी बदलनी चाहिए। इससे आतंकवाद के प्रति मीडिया के खास रवैये का प्रगटीकरण भी होगा और मीडिया में उत्तरदायित्वपूर्ण भावना का विकास होगा।

बुधवार, 6 मई 2009

लोकतंत्र या नक्सलवाद के साथ

भोपाल,6 मई। छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक और कवि विश्वरंजन का कहना है कि अब वक्त आ गया है कि हमें यह तय करना होगा कि हम लोकतंत्र के साथ हैं या नक्सलवाद के साथ। ये विचार उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग द्वारा नक्सलवाद की चुनौतियां विषय पर आयोजित व्याख्यान में व्यक्त किए।

विश्वरंजन ने कहा कि भारत में कुल हिंसक वारदातों का 95 प्रतिशत माओवादी हिंसक वारदातें हैं। नक्सलवाद आंदोलन के गुप्त दस्तावेजों तक हमारी पहुंच न हो पाने के कारण इसकी बहुत ही धुंधली तस्वीर हमारे सामने आती है जिससे हम इसके वास्तविक पहलुओं से वंचित रह जाते हैं। अगर इन दस्तावेजों पर नजर डालें तो मिलता है कि नक्सलवादी अपने शसस्त्र हिंसक आंदोलन के जरिए राजनीतिक ताकत को अपने कब्जे में करना चाहते हैं। ये अपने आंदोलन के जरिए राजनीतिक रूप से काबिज होकर देश में एक लाल गलियारे का निर्माण करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि नक्सली रणनीतिक स्तर पर राज्यविरोधी एवं राज्य में आस्थाहीनता दर्शानेवाले समस्त आंदोलनों का समर्थन करते हैं। माओवादियों के गुप्त दस्तावेजों का हवाला देते हुए विश्वरंजन ने बताया कि नक्सलियों की गतिविधियों गुप्त रहती है। किंतु इसमें दो तरह के कार्यकर्ता होते हैं एक पेशेवर और दूसरे जो अंशकालिक तौर पर कोई और काम करते हुए उनका शहरी नेटवर्क देखते हैं। आज माओवादी मप्र और छत्तीसगढ़ के अलावा देश के अन्य प्रदेशों में भी अपनी जड़ें मजबूत कर रहे हैं। इस अवसर पर उन्होंने मीडिया के छात्र-छात्राओं से अपील की कि वे इस विषय पर व्यापक अध्ययन करें ताकि वे लोंगों के सामने सही तस्वीर ला सकें। क्योकिं यह लड़ाई राज्य और नक्सलियों के बीच नहीं बल्कि लोकतंत्र और उसके विरोधियों के बीच है जो हिंसा के आधार पर निरंतर आम आदमी के निशाना बना रहे हैं।



प्रारंभ में जनसंचार विभाग की अध्यक्ष दविंदर कौर उप्पल ने श्री विश्वरंजन का स्वागत किया। आभार प्रदर्शन डा. महावीर सिंह ने किया। इस मौके पर जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डा. पवित्र श्रीवास्तव, संजीव गुप्ता, सुनील तिवारी, डा. ज्योति वर्मा, डा. रंजन सिंह, मीता उज्जैन, बापूदेश पाण्डेय, आरती सारंग, डा. अविनाश वाजपेयी, शलभ श्रीवास्तव सहित तमाम छात्र- छात्राएं मौजूद थे।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

जिद और जिजीविषा ने दिलाई जगह

जिद और जिजीविषा ने दिलाई जगह

देर से ही सही भारतीय ललित कलाएं विश्व की कला दुनिया में अपनी जगह बना रही हैं। शास्त्रीय संगीत और नृत्य से शुरुआत तो हुई पर अब चित्रकला की दुनिया में भी भारत की पहल को स्वागतभाव से देखा जा रहा है। सतत जिद और जिजीविषा के चलते भारतीय कलाकारों की यह सफलता हमारे गर्व करने का विषय है।

आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास लगभग डेढ़ शताब्दी पुराना है जब मद्रास, कलकत्ता, मुंबई और लाहौर में कला विद्यालय खोले गए। तब की शुरुआत को अपेक्षित गरिमा और गंभीरता मिली राजा रवि वर्मा के काम से। वे सही अर्थों में भारतीय चित्रकला के जन्मदाता कहे जा सकते हैं । केरल के किली मन्नूर नामक एक गांव में 29 अप्रैल, 1848 को जन्में राजा रवि वर्मा के आलोचकों ने भले ही उनकी ‘कैलेंडर आर्टिस्ट’ कहकर आलोचना की हो परंतु पौराणिक कथाओं के आधार पर बने चित्र व पोट्रेट उनकी पहचान बन गए। हेवेल और अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने 19 वीं सदी के आखिरी दशक में गंभीर और उल्लेखनीय काम किया, जिसे, ‘बंगाल स्कूल’ के नाम से भी संबोधित किया गया। बाद में रवीद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल से होती हुई यह पंरपरा मकबूल फिदा हुसैन, सैयद हैदर रजा, नारायण श्रीधर वेन्द्रे, फ्रांसिस न्यूटन सूजा, वी.एस. गायतोंडे, गणेश पाइन, के.जी. सुब्रह्मण्यम, गुलाम मोहम्मद शेख, के. सी. ए. पाणिक्कर, सोमनाथ होर, नागजी पटेल, मनु पारेख, लक्ष्मा गौड़, विकास भट्टाचार्य, मनजीत बावा, रामकिंकर बैज, सतीश गुजराल, जगदीश स्वामीनाथन, रामकुमार और कृष्ण रेड्डी तक पहुँची । जाहिर है, इस दौर में भारतीय कला ने न सिर्फ नए मानक गढ़े, वरन् वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपना सार्थक हस्तक्षेप भी किया। विदेशों में जहां पहले भारतीय पारंपरिक कला की मांग थी और उनका ही बाजार था। अब गणित उलट रहा है। विदेशी कलाबाजार में भारतीय कलाकारों की जगह बनी है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला के सामने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में कायम रहने की चुनौती है, वरन अपने लिए बाजार की तलाश भी करनी है। बाजार शब्द से वैसे भी कला-संस्कृति क्षेत्रों के लोग चौंक से उठते हैं । न जाने क्यों यह माना जाने लगा है कि बाजार और सौंदर्यशास्त्र एक दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन देखा जाए तो चित्र बनना और बेचना एक-दूसरे से जुड़े कर्म हैं । इनमें विरोध का कोई रिश्ता नहीं दिखता । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस रिश्ते के चलते क्या कला तो प्रभावित नहीं हो रही ? उसकी स्वाभाविकता एवं मौलिकता तो नष्ट नहीं हो रही, या बाजार के दबाव में कलाकार की सृजनशीलता तो प्रभावित नहीं हो रही ? वैसे भी कलाओं के प्रति आम भारतीय समाज में किसी प्रकार का उत्साह नहीं दिखता । बहुत हद तक समझ का भी अभाव दिखता है। सो प्रायोजित चर्चाओं के अलावा कला के बजाय कलाकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज्यादा बातें छापी और कहीं जाती हैं। अंग्रेजी अखबार जो प्रायः इस प्रकार के कलागत रूझानों की बात तो करते हैं, किंतु उनमें भी कला की समीक्षा, उसके, रचनाकर्म या विश्व कला परिदृश्य में उस कृति की जगह के बजाय कलाकार के खान-पान की पसंदों उसके दोस्तों-दुश्मनों, प्रेमिकाओं, कपड़ों की समीक्षा ज्यादा रहती है। मकबूल फिदा हुसैन को लेकर ऐसी चर्चाएं प्रायः बाजार को गरमाए रहती हैं। ‘माधुरी प्रसंग’ से लेकर तमाम अभिनेत्रियों के साथ जुड़े हुसैन प्रसंग को इस नजरिए से देखा जा सकता है। आज ऐसे कलाकार कम दिखते हैं जो अपने कलालोक में डूबे रहते हों - प्रचार पाना या प्रचार को प्रायोजित करना एक जरूरी कर्म हो गया है।

कुछ वर्ष पूर्व कलाकार अंजली इला मेमन ने अपने जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में एक स्त्री के धड़ के रूप में बना केक काटा। इससे वे क्या साबित करना चाहती थीं, वे ही जाने, पर ‘प्रचार की भूख’ इससे साफ झांकती है।कला प्रदर्शनियों के उद्घाटन में भी कभी-कभी ऐसे दृश्य दिखते हैं, जैसे कोई पार्टी हो। इन पार्टियों में हाथ में जाम लिए सुंदर कपड़ों में सजे-सधे कला प्रेमियों की पीठ ही दीवार पर टंगी कलाकृतियों की ओर रहती है। इस उत्सव धर्मिता ने नए रूप रचे हैं। पत्र-पत्रिकाओं का रुझान भी कला संबंधी गंभीर लेखन की बजाय हल्के-फुल्के लेखन की ओर है । कुछ कलाकार मानते हैं कि पश्चिम में भारतीय कलाकारों की बढ़ती मांग के पीछे अनिवासी भारतीयों का एक बड़ा वर्ग भी है, जो दर्शक ही नहीं कला का खरीददार भी है । लेकिन सैयद हैदर रजा जैसे कलाकार इस मांग के दूसरे कारण भी बताते रहे हैं, वे मानते हैं कि पश्चिम की ज्यादातक कला इस समय कथ्यविहीन हो गयी है। उनके पास कहने को बहुत कुछ नहीं है । प्रख्यात कवि आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘स्वयं पश्चिम में आधुनिकता थक-छीज गई है और उत्तर आधुनिकता ने पश्चिम को बहुकेंद्रिकता की तलाश के लिए विवश किया है। पश्चिम की नजर फिर इस ओर पड़ी है कि भारत सर्जनात्मकता का एक केंद्र है।’ सही अर्थों में भारतीय कला में भी अपनी जड़ों का अहसास गहरा हुआ है और उसने निरंतर अपनी परंपरा से जुड़कर अपना परिष्कार ही किया है। सो भारतीय समाज में कला की पूछताछ बढ़ी है। ज्यादा सजगता और तैयारी के साथ चीजों को नए नजरिए से देखने का रुझान बढ़ा है। कला का फलक बहुत विस्तृत हुआ है। इतिहास, परंपरा से लेकर मन के झंझावतों की तमाम जिज्ञासाएं कैनवास पर जगह पा रही हैं। बाजारवाद के ताजा दौर ने दुनिया की खिड़किंयां खोली हैं। इसके नकारात्मक प्रभावों से बचकर यदि भारतीय कला अपनी जिद और जिजीविषा को बचाए और बनाए रख सकी तो उसकी रचनात्मकता के प्रति सम्मान बढ़ेगा ही और वह सकारात्मक ढंग से अभिव्यक्ति पा सकेगी।

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

मनमोहन और आडवानीः कितने दूर, कितने पास


लोकसभा का यह चुनाव मुद्दाविहीन है ऐसा बार-बार कहा जा रहा है। यह हवा बनाई जा रही है राजनीति का पतन हो गया है। लोकतंत्र से लोगों की उम्मीदें और आस्था गायब हो रही है। ऐसे करने में मीडिया का एक बड़ा वर्ग बड़े उत्साह से लगा हुआ है। लोकतंत्र के प्रति अनास्था जताकर आखिर हम किनका भला कर रहे हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें हैं जो लोकतंत्र को मजबूत होते देखना नहीं चाहती क्योंकि लोकतंत्र में अंततः कहानी जबाबदेही पर खत्म होती है, प्रभु वर्ग जवाबदेही से ही बचना चाहता है।

बावजूद इसके यह एक ऐसा चुनाव है जो बिना किसी भावनात्मक ज्वार के हो रहा है। खास बात यह है कि प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों को लेकर बहुत उत्साह नहीं देखा जा रहा है। भाजपा और कांग्रेस के दोनों खेमों में चुनावी कवायद, जोड़तोड़ तो तेज है पर सारे हथकंडों के बावजूद आम जनता में दोनों मुख्य दल कोई जादू नहीं जगा पाए हैं। इस अर्थ में मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवानी में कई समानताएं तलाशी जा सकती हैं। प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवार कहीं से करिश्माई नहीं, बल्कि काम करके आगे बढ़े लोग हैं, जिनके पीछे किसी परिवार या खुद का कोई करिश्मा नहीं है। यह संयोग ही है कि दोनों उम्मीदवार अल्पसंख्यक वर्ग से आते हैं और दोनों ही भारत विभाजन के बाद देश में आए हैं। यह देश के लोकतंत्र की ताकत ही है कि जब लोकतंत्र को माफिया व पैसे वालों के द्वारा बंधक बनाए जाने के सुनियोजित षडयंत्र चल रहे हैं तो ऐसे नेता हमारे पास हैं। यह अलग बात है कि मनमोहन सिंह अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में खुद की कोई लाइन नहीं बना पाए और उनपर यह आरोप विरोधी लगातार लगाते रहे वे श्रीमती सोनिया गांधी के इशारे पर काम करते हैं। देखें तो इसमें गलत क्या है। कांग्रेस पार्टी जिस तरह की पार्टी बाद में बन गयी या बना दी उसमें मनमोहन सिंह क्या करते। जाहिर तौर पर वे कांग्रेस पार्टी का स्वाभाविक चयन नहीं हैं। वे सोनिया गांधी द्वारा छोड़ी गयी कुर्सी पर उनके द्वारा नामित उम्मीदवार हैं। मनमोहन सिंह का खुद का कोई जनाधार नहीं, सो उनकी कांग्रेस अध्यक्षा पर निर्भरता बहुत स्वाभाविक है। इसके अलावा सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष हैं, सिद्धांतों की बात करें तो पार्टी अध्यक्ष का सरकार पर नियंत्रण कोई गलत बात नहीं है।

इसी तरह प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार लालकृष्ण आडवानी लंबे समय से भारतीय राजनीति का एक अनिवार्य चेहरा बने हुए हैं। अटल-आडवाणी की जोड़ी ने भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ की राजनीति को स्वीकार्य और अपरिहार्य बनाने का जो करिश्मा किया वह अद्बुत है। भारतीय जनता पार्टी के संगठनात्मक विस्तार में आडवानी की भूमिका को सभी जानते हैं। बावजूद इसके वे अटलविहारी वाजपेयी की तरह करिश्माई वक्ता नहीं हैं। वे दृढ़ और आग्रही माने जाते हैं। हालांकि वाजपेयी के बाद वे पार्टी के स्वाभाविक नेता भी हैं। वाजपेयी सरकार में उपप्रधानमंत्री का पद देकर यही संकेत देने की कोशिश भी की गयी थी। वाजपेयी सरीखी लोकप्रियता, वक्रता और स्वीकार्यता आडवानी को कभी नहीं मिली। यही हाल मनमोहन सिंह का है वे एक ऐसी पार्टी के नेता हैं जिसने लंबे समय से गांधी परिवार के साथ रहने की आदत डाल ली है। उस परिवार के बिना पार्टी की बेचारगी समझी जा सकती है। मनमोहन सिंह जैसे नेता जिनकी कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं है कांग्रेस जैसे दल में सिर्फ इसलिए पांच साल प्रधानमंत्री पद पर पूरे कर पा रहे हैं क्योंकि उन्हें श्रीमती सोनिया गांधी का आशीर्वाद प्राप्त है। सोनिया जी ने जिस गरिमा के साथ उन्हें न सिर्फ पद पर स्थापित किया बल्कि सतत उनके साथ खड़ी दिखीं यह उदाहरण भी अभूतपूर्व है। यह सोनिया जी का वरदहस्त है कि मनमोहन सिंह निश्चिंत दिखते हैं तो अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज आंसू बहा रहे हैं। कांग्रेस के मंच पर राहुल गांधी जैसा सर्वस्वीकृत चेहरा मैदान में है किंतु चुनाव में मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किए गए हैं। इसके साथ भाजपा में भी दूसरी पीढ़ी के नेताओं में सत्ता संघर्ष तेज हो गया है जिस तरह कांग्रेस में मनमोहन के बाद राहुल गांधी कतार में हैं उसी तरह भाजपा में नरेंद्र मोदी का नाम तेजी से उभरा है। अरूण शौरी, वेंकैया नायडू, अरूण जेतली जैसे नेता उनके नाम पर सहमति जता चुके हैं। यह संयोग ही है कि दोनों नेताओं में एक जैसी तमाम समानताएं तलाशी जा रही हैं। यह भी साधारण नहीं है कि इन चुनावों में मीडिया घरानों, सेलिब्रिटीज और बाबा रामदेव जैसे लोगों के व्यापक अभियान के बावजूद वोट प्रतिशत गिर रहा है। शत प्रतिशत मतदान का सारा अभियान फुस्स सा साबित हुआ है, जबकि उप्र, बिहार जैसे राज्यों में सिर्फ 45 प्रतिशत मतदान की खबरें आ रही हैं। यहां यह जानना रोचक हो सकता है कि क्या जादुई नेतृत्व का ना होना इसका एक कारण हो सकता हो या चुनाव में भावनात्मक मुद्दों का अभाव फ्लोटिंग वोट को निकलने से रोकने की वजह बना है। यह भी संभव है कि लोग इन चुनावों या बदलावों से बहुत उम्मीद न रखते हों, इस नाते भी आमजनता में घिर आया नैराश्य या अवसाद भी इसका कारण हो सकता है। कारण जो भी मीडिया और राजनेताओं को इस विषय में सोचना जरूर चाहिए कि नेता मनमोहन हों या आडवानी, मायावती या पवार, लोकतंत्र के प्रति जनमन में घटता भरोसा, नैराश्य अंततः हमारी जड़ों को ही खोखला करेगा। आज जबकि दुनिया के तमाम देश अपनी अराजकता से मुक्ति पाने के लिए लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं, ऐसे में हम अपने साठ साल के लोकतंत्र को क्या यूं ही मुरझाने के लिए छोड़ देंगें।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

अंधेरों की चीरती शब्दों की रौशनी

हिन्द स्वराज्य की शताब्दी वर्ष पर विशेष-

महात्मा गांधी की मूलतः गुजराती में लिखी पुस्तक हिन्द स्वराज्य एक बार फिर अपने सौ साल पूरे होने पर चर्चा में है। महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है। सबसे महत्व की बात है कि पुस्तक की शैली। यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गयी है। पाठक और संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन शैली का प्रमाण जिसे कोई भी पाठक बेहद रूचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था। 1909 में लिखी गयी यह किताब मूलतः यांत्रिक प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधी इस कल्पित संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं।

गांधी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकता, वे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधी अपनी संगति नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपारायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्लान करते हैं। भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े करते हैं। जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। स्वयं श्री गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में कच्चा पन नजर आया। गांधी जी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम विचारक सही नहीं मानते। मिडलटन मरी कहते हैं- गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुयी चीज है। हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- वैसा मैं कैसे हो सकता हूं, जब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है।

वे यह भी कहते हैं मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते हुए गांधी जी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधी, मनुष्य को पराजित होते नहीं देखना चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें चाहिए न कारखाने।

महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता का साथ नहीं छोड़ते, उनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है। वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। वे साफ कहते हैं- मुझे धर्म प्यारा है, इसलिए मुझे पहला दुख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिंदू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से जा रहा है, हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।

वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थ स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा। वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल करेंगें। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है।

गांधी राष्ट्र को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन लोगों को एक करारा जबाब भी है जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस कोशिश पर गांधी जी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे हिंद स्वराज्य में लिखते हैं- आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक ऱाष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।

गांधी इस अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं- दो अंग्रेज जितने एक नहीं है उतने हम हिंदुस्तानी एक थे और एक हैं। एक राष्ट्र-एक जन की भावना को महात्मा गांधी बहुत गंभीरता से पारिभाषित करते हैं। वे हिंदुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के पक्षधर थे। उनकी राय में हिंदुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है। उसकी जिजीविषा से ही यह महादेश हर तरह के संकटों से निकलता आया है। गांधी देश की एकता और यहां के निवासियों के आपसी रिश्तों की बेहतरी की कामना भर नहीं करते वे इस पर भरोसा भी करते हैं। गांधी कहते हैं- हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं। उससे वह राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरों के गुणों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।

महात्मा गांधी की राय में धर्म की ताकत का इस्तेमाल करके ही हिंदुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को वे बेहतर तरीके से समझते थे। वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं, परंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं- बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं।

गांधी बुनियादी तौर पर देश को एक होते देखना चाहते थे वे चाहते थे कि ऐसे सवाल जो देश का तोड़ने का कारण बन सकते हैं उनपर बुनियादी समझ एक होनी चाहिए। शायद इसीलिए सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ वे लगातार बोलते और लिखते रहे वहीं सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने के लिए वे ताजिंदगी प्रयास करते रहे। हिंदु-मुस्लिम की एकता उनमें औदार्य भरने के हर जतन उन्होंने किए। हमारी राजनीति की मुख्यधारा के नेता अगर गांधी की इस भावना को समझ पाते तो देश का बंटवारा शायद न होता। इस बंटवारे के विष बीज आज भी इस महादेश को तबाह किए हुए हैं। यहां गांधी की जरूरत समझ में आती है कि वे आखिर हिंदु-मुस्लिम एकता पर इतना जोर क्यों देते रहे। वे संवेदनशील सवालों पर एक समझ बनाना चाहते थे जैसे की गाय की रक्षा का प्रश्न। वे लिखते हैं कि – मैं खुद गाय को पूजता हूं यानि मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगें।

हिंद स्वराज्य के शताब्दी वर्ष के बहाने हमें एक अवसर है कि हम उन मुद्दों पर विमर्श करें जिन्होंने इस देश को कई तरह के संकटों से घेर रखा है। राजनीति कितनी भी उदासीन हो जाए उसे अंततः इन सवालों से टकराना ही है। भारतीय राजनीति ने गांधी का रास्ता खारिज कर दिया बावजूद इसके उनकी बताई राह अप्रासंगिक नहीं हो सकती। आज जबकि दुनिया वैश्विक मंदी का शिकार है। हमें देखना होगा कि हम अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में आम आदमी की जगह कैसे बचा और बना सकते हैं। जिस तरह से सार्वजनिक पूंजी को निजी पूंजी में बदलने का खेल इस देश में चल रहा है उसे गांधी आज हैरत भरी निगाहों से देखते। सार्वजनिक उद्यमों की सरकार द्वारा खरीद बिक्री से अलग आदमी को मजदूर बनाकर उसके नागरिक सम्मान को कुचलने के जो षडयंत्र चल रहे हैं उसे देखकर वे द्रवित होते। गांधी का हिन्द स्वराज्य मनुष्य की मुक्ति की किताब है। यह सरकारों से अलग एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है। जिसमें द्वंद हैं, सभ्यता का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है जो हमें और तमाम जिंदगियों को रौशन करती हुयी चलती है। गाँधी की इस किताब की रौशनी में हमें अंधेरों को चीर कर आगे आने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।

लोकतंत्र का महापर्व और मीडिया

भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया की समझ और उसका कवरेज बहुत आसान नहीं है। चुनावों में न सिर्फ मीडिया की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है वरन स्वस्थ लोकतंत्र के विकास में यह चुनौतीपूर्ण भी हो जाती है। चुनाव के दौरान मीडिया की विश्वसनीयता भी दांव पर लग जाती है और यह कहना बहुत कठिन है कि वह इसमें कितना खरा उतरता है। भारत जैसे महादेश की विशाल संरचना, विविध भाषाएं, क्षेत्रीय अस्मिताएं, आकांक्षाएं, जाति चेतना, शिक्षा का विविध स्तर जिस तरह सामने आते हैं उसमें कोई संतुलित दृष्टि बना पाना वास्तव में आसान नहीं होता। प्रिंट मीडिया ने तो लंबे अनुभव से इसमें एक परंपरागत कौशल अर्जित कर लिया है लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया को अभी इस क्षेत्र में लंबा मुकाम तय करना है।

भारत जैसे विशाल लोकतंत्र की तमाम खूबियों के बावजूद तमाम बुराइयां भी हैं जो चुनाव के समय ज्यादा प्रकट रूप में सामने आती हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है जाहिर तौर पर मीडिया की जिम्मेदारी भी इस लोकतंत्र के महापर्व में विशेष हो जाती है। किंतु जैसी बातें सुनने में आती हैं मीडिया भी हमारे संसदीय लोकतंत्र बुराइयों से बच नहीं पा रहा है। चुनावी कवरेज में भी पैकेज का खेल शुरू हो गया है जिससे जनतंत्र मजबूत तो नहीं हो रहा है उल्टे मीडिया की विश्वसनीयता पर भी सवालिया निशान उठने लगे हैं। यह बात रेखांकित करने योग्य है कि है कि देश के दो महत्वपूर्ण पत्र समूहों ने चुनावी कवरेज की पवित्रता के लिए संकल्प जताया है। सो सब कुछ बुरा ही है ऐसा सोचना ठीक नहीं किंतु विचार का बिंदु यह है कि हम अपनी चुनावी कवरेज या रिर्पोटिंग की प्रामणिकता और विश्वसनीयता कैसे बचाएं। कई बार मीडिया अपनी तरफ से एजेंडा सेट कर लेता है और जमीनी हकीकत उससे उलट होती है, तब दंभी राजनीति मीडिया को लांछित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती। जाहिर तौर पर चुनावी कवरेज को हमें इस स्तर पर ले जाना होगा ताकि कोई राजनीतिक दल मीडिया के आंकलनों का मजाक न बना सके। यहां यह करते हुए हमें अपनी सीमाओं का भी ध्यान रखना होगा कि हम जाने अनजाने किसी के हाथ का खिलौना तो नहीं बन रहे हैं। पत्रकार की राजनीतिक विचारधारा हो सकती है और बहुत संभव है कि वह अपनी राजनितिक विचारधारा को राज करते देखने का भी आकांक्षी भी हो। किंतु उसकी पोलिटिकल लाइन कहीं पार्टी लाइन में तो नहीं बदल रही है, इसे उसे सचेत होकर देखना होगा। अपनी निगहबानी और निगरानी उसे खुद करनी होगी। तभी वह अपने व्यवसाय के प्रति ईमानदार रह पाएगा। यहां सवाल यह भी उठता है कि पत्रकार की व्यक्तिगत ईमानदारी से क्या काम चल जाएगा। मीडिया संस्थानों के प्रबंधकों को भी इसमें योगदान देना होगा। एक तरफ पत्रकार का मिशन तो दूसरी ओर मीडिया प्रबंधकों और संस्थान का एजेंडा जिसे व्यवसाय की आड़ में पत्रकारिता को कलंकित करने की छूट होती है इससे बचना होगा।

चुनाव रिर्पोटिंग दरअसल बच्चों का खेल नहीं है यह एक सावधानी पूर्ण काम है जिसे अनुभव, अध्ययन, प्रदेश की सामाजिक, आर्थिक, जातीय स्थितियों और सामाजिक ताने बाने को समझे बिना नहीं किया जा सकता। जनता की आंख और कान होने का दावा करने वाले मीडिया की जिम्मेवारी है कि वह सही तथ्यों को जनता के सामने रखे और प्रतिनिधि का रिर्पोट कार्ड बिना हील-हुज्जत के लोगों को बताए। सिर्फ जातीय समीकरणों के आधार होने वाली रिर्पोटिंग से आगे बढ़कर मुद्दों को आगे लाने की कोशिश भी मीडिया की एक बड़ी जिम्मेदारी है। आज खबर पहले दिखाने की होड़ जिस दौर में पहुंच गयी है वहां पत्रकार की चिंताएं बहुत बढ़ गयी हैं। रिर्पोटिंग का स्वभाव भी सुविधाओं की गोद में बैठने का होता जा रहा है जबकि जमीन पर उतरे बिना सच्चाई सामने नहीं आती है। प्रायः पत्रकार बहुत अंदर के गांवों और वनवासी क्षेत्रों में नहीं जाते। जिससे वहां चलने वाली हलचलों का पता नहीं चल पाता। इससे तमाम क्षेत्रों की सही तस्वीर सामने नहीं आ पाती। जिन सर्वेक्षणों के चलते मीडिया का विश्वसनीयता सर्वाधिक प्रभावित हो रही है उसे करने वाली कंपनियों की भी विश्वसनीयता दांव पर रहती है। पर प्रायः ये सर्वेक्षण सच के करीब नहीं आ पाते। यह भी सोचने की बात है कि कई बड़ी मीडिया कंपनियां अब राजनीतिक दलों से मिलकर सर्वे के परिणामों में उलटफेर करती हैं। यह सोचना भी बहुत डरावना है कि ऐसे में उस साख का क्या होगा जिसे लेकर मीडिया जनता के बीच आदर पाता है। प्रिंट माध्यम में कई समाचार पत्र बाजार के तमाम दबावों के बावजूद बेहतर काम कर रहे हैं किंतु इलेक्ट्रानिक माध्यमों के सामने चुनौती बड़ी है। उन्हें न सिर्फ नजरिए में बदलाव लाना होगा वरन अपने माध्यम के दैनिक कर्म से अलग चुनावी कवरेज को गंभीर बनाना होगा। बाजार के हाथ का खिलौना हर कोई बनना चाहता है किंतु साख को कायम एक अलग ही बात है। न्यूज चैनलों को सही तस्वीर दिखाने के लिए आगे आना होगा। कैसे कोई वीआईपी इलाका बन जाता है तो कैसे कोई क्षेत्र बहुत पिछड़ा रह जाता है। विकास के साधनों की बंदरबांट और जनप्रतिनिधि की अपने क्षेत्र के बारे में सोच के प्रकटीकरण का चुनाव बेहद उपयुक्त माध्यम हैं। टीवी पर होने वाली बहसें भी कभी कभार छिछली चर्चा में तब्दील हो जाती हैं क्योंकि कई बार खुद एंकर की पकड़ विषय या क्षेत्र पर नहीं होती। अब जबकि चुनाव आयोग लगातार अपनी सक्रियता से चुनावों में कम से कम दिखने वाले कदाचारों को रोकने में तो सक्षम है मीडिया को भी सिर्फ कार्रवाईयों के विवरण के बजाए अपनी सक्रियता दिखानी चाहिए ताकि आर्दश आचार संहिता का पालन राजनीतिक दलों के लिए अनिवार्य हो जाए। चुनावी कवरेज में कई बार बाहर से गए अनुभवी पत्रकार ज्यादा सच्चाईयां सामने ला सकते हैं। छोटे स्थान की अपनी सीमाएं होती हैं वहां नेता, प्रशासन, आपराधिक तत्वों का एक गठबंधन बन जाता है। सो स्थानीय पत्रकार भी कई बार भय के कारण भी सामने नहीं आ पाते ऐसे समय में वरिष्ठ पत्रकारों को कमान संभालनी चाहिए। इसी तरह मीडिया के तमाम संगठनों ने शत प्रतिशत मतदान के लिए प्रयास शुरू किए हैं। अपने जागरूकता फैलाने वाले विज्ञापनों से उन्होंने लोगों में मतदान का प्रतिशत बढ़ाने का प्रयास किए ऐसे रचनात्मक प्रयासों से मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी निभा रहा है। अब जबकि हर साल देश में कहीं न कहीं चुनाव चलते ही रहते हैं हमें अपने लोकतंत्र को सार्थक बनाने के लिए मीडिया के योगदान को एक वैज्ञानिक कर्म में बदल देना चाहिए। जिससे हम चुनावी कवरेज की ऐसी विधि विकसित कर सकें जिसमें आमजन की जागरूकता से राजनीति पर समाज का नैतिक नियंत्रण कायम हो सके। इससे मीडिया जनविश्वास तो हासिल करेगा ही लोकतंत्र को भी मजबूत बनाने में अपनी भूमिका निभा सकेगा।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

राखी, मीडिया और स्वयंवर

राखी सावंत पर एक बार फिर मीडिया फिदा है। वे फिदा करना जानती भी हैं। अब वे एक टीवी चैनल पर शादी रचाने जा रही हैं। राखी फिर खबर बन गई हैं। मीका प्रकरण से आगे बढ़कर प्रेमी को कैमरों के सामने थप्पड़ मारती और उसे अपने पैरों पर नाक रगड़वाती राखी, नृत्य प्रतियोगिता में धमाल मचाती राखी, बिग बास के घर में कभी नाचती कभी रूठती राखी अब फिर एक नए अवतार में हैं। चौदह एपीसोड के इस शो में राखी जीतने वाले से शादी कर लेगीं। जाहिर तौर यह सनसनी वही कर सकती हैं। उन्हें अपनी सीमित क्षमताओं के बावजूद बाजार के मंत्र और उनका इस्तेमाल करना आ गया है। कलंक जब पब्लिसिटी के काम आने लगें तो उदाहरण आम हो जाते हैं।
राखी- मीका चुम्बन प्रसंग की याद करें तो इस प्रकरण पर समाचारों, क्लीपिंग्स के साथ-साथ चैनलों पर छिड़े विमर्शों को देखना एक अलग अनुभव था। शायद यही नए मीडिया की पदावली है और उसका लोकप्रिय विमर्श भी। चुम्बन से चमत्कृत मीडिया के लिए आडटम गर्ल रातोरात स्टार बन जाती हैं। राखी हर चैनल पर मौजूद थीं, अपने मौजूं किंतु शहीदाना स्त्री विमर्श के साथ। यही वह क्षण है जिसने राखी को भारतीय मनोरंजन जगत ही नहीं मीडिया का भी एक अनिवार्य चेहरा बना दिया। वे चुम्बन का एक ऐसा शिकार थीं जो अपनी जंग को नैतिकता का जामा पहना रहा था और खासकर दृश्य मीडिया राखी के दुख में आंसू टपका रहा था। ऐसे प्रसंगों पर तो 24 घंटे के समाचार चैनलों की पौ बारह हो ही जाती है।
आत्मविश्वास से भरी राखी, कभी भावुक, कभी रौद्र रूप लेती राखी का स्त्री विमर्श अदभुत है। चैनलों पर विचारकों के पैनल थे, जनता थी जो हर बात पर ताली बजाने में सिद्धहस्त है। बहस सरगर्म है। इसे लंबा और लंबा खींचने की होड़ जारी रहती है। शायद ऐसे ही दृश्य राखी के स्वयंवर पर भी नजर आएं। इस आयोजन की घोषणा होते ही मीडिया ने राखी के स्वयंवर को लेकर काफी चिंता जताई है और उनके लंबे इंटरव्यू प्रसारित किए हैं। जाहिर तौर पर राखी मीडिया का ऐसा चेहरा बन गयी हैं जो साहसी है और जिसे खुद की मार्केटिंग आती है। राखी-मीका चुम्बन प्रकरण को भी प्रचार पाने का हथकंड़ा बताया गया था। अब स्वयंवर भी उसी परंपरा का विस्तार सरीखा ही है। भारतीय समाज में शादी जैसे प्रसंग पहली बार इस तरह से प्रस्तुत हो रहे हैं। इसके चलते भारतीय समाज का भौंचक होकर इसे देखना लाजिमी है। टीआरपी और बाजार की नजर से भी प्रथम दृष्ट्या यह बिकनेवाला मसाला है। राखी इस कार्यक्रम के प्रोमो में जिस तरह के वक्तव्य दे रही हैं वह भी अद्बभुत हैं। राखी मीडिया के एक लिए चेहरा भर नहीं है वे एक मार्केट उपलब्ध कराती हैं। वे किसी भी आयोजन को अपने तौर-तरीकों और वक्रता से एक पापुलर विमर्श में बदल देती हैं। लड़ती-झगड़ती राखी को सच में कैमरों से प्यार है और कैमरा भी उन्हें इतना ही प्यार करता है। गणपति की पूजा से लेकर वेलेंटाइन डे हर पर्व पर वे मीडिया को मसाला दे सकती हैं। इसलिए यह प्यार गहरा होता जा रहा है और यही उन्हें नायाब बनाता है। वे जो चाहती हैं कहती हैं और अपेक्षित साहस का प्रमाण भी देती हैं। वे एक ऐसी लड़की हैं जो किसी फिल्मी खानदान से इस मायावी दुनिया में नहीं आयी हैं, ना ही वे अंग्रजी माध्यम के स्कूलों की उपज हैं, उनके पास अच्छे अभिनय का भी हुनर नहीं हैं, जाहिर तौर पर उनका संघर्ष बड़ा है। वे अगर इस तरह न होतीं तो आज राखी का नाम हमारी जुबां पर न होता। वे चाहकर भी अपने इस रूप को छोड़ नहीं सकतीं क्योंकि इसी ने उन्हें स्पर्धा में सबसे आगे कर दिया है। वे मूलतः एक डांसर हैं। किंतु उन्होंने अपनी सीमित क्षमताओं को ही अपनी ताकत बना लिया है। वे विवाद रचती हैं कैमरे उन्हें विस्तार देते हैं। यह कहना कठिन है कौन किसका इस्तेमाल कर रहा है। मीडिया और राखी मिलकर जो संसार रचते हैं उससे दोनों की रोजी चलती है। समाज की दोहरी मानसिकता का मीडिया और फिल्म माध्यम इस्तेमाल करते आ रहे हैं और करते रहेंगें। शायद हमारी इसी सोच के मद्देनजर कभी पामेला बोर्डस ने कहा था –यह समाज अभी भी मिट्टी- गारे से बनी झोपड़ी में रहता है। चुम्बन प्रकरण से लेकर आन स्क्रीन स्वयंवर तक का राखी का सफर हमारे समाज और मीडिया दोनों के द्वंद का बयान करता है। तो आइए हम सब राखी के स्वयंवर उत्सव में शामिल हों और उनके साहस पर ताली बजाएं।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

राजेंद्र माथुर होने का मतलब

पुण्यतिथि ( 9 अप्रैल, 1991) पर विशेष

राजेंद्र माथुर यानी हिंदी पत्रकारिता का वह नाम जिसे छोड़कर हम पूरे नहीं हो सकते। उनकी बनाई राह आज उनकी अनुपस्थिति में ज्यादा व्यापक और स्वीकार्य होती जा रही है। वे सच्चे अर्थों में पत्रकार थे और उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को नए मुहावरे, शिल्प, अभिनव प्रयोगों से संवारा। वे इस सदी के एक ऐसे पत्रकार थे, जिसको एक साथ अखबार की स्वीकार्यता,विविधता और जिम्मेदारी का अहसास था। वे सिर्फ संपादक नहीं, विचारों के शिल्पी, कलाकार और इंजीनियर थे।

अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे श्री माथुर जब पत्रकारिता में आए तो उन्होंने विचार की पत्रकारिता की ही राह चुनी। वे खबरों के साथ- साथ विचार को भी महत्वपूर्ण मानते थे। वे घटनाओं के होने की प्रक्रिया के और उनके प्रभावों के सजग व्याख्याता थे। राष्ट्रीय स्तर के पत्र-प्रतिष्ठान से जुड़े होने के बावजूद संपादक पद का रौब-रूतबा उन्हें छू तक नहीं पाया था।

अंग्रेजी में साधिकार लिखने की क्षमता के बावजूद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अपना क्षेत्र बनाया। उनकी यह चिंता हमेशा बनी रही कि अखबार लोक से जुड़ें और लोकमंगल के लिए काम करें। वे हिंदी की पत्रकारिता को अंग्रेजी पत्रकारिता से हर दृष्टि से बेहतर देखना चाहते थे। उनकी नजर हमेशा इस बात पर लगी रही कि कैसे हिंदी के पाठकों को एक बेहतर अखबार दिया जा सकता है। उनका संपूर्ण अखबार कैसा होगा, यह वे काफी कुछ नई दुनिया व नवभारत टाइम्स के माध्यम से करते भी नजर आए। परंतु वे संतुष्ट होकर बैठने वाले लोगों में न थे। निरंतर बेहतर संभावनाओं की तलाश में जुटे रहे। वे बराबर इस बात पर जोर देते रहे कि जिला स्तर पर अच्छे अखबार निकलने चाहिए। वे यह भी मानते थे कि हर प्रदेश के दूर-दराज इलाकों तक पहुंचने पर ही कोई अखबार राष्ट्रीय हो सकता है।
अपनी इसी सोच को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने नवभारत टाइम्स के जयपुर, लखनऊ और पटना संस्करण प्रारंभ कराए। यह अलग बात है कि बाद में ये तीनों संस्करण तमाम कारणों से बंद हो गए। माथुर जी मानते थे कि राष्ट्रीय पत्रों के स्थानीय संस्करणों से प्रांतीय पत्रकारिता में निखार आएगा और राष्ट्रीय अखबारों से कुछ सीखने को मिलेगा। पर हुआ उल्टा। प्रांतीय पत्र तो आगे बढ़े और राष्ट्रीय पत्र ही फिसड्डी साबित हुए।

राजेंद्र माथुर व्यवसाय के शिल्प और कौशल से बड़ी गंभीरता से जुड़े थे। वे जब संपूर्ण पत्र की बात करते थे तो उनकी नजर में विचारों और समाचारों की मिश्रित संवेदना से जुड़ा अखबार होता था। ऐसा अखबार जिसके पाठक न सिर्फ सूचनाएं पाएं वरन विचारों की गहराइयों से भी जुड़ें। वे पत्र की विविधता, क्षेत्रीयता एवं भाषायी समझ पर अपनी निजी समझ रखते थे। दिल्ली में बैठकर भी वे मालवांचल के क्षेत्रीय शब्दों का इतना बेहतरीन इस्तेमाल करते थे कि वह सबकी समझ में आ जाता था।
वे सत्ता और पत्रकारिता की दोस्ती नहीं चाहते थे। उनकी यह धारणा हठ के स्तर पर विद्यमान थी। वे बेबाक लिखते थे। उन्हें न तो विवाद पैदा करने का शौक था न ही वे विवादों से डरते थे। अपनी बात को पूरी दृढ़ता से कहना और उसपर डटे रहना उनकी आदत में शुमार था। इसलिए पार्टी लाइन तो दूर उनके लेखन में पोलिटकल लाइन भी तलाशना मुश्किल है। अपनी गलतियों को स्वीकार करना और पूर्व लिखित को साहस के साथ गलत बताना उनके ही वश की बात थी। जहां वे गलत होते स्वीकार लेते थे। आप पूछें कि पहले तो आपने इस विषय पर यह कहा था तो वे कहते अब मेरा यह विचार है। इस सहज वृत्ति को आप अस्थिर सोच या विरोधाभास कह सकते हैं, पर माथुर जी के संदर्भ में यह कहने का साहस नहीं पालना चाहिए। अपने लेखन में बातचीत करते हुए पाठक को विचारों की भूमि पर ले जाते थे। वह उनके भाषायी सम्मोहन में बंधा चला भी जाता था। उनके लेखन से सवालों की कौंध पैदा होती थी।
राजनीति के प्रति संतुलित और संयमित दृष्टिकोण के नाते उन्हें किसी खूंटे में नहीं बांधा जा सकता। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरकर वे किसी भी पक्ष को समाज निर्माण की प्रक्रिया में सहभागी होते देखना चाहते थे। उनके लिए कोई भी अश्पृश्य नहीं था। वह चाहे हिंदूवादी हो या साम्यवादी। वे जातिभेद के, वर्गभेद के लगातार उठते नारों और हुंकारों की भयावहता से परिचित थे। वे बराबर यह समझने की प्रक्रिया में लगे रहे कि सामाजिक न्याय की लड़ाई का रूप ऐसा क्यों हो रहा है। इन अर्थों में वे समाज को बांटने वाली शक्तियों के खिलाफ थे। यही कशमकश उनके लेखन में कहीं उनसे आरक्षण का सर्मथन कराती है तो कहीं थोड़ा विरोध।

वे आम नागरिक की तरह पत्रकारों से भी अपेक्षित जिम्मेदारी निभाने की गारंटी चाहते थे। वे चाहते थे कि शब्द ताकत लोंगों में नहीं, सत्ता में भय पैदा करे। ताकि सत्ता शब्द की हिंसा न कर सके। अपनी पत्रकारिता को उन्होंने लोंगों के संत्रासों से जोड़ा। आज जबकि भाषाई पत्रकारिता कई तरह की चुनौतियों से जूझ रही है राजेंद्र माथुर जैसे संपादक की याद बहुत स्वाभाविक और मामिर्क हो उठती है।