शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

पत्रकार और प‍त्रकारिता से जुड़े सवालों के उत्तरों की तलाश

 पुस्तक समीक्षा- अजय बोकील

 पुस्तक : जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद

 संपादक : डॉ. सौरभ मालवीय, लोकेंद्र सिंह

  मूल्य : 500 रुपये

  प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002



   पुस्तक ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली (आईआईएमसी) के महानिदेशक, पत्रकार, शिक्षाविद प्रो. (डाॅ.) संजय द्विवेदी के साक्षात्कारों का ऐसा संकलन है, जो उनकी ‘मन की बात’ का परत दर परत खुलासा करता है। यह मीडिया का एक मीडिया विशेषज्ञ के साथ सार्थक संवाद है। पुस्तक में शामिल ज्यादातर इंटरव्यू उनके आईआईएमसी महानिदेशक बनने पर लिए गए हैं। लेकिन प्रकारांतर से यह द्विवेदीजी की प्रोफेशनल यात्रा का दस्तावेज है। 

   संजयजी ने शिक्षा क्षेत्र में आने से पहले बाकायदा प्रोफेशनल पत्रकार के रूप में कई दैनिक अखबारों और कुछ टीवी चैनलों में काम किया। इस मायने में उनकी यह यात्रा व्यावहारिक पत्रकारिता से सैद्धांतिक पत्रकारिता की ओर है तथा यही इस यात्रा की प्रामाणिकता को सिद्ध करती है, क्योंकि अक्सर प‍त्रकारिता का अध्यापन करने वाले पर यह आरोप लगता है कि उन्हें व्यावहारिक पत्रकारिता का ज्यादा ज्ञान नहीं होता। जबकि पत्रकारिता एक व्यावहारिक अनुशासन ही है। 

   एक साक्षात्कार में स्वयं संजय जी इसका खुलासा करते हैं- 'मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उससे उपजी सफलताएं हैं। मैं खुद को आज भी मीडिया का विद्यार्थी ही मानता हूं। 'दैनिक भास्कर', 'स्वदेश', 'नवभारत', 'हरिभूमि' जैसे अखबारों से शुरू कर के 'जी 24 छत्तीसगढ़' चैनल, फिर कुशाभाऊ ठाकरे प‍त्रकारिता विवि, रायपुर में प‍त्रकारिता विभाग का संस्थापक अध्यक्ष, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि में दस साल प्रोफेसर, कुलपति व कुलसचिव जैसे दायित्वों का निर्वहन। बचपन में ‘बाल सुमन’ पत्रिका निकाली।'

      खास बात यह है कि संजय द्विवेदी का यह यात्रा अनुभव सिद्ध होने के साथ निरंतर सक्रियता का संदेश भी देता है। इस पुस्तक में डाॅ. संजय द्विवेदी द्वारा विभिन्न माध्यमों को दिए गए 25 साक्षात्कार संकलित हैं और इनके‍ ‍शीर्षक अपने भीतर के कंटेट और उद्देश्य को स्वत: बयान करते हैं। मसलन 'हर पत्रकार हरिश्चंद्र नहीं होता', 'सोशल मीडिया हैंडलिंग सीखने की जरूरत', 'मीडिया को मूल्यों की और लौटना होगा', 'जर्नलिस्ट और एक्टिविस्ट का अंतर समझिए'। इसी प्रकार ‘आईआईएमसी से निकलेंगे कम्युनिकेशन की दुनिया के ग्लोबल लीडर', 'एकता के सूत्रों को तलाश करने की जरूरत’ या फिर 'सरस्वती के मंदिर में राजनीति के जूते उतार कर आइए' तथा 'बहती हुई नदी है हिंदी' आदि। इस पुस्तक का संपादन पं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय संचार विवि के प्राध्यापकों डाॅ. सौरभ मालवीय और लोकेन्द्र सिंह ने किया है। 

    बात जब साक्षात्कार की होती है, तो उसकी कसौटी होती है साक्षात्कार देने वाले की मुक्त मन से और खरी-खरी बात। एक सार्थक इंटरव्यू संबंधित व्यक्ति के समूचे व्यक्तित्व और उसकी सोच को खोल कर रख देता है। इस अर्थ में पुस्तक में शामिल सभी इंटरव्यू समकालीन पत्रकारिता से जुड़े तमाम सवालों और चुनौतियों का उत्तर तलाशने में मददगार लगते हैं। साथ ही संजय द्विवेदी की सोच, समझ, संकल्प और प्रतिबद्धता को भी प्रकट करते हैं। बकौल उनके-आज की पत्रकारिता दो आधारों पर खड़ी है, एक भाषा, दूसरा तकनीकी ज्ञान। तकनीक माध्यमों के अनुसार लगातार बदलती रहती है। लेकिन एक अच्छी भाषा में सही तरीके से कही गई बात का कोई विकल्प नहीं है।

     भारतीय जन संचार संस्थान के स्थापना दिवस के उपलक्ष में दिए एक इंटरव्यू में समकालीन पत्रकारिता के सामने मौजूद चुनौतियों के बारे में द्विवेदी कहते हैं- ‘हमे सवाल खड़े करने वाला ही नहीं बनना है, इस देश के संकटों को हल करने वाला पत्रकार भी बनना है। मीडिया का उद्देश्य अंतत: लोकमंगल की है। यही साहित्य व अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं का उद्देश्य भी है। इसके साथ देश की समझ आवश्यक तत्व है। देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, परंपरा, आर्थिक सामाजिक चिंताओं, संविधान की मूलभूत चिंताओं की गहरी समझ हमारी प‍त्रकारिता को प्रामाणिक बनाती है। समाजार्थिक न्याय  से युक्त, न्यायपूर्ण समरस समाज हम सबका साझा स्वप्न है। पत्रकारिता अपने इस कठिन दायित्वबोध से अलग नहीं हो सकती। इसमें शक नहीं कि आज मीडिया एजेंडा केन्द्रित पत्रकारिता और वस्तुनिष्ठ और निरपेक्ष पत्रकारिता के बीच बंट गया है। यह स्थिति स्वयं मीडिया की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाती है।' 

       वैचारिक आग्रह कुछ भी हों, लेकिन एक प्रोफेशनल और प्रामाणिक पत्रकार की बुनियादी प्रतिबद्धता तथ्य और सत्य के पक्ष में होती है तथा होनी भी चाहिए। संजय द्विवेदी एक इंटरव्यू में  इसी बात को बहुत साफगोई के साथ कहते हैं- ‘पत्रकार का तथ्यपरक होना जरूरी है। सत्य का साथ पत्रकार नहीं देगा तो कौन देगा। समस्या यह है कि आज जर्नलिस्ट के साथ तमाम एक्टिविस्ट भी पत्रकारिता में चले आए हैं। जर्नलिज्म और एक्टिविज्म दो अलग अलग चीजे हैं। जर्नलिज्म का रिश्ता फैक्ट फाइंडिंग से हैं। एक्टिविस्ट का काम किसी विचार या विचारधारा के लिए लोगों को मोबिलाइज करना और सरकार पर दबाव बनाना है। जर्नलिस्ट का यह काम नहीं है। उसका काम है तथ्य और सत्य के आधार पर चीजों  का विश्लेषण करान।सोशल मीडिया के आने से अराजकता पैदा हो रही है और तथ्‍यों के साथ खिलवाड़ हो रहा है। पत्रकारिता को ऑब्जेक्टिव होने की जरूरत है।' 

   आज पत्रकारिता की साख पहले जैसी नहीं रह गई है, उसका मुख्य कारण है खबरों में ‍मिलावट। संजय द्विवेदी इसके खिलाफ बहुत साफ तौर पर बात करते हैं। वो कहते हैं- ‘आज सबसे बड़ी चुनौती खबरों में मिलावट की है। खबरे परिशुद्धता के साथ कैसे प्रस्तुत हों, कैसे लिखी जाएं, बिना झुकाव, बिना आग्रह कैसे वो सत्य को अपने पाठकों तक सम्प्रेषित करें। प्रभाष जोशी कहते थे कि ‍पत्रकार की पाॅलिटिकल लाइन तो हो, लेकिन पार्टी लाइन न हो।'

    एक शिक्षाविद होने के नाते डाॅ. संजय द्विवेदी नई शिक्षा नीति की खूबियों और चुनौतियों को व्याख्यायित करते हैं। कुछ लोगों के मन में नई शिक्षा नीति को लेकर सवाल भी हैं, लेकिन संजय द्विवेदी एक साक्षात्कार में कहते हैं- ‘नई शिक्षा नीति बहुत सुविचारित और सुचिंतित तरीके से प्रकाश में आई है। इसे जमीन पर उतारना कठिन काम है, इसलिए शि‍क्षाविदों, शिक्षा से जुड़े अधिकारियो और संचारकों की भूमिका बहुत बढ़ गई है। लेकिन इस कठिन दायित्व बोध ने हम सबमें ऊर्जा का संचार भी किया है।' 

    पत्रकारिता के बदले परिदृश्य और भावी चुनौतियों को लेकर डाॅ. संजय द्विवेदी का नजरिया बहुत साफ है। आज मल्टीमीडिया का जमाना है। इसलिए पत्रकार को अपनी बात भी कई माध्यमों से कहना जरूरी हो गया है, क्योंकि पाठक या श्रोता के भी अब कई स्तर और प्रकार हो गए हैं। संजयजी इसे कन्वर्जेंस का समय मानते हैं। अपने एक साक्षात्कार में वो कहते हैं- ‘अब जो समय है कन्वर्जेंस का है। एक माध्यम पर रहने से काम नहीं चलेगा। अलग अलग माध्यमों को एक साथ साधने का समय आ गया है। जो व्यक्ति प्रिंट पर है, उसे वेब पर भी होना है। मोबाइल एप पर भी होना है। टेलीविजन पर भी होना है। आज वही मीडिया संस्थान ठीक से काम कर रहे हैं, जो एक साथ अनेक माध्यमों पर काम कर रहे है।'

   अध्यापन के साथ साथ संजयजी विभिन्न और सोद्देश्य पत्रिकाओं का नियमित संपादन भी करते हैं। यह उनकी अखूट ऊर्जा और सक्रियता का परिचायक है। ऐसा ही एक प्रकाशन है ‘मीडिया विमर्श।' यह त्रैमासिक प‍त्रिका अपने आप में अनूठी है। संजय द्विवेदी कहते हैं- जहां तक ‘मीडिया‍ विमर्श’ की बात है, मेरे मन में यह था कि मीडिया पर हम लोग बहुत बातचीत करते हैं, पर कोई ऐसी पत्रिका नहीं है, जो मीडिया और उसके सवालों के बारे में बातचीत करे, तो मीडिया विमर्श नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन हमने 14 साल पहले रायपुर से शुरू किया। यह त्रैमासिक पत्रिका है और एक विषय पर पूरा संवाद रहता है। भाषाई पत्रकारिता पर हमने कई अंक निकाले। उर्दू, गुजराती, तेलुगू, मलयालम आदि।' 

    संजय द्विवेदी मूलत: उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले से हैं। उनके पिता भी हिंदी के प्राध्यापक थे और घर में शुरू से ही साहित्यिक माहौल था। लिहाजा हिंदी से उनका प्रेम स्वाभाविक है। आईआईएमसी जैसे संस्थान में भी वो हिंदी का झंडा बुलंद करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। एक साक्षात्कार में वो कहते हैं- ‘हिंदी का पाठ्यक्रम मूल हिंदी में ही तैयार होगा। आजकल नई हिंदी आई है। बोलचाल की हिंदी। भाषा को जीवन के साथ रहने दीजिए, उसे पुस्तकालयों में मत ले जाइये। हिंदी जैसी उदार भाषा कोई नहीं है। हिंदी को शास्त्रीय बनाने के प्रयासों से हमे बचना चाहिए। हिंदी एक बहती हुई नदी है। इसका जितना प्रवाह होगा, वह उतनी ही बहती जाएगी।'                                                                                                                                                                                     

  संजय द्विवेदी अब तक दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं या उन्हें संपादित कर चुके हैं। इनमें राजनीतिक विश्लेषण भी हैं। आपने अपराध पत्रकारिता पर भी डाॅ. वर्तिका नंदा के साथ मिलकर एक पुस्तक का संपादन किया है। पत्रकार और पत्रकारिता शिक्षक के रूप में उनकी यह यात्रा अनवरत है। दरअसल पत्रकार होना अपने समय से भिड़ना भी है। यह भिड़ंत साहित्य की तुलना में ज्यादा जोखिम भरी भी है। इसीलिए पत्रकारिता का असर बहुत व्यापक पैमाने पर देखने को मिलता है। महान लेखक ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था- ‘अमेरिका में एक राष्ट्रपति तो चार साल साल के लिए ही शासन करता है, लेकिन पत्रकारिता तो हमेशा-हमेशा के लिए शासन करती है।' प्रस्तुत ‍पुस्तक ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’ की प्रासंगिकता इसी में है कि यह पत्रकार और पत्रकारिता से जुड़ी शंकाओं और सवालों का जवाब देने की पूरी कोशिश करती है।    


(लेखक मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एवंं भोपाल से प्रकाशित समाचार पत्र ‘सुबह सवेरे’ में वरिष्ठ संपादक हैं।)

वक्त के साथ बदलते मीडिया से साक्षात्कार

पुस्तक समीक्षा- डा. विनीत उत्पल

पुस्तक : जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद

संपादक : डॉ. सौरभ मालवीय, लोकेंद्र सिंह

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002



वक्त बदल रहा है, मीडिया बदल रहा है, मीडिया तकनीक बदल रही है, मीडिया के पाठक और दर्शक की रुचि, स्थिति और परिस्थिति भी बदल रही है। ऐसे में मीडिया अध्ययन, अध्यापन और कार्य करने वालों को खुद में बदलाव लाना आवश्यक है। इसके लिए मीडिया के मिजाज को समझना और समझाना आवश्यक है। “जो कहूंगा, सच कहूंगा” नामक पुस्तक इस दिशा में कार्य करने में सक्षम है।

   भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी की बातचीत मीडिया विद्यार्थियों को एक नव दिशा देने का कार्य करती है। मीडिया में आने वाले विद्यार्थी पत्रकार तो बन जाते हैं, लेकिन मीडिया की बारीकियों को समझने में उन्हें समय लगता है, क्योंकि मीडिया वक्त के साथ परिवर्तनकारी होता है। यही कारण है कि डॉ. ऋतेश चौधरी के साथ साक्षात्कार में संजय द्विवेदी कहते हैं, “वक्त का काम है बदलना, वह बदलेगा। समय आगे ही जायेगा, यही उसकी नैसर्गिक वृत्ति है।” लेकिन मीडिया की दशा और दिशा को देखकर वे कहते हैं, “मीडिया की मजबूरी है कि वह समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसे प्रथमतः और अंततः जनता के दुख-दर्द के साथ होना होगा।”

   संजय द्विवेदी पत्रकारों को सामान्य व्यक्ति नहीं मानते। एसडी वीरेंद्र से बातचीत में वे कहते हैं, “सामान्य व्यक्ति पत्रकारिता नहीं कर सकता। जब तक समाज के प्रति संवेदन नहीं होगी, अपने समाज के प्रति प्रेम नहीं होगा, कुछ देने की ललक नहीं होगी, तो मीडिया में आकर आप क्या करेंगे? मीडिया में आते ही ऐसे लोग हैं, जो उत्साही होते हैं, समाज के प्रति संवेदना से भरे होते हैं और बदलाव की जिसके अंदर इच्छा होती है।” समाज में पत्रकार की भूमिका को लेकर जो आमतौर पर चिंता जताई जाती है, या फिर मीडिया की परिधि में समाचार, विचार और मनोरंजन के आ जाने से आलोचना की जाती है, उसे लेकर उनका मंतव्य स्पष्ट है कि “सामाजिक सरोकार छोड़कर कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती। न्यूज़ मीडिया अलग है और मनोरंजन का मीडिया अलग है। दोनों को मिलाइये मत। दोनों चलेंगे। एक आपको आनंद देता है, दूसरा खबरें और विचार देता है। दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं।”

   संजय द्विवेदी मानते हैं कि मीडिया का काम जिमेदारी भरा है। लोगों की आकांक्षा मीडिया से जुड़ी होती है। यही कारण है कि वे कहते हैं, “मीडिया को अपनी जिम्मेदारी स्वीकारनी होगी, अन्यथा लोग आपको नकार देंगे। अगर आप अपेक्षित तटस्थता के साथ, सत्य के साथ खड़े नहीं हुए, तो मीडिया की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े हो जायेंगे। इसलिए मीडिया को अपनी विश्वसनीयता को बचाये रखने की जरुरत है। यह तभी होगा, अगर हम तथ्यों के साथ खिलवाड़ न करें और एजेंडा पत्रकारिता से दूर रहें।” कुमार श्रीकांत से बातचीत में वे कहते भी हैं, “पत्रकारिता से सब मूल्यों का ह्रास हो गया है, यह कहना ठीक नहीं है। 90 प्रतिशत से अधिक पत्रकार ईमानदारी के साथ अपने काम को अंजाम देते हैं। यह कह देना कि सभी पत्रकार इस तरीके के हो गए हैं, यह ठीक नहीं है।”

    संजय द्विवेदी मीडिया को सिर्फ और सिर्फ सवाल खड़ा करने वाला नहीं मानते। वे मानते हैं कि सवाल के जवाब को ढूंढने का काम भी मीडिया का है। मीडिया यदि इस काम में आगे आए, तो समाज की कई समस्याओं को समाधान स्वतः हो जाएगा। वे कहते हैं, “सवाल उठाना मीडिया का काम है ही, लेकिन सवालों के जवाब खोजना भी मीडिया का ही काम है। यह उत्तर खोजने का काम आप सरकार के आगे नहीं छोड़ सकते।”

    अजीत द्विवेदी से बातचीत में वे गहरे तौर पर कहते हैं, “पत्रकार का तथ्यपरक होना बेहद जरूरी है। सत्य का साथ पत्रकार नहीं देगा, तो और कौन देगा?” वे किसी साक्षात्कार में आने वाले मीडिया विद्यार्थियों को सलाह भी देते हैं कि “परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। अगर आपके अंदर क्रिएटिविटी नहीं है, आइडियाज नहीं है, भाषा की समझ नहीं है, समाज की समझ नहीं है और सबसे महत्वपूर्ण समाज की समस्याओं की समझ नहीं है, तो आपको पत्रकारिता के क्षेत्र में नहीं आना चाहिए।”

     मीडिया में हो रहे बदलाव को लेकर संजय द्विवेदी सोचते हैं कि “न्यूज सलेक्शन का अधिकार अब रीडर को दिया जा रहा है। पहले एडिटर तय कर देता था कि आपको क्या पढ़ना है। आज वह समय धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। आज आप तय करते हैं कि आपको कौन-सी न्यूज चाहिए। धीरे-धीरे यह समय ऐसा आएगा, जिसमें पाठक तय करेगा कि किस मीडिया में जाना है।” आरजे ज्योति से कहते हैं, “मीडिया बहुत विकसित हो गया है। आज उसके दो हथियार हैं। पहला है भाषा, जिससे आप कम्युनिकेट करते हैं। जिस भाषा में आपको काम करना है, उस भाषा पर आपकी बहुत अच्छी कमांड होनी चाहिए। दूसरी चीज है टेक्नोलॉजी। जिस व्यवस्था में आपको बढ़ना है, उसमे टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होता है। एक अच्छे जर्नलिस्ट के दो ही आधार होते हैं कि वह अच्छी भाषा सीख जाए और उससे तकनीक का इस्तेमाल करना आ जाए।”

   संजय द्विवेदी सकारात्मक सोच के व्यक्ति हैं और वे टीवी मीडिया को लेकर अलग नजरिया रखते हैं। वे कहते हैं कि “टीवी से आप बहुत ज्यादा उम्मीद रख रहे हैं। टीवी ड्रामे का माध्यम है, वहां दृश्य रचने होते हैं।” “दर्शकों और पाठकों को भी मीडिया साक्षर बनाने का सोचिये। सारा ठीकरा मीडिया पर मत फोड़िये। हमें पाठक और दर्शक की सुरुचि का विकास भी करना होगा।” हालांकि एक बातचीत में वे कहते नजर आते हैं, “1991 के बाद मीडिया का ध्यान धीरे-धीरे डिजिटल की तरफ बढ़ने लगा। मीडिया कन्वर्जेंस का टाइम हमें दिख रहा है। यानी एक साथआपको अनेक माध्यमों पर सक्रिय होना पड़ता है। अगर आप प्रिंट मीडिया के हाउस हैं, तो आपको प्रिंट के साथ-साथ टीवी, रेडियो और डिजिटल पर भी रहना पड़ेगा और इसके अलावा ऑन ग्राउंड इवेंट्स भी करने होंगे। यानी आप एक साथ पांच विधाओं को साधते हैं।”

   संजय द्विवेदी इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं कि, “हमारी जो सोचने की क्षमता है, हमारा जो मौलिक चिंतन है, वह सोशल मीडिया से नष्ट हो रहा है। धीरे-धीरे सोशल मीडिया के बारे में जानकारी के साथ-साथ हमें उसके उपयोग की विधि सीखनी होगी। हमें उसका उपयोग सीखना होगा। हमें सोशल मीडिया हैंडलिंग सीखनी पड़ेगी, वरना हमारे सामने दूसरी तरह के संकट पैदा होंगे।”

   अनिल निगम के साथ बातचीत में कहते हैं, “सोशल मीडिया अभी मैच्योर पोजीशन में नहीं है और लोगों के हाथों में इसे दे दिया गया है। इसका इस्तेमाल करने वाले लोग प्रशिक्षित पत्रकार नहीं हैं। वे ट्रेंड नहीं हैं। उनको बहुत भाषा का ज्ञान भी नहीं है। वे कानून पढ़कर भी नहीं आये हैं।  वे लिखते हैं और इसके बाद जेल भी जाते हैं।”

    मीडिया के बदलते रुतबे और कार्यप्रणाली को लेकर द्विवेदी सजग हैं और कहते हैं, “मीडिया का आकार-प्रकार बहुत बढ़ गया है। अखबारों के पेज बढ़े हैं, संस्करण बढे हैं। जिले-जिले के पेज बनते हैं। आज अखबार लाखों में छपते और बिकते हैं। चीन, जापान और भारत आज भी प्रिंट के बड़े बाजार हैं। यहां ग्रोथ निरंतर हैं। ऐसे में अपना प्रसार बढ़ाने के लिए स्पर्धा में स्कीम आदि के कार्य होते हैं।” वहीं, कॉर्पोरट के द्वारा मीडिया इंडस्ट्री के संचालन में किसी भी तरह का नयापन या आश्चर्य उन्हें नहीं दिखता है, उलटे वे सवाल करते हैं कि “इतने भारी-भरकम और खर्चीले मीडिया को कॉर्पोरेट के अलावा कौन चला सकता है? सरकार चलाएगी तो उस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। समाज या पाठक को मुफ्त का अखबार चाहिए। आप अगर सस्ता अखबार और पत्रिकाएं चाहते हैं, तो उसकी निर्भरता तो विज्ञापनों पर रहेगी। अगर मीडिया को आजाद होना है तो उसकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए। ऐसे में पाठक और दर्शक उसका खर्च उठाएं। अगर आप अच्छी, सच्ची, शोधपरक खबरें पढ़ना चाहते हैं तो खर्च कीजिये।”

  नीरज कुमार दुबे से बातचीत में संजय द्विवेदी कहते हैं, “मैं सभी शिक्षकों से यही आग्रह करता हूं कि वे अपने विद्यार्थियों से वही काम कराएं, जो वे अपने बच्चों से कराना चाहेंगे। यह ठीक नहीं है कि आपका बच्चा तो अमेरिका के सपने देखे और आप अपने विद्यार्थी को ‘पार्टी का कॉडर’ बनायें। यह धोखा है।” उनका कहना है कि हमारे पास “दो शब्द हैं, ‘एक्टिविज्म’ और दूसरा है ‘जर्नलिज्म’। वे कहते हैं कि कहीं-न-कहीं पत्रकारों को एक्टिविज्म छोड़ना होगा और जर्नलिज्म की तरफ आना होगा। जर्नलिज्म के मूल्य हैं खबर देना। हमें अपने मूल्यों की ओर लौटना होगा, अगर हम एजेंडा पत्रकारिता करेंगे, एक्टिविज्म का जर्नलिज्म करेंगे या पत्रकारिता की आड़ में कुछ एजेंडा चलने की कोशिश करेंगे, तो हम अपनी विश्वसनीयता खो बैठेंगे और हमें इससे बचना चाहिए।”

   एक साक्षात्कार में संजय द्विवेदी कहते हैं, “हमें यह देखना होगा कि दुनिया के अंदर मीडिया शिक्षा में किस तरह के प्रयोग हुए हैं। उन प्रयोगों को भारत की भूमि में यहां की जड़ों से जोड़कर कैसे दोहराया जा सकता है। पत्रकारिता एक प्रोफेशनल कोर्स है। यह एक सैद्धांतिक दुनिया भर नहीं है…हमें मीडिया में नेतृत्व करने वाले लोग खड़े करने पड़ेंगे और यह जिम्मेदारी मीडिया में जाने के बाद नहीं शुरू होती। हमें मीडिया शिक्षण संस्थाओं से ही लीडर खड़े करने पड़ेंगे। जब लीडर खड़े होंगे, तभी मीडिया का भविष्य ज्यादा बेहतर होगा। मीडिया एजुकेशन देने वाले संस्थानों की यह जिम्मेदारी है कि इन संस्थानों से लीडर खड़े किए जाएं और वे प्रबंधन की भूमिका में भी जाएं।”

    संजय द्विवेदी का मानना है कि  “जैसा हमारा समाज होता है, वैसे ही हमारे समाज के सभी वर्गों के लोग होते हैं। उसी तरह का मीडिया भी है। तो हमें समाज के शुद्धिकरण का प्रयास करना चाहिए। मीडिया बहुत छोटी चीज है और समाज बहुत बड़ी चीज है। मीडिया समाज का एक छोटा-सा हिस्सा है। मीडिया ताकतवर हो सकता है, लेकिन समाज से ताकतवर नहीं हो सकता…याद रखिये कि मीडिया अच्छा हो जाएगा और समाज बुरा रहेगा, ऐसा नहीं हो सकता। समाज अच्छा होगा, तो समाज जीवन के सभी क्षेत्र अच्छे होंगे।”

    पुस्तक ‘जो कहूंगा, सच कहूंगा’ के संपादकीय में सम्पादक द्वय डॉ. सौरभ मालवीय और लोकेंद्र सिंह लिखते हैं, “संजय द्विवेदी अपने समय के साथ संवाद करते हैं। अपने समय से साथ संवाद करना उनकी प्रकृति है। इसलिए संवाद के जो भी साधन जिस समय में उपलब्ध रहे, उसका उपयोग संजय जी ने किया। जो विषय उन्हें अच्छे लगे या जिन मुद्दों पर उन्हें लगा कि इन पर समाज के साथ संवाद करना आवश्यक है, उन्होंने परंपरागत और डिजिटल मीडिया का उपयोग किया।” इस बात को संजय द्विवेदी भी एक जगह कहते हैं, “समय के साथ रहना, समय के साथ चलना और अपने समय से संवाद करना मेरी प्रकृति रही है। मैं पत्रकारिता का एक विद्यार्थी मानता हूं और अपने समय से संवाद करता हूं।”

    वहीं, रिजवान अहमद सिद्दीकी से बातचीत में संजय द्विवेदी एक आदर्श व्यक्तित्व प्रस्तुत करते हैं और वे कहते है, “जो काम मुझे मिला, ईमानदारी से, प्रामाणिकता से और अपना सब कुछ समर्पित कर उसे पूरा किया। कभी भी ये नहीं सोचा कि ये काम अच्छा है, बुरा है, छोटा है या बड़ा है। और कभी भी किसी काम की किसी दूसरे काम से तुलना भी नहीं की। किसी भी काम में हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास किया। यही मेरा मंत्र है।” साथ ही, दूसरों से उम्मीद करते हुए कहते हैं, “अपने काम में ईमानदारी और प्रमाणिकता रखने के साथ परिश्रम करना चाहिए, क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है। सामान्य परिवार से आने वाले बच्चों के पास दो ही शक्ति होती है, उनकी क्रिएटिविटी और उनके आइडियाज, अगर परिश्रम के साथ काम करते हैं तो अपार संभावनाएं हैं।” इतना ही नहीं, वे कार्य को देशहित से भी जोड़ते हैं। पुस्तक में एक स्थान पर वे कहते हैं, “हर व्यक्ति जो किसी भी क्षेत्र में अपना काम ईमानदारी से कर रहा है, वह देशहित में ही कर रहा है।”

    इस संपादित पुस्तक में कुल जमा 25 साक्षात्कार हैं, जो विभिन्न समय पर लिए गए हैं। ये साक्षात्कार डॉ. ऋतेश चौधरी, सौरभ कुमार, विकास सिंह, एसडी वीरेंद्र, रिजवान अहमद सिद्दीकी, डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी, अजीत द्विवेदी, कुमार श्रीकांत, विकास सक्सेना, नीरज कुमार दुबे, डॉ. अनिल निगम, डॉ. विष्णुप्रिय पांडेय, आनंद पराशर, प्रगति मिश्रा, राहुल चौधरी, आरजे ज्योति, आशीष जैन, सौम्या तारे, गौरव चौहान, माया खंडेलवाल, शबीना अंजुम, डॉ. रुद्रेश नारायण मिश्रा एवं शिवेंदु राय द्वारा लिए गए हैं। कुल 256 पेज की यह पुस्तक कई मायनों में अलग है, जिसे मीडिया में विद्यार्थियों, शिक्षाविदों और मीडियाकर्मियों को पढ़नी और गढ़नी चाहिए।


(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू में सहायक प्राध्यापक हैं।)

मीडिया के ग्लोबल लीडर

 पुस्तक समीक्षा-

समीक्षकः विवेक द्विवेदी

पुस्तक : जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद

संपादक : डॉ. सौरभ मालवीय, लोकेंद्र सिंह

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002



   देश सुरक्षित है, तो समाज सुरक्षित है। समाज सुरक्षित है, तो हम सुरक्षित हैं। यह सुरक्षा सिर्फ तोप और बंदूक से ही संभव नहीं है। लोगों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के साथ-साथ कर्तव्य के निर्वहन में भी सुरक्षा की महती जरूरत होती है और इस क्षेत्र में प्रिंंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका को इस दौर में गंभीरता से स्वीकार किया गया है। आज विश्व एक मुट्ठी में आ गया है। एक क्लिक में दुनिया आंखों के सामने आ जाती है। आज के दौर में सूचना का विस्फोट हो चुका है। दुनिया के किसी कोने में यदि कुछ घटा, तो वह समाचार वैश्विक रूप ले लेता है। यह ताकत मीडिया की है। कभी पत्रकारिता लोग शौकिया किया करते थे। लेकिन इसकी ताकत का असर हुआ कि यह एक काॅरपोरेट दुनिया में बदल गया। अच्छे-अच्छे इंस्टीट्यूट खुल गए। विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई है। खोजी पत्रकारों की दुनिया ग्लोबल हो गई। लोगों को जितना भय पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों से नहीं है, उससे ज्यादा भय मीडिया से हो गया है। सफेद अपराधी हो या श्याम। अपराध करने के पहले पत्रकार और कैमरे की आंखों से बचता है। यदि पत्रकार अपनी में आ जाता है, तो दूध का दूध और पानी का पानी करने में पीछे नहीं हटता। क्योंकी सच कहने की ताकत यदि किसी में आज दिखाई देती है, तो वह ताकत प्रेस और मीडिया के पास ही है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसे देश और विदेश के पत्रकारों ने उसका रेशा-रेशा उघाड़कर दुनिया के सामने लाकर रख दिया। सरकारें बदल जाती हैं। माफिया दुम दबाकर भागता है। मीडिया एक ऐसी अदृश्य शक्ति के रूप में काम करता है कि लोगों को अपनी आंखों का काजल बाहर निकल जाने की भनक तक नहीं लगती।

      ऐसे दौर में पत्रकारिता और अध्यापन से सरोकार रखने वाले प्रो. संजय द्विवेदी, भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक महोदय की बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक 'जो कहूंगा सच कहूंगा', यश प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित होकर आई है। यह पुस्तक पूरी तरह से जनसंचार और पत्रकारिता पर आधारित है। लोगों ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न किये हैं और प्रो. संजय द्विवेदी जी ने बहुत ही बेबाकी से हर प्रश्नों का जवाब दिया है। यह कह सकता हूं कि पत्रकारिता से जुड़े हर छात्र के लिए तो यह पुस्तक महत्वपूर्ण है ही, साथ ही इस प्रोफेशन से जुड़े हर उस शख्स के लिए जरूरी है, जो किसी भी रूप में इस प्रोफेशन का हिस्सा है।

       विभिन्न विषयों में 25 साक्षात्कार इसमें संकलित किये गये हैं। पहले साक्षात्कार का विषय है ‘‘हर पत्रकार हरिश्चंद्र नहीं होता।’’ सैनिक दुनिया का सबसे निर्भीक प्राणी माना जाता है। युद्ध में वह अपनी जान की परवाह किये बिना लड़ता है। परन्तु मेरा मानना है कि उससे भी ज्यादा निर्भीक पत्रकार होता है। विषम परिस्थितियों में रहकर भी वह समाचारों को कवर करता है। इसलिए उसके कार्य के प्रति प्रश्न चिन्ह लगाना कतई प्रासंगिक नहीं होता है। संजय जी इस बात को मानते हैं कि मीडिया अब महानगर से होते हुए गांव तक पहुंच चुका है। यह भी सच है कि सभी अपना एजेन्डा सेट करते हैं। सत्ताधारी की बात ज्यादा आयेगी और सुनी जायेगी। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि प्रतिपक्ष मीडिया में उपेक्षित है। 

     प्रभाष जोशी के कथन को उद्धृत करते हुए संजय जी कहते हैं कि पत्रकार की पोलिटिकल लाइन होना गलत नहीं है। गलत है पार्टी लाइन होना। लेकिन मीडिया से जनतंत्र गायब होने के जवाब में संजय जी साफ शब्दों में कहते हैं, कार्यपालिक, न्यायपालिका और विधायिका से जुड़े लोग क्या ईमानदारी से काम कर रहे है? उत्तर इसका भी नकारात्मक ही आयेगा। इसलिए मीडिया में सब हरिश्चन्द्र हों, यह कैसे संभव है? एक महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर आप इशारा करते हैं। खर्चीले मीडिया को काॅरपोरेट के अलावा कौन चला सकता है। यदि सरकार चलायेगी तो उस पर कभी भरोसा किया ही नहीं जा सकता। क्योंकि वह तो अपना एजेंडा सामने लाएगी। इसलिए अखबार तो कोई व्यवसायी ही निकालेगा। किसी पत्रकार के वश में भी नहीं है। मीडिया तो विज्ञापनों के दम पर टिका है। जब उसका आधार विज्ञापन है तो कहीं न कहीं पक्षपात की गुंजाइश बनी रहेगी। 

    दरअसल यह बात वही कह सकता है, जो मीडिया के प्रकाशन और प्रसारण से जुड़ा होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि संजय जी प्रोफेसर होने के पहले लगभग 15 साल तक अखबार और इलेक्ट्राॅनिक माध्यम से जुड़े रहे हैं। हालांकि क्रांतिकारी पत्रकार भी अंदर की बात नहीं करता। वह जानता है कि काॅरपोरेट मीडिया पत्रकारों को आजादी एक सीमा तक देता है। संजय जी को सरकार और काॅरपोरेट दोनों जगहों का अनुभव है। यद्यपि शिक्षा जगत में आने के बाद अनुभव का विस्तार दूसरी दिशा में चला जाता है। संजय जी में यह बेबाकी इसलिए आई है कि आप का मानना है कि, "पद आज है कल नहीं रहेगा। आयु आज है कल नहीं रहेगी। इसलिए जो चीजें स्थायी नहीं हैं, इसलिए उनका अहंकार पालना समझदारी नहीं है।" दरअसल यह जीवन की हकीकत है, जिसे अक्सर लोग सफलता पाते ही भूल जाते हैं। इसी बात को गीता भी बार-बार दोहराती है। तब भी यह सच लोगों से कितना दूर है। पत्रकारिता के संबंध में अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को केन्द्र में रखकर पूछे गये प्रश्न ‘‘किसी शक्तिशाली व्यक्ति के वश में पत्रकार किस हद तक रहता है" के उत्तर में संजय जी बड़ी ईमानदारी से अपनी बात रखते हैं। मूल बात है अपने पेशे के प्रति ईमानदार होना। कई पत्रकारों को जानता हूं कि शक्तिशाली लोगों के साथ हमप्याला और हमनिवाला रहे हैं। लेकिन जब उनके खिलाफ खबर आई, तो उसे प्रकाशित कर अपने चरित्र का परिचय दिया है। दरअसल यही मीडिया का चरित्र भी है। इसलिए लोग पुलिस और पत्रकार से दुश्मनी और दोस्ती दोनों करने से बचते हैं।

    'जो कहूंगा, सच कहूंगा' पुस्तक पत्रकारिता जगत के कई रहस्यों से पर्दा उठाती है। यह पुस्तक एक विस्तृत चर्चा की मांग करती है। पत्रकारिता का आज व्यापक फलक है। एक जमाना था जब हिन्दी का जो साहित्यकार हुआ करता था, वह पत्रकार भी होता था और साहित्यकार भी था। ऐसे कई उदाहरण आज भी हैं। पांचवी पास व्यक्ति भी पत्रकारिता करता था। अंगूठा छाप व्यक्ति भी अच्छा कवि माना जाता था और आज माना भी जाता है। लेकिन जिस युग में हम जी रहे हैं, वह गहन अध्ययन और मनन के साथ वैश्विक स्तर पर विमर्श का युग है। पाश्चात्य दुनिया में एक विषय से कई विषय निकल चुके हैं। विज्ञान में रसायन शास्त्र और भौतिकी को लें, तो इनके कई रूप हो गए हैं। इसी तरह समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र या इतिहास को लें तो कोर सब्जेक्ट से कई उप विषय आज हमारे सामने हैं। शिक्षण और प्रशिक्षण ऐसे कार्य हैं, जो किसी भी विधा में व्यक्ति को पारंगत बना देते हैं। पत्रकारिता परंपरावादी सोच से बाहर निकलकर ऐसे मुकाम पर आ पहुंची है, जहां बड़े-बड़े संस्थानों से युवा पीढ़ी के लोग पत्रकारिता के वे सारे गुण सीखकर पटल पर आ खड़े हुए हैं, जिन्हे पता है कि कब और कहां किस माध्यम का इस्तेमाल करना है और उसकी बारीकी क्या होती है, प्रशिक्षण ने उनके अंदर हुनर पैदा कर दिया है। संजय जी की चिंता जायज है कि मीडिया की कुर्सी पर ऐसे लोग बैठे हैं, जिन्हें मीडिया के कंटेंट की जानकारी ही नहीं है। इसलिए जरूरी है कि मीडिया एजुकेशन के माध्यम से नए लीडर्स का उद्भव हो। यह काम सिर्फ शिक्षा ही कर सकती है।

   आज सोशल मीडिया को घातक माना जाने लगा है, लेकिन संजय जी इसे सकारात्मक लेते हैं। युग के साथ परिवर्तन होना प्रकृति का काम है। हो सकता है कि गांधी जी भी होते तो सोशल मीडिया या ट्विटर में अपना अकाउंट बनाते। यह सच है कि आने वाला समय क्या कुछ नया लायेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए समय के साथ चलना ही समझदारी है। जब संजय को व्यास जी ने दिव्य दृष्टि दी थी और बिना कैमरे व किसी मशीन के सहारे संजय धृतराष्ट्र के पास बैठकर आंखों देखा युद्ध सुना रहे थे, हमारे ही देश में इसे अंधविश्वास माना जा रहा था। लेकिन समय का कमाल देखिये कि आज संजय की दृष्टि घर-घर पर आ चुकी है। शायद इसीलिए प्रो. संजय द्विवेदी का यह कहना कि हिन्दुस्तान का जो सबसे बड़ा संकट है, वह हीनता का है। हम भूल गये हैं कि हम क्या थे। इसलिए हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि भारत का भारत से परिचय करवाएं। वैसे भी भारत के प्रथम पत्रकार तो नारद जी ही थे। पलक झपकते खबर एक लोक से दूसरे लोक पहुंचा देते थे। यह दुख की बात है कि आज हम पूरी तरह से पश्चिमी देशों के गौरव को ही अपना गौरव मानने लगे हैं। कभी पलटकर अपने को देखने, परखने और समझने की चेष्टा ही नहीं करते।

   भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के प्रमुख होने की हैसियत से संजय जी ने युवाओं को आगे लाने के लिए कई प्रयोग कर रहे हैं। नए-नए आइडियाज के लिए आपने संवाद श्रृंखला की शुरुआत भी की है। यह सब कुछ उन छात्रों के लिए मोटिवेशनल प्रोग्राम के अंतर्गत हो रहा है। साहित्य में यह माना जाता है कि जो कुछ लेखन किया जाता है, उसके केंद्र में मनुष्य होता है। यदि मनुष्य एक अच्छा मनुष्य बन गया, तो वह अकेले ही संसार को बदल देने के लिए काफी होता है। इसलिए संजय जी का यह मंत्र है जो युवाओं के लिए खासकर है। मेहनत से भागिये नहीं। नया सीखिये। लेखन की शक्ति से अपने व्यक्तित्व को मांजते चलिये। सफल होने का सबसे बड़ा मंत्र है। एक शिक्षक का यही धर्म होता है कि वह अपने शिष्य को अंधेरे से निकालकर उजाले की ओर ले जाये, जिसे संजय जी बाखूबी कर रहे हैं।

    दरअसल आज इस मैराथन दौड़ में हम कहीं भटक तो नहीं रहे हैं। मैराथन न कहें तो उचित होगा। यह अंधी दौड़ लगती है। भारत एक संस्कारिक देश है। मूल्यों पर चलने वाला देश है। लोग कितनी ऊंचाई प्राप्त कर लें, लेकिन उनके नैतिक आचरण में कोई परिवर्तन नहीं आता था। मानवीय रिश्ते निभाना भलीं भांति जानते थे। मगर आज मूल्यों में गिरावट आई है। वह हर जगह दिखाई देती है। मीडिया भी उसमें शामिल है। उसकी एक वजह यह भी है कि जब व्यक्ति संकट के दौर से गुजरता है, तो वह पथ से विचलित हो जाता है। संजय जी कोरोना काल में मीडिया के काॅरपोरेट घरानों को नसीहत देते हुए इशारा करते हैं कि जिन पत्रकारों और कर्मचारियों की वजह से मीडिया चल रहा है, उनका वेतन घटाया जा रहा है। 

    मीडिया से जुड़े कई सवालों का जवाब संजय जी बड़ी ईमानदारी से देते हैं। वह भी तटस्थ होकर। संजय जी की दृष्टि में एक तरफ पत्रकार का चश्मा है, तो दूसरी तरफ अकादमिक का है। लेकिन दोनों के बीच व्यवहारिकता महत्वपूर्ण है। संजय जी मुझे बहुत ही प्रायोगिक दिखते हैं। लाग लपेट की बात कहीं करते ही नहीं हैं। खुलकर कहते हैं। पत्रकार का तथ्यपरक होना बेहद जरूरी है। सत्य का साथ पत्रकार नहीं देगा, तो कौन देगा। एक्टिविस्ट और जर्नलिस्ट के बीच यही तो अंतर है। एक्टिविस्ट तो किसी विचारधारा के लिए काम करता है। परन्तु पत्रकार तो सत्य के लिए जीता ही है। इसलिए पत्रकारिता को आब्जेक्टिव होना चाहिए। बिना आब्जेक्टिव हुए वह पत्रकारिता धर्म का पालन नहीं कर सकता। टीवी मीडिया की भूमिका के संबंध में आपका कहना है कि एंकर या विशेषज्ञ तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं। बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ व्यक्त करने में लगे हैं। ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं। संजय जी यहीं पर औरों से अलग दिखाई देते हैं। यह काम एक चिंतक और प्रोफेसर ही कह सकता है।

   'जो कहूंगा, सच कहूंगा' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसे हर उस छात्र को एक बार नहीं कई बार पढ़ना चाहिए, जो संस्थागत पत्रकारिता के क्षेत्र में अध्ययनरत व कार्यरत है। इस पुस्तक में कई बारीकियां हैं, जो पत्रकारिता के क्षेत्र में आनेवाले के लिए मार्गदर्शिका ही नहीं संपूर्ण पुस्तक है। एक अंजाना व्यक्ति भी इसे पढ़कर अपनी राय रखने में सक्षम हो सकता है। भाषा और खासकर हिन्दी भाषा को लेकर आप बहुत ही सकारात्मक हैं। अंग्रेजी के हौवे को नकारते हुए कहते हैं, ‘‘दुनिया के अनेक मुल्क ऐसे हैं जो अंग्रेजी मे काम नहीं करते। इसके बावजूद उन्होंने प्रगति के शिखर छुए हैं। हमारे मन और मस्तिष्क में यह जो भ्रम का जाल है कि हम अपनी भाषाओं में तरक्की नहीं कर सकते, उससे हमें बाहर निकलना होगा।

    'हरि अनंत हरि कथा अनंता' लिखकर गोस्वामी जी ने संदेश दिया है कि सरस्वती का भंडार अच्युत है। आप जितना डुबकी लगायेंगे, उतना ही डूबते जायेंगे। यह आपकी कुशलता है कि कहां तक जाकर सीप खोज सकते हैं। संजय जी के इस काम के लिए उन्हे बधाई देता हूं। आप इसी तरह युवाओं के प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ...।

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

‘मीडिया को जो लोग चला रहे हैं, वे दरअसल मीडिया के लोग नहीं हैं’

 -  संत समीर


पुस्तक : जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद

संपादक : डॉ. सौरभ मालवीय, लोकेंद्र सिंह

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

    आजकल आमतौर पर जिस तरह के साक्षात्कार हमें पढ़ने को मिलते हैं, यदि उनके भीतर की परतों को पहचानने की कोशिश करें तो कम ही साक्षात्कार मिलेंगे जो सही मायने में सच का साक्षात् करा पाते हों। आत्मश्लाघा इस दौर के साक्षात्कारों की आम बात है। असुविधाजनक प्रश्नों से बचकर निकल लेना या गोलमोल उत्तरों का आवरण चढ़ाकर उन्हें और उलझाकर छोड़ देना विवादों से बचे रहने का सुविधाजनक तरीक़ा बन गया है। इस प्रवृत्ति से इस बात का भी अन्दाज़ा लगता है कि हमारे तमाम ऊँची ख्याति के लोगों की दृष्टि कितनी साफ़ है या कि उनमें असुविधाजनक सवालों का सामना करने की हिम्मत कितनी है। इसके बरअक्स हाल ही में आई किताब ‘जो कहूँगा सच कहूँगा’ के साक्षात्कार सचमुच आवरणविहीन हैं और वक्ता के व्यक्तित्व और उसके मन की तरंगों का वाणीगत साक्षात् कराते हैं। बेबाकबयानी इन साक्षात्कारों की ख़ासियत है। पूरी पुस्तक में भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी के समय-समय पर लिए गए कुल पच्चीस साक्षात्कार संकलित हैं।

     इन साक्षात्कारों में प्रो. संजय द्विवेदी के व्यक्तित्व के कई आयाम एक साथ उभरे हैं। व्यक्तिगत बातें हैं; आस्था-विश्वास-मान्यताएँ हैं; तो पेशागत बातें बारम्बार अलग-अलग सवालों के साथ नए-नए उत्तरों के रूप में उपस्थित रहती ही हैं। अध्ययन के हिसाब से देखें तो साक्षात्कार को कोई रोचक विधा नहीं माना जाता, पर इन साक्षात्कारों की एक विशिष्टता यह भी है कि ये पाठक को बाँधकर रखते हैं। प्रो. द्विवेदी बोलते तो बेधड़क हैं ही, व्यवहार की सहजता भी उतनी ही है; सो, इस पुस्तक के पन्नों में उनके भीतर के लेखक और वक्ता, दोनों का अन्दाज़ एक साथ उभरता दिखाई देता है। विभिन्न मुद्दों पर जो बातें उन्होंने की हैं, उनमें तार्किकता के साथ समग्र सोच की झलक मिलती है। समग्रता और साफ़गोई की बिना पर ही इस पुस्तक के पढ़े जाने का अनुमोदन किया जाना चाहिए। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए ही नहीं, यह उनके भी काम की है, जो अपनी प्रतिबद्धताओं की रक्षा करते हुए भी मौजूदा झंझावातों से बेदाग़ पार निकलने का हौसला चाहते हैं। पत्रकारिता के ‘निगेटिव जोन’ में विचरण करते हुए प्रो. द्विवेदी के इन साक्षात्कारों में आप ‘मोटिवेशन’ के कई ज़रूरी ‘टूल’ तलाश सकते हैं।

    बातचीत की इस पुस्तक में पत्रकारिता के गुज़रे ज़माने की बातें हैं, वर्तमान का हाल है और भविष्य की ख़बरनवीसी का तर्कसंगत ख़ाका है। विविधतापूर्ण प्रश्नों के लिए उत्तरों का वैविध्य है। कुछ और आगे की बात करें तो द्विवेदी जी के पास उलझे हुए सवालों के सुलझे हुए जवाब हैं। वे बेलाग और दोटूक बात करते हैं, पर भरपूर शालीनता के साथ। आदर्श और व्यावहारिकता का अकृत्रिम संतुलन साधना उनको आता है। बग़ैर सामाजिक सरोकार के पत्रकारिता की कल्पना वे नहीं करते, पर मीडिया संस्थान चलाने के लिए पूँजी की ज़रूरत का भी उन्हें पता है। द्विवेदी जी स्पष्ट कहते हैं—“सामाजिक सरोकार छोड़कर कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती।” लेकिन इसी के साथ अगले ही पृष्ठ पर वे जवाबनुमा सवाल करते हैं—“इतने भारी-भरकम और ख़र्चीले मीडिया को कॉरपोरेट के अलावा कौन चला सकता है?” वे कहते हैं—“अगर आप सस्ता अख़बार और पत्रिकाएँ चाहते हैं तो उसकी निर्भरता तो विज्ञापनों पर रहेगी। विज्ञापन देने वाला कुछ तो अपनी भी बात रखेगा। यानी अगर मीडिया को आज़ाद होना है, तो उसकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए। ऐसे में पाठक और दर्शक उसका ख़र्च उठाएँ।” कई सवाल उलझन पैदा करने वाले हो सकते हैं, पर द्विवेदी जी को जवाब देने में कोई उलझन नहीं है। सत्ता-नेता और पत्रकारों के आपसी रिश्तों से उन्हें कोई परेशानी नहीं है, वे स्पष्ट करते हैं—“सत्ता या दलों के निकट होना ग़लत नहीं है। मूल बात है ख़बरों के लिए ईमानदार होना। मैं ऐसे अनेक पत्रकारों को जानता हूँ कि वे अनेक नेताओं, अधिकारियों के हमप्याला-हमनिवाला रहे, किंतु जब ख़बरें मिलीं तो उन्होंने उनके साथ कोई रियायत नहीं बरती। यही मीडिया का चरित्र है।”

     मीडिया की ताक़त और एक स्वस्थ लोकतंत्र में विभिन्न मोर्चों पर उसकी अपरिहार्यताओं के साथ द्विवेदी जी उसकी सबसे बड़ी विडंबना की भी शिनाख़्त करते हैं—“मेरी मूल पीड़ा है कि मीडिया को जो लोग चला रहे हैं, वे दरअसल मीडिया के लोग नहीं हैं। मीडिया का जो कंटेंट है, मीडिया का जो फॉर्मेशन है, मीडिया की जो प्रेजेंटेशन है, मीडिया की जो नीतियाँ हैं, उन्हें आख़िर कौन तय कर रहा है।...संकट यह आया है कि मीडिया के न जानने वाले लोग आज प्रबंधन की कुर्सियों पर बैठे हुए हैं...।” ज़ाहिर है ऐसे परिदृश्य में यह सवाल भी उठना लाज़िम है कि पत्रकारिता अपने उद्देश्य से भटक गई है। लेकिन द्विवेदी जी मीडिया पर एकतरफ़ा दोष नहीं मढ़ते, वे कुछ अलग बात कहते हैं—“जैसा हमारा समाज होता है, वैसे ही हमारे समाज के सभी वर्गों के लोग होते हैं। उसी तरह का मीडिया भी है। तो हमें अपने समाज के शुद्धीकरण का प्रयास करना चाहिए।”

    एक उलझा हुआ सवाल जर्नलिस्ट बनाम एक्टिविस्ट का भी है। द्विवेदी जी कहते हैं—“अभी समस्या यह हो रही है कि जर्नलिस्ट के रूप में एक्टिविस्ट मीडिया में प्रवेश कर गए हैं। एक्टिविस्ट होना बुरा है, ऐसा मैं नहीं मानता, लेकिन मेरा मानना है कि अगर आप एक्टिविस्ट हैं, तो उसी भूमिका में रहिए, जर्नलिस्ट की भूमिका में मत आइए। जर्नलिस्ट बनकर आप जो भारत विरोधी विचारों या अपने निजी विचारों का समर्थन करते हैं, वह एक जर्नलिस्ट का काम नहीं है।” 

    भाषा के प्रश्न पर द्विवेदी जी ने समाधानपरक बातें की हैं। हिंदी के प्रश्न पर उनकी भावना अपील करती है कि ‘भाषाएँ और माताएँ अपने बच्चों से ही सम्मान पाती हैं’। उर्दू का भविष्य भी वे उज्ज्वल देखते हैं। वास्तव में मीडिया से जुड़ा शायद ही कोई ज़रूरी सवाल होगा, जिस पर द्विवेदी जी ने स्पष्टता के साथ बात न की हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जहाँ हमारे विद्वान् अक्सर किसी विधा के समर्थन या विरोध का कोई एक पक्ष लेकर खड़े हो जाते हैं, तो वहीं द्विवेदी जी किसी भी चीज़ के दोनों पहलुओं पर निष्पक्ष निगाह रखते हैं। मसलन, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामर्थ्य, उसकी पहुँच और अपील को वे स्पष्ट रूप से स्वीकारते हैं, पर साथ ही टीवी मीडिया पर बेबाकी से अपनी तीखी आलोचनात्मक राय भी रखते हैं—“इस समय का संकट यह है कि एंकर या विशेषज्ञ तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ व्यक्त करने में लगे हैं। ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं। दर्शक अवाक् रह जाता है कि आख़िर क्या हो रहा है। कहने में संकोच नहीं है कि अनेक पत्रकार, संपादक और विषय विशेषज्ञ दल विशेष के प्रवक्ताओं को मात देते हुए दिखते हैं।...मीडिया की विश्वसनीयता को नष्ट करने में टीवी मीडिया के इस ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित ज़रूर किया जाएगा।”

  पत्रकारिता से इतर प्रो. द्विवेदी स्वदेशी जैसे राष्ट्रीय स्वावलंबन के मुद्दों और नई शिक्षा नीति से लेकर सरकारी रीति-नीतियों के विविध पहलुओं से भी प्रश्नकर्ताओं के विविध प्रश्नों के ज़रिये वाबस्ता होते हैं। स्वदेशी के साथ-साथ अन्यान्य कई मुद्दों पर द्विवेदी जी आज के दौर में भी महात्मा गांधी को उतना ही प्रासंगिक मानते हैं, जितना कि वे पहले थे। नई शिक्षा नीति के सवाल पर उन्हें लगता है कि इससे भारतीय भाषाओं को जो सम्मान मिला है, वह बड़ी बात है। इसके अलावा उनके अनुसार नई शिक्षा नीति में ‘स्किल्ड भारत’ बनाने की जो बात है, वह इस निजाम की एक दूरगामी सोच साबित हो सकती है। 

   इस पुस्तक को पढ़ते हुए स्पष्ट होता है कि प्रो. संजय द्विवेदी पत्रकारिता के विद्वान् तो हैं ही, उन्होंने लोकजीवन की तमाम परतों को भी अपनी जीवन-यात्रा में उलट-पलट कर महीन दृष्टि से देखा है। साक्षात्कारों की यह पुस्तक इस मायने में भी विशिष्ट हो जाती है कि यह पश्चिमी मूल्यों पर खड़ी पत्रकारिता की बुनियाद में गहरे तक बैठी नकारात्मकता की पहचान करती है और भारत की संस्कृति में पुरातन काल से उपस्थित रहे संचार और संवाद के मूल्य ‘लोकमंगल’ के लिए आधुनिक पत्रकारिता में प्रवेश का मार्ग सुझाती है।

(समीक्षक संत समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

बुधवार, 20 जुलाई 2022

'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' का लोकार्पण

कन्नड और हिंदी साहित्य में हैं एकता के सूत्र: मधुसूदन साईं

बेंगलुरु में श्री मधुसूदन साईं ने किया पत्रिका के विशेषांक का लोकार्पण



बेंगलुरु, 15 जुलाई। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित देश की प्रतिष्ठित पत्रिका 'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' का लोकार्पण बेंगलुरू में श्री सत्य साईं यूनिवर्सिटी फॉर ह्यूमन एक्सीलेंस के चांसलर श्री मधुसूदन साईं ने किया। इस अवसर पर पत्रिका के सलाहकार संपादक एवं भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी एवं डॉ. राकेश उपाध्याय भी उपस्थित थे।

   पत्रिका का लोकार्पण करते हुए श्री मधुसूदन साईं ने कहा इस विशेषांक में कन्नड मीडिया और संस्कृति के कई आयामों की जानकारी मिलती है। कन्नड और हिंदी भाषा में एकता के कई सूत्र हैं। कन्नड और हिंदी साहित्य में भी एकता के कई सूत्र मिलते हैं। उन्होंने कहा कि हिंदी पत्रिकाओं के ऐसे विशेषांकों से भारतीय संस्कृति में एकात्मकता का बोध होता है। इस विशेषांक के माध्यम से हिंदी पाठकों को कन्नड मीडिया के विभिन्न आयामों के बारे में जानने और सांस्कृतिक एकात्मकता के अंतःसूत्र को समझने का अवसर मिलता है।  

   मीडिया विमर्श' के सलाहकार संपादक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि कन्नड पत्रकारिता और मीडिया की व्यापक दुनिया है। इससे अवगत होने का मौका हिंदी पाठकों को इस विशेषांक के माध्यम से मिलेगा। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद की परंपरा को 'मीडिया विमर्श' ने अपने उर्दू पत्रकारिता विशेषांक, गुजराती पत्रकारिता विशेषांक, तेलुगू मीडिया विशेषांक, मलयालम मीडिया विशेषांक और तमिल मीडिया विशेषांक के माध्यम से लगातार आगे बढ़ाया है। 'मीडिया विमर्श' का कन्नड मीडिया विशेषांक इस दिशा में एक और प्रयास है। कन्नड मीडिया के इतिहास, विकास, पत्रकारिता और सिनेमा के मूल्यांकन एवं विश्लेषण के माध्यम से भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद की यह परंपरा सार्थक होगी। 

    'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' में कन्नड पत्रकारिता का इतिहास, कन्नड सिनेमा, टीवी, रेडियो, वेब आदि कन्नड मीडिया के विभिन्न आयामों पर केंद्रित आलेखों का प्रकाशन हुआ है। इस विशेषांक में कुल 27 आलेखों में से 21 हिंदी में और 6 अंग्रेजी में हैं। आलेख कर्नाटक के कई विद्वानों ने लिखे हैं। विशेषांक के अतिथि संपादक डॉ. सी. जय शंकर बाबु हैं।




पत्रकारिता से साहित्य में चली आई ‘न हन्यते’

                                                                              - इंदिरा दांगी



आचार्य संजय द्विवेदी की नई किताब 'न हन्यते' को खोलने से पहले मन पर एक छाप थी कि पत्रकारिता के आचार्य की पुस्तक है और दिवंगत प्रख्यातों के नाम लिखे स्मृति-लेख हैं, जैसे समाचार पत्रों में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ करते ही हैं; लेकिन पुस्तक का पहला ही शब्द-चित्र मेरी इस धारणा को तोड़ता है। ‘सत्ता साकेत का वीतरागी’ में वे पूर्व प्रधानमंत्री और भारत के महान नेता अटल बिहारी वाजपेयी को देश के बड़े बेटे के तौर पर याद करते हैं; राजनीति से ऊपर जिसके लिये देश था। इसीलिये उनके देहवसान पर पूरा देश रोया और ये संस्मरण फिर उनकी स्मृति से हमें नम कर जाता है।

  ‘उन्हें भूलना है मुश्किल’ वैचारिकता के शिल्प-स्तर पर एक नये प्रयोग का संस्मरण था, जबकि लेखक ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम प्रवक्ता श्री माधव गोविंद वैध के जीवन की अनगिनत उपलब्धियों के बजाय उनको घर के ऐसे बड़े-बुज़ुर्ग के तौर पर याद किया है, जिनका जीवन आगे आने वाली पीढ़ियों के लिये रोशनी का एक स्तंभ रहेगा। ‘बौद्धिक तेज से दमकता व्यक्तित्व’ संस्मरण-रेखाचित्र अनिल माधव दवे को पाठक के ज़हन में राजनेता और प्रचारक के अलावा धरती के हितैषी की छवि और छाप भी देता है। जब लेखक उनकी वसीयत बयान करते हैं कि “...मेरी स्मृति में कोई स्मारक, पुरस्कार, प्रतिमा स्थापन न हो। मेरी स्मृति में यदि कोई कुछ करना चाहते हैं तो वृक्ष लगाएं।” जिस राजनेता का सर्वस्व जल, जंगल, जमीन के नाम रहा हो और जिसके कार्यालय का नाम ही ‘नदी का घर’ हो, उसकी वसीयत वृक्षों के सिवाय और क्या होती। 

   ‘उन्होने सिखाया ज़िंदगी का पाठ’ में लेखक ने अपने पत्रकारिता-गुरु प्रोफेसर कमल दीक्षित को याद किया है; ऐसे ही गुरुजनों के परिश्रम, अनुशासन और मेधा ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलवाई। ‘रचना, सृजन और संघर्ष से बनी शख्सियत’ में शिव अनुराग पटैरया को याद करते हुए संजय जी शब्द-रेखाओं से कैसा अविस्मरणीय चित्र खींचते हैं, “वे ही थे जो खिलखिलाकर मुक्त हंसी हंस सकते थे, खुद पर भी, दूसरों पर भी।” ऐसे पात्र दुर्लभ हैं आज–समय में भी, साहित्य में भी। ‘सरोकारों के लिये जूझने वाली योद्धा’ संस्मरण पाठक को एक ऐसी शिक्षिका दविंदर कौर उप्पल से मिलवाता है, जो सख्त, अनुशासन प्रिय, नर्म और ममतामयी थीं। लेखक ने अपनी शिक्षिका के समग्र व्यक्तित्व को अपनी एक पंक्ति से जैसे अमिट बना दिया है, “पूरी जिंदगी में उन्होंने किसी की मदद नहीं ली।”

     ‘बहुत कठिन है उन–सा होना’ शिल्प के स्तर पर पुस्तक का सबसे लाजवाब संस्मरण है, जिसमें लेखक ने छतीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी को याद करते हुए लिखा है, “वे दरअसल पढ़ने-लिखने वाले इंसान थे। बहुपठित और बहुविग्य। किंतु वे ‘शक्ति’ चाहते थे, जो साहित्य और संस्कृति की दुनिया उन्हें नहीं दे सकती थी। इसलिये शक्ति जिन-जिन रास्तों से आती थी, वह उन सब पर चले। वे आईपीएस बने, आईएएस बने, राजनीति में गये और सीएम बने।...वे कलेक्टर थे तो जननेता की तरह व्यवहार करते थे, जब मुख्यमंत्री बने तो कलेक्टर सरीखे दिखे।” व्यक्तित्वों का ऐसा मूल्यांकन सिर्फ साहित्य में ही संभव है।

     संजय जी की लेखनी की एक विशिष्टता है कि वे अपनी रचना में ऐसा वातावरण, ऐसी भाषा रचते हैं कि किसी अपरिचित पात्र के वर्णन में भी पाठक को आत्मीय की स्मृति-सा आस्वादन मिलता है। ‘ध्येयनिष्ठ संपादक और प्रतिबद्ध पत्रकार’ संस्मरण में अपने पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति राधेश्याम शर्मा को वे किस तरह याद करते हैं देखिये, “वे आते तो सबसे मिलते और परिवारों में जाते। अपने साथियों और अधीनस्थों के परिजनों, बच्चों की स्थिति, प्रगति, पढ़ाई और विवाह सब पर उनकी नजर रहती थी।”

     श्यामलाल चतुर्वेदी पर लिखा संस्मरण ‘समृद्ध लोकजीवन के स्वप्नद्रष्टा’ जहां आपको छत्तीसगढ़ के लोकसेवक पत्रकार से मिलवायेगा, तो ‘पत्रकरिता के आर्चाय’ रेखाचित्र में आप एक पुरोधा डॉ. नंदकिशोर त्रिखा से मिलेंगे, जिन्होंने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की। ‘भारतबोध के अप्रतिम व्याख्याता’ एक मार्मिक रेखाचित्र बन पड़ा है, जिसमें मुज़फ्फर हुसैन से हम मिलते हैं, जिन्होंने सिर्फ लेखन के बूते न सिर्फ जीवन जिया, सत्ता के गलियारों से लेकर आम सभाओं तक में सम्मान पाया, अपने समुदाय की चिंता की और कट्टरपंथियों से कभी नहीं डरे। ‘संवेदना से बुनी राजनीति का चेहरा’ में जे. जयललिता की अपार लोकप्रियता और जनसेवक की छवि का पता और पड़ताल है तो ‘छत्तीसगढ़ का गांधी’ में संत पवन दीवान का भोला संत-व्यक्तित्व। ‘एक ज़िंदादिल और बेबाक इंसान’ में लेखक ने अपने पुराने युवा संवाददाता साथी देवेंद्र कर को याद किया है, वहीं ‘स्वाभिमानी जीवन की पाठशाला’ संस्मरण में बसंत कुमार तिवारी के जुझारू व्यक्तित्व और किरदार को शब्द दिये हैं। 

    ‘माओवादियों के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़’ महेंद्र कर्मा जैसे जनसेवक, जननायक से हमें रूबरू करता शब्द-चित्र है। ‘माटी की महक’ प्रख्यात राजनेता नंदकुमार पटेल और उनके पुत्र दिनेश पटेल के साथ अपने निजी समय और सम्पर्क को याद करते हुए संजय जी नक्सली हिंसा में शहीद अपने इन प्रिय व्यक्तित्वों के बहाने पाठकों से झकझोर देने वाले सवाल करते हैं कि इनका कुसूर क्या था? ‘ध्येयनिष्ठ जीवन’ शब्द-चित्र में लखीराम अग्रवाल को ऐसे मार्मिक ढंग और शैली में याद किया है कि जो इस राजनेता को जानते भी नहीं रहे होंगे, वे भी अब उन्हें सम्मान से याद करेंगे। बलिराम कश्यप पर लिखा शब्द-चित्र ‘जनजातियों की सबसे प्रखर आवाज’ का कथ्य तो पाठक को हिला कर रख देता है। जब हम एक ऐसे राजनेता को जानते हैं जिसके पुत्र को माओवादियों ने मार डाला, फिर भी जो बस्तर के दूर-दराज इलाकों में जाकर जन-जन से मिलता रहा, क्योंकि वंचित आदिवासी ही उनकी संतान थी।

    ‘न तो थके और न ही हारे’ में एक ईमानदार पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री को लेखक ने याद किया है। पुस्तक का अंतिम संस्मरण कानू सान्याल पर ‘विकल्प के अभाव की पीड़ा’ है। नक्सलवाद को हम उसके रक्तरंजित परिचय से याद करते हैं, लेकिन लेखक नक्सलबाड़ी आंदोलन के इस नायक को कानू दा कहते हुए जिन शब्दों में याद करते हैं, वे शब्द न सिर्फ इस अभिशप्त नायक को सम्मान देते हैं; बल्कि लेखक को पत्रकारिता से परे साहित्य की दुनिया का हिस्सा बना जाते हैं। लेखक के ही शब्दों में इस (अ)नायक को नमन, “वे भटके हुए आंदोलन का आख़िरी प्रतीक थे, किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही।”

पुस्तक : न हन्यते

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 250 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

(लेखिका देश की प्रख्यात कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। इन दिनों भोपाल में रहती हैं।)

'पॉजिटिव' होने के लिए 'पॉजिटिव लाइफ' जीना जरूरी: प्रो. द्विवेदी

'मेंटल हेल्थ ऑफ यंग मीडिया प्रोफेशनल्स' विषय पर नागपुर में सेमिनार का आयोजन

आईआईएमसी, अमरावती एवं यूनीसेफ के संयुक्त तत्वावधान में हुआ कार्यक्रम का आयोजन



नागपुर, 18 जुलाई। ''पत्रकारों को जीवन और जीविका के बीच संतुलन बनाए रखने की जरुरत है। सकारात्मक होने के लिए सकारात्मक जीवन जीना आवश्यक है। मीडियाकर्मियों को लोकमंगल के साथ-साथ आत्ममंगल पर भी विचार करना चाहिए। ध्यान, प्राणायाम और नेचुरोपैथी को अपना कर पत्रकार मानसिक तनाव को दूर कर सकते हैं और अपने पत्रकारिता कर्म को श्रेष्ठ बना सकते हैं।'' यह विचार भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने 'मेंटल हेल्थ ऑफ यंग मीडिया प्रोफेशनल्स' विषय पर आईआईएमसी, अमरावती एवं यूनीसेफ के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सेमिनार को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। 

    नागपुर में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता दैनिक भास्कर, नागपुर के समूह संपादक प्रकाश दूबे ने की। आयोजन में वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपाशंकर चौबे विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद रहे।

    कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि यदि मन स्वस्थ रहेगा, तो विचार भी स्वस्थ रहेंगे। मन और शरीर पर ध्यान देने की जरुरत है, लेकिन स्वास्थ्य की अतिरिक्त चिंता भी तनाव का बड़ा कारण है। अपने कार्य को बड़ा मानने से अहंकार पैदा होता है, जो तनाव का प्रमुख कारक है। पत्रकार अगर पत्रकारिता को सेवा मानकर काम करेंगे, तो तनाव दूर रहेगा। 

     सेमिनार के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए दैनिक भास्कर, नागपुर के समूह संपादक प्रकाश दूबे ने कहा कि जीवन में गिरावट तनाव का प्रमुख कारण है। पत्रकारों को हताशा से बचना चाहिए। मीडियाकर्मियों को भाषाओं को सीखने की जरुरत है, भाषा न जानने से हताशा होती है। उन्होंने पत्रकारों एवं उनके परिवार के सदस्यों की शारीरिक एवं मानसिक जांच कराने की पुरजोर मांग की। 

   इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय ने कहा कि दुनिया चलाने की सोच से पत्रकारों में तनाव पैदा होता है। अन्य व्यवसायों की तुलना में पत्रकारिता में तनाव, अनिद्रा और हताशा ज्यादा है। अगर पत्रकार जीवन और जीविका में अंतर करना सीखेंगे, तो यह तनाव कम हो सकता है।

     महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपाशंकर चौबे ने कहा कि पत्रकारों को कई काम एक साथ करने होते हैं, इसलिए वे तनावग्रस्त ज्यादा होते हैं। तनाव से रचनात्मकता कम होती है। इससे मुक्ति के लिए पत्रकारों को आवश्यक कदम उठाने चाहिए।

    सेमिनार के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने की। इस सत्र में प्रख्यात मनोचिकित्सक एवं साइकिएट्रिक सोसायटी, नागपुर के अध्यक्ष डॉ. सागर चिद्दलवार ने मानसिक स्वास्थ्य के महत्व एवं आवश्यकता पर विस्तार से चर्चा की। पत्र सूचना कार्यालय के शशिन राय, 'तरुण भारत' के डिजिटल हेड शैलेश पांडे और 'द हितवाद' के चीफ रिपोर्टर कार्तिक लोखंडे ने भी द्वितीय सत्र में अपने विचार व्यक्त किए।

     सेमिनार में विषय प्रवर्तन आईआईएमसी के डीन (छात्र कल्याण) प्रो. (डॉ.) प्रमोद कुमार ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन भारतीय जन संचार संस्थान, पश्चिमी क्षेत्रीय केंद्र, अमरावती के क्षेत्रीय निदेशक प्रो. (डॉ.) वी.के. भारती ने दिया। कार्यक्रम में एनबीबीएस एलयूपी (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) के निदेशक डॉ. बी.एस. द्विवेदी, यूनीसेफ की संचार विशेषज्ञ स्वाति महापात्र, मीडियाकर्मियों, शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की भी उल्लेखनीय उपस्थिति रही।

रविवार, 12 जून 2022

शिवाजीः सुशासन, समरसता, सामाजिक न्याय के वाहक

 

-प्रो.संजय द्विवेदी

   शिवाजी का नाम आते ही शौर्य और साहस की प्रतिमूर्ति का एहसास होता है। अपने सपनों को सच करके उन्होंने खुद को न्यायपूर्ण प्रशासक रूप में स्थापित किया। इतिहासकार भी मानते हैं कि उनकी राज करने की शैली में परंपरागत राजाओं और मुगल शासकों से अलग थी। वे सुशासन, समरसता और न्याय को अपने शासन का मुख्य विषय बनाने में सफल रहे। बिखरे हुए मराठों को एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने जिस तरह अपने सपनों को साकार किया वह प्रेरित करने वाली कथा है। एक अप्रतिम सैनिक, कूटनीतिज्ञ, योद्धा के साथ ही वे कुशल रणनीतिकार के रूप में भी सामने आते हैं। वे अपनी मां जीजाबाई और गुरू के प्रति बहुत श्रद्धाभाव रखते थे। शायद इन्हीं समन्वित मानवीय गुणों से वे ऐसे शासक बने जिनका कोई पर्याय नहीं है।

लोकमंगल रहा शिवाजी का शासन सूत्र-                                                                                                                          

    इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद कहते हैं- प्रशासन की उनकी प्रणाली कई क्षेत्रों में मुगलों से बेहतर थी। इतिहास के पन्नों में ऐसा शासक कभी-कभी आता है, जिसने लोकमन में जगह बनाई हो। शिवाजी एक ऐसे शासक हैं जिनके प्रति उनकी प्रजा में श्रद्धाभाव साफ दिखता है क्योंकि लोकमंगल ही उनके शासन का मूलमंत्र था। उनकी राज्य प्रणाली, प्रशासन में आम आदमी के लिए, स्त्रियों के लिए, कमजोर वर्गों के लिए ममता है, समरसता का भाव है। वे न्यायपूर्ण व्यवस्था के हामी हैं। प्रख्यात इतिहासकार डा. आरसी मजूमदार की मानें तो शिवाजी न केवल एक साहसी सैनिक और सफल सैन्य विजेता थे,बल्कि अपने लोगों के प्रबुद्ध शासक भी थे। बाद के इतिहासकारों ने तमाम अन्य भारतीय नायकों की तरह शिवाजी के प्रशासक स्वरूप की बहुत चर्चा नहीं की है। आज भारतीय पुर्नजागरण का समय है और हमें अपने ऐसे नायकों की तलाश है, जो हमारे आत्मविश्वास को बढ़ा सकें। ऐसे समय में शिवाजी की शासन प्रणाली में वे सूत्र खोजे जा सकते हैं, जिससे देश में एकता और समरसता की धारा को मजबूत करते हुए समाज को न्याय भी दिलाया जा सकता है।शिवाजी अपने समय के बहुत लोकप्रिय शासक थे। उन पर जनता की अगाध आस्था दिखती थी। साथ ही उनके राजतंत्र में बहुत गहरी लोकतांत्रिकता भी दिखती है। क्योंकि वे अपने विचारों को थोपने के बजाए या राजा की बात भगवान की बात है ऐसी सोच के बजाए अपने मंत्रियों से सलाहें लेते रहते थे। विचार-विमर्श उनके शासन का गुण हैं। जिससे वे शासन की लोकतांत्रिक चेतना को सम्यक भाव से रख पाते हैं।

सत्ता का विकेंद्रीकरण और सामाजिक संतुलन-

शिवाजी ऐसे शासक हैं जो सत्ता के विकेंद्रीकरण की वैज्ञानिक विधि पर काम करते हुए दिखते हैं। समाज के सभी वर्गों,जातियों, सामाजिक समूहों की अपनी सत्ता में वे भागीदारी सुनिश्चित करते हैं, जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं। उन्होंने मंत्रियों को अलग-अलग काम सौंपे और उनकी जिम्मेदारियां तय कीं ताकि अनूकूल परिणाम पाए जा सकें। वे परंपरा से अलग हैं इसलिए वे अपने नागरिकों या सैन्य अधिकारियों को कोई जागीर नहीं सौंपते। किलों( दुर्ग) की रक्षा के लिए उन्होंने व्यवस्थित संरचनाएं खड़ी की ताकि संकट से जूझने में वे सफल हों। रक्षा और प्रशासन के मामलों को उन्होंने सजगता से अलग-अलग रखा और सैन्य अधिकारियों के बजाए प्रशासनिक अधिकारियों को ज्यादा अधिकार दिए। उनकी यह सोच बताती है नागरिक प्रशासन उनकी चिंता के केंद्र में था। उन्होंने राजस्व प्रणाली में व्यापक सुधार करते हुए किसानों से सीधा संपर्क और संवाद बनाने में सफलता पाई। उन्होंने केंद्रीय प्रशासन और प्रांतीय प्रशासन की साफ रचना खड़ी और उनके अधिकार व कर्तव्य भी सुनिश्चित किए। उन्होंने अष्ट प्रधान नाम से केंद्रीय मंत्रियों की टोली बनाई जिसमें आठ मंत्री थे। उनमें कुछ पेशवा कहे गए जो वरिष्ठ थे। चार प्रांतों विभक्त शिवाजी की राज्य रचना एक अनोखा उदाहरण थी। प्रत्येक प्रांत को जिलों और गांवों में बांटा गया था। गांव का प्रमुख देशपाण्डेय या पटेल कहलाता था। शिवाजी गांवों में राजस्व प्रणाली को वैज्ञानिक बनाने का काम किया और उनको किसानों के लिए उपयोगी बनाया। इस व्यवस्था में किसान किस्तों में भी भुगतान कर सकते थे। राज्यस्व अधिकारियों पर नियंत्रण रहे इसलिए नियमित उनके खातों की गहन जांच भी की जाती थी। उन्होंने न्यायिक प्रशासन को भी जवाबदेह बनाया।

सैन्य प्रणाली में किए नए प्रयोग-

  शिवाजी स्वयं योद्धा थे। जाहिर तौर पर उनकी सैन्य प्रणाली बहुत अग्रगामी थी। पूर्व की परंपरा में सैनिक छः माह काम करते थे फिर छः माह दूसरे कामों से अपना जीवन यापन करते थे। शिवाजी ने नियमित सेना को स्थापित किया, उन्हें पूरे साल सैनिक जीवन जीना होता था। सैनिकों को नियमित भुगतान के साथ उनकी योग्यता और देशभक्ति के आधार पर जगह मिलने लगी। शिवाजी ने लगभग 280 किलों के माध्यम से अभेद्य रचना खड़ी की। उनकी सेना में कठोर अनुशासन था। सेना में सभी वर्गों के सैनिक थे। 700 से अधिक मुस्लिम भी उनकी सेना में थे।अपने सैनिकों को उन्होंने गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित कर बड़ी सफलताएं पाईं। मृत सैनिकों के परिजनों का खास ख्याल रखा जाता था। इसके साथ ही उन्होंने बहुत अनुशासित सेना खड़ी की। सेना में अनुशासन बनाए रखने के लिए शिवाजी बहुत सख्त थे। महिलाओं और बच्चों को मारना या प्रताड़ित करना, ब्राह्मणों को लूटना, खेती को खराब करना आदि युद्ध के दौरान भी दंडनीय अपराध थे। अनुशासन के रखरखाव के लिए विस्तृत नियम सख्ती से लागू किए गए थे। किसी भी सैनिक को अपनी पत्नी को युद्ध के मैदान में ले जाने की अनुमति नहीं थी। शिवाजी ने अपनी सेना को सब तरह से सुसज्जित किया जिसमें छह विभाग थे। जो इस प्रकार हैं- घुड़सवार सेना, पैदल सेना, ऊंट और हाथी बटालियन, तोपखाने और नौसेना। यह विवरण बताता है कि उनका राज्यतंत्र किस तरह लोगों की सुरक्षा और शांति के लिए काम कर रहा था। वे प्रेरित करने वाले नेता था। इसलिए उनकी शक्ति बढ़ती चली गयी।उनके कट्टर दुश्मन औरंगज़ेब को स्वयं स्वीकार करना पड़ा कि "मेरी सेनाओं को उन्नीस वर्षों से उनके खिलाफ काम में लगाया गया है और फिर भी उनकी (शिवाजी की) स्थिति हमेशा बढ़ती रही है।"

उदार और सहिष्णु शासक-

  शिवाजी जी ने अपनी जंग मुगलों के विरूद्ध लड़ी, किंतु वे सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय के मंत्रदृष्टा थे। उन्होंने कभी किसी जाति और धर्म के विरूद्ध कभी कुछ न किया, न ही कहा। उनके शासन में सभी सुखी थे क्योंकि वे सबको अपना मानते थे। अपनी आठ सदस्यीय केंद्रीय मंत्रिपरिषद में उन्होंने सात ब्राम्हणों को जगह दी। वे बेहद सहिष्णु हिंदू शासक थे। उन्होंने साफ कहा कि वे हिंदुओं, ब्राम्हणों और गायों के रक्षक हैं। उन्होंने सभी पंथों और उनके ग्रंथों के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित किया। किसी मस्जिद को अपने राज में कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया न पहुंचने दिया। युद्ध के दौरान महिलाओं और बच्चों के सम्मान और सुरक्षा उनकी चिंता का मूल विषय थे।

    मुस्लिम महिलाओं को सम्मान देने की उनकी अनेक कथाएं बहुश्रुत हैं। उन्होंने मुस्लिम विद्वानों और आलिमों को हमेशा आर्थिक मदद दी। सरकारी विभागों में उन्होंने मुस्लिम अधिकारियों को नियुक्त किया। औरंगजेब द्वारा सभी हिंदुओं पर जजिया कर लगाने पर शिवाजी ने उसे एक पत्र भी लिखा। बहुत खराब सामाजिक परिस्थितियां और मुगल शासकों द्वारा हिंदु विरोधी कृत्यों के बाद भी शिवाजी ने अपने राज्य में मुस्लिम जनता को कभी पराएपन का एहसास नहीं होने दिया और उनका संरक्षण किया। उन्होंने यह नियम ही बना दिया था कि किसी भी युद्ध, छापामार युद्ध में महिलाओं, मस्जिदों और पवित्र पुस्तक कुरान को कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।

  समग्रता में शिवाजी ऐसे भारतीय शासक के रूप में सामने आते हैं, जिसने अपनी बाल्यावस्था में जो सपना देखा, उसे पूरा किया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास का मंत्र फूंका और भारतीय लोकचेतना के मानकों के आधार पर राज्य संचालन किया। मूल्यों और अपने धर्म पर आस्था रखते हुए उन्होंने जो मानक बनाए वे आज भी प्रेरित करते हैं। ऐसे महापुरुष सदियों में आते हैं, जिनका व्यक्तित्व और कृतित्व लंबे समय तक लोगों के लिए आदर्श बन जाता है।

रविवार, 30 जनवरी 2022

भारतबोध का नया समयः नए युगबोध का दस्तावेज

 

- इंदिरा दांगी

(समीक्षक देश की प्रख्यात कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। इन दिनों भोपाल में रहती हैं।)


   प्रोफेसर संजय द्विवेदी भारतीय पत्रकारिता के प्रतिष्ठित आचार्य हैं। उनकी नई पुस्तक भारतबोध का नया समयके पहले आलेख में (जो कि पुस्तक का शीर्षक भी है) मीडिया आचार्य संजय द्विवेदी वसुधैव कुटुम्बकम् (धरती मेरा घर है) की उपनिषदीय अवधारणा को बताते हुए इस धरा को, इस धरती को ऋषियों-ज्ञानियों की जननी मानते हैं और इसी का परिणाम वे मानते हैं कि इस देश में राजसत्तायें भी लोकसत्तायें रही हैं। आलेख पुनर्जागरण से ही निकलेंगी राहेंमें लेखक प्रसिद्ध विचार गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती हैकी रोशनी में अपनी बात रखते हैं। अपनी संस्कृति को लेकर नए समय के लोगों में जो हीनताबोध है, वही लेखक की चिंता है।

आज़ादी की ऊर्जा का अमृतआलेख में लेखक स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर पुरोधाओं की महान परंपरा को कृतज्ञता से याद करते हैं। और एकदम यहां अनायास ही अपने पढ़ने वालों के जहन में एक सवाल भी छोड़ते चलते हैं। इस आलेख में स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर सिर्फ कुछ गिने हुए महापुरुषों और हाईलाइट्सवाले आन्दोलनों का ही नाम नहीं लिया गया है, बल्कि वे जो सच्चे लोकनायक थे, जिनकी सब लड़ाईयां और शहादतें देश के लिए थीं, उन्हें भी समतुल्य खड़ा किया गया है। जय-विजय के बीच हम सबके रामआलेख पढ़ते हुए मुझे पंडित विद्यानिवास मिश्र का निबंध मेरे राम का मुकुट भीग रहा हैयाद आने लगता है। लेखक ने यहां तुलसी के राम, कबीर के राम, रहीम के राम से लेकर गांधी और लोहिया के राम तक को याद किया है।

गौसंवर्धन से निकलेंगी समृद्धि की राहेंआलेख न सिर्फ गौवंश पर आधारित भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अवलोकन करता है, वरन विश्व अर्थव्यवस्था में गाय के महत्त्व के साथ ही साथ उसके औषधीय महत्त्व पर भी रोशनी डालता है। एकात्म मानव दर्शन और मीडिया दृष्टिलेख में एक बहुत ही जरूरी बात है कि मीडिया की दृष्टि लोकमंगल की हो, समाज के शुभ की हो। इसी तरह चुनी हुई चुप्पियों का समयएक बहुत ही प्रासंगिक और समसमायिक आलेख है, और साथ ही इसकी विषय वस्तु कालातीत है। अद्भुत अनुभव है योगलेख को पढ़ते हुए आप इस पुस्तक में उस मुकाम तक पहुंच जाएंगे, जहां आपको लगेगा कि गौसंवर्धन का अर्थशास्त्रीय पहलू हो या नई शिक्षा नीति की बात या फिर वर्तमान राजनीति का सिनारियो या फिर विश्व योग के सिरमौर भारत पर चर्चाये पुस्तक वास्तव में इस नये समय में नये भारत को समझने में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

मोदी की बातों में माटी की महकआलेख में लेखक भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के जननायक हो जाने के सफर की पड़ताल करते हुए उनकी भाषण कला, देहभाषा और लोकविमर्श की शक्ति पर चर्चा करते हैं। खुद को बदल रहे हैं अखबारलेख में ई-पत्रकारिता के इस दौर में परंपरागत समाचार पत्रों को नये समय की चुनौतियों से रूबरू कराते हैं द्विवेदी जी। अगले लेख पत्रकारिता में नैतिकतामें जहां आचार्य द्विवेदी ग्रामीण पत्रकारिता की उपेक्षा की बात करते हैं, वहां मुझे याद आता है कि जब किसी छोटी जगह पर कोई बड़ा आयोजन होता है या कोई राजनेता जाता है तो रिपोर्टिंग करने के लिए स्टेट या राजधानी से पत्रकार जाते हैं, मतलब ग्रामीण भारत कितना उपेक्षित है भारतीय पत्रकारिता में, जबकि फिल्मी अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की छोटी-से-छोटी खबर छपती हैं बड़े-बड़े अख़बारों में। मीडिया गुरु ने सही ही विषय लिया है इस आलेख में।

मीडिया शिक्षा के सौ वर्षमें लेखक ने पिछली एक सदी में मीडिया शिक्षा की दशा और दिशा से अवगत कराया है। संकल्प से सिद्धि का सूत्र मिशन कर्मयोगीआलेख में वे बताते हैं कि मिशन कर्मयोगी अधिकारियों और कर्मचारियों की क्षमता निर्माण की दिशा में अपनी तरह का एक नया प्रयोग है। देश को श्रेष्ठ लोकसेवकों आवश्यकता है, और ये पहली बार है कि बात सरकारी सेवकों के कौशल विकास की हो रही है।

इस पुस्तक में इन आलेखों से आगे, पत्रकारिता के शलाका पुरुषों, देव पुरुषों पर लेख हैं। देवर्षि नारद, विवेकानंद, माधवराव सप्रे, महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, बाबा साहेब आंबेडकर, वीर सावरकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन पर आधारित आलेख हैं।

इस तरह इस किताब में, नए युगबोध का ऐसा कोई विषय नहीं जो अछूता हो; अपनी पुस्तक में लेखक ने नए भारत से हमें मिलवाया है, नए भारतबोध के साथ। किताब पढ़कर एक आम पाठक शायद आखिर में यही सोचे कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कैसी किताबें पढ़ाई जानी चाहिए-यकीनन भारत बोध का नया समयजैसी!!

पुस्तक : भारतबोध का नया समय

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002