-संजय द्विवेदी
यह
भारतीय राजनीति का केजरीवाल समय है। ईमानदारी, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था, सत्ता
से प्रतिरोध और दुस्साहस इसके मूल्य हैं। यह परंपरागत राजनीतिक धाराओं के सामने एक
चुनौती है और एक नई तरह की समानांतर धारा की शुरूआत भी। जिसमें मुख्यधारा के सभी
दल एक तरफ और दूसरी तरफ अकेली ‘आप’ है।
आप ने परंपरागत सत्ता
प्रतिष्ठानों को चुनौती दी, सड़क पर
संघर्ष किया और अब वह दिल्ली की सत्ता में है। लंबी खामोशी के बाद अगर नरेंद्र मोदी ने भी ‘आप की टीवी प्रियता’ पर टिप्पणी की है, तो
हमें मान लेना चाहिए कि मामला साधारण नहीं रह गया
है। यह बात तब और स्थापित हो जाती है, जब लखनऊ से अमेठी के रास्ते भर कुमार
विश्वास विरोध का सामना करते हैं। यह घबराहटें बताती हैं कि परंपरागत राजनीतिक
दलों में एक घबराहट है और आप को मिल रहे अतिरिक्त जनसमर्थन और टीवी कवरेज से
चिंताएं भी। यह अकारण नहीं है कि कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने उन्हीं टोटकों
को अपनाने की कोशिशें कीं, जिन पर केजरीवाल और उनके मंत्री अमल करते दिख रहे हैं।
सही मायने में केजरीवाल एक ऐसा नाम साबित हुए हैं, जिसने पारंपरिक राजनीति को नए
पाठ पढ़ाने शुरू किए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख हों या उससे जुड़े एक
प्रमुख पत्रकार सभी भाजपा को उसकी जड़ों की याद दिला रहे हैं। संघ समर्थक उक्त
पत्रकार ने जो लेख लिखा उसका शीर्षक ही है- ‘भाजपा
के लिए बैक टू बेसिक्स का समय’।
जाहिर तौर पर भाजपा जैसी
पार्टी जिसका पूर्व नाम जनसंघ था, देश की राजनीति में एक वैकल्पिक दर्शन की शुरूआत
के लिए जानी गयी। उसके नेताओं में दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग भी रहे जिनके त्याग,
शालीनता और सादगी के किस्से मशहूर हैं। यह श्रृखंला काफी लंबी रही जो कुशाभाऊ
ठाकरे से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी तक जाती है। किंतु आज इस दल की बेबसी देखिए कि वह
बार-बार अपने एक मुख्यमंत्री मनोहर पारीकर का नाम दुहराने के लिए मजबूर है। दलों
के विस्तार ने सादगी व सिद्धांतों को शिथिल किया, बदले जमाने में जीत सकने वाले
उम्मीदवारों की खोज शुरू हुयी और समझौतों ने मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया। डा.
राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के उत्तराधिकारियों का हाल भी किसी से छिपा
नहीं है। जेपी आंदोलन के नेताओं ने देश में जैसी राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया
वह सबके सामने है। लोहिया के चेले मुलायम सिंह का कारपोरेट समाजवाद अक्सर चर्चा
में रहता है। ऐसे में आदर्श राजनीति के प्रतीक भी खोजे नहीं मिलते।
उदारीकरण के बाद बनी
स्थितियों में राजनीतिक दलों की आम जनता से दूरी बढ़ती चली गयी। महंगाई बाजार के
हवाले कर दी गयी। आवश्यक वस्तुओं की कीमतों, पेट्रोल-डीजल की कीमतें आकाश छूने
लगीं। बढ़ते वेतन के बावजूद जिंदगी कठिन लगने लगी। महानगरों में तो यह और भी
दुष्कर हो गयी। मध्यवर्ग भी त्राहि-त्राहि कर उठा। इस बीच सारी प्रतियोगिता
सार्वजनिक धन को निजी धन में तब्दील करने में सीमित हो गयी।
राजनेता-नौकरशाह-व्यापारी-मीडिया का एक गठजोड़ बन गया, जिसमें जल्दी और ज्यादा
कमाने की होड़ देखी गयी। रोज-रोज हो रहे घोटाले इस अनास्था को और गहरा कर रहे थे।
जमीन से कटे नेताओं की टोली आम जन में चल रहे इस गुस्से को भांप नहीं पाई। गरीब की
भूख, उसके ज्यादा खाने, एक रूपए से लेकर 5 रूपए की थाली जैसे मजाक बनते रहे। सेवा
के बजाए राजनीति एक व्यवसाय में बदलती गयी। स्पेक्ट्रम से लेकर खनिजों की लूट से
देश ठगा सा सारा कुछ देख रहा था। इस बीच बाबा रामदेव पर हुए दमन ने देश को झकझोर
कर रख दिया। उसके बाद अन्ना हजारे ने एक उम्मीद जगाई और सड़कों पर लोगों का हूजूम
उतर पड़ा। लगा की भारत जाग रहा है। देश भर में एक आलोड़न खड़ा हुआ और उस बदलते हुए
भारत का कुछ नौजवान चेहरा बन गए। अरविंद केजरीवाल उनमें अग्रणी हैं।
आप देखें तो किस तरह यह समय
बाबा रामदेव, अन्ना हजारे से होता हुआ केजरीवाल तक जा पहुंचा। केजरीवाल की
देहभाषा, समर्पण, मीडिया की ओर से उन्हें मिला अटेंशन आज देश की राजनीति की दिशा
तय कर रहा है। वे दिल्ली के मुख्यमंत्री और देश के हीरो हैं। वे उम्मीदों का वही
चेहरा हैं, जैसा कभी वीपी सिंह रहे होंगें। लेकिन वीपी सिंह की समस्या यह थी कि वे
अपनी राजनीति का विकल्प उन्हीं परंपरागत खांचों में देख रहे थे और पारंपारिक
राजनीति में ही अवसर खोज रहे थे। केजरीवाल ने किसी राजनीतिक दल में न जाकर, एक
समानंतर राजनीति खड़ी की है, जिसका चेहरा, विचार और संविधान वे स्वयं हैं। उनकी
जिदें, उनके संकल्प, उनके विचार इस दल का विचार हैं। अनेक राजनीतिक धाराओं के लोग
उनके साथ हैं, कुछ और साथ आते जा रहे हैं। यानी अपनी राजनीतिक का एजेंडा तो वे सेट
कर ही रहे हैं, शेष राजनीतिक दलों को भी अपने एजेंडे पर आने के लिए मजबूर कर रहे
हैं। सत्ता किसे प्रिय नहीं है किंतु वे वाचिक तौर पर निरंतर सत्तामोह से दूरी
बनाते हैं। वे देश की राजनीति में एक नए विमर्श के वाहक बन गए हैं,जिसकी हदें और
सरहदें अभी तय नहीं हैं। देखना यह है कि भारतीय राजनीति का यह केजरीवाल समय हमें
कितना और कैसे प्रभावित करता है। देश के बड़े नेताओं की नजर में यह बुलबुला है पर
अगर कुछ लोग इसमें लहर या तूफान की संभावनाएं देख रहे हैं तो उन पर आज भी अविश्वास
कैसे किया जा सकता है।
(लेखक माखनलाल
चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय , भोपाल में जनसंचार विभाग के
अध्यक्ष हैं)
संजय जी, याद कीजिए कि कांग्रेस से आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व NGO बनाने के प्रक्रिया प्रारम्भ की थी। ये सारे ही एनजीओ कांग्रेस के वोट-बैंक थे। आज ये ही समस्त एकत्र आए हैं और इन्हें वामपंथी होने के कारण मीडिया का भी समर्थन मिल रहा है। इन एनजीओ पर जितना पैसा सरकारों ने लुटाया है और जितना विदेश से आया है, क्या उसके अनुरूप विकास दिखायी देता है? एनजीओ के साथ कांग्रेस और अन्य सेकुलर दल केवल मोदी को रोकना चाहते हैं। हो सकता है कि भाजपा के कुछ लोगों में चरित्रहनन हुआ हो लेकिन मोदी के लिए तो हम ऐसा नहीं कह सकते। इसीलिए आज मोदी के सशक्त नेतृत्व को पीछे धकेलने के लिए ऐसे कमजोर नेतृत्व को आगे किया जा रहा है। देश भ्रमित हो रहा है, लेकिन यह भ्रम अब छंटने लगा है और शीघ्र ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जाऐगा।
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