गुरुवार, 30 जनवरी 2014

नरेंद्र मोदी से कौन डरता है?

-संजय द्विवेदी
    आखिर नरेंद्र मोदी में ऐसा क्या है कि वे सबके निशाने पर हैं। अपनी पार्टी के भीतर एक लंबा युद्ध लड़कर आखिरकार जब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो ही चुके हैं तो अन्य दलों को उनके नाम से घबराहट क्यों हैं। आखिर क्या कारण है कि दंगों की लंबी सूची दर्ज करा चुके उप्र के सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव उन्हें नहीं डराते किंतु मोदी के नाम से सेकुलर खेमों में हाहाकार व्याप्त है। मुजफ्फरनगर के बाद के हालात में भी मुलायम सेकुलर खेमे के चैंपियन हैं और उनके नाम से किसी को कोई आपत्ति नहीं है। क्या यह हमारी राजनीति का चयनित दृष्टिकोण नहीं है? राजनीति के इसी रवैये की परतें अब खुल रही हैं। केजरीवाल हमें अपनी सादगी से डराते हैं, तामझाम और सत्ता के प्रतीकों को छोड़कर डराते हैं तो मोदी की काम करने की शैली, विकास और सुशासन के लिए किए गए उनके प्रयास डराते हैं।
   लगता है कि हमारी राजनीति अब सुविधा और सामान्यीकरणों की शिकार हो रही है। परिवर्तन लाने की संभावना से भरे नायक हमें डराते हैं। यह यथास्थितिवादी चरित्र क्या इस देश की राजनीति और समाज जीवन को विकलांग नहीं बना रहा है? कोई भी ऐसा नायक जो संभावनाओं से भरा है हमें क्यों डराता है? आखिर क्या कारण है कि विकास की जिन संभावनाओं और सुशासन के जिन मानकों को गुजरात में मोदी और उनकी सरकार ने संभव किया है, उसे देश में दुहराने से हम डरते हैं ? जबकि मायावती, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव, उमर अब्दुला जैसा प्रशासन हमें नहीं डराता। हमें नए-नवेले केजरीवाल की राजनीति से ठंड में पसीने आ जाते हैं क्योंकि वे कुछ ऐसे असुविधाजनक सवाल उठाते हैं जिनकी मुख्यधारा की राजनीतिक में स्वीकार्यता नहीं है। आखिर हमारी राजनीति इतनी बेचारगी से क्यों भर गयी है? क्यों नए प्रतीक, नए प्रयोग, क्रांतिकारी विचार हमें आह्लादित नहीं करते? उनके साथ खड़े होने में हमें संकोच क्यों होता है ?कांग्रेस- भाजपा और तीसरे मोर्चे के बंटे हुए मैदान में कोई नया खिलाड़ी हमें आतंकित क्यों करने लगता है?
    क्यों हमें सांप सूंघ जाता है जब दिल्ली के लुटियन जोन में बसने वाले लोगों के अलावा कोई नरेंद्र मोदी दिल्ली की तरफ बढ़ता है? क्या नरेंद्र मोदी इस देश के एक बेहद समृद्ध राज्य के अरसे से मुख्यमंत्री नहीं हैं? उनके शासन करने के तरीके को लेकर तमाम विवादों के बावजूद क्या उनका राज्य समृद्घि के शिखर नहीं छू रहा है। महाराष्ट्र जैसे विकसित इलाके जब नकारात्मक सूचनाओं से भरे हों तो क्या मोदी का सुशासन साथी हमें आकर्षित नहीं करता। उदारीकरण के पैदा हुए तमाम अवसरों ने हमें व्यापक संभावनाओं से भर दिया है। किंतु क्या कोई दिशाहीन सरकार इन अवसरों का लाभ ले सकती है। नरेंद्र मोदी जैसे अनुभवी और केजरीवाल जैसे अनुभवहीन कैसी भी सरकार चलाएंगें वह मनमोहन सिंह और शीला दीक्षित की सरकार से बेहतर ही होगी। सच तो यह है कि मनमोहन सिंह की दिशाहारा-थकाहारा सरकार ने राहुल गांधी जैसे भोले युवा के लिए प्रधानमंत्री बनने के मार्ग में जैसी मुसीबतें खड़ी कर दी हैं कि उनका इस चुनाव में प्रधानमंत्री बन पाना असंभव ही दिखता है। जबकि सत्य यह है कि राहुल गांधी चाहते तो पांच साल पहले ही प्रधानमंत्री बन सकते थे। किंतु उनकी मां और कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने न जाने किन स्वदेशी-विदेशी दबावों में मनमोहन सिंह को झेलने का निर्णय लिया था। मनमोहन सिंह- पी.चिदंबरम- मोंटेंक सिंह अहलूवालिया और कपिल सिब्बल जैसों ने कांग्रेस को जिस मुहाने पर ला खड़ा किया है कि अब अंधेरा घना होता जा रहा है। प्रधानमंत्री पद के लिए उपलब्ध उम्मीदवारों में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी निश्चित ही आमने-सामने हैं किंतु मोदी के पास चमकदार, विकासोन्मुखी राजनीति के साल हैं तो राहुल गांधी के पास दस की कांग्रेसी सरकार के कारनामे हैं। राहुल गांधी और सोनिया गांधी को इनके कामों का हिसाब देना होगा। राहुल गांधी के सामने तमाम चुभते हुए सवाल हैं। जिनमें प्रमुख यह कि अगर राहुल गरीब समर्थक और आम आदमी समर्थक नीतियों  के पैरोकार हैं, अगर वे कलावतियों की जिंदगी में उजाला चाहते हैं तो आखिर मनमोहन सिंह इस सरकार के दस तक प्रधानमंत्री कैसे और क्यों बने रहे जिनकी समूची राजनीति बाजार समर्थक और विदेशी इशारों पर चलती रही। उन्हें देश में इस सवाल से जूझना होगा कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के राज में महंगाई चरम पर क्यों है? रूपया इस दुर्गति को क्यों प्राप्त है? उन्हें यह भी बताना होगा कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में रोज घोटाले क्यों हो रहे हैं? जाहिर तौर पर राहुल के सामने बहुत असुविधाजनक सवाल आएंगें।
    इसके विपरीत नरेंद्र मोदी को यह सुविधा हासिल है उनके पास गुजरात जैसे विकसित राज्य के मुख्यमंत्री और बेहतर प्रशासक होने का तमगा है। साथ ही पिछले दस साल की केंद्र सरकार की नाकामियों का इतिहास भी नरेंद्र मोदी को मदद देता नजर आता है। इतिहास ने इस कठिन समय में नरेंद्र मोदी को स्वयं ऐसे अवसर दिए हैं जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है। सही मायने में देश में कुशासन, भ्रष्टाचार और अकमर्ण्यता को लेकर एक आलोड़न है। जनता के मन में रोष भरा हुआ है। टेलीविजन समय ने इस पूरे बेशर्म समय को खूबसूरती से दर्ज किया है। इसके चलते सत्ता विरोधी और कांग्रेस विरोधी रूझान सर्वत्र प्रकट हो रहा है। इसके चलते ही कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से कल तक अपने विरोधी रहे केजरीवाल और उनके मित्रों की ओर बड़ी आस से देखना शुरू कर दिया है। उन्हें लगता है सत्ता विरोधी वोटों को बांटकर वे अपनी सत्ता बचा लेगें। कांग्रेस की पूरी रणनीति दिल्ली प्रदेश के चुनाव के बाद बदल गयी लगती है। वे पूरी तरह से अब केजरीवाल की पार्टी द्वारा किए जाने वाले सत्ता और केंद्र विरोधी वोटों के बंटवारे पर केंद्रित हो चुके हैं। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी की यह दशा सोचनीय लगती है। जिस कांग्रेस ने देश की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व किया है उसके नेतृत्व का इस तरह बेचारा होना एक बड़ा प्रश्न है। इक्कीसवीं सदी में देश एक मजबूत भारत चाहता है। उसके सपने अलग हैं। हिंदुस्तान के नौजवानों की आंखों में एक बेहतर भविष्य उमड़-घुमड़ रहा है। वे लोकतंत्र की इस बेचारगी को ठगे-ठगे से देख रहे हैं। सामने मोदी आएं या केजरीवाल सभी उम्मीदें जगाते हैं। लोग उनकी तरफ दौड़ जाते हैं। दिल्ली की केंद्र सरकार ने जिस तरह लोगों का दिल तोड़ा है कि लोग उम्मीदों से खाली हो चुके हैं। ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी एक आस जगाते हुए नेता हैं। उनके पास भाजपा जैसी बड़ी पार्टी और संघ परिवार का व्यापक आधार है। उनकी पार्टी के पास दिल्ली से लेकर राज्यों में सरकार चलाने के अनुभव हैं। राजग के रूप में उनके नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने एक बेहतर गठबंधन सरकार चलायी है। ऐसे में भाजपा अगर अकेले दम पर 200 सीटों के आसपास पहुंच सकी तो कोई कारण नहीं कि दिल्ली को फिर एक भाजपाई प्रधानमंत्री मिल सकता है। देखना है कि भाजपा इस बेहद खूबसूरत अवसर का किस तरह लाभ उठा पाती है। 

 (लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

शनिवार, 25 जनवरी 2014

नरेंद्र मोदीः सपनों का सौदागर!



अपनी भाषणकला, सुशासन व विकास की राजनीति से जगाईं उम्मीदें
                                                - संजय द्विवेदी
    कभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा था, उनका यह एक वाक्य नरेंद्र मोदी के लिए वरदान बन गया। उन्होंने सोनिया जी की इस टिप्पणी को गुजरात और गुजरातियों का अपमान बताते हुए 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव में ऐसा कैंपेन किया कि कांग्रेस को इन चुनावों में भारी पराजय का सामना करना पड़ा। ऐसे में गुजरात तो मोदी का हो ही चुका था। किंतु 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की पराजय से मोदी के सपनों को पंख लग गए। उसके बाद से ही नरेंद्र मोदी ने अपने राज्य गुजरात की सरहदों को छोड़कर देश के सपने देखने शुरू कर दिए। उनके नेतृत्व में लगातार तीन विधानसभा चुनावों की जीत ने उन्हें यह आत्मविश्वास और हौसला दिया। इन दिनों वे विकास, सुशासन और दृढ़ता के ऐसे प्रतीक बनकर उभरे हैं, जिसमें देश अब अपनी उम्मीदों और सपनों का अक्स देख रहा है।
  गुजरात की सफलताएं, मोदी की भाषणकला, भाजपा का विशाल संगठन तंत्र, कांग्रेस सरकार की विफलताएं और भ्रष्टाचार की कथाएं एक ऐसा वातावरण बना चुकी हैं जहां नरेंद्र मोदी एक महानायक सरीखे नजर आते हैं। मोदी की इस यात्रा को समझने के लिए भाजपा के भीतर के उनकी स्वीकार्यता को लेकर संकटों को याद कीजिए। याद कीजिए गोवा बैठक में रूठे लौहपुरूष का न पहुंचना। याद कीजिए कि कैसे मोदी को गोवा में भाजपा ने स्वीकारा। स्वीकारने वाले नेताओं की देहभाषा और चेहरों को याद कीजिए। बाद में वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी घोषित कर दिए गए। इसे साधारण परिघटना मत मानिए क्योंकि मोदी का चयन भाजपा चलाने वालों ने नहीं किया था। याद करिए गोवा में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के वाक्य। वे कहते हैं- लोकतंत्र में जो लोकप्रिय होता है वही नेता होता है। और तमाम विरोधों और फुसफुसाहटों के बावजूद नरेंद्र मोदी को भाजपा अपना नेता मान लेती है। सही मायने में यह जनभावना को समझकर उठाया गया कदम था।
    मोदी ने जिस तरह साधारण परिवेश से आकर अपनी जड़ें पहले संगठन और फिर अपने गृहराज्य में जमाईं वह करिश्मा ही कहा जाएगा। वे संगठन के साधारण कार्यकर्ता के नाते काम करते हुए शिखर तक पहुंचे। अपनी प्रशासनिक क्षमता और दक्षता को उन्होंने जमीन पर उतार कर दिखाया। अपनी निरंतर आलोचनाओं से न डरे, न सहमे, बस काम करते गए। इसी कर्मठता ने उनके नायकत्व पर मोहर लगा दी। गुजरात दंगों के बाद से आज तक वे मीडिया, मानवाधिकारवादियों, राजनीतिक विरोधियों के निरंतर निशाने पर हैं। देश भर में होते आए दंगों को नजरंदाज करने वाली राजनीतिक जमातें उनके पीछे पड़ी रहीं। अपने अल्पकालीन शासन में ही उप्र में हुए दो दर्जन दंगों के श्मशान पर बैठे मुलायम सिंह और अखिलेश यादव जैसे लोग भी जब मोदी की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े करते हैं तो अफसोस होता है। कांग्रेस जिसके हिस्से दंगों का एक लंबा सिलसिला है वह भी मोदी को कोसने से बाज नहीं आती। जबकि मोदी के राज में उस आखिर दंगें के बाद क्या दंगें दुहराए गए ? क्या वहां के अल्पसंख्यक दूसरे किसी भी राज्य के अल्पसंख्यकों से बेहतर अवस्था में नहीं हैं? साथ ही एक बड़ा सवाल यह भी कि क्या गोधरा में अगर ट्रेन की बोगियों को जलाकर यात्रियों की निर्मम हत्या नहीं होती तो गुजरात में दंगे होते। वस्तुनिष्ट होकर सोचा जाए तो यह दंगे, गोधरा कांड की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए थे। कोई भी सरकार ऐसे मामलों में नियंत्रण के सिवा क्या कर सकती है। क्या कारण है उप्र में सेकुलर चैंपियन यादव परिवार की सरकार दंगे रोक नहीं पाई? ऐसे में दंगों के जख्म को कुरेदने के बजाए उसके बाद गुजरात में हुए विकास और उसकी चौतरफा प्रगति को रेखांकित करने की जरूरत है।
  खुशी की बात है कि गुजरात इन जख्मों को भूलकर आगे बढ़ चुका है। अपने खिलाफ व्यापक और लगातार चले नकारात्मक अभियानों के बावजूद नरेंद्र मोदी आज देश को एक सकारात्मक राजनीति की ओर ले जा रहे हैं। हैदराबाद, पटना से लेकर हाल के रामलीला मैदान में हुए उनके भाषणों में भारत का मन धड़कता है, उसके सपने साफ दिखते हैं। सही मायने में मोदी भारत के मन और उसकी आकांक्षाओं को समझने वाले नेता हैं। उनको पता है कब कैसे और क्या कहना है। शायद इसीलिए रामलीला मैदान में उनका भाषण देश की जनता के सामने उन सपनों की मार्केटिंग जैसा भी था, जिसमें उन्होंने बताया कि आखिर वे कैसा भारत बनाना चाहते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में अपने विजन को स्थापित करते हुए उन्होंने जो कुछ कहा उससे पता चलता है कि वे एक बेहतर और मजबूत सरकार देने की आकांक्षा से लबरेज हैं। शायद इसीलिए देश उन्हें बहुत उम्मीदों से देख रहा है।
   रामलीला मैदान में उन्होंने जो अवसर चुना वह अभूतपूर्व था। रामलीला मैदान वैसै भी इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाओं का केंद्र बना हुआ है। उससे निकली आवाजें पिछले दो सालों से सारे देश को आंदोलित कर रही हैं। मोदी ने भी अपने भाजपा काडर की मौजूदगी का लाभ लेते हुए उन्हें तो संदेश दिया ही, देश को भी उत्साह से भर दिया। भाजपा के कार्यकर्ता वैसे भी अटल जी सरकार के पराभव के बाद निराशा से भरे थे। दो बार की पराजय ने उन्हें दिशाहारा और थकाहारा बना दिया था। मोदी के नेतृत्व ने पूरे कार्यकर्ता आधार को रिचार्ज कर दिया है। पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस पूरी राजनीतिक परिघटना पर सर्तक निगाहें लगाए हुए है। दिग्विजय सिंह यूं ही यह बात नहीं कहते कि इस बार चुनाव संघ और कांग्रेस के बीच है। कांग्रेस की बौखलाहट का स्तर इसी से पता चलता है कि उनके पढ़े-लिखे मणिशंकर अय्यर जैसे नेता भी सड़कछाप बयानबाजी पर उतर आए हैं जिसमें वे कांग्रेस अधिवेशन में मोदी को चाय बेचने का आफर देते नजर आते हैं। जाहिर तौर पर कांग्रेस में गहरी निराशा और अवसाद का वातावरण है। राहुल गांधी के सौम्य चेहरे के बावजूद मनमोहन सरकार के दस साल कांग्रेस पर भारी पड़े हैं। देश ने ऐसी जनविरोधी, भ्रष्ट और अकर्मण्य सरकार कभी नहीं देखी। देश आज यह सवाल पूछ रहा है कि आखिर वह कौन सी मजबूरियां थीं जिसके चलते श्रीमती सोनिया गांधी ने एक अराजनैतिक व्यक्ति को देश की बागडोर दस सालों तक सौंप रखी। मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और कपिल सिब्बल जैसे लोगों ने कांग्रेस की जो गत की है उससे उबरने के लिए कांग्रेस को काफी वक्त लगेगा।
   ऐसी निराशा में देश को एक नायक का इंतजार था। उसे जहां मौका मिल रहा है, वह अपनी प्रतिक्रिया जता भी रहा है। दिल्ली में उसने कांग्रेस को रसातल में पहुंचा कर भाजपा और आप को सर्वाधिक सीटें प्रदान कीं। तो वहीं मिजोरम छोड़कर राजस्थान, मप्र और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें स्थापित हो गयीं। यह देश के मन का एक संकेत भी है। इन चार राज्यों में कांग्रेस की पिटाई बताती है कि देश क्या सोच रहा है। ताजा चुनाव सर्वेक्षण भी भाजपा के आगे बढ़ने का बातें ही कर रहे हैं। निश्चय ही इसके पीछे नरेंद्र मोदी की छवि एक बड़ा कारण है। देश कांग्रेस के राज से मुक्ति चाहता है। शायद इसीलिए मोदी यहां भी खेलते हैं, वे पांच मंत्र देते हैं-एक-एक ही मजहबः भारत सबसे पहले। दो- एक ही धर्मग्रंथः भारत का संविधान। तीन- एक ही शक्तिः देश की जनशक्ति। चार-एक ही भक्तिः देश की राष्ट्रभक्ति। पांच- एक ही लक्ष्यःकांग्रेस मुक्त भारत।
  सही मायने में भारतीय समाज में इस मोदी इफेक्ट को गठबंधनों से अलग होकर पढ़ना होगा। इस बार के चुनाव साधारण नहीं हैं। विशेष हैं। ये चुनाव एक खास स्थितियों में लड़े जा रहे हैं जब देश में सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार से मुक्ति के सवाल सबसे अहम हो चुके हैं। नरेंद्र मोदी इस समय के नायक हैं। ऐसे में दलों की बाड़बंदी, जातियों की बाड़बंदी टूट सकती है। गठबंधनों की तंग सीमाएं टूट सकती हैं। चुनाव के बाद देश में एक ऐसी सरकार बन सकती है जिसमें गठबंधन की लाचारी, बेचारगी और दयनीयता न हो। भाजपा की सीमाएं स्पष्ट हैं, वह हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से से अनुपस्थित है। किंतु अगर बदलाव की लहर चल रही है तो वह कितना और कैसे प्रभाव छोड़ रही है, कहा नहीं जा सकता। हैदराबाद के लालबहादुर शास्त्री स्टेडियम, पटना के गांधी मैदान से लेकर वाराणसी और गोरखपुर की रैलियों में उमड़ रही भीड़ क्या सिर्फ मोदी को सुनने आई है? वह वोट में नहीं बदलेगी, फिलहाल तो यह नहीं कहा जा सकता। एक नए भारत और उसके भविष्य के लिए सोचने वाले युवाओं के मन की हमारी राजनीति को थाह कहां है? वरना दिल्ली की कद्दावर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जिस नाजीच को चीज बनाने के लिए मीडिया को कोस रही थीं, उसी नाचीज ने उन्हें तो हराया ही नहीं सत्ता से भी बेदखल कर दिया। संभव हो नरेंद्र मोदी को लेकर बन रहा वातावरण तमाम लोगों की नजर में हवा-हवाई हो पर उन्हें यह देखना होगा कि मीडिया और राजनीतिक जमातों की रूसवाईयों के बावजूद मोदी ने जनता का प्यार पाया है। इस बार भी पा जाएं तो हैरत मत कीजिएगा।

सोमवार, 20 जनवरी 2014

आप को कौन दे रहा है श्राप ?


-संजय द्विवेदी
   अरसे के बाद देश की राजनीति में आदर्शवाद, नैतिकता और सादगी राजनीतिक विमर्श के केंद्र में है। ये अचानक नहीं हुआ है। ये हुआ है आम आदमी पार्टी के उदय के चलते। आम आदमी पार्टी के राजनीतिक विमर्श में जो चीजें प्रकट हुयीं वह मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए स्वीकार्य नहीं हैं। आप देखें तो आम आदमी पार्टी के चाल-चरित्र में जरा सा विचलन देखकर ही मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का उत्साह चरम पर पहुंच जाता है। आप के नेताओं की अनुभवहीनता, उनके बयानों और बिन्नी जैसे विधायकों की असहमति किस तरह राजनीतिक दलों में उत्साह भर रही है। यह बात बताती है आप के चलते ये दल किस तरह घबराए हुए हैं। साथ ही यह बात भी प्रकट होती है कि एक नई तरह की राजनीतिक संस्कृति किस तरह हमारे मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में अस्वीकार्य है।
   यह साधारण नहीं है कि हमारे मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दल किसी भी अपनी जैसे चरित्र वाली पार्टी से नहीं घबराते हैं, वे घबराते हैं राजनीति के नए चरित्र से, नई शैली से। जिनको सपा,बसपा, अन्नादुमुक और इस जैसी तमाम पार्टियों ने नहीं डराया वे आखिरकार आप से क्यों डर रहे हैं ? जिस देश में 1300 से अधिक पार्टियां हैं वहां एक और दल का आना क्या बुरी बात है? किंतु आप को लेकर स्वागत भाव क्यों नहीं है? आप नष्ट हो जाए, बिखर जाए या उन जैसी ही बन जाए यह कामना लगातार क्या दिखा रही है? यह बात बताती है कि आप के द्वारा उठाए गए मुद्दों से घबराहट है। संसद में लोकपाल पास करने में जो तेजी राजनीतिक दलों ने दिखाई वह इस बात को साबित करती है। सत्ता की राजनीति को ठीक से समझने वाली कांग्रेस ने जिस तेजी से दौड़कर दिल्ली में आप की सरकार बनवाई वह बताती है कि घबराहट का स्तर क्या है। भाजपा जरूर इसके चलते एक अनोखे अवसर से चूक गयी। क्या शानदार राजनीतिक फैसला होता अगर भाजपा ने स्वयं आगे बढ़कर आप की सरकार को समर्थन दिया होता। इस फैसले से कांग्रेसमुक्त भारत बनाने में लगे नरेंद्र मोदी को फायदा मिलता और कांग्रेस राजनीतिक विमर्श से ही गायब हो जाती। दिल्ली में केजरीवाल और देश में मोदी जैसी लहर भाजपा को फायदा पहुंचा सकती थी। राजनीतिक तौर पर कांग्रेस विरोधी लहर एक आंधी में बदल सकती थी। किंतु आप को कांग्रेस ने समर्थन देकर इस अभियान और इसकी तेजी में कुछ सिथिलता जरूर डाल दी है।
   यहां सवाल यह है कि हमारे मुख्यधारा के राजनीतिक दल किसी से कुछ अच्छा सीखने को तैयार क्यों नहीं है? ठीक है, राजनीति में समझौते होते हैं, जीतने वाले उम्मीदवारों पर आत्मविश्वास से हीन पार्टियां दांव लगाती हैं, किंतु अगर परिवेश में कुछ बदल रहा है तो उस अवसर का लाभ लेना चाहिए। इस बदलाव के चलते दलों को कुछ बेहतर कर पाना, अच्छा उम्मीदवार उतार कर उसे चुनाव जीता पाना संभव होता दिख रहा है तो उसका लाभ लेना चाहिए। किंतु जो दल सपा, बसपा,राजद, द्रमुक, शिवसेना, अकाली दल जैसे दलों से भी कभी समस्या महसूस नहीं करते, उन्हें आप से ही समस्या क्यों है। अगर आप उनकी तरह की पार्टी बन जाए या बनने की कोशिश करे तो भी शायद उन्हें उससे कोई समस्या नहीं हो। समस्या तभी है जब आप अपने तरह की राजनीति को हमारे समाज जीवन के विमर्श का हिस्सा बना रही है। अब आप देखिए कि आप के उठाए सवालों महंगाई, भ्रष्टाचार,सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी, सादगी, तामझाम से मुक्त जीवन को अपनाने और इस अवसर का लाभ उठाकर अपने राजनीतिक तंत्र में शुचिता लाने में तेजी लाने के बजाए सारा जोर इस बात पर है कि आप की दिल्ली की सरकार जल्दी से जल्दी एक्सपोज हो जाए और उन्हीं राजनीतिक बुराईयों की शिकार हो जाए जिसमें हमारे दल डूबे हुए हैं। यानि कि इतिहास की इस घड़ी में हमारी दलीय प्रार्थनाएं आम आदमी पार्टी द्वारा उठाए गए सवालों की सफलता के लिए नहीं हैं। सार्वजनिक जीवन में सुधार के प्रति नहीं है, सारी कामना यही है कि आम आदमी पार्टी का यह प्रयोग फ्लाप हो जाए और मुख्यधारा के राजनीतिक दल यह कह सकें कि राजनीति सबके बस की बात नहीं। अपने राजनीतिक अहंकारों से भरी ये जमातें कुछ अच्छा सीखने और स्वयं में परिवर्तन के बजाए आप के ही बदल जाने की दुआएं या उनकी सरकार की विफलता की कामना कर रही हैं। यह देखते हुए भी जनता आप के प्रयोग को किस तरह सराह रही है। अगर राजनीतिक दल अपने में इस तरह के कास्मेटिक सुधार भी करें तो भी जनता उनके पास आ सकती है, एक नई तरह की राजनीतिक धारा की सुधार के लिए देश अवसर दे रहा है। जनता इस प्रतीक्षा में खड़ी है कि हमारी राजनीति भी ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा सरोकारी,ज्यादा संवेदनशील और ज्यादा मानवीय बने।

     इतिहास की इस घड़ी में आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। आम आदमी पार्टी को इस समय में प्रशांत भूषण जैसी बेसुरी आवाजों से बचकर देश के विश्वास की रक्षा करनी होगी। क्योंकि आम आदमी पार्टी एक ऐसे आंदोलन से उपजी पार्टी है, जिसके पिंड में एक जागृत राष्ट्रवाद है, एक नैतिक चेतना है, एक भरोसा और विश्वास है। जो उसके सफेद टोपी, उसके वंदेमातरम, भारत माता की जय और इन्कलाब जिंदाबाद जैसे नारों से प्रकट होता है। उसके साथ बड़ी संख्या में जुटे युवा इसी राष्ट्रवादी चेतना के प्रतिनिधि हैं। उनके सामने एक नरेंद्र मोदी जैसा महानायक भी खड़ा है। उम्मीदों को पाने और एक नया भारत बनाने की आकांक्षा से भरा नौजवान आज किसी राहुल गांधी, मुलायम सिंह या तीसरे मोर्चे के प्रतिनिधियों के इंतजार में नहीं खड़ा है। नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल जैसे नई राजनीति के वाहक उसकी आकांक्षाओं के सही प्रतिनिधि हैं। इसीलिए इस विमर्श में माणिक सरकार, मनोहर पारीकर, रंगास्वामी जैसे नायकों के नाम भी लिए जाने लगे हैं। दिल्ली में विजय गोयल की जगह हर्षवर्धन का चेहरा इसी बदलती राजनीति का प्रतीक ही था। यह बदलता हुआ भारत और उसकी आकांक्षाएं बहुत अलग हैं। आप को कांग्रेस की कुटिल राजनीति से बचते हुए दिल्ली की सरकार चलानी तो है ही साथ ही अपने वाचाल नेताओं को थोड़ा खामोश भी करते हुए जनहित के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखानी है। जिस तरह मोदी देश की आकांक्षाओं का चेहरा बनकर उभरे हैं केजरीवाल उसी सूची का दूसरा नाम हैं। किंतु मोदी ने लंबा काम करके यह गौरव हासिल किया है। केजरीवाल ने आंदोलनों और मीडिया के इस्तेमाल से यह अवसर पाया है। किंतु केजरीवाल को यह ध्यान रखना होगा कि यह देश बार-बार छला गया है। उसने लंबे समय के बाद एक नौजवान पर उसके किसी बहुत उजले अतीत के अभाव में भी भरोसा किया है। अन्ना से जुड़े होने के नाते अरविंद की राजनीति न सिर्फ परवान चढ़ी है वरन उसे व्यापक जनाधार व विश्वास भी प्राप्त हुआ है।आपातकाल विरोधी आंदोलन, वीपी सिंह के आंदोलन और असम आंदोलन की परिणतियां हमारे सामने हैं। देश बार-बार छला गया है। एक और छल के लिए देश तैयार नहीं है। अरविंद आम जनता की उम्मीदों और आकांक्षाओं का चेहरा है। देश की सभी राजनीतिक पार्टियां उनकी विफलता की राह देख रही हैं किंतु आम जनता उनकी सफलता की दुआएं कर रही है। किंतु इस सफलता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी आम आदमी पार्टी के नायकों पर है। देश के पास कई मोदी, कई केजरीवाल, कई मनोहर पारीकर, कई माणिक सरकार,कई हर्षवर्धन, कई ममता बनर्जी होंगें तो जन आकांक्षाएं न सिर्फ पूरी होंगी, वरन व्यक्ति के अधिनायकवाद का खतरा भी कम होगा। सार्वजनिक जीवन में सादगी और शुचिता की लहर बनेगी और एक नया परिर्वतन आएगा। ऐसे संक्रमण काल में हमारी दुआ है कि आम आदमी पार्टी खुद भी बचे और अपने तीखे तेवरों से हमारे राजनीतिक परिवेश में सकारात्मक परिर्वतनों की वाहक बने, एक कठिन समय में देश की जनता उसे शुभकामनाओं के सिवा क्या दे सकती है।

सोमवार, 13 जनवरी 2014

भारतीय राजनीति का केजरीवाल समय !


-संजय द्विवेदी
    यह भारतीय राजनीति का केजरीवाल समय है। ईमानदारी, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था, सत्ता से प्रतिरोध और दुस्साहस इसके मूल्य हैं। यह परंपरागत राजनीतिक धाराओं के सामने एक चुनौती है और एक नई तरह की समानांतर धारा की शुरूआत भी। जिसमें मुख्यधारा के सभी दल एक तरफ और दूसरी तरफ अकेली आप है।
   आप ने परंपरागत सत्ता प्रतिष्ठानों को चुनौती दी, सड़क पर संघर्ष किया और अब वह दिल्ली की सत्ता में है। लंबी खामोशी के बाद अगर नरेंद्र मोदी ने भी आप की टीवी प्रियता पर टिप्पणी की है, तो हमें मान लेना चाहिए कि मामला साधारण नहीं रह गया है। यह बात तब और स्थापित हो जाती है, जब लखनऊ से अमेठी के रास्ते भर कुमार विश्वास विरोध का सामना करते हैं। यह घबराहटें बताती हैं कि परंपरागत राजनीतिक दलों में एक घबराहट है और आप को मिल रहे अतिरिक्त जनसमर्थन और टीवी कवरेज से चिंताएं भी। यह अकारण नहीं है कि कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने उन्हीं टोटकों को अपनाने की कोशिशें कीं, जिन पर केजरीवाल और उनके मंत्री अमल करते दिख रहे हैं। सही मायने में केजरीवाल एक ऐसा नाम साबित हुए हैं, जिसने पारंपरिक राजनीति को नए पाठ पढ़ाने शुरू किए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख हों या उससे जुड़े एक प्रमुख पत्रकार सभी भाजपा को उसकी जड़ों की याद दिला रहे हैं। संघ समर्थक उक्त पत्रकार ने जो लेख लिखा उसका शीर्षक ही है- भाजपा के लिए बैक टू बेसिक्स का समय
   जाहिर तौर पर भाजपा जैसी पार्टी जिसका पूर्व नाम जनसंघ था, देश की राजनीति में एक वैकल्पिक दर्शन की शुरूआत के लिए जानी गयी। उसके नेताओं में दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग भी रहे जिनके त्याग, शालीनता और सादगी के किस्से मशहूर हैं। यह श्रृखंला काफी लंबी रही जो कुशाभाऊ ठाकरे से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी तक जाती है। किंतु आज इस दल की बेबसी देखिए कि वह बार-बार अपने एक मुख्यमंत्री मनोहर पारीकर का नाम दुहराने के लिए मजबूर है। दलों के विस्तार ने सादगी व सिद्धांतों को शिथिल किया, बदले जमाने में जीत सकने वाले उम्मीदवारों की खोज शुरू हुयी और समझौतों ने मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया। डा. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के उत्तराधिकारियों का हाल भी किसी से छिपा नहीं है। जेपी आंदोलन के नेताओं ने देश में जैसी राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया वह सबके सामने है। लोहिया के चेले मुलायम सिंह का कारपोरेट समाजवाद अक्सर चर्चा में रहता है। ऐसे में आदर्श राजनीति के प्रतीक भी खोजे नहीं मिलते।
   उदारीकरण के बाद बनी स्थितियों में राजनीतिक दलों की आम जनता से दूरी बढ़ती चली गयी। महंगाई बाजार के हवाले कर दी गयी। आवश्यक वस्तुओं की कीमतों, पेट्रोल-डीजल की कीमतें आकाश छूने लगीं। बढ़ते वेतन के बावजूद जिंदगी कठिन लगने लगी। महानगरों में तो यह और भी दुष्कर हो गयी। मध्यवर्ग भी त्राहि-त्राहि कर उठा। इस बीच सारी प्रतियोगिता सार्वजनिक धन को निजी धन में तब्दील करने में सीमित हो गयी। राजनेता-नौकरशाह-व्यापारी-मीडिया का एक गठजोड़ बन गया, जिसमें जल्दी और ज्यादा कमाने की होड़ देखी गयी। रोज-रोज हो रहे घोटाले इस अनास्था को और गहरा कर रहे थे। जमीन से कटे नेताओं की टोली आम जन में चल रहे इस गुस्से को भांप नहीं पाई। गरीब की भूख, उसके ज्यादा खाने, एक रूपए से लेकर 5 रूपए की थाली जैसे मजाक बनते रहे। सेवा के बजाए राजनीति एक व्यवसाय में बदलती गयी। स्पेक्ट्रम से लेकर खनिजों की लूट से देश ठगा सा सारा कुछ देख रहा था। इस बीच बाबा रामदेव पर हुए दमन ने देश को झकझोर कर रख दिया। उसके बाद अन्ना हजारे ने एक उम्मीद जगाई और सड़कों पर लोगों का हूजूम उतर पड़ा। लगा की भारत जाग रहा है। देश भर में एक आलोड़न खड़ा हुआ और उस बदलते हुए भारत का कुछ नौजवान चेहरा बन गए। अरविंद केजरीवाल उनमें अग्रणी हैं।
  आप देखें तो किस तरह यह समय बाबा रामदेव, अन्ना हजारे से होता हुआ केजरीवाल तक जा पहुंचा। केजरीवाल की देहभाषा, समर्पण, मीडिया की ओर से उन्हें मिला अटेंशन आज देश की राजनीति की दिशा तय कर रहा है। वे दिल्ली के मुख्यमंत्री और देश के हीरो हैं। वे उम्मीदों का वही चेहरा हैं, जैसा कभी वीपी सिंह रहे होंगें। लेकिन वीपी सिंह की समस्या यह थी कि वे अपनी राजनीति का विकल्प उन्हीं परंपरागत खांचों में देख रहे थे और पारंपारिक राजनीति में ही अवसर खोज रहे थे। केजरीवाल ने किसी राजनीतिक दल में न जाकर, एक समानंतर राजनीति खड़ी की है, जिसका चेहरा, विचार और संविधान वे स्वयं हैं। उनकी जिदें, उनके संकल्प, उनके विचार इस दल का विचार हैं। अनेक राजनीतिक धाराओं के लोग उनके साथ हैं, कुछ और साथ आते जा रहे हैं। यानी अपनी राजनीतिक का एजेंडा तो वे सेट कर ही रहे हैं, शेष राजनीतिक दलों को भी अपने एजेंडे पर आने के लिए मजबूर कर रहे हैं। सत्ता किसे प्रिय नहीं है किंतु वे वाचिक तौर पर निरंतर सत्तामोह से दूरी बनाते हैं। वे देश की राजनीति में एक नए विमर्श के वाहक बन गए हैं,जिसकी हदें और सरहदें अभी तय नहीं हैं। देखना यह है कि भारतीय राजनीति का यह केजरीवाल समय हमें कितना और कैसे प्रभावित करता है। देश के बड़े नेताओं की नजर में यह बुलबुला है पर अगर कुछ लोग इसमें लहर या तूफान की संभावनाएं देख रहे हैं तो उन पर आज भी अविश्वास कैसे किया जा सकता है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय , भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

"आप" की आंखों में कुछ बहके हुए से ख़्वाब हैं!

                           -संजय द्विवेदी


 अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने जिस तरह की उम्मीदें जगाई हैं वह बताती है राजनीति इस तरह से भी की जा सकती है। लालबत्तियों से मुक्ति, सुरक्षा न लेना और छोटे मकानों में रहना जैसै प्रतीकात्मक कदम भी आज के राजनीतिक परिवेश में कम नहीं हैं। इन पर चलना कठिन नहीं है, किंतु इनके लोभ से बचकर रह पाना बहुत कठिन है। निश्चय ही ऐसी कोशिशों का स्वागत होना चाहिए।
 यह भी नहीं है कि ऐसा करने वाले अरविंद केजरीवाल अकेले हैं। वर्तमान में मनोहर पारीकर(गोवा), ममता बनर्जी(प.बंगाल), माणिक सरकार(त्रिपुरा), एन. रंगास्वामी(पांडिचेरी) जैसे मुख्यमंत्री और एके एंटोनी, बुद्धदेव भट्टाचार्य, वी. अच्युतानंदन जैसे तमाम नेता इसी कोटि में आते हैं। गाँधीवादी, समाजवादी, वामपंथी, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धाराओं में भी ऐसे तमाम राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता मिलेंगें, जिनकी त्याग की भावना असंदिग्ध है। बावजूद इसके ऐसा क्या है जो अरविंद केजरीवाल को अधिक चर्चा और ज्यादा टीवी फुटेज दिलवा रहा है। इसे समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि अरविंद ने निजी जीवन में शुचिता के सवाल को जिस तरह अपनी राजनीति का केंद्रीय विषय बनाया है, वह उन्हें सबके बीच अलग खड़ा करता है। वे राजनीति की एक नई धारा के प्रतिनिधि हैं। वे उन लोगों की तरह से नहीं है जिनके लिए ईमानदारी एक व्यक्तिगत संकल्प है। वे इसे अपने दल की पहचान बनाना चाहते हैं। वे पारीकर और ममता से इस मामले में अलग हैं कि दोनों की ईमानदारी एक व्यक्तिगत विषय है। ममता के साथ रहकर आप बेईमान रह सकते हैं। साधनों का उपयोग कर सकते हैं। पारीकर भी निजी ईमानदारी का विज्ञापन नहीं करते और तंत्र या अपने दल को ईमानदार रहने के लिए मजबूर भी नहीं करते। वे अपने संकल्प पर अडिग हैं किंतु उनका आग्रह बेहद निजी है। केजरीवाल इस अर्थ में अलग हैं वे न सिर्फ इस ईमानदारी,सादगी का विज्ञापन कर रहे हैं बल्कि अपने दल के नेताओं को ये शर्तें मानने के लिए राजी कर रहे हैं। ऐसे में यह ईमानदारी एक अभियान में बदल जाती है। यह अपने दल को भी उसी रास्ते पर डालने जैसा मामला है। यह मामला ऐसा नहीं है कि ममता तो निजी जीवन को बेहद ईमानदारी से जिएं और बाकी सारी पार्टी और तंत्र आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा रहे। याद करें कि जब आप पार्टी के एक विधायक बिन्नी मंत्रिमंडल में जगह न मिलने से नाराज होते हैं तो उन्हें मनाने के बजाए अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि यह दल पद चाहने वालों के लिए नहीं है, क्रांतिकारियों के लिए है। हम देखते हैं कि बिन्नी मान जाते हैं और आप के मंत्रियों की शपथ में कोई व्यवधान नहीं होता। अरविंद की जिदें साधारण नहीं हैं। वे बंगला नहीं लेते, एक बड़ा फ्लैट लेने पर शोर मचता है तो उसे भी वापस कर देते हैं। लोक की इतनी चिंता साधारण नहीं है। आलोचना को सुनना और उस पर अमल करना साधारण नहीं है किंतु अरविंद ऐसा कर रहे हैं और करते हुए दिख भी रहे हैं।
  अरविंद में एक सात्विक क्रोध दिखता है, आप उसे सात्विक अहंकार भी कह सकते हैं। किंतु उनमें, उनकी देहभाषा में, उनकी आंखों में जो तड़प है वह बताती है वे अभी भी इस व्यवस्था में एक अलग रोशनी बिखेरने की ताकत रखते हैं। सही मायने में दिल्ली में होना अरविंद के लिए एक ज्यादा लाभ, ज्यादा चर्चा, ज्यादा मीडिया अटेंशन दिलाने वाला साबित हुआ है। किंतु इससे भी इनकार नहीं करना चाहिए कि अरविंद ने एक आम हिंदुस्तानी के मन, उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने का काम किया है। निराशा और अवसाद से घिरा आम हिंदुस्तानी आज एक नई रौशनी की ओर देख रहा है। भारत जैसे महादेश में जहां क्रांतियां प्रतीक्षारत ही रह जाती हैं, अरविंद ने उसे संभव बनाया है। यह साधारण नहीं है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए अरविंद ने ठंड में पसीने ला दिए हैं। आप अरविंद के प्रशांत भूषण जैसे साथियों की कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की मांग की आलोचना कर सकते हैं किंतु अरविंद के नेतृत्व में जब नौजवान भारत मां की जय बोलते हैं, वंदेमातरम् का जयघोष करते हैं तो किस हिंदुस्तानी का मन नहीं प्रसन्न होता। लंबे समय के बाद भारतीय मध्यवर्ग को जो अपनी रोजी-रोटी और दैन्दिन संर्घषों से आगे की नहीं सोचता था, परिवर्तन और बदलाव की किसी प्रेरणा से खाली था, उम्मीदें नजर आने लगी हैं। जिस समय में छात्र, मजदूर और तमाम आंदोलन अपनी खामोश मौत मर रहे थे और कारपोरेट का शिकंजा आम आदमी के गले तक आ चुका है। ऐसे में केजरीवाल का उदय हमें हिम्मत देता है,ताकत देता है। केजरीवाल जैसे लोगों की सफलता-असफलता मायने नहीं रखती है। मायने इस बात के हैं कि वे किस तरह सत्ता के प्रतिस्पर्धी दलों का दंभ तोड़ते हैं और उन्हें जनमुद्दों के करीब लाते हैं। भारतीय राजनीति के इस समय में केजरीवाल 28 विधायकों की छोटी सी पार्टी के नेता और दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य के मुख्यमंत्री भले हों, वे उस हिंदुस्तानी जनता की उम्मीदों का चेहरा है, जिसने अपने सपने देखने बंद कर दिए थे। उदारीकरण की चकाचौंध में चकराई सरकारों और सत्ता प्रतिष्ठानों के सामने वे भारतीय जन के आत्मविश्वास और लोकचतना के सबसे बड़े प्रतीक बन चुके हैं। उनका मुकाबला आज किसी से नहीं है क्योंकि कोई भी सत्ता प्रतिष्ठान आम आदमी के साथ नहीं है। वे सत्ता और राजनीति को उसकी भटकी राहें याद दिला रहे हैं। गांधी टोपी की वापसी के बहाने वे एक ऐसी राजनीति को जन्म दे चुके हैं जहां जाति, पंथ के सवाल हवा हो चुके हैं। भगवान उन्हें इतना ही निष्पाप, जिद्दी और हठी बने रहने की शक्ति दे।

बुधवार, 1 जनवरी 2014

पं. बृजलाल द्विवेदी अभा साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत होंगें प्रेम जनमेजय


भोपाल,1 जनवरी। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा.प्रेम जनमेजय  को दिया जाएगा। डा. प्रेम जनमेजय साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने व्यंग्यकार एवं लेखक हैं। वे पिछले नौ वर्षों से व्यंग्य विधा पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका व्यंग्य यात्रा का संपादन कर रहे हैं।

      पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव, रमेश नैयर, डा. सच्चिदानंद जोशी, डा.सुभद्रा राठौर और जयप्रकाश मानस शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज(गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश ( दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज और सद्भावना दर्पण( रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज को दिया जा चुका है। त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिलभारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपए, शाल, श्रीफल, प्रतीकचिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है। सम्मान कार्यक्रम 7, फरवरी, 2014 को गांधी भवन, भोपाल में आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्कार, बुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेगें। इस अवसर मीडिया और लोकजीवन विषय पर व्याख्यान भी आयोजित किया जाएगा।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

जन्मदिन(25दिसंबर)परविशेषः करिश्माई नेता हैं वाजपेयी

-संजय द्विवेदी
       

अटलबिहारी वाजपेयी यानि एक ऐसा नाम जिसने भारतीय राजनीति को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से इस तरह प्रभावित किया जिसकी मिसाल नहीं मिलती। एक साधारण परिवार में जन्मे इस राजनेता ने अपनी भाषण कला, भुवनमोहिनी मुस्कान, लेखन और विचारधारा के प्रति सातत्य का जो परिचय दिया वह आज की राजनीति में दुर्लभ है। सही मायने में वे पं.जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के सबसे करिश्माई नेता और प्रधानमंत्री साबित हुए।
   एक बड़े परिवार का उत्तराधिकार पाकर कुर्सियां हासिल करना बहुत सरल है किंतु वाजपेयी की पृष्ठभूमि और उनका संघर्ष देखकर लगता है कि संकल्प और विचारधारा कैसे एक सामान्य परिवार से आए बालक में परिवर्तन का बीजारोपण करती है। शायद इसीलिए राजनैतिक विरासत न होने के बावजूद उनके पीछे एक ऐसा परिवार था जिसका नाम संघ परिवार है। जहां अटलजी राष्ट्रवाद की ऊर्जा से भरे एक ऐसे महापरिवार के नायक बने, जिसने उनमें इस देश का नायक बनने की क्षमताएं न सिर्फ महसूस की वरन अपने उस सपने को सच किया जिसमें देश का नेतृत्व करने की भावना थी। अटलजी के रूप में इस परिवार ने देश को एक ऐसा नायक दिया जो वास्तव में हिंदू संस्कृति का प्रणेता और पोषक बना। याद कीजिए अटल जी की कविता तन-मन हिंदू मेरा परिचय। वे अपनी कविताओं, लेखों ,भाषणों और जीवन से जो कुछ प्रकट करते रहे उसमें इस मातृ-भू की अर्चना के सिवा क्या है। वे सही मायने में भारतीयता के ऐसे अग्रदूत बने जिसने न सिर्फ सुशासन के मानकों को भारतीय राजनीति के संदर्भ में स्थापित किया वरन अपनी विचारधारा को आमजन के बीच स्थापित कर दिया।
समन्वयवादी राजनीति की शुरूआतः
सही मायने में अटलबिहारी वाजपेयी एक ऐसी सरकार के नायक बने जिसने भारतीय राजनीति में समन्वय की राजनीति की शुरूआत की। वह एक अर्थ में एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार थी जिसमें विविध विचारों, क्षेत्रीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले तमाम लोग शामिल थे। दो दर्जन दलों के विचारों को एक मंत्र से साधना आसान नहीं था। किंतु अटल जी की राष्ट्रीय दृष्टि, उनकी साधना और बेदाग व्यक्तित्व ने सारा कुछ संभव कर दिया। वे सही मायने में भारतीयता और उसके औदार्य के उदाहरण बन गए। उनकी सरकार ने अस्थिरता के भंवर में फंसे देश को एक नई राजनीति को राह दिखाई। यह रास्ता मिली-जुली सरकारों की सफलता की मिसाल बन गया। भारत जैसे देशों में जहां मिलीजुली सरकारों की सफलता एक चुनौती थी, अटलजी ने साबित किया कि स्पष्ट विचारधारा,राजनीतिक चिंतन और साफ नजरिए से भी परिवर्तन लाए जा सकते हैं। विपक्ष भी उनकी कार्यकुशलता और व्यक्तित्व पर मुग्ध था। यह शायद उनके विशाल व्यक्तित्व के चलते संभव हो पाया, जिसमें सबको साथ लेकर चलने की भावना थी। देशप्रेम था, देश का विकास करने की इच्छाशक्ति थी। उनकी नीयत पर किसी कोई शक नहीं था। शायद इसीलिए उनकी राजनीतिक छवि एक ऐसे निर्मल राजनेता की बनी जिसके मन में विरोधियों के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं था।
आम जन का रखा ख्यालः
 उनकी सरकार सुशासन के उदाहरण रचने वाली साबित हुई। जनसमर्थक नीतियों के साथ महंगाई पर नियंत्रण रखकर सरकार ने यह साबित किया कि देश यूं भी चलाया जा सकता है। सन् 1999 के राजग के चुनाव घोषणापत्र का आकलन करें तो पता चलता है कि उसने सुशासन प्रदान करने की हमारी प्रतिबद्धता जैसे विषय को उठाने के साथ कहा-लोगों के सामने हमारी प्रथम प्रतिबद्धता एक ऐसी स्थायी, ईमानदार, पारदर्शी और कुशल सरकार देने की है, जो चहुंमुखी विकास करने में सक्षम हो। इसके लिए सरकार आवश्यक प्रशासनिक सुधारों के समयबद्ध कार्यक्रम शुरू करेगी, इन सुधारों में पुलिस और अन्य सिविल सेवाओं में किए जाने वाले सुधार शामिल हैं राजग ने देश के सामने ऐसे सुशासन का आदर्श रखा जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, संघीय समरसता, आर्थिक आधुनिकीकरण, सामाजिक न्याय, शुचिता जैसे सवाल शामिल थे। आम जनता से जुड़ी सुविधाओं का व्यापक संवर्धन, आईटी क्रांति, सूचना क्रांति इससे जुड़ी उपलब्धियां हैं।
एक भारतीय प्रधानमंत्रीः
   अटलबिहारी बाजपेयी सही मायने में एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो भारत को समझते थे।भारतीयता को समझते थे। राजनीति में उनकी खींची लकीर इतनी लंबी है जिसे पारकर पाना संभव नहीं दिखता। अटलजी सही मायने में एक ऐसी विरासत के उत्तराधिकारी हैं जिसने राष्ट्रवाद को सर्वोपरि माना। देश को सबसे बड़ा माना। देश के बारे में सोचा और अपना सर्वस्व देश के लिए अर्पित किया। उनकी समूची राजनीति राष्ट्रवाद के संकल्पों को समर्पित रही। वे भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री भी रहे। उनकी यात्रा सही मायने में एक ऐसे नायक की यात्रा है जिसने विश्वमंच पर भारत और उसकी संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास किया। मूलतः पत्रकार और संवेदनशील कवि रहे अटल जी के मन में पूरी विश्वमानवता के लिए एक संवेदना है। यही भारतीय तत्व है। इसके चलते ही उनके विदेश मंत्री रहते पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने के प्रयास हुए तो प्रधानमंत्री रहते भी उन्होंने इसके लिए प्रयास जारी रखे। भले ही कारगिल का धोखा मिला, पर उनका मन इन सबके विपरीत एक प्रांजलता से भरा रहा। बदले की भावना न तो उनके जीवन में है न राजनीति में। इसी के चलते वे अजातशत्रु कहे जाते हैं।
  आज जबकि राष्ट्रजीवन में पश्चिमी और अमरीकी प्रभावों का साफ प्रभाव दिखने लगा है। रिटेल में एफडीआई के सवाल पर जिस तरह के हालात बने वे चिंता में डालते हैं। भारत के प्रधानमंत्री से लेकर बड़े पदों पर बैठे राजनेता जिस तरह अमरीकी और विदेशी कंपनियों के पक्ष में खड़े दिखे वह बात चिंता में डालती है। यह देखना रोचक होता कि अगर सदन में अटलजी होते तो इस सवाल पर क्या स्टैंड लेते। शायद उनकी बात को अनसुना करने का साहस समाज और राजनीति में दोनों में न होता। सही मायने में राजनीति में उनकी अनुपस्थिति इसलिए भी बेतरह याद की जाती है, क्योंकि उनके बाद मूल्यपरक राजनीति का अंत होता दिखता है। क्षरण तेज हो रहा है, आदर्श क्षरित हो रहे हैं। उसे बचाने की कोशिशें असफल होती दिख रही हैं। आज भी वे एक जीवंत इतिहास की तरह हमें प्रेरणा दे रहे हैं। वे एक ऐसे नायक हैं जिसने हमारे इसी कठिन समय में हमें प्रेरणा दी और हममें ऊर्जा भरी और स्वाभिमान के साथ साफ-सुथरी राजनीति का पाठ पढ़ाया। हमें देखना होगा कि यह परंपरा उनके उत्तराधिकार कैसे आगे बढाते हैं। उनकी दिखायी राह पर भाजपा और उसका संगठन कैसे आगे बढ़ता है।
   अपने समूचे जीवन से अटलजी जो पाठ पढ़ाते हैं उसमें राजनीति कम और राष्ट्रीय चेतना ज्यादा है। सारा जीवन एक तपस्वी की तरह जीते हुए भी वे राजधर्म को निभाते हैं। सत्ता में रहकर भी वीतराग उनका सौंदर्य है। वे एक लंबी लकीर खींच गए हैं, इसे उनके चाहनेवालों को न सिर्फ बड़ा करना है बल्कि उसे दिल में भी उतारना होगा। उनके सपनों का भारत तभी बनेगा और सामान्य जनों की जिंदगी में उजाला फैलेगा। स्वतंत्र भारत के इस आखिरी  करिश्माई नेता का व्यक्तित्व और कृतित्व सदियों तक याद किया जाएगा, वे धन्य हैं जिन्होंने अटल जी को देखा, सुना और उनके साथ काम किया है। ये यादें और उनके काम ही प्रेरणा बनें तो भारत को परमवैभव तक पहुंचने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए उनको चाहनेवाले उनकी लंबी आयु की दुआ  करते हैं और गाते हुए आगे बढ़ते हैं चल रहे हैं चरण अगणित, ध्येय के पथ पर निरंतर



बुधवार, 13 नवंबर 2013

क्यों सिकुड़ रहा है राष्ट्रीय दलों का जनाधार?

क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत से अखिलभारतीयता को मिलती चुनौती
                                                       -संजय द्विवेदी


  अरसा हुआ देश ने केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं देखी। स्वप्न सरीखा लगता है जब राजीव गांधी ने 1984 के चुनाव में 415 लोकसभा सीटें जीतकर दिल्ली में सरकार बनायी थी। इतिहास ऐसे अवसर किसी किसी को ही देता है। राजीव गांधी को यह अवसर मिला, यह अलग बात है अपनी राजनीतिक अनुभवहीनता, अनाड़ी दोस्तों की सोहबत और कई गलत फैसलों से उनकी सरकार जल्दी विवादित हो गयी और बोफोर्स के धुंए में सब तार-तार हो गया। तबसे लेकर आजतक दिल्ली को एक ऐसी सरकार का इंतजार है जो फैसलों को लेकर सहयोगियों के दबावों से मुक्त होकर काम कर सके। जो अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को दृढ़ता के साथ लागू कर सके। भारतीय संविधान ने अनेक संवैधानिक व्यवस्थाएं करके केंद्रीय शासन को समर्थ बनाया है किंतु इन सालों में हमने प्रधानमंत्री को ही सबसे कमजोर पाया है। सत्ता के अन्य केंद्र, दबाव समूह, सत्ता के साझेदार कई बार ज्यादा ताकतवर नजर आते हैं। वीपी सिंह, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह सरकार सबकी एक कहानी है।
   इसका सबसे कारण है हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विफलता और उफान मारती क्षेत्रीय आकांक्षाएं। आखिर क्या हुआ कि हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल सिमटने लगे और क्षेत्रीय दलों का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। राष्ट्रीय दल होने के नाते कांग्रेस का पराभव हुआ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत घटी और भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस की छोड़ी हुयी जगहों को तेजी से भर नहीं पायी। जाहिर तौर पर अखिलभारतीयता के विचार और भाव भी हाशिए लग रहे थे। राष्ट्रीय राजनीतिक दल वैसे भी भारत में बहुत ज्यादा नहीं थे। सही मायने में तो कांग्रेस,जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियां ही अखिलभारतीयता के चरित्र का सही मायने में प्रतिनिधित्व करती थीं किंतु हालात यहां तक आ पहुंचे कि राजीव गांधी को जिस सदन ने 415 का बहुमत दिया, उसी सदन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तेलगू देशम थी- यानि कि एक क्षेत्रीय दल भारत का प्रमुख विपक्षी दल बन गया। यह समय ही भारत में राष्ट्रीय दलों के क्षरण का प्रारंभकाल है। तबसे आज तक क्षेत्रीय दलों की शक्ति और क्षमता को हम लगातार बढ़ता हुआ देख रहे हैं। समाजवादी आंदोलन के बिखराव ने सोशलिस्ट पार्टी को खत्म कर दिया या वे कई क्षेत्रीय दलों में बंटकर क्षेत्रीय आकांक्षाओं की प्रतिनिधि पार्टिंयां बन गयीं और बचे हुए समाजवादी कांग्रेस- भाजपा-बसपा जहां भी मौका मिला उस दल की गोद में जा बैठे। यह आश्चर्यजनक नहीं है नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह से लेकर भाजपा के आरिफ बेग तक एक समय तक समाजवादी ही थे। किंतु समय बदलता गया और राष्ट्रीय दलों का प्रभामंडल कम होता गया। आज हालात यह हैं कि बिना गठबंधन दिल्ली में कोई दल सरकार बनाने का स्वप्न भी नहीं देखता। जबकि राजनेता तो सपनों के सौदागर ही होते हैं। किंतु वास्तविकता यह है आने वाले आम चुनावों में जनता किस गठबंधन के साथ जाएगी, उसके लिए अपना कुनबा बढ़ाने पर जोर है। नरेंद्र मोदी जैसे समर्थ नेतृत्व की उपस्थिति के बावजूद भाजपा परिवार में चिंता है तो इसी बात की चुनाव के बाद हमें किन-किन दलों का समर्थन मिल सकता है। यह भी सही है कि इस दौर ने विचारधारा के आग्रहों को भी शिथिल किया है। वरना क्या यह साधारण बात थी कि एनडीए की अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में उमर अब्दुला, नीतिश कुमार, रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, अरूणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री गेगांग अपांग के बेटे तक मंत्री पद पर देखे गए। वहीं जयललिता से लेकर चंद्रबाबू नायडू वाजपेयी सरकार को समर्थन देते रहे। आज कांग्रेस के साथ भी बहुत से दल शामिल हैं। वे भी हैं जो कल तक एनडीए के साथ थे। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि राजनीति में अखिलभारतीयता के चरित्र को कैसे स्थापित किया जा सकता है। अखिलभारतीयता एक सोच है,संवेदना है और फैसले लेने में प्रकट होने वाली राष्ट्रीय भावना है। क्षेत्रीय दल उस संवेदना से युक्त नहीं हो सकते, जैसा राष्ट्रीय राजनीतिक दल होते हैं। क्योंकि क्षेत्रीय दलों को अपने स्थानीय सरोकार कई बार राष्ट्रीय हितों से ज्यादा महत्वपूर्ण दिखते हैं। उमर अब्दुला या महबूबा मुफ्ती को क्या फर्क पड़ता है यदि शेष देश को उनके किसी कदम से दर्द होता हो। इसी तरह नवीन पटनायक या जयललिता के लिए उनका अपना राज्य और वोट आधार जिस बात से पुष्ट होता है, वे वैसा ही आचरण करेंगें। लिट्टे के मामले में तमिलनाडु के क्षेत्रीय दलों के रवैये का अध्ययन इसे समझने में मदद कर सकता है। क्षेत्रीय राजनीति किस तरह अपना आधार बनाती है उसे देखना हो तो राज ठाकरे परिघटना भी हमारी सहायक हो सकती है। कैसे अपने ही देशवासियों के खिलाफ बोलकर एक दल क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करते हुए राज्य में एक शक्ति बन जाता है। निश्चित ही ऐसी राजनीति का विस्तार न सिर्फ घातक है बल्कि देश को कमजोर करने वाला है। इस तरह के विस्तार से सिर्फ केंद्र की सरकार ही कमजोर नहीं होती बल्कि देश भी कमजोर होता है। इसके लिए हमें इन कारणों की तह में जाना होगा कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि देश आज क्षेत्रीय दलों की आवाज ज्यादा सुनता है। देश के तमाम राज्यों जैसे जम्मू-कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडु, उप्र, बिहार, उड़ीसा, प.बंगाल, झारखंड में जहां क्षेत्रीय दल सत्ता में काबिज हैं तो वहीं अनेक राज्यों में वे सत्ता के प्रबल दावेदार या मुख्य विपक्षी दल हैं। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि राजनीति में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के दिल जल्दी बहुरने वाले हैं। क्षेत्रीय दलों के फैसले भावनात्मक और क्षेत्रीय आधार पर ही होते हैं। देश की सामूहिक आकांक्षाएं उनके लिए बहुत मतलब नहीं रखतीं। अपने स्थानीय दृष्टिकोण से बंधे होने के कारण उनकी प्रतिक्रियाएं क्या रूप ले सकती हैं, इसे हम और आप तेलंगाना की आग में जलते हुए आंध्र प्रदेश को देखकर समझ सकते हैं।
    दरअसल अखिलभारतीयता एक चरित्र है। भाजपा जब उसका विस्तार बहुत सीमित था तब भी वह एक अखिलभारतीय चरित्र की पार्टी थी। आज तो वह एक राष्ट्रीय दल है ही। इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टियां भले आज बहुत सिकुड़ गयी हैं, उनकी धार कुंद हो गयी हो किंतु वे अपने चरित्र में ही अखिलभारतीय सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसी तरह डा. राममनोहर लोहिया के जीवन तक समाजवादी पार्टी भी अखिलभारतीय चरित्र की प्रतिनिधि बनी रही। चौधरी चरण सिंह ने भले ही उप्र, राजस्थान और हरियाणा की पिछड़ा वर्ग, जाट पट्टी में अपना खासा आधार खड़ा किया किंतु उनकी लोकदल एक अखिलभारतीय चरित्र की पार्टी बनी रही। इसका कारण सिर्फ यह था कि ये दल कोई भी फैसला लेते समय देश के मिजाज और शेष भारत पर उसके संभावित असर का विचार करते हैं। पूरे देश में अपने दल की संगठनात्मक उपस्थिति के नाते वे अपने काडर-कार्यकर्ताओं-नेताओं पर पड़ने वाले प्रभावों और फीडबैक से जुड़े होते हैं।
   बावजूद इसके अखिलभारतीयता में आ रही कमी और राष्ट्रीय दलों के सिकुड़ते आधार के लिए इन दलों की कमियों को भी समझना होगा। क्योंकि आजादी के समय कांग्रेस ही सबसे बड़ा दल था जिससे देश की जनता की भावनाएं जुड़ी हुयी थीं। ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रीय दलों से लोग दूर होते गए और क्षेत्रीय दल शक्ति पाते गए। निश्चय ही इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल क्षेत्रीय आकांक्षाओं, भावनाओं, उनके सपनों को संबोधित नहीं कर पाए। बड़े राजनीतिक दल यह समझ पाने में असफल रहे कि कोई भी राष्ट्रीयता, स्थानीयता के संयोग से ही बनती है। स्थानीयता सह राष्ट्रीयता के मूलमंत्र को भूलकर तमाम क्षेत्रों,वर्गों की तरफ उपेक्षित निगाहें रखी गयीं, उसी का परिणाम है कि आज क्षेत्रीय और जातीय अस्मिताएं दलों के रूप में एक ताकत बनकर सामने आई हैं। वे अपनी संगठित शक्ति से अब न सिर्फ प्रांतीय-स्थानीय सत्ता में प्रभावी हुयी हैं वरन् वे केंद्रीय सत्ता में भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं। ऐसे में राजनीति की अखिलभारतीयता की भावना को खरोंचें लगें तो लगें इससे प्रांतीय, क्षेत्रीय और जातीय अस्मिता की राजनीति करने वालों को बहुत वास्ता नहीं है। वे केंद्रीय सत्ता को सहयोग देकर बहुत कुछ हासिल ही नहीं कर रही हैं, वरन कई बार-बार दिल्ली की सत्ता पर कब्जे का स्वप्न भी देखती हैं। देवगौड़ा को याद कीजिए, मायावती-मुलायम-नीतिश कुमार के सपनों पर गौर कीजिए। मिली-जुली सरकारों के दौर में हर असंभव को संभव होते हुए देखने का यह समय है। यह तो भला हो कि इन क्षेत्रीय क्षत्रपों की आपसी स्पर्धा और महत्वाकांक्षांओं का कि वे एक मंच पर साथ आने को तैयार नहीं हैं और छोटे स्वार्थों में बिखर जाते हैं, वरना क्षेत्रीय दलों के अधिपति ही दिल्ली पति लंबे समय से बने रहते। इसके चलते ही कांग्रेस या भाजपा के पाले में खड़े होना उनकी मजबूरी दिखती है। बावजूद इसके यह सच है कि क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति से इस राष्ट्र का मंगल संभव नहीं है। राष्ट्रीय दलों को अपनी भूमिका को बढ़ाते हुए अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन करना होगा और अपने दम पर केंद्रीय सत्ता में आने के स्वप्न पालने होगें। क्योंकि मजबूत केंद्र के बिना हम अपनी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, देश की आकांक्षाओं, सपनों और ज्वलंत प्रश्नों को हल नहीं कर सकते। एक समन्वित रणनीति बनाकर अखिलभारतीय दलों को देश के ज्वलंत प्रश्नों पर एक राय बनानी होगी। कुछ सवालों को राजनीति से अलग रखते हुए देश में एक राष्ट्रीयता की चेतना जगानी होगी। कम्युनिस्ट पार्टियां तो देश की राजनीति में अप्रासंगिक हो गई हैं। समाजवादी आंदोलन भी बिखराव का शिकार है और अंततःजातीय-क्षेत्रीय अस्मिता की नारेबाजियों में फंसकर रह गया है। कांग्रेस, भाजपा की इस दिशा में एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने अखिलभारतीय चरित्र से देश को जोड़ने का काम करें। देश की राजनीति की अखिलभारतीयता का वाहक होने के नाते वे इस चुनौती से भाग भी नहीं सकते।

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

मोदी का साथ और राहुल का हाथ



-संजय द्विवेदी
      देश को लोकसभा चुनावों के लिए अभी गर्मियों का इंतजार करना है किंतु चुनावी पारा अभी से गर्म हो चुका है। नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ती भीड़, सोशल नेटवर्क में उनके समर्थन-विरोध की आंधी के बीच एक आम हिंदुस्तानी इस पूरे तमाशे को भौंचक होकर देख रहा है। पिछले दो लोकसभा चुनाव हार चुकी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए मोदी एक ऐसी नाव हैं, जिससे इस चुनाव की वैतरणी पार की जा सकती है तो वहीं देश की सेकुलर राजनीति के चैंपियन बनने में लगे दलों को मोदी से खासा खतरा महसूस हो रहा है। यह खतरा यहां तक है कि उन्हें रामरथ के सारथी और अयोध्या आंदोलन के नायक लालकृष्ण आडवानी भी अब सेकुलर लगने लगे हैं। जाहिर तौर पर इस समय की राजनीति का केंद्र बिंदु चाहे-अनचाहे मोदी बन चुके हैं। अपनी भाषणकला और गर्जन-तर्जन के अंदाजे बयां से उन्होंने जो वातावरण बनाया है वह पब्लिक डिस्कोर्स में खासी जगह पा रहा है।
साइबर युद्ध में तटस्थता के लिए जगह नहीः
      माहौल यह है कि आप या तो मोदी के पक्ष में हैं या उनके खिलाफ। तटस्थ होने की आजादी भी इस साइबर युद्ध में संभव नहीं है। सवाल यह है कि क्या देश की राजनीति का इस तरह व्यक्ति केंद्रित हो जाना- वास्तविक मुद्दों से हमारा ध्यान नहीं हटा रहा है। क्योंकि कोई भी लोकतंत्र सामूहिकता से ही शक्ति पाता है। वैयक्तिकता लोकतंत्र के लिए अवगुण ही है। यह आश्चर्य ही है भाजपा जैसी काडर बेस पार्टी भी इस अवगुण का शिकार होती दिख रही है। उसका सामूहिक नेतृत्व का नारा हाशिए पर है। वैयक्तिकता के अवगुण किसी से छिपे नहीं हैं। एक समय में देश की राजनीति में देवकांत बरूआ जैसे लोगों ने जब इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया” जैसी फूहड़ राजनीति शैली से लोकतंत्र को चोटिल करने का काम किया था, तो इसकी खासी आलोचना हुयी थी। यह अलग बात है पं.जवाहरलाल नेहरू जैसा लोकतांत्रिक व्यवहार बाद के दिनों में उनकी पुत्री के प्रभावी होते ही कांग्रेसी राजनीति में दुर्लभ हो गया। हालात यह बन गए राय देने को आलोचना समझा जाने लगा और आलोचना षडयंत्र की श्रेणी में आ गयी। जो बाद में इंदिरा गांधी के अधिनायकत्व के रूप में आपातकाल में प्रकट भी हुयी। हम देखें तो लोकतंत्र के साढ़े छः दशकों के अनुभव के बाद भी भारत की राजनीति में क्षरण ही दिखता है। खासकर राजनीतिक और प्रजातांत्रिक मूल्यों के स्तर पर भी और संसद-विधानसभाओं के भीतर व्यवहार के तल पर भी।
गिरा बहस का स्तरः
      लोकसभा के आसन्न चुनावों के मद्देनजर जिस तरह की बहसें और अभियान चलाए जा रहे हैं वह उचित नहीं कहे जा सकते। इसमें राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना करने का अभियान भी शामिल है। दोनों तरफ से जिस तरह की अभद्रताएं व्यक्त की जा रही हैं वह विस्मय में डालती हैं। मोदी को लेकर उनके आलोचक जहां अतिवादी रवैया अपना रहे हैं, वहीं मोदी स्वयं अपने से आयु व अनुभव में बहुत छोटे राहुल गांधी को शाहजादे कहकर चटखारे ले रहे हैं। इस तरह की चटखारेबाजी प्रधानमंत्री पद के एक उम्मीदवार को कुछ टीवी फुटेज तो दिला सकती है पर शोभनीय नहीं कही जा सकती। यह बड़प्पन तो कतई नहीं है। राहुल-मोदी एक ऐसी तुलना है जो न सिर्फ गलत है बल्कि यह वैसी ही जैसी कभी मनमोहन-आडवानी की रही होगी। भारतीय गणतंत्र दरअसल दो व्यक्तित्वों का संघर्ष नहीं है। यह विविध दलों और विविध विचारों के चुनावी संघर्ष से फलीभूत होता है। हमारे गणतंत्र में बहुमत प्राप्त दल का नेता ही देश का नायक होता है, वह अमरीकी राष्ट्रपति की तरह सीधे नहीं चुना जाता। इसलिए हमारे गणतंत्र की शक्ति ही सामूहिकता है, सामूहिक नेतृत्व है। यहां अधिनायकत्व के लिए, नायक पूजा के लिए जगह कहां है। इसलिए लोकसभा चुनाव जैसे अवसर को दो व्यक्तियों की जंग बनाकर हम अपने गणतंत्र को कमजोर ही करेगें।
व्यक्तिपरक न हो राजनीतिः
   हमारी राजनीति और सार्वजनिक संवाद को हमें व्यक्तिपरक नहीं समूहपरक बनाना होगा क्योंकि इसी में इस पिछड़े देश के सवालों के हल छिपे हैं। कोई मोदी या राहुल इस देश के सवालों को, गणतंत्र के प्रश्नों को हल नहीं कर सकता अगर देश के बहुसंख्यक जनों का इस जनतंत्र में सहभाग न हो। क्योंकि जनतंत्र तो लोगों की सहभागिता से ही सार्थक होता है। इसलिए हमारी राजनीतिक कोशिशें ऐसी हों कि लोकतंत्र व्यक्ति के बजाए समूह के आधार पर खड़ा हो। श्रीमती इंदिरा गांधी मार्का राजनीति से जैसा क्षरण हुआ है, उससे बचने की जरूरत है।
  नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दो बेहद अलग-अलग मैदान में खेल रहे हैं। किंतु हमें यह मानना होगा कि मोदी द्वारा उठाए जा रहे राष्ट्रवाद के सवालों से देश की असहमति कहां हैं। किंतु कोई भी राष्ट्रवाद कट्टरता के आधार पर व्यापक नहीं हो सकता। उसे व्यापक बनाने के लिए हमें भारतीय संस्कृति, उसके मूल्यों का आश्रय लेना पड़ेगा। एक समावेशी विकास की परिकल्पना को आधार देना होगा। जिसमें महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय  और डा. राममनोहर लोहिया की समन्वित विचारधारा के बिंदु हमें रास्ता दिखा सकते हैं। विकास समावेशी नहीं होगा तो इस चमकीली प्रगति के मायने क्या हैं जिसके वाहक आज मनमोहन-मोंटेक सिंह और पी.चिदंबरम हैं। कल इसी आर्थिक धारा के नायक नरेंद्र मोदी- यशवंत सिन्हा-जसवंत सिंह और अरूण जेतली हो जाएं तो देश तो ठगा ही जाएगा।
विचारधारा के उलट आचरण करती सरकारें-
  राहुल गांधी जो कुछ कह रहे हैं उनकी सरकार उसके उलट आचरण करती है। वे गरीब-आम आदमी सर्मथक नीतियों की बात करते हैं केंद्र का आचरण उल्टा है। क्या बड़ी बात है कि कल नरेंद्र मोदी सत्ता में हों और यही सारा कुछ दोहराया जाए। क्योंकि ऐसा होते हुए लोगों ने एनडीए की वाजपेयी सरकार में देखा है। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिग्गज स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी ने एनडीए सरकार के वित्त मंत्री को अनर्थ मंत्री की संज्ञा दी थी। ऐसे में आचरण के द्वंद सामने आते हैं। भारतीय राजनीति का अजूबा यह कि मजदूरों-मजलूमों की नारे बाजी करने वाली वामपंथी सरकारें भी पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम रच देती हैं। ऐसे में जनता के सामने विमर्श के तमाम प्रश्न हैं, वह देख रही है कि मंच के भाषण और आपके सत्ता में आने के बाद के आचरण में खासा अंतर है। इसने ही देश के जनमन को छलने और अविश्वास से भरने का काम किया है। इसलिए मोदी को देश के सामने खड़े सुरक्षा के सवालों के साथ आर्थिक सवालों पर भी अपना रवैया स्पष्ट करना होगा क्योंकि उनके स्वागत में जिस तरह कारपोरेट घराने लोटपोट होकर उन पर बलिहारी जा रहे हैं, वह कई तरह की दुश्चिताएं भी जगा रहे हैं।
पूंजीवाद को विकसित कीजिए न कि पूंजीवादियों कोः

   आने वाली सरकार के नायकों राहुल गाँधी और नरेंद्र मोदी को यह साफ करना होगा कि वे न सिर्फ समावेशी विकास की अवधारणा के साथ खड़े होंगें बल्कि आमजन उनकी राजनीति के केंद्र में होंगें। उनको यह भी तय करना होगा कि वे आर्थिक पूंजीवाद और विश्व बाजार की सवारी तो करेंगें किंतु वे पूंजीवाद को विकसित करेंगें न कि पूंजीवादियों को। वे देश को प्रेरित करेंगें ताकि यहां उद्यमिता का विकास हो। लोग उद्यमी बनें और उजली आर्थिक संभावनाओं की ओर बढ़ें। एक ऐसा वातावरण बनाना अपेक्षित है, जिसमें युवा संभावनाओं के लिए आगे बढ़ने के अवसर हों और सरकार उनके सपनों के साथ खड़ी दिखे। राहुल गांधी के लिए भी यह सोचने का अवसर है कि आज कांग्रेस के सामने जो सवाल खड़ें हैं उसके लिए उनका दल स्वयं जिम्मेदार है। कांग्रेस की मौकापरस्ती और तमाम ज्वलंत सवालों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाकर पार्टी ने अपनी विश्वसनीयता लगभग समाप्त कर ली है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की सरकारों और कांग्रेस की सरकारों में चरित्रगत अंतर समाप्त होने के कारण जनता के सामने अब दोनों दल सहोदर की तरह नजर आने लगे हैं न कि एक-दूसरे के विकल्प की तरह। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के लिए आने वाले लोकसभा चुनाव एक अवसर की तरह हैं देखना है कि दोनों अपने आचरण, संवाद तथा प्रस्तुति से किस तरह देश की जनता और दिल्ली का दिल जीतते हैं।