रविवार, 18 अक्तूबर 2020

आईआईएमसी से निकलेंगें कम्युनिकेशन की दुनिया के ग्लोबल लीडर्स - प्रो. द्विवेदी

 

IIMC के डायरेक्टर जनरल प्रो.संजय द्विवेदी से खास बातचीत

   हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रो.संजय द्विवेदी एक चर्चित नाम  हैं। अपनी किताबों, निरंतर लेखन, वैचारिक भाषणों से आपने बौद्धिक दुनिया में एक खास जगह बनाई है। 14 साल सक्रिय पत्रकारिता में रहे प्रो.संजय द्विवेदी ने संपादक, समाचार संपादक, इनपुट एडीटर, एंकर जैसे भूमिकाओं में काम किया है। वे प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और वेब मीडिया के तीनों मंचों पर सक्रिय रहे हैं। मुंबई, भोपाल, रायपुर, बिलासपुर जैसे शहरों में आपने अपनी सार्थक पत्रकारिता के पदचिन्ह छोड़े हैं। इस बीच 25 किताबों का लेखन और संपादन कर उन्होंने एक लेखक के रुप में भी पहचान कायम की है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष रहे प्रो.संजय द्विवेदी ने विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव पद का भी दायित्व संभाला है। हाल ही में वे भारतीय जनसंचार संस्थान IIMC के महानिदेशक नियुक्त किए गए हैं। इस मौके पर उनसे खास बातचीत की प्रभासाक्षी के संपादक नीरज कुमार दुबे ने। बातचीत के अंश-



IIMC को लेकर आपकी क्या योजनाएँ हैं? आप संस्थान के लिए किन लक्ष्यों को लेकर दिल्ली आये हैं ?

भारतीय जन संचार संस्थान वैसे भी राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्थान है। इसकी शैक्षणिक गुणवत्ता और शोधकार्यों में संस्थान के योगदान पर हम सभी को गर्व है। भारतीय सूचना सेवा के अधिकारियों का प्रशिक्षण केंद्र होने के नाते इसकी विशेष महत्ता है। दुनिया के तमाम देशों के संचारक यहां प्रशिक्षण प्राप्त कर नेतृत्वकारी भूमिका में हैं। संस्थान को वैश्विक स्तर पर संचार शिक्षा, प्रशिक्षण और शोध का केंद्र बनाना ही लक्ष्य है। साथ ही हमारी भारतीय भाषाओं के संचार, मीडिया और पत्रकारिता क्षेत्र में गुणवत्तावृद्धि के लिए हम निरंतर प्रयास करते रहेंगे। अभी हिंदी, अंग्रेजी के अलावा मराठी, मलयालम, उड़िया और उर्दू के पाठ्यक्रम हम चला रहे हैं, भविष्य में अन्य भारतीय भाषाओं पर भी ऐसे पाठ्यक्रम, कार्यशालाएं और प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलेंगे। मीडिया और संचार शिक्षा का एक आर्दश पाठ्यक्रम तैयार हो यह भी हमारा लक्ष्य है। हम देश के तमाम केंद्रीय व राज्य विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर इस दिशा में प्रयास करेंगें।

 मेरी चिंता के केंद्र में सिर्फ मेरे विद्यार्थी हैं। मेरी कोशिश होगी उन्हें उच्च गुणवत्ता की शिक्षा और प्रशिक्षण मिले। वे यहां वह ज्ञान और कौशल पाएं जो अन्यत्र उपलब्ध न हो। मैं चाहता हूं दुनिया के सफलतम लोगों से हमारे विद्यार्थी संवाद कर पाएं। उनसे वह गुण और जिजीविषा सीख पाएं, जिससे कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका में आता है। हम चाहते हैं कि हम लीडर्स पैदा करें। जो आने वाले दस सालों में संचार की दुनिया में सबसे बड़े और वैश्विक स्तर के नाम बन चुके हों। विद्यार्थियों की सफलता ही किसी संस्थान, उसके शिक्षकों और उसके प्रबंधकों की सफलता है। हम अपने विद्यार्थियों के लिए हर वह अवसर सुलभ कराएंगें जो उनके सर्वांगीण विकास के लिए जरूरी हैं। कार्य में गुणवत्ता, श्रेष्ठता और सुसंवाद से एक बेहतर दुनिया का सृजन ही हमारा अंतिम लक्ष्य है।


आप माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे और वर्षों तक आपने उक्त संस्थान में विभिन्न पदों को सुशोभित किया, IIMC आपके लिए MCU से कितना अलग है और आप भोपाल के अपने अनुभव का यहाँ कैसे उपयोग कर रहे हैं?

देखिए हर अनुभव हमें ज्यादा समृद्ध बनाता है। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के अनुभव मेरे जीवन में बहुत खास हैं। क्योंकि मैं तो पत्रकार था और अकादमिक दुनिया से बहुत परिचित नहीं था। किंतु 11 सालों में माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय से मैंने अकादमिक प्रबंधन का पाठ पढ़ा। विभागाध्यक्ष, कुलसचिव, कुछ समय कुलपति के प्रभार के दौरान मैंने बहुत कुछ सीखा। मुझे लगता है मीडिया के संस्थानों में प्रत्यक्ष काम करके और बाद में अकादमिक क्षेंत्र में काम कर मैंने बहुत सीखा है। अब आईआईएमसी के महानिदेशक के रूप में भी बहुत कुछ सीखूंगा। सीखने की प्रक्रिया जारी रहती है। राज्य सरकार के विश्वविद्यालय में काम करते हुए और अब केंद्र सरकार के साथ काम करते हुए सीखने के बहुत से विषय हैं। काम करने के अनेक अनुभव आते हैं। उनका उपयोग सभी करते हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय के सचिव श्री अमित खरे, बहुत सक्षम और योग्य अधिकारी हैं। वे हमारे संस्थान के अध्यक्ष भी हैं, उनका मार्गदर्शन निरंतर हमें  मिलता ही है। इसलिए हम संस्थान को वैश्विक ऊंचाई देने के संकल्प को पूरा करके दिखाएंगें।


कोरोना महामारी के दौर में IIMC में भी क्या ऑनलाइन कक्षाएँ चल रही हैं, यदि हाँ तो संस्थान का अनुभव कैसा रहा और ऑनलाइन कक्षाओं को और बेहतर बनाने की आगे की क्या कार्ययोजना है?

अभी हमारा नया सत्र प्रारंभ नहीं हुआ है। प्रवेश प्रक्रिया चल रही है। हमने सभी प्राध्यापकों और अधिकारियों से चर्चा कर यह तय किया है कि पहला सत्र आनलाईन ही चलेगा। इसलिए आनलाईन कक्षाएं चलेंगीं ही। अभी सूचना सेवा के अधिकारियों का प्रशिक्षण चल रहा है, वह भी आनलाईन ही चल रहा है। यह तात्कालिक संकट है, आगे दूर हो जाएगा। जहां तक आनलाईन कक्षाओं की बात है उनके अनुभव बहुत अच्छे हैं। बड़े से बड़े विषय विशेषज्ञ जो हमें उपलब्ध नहीं हो पाते। वे आनलाईन मिल जाते हैं। क्योंकि इसमें उन्हें दिल्ली आने या आने-जाने में समय लगाने की जरुरत नहीं है। इससे एक नया मार्ग खुला है। अवसर खुला है। दिल्ली में न होकर भी वे हमारे साथ हो सकते हैं।


पत्रकारिता के हर छात्र का सपना रहता है कि IIMC में दाखिला मिले लेकिन दाखिले की प्रक्रिया अभी जटिल है साथ ही शाखाएँ भी सीमित हैं, इस दिशा में क्या सुधार किये जाने की योजना है?

देखिए यह ठीक बात है कि संचार के क्षेत्र में जाने वाला विद्यार्थी आईआईएमसी आने का स्वप्न देखता। किंतु किसी भी संस्था में सीमित सीटें होती हैं। सीमित स्थान होते हैं। संसाधनों की भी सीमा है। ऐसे में बहुत ज्यादा विद्यार्थियों को साथ ले पाना संभव नहीं होता। इसलिए हमने पांच अलग-अलग राज्यों में केरल, महाराष्ट्र, मिजोरम, उड़ीसा और जम्मू में अपने परिसर खोले हैं। वहां भी विद्यार्थियों का प्रशिक्षण होता है। देश में अनेक केंद्रीय व राज्य विश्वविद्यालय भी अब मीडिया और संचार के अनेक पाठ्यक्रम चलाते हैं। ऐसे में विद्यार्थियों को निराश होने की जरूरत नहीं है। हम कोशिश कर रहे हैं कि कुछ आनलाईन पाठ्यक्रम प्रारंभ करें और कुछ सीमित समय की कार्यशालाएं चलाएं जिनमें देश भर के विद्यार्थी और पत्रकार मित्र भी प्रशिक्षण ले सकें। इससे एक दूसरे के अनुभव साझा हो सकेंगें। हम आपस में सीखकर आगे बढ़ सकेंगे।


आज के डिजिटल युग में पत्रकारिता का स्वरूप भी बदल रहा है, क्या इसको ध्यान में रखते हुए जल्द ही या भविष्य में कुछ और कोर्सेज लाये जाने की योजना है?

समय के चक्र को पीछे नहीं घुमाया जा सकता। इसलिए डिजीटल मीडिया होना एक हकीकत है, इसे कुछ लोग मान गए हैं। कुछ मान जाएंगें। डिजीटल मीडिया और मीडिया कन्वर्जेंस हमारी जरूरतें हैं हमें इसे स्वीकारना होगा। तभी परंपरागत मीडिया भी बचेगा। मीडिया में जो बदलाव हो रहे हैं उसे पहचान कर ही हमें नई पीढ़ी को तैयार करना होगा। अब पुराने हथियारों से यह जंग नहीं जीती जा सकती। जाहिर है पाठ्यक्रमों को भी बदलना होगा, शिक्षकों को बदलना होगा, पढ़ाने की शैली भी बदलनी होगी। आज का विद्यार्थी ज्यादा सजग, ज्यादा जागरुक और सूचनाओं से लैस है- उसे उसके तल पर आकर ही संवाद करना होगा।

संस्थान की फीस भी छात्रों के लिए एक अहम मुद्दा रहा है इस दिशा में क्या कोई कदम उठाये जाएँगे?

यह विषय गत वर्ष चर्चा में रहा है। उस पर संवाद भी हुआ है। जो भी हल निकलेगा, वह छात्र हित में ही होगा। किसी भी संस्थान की सीमाएं हैं। फिर भी संवाद से हर समस्या का हल निकल सकता है।बातचीत विफल होने पर अन्य मार्ग और मंच हैं, जहां लोग जाते रहे हैं, जाना भी चाहिए।


MCU में रहते हुए आप छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय रहे और आज भी आपको छात्र बहुत मिस करते हैं, यहाँ के छात्रों के साथ किस तरह अपनत्व को बढ़ाएँगे? आप संस्थान के डीजी पद पर विराजमान हैं और अक्सर देखा जाता है कि वरिष्ठ पदों पर बैठे लोग या तो आम लोगों से दूर हो जाते हैं या आम लोग उनके निकट नहीं जाते, इस दूरी को आप कैसे पाटेंगे?

एक शिक्षक के लिए उसके विद्यार्थियों से प्रिय कोई चीज नहीं होती। मेरा जीवन तो मेरे विद्यार्थियों के लिए समर्पित है। बिना किसी भेदभाव, राग-द्वेष, मत-मतांतर के मेरे पूरा स्नेह आईआईएमसी के सभी विद्यार्थियों मिलेगा। परिसर बदलने से व्यक्ति और उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता। एमसीयू में जो व्यक्ति था वही तो आईआईएमसी में आया है। मैं कोई बदला हुआ व्यक्ति नहीं हूं। मैं उनमें से नहीं जो मौसम की तरह बदल जाते हों। मेरा पिंड एक शिक्षक का है, लेखक का है, पत्रकार का है। मुझे लगता है तीनों ही भूमिकाएं संवाद के बिना, संवेदना के बिना निभायी नहीं जा सकतीं। इसलिए मैं कुछ समय कुलपति रहा, कुलसचिव रहा अब महानिदेशक हूं। यह बात मायने नहीं रखती। मायने यही है कि यह सारा कुछ किसके लिए। सारा सरंजाम किसके लिए। जाहिर तौर पर विद्यार्थियों के लिए, उनके उजले भविष्य के लिए। मैं यही कह सकता हूं कि मेरा बिना शर्त प्रेम अपने हर विद्यार्थी के लिए है, कुछ पाने के लिए नहीं सिर्फ इसलिए क्योंकि वे ही इस देश के भविष्य हैं। उनकी बेहतरी में ही एक सुंदर दुनिया का सपना छिपा है। मैं यहां यह भी जोड़ना चाहता हूं पिता और गुरू दो ही ऐसे रिश्ते हैं जो हमेशा चाहते हैं कि उसका पुत्र या शिष्य उससे आगे निकल जाए। उसका जीवन सफल हो। बहुत सगे रिश्तों और पक्के दोस्तों भी ऐसी पवित्र कामनाएं बहुत कम देखी जाती हैं। हर दोस्त में, हर रिश्ते में एक प्रतिद्वंदी भी छिपा होता है।


आजकल शिक्षण संस्थानों पर एक विचारधारा को आगे बढ़ाने का आरोप लगाया जाता है, इसे कैसे देखते हैं आप?

विचारधारा कोई बुरी चीज नहीं है। हर आदमी का एक सपना होता है कि वह कैसी दुनिया चाहता है। यही सपने एकत्र होकर विचारधारा बन जाते हैं। विचारधारा का होना बुरा नहीं है। वैचारिक कट्टरता बुरी है, असहमति को कुचल देना गलत है, अपने वैचारिक विरोधी को शत्रु मानना गलत है, व्यवस्था का न्यायपूर्ण न होना गलत है। हम भारत के लोग तो संवाद और शास्त्रार्थ की परंपरा के पोषक रहे हैं। जहां संवाद से ही सब संकटों के हल निकलते हैं। पांच हजार साल की लिखित परंपरा और इतिहास में हमने कभी किसी सभ्यता को कुचलने और नष्ट करने के प्रयास नहीं किए। वैचारिक और बौद्धिक व्यक्ति कभी कट्टर नहीं होता। किंतु कुछ विचार बौद्धिक क्षेत्र में कट्टरता के प्रतीक बन गए। उन्हें अपने वैचारिक विरोधियों को कुचलने, उन्हें समाप्त करने और हत्याएं करने में ही आनंद मिलता रहा। किंतु अब दुनिया बदल रही है।

   भारत 200 सालों के वैचारिक आत्मदैन्य से मुक्त होकर अपने को पहचान रहा है। अपनी जड़ों पर गर्व कर रहा है। अपनी अस्मिता पर अब वह मुग्ध है। यही नए भारत का परिचय है। अफसोस कुछ लोग इस बदलाव को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि उनकी वैचारिक निष्ठाएं कहीं गिरवी पड़ी हैं। इसलिए वे समय-समय पर नए-नए नारों के साथ प्रकट होती हैं। जिसमें भारत को ही लांछित और पददलित करने के यत्न होते हैं। किंतु देश इस तरह की वैचारिक असहिष्णुता से बाहर आ चुका है। संचार माध्यमों ने, सोशल मीडिया ने एक ऐसा लोकतांत्रिक परिवेश बनाया है जिसमें अब विमर्श एकतरफा नहीं है। बल्कि कथित बौद्धिकता को समाज जमकर चुनौती दे रहा है। इसलिए अब एकालाप का समय नहीं है। हमें इस बदलते हुए समय को पहचानना होगा। शिक्षण संस्थाओं में आने वाले युवा आज सूचनाओं से लैस हैं। उन्हें गुमराह करना कठिन है। उन्हें बरगलाने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

   मैं सभी शिक्षकों से यही आग्रह करता हूं कि वे अपने विद्यार्थियों से वही काम कराएं जो वे अपने बच्चों से कराना चाहेंगे। यह ठीक नहीं है कि आपका बच्चा तो अमेरिका के सपने देखे और आप अपने विद्यार्थी को पार्टी का काडर बनाएं। यह धोखा है। शिक्षकों को इससे बचना चाहिए। आप अपने विद्यार्थी के समझ दें, जानकारी दें, फैसला उसे करने दें। वह जिस भी विचार को चुनेगा, वह उसकी अपनी आजादी है। मेरी विचारधारा तो एक ही है सबसे पहले भारत। भारत में रहने वाले हर नागरिक मेरे भाई-बहन हैं। उनके दुख से मैं दुखी और उनके सुख से मैं सुखी होता हूं। भारतीयता से बड़ी कोई विचारधारा नहीं है। क्योंकि भारतीयता ही यह बात जोर से कह सकती है- वसुधैव कुटुम्बकम्। यह एक समावेशी और वैश्विक विचार विचार है, क्योंकि इसमें सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार नहीं है। यही कह सकती है आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः। यानि श्रेष्ठ विचारों को सभी दिशाओं से आने दो।

IIMC में इस सत्र की कक्षाओं का संचालन कब से बहाल होने की उम्मीद है और संस्थान की ओर से किन बातों का विशेष रूप से ध्यान रखने की योजना बनाई जा रही है?

इस सत्र में पहला सेमेस्टर आनलाइन ही चलेगा। प्रवेश प्रक्रिया चल रही है।इसके पूरा होते ही नया सत्र प्रारंभ हो जाएगा। दूसरे सेमेस्टर में क्या होगा अभी कहना कठिन है।भारत सरकार के दिशा निर्देश हमारे लिए लागू होंगे। उसी अनुरूप हमें व्यवस्थाएं खड़ी करनी होंगीं।

आज की पत्रकारिता के सामने आपकी दृष्टि में सबसे बड़ी चुनौती क्या है?

सबसे बड़ी चुनौती खबरों में मिलावट की है। खबरें परिशुद्धता के साथ कैसे प्रस्तुत हों, कैसे लिखी जाएं, बिना झुकाव, बिना आग्रह कैसे वे सत्य को अपने पाठकों तक संप्रेषित करें। क्या विचारधारा रखते हुए एक पत्रकार इस तरह की साफ-सुथरी खबरें लिख सकता है? ऐसे सवाल हमारे सामने हैं। इसके उत्तर भी साफ हैं, जी हां हो सकता है। हमारे समय के महत्त्वपूर्ण पत्रकार और संपादक श्री प्रभाष जोशी हमें बताकर गए हैं। वे कहते थे पत्रकार की पोलिटकल लाइन तो हो किंतु उसकी पार्टी लाइन नहीं होनी चाहिए। प्रभाष जी का मंत्र सबसे प्रभावकारी है, अचूक है। सवाल यह भी है कि एक विचारवान पत्रकार और संपादक विचार निरपेक्ष कैसे हो सकता है? संभव हो उसके पास विचारधारा हो, मूल्य हों और गहरी सैंद्धांतिकता का उसके जीवन और मन पर असर हो। ऐसे में खबरें लिखता हुआ वह अपने वैचारिक आग्रहों से कैसे बचेगा ? अगर नहीं बचेगा तो मीडिया की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का क्या होगा? उत्पादन के कारखानों में क्वालिटी कंट्रोल के विभाग होते हैं। मीडिया में यह काम संपादक और रिर्पोटर के अलावा कौन करेगा? तथ्य और सत्य का संघर्ष भी यहां सामने आता है। कई बार तथ्य गढ़ने की सुविधा होती है और सत्य किनारे पड़ा रह जाता है।

      पत्रकार ऐसा करते हुए खबरों में मिलावट कर सकता है। वह सुविधा से तथ्यों को चुन सकता है, सुविधा से परोस सकता है। इन सबके बीच भी खबरों को प्रस्तुत करने के आधार बताए गए हैं, वे अकादमिक भी हैं और सैद्धांतिक भी। हम खबर देते हुए न्यायपूर्ण हो सकते हैं। ईमान की बात कर सकते हैं। परीक्षण की अनेक कसौटियां हैं। उस पर कसकर खबरें की जाती रही हैं और की जाती रहेंगी। विचारधारा के साथ गहरी लोकतांत्रिकता भी जरुरी है जिसमें आप असहमति और अकेली आवाजों को भी जगह देते हैं, उनका स्वागत करते हैं। एजेंडा पत्रकारिता के समय में यह कठिन जरूर लगता है पर मुश्किल नहीं।

 

इस पूरे दौर में टीवी मीडिया की भूमिका को आप किस तरह से देखते हैं?

इस समय का संकट यह है कि एंकर या विशेषज्ञ तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ व्यक्त करने में लगे हैं। ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं। दर्शक अवाक रह जाता है कि आखिर क्या हो रहा है। कहने में संकोच नहीं है कि अनेक पत्रकार, संपादक और विषय विशेषज्ञ दल विशेष के प्रवक्ताओं को मात देते हुए दिखते हैं। ऐसे में इस पूरी बौद्धिक जमात को वही आदर मिलेगा जो आप किसी दल के प्रवक्ता को देते हैं। मीडिया की विश्वसनीयता को नष्ट करने में टीवी मीडिया के इस ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित जरूर किया जाएगा। यह साधारण नहीं है कि टीवी के नामी एंकर भी अब टीवी न देखने की सलाहें दे रहे हैं। ऐसे में यह टीवी मीडिया कहां ले जाएगा कहना कठिन है। हमें पक्षधरता के बजाए जनपक्ष की ओर देखना होगा। अनेक पत्रकार आज भी अपने धर्म का पूरी जिम्मेदारी से निर्वाह कर रहे हैं। उनके प्रयासों से ही भरोसा बचा और बना हुआ है। सत्ता और समाज के बीच सेतु की भूमिका भी पत्रकारिता निभा रही है। छोटे-छोटे स्थानों से पत्रकार आज सक्रियता के साथ काम कर रहे हैं और विकास तथा जनमुद्दों के सवाल उठा रहे हैं। यह सुखद है और सरकारों के लिए फीडबैक का काम भी करता है।


आपने कई विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं, आगे की योजना क्या है?

अभी तो सारा ध्यान आईआईएमसी पर है। इसे श्रेष्ठता, गुणवत्ता के शीर्ष पर ले जाना। समय मिला तो लिखेंगें जरूर, वह मेरा पहला प्यार है। किंतु दायित्वबोध उससे बड़ी चीज है। अभी तो यही सपना है कि अपने विद्यार्थियों के लिए वह सब कुछ कर सकूं, जो उनके लिए जरूरी है। उन्हें शीर्ष पर जाने में जो भी चीजें सहायक हैं, वह जुटा सकूं। उनकी सफलता में अपनी सफलता का सुख पा सकूं। मैं अपने खुद के लिए सुख लिए नहीं, अपने तमाम विद्यार्थियों के सपनों, उनकी आकांक्षाओं को पूरा होते देखने के लिए काम करना चाहता हूं। मुझे लगता है अगर आईआईएमसी को प्रतिभा के श्रेष्ठतम विकास, गुणवत्ता के शीर्षतम मानकों तक ले जा सका तो मेरा कार्यकाल सार्थक होगा। तीन साल का समय मिला है। बहुत काम है। अभी इसी पर फोकस है।

(प्रभासाक्षी डाटकाम में प्रकाशित)

भारतीय भाषाओं की मीडिया के ये सुनहरे दिन हैं- प्रो. संजय द्विवेदी

 प्रो. संजय द्विवेदी देश के प्रख्यात पत्रकार,संपादक और मीडिया प्राध्यापक हैं। देश के अनेक प्रमुख समाचार पत्रों में कार्यरत रहे प्रो.द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति और कुलसचिव भी रहे। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर उनकी 25 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। संप्रति आप भारतीय जनसंचार संस्थान, (IIMC), नई दिल्ली के महानिदेशक हैं। ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रो.संजय द्विवेदी जी से अग्निधर्मा के प्रधान सम्पादक आशीष जैन ने खास बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी संवाद के कुछ अंश-

 

सर्वप्रथम आपके जीवन की प्रारम्भिक पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहेंगे, पत्रकारिता के बीज पड़ने से लेकर उसके वृक्ष बनने तक की यात्रा के बारे में कुछ बताएं ।

उत्तर प्रदेश के बेहद पिछड़े जिले बस्ती में मेरी आरंभिक शिक्षा हुयी। मेरे पिता डा. परमात्मा नाथ द्विवेदी वहां के कालेज में हिंदी के प्राध्यापक थे। वे दूर्वादल नाम से एक साहित्यिक पत्रिका भी निकालते थे। साथ ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी परिषद नामक एक संस्था की स्थापना भी वहां उन्होंने की। उसके माध्यम से अनेक साहित्यिक गतिविधियां चलती थीं। ऐसे में लिखने-पढ़ने का रूझान पैदा हुआ और मैं इस दुनिया में आ गया। साहित्य में तो बहुत गति नहीं बनी, एक सजग पाठक ही रहा किंतु पत्रकारिता में रमा और लिखने लगा। अब ऐसा है कि भाषा ही मेरा जीवन और जीविका दोनों है।

अपनी 14 वर्षों की सक्रिय पत्रकारिता और तमाम मीडिया संस्थानों सहित शैक्षणिक सेवाओं  के अनुभवों के अनुरूप आप प्रिंट मीडिया,वेब मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया का भविष्य कैसा देखते हैं ?

मेरी पत्रकारिता में अनेक पड़ाव हैं। शहरों को याद करूं तो रायपुर, बिलासपुर, मुंबई और भोपाल मेरी पत्रकारिता के कर्मक्षेत्र रहे। उत्तर प्रदेश ने मुझे भाषा के संस्कार दिए, मध्यप्रदेश ने उसे संवारा और छत्तीसगढ़ ने उसे खुला आकाश दिया जिससे मैं खुद में आत्मविश्वास पा सका। इसी तरह महाराष्ट्र के मुंबई शहर ने मुझे पत्रकारिता के विविध अनुभव दिए जिससे मैं पूर्णता की ओर बढ़ सका। बाद के दिनों में एक मीडिया शिक्षक के रूप में अनेक अनुभवों ने मुझे समृध्द किया। अब दिल्ली मुझे नए पाठ सिखा रही है। भारत जैसे देश में मीडिया का भविष्य  अभी सुनहरा ही है। क्योंकि अभी भी देश का एक बड़ा हिस्सा साक्षर होने की प्रतीक्षा में है। देश में 100 प्रतिशत मीडिया उपयोग अभी एक लंबी यात्रा है। मोबाइल ने इसे तेज किया है। किंतु अभी एक लंबी यात्रा तय करनी है।

आपने स्वदेश, हरिभूमि, नवभारत और दैनिक भास्कर जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों को स्थापित करने में महत्वपूर्ण  भूमिका का निर्वहन किया हैं।  आज के पत्रकारों में आप किसी समाचार पत्र के प्रति गंभीरता के रूप में क्या विशेष और नया देखते हैं ।

 देश में अनेक महत्वपूर्ण अखबार निकल रहे हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के लिए यह बहुत सुनहरे दिन हैं। देश के पहले 10 अखबारों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के 9 अखबार हैं। यह बहुत बड़ी बात है। आज के अखबार ज्यादा सुदर्शन, विविधतापूर्ण सामग्री लिए हुए और बहुत वैज्ञानिक तरीके से निकाले जा रहे हैं। पढ़ने का वक्त जरूर घटा है किंतु इसके लिए अखबार और उसकी प्रस्तुति जिम्मेदार नहीं है। सूचना के साधनों की बहुलता है। अनेक स्थानों से सूचनाएं आने लगी हैं। टीवी, सोशल मीडिया, वेब मीडिया की अधिकता और प्रसार ने अखबारों के पढ़ने का समय कम किया है। आज के पत्रकार सूचना संपन्न समाज में हैं इसलिए उन्हें ज्यादा कटेंट पर ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। अब कुछ भी पढ़वाना आसान नहीं है।

राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर आपने दशकों लेखन किया, वर्तमान में राजनीतिक पत्रकारिता पर आप क्या कहेंगे? विशेषकर चुनावी परिदृश्य में मीडिया की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, इस विषय पर आपके द्वारा संपादित कृति भी आई है वर्ष -2019 में मीडिया और भारतीय चुनाव प्रक्रियाइस विषय पर कुछ प्रकाश डालें ।

राजनीति पर सरसरी तौर पर लिखना और रिपोर्टिंग करना बहुत आसान काम मान लिया गया है। है भी। किंतु किसी भी विधा में गंभीर काम से ही पहचान बनती है। राजनीति में जितना दिखता है या बताया जाता है, राजनीति उतनी ही नहीं है। यह संभावनाओं का भी खेल है और यहां महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए जाते हैं। इसलिए एक राजनीतिक विश्लेषक का काम आसान नहीं है। उसे अपेक्षित तटस्थता रखते हुए काम करना होता है। समय के पार देखना होता है। चीजों के होने की प्रक्रिया को भी समझना और समझाना होता है। चुनाव को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है। ऐसे में मीडिया कवरेज लोगों के मत निर्माण में मददगार होती है। चुनावों में पेड न्यूज जैसे आरोप भी मीडिया पर लगते हैं। ऐसे कठिन समय में हमें पूरी ईमानदारी  से काम करने की जरुरत है। चुनाव आएंगे, जाएंगें किंतु हमने ईमानदारी और प्रामाणिकता से काम नहीं किया तो पाठकों और दर्शकों का भरोसा खो बैठेंगें। एक बार भरोसा खत्म तो मीडिया का कोई मतलब ही नहीं। न तो चीजों में मिलावट होनी चाहिए न ही खबरों में।

दो दर्जन से अधिक महत्वपूर्ण किताबें लिखने के बाद हाल ही में आपकी 'अपराध पत्रकारिता' पर केंद्रित नई कृति चर्चित रही। मेरे दो प्रश्न हैं यहाँ ---पत्रकारिता की इस विधा के वर्तमान स्वरुप को आप कैसा देखते हैं ?दूसरा क्या इस क्षेत्र में पत्रकार अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी से  कर पा रहे हैं ?

अपराध पत्रकारिता का काम चुनौतीपूर्ण है। इसमें हमें सूचनाएं भी देनी हैं और यह भी कोशिश करनी है कि अपराध को ग्लैमराइज्ड न किया जाए। हमारी अपराध पत्रकारिता का स्वर अपराधियों के विपक्ष में तथा समाज को संबल देने वाला होना चाहिए। पुलिस के काम पर निगरानी रखना भी हमारा ही काम है। पुलिस रिपोर्ट पर आधारित पत्रकारिता का चलन बढ़ा है, जिसके अपने खतरे हैं। हमें न्यायपूर्ण और जनपक्ष में खड़े रहना है।

विविध छोटे और बड़े  शैक्षणिक संस्थानों  में पत्रकारिता के शिक्षण के स्तर को आप किस तरह देखते हैं, उन संस्थानों से निकले पत्रकारों में किस  तरह की संभावनाएं दिखाई देती हैं।

पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण को बेहद आसान काम मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता पढ़ाने से आसान काम कुछ भी नहीं है। जबकि अब मीडिया एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में स्थापित हो चुका है। इसकी विशेषज्ञता की मांग बढ़ रही है। अब यह संचार की दुनिया है। जहां हमें संवाद के, सूचना के , मनोरंजन के, मीडिया के अनेक संदर्भों पर विशेषज्ञता के साथ काम करना है। इसलिए बदलती दुनिया, बदली टेक्नालाजी के बीच हमें मीडिया शिक्षण को भी एक खास अनुशासन की तरह बरतना होगा। हर गली में खुलते पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थान एक धोखा हैं, उनसे बचना होगा।

युवाओं में पत्रकारिता को लेकर बढ़ता रुझान क्या वाकई उन्हें सामाजिक दायित्व की ओर उन्मुख करता है या प्रसिद्धि का आकर्षण मात्र है ?

देखिए दोनों बातें हैं। विद्यार्थी अलग-अलग कारणों से आते हैं। कुछ चकाचौंध से प्रभावित होकर टीवी स्क्रीन पर चमकने के लिए, कुछ समाज के लिए कुछ करने के भाव से, कुछ नौकरी करने के भाव से तो कुछ सिर्फ एक डिग्री हो जाए इसलिए भी आते हैं। बावजूद इसके पत्रकारिता का काम बिना सामाजिक सोच, संवेदना और गहरी प्रेरणा के बिना नहीं हो सकता। आप इस व्ययवसाय में तभी आएं जब आपके भीतर इस तरह की रुचि हो, वरना आप अपना और मीडिया दोनों का नुकसान करेंगें।

इन दिनों सूचना  के साथ मिलावट या पत्रकारिता में एंगल बनाकर ख़बरों के प्रस्तुतीकरण के अतिरेक पर आप क्या कहेंगे ?

सूचनाओं में जरा सी मिलावट भी उसे बेस्वाद और झूठा बना देती है। इसलिए मिलावट कहीं से स्वीकार्य नहीं है। पत्रकारिता का एक ही मंत्र है भरोसा । अगर हमने भरोसा खो दिया, प्रामाणिकता खो दी तो क्या मतलब? खबर को खबर की तरह, तथ्य और सत्य के साथ प्रस्तुति होनी चाहिए। न तो तथ्य गढ़े जाने चाहिए न ही उसे एंगल देना चाहिए। इससे पत्रकारिता की उजली परंपरा कलंकित होती है। आज मीडिया के क्षेत्र में ऐसे लोग आ गए हैं, जो अपने व्यावसायिक हितों के लिए मूल्यों का गला घोंट रहे हैं। यदि मुनाफा ही कमाना है, तो उन्हें मीडिया के व्यवसाय को छोड़कर अन्य किसी व्यवसाय को अपनाना चाहिए। पत्रकारिता एक ध्येय निष्ठ उपक्रम है, उसे कलंकित नहीं करना चाहिए। जब हम पत्रकारिता में अपने स्वार्थ साधते हैं, तो मीडिया के मूल्यों का क्षरण होता है। आज पेड न्यूज, फेक न्यूज, हेट न्यूज और एजेंडा सैटिंग आदि विकृतियों ने भारतीय मीडिया की साख को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इसलिए जितनी जल्दी हो सके मीडिया स्वयं ही इन विकृतियों पर अंकुश लगाए, अन्यथा एक बार पाठकों एवं दर्शकों को विश्वास समाप्त हो गया, तो मीडिया के लिए फिर से उसे अर्जित करना मुश्किल हो जाएगा।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न-- लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में पत्रकारिता में जोखिम उठाकर जो प्रामाणिकता के साथ  पत्रकारिता कर रहे उनकी सुरक्षा का दायित्व किस पर है? कद्दावर नेताओं के  दबाव में पत्रकारों पर झूठे प्रकरण दर्ज कर दिए जाते हैं कुछ राज्यों में पत्रकार सुरक्षा कानून लागू भी हैं अपने अनुपालन के साथ |लेकिन ज़्यादातर राज्यों में खबरें प्रकाशित न करने का दबाव बनाया जाता है, इस गंभीर विषय पर आपके  अनुभव हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं।

पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे लगता है पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर बहुत कुछ करने की जरूरत है। हर साल अनेक पत्रकारों की हत्या, उनपर झूठे मुकदमे। माफिया से उनका संघर्ष सब कुछ सामने है। ऐसे में उनकी सुरक्षा को लेकर सभी राज्य सरकारों को कड़े कदम उठाने की जरूरत है। क्योंकि एक लोकतंत्र में अगर जनता की आवाज को दबा दिया गया तो नुकसान ही होगा।

लगभग 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष,विश्वविद्यालय के कुलपति,कुलसचिव के दायित्व के साथ ही भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक के दायित्वों में कौन सा अनुभव आपके लिए सबसे चुनौतीपूर्ण रहा, यहाँ मेरा आशय  वर्तमान की चुनौतियों से भी हैं?

मैं अपने जीवन को संपूर्णता और समग्रता में ही देखता हूं। इस तरह टुकड़ों में बांटकर कभी आकलन नहीं किया। पिंड से पत्रकार हूं, वृत्ति (प्रोफेशन) से शिक्षण या अकादमिक प्रबंधन में आ गया हूं। मैं इसे एक यात्रा ही मानता हूं। जो काम दिया गया उसे ईमानदारी और प्रामाणिकता से करने का स्वभाव है। अपनी संस्थाओं को, उसके लोगों, अपने विद्यार्थियों को आगे बढ़ाने में क्या भूमिका हो सकती है। इसी पर ध्यान रहता है। शिक्षण संस्थाओं को राजनीति से मुक्त और प्रशासनिक दखलंदाजी से परे रखा जाए, यह मेरा सुझाव है। शिक्षा और उसकी गुणवत्ता हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। यही मेरा निवेदन रहा है, रहेगा।

मुंबई, भोपाल रायपुर बिलासपुर जैसे शहरों में आपकी सार्थक पत्रकारिता के पदचिन्ह  अंकित हैं ,नगरों- महानगरों जुड़े अपने इन अनुभवों में आपको कौन सी बात  अलग और कॉमन लगी?

देखिए भारत जैसा देश और उसके जैसे लोग मिलने मुश्किल हैं। जहां भी रहा जो सहज प्रेम मिला, वह विरल है। कभी यह अहसास नहीं आया कि कहीं बाहर से आया हूं। आज रायपुर, बिलासपुर, भोपाल मेरी कर्मभूमि ही नहीं घर हैं। मुंबई में दोस्तों का पूरा संसार है। इन शहरों ने मुझे बनाया है और गढ़ा है। यहां की माटी और पानी का अंश शरीर में है तो वहां के मित्रों की आत्मीयता ह्दय में। मैंने दिमाग से ज्यादा सोचकर कुछ नहीं किया। हमेशा जीवन को एक यात्रा की तरह लिया। इसलिए लोगों और स्थानों के बदलने से मुझमें कुछ नहीं बदलता। मैं जैसा हूं वैसा ही हूं। सारे देश में एक ही चीज कामन है सबका दिल है हिंदुस्तानी। स्वागतभाव और आत्मीयता मुझे हर जगह मिली। मैं अपनी किस्मत पर गर्व कर सकता हूं।

पत्रकारिता के  बहुआयामों में आप पत्रकारिता और अकादमिक दोनों अनुभवों के साथ IIMC  में महानिदेशक के पद पर आसीन हैं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त उक्त संस्थान को लेकर आपका क्या स्वप्न हैं ? राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों के साथ काम करने के अपने  अनुभव को आप किस तरह देखते हैं?

आईआईएमसी को उसके गौरवशाली अतीत से जोड़ते हुए नए समय की चुनौतियों से जूझने लायक बनाना ही सपना है। सबका सहयोग रहा तो यह सपना जरूर पूरा भी होगा। जहां तक केंद्र-राज्य सरकारों से अनुभव की बात है तो यह सवाल मुझसे कुछ ज्यादा जल्दी पूछा जा रहा है। समय आने पर इस पर बात जरूर करूंगा।

कोरोना महामारी के दौर में प्रारंभ ऑनलाइन कक्षाएँ और ओपन बुक परीक्षाओं को आप कितना सही मानते हैं?

इसमें सही या गलत कुछ नहीं है। यह आपदा का धर्म है। हमें रास्ता निकालना था। क्या करते। आनलाईन ने इस संकट में हमें संबल दिया कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। मेरा मानना है कि संकट कितना भी गहरा हो जीतता अंततः मनुष्य है। हम भी जीतेंगें और उबरेंगें।

 भारत में पत्रकारिता का एक गौरवशाली इतिहास रहा है, ऐसे में समाचार पत्रों का  व्यवसायीकरण हो जाने के  आरोप  को आप किस तरह देखते हैं ?

अगर हम आज की भाषा में बात करें तो लोग कहते हैं कि मीडिया एक प्रोडक्ट है। लेकिन याद रखिए कि मीडिया अगर प्रोडक्ट है, तो पाठक उपभोक्ता हैं और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है, तो उसे जो माल दिया जा रहा है, उसकी क्वालिटी में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर सकता है। मेरा ये मानना है कि हम बड़ी-बड़ी बातें करके मीडिया के मूल्यबोध को बचाकर नहीं रख सकते। उसके लिए व्यवहार आवश्यक है। हमें अपने जीवन से संदेश देना होगा, राष्ट्र को जीवंत बनाए रखना होगा और लोक जागरण करना। यही मीडिया और पत्रकारों के लिए सूत्र वाक्य है। जब हम अपनी लालसा बढ़ा लेते हैं, तो पतन का रास्ता खुल जाता है। इस दौर में पत्रकारिता को मूल्य आधारित बनाए रखने की बहुत आवश्यकता है। वरना न तो देश बचेगा और न पत्रकारिता बचेगी।

हाल ही में आयी नई शिक्षा नीति से पत्रकारिता किस रूप में लाभान्वित हो सकेगी इस पर कुछ प्रकाश डालें ?

नई शिक्षा नीति में पत्रकारिता शिक्षा को लेकर सीधे तौर पर कोई बात नहीं कही गयी है। लेकिन हमें इसके मूलभाव पर जाना होगा। यह शिक्षा नीति कौशल को सम्मानित करने, भारतबोध और देशभक्ति के भाव को भरनेवाली शिक्षा नीति है। इससे देश के मन पर पड़ी गुलामी की लंबी छाया और औपनिवेशिक सोच से मुक्ति मिलेगी। इसमें दो राय नहीं है। देखिए पत्रकारिता या मीडिया नहीं, बड़ा है हमारा समाज। जब पूरे समाज में ही सकारात्मकता और देशभक्ति का भाव होगा, अच्छे नागरिकों का निर्माण होगा, तब मीडिया भी और उसमें काम करनेवाले पत्रकार भी बेहतर होंगें। समाज में विकृतियां होंगी तो हर वर्ग का पतन होगा, समाज बेहतर होगा तो सभी बेहतर होंगे।

क्या इस दौर की पत्रकारिता लोकतंत्र का  चौथे स्तम्भ होने का अपना दायित्व निर्वहन कर रही है, अगर नहीं तो क्या उन्हें बाधित करता है, इसी परिप्रेक्ष्य में न्यूज चैनलों की भूमिका पर आप क्या कहेंगे ?

निश्चित रूप से हम मीडिया की आलोचना करते हैं। पर मेरा सवाल यह है कि मीडिया विहीन समाज कैसा होगा। क्या हम मीडिया के बिना एक सुंदर समाज और जीवंत लोकतंत्र के बारे में सोच सकते हैं। शायद नहीं। वहीं चैनलों की आलोचना के लिए इस समय बहुत से विषय हैं, आलोचना की भी जा सकती है। किंतु इससे कोई लाभ नहीं है। टीवी चैनल टीआरपी स्पर्धा में सब कुछ कर रहे हैं। इसलिए जब स्पर्धा है तो उसमें यह सब कुछ होगा ही।

अब वह प्रश्न जिसकी जिज्ञासा सभी के भीतर है, आपके पूर्व के  साक्षात्कारों  में भी एक बात जो बार बार उल्लेखित हुई आपके बहुआयामी व्यक्तित्व के बेहद सरल सहज पक्ष को लेकर|  इतने गंभीर दायित्वों के मध्य आप कैसे इतनी सहजता के साथ संतुलन बैठा पाते हैं ?वो कौन सी ख़ास ऊर्जा है, जो आपको प्रेरित करती हैं, आपको अपनी सरलता में इतना ख़ास बना जाती हैं, कि दम्भ और कठोरता दूर- दूर तक आपके व्यक्तित्व और व्यवहार में दिखाई नहीं देती यह गुर तो हर कोई सीखने का अभिलाषी हैं।

मुझे लगता है कि हम सब अपनी-अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं। इस भूमिका में सबका अपना महत्व है। कोई खास या विशेष नहीं होता। जहां तक पद की बात है, पद आज है कल नहीं रहेगा। आयु आज है, कल नहीं रहेगी। ऊर्जा आज है, कल नहीं रहेगी। सो जो चीजें स्थाई नहीं हैं उनका अहंकार पालना समझदारी नहीं। मैं सहजता में आनंद का अनुभव करता हूं। मुझे ऐसा ही अच्छा लगता है।  ईश्वर  आपको जो काम दे रहा है उसे सहज आनंद से करते जाइए, मेरी जीवन शैली यही है।

अपने प्रारंभिक दौर से गुजरता 'अग्निधर्मा' साप्ताहिक   मूल  रूप से 'अपराध एवं भ्रष्टाचार' पत्रकारिता' पर केंद्रित है, इस परिप्रेक्ष्य में आपका सन्देश अग्निधर्मा के लिए किसी प्रतिसाद के समान हैं, आपका संदेश?

अग्निधर्मा के अंक मैंने देखे हैं, पढ़ें हैं। इसमें विचारों की विविधता है। आप कह रहे हैं कि यह मूलतः अपराध और भ्रष्टाचार केंद्रित है। किंतु मैंने हाल में इसके सभी अंक देखें हैं। अंकों की सामग्री में विविधता है। साहित्य, समाज और संस्कृति सबको आपने स्थान दिया है। गहरी समझ और सूझबूझ से आप इसका प्रकाशन कर रहे हैं। मेरी शुभकामनाएं सदैव आपके साथ हैं।

नई पीढ़ी के पत्रकारों के लिए आपका संदेश?

स्वाधीनता से पहले पत्रकारिता का उद्देश्य देश की स्वतंत्रता था, उसी तरह अब मीडिया का लक्ष्य देश का नवनिर्माण होना चाहिए। मीडिया के सामने सामाजिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने का लक्ष्य होना चाहिए। निराशा से जूझते हुए मन को ताकत देने की पत्रकारिता होनी चाहिए। लोकतंत्र के बाकी के स्तंभ जहां भी भटकते दिखाई दें, वहां उन्हें चेताने का काम मीडिया को करना चाहिए। यह हम तभी कर पाएंगे, जब हमारे मन में स्पष्ट होगा कि पत्रकारिता का धर्म क्या है? मानवीय चेतना खत्म होने पर पत्रकारिता की आत्मा मर जाती है। इसलिए मानवीय संवेदना प्रत्येक पत्रकार के भीतर होनी चाहिए। यह मानवीय संवेदना ही हमें पथभ्रष्ट होने से बचाती है। पत्रकारिता भारतीय जनता के विश्वास का बड़ा आधार है। भारत की पत्रकारिता पर जनता का विश्वास है। इस विश्वास को बचाकर रखना है, तो हमें मूल्यबोध को जीना होगा।

 

 

 

हिंदी मेरी जीविका है और जीवन भी- प्रो.संजय द्विवदी

    देश के प्रख्यात पत्रकार, लेखक और मीडिया शिक्षक प्रो.संजय द्विवेदी इन दिनों भारतीय जन संचार संस्थान, दिल्ली के महानिदेशक हैं। इसके पूर्व वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति और कुलसचिव भी रह चुके हैं। अनेक मीडिया संस्थानों में प्रमुख पदों पर कार्य कर चुके प्रो. द्विवेदी की मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर 25 पुस्तकों का लेखन और संपादन कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखी उनकी किताब मोदी युग- संसदीय लोकतंत्र का नया अध्याय चर्चा में रही है। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के खास अंश-



आपकी लेखन के प्रति रुचि कैसे जागृत हुई?

   मेरे पिता डा. परमात्मा नाथ द्विवेदी बस्ती(उप्र) में हिंदी के प्राध्यापक थे। घर में लिखने-पढ़ने और साहित्य चर्चा का वातावरण था। मुझे लगता है कि परिवेश ही हमें गढ़ता है और इस तरह हिंदी व लेखन के प्रति रुचि पैदा हो गयी। अब तो हिंदी ही मेरा जीवन और जीविका दोनों है। अखबारों में काम करते हुए,लिखते हुए छपते हुए कितने दिन बीत गए। कुछ एक शायर के इस शेर की तरह-

अब तो ये हालात हैं कि जिंदगी के रात-दिन

सुबह मिलते हैं मुझे अखबार में लिपटे हुए।

 

आप लेखन के क्षेत्र से पत्रकारिता में आए। पत्रकारिता में चुनौतियां बहुत होती हैं। क्या आपको साहित्य और पत्रकारिता में कोई दिक्कत आयी?

    हां, शुरूआत तो लेखन से की। बच्चों के लिए कविताएं लिखीं। 10 वीं में पढ़ते हुए बच्चों के लिए बालसुमन नाम से एक पत्रिका निकाली। किंतु बाद के दिनों में पूरी तरह पत्रकारिता और समसामयिक लेखन को समर्पित हो गया। ऐसे में सृजनात्मक लेखन के लिए वक्त नहीं मिला। अब समसामयिक मुद्दों पर लिखना ही निरंतर है। संपादन, लेखन और व्याख्यान ये तीन काम निरंतर हैं और इन्हीं में सुख तलाशता हूं। जहां तक पत्रकारिता में चुनौतियों की बात है, मुझे बहुत परेशानियां नहीं रहीं। 14 साल जमकर सक्रिय पत्रकारिता की। 2009 से मीडिया शिक्षण और अकादमिक प्रबंधन के क्षेत्र में हूं। मीडिया में रहते हुए पूरी प्रामणिकता के साथ काम किया और अब मीडिया शिक्षण में भी अपने काम को पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं।

आप कई मीडिया संस्थानों में प्रमुख पदों पर रहे हैं। मीडिया की भाषा को लेकर सवाल उठते रहे हैं। आपने भाषा सुधार के लिए क्या किया?

     भाषा के साथ हमारा रवैया अच्छा नहीं है। एक इरादतन लापरवाही और अंग्रेजी शब्दों को पत्रकारिता में जबरिया ठूसने का चलन बढ़ा है। जो किसी भी भाषा के लिए अच्छा नहीं है। सभी भारतीय भाषाओं के अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग बढ़ा है। मुझे लगता है कि कोई भी अखबार अपनी भाषा की अस्मिता का प्रतीक होता है। उसकी जबावदेही उस भाषा के प्रति है जिसमें वह छपता है। लोग अखबारों के माध्यम से भाषा सीखते हैं। इसलिए हमारी जवाबदेही बहुत बड़ी है। अनेक संगोष्ठियों और विमर्शों के माध्यम से हम और हमारे जैसे अनेक लोग यह बात कह रहे हैं। हिंदी को लेकर मेरी चिंता बहुत है। क्योंकि हमारे लोग हिंदी को लेकर एक हीनताबोध से ग्रस्त हैं। वे सोचकर अंग्रेजी बोलेंगें किंतु दिल से हिंदी नहीं बोलते। मजबूरी में की गयी अभिव्यक्ति में शक्ति कहां से आएगी। उसी भाषा में हम सक्षम अभिव्यक्ति कर सकते हैं जो भाषा हमारे सपनों की भाषा है। मुझे नहीं पता लोग किस भाषा में सपने देखते हैं। किंतु अगर वे इसे पकड़ पाएं तो वही उनकी भाषा है।

आप मीडिया विमर्श के प्रमुख विचारक हैं। मीडिया विमर्श नाम की  पत्रिका भी निकालते हैं। आप क्या मानते हैं कि मीडिया लोकतंत्र का एक आवश्यक अंग है?

    देखिए किसी भी लोकतंत्र की पहली विशेषता है आजाद मीडिया। अगर मीडिया आजाद नहीं है तो लोकतंत्र बेमानी है। हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई ही मुख्यतः समाचार पत्रों ने लड़ी। हमारे अनेक राष्ट्रनायक पत्रकारिता के क्षेत्र से आते हैं। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी,पं.नेहरू डा.आंबेडकर, दीनदयाल उपाध्याय, डा. राममनोहर लोहिया सब पत्रकारिता को एक महत्त्वपूर्ण विषय मानते हैं। सबने लोकतंत्र के साथ मीडिया को मजबूत करने का काम किया। अखबार निकाले और अपने विचारों को आगे बढ़ाने का काम किया। मीडिया ने लोकतंत्र को हर दिन मजबूत किया है। वह जनता की ही अभिव्यक्ति है। हम जो सवाल पूछते हैं, वह जनता की ओर से ही पूछते हैं। यही प्रश्नाकुलता पत्रकारिता और लोकतंत्र का प्राणतत्व है।

आप माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव रहे हैं। नई पीढ़ी जो पत्रकारिता सीखने आ रही है, उसे आप किस तरह से देखते हैं?

  नई पीढ़ी बहुत ही संभावनावान और ऊर्जा से भरी हुई है। उनके पास नई नजर है, नया नजरिया है। चीजों को विश्लेषित करने की शक्ति है। वे बहुत देशभक्त हैं और लोगों के प्रति संवेदना से भरे हैं। शायद उन्हें जमीनी तल्ख हकीकतों की जानकारी कम होगी किंतु बदलाव के प्रति वे जागरूक हैं। वे आकांक्षावान भारत के निर्माण में सहायक हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि आज के छात्र-युवा निराशा और अवसाद से भरे नहीं हैं। वे उम्मीदों से भरे हैं और एक समर्थ भारत के निर्माण में अपनी बौद्धिकता, रचनात्मकता, प्रश्नाकुलता, टेक्नालाजी के सार्थक उपयोग और नए आइडियाज के साथ प्रस्तुत हो रहे हैं। मैं इन युवाओं को बहुत उम्मीदों से देखता हूं। ये युवा ही देश को एक बार फिर उन्हीं उंचाइयों पर ले जाएंगें जिसका सपना हमारे राष्ट्रनायकों ने देखा था।

आप शिक्षा विशेषज्ञ भी हैं। नई शिक्षा नीति का हमारे समाज पर क्या दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। क्या हिंदी कभी राष्ट्रभाषा बन पाएगी?

नई शिक्षा नीति को मैं राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहना चाहूंगा। यह भारतबोध और जड़ों से जोड़ने वाली नीति है। यह हीनताबोध और लाचारी को समाप्त कर एक समर्थ भारत को बनाने वाला विचार है। भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने के साथ यह शिक्षा में क्रांतिकारी बदलावों को संभव कर सकती है। इससे भारत को ज्ञान आधारित महाशक्ति बनाने का रास्ता खुलेगा। गुणवत्ता, उत्कृष्टता और प्रौद्योगिकी के समन्वय से शिक्षा संपूर्ण बनेगी। यह शिक्षा नीति सिर्फ जानकारी नहीं देती बल्कि व्यक्तित्व निर्माण पर जोर देती है। सही मायने में यह युवाओं का सशक्तिकरण करने वाली शिक्षा है। यह एक लाचार और विकल पीढ़ी नहीं एक समर्थ पीढ़ी बनाएगी। समाज में अंग्रेजियत एक मूल्य की तरह स्थापित है, यह उससे मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास है। यह शिक्षा नीति शिक्षा और शोध में जो दूरी है उसे भी पाटना चाहती है। यह शिक्षा नीति नैतिक शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करेगी। व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से आपका जीवन सुरक्षित करती है वहीं पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से प्रकृति को संरक्षित करेगी। सही मायने में नई शिक्षा नीति भारत का भारत से परिचय कराने का महान उपक्रम है।

  जहां तक हिंदी की बात है, उसे समूचे भारतीय समाज में अपेक्षित सम्मान और स्वीकार्यता हासिल है। सिर्फ राजनीतिक कारणों से उसका विरोध होता है, इसका लाभ विरोध करने वाले भाषाभाषियों के बजाए अंग्रेजी को मिलता है। मुझे लगता है सामान्यजन ने ह्दय से हिंदी को स्वीकार कर लिया है। राजनीतिक कारणों से थोड़ा बहुत विरोध स्वाभाविक है। इससे हिंदी की अहमियत कम नहीं होती। यह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की भाषा रही है। महात्मा गांधी से लेकर चक्रवर्ती राजगोपालीचारी सबने हिंदी को स्वीकारा और इसे प्रचारित किया। नई शिक्षा नीति में इस भावना को रेखांकित करते हुए ही भाषाओं को रोजगार से जोड़ने की बात कही गयी है। साथ ही आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भारतीय भाषाओं की अकादमियों का निर्माण भी होगा।

हिंदी को दुनिया भर में स्थान मिल रहा है। हमारे प्रधानमंत्री विश्व भर में हिंदी में भाषण देते हैं। आज आप हिंदी को कहां देखते हैं?

मुझे लगता है कि हिंदी सहित हमारी सभी भारतीय भाषाएं आज विश्व भाषा बन चुकी हैं। उन्हें बोलने वालों की आबादी पर ध्यान दीजिए। भूगोल पर उनका विस्तार देखिए तो पता चलेगा कि बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, उर्दू, कन्नड़, असमिया जैसी हमारी सभी भारतीय भाषाएं सिर्फ भारत में ही नहीं समूचे ग्लोब पर उपस्थित हैं। उनका मीडिया, उनका साहित्य सब वेब माध्यमों से आज भूगोल की सीमाएं तोड़कर वैश्विक हो चुका है। हमारे प्रधानमंत्री गुजराती भाषी हैं किंतु हिंदी पर उनकी पकड़, अपनी राष्ट्रभाषा के लिए उनका आदर देखने और सीखने की चीज है। वे सच में भारत की जड़ों, उसकी अस्मिता को पहचानने और उसके मानबिंदुओं को आदर दिलाने के लिए संकल्पित हैं। उन-सी दृढ़ता, आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति ही एक राष्ट्रनायक से अपेक्षित होती है।

आप भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक हैं, जो भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण मीडिया प्रशिक्षण केंद्र है। आप क्या नया करने जा रहे हैं।

जन संचार का क्षेत्र बहुत व्यापक है। यहां बहुत कुछ करने की संभावनाएं हैं। इस डिजीटल समय की चुनौतियों के साथ योग्य संचारकों को तैयार करना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। इसके साथ ही हिंदी, अंग्रेजी सहित सभी भारतीय भाषाओं में योग्य संचारकों का प्रशिक्षण भी हमारी योजना है। अभी हम उड़िया, मलयालम, मराठी और उर्दू भाषा के पाठ्यक्रम चला रहे हैं। हमारी कोशिश होगी कि भारत की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए हम अपने संस्थान को विविध भारतीय भाषाओं के मीडिया प्रशिक्षण और शोध का केंद्र बना सकें। भारतीय भाषाओं में बहुत सार्मथ्य है, उनका मीडिया, साहित्य, रंगमंच, लोककलाएं, प्रदर्शन कलाएं सबसे सीखा जा सकता है। हमारा संस्थान भारतीय समाज और उसकी भाषाई अभिव्यक्तियों का ताकतवर मंच बन सके इसके लिए ज्यादा प्रयत्न करेंगें। हमारी कोशिश होगी कि नई शिक्षा नीति के माध्यम से जो विचार सामने आए हैं उन्हें अपने विचार में लेते हुए जन संचार शिक्षा में क्या हो सकता है इसका विमर्श करेंगें। जनसंचार शिक्षा का आर्दश पाठ्यक्रम क्या हो इस पर भी विचार होगा, एक बड़ा विमर्श आयोजित कर हम परिणामकेंद्रित कार्य करेगें।

क्या भारतीय जनसंचार संस्थान में भाषा और साहित्य विकास पर भी कुछ काम करेगा।  क्या संस्थान साहित्य लेखन पर भी कुछ पाठ्यक्रम चलाएगा।

देखिए हमारी विशेषज्ञता क्षेत्र जनसंचार और इससे जुड़ी विधाएं हैं। रचनात्मक लेखन भी उनमें से एक है। फीचर लेखन भी है। किंतु साहित्य से सीधी जुड़ी विधाओं में हमारी विशेषज्ञता नहीं है। यह काम विश्वविद्यालयों, महाविद्यालय के साहित्य और भाषा के विभागों का है। हमारे देश में हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के साहित्य के शिक्षण प्रशिक्षण का बहुत गंभीर काम हो रहा है। वह बड़ा और महत्व का काम है। जिस काम में अपनी दक्षता न हो, वह करना ठीक नहीं। हां भाषा के साथ हमारा रिश्ता है। क्योंकि हमें भी भाषा में ही व्यक्त होना है। उसके लिए हम अपेक्षित श्रम और प्रयास करते हैं कि हमारे संचारकों की भाषा प्रभावशाली हो, अभिव्यक्त में दिल तक उतर जाने का माद्दा हो।

(दैनिक जागरण के रविवारीय संस्करण झंकार में प्रकाशित, दिनांक-6 सितंबर,2020)

  

मानवता को एक सूत्र में जोड़ने वाले नायक हैं राम

 

विजयादशमी पर विशेष


-प्रो.संजय द्विवेदी

  इस विजयदशमी पर अयोध्या पहली बार बहुत खुश नजर आ रही है। क्योंकि उसके सबसे लायक बेटे भगवान श्री राम की जन्मभूमि का विवाद हल हुआ और अब वहां भव्य राममंदिर की तैयारियां हैं। निर्माण कार्य में गति है और जल्दी ही मंदिर का भव्य रूप हमारे सामने होगा। राम का समूचा जीवन संघर्ष की अनथक कथा है। इसी तरह राममंदिर का निर्माण भी एक अनथक संघर्ष का प्रतीक है। विजयादशमी के पर्व पर यह पलट कर देखना सुखद है कि किस तरह राम अपने घर लौटेगें। अयोध्या यानि वह भूमि जहां कभी युद्ध न हुआ हो। ऐसी भूमि पर कलयुग में एक लंबी लड़ाई चली और त्रेतायुग में पैदा हुए रघुकुल गौरव भगवान श्रीराम को आखिरकार छत नसीब होने वाली है।

     राजनीति कैसे साधारण विषयों को भी उलझाकर मुद्दे में तब्दील कर देती है, रामजन्मभूमि का विवाद इसका उदाहरण है। आजादी मिलने के समय सोमनाथ मंदिर के साथ ही यह विषय हल हो जाता तो कितना अच्छा होता। आक्रमणकारियों द्वारा भारत के मंदिरों के साथ क्या किया गया,यह छिपा हुआ तथ्य नहीं है। किंतु उन हजारों मंदिरों की जगह, अयोध्या की जन्मभूमि को नहीं रखा जा सकता। एक ऐतिहासिक अन्याय की परिणति आखिरकार ऐतिहासिक न्याय ही होता है। यह बहुत संतोष की बात है कि भारत की न्याय प्रक्रिया के तहत इस आए फैसले से इस मंदिर का निर्माण हो रहा है।

    देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस अर्थ में गौरवशाली हैं कि उनके कार्यकाल में इस विवाद का सौजन्यतापूर्ण हल निकल सका और मंदिर निर्माण का शुभारंभ हो सका। इस आंदोलन से जुड़े अनेक नायक आज दुनिया में नहीं हैं। उनकी स्मृति आती है। मुझे ध्यान है उप्र में कांग्रेस के नेता और मंत्री रहे श्री दाऊदयाल खन्ना ने मंदिर के मुद्दे को आठवें दशक में जोरशोर से उठाया था। उसके साथ ही श्री अशोक सिंहल जैसे नायक का आगमन हुआ और उन्होंने अपनी संगठन क्षमता से इस आंदोलन को जनांदोलन में बदल दिया। संत रामचंद्र परमहंस, महंत अवैद्यनाथ जैसे संत इस आंदोलन से जुड़े और समूचे देश में इसे लेकर एक भावभूमि बनी। तब से लेकर आजतक सरयू नदी ने अनेक जमावड़े और कारसेवा के प्रसंग देखे हैं। सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम फैसले के बाद जिस तरह का संयम हिंदू समाज ने दिखाया वह भी बहुत महत्त्व का विषय है। क्या ही अच्छा होता कि इस कार्य को साझी समझ से हल कर लिया जाता। किंतु राजनीतिक आग्रहों ने ऐसा होने नहीं दिया। कई बार जिदें कुछ देकर नहीं जातीं, भरोसा, सद्भाव और भाईचारे पर ग्रहण जरुर लगा देती हैं।  दुनिया के किसी देश में यह संभव नहीं है उसके आराध्य इतने लंबे समय तक मुकदमों का सामना करें।किंतु यह हुआ और सारी दुनिया ने इसे देखा। यह भारत के लोकतंत्र, उसके न्यायिक-सामाजिक मूल्यों की स्थापना का समय भी है। यह सिर्फ मंदिर नहीं है जन्मभूमि है हमें इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। विदेशी आक्रांताओं का मानस क्या रहा होगा, कहने की जरुरत नहीं है। किंतु हर भारतवासी का राम से रिश्ता है इसमें भी कोई दो राय नहीं है। वे हमारे प्रेरणापुरुष हैं, इतिहासपुरुष हैं और उनकी लोकव्याप्ति विस्मयकारी है। ऐसा लोकनायक न सदियों में हुआ है और न होगा। लोकजीवन में, साहित्य में, इतिहास में, भूगोल में, हमारी प्रदर्शनकलाओं में उनकी उपस्थिति बताती है राम किस तरह इस देश का जीवन हैं।

    राम का होना मर्यादाओं का होना है, रिश्तों का होना है, संवेदना का होना है, सामाजिक न्याय का होना है, करूणा का होना है। वे सही मायनों में भारतीयता के उच्चादर्शों को स्थापित करने वाले नायक हैं। उन्हें ईश्वर कहकर हम अपने से दूर करते हैं। जबकि एक मनुष्य के नाते उनकी उपस्थिति हमें अधिक प्रेरित करती है। एक आदर्श पुत्र, भाई, सखा, न्यायप्रिय नायक हर रुप में वे संपूर्ण हैं। उनके राजत्व में भी लोकतत्व और लोकतंत्र के मूल्य समाहित हैं। वे जीतते हैं किंतु हड़पते नहीं। सुग्रीव और विभीषण का राजतिलक करके वे उन मूल्यों की स्थापना करते हैं जो विश्वशांति के लिए जरुरी हैं। वे आक्रामणकारी और विध्वंशक नहीं है। वे देशों का भूगोल बदलने की आसुरी इच्छा से मुक्त हैं। वे मुक्त करते हैं बांधते नहीं। अयोध्या उनके मन में बसती है। इसलिए वे कह पाते हैं जननी जन्मभूमिश्य्च स्वर्गादपि गरीयसी। यानि जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। अपनी माटी के प्रति यह भाव प्रत्येक राष्ट्रप्रेमी नागरिक का भाव होना चाहिए। वे नियमों पर चलते हैं। अति होने पर ही शक्ति का आश्रय लेते हैं। उनमें अपार धीरज है। वे समुद्र की  तीन दिनों तक प्रार्थना करते हैं।

विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति

बोले राम सकोप तब भय बिनु होहिं न प्रीति।

यह उनके धैर्य का उच्चादर्श है। वे वाणी से, कृति से किसी को दुख नहीं देना चाहते हैं। वे चेहरे पर हमेशा मधुर मुस्कान रखते हैं। उनके घीरोदात्त नायक की छवि उन्हें बहुत अलग बनाती है। वे जनता के प्रति समर्पित हैं। इसलिए तुलसीदास जी रामराज की अप्रतिम छवि का वर्णन करते हैं-

                                       दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज काहुंहिं नहीं व्यापा।

राम ने जो आदर्श स्थापित किए उस पर चलना कठिन है। किंतु लोकमन में व्याप्त इस नायक को सबने अपना आदर्श माना। राम सबके हैं। वे कबीर के भी हैं, रहीम के भी हैं, वे गांधी के भी हैं, लोहिया के भी हैं। राम का चरित्र सबको बांधता है। अनेक रामायण और रामचरित पर लिखे गए महाकाव्य इसके उदाहरण हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त स्वयं लिखते हैं-

राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है

कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है।

  राम अपने जीवन की सरलता, संघर्ष और लोकजीवन से सहज रिश्तों के नाते कवियों और लेखकों के सहज आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनकी छवि अति मनभावन है। वे सबसे जुड़ते हैं, सबसे सहज हैं। उनका हर रूप, उनकी हर भूमिका इतनी मोहनी है कि कविता अपने आप फूटती है। किंतु सच तो यह है कि आज के कठिन समय में राम के आदर्शों पर चलता साधारण नहीं है। उनसी सहजता लेकर जीवन जीना कठिन है। वे सही मायनों में इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहे गए। उनका समूचा व्यक्तित्व राजपुत्र होने के बाद भी संघर्षों की अविरलता से बना है। वे कभी सुख और चैन के दिन कहां देख पाते हैं। वे लगातार युद्ध में हैं। घर में, परिवार में, ऋषियों के यज्ञों की रक्षा करते हुए, आसुरी शक्तियों से जूझते हुए, निजी जीवन में दुखों का सामना करते हुए, बालि और रावण जैसी सत्ताओं से टकराते हुए। वे अविचल हैं। योद्धा हैं। उनकी मुस्कान मलिन नहीं पड़ती। अयोध्या लौटकर वे सबसे पहले मां कैकेयी का आशीर्वाद लेते हैं। यह विराटता सरल नहीं है। पर राम ऐसे ही हैं। सहज-सरल और इस दुनिया के एक अबूझ से मनुष्य।

      राम भक्त वत्सल हैं, मित्र वत्सल हैं, प्रजा वत्सल हैं। उनकी एक जिंदगी में अनेक छवियां हैं। जिनसे सीखा जा सकता है। अयोध्या का मंदिर इन सद् विचारों, श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का प्रेरक बने। राम सबके हैं। सब राम के हैं। यह भाव प्रसारित हो तो देश जुड़ेगा। यह देश राम का है। इस देश के सभी नागरिक राम के ही वंशज हैं। हम सब उनके ही वैचारिक और वंशानुगत उत्तराधिकारी हैं, यह मानने से दायित्वबोध भी जागेगा, राम अपने से लगेगें। जब वे अपने से लगेगें तो उनके मूल्यों और उनकी विरासतों से मुंह मोड़ना कठिन होगा। सही मायनों में रामराज्य आएगा। कवि बाल्मीकि के राम, तुलसी के राम, गांधी के राम, कबीर के राम, लोहिया के राम, हम सबके राम हमारे मनों में होंगे। वे तब एक प्रतीकात्मक उपस्थिति भर नहीं होंगे, बल्कि तात्विक उपस्थिति भी होंगे। वे सामाजिक समरसता और ममता के प्रेरक भी बनेंगे और कर्ता भी। इसी में हमारी और इस देश की मुक्ति है।