लोकसभा के चुनाव परिणाम आते ही समूचे मीडिया का एक अतिसरलीकृत संदेश है कि क्षेत्रीय दल खत्म हो गए हैं और राष्ट्रीय पार्टियां आगे आ गयी हैं। 543 सदस्यों की लोकसभा में कांग्रेस, भाजपा और वामदलों के कुल 342 सदस्य लोकसभा में जीतकर पहुंचे हैं। जबकि 201 सांसद क्षेत्रीय दलों के ही हैं। ऐसे में यह कहना कि क्षेत्रीय पार्टियां नष्ट हो गयी हैं, मामले को बिना विश्लेषण के समझना है। आज भी तमिलनाडु, बिहार, उप्र, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों से ज्यादा सीटें बटोरी हैं।
उत्तर प्रदेश का मैदान आज भी सपा-बसपा के बीच बंटा हुआ हैं जहां से 80 लोकसभा सदस्य जीत कर आते हैं। इस राज्य में सपा को 23 और कल्याण सीट की एक सीट लेकर 24 सीटें हासिल हुयी हैं। जबकि बसपा को 21 सीटें मिली हैं, अजीत सिंह की रालोद को पांच सीटें मिली हैं। इस तरह उप्र में क्षेत्रीय दलों को पचास सीटें मिली हैं। ऐसे में कांग्रेस के उप्र में थोड़े सुधरे प्रदर्शन को उसी नजर से देखना चाहिए। यही हाल दूसरे बड़े राज्य बिहार का है जहां क्षेत्रीय दलों का प्रर्दशन उल्लेखनीय है। वहां जनता दल यू और राजग को जोड़कर चौबीस सीटें मिली हैं। यहां भी राष्ट्रीय दल पीछे हैं। इसी तरह बीजू जनता दल की उड़ीसा में भारी विजय हुयी है। जबकि वे इस बार भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़े हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत एक क्षेत्रीय दल की विजय है। उन्हें राज्य में 19 सीटें मिली हैं। जो एक ऐतिहासिक सफलता के रूप में निरूपित की जा रही है। इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना को 11 और राकांपा को 09 सीटें मिली हैं। जो मिलकर बीस होती हैं। पंजाब में जरूर अकाली दल को झटका लगा पर उसे चार सीटें मिली हैं। तमिलनाडु में डीएमके को 18,अन्नाद्रमुक को 9 सीटें मिली हैं ये दोनों क्षेत्रीय दल ही हैं। कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस को तीन सीटें मिली हैं, राज्य की सत्ता में भी इसी पार्टी का राज है। कुल मिलाकर कुछ दलों के नुकसान को देखते हुए यह कहना गलत है कि क्षेत्रीय दलों का अंत हो गया है। जो क्षेत्रीय दल जनता के साथ वादाखिलाफी न करते हुए सही दिशा में काम कर रहे हैं उन्हें आज भी जनता का प्यार हासिल हो रहा है। नीतिश कुमार और नवीन पटनायक इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। इसी तरह क्षेत्रीय दलों के जिन नेताओं ने सिर्फ अवसरवाद के आधार पर राजनीति की उन्हें जनता ने सबक सिखाया है। ओमप्रकाश चौटाला, रामविलास पासवान, लालूप्रसाद यादव, मायावती को झटका लगना यही बताता है। यहां यह देखना रोचक है कि क्षेत्रीय दल अपनी जमीन का लगातार विस्तार करते रहे हैं। कांग्रेस को आज भी लोकसभा में कुल 206 सीटें हासिल हैं। यानि बहुमत से वह 70 सीटें कम है। जाहिर तौर पर राष्ट्रीय दलों को अभी लंबा रास्ता तय करना है। कांग्रेस आज भी कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन को साथ लेकर ही सफलता तय कर पाई है तो भाजपा का आज भी कई राज्यों में खाता ही नहीं खुला है।
वास्तव में समस्या क्षेत्रीय दल नहीं समस्या क्षेत्रीय सोच और अवसरवाद है। जो राष्ट्रीय दलों में भी कम नहीं है। भारत जैसे बड़े देश में रहते हुए हमारी राजनीति को जिस तरह के अखिलभारतीय चरित्र की जरूरत है, कमी उसकी है। सो पहली आवश्यक्ता अखिलभारतीय चरित्र को बचाने की है। जरूरी यह है कि हम अपनी राजनीति में अखिलभारतीयता की अभिव्यक्ति दें। जिससे देश को सर्वोपरि मानने की भावना का विकास हो। इससे देश में एक ऐसी राजनीतिक शैली का विकास होगा जहां सब साथ मिलकर आगे बढ़ सकेंगें। क्षेत्रीयता एवं जातीयता के आधार पर राजनीति करनेवाले दलों को कोसने के पहले हमें यह सोचना होगा कि क्या हमारी अखिलभारतीय राजनीति में वह ताकत मौजूद है जो सारे देश के विभिन्न समाजों, जातीयों, भाषाओं, समूहों को न्याय देने की स्थिति में हैं। हमें यह देखना होगा कि नारों और भाषणों से आगे आकर हमें सामाजिक न्याय की भावना को वास्तव में अपनी राजनीति में जगह देनी होगी। वह कृपा पूर्वक नहीं सहजता से। ताकि विभिन्न स्तरों में बंटा देश अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति होता देख सके। एक चुनाव में कांग्रेस की सफलता से इतराने के बजाए राष्ट्रीय दलों को यह सोचना होगा कि आखिर क्या कारण थे जिसके चलते क्षेत्रीय दल हमारी राजनीति में इतने प्रभावी हो गए। यह प्रभाव अकारण नहीं था। कहीं न कहीं राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव, राष्ट्रीय दलों की अकर्मण्यता ही इसके लिए जिम्मेदार रही है। न्याय से वंचित समाज, समूह या अस्मिताएं अपने लिए नए रास्ते तलाश ही लेती हैं। क्षेत्रीय दलों का विकास और विस्तार इन्हीं आकांक्षाओं और मांगों के तले होता है। इससे बचा नहीं जा सकता। बचा तभी जा सकता है जब हम अपने तंत्र, व्यवस्था और राजनीति को इतना संवेदनशील बना पाएं कि छोटी-छोटी अस्मिताएं भी वहां न्याय का भरोसा पा सकें। सच यह है कि हमारे तंत्र में संवेदना सिरे से गायब है। उप्र में बसपा का विकास ही नहीं समूची हिंदी पट्टी में सामाजिक न्याय की ताकतों का विकास एक ऐतिहासिक परिघटना है। इनकी आपसी फूट का लाभ लेकर भले राष्ट्रीय दल इतरा लें किंतु इनकी एकता आज भी राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की क्षमता रखती है। उप्र में माया-मुलायम, बिहार लालू-नीतिश की एकता क्या रंग दिखा सकती है करने की आवश्यक्ता नहीं है। सो यह मान लेना की क्षेत्रीय दल खात्मे की ओर है ठीक नहीं है। क्षेत्रीय दलों के विकास के पीछे जो कारण हैं उनका निदान किए बिना राष्ट्रीय दल अपनी खोई हुयी जमीन नहीं पा सकते। डा. लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। लोकलाज राष्ट्रीय दलों ने छोड़ी तो उनका सफाया हुआ, क्षेत्रीय दल छोड़ेंगें तो उनका भी सफाया होगा। अच्छे काम के पुरस्कार मिलते हैं आप क्षेत्रीय दल हों या अखिलभारतीय इससे फर्क नहीं पड़ता। जिसके उदाहरण सामने हैं चाहे वे भाजपा के नरेंद्र मोदी, येदुरप्पा, शिवराज सिंह चौहान, डा. रमन सिंह हों, कांग्रेस की शीला दीक्षित, राजशेखर रेड्डी हों या क्षेत्रीय दलों के नवीन पटनायक अथवा नीतिश कुमार जैसे नेता। कुल मिलाकर भारतीय लोकतंत्र एक परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है जिसमें अब लोग सरकार और उसके नेता के चाल, चरित्र और चेहरे का मूल्यांकन कर मतदान करने लगे हैं। ये शुभ भी है और लोकमंगलकारी भी। ऐसे में क्षेत्रीय दल एक विकल्प के रूप में हमेशा मौजूद रहेगें बावजूद इसके राष्ट्रीय दलों की जिम्मेदारी ज्यादा है क्योंकि अखिलभारतीय चरित्र का दावा तो वे ही करते हैं। इसमें उनकी विफलता ही क्षेत्रीय दलों के विस्तार का कारण बनती है।
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