क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत से
अखिलभारतीयता को मिलती चुनौती
-संजय द्विवेदी
अरसा हुआ देश ने केंद्र में पूर्ण
बहुमत की सरकार नहीं देखी। स्वप्न सरीखा लगता है जब राजीव गांधी ने 1984 के चुनाव
में 415 लोकसभा सीटें जीतकर दिल्ली में सरकार बनायी थी। इतिहास ऐसे अवसर किसी किसी
को ही देता है। राजीव गांधी को यह अवसर मिला, यह अलग बात है अपनी राजनीतिक
अनुभवहीनता, अनाड़ी दोस्तों की सोहबत और कई गलत फैसलों से उनकी सरकार जल्दी
विवादित हो गयी और बोफोर्स के धुंए में सब तार-तार हो गया। तबसे लेकर आजतक दिल्ली
को एक ऐसी सरकार का इंतजार है जो फैसलों को लेकर सहयोगियों के दबावों से मुक्त
होकर काम कर सके। जो अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को दृढ़ता के साथ लागू कर सके।
भारतीय संविधान ने अनेक संवैधानिक व्यवस्थाएं करके केंद्रीय शासन को समर्थ बनाया
है किंतु इन सालों में हमने प्रधानमंत्री को ही सबसे कमजोर पाया है। सत्ता के अन्य
केंद्र, दबाव समूह, सत्ता के साझेदार कई बार ज्यादा ताकतवर नजर आते हैं। वीपी
सिंह, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह
सरकार सबकी एक कहानी है।
इसका सबसे कारण है हमारे राष्ट्रीय
राजनीतिक दलों की विफलता और उफान मारती क्षेत्रीय आकांक्षाएं। आखिर क्या हुआ कि
हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल सिमटने लगे और क्षेत्रीय दलों का अभूतपूर्व विस्तार
हुआ। राष्ट्रीय दल होने के नाते कांग्रेस का पराभव हुआ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत घटी और भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस
की छोड़ी हुयी जगहों को तेजी से भर नहीं पायी। जाहिर तौर पर अखिलभारतीयता के विचार
और भाव भी हाशिए लग रहे थे। राष्ट्रीय राजनीतिक दल वैसे भी भारत में बहुत ज्यादा
नहीं थे। सही मायने में तो कांग्रेस,जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट
पार्टियां ही अखिलभारतीयता के चरित्र का सही मायने में प्रतिनिधित्व करती थीं
किंतु हालात यहां तक आ पहुंचे कि राजीव गांधी को जिस सदन ने 415 का बहुमत दिया, उसी सदन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तेलगू
देशम थी- यानि कि एक क्षेत्रीय दल भारत का प्रमुख विपक्षी दल बन गया। यह समय ही
भारत में राष्ट्रीय दलों के क्षरण का प्रारंभकाल है। तबसे आज तक क्षेत्रीय दलों की
शक्ति और क्षमता को हम लगातार बढ़ता हुआ देख रहे हैं। समाजवादी आंदोलन के बिखराव
ने सोशलिस्ट पार्टी को खत्म कर दिया या वे कई क्षेत्रीय दलों में बंटकर क्षेत्रीय
आकांक्षाओं की प्रतिनिधि पार्टिंयां बन गयीं और बचे हुए समाजवादी कांग्रेस-
भाजपा-बसपा जहां भी मौका मिला उस दल की गोद में जा बैठे। यह आश्चर्यजनक नहीं है
नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह से लेकर भाजपा के आरिफ बेग तक एक समय तक समाजवादी
ही थे। किंतु समय बदलता गया और राष्ट्रीय दलों का प्रभामंडल कम होता गया। आज हालात
यह हैं कि बिना गठबंधन दिल्ली में कोई दल सरकार बनाने का स्वप्न भी नहीं देखता। जबकि
राजनेता तो सपनों के सौदागर ही होते हैं। किंतु वास्तविकता यह है आने वाले आम
चुनावों में जनता किस गठबंधन के साथ जाएगी, उसके लिए अपना कुनबा बढ़ाने पर जोर है।
नरेंद्र मोदी जैसे समर्थ नेतृत्व की उपस्थिति के बावजूद भाजपा परिवार में चिंता है
तो इसी बात की चुनाव के बाद हमें किन-किन दलों का समर्थन मिल सकता है। यह भी सही
है कि इस दौर ने विचारधारा के आग्रहों को भी शिथिल किया है। वरना क्या यह साधारण
बात थी कि एनडीए की अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में उमर अब्दुला,
नीतिश कुमार, रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, अरूणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री गेगांग
अपांग के बेटे तक मंत्री पद पर देखे गए। वहीं जयललिता से लेकर चंद्रबाबू नायडू
वाजपेयी सरकार को समर्थन देते रहे। आज कांग्रेस के साथ भी बहुत से दल शामिल हैं।
वे भी हैं जो कल तक एनडीए के साथ थे। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि राजनीति में
अखिलभारतीयता के चरित्र को कैसे स्थापित किया जा सकता है। अखिलभारतीयता एक सोच
है,संवेदना है और फैसले लेने में प्रकट होने वाली राष्ट्रीय भावना है। क्षेत्रीय
दल उस संवेदना से युक्त नहीं हो सकते, जैसा राष्ट्रीय राजनीतिक दल होते हैं।
क्योंकि क्षेत्रीय दलों को अपने स्थानीय सरोकार कई बार राष्ट्रीय हितों से ज्यादा
महत्वपूर्ण दिखते हैं। उमर अब्दुला या महबूबा मुफ्ती को क्या फर्क पड़ता है यदि
शेष देश को उनके किसी कदम से दर्द होता हो। इसी तरह नवीन पटनायक या जयललिता के लिए
उनका अपना राज्य और वोट आधार जिस बात से पुष्ट होता है, वे वैसा ही आचरण करेंगें।
लिट्टे के मामले में तमिलनाडु के क्षेत्रीय दलों के रवैये का अध्ययन इसे समझने में
मदद कर सकता है। क्षेत्रीय राजनीति किस तरह अपना आधार बनाती है उसे देखना हो तो
राज ठाकरे परिघटना भी हमारी सहायक हो सकती है। कैसे अपने ही देशवासियों के खिलाफ
बोलकर एक दल क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करते हुए राज्य में एक शक्ति बन जाता
है। निश्चित ही ऐसी राजनीति का विस्तार न सिर्फ घातक है बल्कि देश को कमजोर करने
वाला है। इस तरह के विस्तार से सिर्फ केंद्र की सरकार ही कमजोर नहीं होती बल्कि
देश भी कमजोर होता है। इसके लिए हमें इन कारणों की तह में जाना होगा कि आखिर ऐसा
क्या हुआ कि देश आज क्षेत्रीय दलों की आवाज ज्यादा सुनता है। देश के तमाम राज्यों जैसे
जम्मू-कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडु, उप्र, बिहार, उड़ीसा, प.बंगाल, झारखंड में जहां
क्षेत्रीय दल सत्ता में काबिज हैं तो वहीं अनेक राज्यों में वे सत्ता के प्रबल
दावेदार या मुख्य विपक्षी दल हैं। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि राजनीति में
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के दिल जल्दी बहुरने वाले हैं। क्षेत्रीय दलों के फैसले
भावनात्मक और क्षेत्रीय आधार पर ही होते हैं। देश की सामूहिक आकांक्षाएं उनके लिए
बहुत मतलब नहीं रखतीं। अपने स्थानीय दृष्टिकोण से बंधे होने के कारण उनकी
प्रतिक्रियाएं क्या रूप ले सकती हैं, इसे हम और आप तेलंगाना की आग में जलते हुए आंध्र
प्रदेश को देखकर समझ सकते हैं।
दरअसल अखिलभारतीयता एक चरित्र है।
भाजपा जब उसका विस्तार बहुत सीमित था तब भी वह एक अखिलभारतीय चरित्र की पार्टी थी।
आज तो वह एक राष्ट्रीय दल है ही। इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टियां भले आज बहुत सिकुड़
गयी हैं, उनकी धार कुंद हो गयी हो किंतु वे अपने चरित्र में ही अखिलभारतीय सोच का
प्रतिनिधित्व करती हैं। इसी तरह डा. राममनोहर लोहिया के जीवन तक समाजवादी पार्टी
भी अखिलभारतीय चरित्र की प्रतिनिधि बनी रही। चौधरी चरण सिंह ने भले ही उप्र,
राजस्थान और हरियाणा की पिछड़ा वर्ग, जाट पट्टी में अपना खासा आधार खड़ा किया
किंतु उनकी लोकदल एक अखिलभारतीय चरित्र की पार्टी बनी रही। इसका कारण सिर्फ यह था
कि ये दल कोई भी फैसला लेते समय देश के मिजाज और शेष भारत पर उसके संभावित असर का
विचार करते हैं। पूरे देश में अपने दल की संगठनात्मक उपस्थिति के नाते वे अपने
काडर-कार्यकर्ताओं-नेताओं पर पड़ने वाले प्रभावों और फीडबैक से जुड़े होते हैं।
बावजूद इसके अखिलभारतीयता में आ रही कमी और
राष्ट्रीय दलों के सिकुड़ते आधार के लिए इन दलों की कमियों को भी समझना होगा।
क्योंकि आजादी के समय कांग्रेस ही सबसे बड़ा दल था जिससे देश की जनता की भावनाएं
जुड़ी हुयी थीं। ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रीय दलों से लोग दूर होते गए और क्षेत्रीय
दल शक्ति पाते गए। निश्चय ही इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे राष्ट्रीय
राजनीतिक दल क्षेत्रीय आकांक्षाओं, भावनाओं, उनके सपनों को संबोधित नहीं कर पाए। बड़े
राजनीतिक दल यह समझ पाने में असफल रहे कि कोई भी राष्ट्रीयता, स्थानीयता के संयोग
से ही बनती है। स्थानीयता सह राष्ट्रीयता के मूलमंत्र को भूलकर तमाम क्षेत्रों,वर्गों
की तरफ उपेक्षित निगाहें रखी गयीं, उसी का परिणाम है कि आज क्षेत्रीय और जातीय
अस्मिताएं दलों के रूप में एक ताकत बनकर सामने आई हैं। वे अपनी संगठित शक्ति से अब
न सिर्फ प्रांतीय-स्थानीय सत्ता में प्रभावी हुयी हैं वरन् वे केंद्रीय सत्ता में
भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं। ऐसे में राजनीति की अखिलभारतीयता की भावना
को खरोंचें लगें तो लगें इससे प्रांतीय, क्षेत्रीय और जातीय अस्मिता की राजनीति
करने वालों को बहुत वास्ता नहीं है। वे केंद्रीय सत्ता को सहयोग देकर बहुत कुछ
हासिल ही नहीं कर रही हैं, वरन कई बार-बार दिल्ली की सत्ता पर कब्जे का स्वप्न भी
देखती हैं। देवगौड़ा को याद कीजिए, मायावती-मुलायम-नीतिश कुमार के सपनों पर गौर
कीजिए। मिली-जुली सरकारों के दौर में हर असंभव को संभव होते हुए देखने का यह समय
है। यह तो भला हो कि इन क्षेत्रीय क्षत्रपों की आपसी स्पर्धा और महत्वाकांक्षांओं
का कि वे एक मंच पर साथ आने को तैयार नहीं हैं और छोटे स्वार्थों में बिखर जाते
हैं, वरना क्षेत्रीय दलों के अधिपति ही ‘दिल्ली पति’ लंबे समय से बने रहते। इसके चलते ही कांग्रेस या भाजपा के
पाले में खड़े होना उनकी मजबूरी दिखती है। बावजूद इसके यह सच है कि क्षेत्रीय
अस्मिता की राजनीति से इस राष्ट्र का मंगल संभव नहीं है। राष्ट्रीय दलों को अपनी
भूमिका को बढ़ाते हुए अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन करना होगा और अपने दम पर
केंद्रीय सत्ता में आने के स्वप्न पालने होगें। क्योंकि मजबूत केंद्र के बिना हम
अपनी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, देश की आकांक्षाओं, सपनों और ज्वलंत प्रश्नों को
हल नहीं कर सकते। एक समन्वित रणनीति बनाकर अखिलभारतीय दलों को देश के ज्वलंत
प्रश्नों पर एक राय बनानी होगी। कुछ सवालों को राजनीति से अलग रखते हुए देश में एक
राष्ट्रीयता की चेतना जगानी होगी। कम्युनिस्ट पार्टियां तो देश की राजनीति में
अप्रासंगिक हो गई हैं। समाजवादी आंदोलन भी बिखराव का शिकार है और
अंततःजातीय-क्षेत्रीय अस्मिता की नारेबाजियों में फंसकर रह गया है। कांग्रेस,
भाजपा की इस दिशा में एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने अखिलभारतीय चरित्र से देश
को जोड़ने का काम करें। देश की राजनीति की अखिलभारतीयता का वाहक होने के नाते वे
इस चुनौती से भाग भी नहीं सकते।
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