गुरुवार, 30 मई 2013

अब क्या होगा छत्तीसगढ़ कांग्रेस का ?






क्या चरणदास महंत को मिलेगी चुनावी अभियान की कमान
-संजय द्विवेदी
   माओवादी आतंकवाद के निशाने पर आई छत्तीसगढ़ कांग्रेस के तीन दिग्गज नेताओं महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और उदय मुदलियार की मौत ने पार्टी के आत्मविश्वास व संगठन को हिलाकर रख दिया है। एक प्रखर राजनीतिक अभियान पर यह पहली सबसे मर्मांतक चोट है, जिसे कई सालों तक भुलाया नहीं जा सकेगा। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इन हालात में पार्टी किस नेता पर दांव लगाएगी जो उसे इस संकट से उबारकर आगामी चुनाव में सत्ता तक पहुंचा सके।
आदिवासी क्षेत्रों में कड़ी चुनौतीः बस्तर में महेंद्र कर्मा कांग्रेस के एकमात्र ऐसे नेता थे जिनकी अखिलभारतीय पहचान थी और माओवाद के खिलाफ उनका संघर्ष उन्हें चर्चाओं में बनाए रखता है। सही मायने में पिछले लंबे समय तक कांग्रेस में महेंद्र कर्मा और भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे बलिराम कश्यप ही इस क्षेत्र की राजनीति के दो केंद्र बिंदु बने रहे। यह दुर्भाग्य ही है कि जब बस्तर अपने इतिहास और वर्तमान के सबसे बड़े संकट के सामने है तो ये नेता हमारे बीच नहीं हैं। भाजपा ने पिछले दो विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करते हुए इस इलाके में अपनी पैठ साबित की है किंतु कांग्रेस के लिए संकट काफी गहरा है। एक तो बस्तर की 12 में से 11 विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है साथ ही कांग्रेस के सामने नेतृत्व का भी संकट खड़ा हुआ है।
   बस्तर इलाके में पिछले विधानसभा चुनावों में अकेले कवासी लखमा कोंटा क्षेत्र से चुनाव जीत सके थे। स्वयं महेंद्र कर्मा को दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से पराजय मिली थी। ऐसे में कांग्रेस के सामने यह संकट है कि वह इस इलाके में अपनी खोयी हुयी हैसियत फिर से कैसे प्राप्त करे। श्री नंदकुमार पटेल के अध्यक्ष बनने के बाद बस्तर और प्रदेश के अन्य आदिवासी इलाकों में कांग्रेस ने अपनी गतिविधियां प्रारंभ कीं। लगातार कार्यकर्ता सम्मेलनों के बहाने इस इलाके में कांग्रेस को झकझोरकर जगाने के काम में पटेल लगे थे। उनकी दुखद हत्या भी ऐसे ही एक राजनीतिक अभियान में हो गयी। अब सवाल यह उठता है कि कांग्रेस जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई करने और उठकर संभलने में उसे कितना वक्त लगेगा। माओवादियों के निशाने पर शायद इसलिए नंदकुमार पटेल थे क्योंकि वे एक ऐसे इलाके में राजनीतिक शून्य को भरने की कोशिश कर रहे थे, जहां नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही थी। जाहिर तौर पर किसी सियासी या सरकारी गतिविधि को चलता देखकर माओवादी विचलित हो उठते हैं। वह चाहे विकास के काम हों, सरकारी तंत्र की सक्रियता हो या राजनीतिक दलों की सक्रियता और उनके आंदोलन। माओवादी नहीं चाहते कि उनके रचे इस स्वर्ग या नरक में कोई बाहरी शक्ति आए और उनके समर्थन आधार पर किसी तरह का फर्क पड़े। ऐसे में कांग्रेस के लिए संकट यह है कि वह इन इलाकों किसके भरोसे वापस जनता का भरोसा पा सकती है।
दिग्गजों के बिनाः हमले में शहीद हुए नेता महेंद्र कर्मा जहां बस्तर इलाके में एक खास पहचान रखते थे, वहीं रायगढ़ क्षेत्र में नहीं बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में पिछड़ा वर्ग और अधरिया समाज के बीच नंदकुमार पटेल एक महत्वपूर्ण नाम बन चुके थे। लंबे समय तक मप्र और छत्तीसगढ़ में गृहमंत्री रहने के नाते वे समाज के अन्य वर्गों में भी लोकप्रिय थे। मेहनती और निरंतर दौरा करने वाले नेता के नाते वे कम समय में कार्यकर्ताओं के बीच खासे लोकप्रिय हो चुके थे। यह साधारण नहीं है उनके प्रयत्नों से ही राज्य में पस्त पड़ी कांग्रेस राज्य में सत्ता के स्वप्न देखने लगी थी। इसके साथ ही इस हौलनाक हमले में शहीद हुए उदय मुदलियार कांग्रेस संगठन के एक महत्वपूर्ण नाम थे। वे मुख्यमंत्री रमन सिंह से पिछला चुनाव राजनांदगांव से हार गए थे। यह उनकी हार कम मुख्यमंत्री की जीत ज्यादा थी। इसके साथ ही जीवन और मृत्यु से जूझ रहे छत्तीसगढ़ कांग्रेस के सबसे आदरणीय अनुभवी और बुर्जुग नेता विद्याचरण शुक्ल जो 84 साल की आयु में भी अपनी सक्रियता में नौजवानों से होड़ लेते थे, मेंदांता अस्पताल में भरती हैं। कुल मिलाकर राज्य के इन दिग्गजों की चुनाव अभियान में अनुपस्थिति से कांग्रेस अपने आपको कैसे उबारेगी इसे देखना होगा।
आलाकमान का तुरूप कौनः ले-देकर उम्मीद की किरणें उठती हैं केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री चरणदास महंत पर। वे राज्य से अकेले लोकसभा सदस्य होने के साथ-साथ मोतीलाल वोरा, दिग्विजय सिंह के निकट भी हैं। राहुल गांधी जब से कांग्रेस में निर्णायक बने हैं वे अपनी एक नई टीम हर राज्य में खडी करने की कोशिशें कर रहे हैं। मप्र में कांतिलाल भूरिया और नेता प्रतिपक्ष राहुल सिंह को इसी नजरिए से देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ में नेता प्रतिपक्ष के रूप में रवींद्ग चौबे और प्रदेश अध्यक्ष के नाते नंदकुमार पटेल की नियुक्ति एक पीढ़ीगत बदलाव ही थी। जबकि सदन में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी विधायक के नाते मौजूद थे। राजनीतिक क्षेत्रों में यह चर्चा है कि कांग्रेस ताजा संकट से उबरने के लिए चरणदास महंत को राज्य की जिम्मेदारी दे सकती है। चरणदास महंत कांग्रेस के कद्दावर नेता स्व.बिसाहूदास महंत के सुपुत्र हैं। श्री बिसाहूदास महंत को कांग्रेस की राजनीति में खासा सम्मान प्राप्त था। वे समूचे मप्र में पिछड़ा वर्ग के बडे नेताओं में जाने जाते थे। श्री अर्जुन सिंह से उनकी निकटता किसी से छिपी नहीं थी।
   एक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवार की विरासत महंत का एक बड़ा संबल है। इसके साथ ही वे मप्र सरकार में मंत्री रहे हैं। विधानसभा और लोकसभा दोनों के चुनावों का अनुभव और लंबा समय उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में बिताया है। यह संयोग भी होगा कि प्रदेश की कमान फिर बिलासपुर संभाग के ही हाथ होगी। नंदकुमार पटेल भी इसी इलाके के खरसिया क्षेत्र से विधायक थे। महंत का कार्यक्षेत्र और चुनाव क्षेत्र कोरबा—जांजगीर भी इसी क्षेत्र में हैं। बावजूद इसके बस्तर और सरगुजा जैसे इलाकों में कांग्रेस को अपना खोया जनाधार पाने की चुनौती शेष रहेगी। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अपने जनाधार के बावजूद कांग्रेस के सभी गुटों और नेताओं में अपनी स्वीकार्यता नहीं बना पा रहे हैं। उनकी भूमिका चुनावों में क्या होती है यह भी एक बड़ा सवाल है। अपने तीन दिग्गजों को खोकर कांग्रेस एक बड़े संकट के सामने है। अब वह अपनी दूसरी पंक्ति के नेताओं रवींद्र चौबे, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू, भूपेश बधेल के सहारे है, जिसमें चौबे को छोड़कर पिछले विधानसभा चुनावों में तीनों नेता अपनी सीट भी नहीं बचा पाए हैं। देखना है कि कांग्रेस आलाकमान किस नेता पर भरोसा करते हुए राज्य की कमान सौंपता है। क्योंकि आने वाले समय में कांग्रेस को एक ऐसा नायक चाहिए जो राज्य के बिखरे कांग्रेसियों को एक करते हुए नंदकुमार पटेल के अधूरे काम को पूरा कर सके। पार्टी में एकता और आत्मविश्वास फूंक सकने वाला नेतृत्व ही राज्य भाजपा की मजबूत सांगठनिक ताकत व सरकार की शक्ति का मुकाबला कर पाएगा। देखना है कांग्रेस किस राजनेता पर अपना दांव लगाकर उसे छत्तीसगढ़ के मैदान में उतरती है।
(लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें