मंगलवार, 19 मई 2009

ये युवा नेतृत्व है या राजनैतिक उत्तराधिकार

इस चुनाव की जिस एक बड़ी खूबी को राजनीतिक क्षेत्र और मीडिया में महिमा मंडित किया जा रहा है वह है युवा नेतृत्व की बड़ी विजय। राजनीति में युवाओं की बढ़ती भागीदारी से देश बल्ले-बल्ले है। कहा जा रहा है कि इस चुनाव में देश के 4.30 करोड़ मतदाता ऐसे थे जिन्होंने पहली बार वोट डाला और देश के युवाओं के जो फैसला सुनाया है उसके चलते 15 वीं लोकसभा में युवा सांसदों की संख्या बढ़ी है। इसके चलते लोकसभा में 226 ऐसे सांसद चुनकर आए हैं जिनकी आयु 50 साल से कम है।

दृश्य को निकट से देखें तो युवा नेतृत्व के नाम शोर जरूर मचाया जा रहा है पर इस नाम पर जो चेहरे बताए और जताए जा रहे हैं उसे क्या राजनीतिक रूप से वास्तविक युवा नेतृत्व कहना सही होगा। सही मायने में इनमें ज्यादातर राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं, जो आज नहीं तो कल परिवार की विरासत को संभालने के लिए आगे आते ही। यह बहुत खतरनाक संकेत है, जिसमें आम भारतीय युवा के लिए राजनीति के गलियारे तंग होते जा रहे हैं - बशर्ते वह किसी राजनीतिक परिवार से न आता हो। राजनीति में जनता के बीच संघर्ष करके अपनी जगह बनाने वाले इस सूची में कहां दिखते हैं। इनमें ज्यादातर वे नाम हैं जो विदेशों में पढ़े हैं, युवा अवस्था में ही वे करोड़पति हैं, जनांदोलनों, राजनीतिक प्रशिक्षण से उनका कोई नाता नहीं है, वे सिर्फ बड़े राजनीतिक परिवार के उत्तराधिकारी हैं सो उन्हें बड़े दलों ने टिकट देने से लेकर जिताने की जिम्मेदारी उठाई। इसे भारतीय राजनीति में युवाओं की वापसी की संज्ञा देना या किसी परिवर्तन का वाहक मानना बड़ी भूल होगी। संभव है इस सूची में कुछ ऐसे लोग भी हों जो कुछ नायाब कर जाएं, इतिहास रच जाएं, किंतु आज की तारीख में मिली उनकी उपलब्धि को भारतीय आम नौजवान के खाते में दर्ज करना इतिहास को विकृत करने जैसा है। मामला इतना सीधा नहीं है, यह उपलब्धि सही मायनों राजनीतिक परिवारों की विरासत का स्थानांतरण या विस्तार से ज्यादा नहीं है। साथ ही साथ कड़वा सच यह भी है कि यह उस क्षेत्र के किसी युवा कार्यकर्ता के हक को मारकर पायी गयी उपलब्धि है। यह बात सोचने की है कि जो सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता किसी आशा-विश्वास के साथ राजनीति में आता है, सपने उससे संर्घष करवाते हैं। वह अपने दल के लिए एक या दो दशक की अपनी जवानी को झोंक देता है किंतु जब उसका अवसर आता है तो उसके बड़े नेता का जवान बेटा विदेश से पढ़कर लौटता है और उसका हक मार लिया जाता है। इसी दृश्य को आज महिमा मंडित किया जा रहा है। क्या राजनीति के सितारे अब राजनीतिक घरानों से ही आएंगें। महंगी होती राजनीति में क्या आम नौजवान के लिए अब कोई जगह नहीं बची है - इस विषय पर भी सोचना होगा।

कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी की बात न भी की जाए तो इस दल से जीते राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट, राजस्थान के ताकतवर मिर्धा परिवार की बेटी डा. ज्योति मिर्धा, सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त, मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा, स्व.ओपी जिंदल के पुत्र नवीन जिंदल, हरियाणा के मुख्यमंत्री के बेटे दीपेंद्र हुड्डा, दिल्ली की मुख्यमंत्री के बेटे संदीप दीक्षित, स्व. ललित माकन के परिवार से जुड़े अजय माकन, एबीए गनी खां चौधरी के परिवार से मौसम नूर, माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुभाष यादव के बेटे अरूण यादव, आंध्र के मुख्यमंत्री के बेटे जेएम रेड्डी, नारायण राणे के बेटे नीलेश राणे, स्व. जीतेंद्र प्रसाद के बेटे जतिन प्रसाद, हेमवतीनंदन बहुगुणा के बेटे विजय बहुगुणा, हरियाणा से जीती श्रुति चौधरी युवा नेता हैं या नहीं किंतु राजनीतिक उत्तराधिकारी तो जरूर हैं। कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा ने भी इस परिपाटी को आगे बढ़ाया है। उसके सितारे वरूण गांधी, कर्नाटक के मुख्यमंत्री के बेटे राधवेंद्र, हिमाचल के मुख्यमंत्री के बेटे अनुराग ठाकुर, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे दुष्यंत सिंह कुछ ऐसे नाम हैं जो लोकसभा पहुंचे हैं। क्षेत्रीय दलों में तो परिवार और पार्टी का अंतर ही खत्म हो गया है। मुलायम के बेटे अखिलेश यादव और भतीजे धर्मेंद्र यादव चुनाव जीते हैं। अखिलेश दो सीटों से लड़े और जीते अब यह खाली हो रही एक सीट कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह को दी जा रही है यानि यहां भी कार्यकर्ता की जगह नेता पुत्र को मौका। अजीत सिंह ने भी अपने बेटे जयंत चौधरी को मथुरा से लोकसभा भिजवा ही दिया है। करूणानिधि के परिवार से भी बेटे-बेटी दोनों सांसद हो गए हैं। राकांपा से शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले, पीए संगमा की बेटी भी संसद में पहुंच गयी हैं तो छगन भुजबल के बेटे समीर भुजबल भी चुनाव जीत गए हैं। युवा भारत की इसी तस्वीर का महिमामंडन मीडिया से लेकर राजनीतिक दल कर रहे हैं। क्या वास्तव में यह राजनीति में नौजवानों की बढ़त है। क्या यह लोकतंत्र का विस्तार है या उसका कुछ परिवारों में सिमट जाना है। बावजूद इसके इस अंधेरे में भी रौशनी की किरणें भी हैं, जनता के बीच संगठन के काम करके आगे आए युवा भी हैं जो कम हैं किंतु हैं महत्वपूर्ण, जिनमें कांग्रेस की मीनाक्षी नटराजन, मनीष तिवारी, प्रेमचंद गुड्डू, भाजपा के शाहनवाज हुसैन, राकेश सिंह, मधुसूदन यादव का नाम लिया जा सकता है।

ऐसे में यह सोचना बहुत जरूरी है कि आम भारतीय युवा के लिए राजनीति में किस तरह अवसर बनाए जा सकते हैं। ऐसा न हुआ तो जो चलन चल पड़ा है उसमें भारतीय राजनीति कुछ परिवारों की बंधक बनकर रह जाएगी। जाहिर तौर यह लोकतंत्र के लिए शुभ तो नहीं होगा। अब जबकि नई लोकसभा में 25 से 40 वर्ष की आयु वर्ग के 79 सांसद चुनकर लोकसभा में आए हैं तो यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वे भले ही किसी भी राजनीतिक घराने से हों वे राजनीति में नए प्रयोगों के हमराही बनें। राहुल गांधी जिस युवा राजनीति की कल्पना कर रहे हैं उसमें लोकमंगल की भावनाएं भरकर ही सही परिणाम पाए जा सकते हैं। सपने जगाना आसान है किंतु उनमें रंग भरना कठिन। सत्ता में पुनः लौटी कांग्रेस के लिए यह चुनौती और अवसर दोनों है देखना है युवा ब्रिगेड के नेता राहुल अपनी टीम का कैसा रचनात्मक इस्तेमाल कर पाते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें