सोमवार, 27 मई 2013

खामोश हुयी माओवाद के खिलाफ आखिरी आवाज



मौला! हमें भी कर्मा जी जैसी हिम्मत बख्शे
-संजय द्विवेदी
   बस्तर में माओवादी आतंकवाद के खिलाफ महेंद्र कर्मा सही मायने में आखिरी आवाज थे। वे आदिवासियों की अस्मिता, उनके स्वाभिमान और उनकी पहचान के प्रतीक थे। भाजपा दिग्गज बलिराम कश्यप के निधन के बाद महेंद्र कर्मा का चले जाना जो शून्य बना रहा है, उसे कोई आसानी से भर नहीं पाएगा।
  कर्मा यूं ही बस्तर टाइगर नहीं कहे जाते थे। उनका स्वभाव और समझौते न करने की उनकी वृत्ति ने उन्हें यह नाम दिलाया था। माओवादियों की इस अकेले आदमी से नफरत का अंदाजा आप इस बात से  लगा सकते हैं कि उन वहशियों ने कर्मा जी के शरीर पर छप्पन गोलियां दागीं, उनके शरीर को बुरी तरह चोटिल किया और वहां डांस भी किया। कल्पना करें यह काम भारतीय राज्य की पुलिस ने किया होता तो मानवाधिकारवादियों का गिरोह इस घटना पर कैसी हाय-तौबा मचाता। किंतु नहीं, बस्तर के इस वीर के लिए उनके पास सहानुभूति के शब्द भी नहीं हैं, वे यहां भी किंतु-परंतु कर रहे हैं। टीवी पर बोलते हुए ये माओवादी समर्थक बुद्धिजीवी और तथाकथित संभ्रात लोग इस घटना को जस्टीफाई कर रहे हैं।
    महेंद्र कर्मा सच में बस्तर के सपूत थे। एक आदिवासी परिवार से आए कर्मा ने कम समय में ही समाज जीवन में जो जगह बनाई उसके लिए लोग तरसेंगें। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों की विशाल सेना भी इस निहत्थे आदमी से डरती थी। इसलिए वे आत्मसमर्पण करने के बावजूद मारे जाते हैं। क्योंकि माओवादियों को पता है कि महेंद्र कर्मा मौत से डरने और भागने वाले इंसानों में नहीं थे। बस्तर से निर्दलीय सांसद का चुनाव जीतकर उन्होंने बता दिया था कि वे वास्तव में बस्तर के लोगों के दिल में रहते हैं। सांसद,विधायक,राज्य सरकार में मंत्री का पद हो या नेता प्रतिपक्ष का पद उनके व्यक्तित्व के आगे सब छोटे थे। कर्मा अपने सपनों के लिए और अपनों के लिए जीने वाले नेता थे।
  सलवा जूडूम के माध्यम से उन्होंने जो काम प्रारंभ किया था वह काम भले कुछ शिकायतों के चलते बंद हो गया और सुप्रीम कोर्ट को इसमें दखल देनी पड़ी, पर जब युद्ध चल रहा हो तो लड़ाई सामान्य हथियारों से नहीं लड़ी जाती। उस समय उन्हें जो उपयोगी लगा उन्होंने किया। हिंसा के खिलाफ हिंसा, सिद्धांतः गलत है पर सामने जब दानवों की सेना खड़ी हो, जहरीले नाग खड़े हों जो भारतीय समाज और लोकतंत्र के शत्रु हों, उनसे लड़ाई लड़ने के लिए कौन से हथियार चाहिए, इसे शायद कर्मा जी ही जानते थे। अपनी शहादत से एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया है कि माओवादियों से संवाद और बातचीत के भ्रम में सरकारें पड़ी रहीं, तो वे यूं ही निर्दोषों का खून बहाते रहेंगें।  
  कर्मा जानते थे कि माओवादियों के विरोध की दो ही कीमत है एक तो वे चुनाव हार जाएंगें और दूसरे एक दिन जान से मारे जाएंगें। आसन्न मौत देखकर भी कर्मा माओवादियों से कहते हैं मैं हूं महेंद्र कर्मा मुझे मारो, मेरे साथियों को छोड़ दो। आखिर यह साहस कहां से आता है? टीवी कैमरों  के सामने  बैठकर बडी-बड़ी बातें करने से, बौद्धिक विमर्शों से, कथित जनक्रांति की बातें करने से- नहीं, नहीं, यह हिम्मत आती है अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार होने और अपने सच के लिए प्रतिबद्ध रहने से। कर्मा जी ने पिछले चुनाव के पहले अपने अनेक साक्षात्कारों में पत्रकारों से कहा था मैं चुनाव हारूं या जीतूं नक्सलियों से लड़ता रहूंगा। समय ने इसे सच साबित किया वे दंतेवाड़ा से वे हार गए , भाजपा के प्रत्याशी भीमा मंडावी जीते, कम्युनिस्ट उम्मीदवार मनीष कुंजाम दूसरे और कर्मा तीसरे स्थान पर रहे। छत्तीसगढ़ की सरकार और नौकरशाही सलवा जूडूम बंद होने के बाद अपने-अपने काम में लग गयी। लेकिन कर्मा अपने सच और अपने इरादों के साथ जीने वाले व्यक्ति थे। माओवादी भी यह बात जानते थे कि कर्मा जैसे लोग जब तक जिएंगें आदिवासियों के बीच माओवाद कभी स्वीकार्य विचार नहीं बन पाएगा।
   सीपीएम काडर के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू करने वाले कर्मा अगर कांग्रेस के झंडे तले आते हैं तो वह उनके बदलते वैचारिक रूझानों का भी प्रकटीकरण है। वे अपने दल और उसकी छत्तीसगढ़ में बनी सरकार के पहले मुख्यमंत्री के भी बहुत प्रिय नहीं रहे, क्योंकि रीढ़ वाला आदमी राजनीति में कहां स्वीकार्य है। कर्मा अपनी पार्टी की नाराजगियां झेलकर भी अपने रास्ते चलते रहे। वे जानते थे कि राजनीतिक समाधान और राजनीतिक सक्रियता से ही बस्तर को माओवादियों के आंतक से मुक्त कराया जा सकता है। कर्मा जी के साथ मुझे काम करने और पत्रकार होने के नाते संवाद करने का कई बार मौका मिला। जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ में रहते हुए उन पर दिल से टीवी कार्यक्रम बनाते समय लंबी बातचीत का मौका मिला। वे वास्तव में एक देसी आदमी थे, जिसे राजनीति की बहुत चालाकियां नहीं आती थीं। वे सीधी राह चलने वाले साफ-गो इंसान थे। ऐसा इंसान ही अपने लोगों का दर्द उनके ही शब्दों में ही व्यक्त कर सकता है। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उन्होंने छत्तीसगढ़ की सरकार का लगातार नक्सलवाद के सवाल पर साथ दिया। सरकार को लगातार दिशा दी और सलवा जूडूम में उनके साथ खड़े रहे, किंतु नौकरशाही और सरकार की सीमाएं प्रकट हैं। कर्मा की साफ मंशाओं के बावजूद जिस तरह के षडयंत्र हुए वे सबको पता हैं।
   पतित राजनीति, भ्रष्ट नौकरशाही, लाचार सुरक्षाबल जिनके हाथ बंधें हों -कुछ करने की स्थिति बनने कहां देते हैं? दूसरी तरफ चतुर, चालाक, एकजुट,समर्पित और कुटिल माओवादी और उनके वैचारिक समर्थक थे। जाहिर है कर्माजी उनसे कहां पार पाते। एक ऐसे आदमी से जो चुनाव हार गया था, जिसके प्रवर्तित सलवा जूडूम पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी, जिसके अपने राजनीतिक दल कांग्रेस में भी उसकी बहुत सुनवाई नहीं थी-ऐसे आदमी से भी अगर माओवादी कांप रहे थे, तो यह मानना पड़ेगा कि तमाम बारूदी सुरंगों, विदेशी हथियारों और राकेट लांचर पर कर्माजी की अकेली आवाज भारी थी। माओवादियों ने कर्माजी के साथ जो किया वह सिवा कायरता, नीचता और अमानवीयता के क्या है, किंतु कर्मा के बारे में आपको इतना तो कहना पड़ेगा कि वह शेर था और शेर की तरह जिया। उसने अपनी जिंदगी और मौत दोनों एक बहादुर की तरह चुनी। हमारे जैसे उनके जानने वालों को इस बात का गर्व है कि हमने कर्मा को देखा था। किस्सों में हमने जान हथेली पर रखकर देश के लिए कुर्बानियां देने वाले पढ़े और सुने हैं। किंतु ऐसे एक बहादुर को हमने अपनी आंखों देखा है, उससे बात की है- कर्मा जी के जाने के बाद हमारे पास नम आंखें हैं, दुआ है कि मौला हमें भी कर्मा जी जैसी जिंदगी और हिम्मत बख्शे।

7 टिप्‍पणियां:

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  2. किस्मत भी कभी - कभी बहादुरों के साथ दगा कर जाती है ! बस्तर के शेर को एक विनम्र श्रद्धांजलि !

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  3. बस्तर के शेर को एक विनम्र श्रद्धांजलि ! शत शत नमन ऐसे वीर पुरुष को |

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  4. गुरुदेव, सूचना मात्र।
    पोस्ट को चोरी कर के आर्यावर्त पर चस्पा दिया गया है।

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  5. शत शत नमन एक भारत मॉं के वीर सरूत को

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  6. खतरा है इस दौर में , बुजदिलो से दिलेर को ..
    धोखे से काट लेते है , कुत्ते भी शेर को ।

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