- इंदिरा दांगी
(समीक्षक देश की प्रख्यात कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। इन दिनों भोपाल में रहती हैं।)
‘आज़ादी की ऊर्जा का अमृत’
आलेख में लेखक स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर
पुरोधाओं की महान परंपरा को कृतज्ञता से याद करते हैं। और एकदम यहां अनायास ही
अपने पढ़ने वालों के जहन में एक सवाल भी छोड़ते चलते हैं। इस आलेख में स्वतंत्रता
संग्राम के तौर पर सिर्फ कुछ गिने हुए महापुरुषों और ‘हाईलाइट्स’ वाले आन्दोलनों का ही नाम नहीं लिया गया है,
बल्कि वे जो सच्चे लोकनायक थे,
जिनकी सब लड़ाईयां और शहादतें देश के लिए थीं,
उन्हें भी समतुल्य खड़ा किया गया है। ‘जय-विजय के बीच हम सबके राम’
आलेख पढ़ते हुए मुझे पंडित विद्यानिवास मिश्र का निबंध ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’
याद आने लगता है। लेखक ने यहां तुलसी के राम,
कबीर के राम, रहीम के राम से लेकर गांधी और लोहिया के राम तक को याद किया
है।
‘गौसंवर्धन से निकलेंगी समृद्धि की राहें’
आलेख न सिर्फ गौवंश पर आधारित भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का
ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अवलोकन करता है, वरन विश्व अर्थव्यवस्था में गाय के महत्त्व के साथ ही साथ
उसके औषधीय महत्त्व पर भी रोशनी डालता है। ‘एकात्म मानव दर्शन और मीडिया दृष्टि’
लेख में एक बहुत ही जरूरी बात है कि मीडिया की दृष्टि
लोकमंगल की हो, समाज के शुभ की हो। इसी तरह ‘चुनी हुई चुप्पियों का समय’
एक बहुत ही प्रासंगिक और समसमायिक आलेख है,
और साथ ही इसकी विषय वस्तु कालातीत है। ‘अद्भुत अनुभव है योग’
लेख को पढ़ते हुए आप इस पुस्तक में उस मुकाम तक पहुंच जाएंगे, जहां आपको
लगेगा कि गौसंवर्धन का अर्थशास्त्रीय पहलू हो या नई शिक्षा नीति की बात या फिर
वर्तमान राजनीति का सिनारियो या फिर विश्व योग के सिरमौर भारत पर चर्चा–ये पुस्तक वास्तव में इस नये समय में नये भारत को समझने में
एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
‘मोदी की बातों में माटी की महक’
आलेख में लेखक भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के
जननायक हो जाने के सफर की पड़ताल करते हुए उनकी भाषण कला,
देहभाषा और लोकविमर्श की शक्ति पर चर्चा करते हैं। ‘खुद को बदल रहे हैं अखबार’
लेख में ई-पत्रकारिता के इस दौर में परंपरागत समाचार पत्रों
को नये समय की चुनौतियों से रूबरू कराते हैं द्विवेदी जी। अगले लेख ‘पत्रकारिता में नैतिकता’
में जहां आचार्य द्विवेदी ग्रामीण पत्रकारिता की उपेक्षा की
बात करते हैं, वहां मुझे याद आता है कि जब किसी छोटी जगह पर कोई बड़ा आयोजन
होता है या कोई राजनेता जाता है तो रिपोर्टिंग करने के लिए स्टेट या राजधानी से
पत्रकार जाते हैं, मतलब ग्रामीण भारत कितना उपेक्षित है भारतीय पत्रकारिता में,
जबकि फिल्मी अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की छोटी-से-छोटी खबर
छपती हैं बड़े-बड़े अख़बारों में। मीडिया गुरु ने सही ही विषय लिया है इस आलेख में।
‘मीडिया शिक्षा के सौ वर्ष’
में लेखक ने पिछली एक सदी में मीडिया शिक्षा की दशा और दिशा
से अवगत कराया है। ‘संकल्प से सिद्धि का सूत्र ‘मिशन कर्मयोगी’ आलेख में वे बताते हैं कि मिशन कर्मयोगी अधिकारियों और
कर्मचारियों की क्षमता निर्माण की दिशा में अपनी तरह का एक नया प्रयोग है। देश को
श्रेष्ठ लोकसेवकों आवश्यकता है, और ये पहली बार है कि बात सरकारी सेवकों के कौशल विकास की
हो रही है।
इस पुस्तक में इन आलेखों से आगे, पत्रकारिता के शलाका पुरुषों,
देव पुरुषों पर लेख हैं। देवर्षि नारद,
विवेकानंद, माधवराव सप्रे, महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, बाबा साहेब आंबेडकर,
वीर सावरकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन पर आधारित आलेख हैं।
इस तरह इस किताब में, नए युगबोध का ऐसा कोई विषय नहीं जो अछूता हो;
अपनी पुस्तक में लेखक ने नए भारत से हमें मिलवाया है,
नए भारतबोध के साथ। किताब पढ़कर एक आम पाठक शायद आखिर में यही सोचे कि
पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कैसी किताबें पढ़ाई जानी चाहिए-यकीनन ‘भारत बोध का नया समय’
जैसी!!
पुस्तक : भारतबोध का नया समय
लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी
मूल्य : 500 रुपये
प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
good article
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