शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2022

मीडिया के ग्लोबल लीडर

 पुस्तक समीक्षा-

समीक्षकः विवेक द्विवेदी

पुस्तक : जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद

संपादक : डॉ. सौरभ मालवीय, लोकेंद्र सिंह

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002



   देश सुरक्षित है, तो समाज सुरक्षित है। समाज सुरक्षित है, तो हम सुरक्षित हैं। यह सुरक्षा सिर्फ तोप और बंदूक से ही संभव नहीं है। लोगों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के साथ-साथ कर्तव्य के निर्वहन में भी सुरक्षा की महती जरूरत होती है और इस क्षेत्र में प्रिंंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका को इस दौर में गंभीरता से स्वीकार किया गया है। आज विश्व एक मुट्ठी में आ गया है। एक क्लिक में दुनिया आंखों के सामने आ जाती है। आज के दौर में सूचना का विस्फोट हो चुका है। दुनिया के किसी कोने में यदि कुछ घटा, तो वह समाचार वैश्विक रूप ले लेता है। यह ताकत मीडिया की है। कभी पत्रकारिता लोग शौकिया किया करते थे। लेकिन इसकी ताकत का असर हुआ कि यह एक काॅरपोरेट दुनिया में बदल गया। अच्छे-अच्छे इंस्टीट्यूट खुल गए। विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई है। खोजी पत्रकारों की दुनिया ग्लोबल हो गई। लोगों को जितना भय पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों से नहीं है, उससे ज्यादा भय मीडिया से हो गया है। सफेद अपराधी हो या श्याम। अपराध करने के पहले पत्रकार और कैमरे की आंखों से बचता है। यदि पत्रकार अपनी में आ जाता है, तो दूध का दूध और पानी का पानी करने में पीछे नहीं हटता। क्योंकी सच कहने की ताकत यदि किसी में आज दिखाई देती है, तो वह ताकत प्रेस और मीडिया के पास ही है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसे देश और विदेश के पत्रकारों ने उसका रेशा-रेशा उघाड़कर दुनिया के सामने लाकर रख दिया। सरकारें बदल जाती हैं। माफिया दुम दबाकर भागता है। मीडिया एक ऐसी अदृश्य शक्ति के रूप में काम करता है कि लोगों को अपनी आंखों का काजल बाहर निकल जाने की भनक तक नहीं लगती।

      ऐसे दौर में पत्रकारिता और अध्यापन से सरोकार रखने वाले प्रो. संजय द्विवेदी, भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक महोदय की बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक 'जो कहूंगा सच कहूंगा', यश प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित होकर आई है। यह पुस्तक पूरी तरह से जनसंचार और पत्रकारिता पर आधारित है। लोगों ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न किये हैं और प्रो. संजय द्विवेदी जी ने बहुत ही बेबाकी से हर प्रश्नों का जवाब दिया है। यह कह सकता हूं कि पत्रकारिता से जुड़े हर छात्र के लिए तो यह पुस्तक महत्वपूर्ण है ही, साथ ही इस प्रोफेशन से जुड़े हर उस शख्स के लिए जरूरी है, जो किसी भी रूप में इस प्रोफेशन का हिस्सा है।

       विभिन्न विषयों में 25 साक्षात्कार इसमें संकलित किये गये हैं। पहले साक्षात्कार का विषय है ‘‘हर पत्रकार हरिश्चंद्र नहीं होता।’’ सैनिक दुनिया का सबसे निर्भीक प्राणी माना जाता है। युद्ध में वह अपनी जान की परवाह किये बिना लड़ता है। परन्तु मेरा मानना है कि उससे भी ज्यादा निर्भीक पत्रकार होता है। विषम परिस्थितियों में रहकर भी वह समाचारों को कवर करता है। इसलिए उसके कार्य के प्रति प्रश्न चिन्ह लगाना कतई प्रासंगिक नहीं होता है। संजय जी इस बात को मानते हैं कि मीडिया अब महानगर से होते हुए गांव तक पहुंच चुका है। यह भी सच है कि सभी अपना एजेन्डा सेट करते हैं। सत्ताधारी की बात ज्यादा आयेगी और सुनी जायेगी। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि प्रतिपक्ष मीडिया में उपेक्षित है। 

     प्रभाष जोशी के कथन को उद्धृत करते हुए संजय जी कहते हैं कि पत्रकार की पोलिटिकल लाइन होना गलत नहीं है। गलत है पार्टी लाइन होना। लेकिन मीडिया से जनतंत्र गायब होने के जवाब में संजय जी साफ शब्दों में कहते हैं, कार्यपालिक, न्यायपालिका और विधायिका से जुड़े लोग क्या ईमानदारी से काम कर रहे है? उत्तर इसका भी नकारात्मक ही आयेगा। इसलिए मीडिया में सब हरिश्चन्द्र हों, यह कैसे संभव है? एक महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर आप इशारा करते हैं। खर्चीले मीडिया को काॅरपोरेट के अलावा कौन चला सकता है। यदि सरकार चलायेगी तो उस पर कभी भरोसा किया ही नहीं जा सकता। क्योंकि वह तो अपना एजेंडा सामने लाएगी। इसलिए अखबार तो कोई व्यवसायी ही निकालेगा। किसी पत्रकार के वश में भी नहीं है। मीडिया तो विज्ञापनों के दम पर टिका है। जब उसका आधार विज्ञापन है तो कहीं न कहीं पक्षपात की गुंजाइश बनी रहेगी। 

    दरअसल यह बात वही कह सकता है, जो मीडिया के प्रकाशन और प्रसारण से जुड़ा होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि संजय जी प्रोफेसर होने के पहले लगभग 15 साल तक अखबार और इलेक्ट्राॅनिक माध्यम से जुड़े रहे हैं। हालांकि क्रांतिकारी पत्रकार भी अंदर की बात नहीं करता। वह जानता है कि काॅरपोरेट मीडिया पत्रकारों को आजादी एक सीमा तक देता है। संजय जी को सरकार और काॅरपोरेट दोनों जगहों का अनुभव है। यद्यपि शिक्षा जगत में आने के बाद अनुभव का विस्तार दूसरी दिशा में चला जाता है। संजय जी में यह बेबाकी इसलिए आई है कि आप का मानना है कि, "पद आज है कल नहीं रहेगा। आयु आज है कल नहीं रहेगी। इसलिए जो चीजें स्थायी नहीं हैं, इसलिए उनका अहंकार पालना समझदारी नहीं है।" दरअसल यह जीवन की हकीकत है, जिसे अक्सर लोग सफलता पाते ही भूल जाते हैं। इसी बात को गीता भी बार-बार दोहराती है। तब भी यह सच लोगों से कितना दूर है। पत्रकारिता के संबंध में अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को केन्द्र में रखकर पूछे गये प्रश्न ‘‘किसी शक्तिशाली व्यक्ति के वश में पत्रकार किस हद तक रहता है" के उत्तर में संजय जी बड़ी ईमानदारी से अपनी बात रखते हैं। मूल बात है अपने पेशे के प्रति ईमानदार होना। कई पत्रकारों को जानता हूं कि शक्तिशाली लोगों के साथ हमप्याला और हमनिवाला रहे हैं। लेकिन जब उनके खिलाफ खबर आई, तो उसे प्रकाशित कर अपने चरित्र का परिचय दिया है। दरअसल यही मीडिया का चरित्र भी है। इसलिए लोग पुलिस और पत्रकार से दुश्मनी और दोस्ती दोनों करने से बचते हैं।

    'जो कहूंगा, सच कहूंगा' पुस्तक पत्रकारिता जगत के कई रहस्यों से पर्दा उठाती है। यह पुस्तक एक विस्तृत चर्चा की मांग करती है। पत्रकारिता का आज व्यापक फलक है। एक जमाना था जब हिन्दी का जो साहित्यकार हुआ करता था, वह पत्रकार भी होता था और साहित्यकार भी था। ऐसे कई उदाहरण आज भी हैं। पांचवी पास व्यक्ति भी पत्रकारिता करता था। अंगूठा छाप व्यक्ति भी अच्छा कवि माना जाता था और आज माना भी जाता है। लेकिन जिस युग में हम जी रहे हैं, वह गहन अध्ययन और मनन के साथ वैश्विक स्तर पर विमर्श का युग है। पाश्चात्य दुनिया में एक विषय से कई विषय निकल चुके हैं। विज्ञान में रसायन शास्त्र और भौतिकी को लें, तो इनके कई रूप हो गए हैं। इसी तरह समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र या इतिहास को लें तो कोर सब्जेक्ट से कई उप विषय आज हमारे सामने हैं। शिक्षण और प्रशिक्षण ऐसे कार्य हैं, जो किसी भी विधा में व्यक्ति को पारंगत बना देते हैं। पत्रकारिता परंपरावादी सोच से बाहर निकलकर ऐसे मुकाम पर आ पहुंची है, जहां बड़े-बड़े संस्थानों से युवा पीढ़ी के लोग पत्रकारिता के वे सारे गुण सीखकर पटल पर आ खड़े हुए हैं, जिन्हे पता है कि कब और कहां किस माध्यम का इस्तेमाल करना है और उसकी बारीकी क्या होती है, प्रशिक्षण ने उनके अंदर हुनर पैदा कर दिया है। संजय जी की चिंता जायज है कि मीडिया की कुर्सी पर ऐसे लोग बैठे हैं, जिन्हें मीडिया के कंटेंट की जानकारी ही नहीं है। इसलिए जरूरी है कि मीडिया एजुकेशन के माध्यम से नए लीडर्स का उद्भव हो। यह काम सिर्फ शिक्षा ही कर सकती है।

   आज सोशल मीडिया को घातक माना जाने लगा है, लेकिन संजय जी इसे सकारात्मक लेते हैं। युग के साथ परिवर्तन होना प्रकृति का काम है। हो सकता है कि गांधी जी भी होते तो सोशल मीडिया या ट्विटर में अपना अकाउंट बनाते। यह सच है कि आने वाला समय क्या कुछ नया लायेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए समय के साथ चलना ही समझदारी है। जब संजय को व्यास जी ने दिव्य दृष्टि दी थी और बिना कैमरे व किसी मशीन के सहारे संजय धृतराष्ट्र के पास बैठकर आंखों देखा युद्ध सुना रहे थे, हमारे ही देश में इसे अंधविश्वास माना जा रहा था। लेकिन समय का कमाल देखिये कि आज संजय की दृष्टि घर-घर पर आ चुकी है। शायद इसीलिए प्रो. संजय द्विवेदी का यह कहना कि हिन्दुस्तान का जो सबसे बड़ा संकट है, वह हीनता का है। हम भूल गये हैं कि हम क्या थे। इसलिए हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि भारत का भारत से परिचय करवाएं। वैसे भी भारत के प्रथम पत्रकार तो नारद जी ही थे। पलक झपकते खबर एक लोक से दूसरे लोक पहुंचा देते थे। यह दुख की बात है कि आज हम पूरी तरह से पश्चिमी देशों के गौरव को ही अपना गौरव मानने लगे हैं। कभी पलटकर अपने को देखने, परखने और समझने की चेष्टा ही नहीं करते।

   भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के प्रमुख होने की हैसियत से संजय जी ने युवाओं को आगे लाने के लिए कई प्रयोग कर रहे हैं। नए-नए आइडियाज के लिए आपने संवाद श्रृंखला की शुरुआत भी की है। यह सब कुछ उन छात्रों के लिए मोटिवेशनल प्रोग्राम के अंतर्गत हो रहा है। साहित्य में यह माना जाता है कि जो कुछ लेखन किया जाता है, उसके केंद्र में मनुष्य होता है। यदि मनुष्य एक अच्छा मनुष्य बन गया, तो वह अकेले ही संसार को बदल देने के लिए काफी होता है। इसलिए संजय जी का यह मंत्र है जो युवाओं के लिए खासकर है। मेहनत से भागिये नहीं। नया सीखिये। लेखन की शक्ति से अपने व्यक्तित्व को मांजते चलिये। सफल होने का सबसे बड़ा मंत्र है। एक शिक्षक का यही धर्म होता है कि वह अपने शिष्य को अंधेरे से निकालकर उजाले की ओर ले जाये, जिसे संजय जी बाखूबी कर रहे हैं।

    दरअसल आज इस मैराथन दौड़ में हम कहीं भटक तो नहीं रहे हैं। मैराथन न कहें तो उचित होगा। यह अंधी दौड़ लगती है। भारत एक संस्कारिक देश है। मूल्यों पर चलने वाला देश है। लोग कितनी ऊंचाई प्राप्त कर लें, लेकिन उनके नैतिक आचरण में कोई परिवर्तन नहीं आता था। मानवीय रिश्ते निभाना भलीं भांति जानते थे। मगर आज मूल्यों में गिरावट आई है। वह हर जगह दिखाई देती है। मीडिया भी उसमें शामिल है। उसकी एक वजह यह भी है कि जब व्यक्ति संकट के दौर से गुजरता है, तो वह पथ से विचलित हो जाता है। संजय जी कोरोना काल में मीडिया के काॅरपोरेट घरानों को नसीहत देते हुए इशारा करते हैं कि जिन पत्रकारों और कर्मचारियों की वजह से मीडिया चल रहा है, उनका वेतन घटाया जा रहा है। 

    मीडिया से जुड़े कई सवालों का जवाब संजय जी बड़ी ईमानदारी से देते हैं। वह भी तटस्थ होकर। संजय जी की दृष्टि में एक तरफ पत्रकार का चश्मा है, तो दूसरी तरफ अकादमिक का है। लेकिन दोनों के बीच व्यवहारिकता महत्वपूर्ण है। संजय जी मुझे बहुत ही प्रायोगिक दिखते हैं। लाग लपेट की बात कहीं करते ही नहीं हैं। खुलकर कहते हैं। पत्रकार का तथ्यपरक होना बेहद जरूरी है। सत्य का साथ पत्रकार नहीं देगा, तो कौन देगा। एक्टिविस्ट और जर्नलिस्ट के बीच यही तो अंतर है। एक्टिविस्ट तो किसी विचारधारा के लिए काम करता है। परन्तु पत्रकार तो सत्य के लिए जीता ही है। इसलिए पत्रकारिता को आब्जेक्टिव होना चाहिए। बिना आब्जेक्टिव हुए वह पत्रकारिता धर्म का पालन नहीं कर सकता। टीवी मीडिया की भूमिका के संबंध में आपका कहना है कि एंकर या विशेषज्ञ तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं। बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ व्यक्त करने में लगे हैं। ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं। संजय जी यहीं पर औरों से अलग दिखाई देते हैं। यह काम एक चिंतक और प्रोफेसर ही कह सकता है।

   'जो कहूंगा, सच कहूंगा' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसे हर उस छात्र को एक बार नहीं कई बार पढ़ना चाहिए, जो संस्थागत पत्रकारिता के क्षेत्र में अध्ययनरत व कार्यरत है। इस पुस्तक में कई बारीकियां हैं, जो पत्रकारिता के क्षेत्र में आनेवाले के लिए मार्गदर्शिका ही नहीं संपूर्ण पुस्तक है। एक अंजाना व्यक्ति भी इसे पढ़कर अपनी राय रखने में सक्षम हो सकता है। भाषा और खासकर हिन्दी भाषा को लेकर आप बहुत ही सकारात्मक हैं। अंग्रेजी के हौवे को नकारते हुए कहते हैं, ‘‘दुनिया के अनेक मुल्क ऐसे हैं जो अंग्रेजी मे काम नहीं करते। इसके बावजूद उन्होंने प्रगति के शिखर छुए हैं। हमारे मन और मस्तिष्क में यह जो भ्रम का जाल है कि हम अपनी भाषाओं में तरक्की नहीं कर सकते, उससे हमें बाहर निकलना होगा।

    'हरि अनंत हरि कथा अनंता' लिखकर गोस्वामी जी ने संदेश दिया है कि सरस्वती का भंडार अच्युत है। आप जितना डुबकी लगायेंगे, उतना ही डूबते जायेंगे। यह आपकी कुशलता है कि कहां तक जाकर सीप खोज सकते हैं। संजय जी के इस काम के लिए उन्हे बधाई देता हूं। आप इसी तरह युवाओं के प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ...।

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